आचार्य श्री जी से एक बार शंका व्यक्त करते हुए कहा कि क्या समाज को उपदेश देना प्रत्येक साधु को आवश्यक है। तब आचार्य श्री जी ने शंका का समाधान करते हुए कहा कि- नहीं, यदि साधु चौबीसों घंटे आत्मध्यान में लगा रहे तो अति उत्तम है। यदि ऐसा न कर सकें तो श्रावकों को धर्ममार्ग पर लगाने के लिए उपदेश अवश्य दें। मान लो आपने एक घंटा धर्म उपदेश दिया और पाँच हजार लोगों ने सुना। उसे यदि पाँच लोगों ने जीवन में उतार लिया। तो समझो एक घंटे में बहुत बड़ा काम हो गया लेकिन निःस्वार्थ भाव से होना चाहिए। धर्मोपदेश सुनने से प्रणियों का उत्साह बढ़ता है। और जिसका उत्साह कम हो रहा हो उसे प्रोत्साहन मिल जाता है। जैसे बुझते दीपक में यदि थोड़ा-सा तेल डाल देते हैं तो वह दीपक पुनः जलने लगता है। इसी प्रकार यह धर्मोपदेश भी तेल की भांति है जो बुझे हुए उत्साह को पुनः जीवित कर देता है।
स्वाध्याय को परम तप कहा है। इसीलिए कर्म निर्जरा चाहने वाले को स्वाध्याय तप स्वयं एवं दूसरों को अवश्य कराना चाहिए। पुनः शंका व्यक्त करते हुए कहा कि किसी को व्यक्तिगत भी उपदेश दे सकते हैं। तब आचार्य श्री ने कहा- जिस किसी को भी उपदेश नहीं देना चाहिए। चंचल व्यक्ति एवं अर्थ का अनर्थ निकालने वाले को कभी उपदेश नहीं देना चाहिए। जिसे आत्मकल्याण की भूख हो उसे ही उपदेश देना चाहिए। आचार्य श्री ने उदाहरण देते हुए कहा कि- जैसे रसोई घर में ऐसे बच्चों को प्रवेश दिया जाता है, जिन्हें अच्छी भूख लगी हो प्रज्ञावान को उपदेश देना चाहिए। प्रज्ञावान का अर्थ विद्वान नहीं होता बल्कि जो श्रद्धा के साथ धारण करें, अपनी प्रज्ञा के द्वारा पर पदार्थों को अपनी आत्मा से पृथक् जाने।
आचार्य श्री जी ने पुनः उदाहरण देते हुए कहा कि- आप लोग अक्षर ज्ञानी को प्रज्ञावान समझते हैं, जबकि ऐसा नहीं है। एक भील, धीवर आदि भी प्रज्ञावान निकले। मुनिराज के उपदेश से भील ने कौआ के मांस का तथा धीवर ने जाल में फंसने वाली पहली मछली का त्याग किया। अपना भव सुधार लिया एवं अगले भव में बड़े-बड़े पदों को प्राप्त किया।