मोक्षमार्ग का प्रकरण चल रहा था। आचार्य श्री जी ने कहा कि तत्त्वार्थसूत्र ग्रंथ में अपरिग्रह महाव्रत की पाँच भावनाएँ आई हैं "मनोज्ञामनोज्ञेन्द्रियविषयरागद्वेषवर्जनानि पञ्च” अर्थात् पंचेन्द्रिय के अच्छे एवं बुरे लगने वाले विषयों में राग-द्वेष का त्याग करना बतलाया है। "एक तरफ कुआँ एक तरफ खाई।" न राग कर सकते हो और न द्वेष कर सकते हो। यह सुनकर मैंने कहा- आचार्य श्री जी ऐसा कह सकते हैं कि- एक तरफ कुआँ एक तरफ खाई है, बीच में से निकल जा इसी में चतुराई है। सभी लोग हँसने लगे।
आचार्य श्री ने कहा- हाँ, एक तरफ कुआँ है, एक तरफ खाई है, बीच में साधु भाई है, बीच में से निकल जाने में ही चतुराई है। तब किसी ने कहा- आचार्य श्री जी यह तो बहुत कठिन काम है। आचार्य श्री ने कहा- प्रतिभा सम्पन्न छात्र सबसे पहले कठिन प्रश्न ही हल करता है। मोक्षमार्ग में न कुछ अच्छा लगना चाहिए और न कुछ बुरा लगना चाहिए, जो जैसा है उसे उसी रूप में स्वीकार करना चाहिए। सुगन्ध और दुर्गन्ध दोनों घ्राण इन्द्रिय के विषय हैं। सुगन्ध से राग और दुर्गन्ध से घृणा नहीं होना चाहिए।
आचार्य श्री जी ने उदाहरण देते हुए कहा कि- साइकिल के पहिए में हवा का बेलेंस होना चाहिए। यदि साइकिल के पहिए में हवा ज्यादा डाल दी तो साइकिल उछलने लगेगी और हवा कम कर दी तो ट्यूब कट जाता है। वस्तु स्वरूप न अच्छा है, न बुरा है। वह जैसा है सो है।