जीव एवं कर्म सिद्धांत पर व्याख्यान करते हुए आचार्य श्री जी ने कहा कि- इस चेतन पदार्थ का पुद्गल के साथ ऐसा सम्बंध हो चुका है कि एकमेक जैसे हो गये हैं। इनको कैसे जुदा किया जा सकता है ऐसा प्रश्न प्रत्येक युवा पीढ़ी के अन्दर आता होगा? क्योंकि यह प्रश्न आए बिना नहीं रह सकता? आचार्य कहते हैं कि- कारण के बिना कार्य की सिद्धि नहीं होती जैसे बिना बीज के वृक्ष नहीं होता फल नहीं लगते। कर्म के पास ऐसी शक्ति है कि वह आत्मा को राग-द्वेष पैदा करा देते हैं और पुनः कर्म बन्ध होता है। ऐसा निमित्त-नैमित्तिक रूप से परम्परा चलती रहती है तो बीज के समान कर्म का भस्म करना आवश्यक है। आत्मा को शरीर से जुदा करने का यदि प्रयास प्रारंभ होता है तो सर्वप्रथम आत्मतत्त्व को मानना पड़ेगा। आत्मा पर किस का प्रभाव पड़ता है! जिनवाणी माँ कहती है कि- कर्म का प्रभाव आत्मा पर पड़ता है, लेकिन आप कहेंगे कि कर्म तो हमें दिखते नहीं हैं। सामने वाले का प्रभाव आत्मा पर पड़ता है। यदि ऐसा मानेंगे तो सामने वाले का आत्मा पर नियम रूप से प्रत्येक समय पड़ना चाहिए। लेकिन ऐसा देखा नहीं जाता।
कठपुतली का उदाहरण देते हुए आचार्य श्री ने कहा कि कठपुतली के खेल में डोर के एक छोर का सम्बंध कठपुतली के गले से रहता है और एक छोर का सम्बंध चेतन पदार्थ के साथ होता है। यह खेल दिमाग के द्वारा होता है- इस खेल में बहुत रहस्य भरा है? लोग इस खेल को मात्र देखते हैं लेकिन रहस्या नहीं समझ पाते कि यह खेल दिमाग से हो रहा है या कठपुतली से। सारे संसार का रहस्य इस खेल में समाहित है- इसी प्रकार भिमाग के द्वारा ही इस शरीर से क्रिया होती है दिमाग के बिना कोई भी क्रिया शरीर से नहीं होती और वह दिमाग कौन है? चैतन्य पदार्थ डोरी के बिना जिस प्रकार कठपुतली खेल नहीं कर सकती उसी प्रकार उस चेतन पदार्थ के निकल जाने से इस साढ़े तीन हाथ का पुतला कोई क्रिया नहीं करता है। तो वह चेतन पदार्थ कौन-कहाँ से आता है क्यों आता है, कब आता और कब चला जाता है? इसका विचार करना परम आवश्यक है। यह सारा का सारा दृश्य एक दिन विलीन हो जाने वाला है। इसको आप मानते तो हैं, लेकिन इनडायरेक्ट मानने है डॉयरेक्ट रूप से मानने के लिए आप तैयार नहीं होते हैं। जो व्यक्ति इस रहस्य को समझ लेता है कि एक दिन सारा दृश्य विलीन हो जाने वाला है। वह निश्चित ही अपना जीवन सफल कर लेता है और कुछ काम करके सुख प्राप्त कर लेता है लेकिन जो इस रहस्य को नहीं समझता वह इस संसार में दुःख पाता है। आत्मा-शरीर का सम्बंध मोह से है।
कर्म रूपी डोर है, शरीर कठपुतली है, चेतन इस डोर को पकड़ने वाला है। इस खेल को हम प्रत्येक समय देख रहे हैं। संसार में कुछ नहीं है, केवल एक मात्र माया है। यह कथंचित सही है, क्योंकि जो कार्मण शरीर है वह मूर्तिक होते हुए भी देखने में नहीं आता फिर आत्मा तो बहुत दूर की बात है। किस प्रकार बाहरी पदार्थों का प्रभाव हमारे उपयोग पर पड़ता है इसको जानना आवश्यक है। उस अमूर्त आत्मा का अवलोकन तभी हो सकता है जब हम उन महान् आत्माओं के दर्शन करते हैं, जिन्होंने स्वरूप का अवलोकन किया है तो हम भी उनको देखकर स्वरूपस्थ हो जाते हैं और इस प्रकार स्वरूपस्थ हो जाते हैं कि फिर बाहर आना पंसद नहीं आता। यदि हम अपने उपयोग को अन्दर ले जाते हैं तो बाहरी पदार्थों का प्रभाव नहीं पड़ सकता। बाहर उपयोग जाने पर ही बाह्य पदार्थों का प्रभाव उस पर पड़ता ही है।