ये पीत, पद्म शशि शुक्ल सुलेश्यकायें, हैं धर्म ध्यान रत आतम की दशायें।
औ उत्तरोत्तर सुनिर्मल भी रही हैं, मन्दादि भेद इनके मिलते कई हैं ॥५३१॥
होती कषाय-वश योग-प्रवृत्ति लेश्या, है लूटती निधि सभी जिस भाँति वेश्या।
जो कर्मबन्ध जग चार प्रकार का है, हे मित्र! कार्य वह योग-कषाय का है ॥५३२॥
हैं कृष्ण नीलम कपोत कुलेश्यकायें, हैं पीत पद्म सित तीन सुलेश्यकायें।
लेश्या कही समय में छह भेद वाली, ज्यों ही मिटी समझ लो मिटती भवाली ॥५३३॥
मानी गई अशुभ आदिम लेश्यकायें, तीनों अधर्म-मय हैं दुख आपदायें।
आत्मा इन्हीं वश दुखी बनता वृथा है, पापी बना, कुगति जा सहसा व्यथा है ॥५३४॥
हैं तीन धर्ममय अंतिम लेश्यकायें, मानी गई शुभ सुधा सुख सम्पदायें।
ये जीव को सुगति में सब भेजतीं हैं, वे धारते नित इन्हें जग में व्रती हैं ॥५३५॥
हैं तीव्र, तीव्रतर, तीव्रतमा कुलेश्या, हैं मन्द, मन्दतर, मन्दतमा सुलेश्या।
भाई! तथैव छह थान विनाश वृद्धि, प्रत्येक में वरतती इनमें, सुबुद्धि ॥५३६॥
भूले हुए पथिक थे पथ को मुधा से, थे आर्त पीड़ित छहों वन में क्षुधा से।
देखा रसाल तरु फूल-फलों लदा था, मानो उन्हें कि अशनार्थ बुला रहा था।
आमूल, स्कन्ध, टहनी झट काट डालें, औ तोड़-तोड़ फल-फूल रसाल खा लें।
यों तीन दीन क्रमशः धरते कुलेश्या, हैं सोचते कह रहे कर संकलेशा ॥५३७॥
है एक गुच्छ-भर को इक पक्व दाता, तोड़े बिना पतित को इक मात्र खाता।
यों शेष तीन क्रमशः धरते सुलेश्या, लेश्या उदाहरण ये कहते जिनेशा ॥५३८॥
ये क्रूरता अतिदुराग्रह दुष्टतायें, सद्धर्म को विकलता अदया दशायें।
वैरत्व औ कलह भाव विभाव सारे, हैं ‘कृष्ण' के दुखद लक्षण, साधु टारें ॥५३९॥
अज्ञानता विषय की अतिगृद्धतायें, सद्बुद्धि की विकलता मतिमन्दतायें।
संक्षेप में समझ, लक्षण 'नील' के हैं, ऐसे कहें, श्रमण आलय शील के हैं ॥५४०॥
अत्यन्त शोक करना भयभीत होना, कर्त्तव्यमूढ़ बनना झट रुष्ट होना।
दोषी न निन्द्य पर को कहना बताना, ‘कापोत' भाव सब ये इनको हटाना ॥५४१॥
आदेय, हेय अहिताहित-बोध होना, संसारि-प्राणि भर में समभाव होना।
दानी तथा सदय हो पर दु:ख खोना, ये ‘पीत' लक्षण इन्हें तुम धार लो ना ॥५४२॥
हो त्याग-भाव, नयता व्यवहार में हो, औ भद्रता, सरलता, उर कार्य में हो।
कर्त्तव्य मान करना गुरुभक्ति सेवा, ये ‘पद्म' लक्षण क्षमा धर लो सदैवा ॥५४३॥
भोगाभिलाष मन में न कदापि लाना, औ देह-नेह रति-रोषन को हटाना।
ना पक्षपात करना, समता सभी में, ये ‘शुक्ल' लक्षण मिलें मुनि में सुधी में ॥५४४॥
आ जाय शुद्धि परिणाम मन में जभी से, लेश्या विशुद्ध बनती, सहसा तभी से।
काषाय मन्द पड़ जाय अशांतिदायी, हो जाय आत्म-परिणाम विशुद्ध भाई ॥५४५॥
Edited by संयम स्वर्ण महोत्सव