कषायों का प्रकरण चल रहा था। आचार्य श्री जी ने कहा कि राग-द्वेष, क्रोध आदि कषाय सांसारिक प्राणी दूसरों पर करता है। स्वयं पर नहीं करता और स्वयं के प्रति कषाय होती भी नहीं है। धर्मात्मा को हमेशा क्रोध, मान आदि कषायों से बचना चाहिए। मैंने आचार्य श्री जी से शंका व्यक्त करते हुए कहा कि- वैसे तो धर्मात्मा लोग कषाय से बचे रहते हैं, किन्तु आपसी कषाय से नहीं बच पाते। आपस में कषाय से बच सकें ऐसा उपाय बताने की कृपा करें। आचार्य श्री ने शंका का समाधान करते हुए कहा कि- कषाय से बचना चाहते हो तो एक सूत्र है- “दूसरे के बारे में मत सोचो। सहपाठी से बचो तो कषायें उद्वेलित नहीं होगी। उन्हें ध्यान का विषय मत बनाओ। अपने बारे में चिंतन करो, दूसरे के बारे में सोचो तो उसकी अच्छाई के बारे में सोचो। दूसरों के बारे में भूलकर भी बुरा नहीं सोचना चाहिए। दूसरों की बुराईयों को याद करते रहने से वह बुराईयाँ अपने मन पर हावी होने लगती हैं।
हमारी कषाय नौ कर्म (शरीरादि) को देखकर उद्वेलित हो जाती हैं। आचार्य श्री जी ने उदाहरण देते हुए कहा कि हमारे अंदर कषायों का वारूद भरा है, आग का सम्पर्को मिलते ही फूट पड़ता है। बिजली स्विच के अनुसार कार्य करती रहती है। करंट वही है, स्विच पंखे वाला दवाओ पंखा चलने लगेगा। हीटर, बल्ब जिसका चाहो उसका स्विच दबाकर काम ले सकते हो। वैसे ही परिणामों के अनुसार कषायों का उत्पन्न होने एवं फल देने का कार्य चलता रहता है। इसलिए दूसरे की गलती, बुराई, दोष आदि के बारे में न सोचे, क्योंकि यही निमित्त हैं जो हमारी कषायों को भड़का देते हैं।