द्रव्यांश को विषय है अपना बनाता, होता विकल्प श्रुत धारक का सुहाता।
माना गया ‘नय' वही श्रुत भेद प्यारा, ज्ञानी वही कि जिसने नय-ज्ञान-धारा ॥६९०॥
एकान्त को यदि पराजित है कराना, भाई तुम्हें प्रथम है 'नय’-ज्ञान पाना।
स्याद्वाद-बोध 'नय' के बिन ना निहाला,चाबी बिना नहिं खुले गृह-द्वार-ताला ॥६९१॥
ज्यों चाहता वृष बिना ‘जड़' मोक्ष जाना, किंवा तृषी जल बिना ही तृषा बुझाना।
त्यों वस्तु को समझना नय के बिना ही, है चाहता अबुध ही भव-राह राही ॥६९२॥
तीर्थेश का वचन सार द्विधा कहाता, ‘सामान्य' आदिम द्वितीय 'विशेष' भाता।
दो द्रव्य पर्ययतया नय हैं उन्हीं के, ये ही यथाक्रम विवेचक भद्र दीखे।
भेदोपभेद इनके नय शेष जो भी, तू जान ईदृश सदा तज लोभ लोभी ॥६९३॥
सामान्य को विषय है नय जो बनाता, तो शून्य ही वह 'विशेष' उसे दिखाता।
जो जानता नय सदैव विशेष को है, सामान्य शून्य दिखता सहसा उसे है ॥६९४॥
द्रव्यार्थिकी नय सदा इस भाँति गाता, है द्रव्य तो ध्रुव त्रिकाल अबाध भाता।
पै द्रव्य है उदित होकर नष्ट होता, पर्याय-आर्थिक सदा इस भाँति रोता ॥६९५॥
द्रव्यार्थि के नयन में सब द्रव्य आते, पर्याय-अर्थिवश पर्यय-मात्र भाते।
‘एक्स्त्रे' हमें हृदय अन्दर का दिखाता, तो 'केमरा' शकल ऊपर की बताता ॥६९६॥
पर्याय गौण कर द्रव्यन को जनाता, द्रव्यार्थिकी नय वही जग में कहाता।
जो द्रव्य गौण कर पर्यय को जनाता, पर्याय-आर्थिक वही यह शास्त्र गाता ॥६९७॥
जो शास्त्र में कथित नैगम, संग्रहा रे! है व्यावहार, ऋजु-सूत्र सशब्द प्यारे।
एवंभुता समभिरूढ़ उन्हीं द्वयों के, हैं भेद मूल ‘नय' सात, विवाद रोकें ॥६९८॥
द्रव्यार्थिकी सुनय आदिम तीन प्यारे, पर्याय-आर्थिक रहें अवशेष सारे।
हैं चार आदिम पदार्थ प्रधान जानो, हैं शेष तीन नय शब्द प्रधान मानो ॥६९९॥
सामान्य ज्ञान इतरोभय रूप ज्ञान, प्रख्यात नैकविध है अनुमान मान।
जानें इन्हें सुनय नैगम है कहाता, मानो उसे ‘नयिक ज्ञान' अतः सुहाता ॥७००॥
जो भूत कार्य इस सांप्रत से जुड़ाना, है भूत नैगम वही गुरु का बताना।
वर्षों पुरा शिव गए युग वीर प्यारे, मानें तथापि हम 'आज ऊषा' पधारें ॥७०१॥
प्रारम्भ कार्य भर को जन पूछने से, ‘पूरा हुआ' कि कहना सहसा मजे से।
ओ वर्तमान नय नैगम नाम पाता, ज्यों पाक के समय ही बस भात भाता ॥७०२॥
होगा, अभी नहिं हुआ फिर भी बताना, लो! कार्य पूरण हुआ रट यों लगाना।
भावी ‘सुनैगम यही समझो सुजाना, जैसा उगा रवि न किन्तु उगा बताना ॥७०३॥
कोई विरोध बिन आपस में प्रबुद्ध, सत् रूप से सकल को गहता ‘विशुद्ध'।
जात्येक-भेद गहता उनमें ‘अशुद्ध', यों है द्विधा ‘सुनय-संग्रह' पूर्ण सिद्ध ॥७०४॥
संप्राप्त संग्रहतया द्विविधा पदार्थ, जो है प्रभेद करता उसका यथार्थ।
ओ 'व्यावहार-नय' भी द्विविधा, स्ववेदी, ‘शुद्धार्थ भेदक' अशुद्ध पदार्थ-भेदी ॥७०५॥
जो द्रव्य में ध्रुव नहीं पल आयुवाली, पर्याय हो 'वियत में बिजली निराली।
जाने उसे कि 'ऋजु-सूत्र' सुसूक्ष्म भाता, होता यथा क्षणिक शब्द सुनो सुहाता ॥७०६॥
देवादिपर्यय निजी स्थिति लौं सुहाता, जो देव-रूप उसको तब लौं जनाता।
तू मान स्थूल ‘ऋजु-सूत्र' वही कहाता, ऐसा यहाँ श्रमण-सूत्र हमें बताता ॥७०७॥
जो द्रव्य का कथन है करता, बुलाता, आह्वान शब्द वह है जग में सुहाता।
तत्-शब्द-अर्थ-भरको नय को गहाता,ओ हेतु ‘तुल्य-नय शब्द' अत: कहाता ॥७०८॥
एकार्थ के वचन में वच लिंग भेद, है देख ‘शब्दनय' ही करताऽर्थ भेद।
पुल्लिग में वतिय-लिंगन में सुचारा, ज्यों पुष्य शब्द बनता ‘नख-छत्र तारा' ॥७०९॥
जो शब्द व्याकरण-सिद्ध, सदा उसी में, होता तदर्थ अभिरूढ़ न औ किसी में।
स्वीकारना बस उसे उस शब्द द्वारा, है मात्र ‘शब्दनय' का वह काम सारा।
ज्यों देव शब्द सुन आशय ‘देव' लेना, भाई तदर्थ गहना तज शेष देना ॥७१०॥
प्रत्येक शब्द अभिरूढ़ स्व-अर्थ में हो, प्रत्येक अर्थ अभिरूढ़ स्वशब्द में हो।
है मानता ‘समभिरूढ' सदैव ऐसे, ये शब्द इन्दर, पुरन्दर, शक्र जैसे ॥७११॥
शब्दार्थ रूप अभिरूढ़ पदार्थ ‘भूत’, शब्दार्थ से स्खलित अर्थ अतः ‘अभूत'।
‘एवंभुता सुनय' है इस भाँति गाता, शब्दार्थ तत् पर विशेष अतः कहाता ॥७१२॥
जो-जो क्रिया जन तनादितया करें ओ! तत्-तत् क्रिया गमक शब्द निरे-निरे- हो।
‘एवंभुता नय' अतः उस शब्द का है, सम्यक् प्रयोग करता जब काम का है।
जैसा सुसाधु रत साधन में सही हो, स्तोता तभी कर रहा स्तुति स्तुत्य की हो ॥७१३॥