‘ईर्या' रही समिति आद्य द्वितीय 'भाषा', तीजी ‘गवेषण' धरे नश जाय आशा।
‘आदान निक्षिपण'-पुण्यनिधान चौथा, व्युत्सर्ग' पंचम रही सुन भव्य श्रोता।
कायादि भेद वश भी त्रय गुप्तियाँ हैं, ये गुप्तियाँ समितियाँ जननी-समा हैं ॥३८४॥
माता स्वकीय सुत की जिस भाँति रक्षा, कर्त्तव्य मान करती, बन पूर्ण दक्षा,
गुप्त्यादि अष्ट जननी उस भाँति सारी, रक्षा सुरत्नत्रय की करती हमारी ॥३८५॥
निर्दोष से चरित पालन पोषनार्थ, उल्लेखिता समितियाँ गुरु से यथार्थ,
ये गुप्तियाँ इसलिये गुरु ने बताईं, काषायिकी परिणती मिट जाय भाई! ॥३८६॥
निर्दोष गुप्तित्रय पालक साधु जैसे, निर्दोष हो समितिपालक ठीक वैसे।
वे तो अगुप्ति भव-मानस-मैल धोते, ये जागते समिति-जात प्रमाद खोते ॥३८७॥
जी जाय जीव अथवा मर जाय हिंसा, ना पालना समितियाँ बन जाय हिंसा।
होती रहे वह भले कुछ बाह्य हिंसा, तू पालता समितियाँ पलती अहिंसा ॥३८८॥
जो पालते समितियाँ, तब द्रव्य-हिंसा, होती रहे, पर कदापि न भाव-हिंसा।
होती असंयमतया वह भाव हिंसा, हो जीव का न वध, पै बन जाय हिंसा ॥३८९॥
हिंसा द्विधा सतत वे करते कराते, जो मत्त संयत असंयत हैं कहाते।
पै अप्रमत्त मुनि धार द्विधा अहिंसा, होते गुणाकर, कहँ उनकी प्रशंसा ॥३९०॥
आता यती समिति से उठ बैठ जाता, भाई तदा यदि मनो मर जीव जाता।
साधू तथापि नहिं है अघकर्म पाता, दोषी न हिंसक, ‘अहिंसक' ही कहाता ॥३९१॥
संमोह को तुम परिग्रह नित्य मानो, हिंसा प्रमाद भर को सहसा पिछानो।
अध्यात्म आगम अहो इस भॉति गाता, भव्यात्म को सतत शान्ति सुधा पिलाता ॥३९२॥
ज्यों पद्मिनी वह सचिक्कण पत्रवाली, हो नीर में न सड़ती रहती निराली।
त्यों साधु भी समितियाँ जब पालता है, ना पाप-लिप्त बनता सुख साधता है ॥३९३॥
आचार हो समितिपूर्वक दुःख-हर्ता, है धर्म-वर्धक तथा सुख-शान्ति-कर्ता।
है धर्म का जनक चालक भी वही है, धारो उसे मुकति की मिलती मही है ॥३९४॥
आता यती विचरता, उठ बैठ जाता, हो सावधान तन को निशि में सुलाता।
औ, बोलता,अशन एषण साथ पाता, तो पाप-कर्म उसके नहि पास आता ॥३९५॥
हो मार्ग प्रासुक, न जीव विराधना हो, जो चार हाथ पथ पूर्ण निहारना हो।
ले स्वीय कार्य कुछ पै दिन में चलोगे, ‘ईर्यामयी समिति' को तब पा सकोगे ॥३९६॥
संसार के विषय में मन ना लगाना, स्वाध्याय पंच विध ना करना कराना।
एकाग्र चित्त करके चलना जभी हो, ईर्या सही समिति है पलती तभी ओ ॥३९७॥
हों जा रहे पशु यदा जल भोज पाने, जाओ न सन्निकट भी उनके सयाने।
हे साधु! ताकि तुमसे भय वे न पावें, जो यत्र तत्र भय से नहिं भाग जावें ॥३९८॥
आत्मार्थ या निजपरार्थ परार्थ साधु, निस्सार भाषण करे न, स्वधर्म स्वादु।
बोले नहीं वचन हिंसक मर्म-भेदी, 'भाषामयी समिति' पालक आत्म-वेदी ॥३९९॥
बोलो न कर्ण कटु निंद्य कठोर भाषा, पावे न ताकि जग जीव कदापि त्रासा।
हो पाप-बन्ध वह सत्य कभी न बोलो, घोलो सुधा न विष में, निज नेत्र खोलो ॥४००॥
हो एक नेत्र नर को कहना न काना, औ चोर को कुटिल चोर नहीं बताना।
या रुग्ण को तुम न रुग्ण कभी कहो रे! ना! ना! नपुंसक नपुंसक को कहो रे ॥४०१॥
साधू करे न परनिंदन आत्म-शंसा, बोले न हास्य, कटु-कर्कश-पूर्ण भाषा।
स्वामी! करे न विकथा, मितमिष्ट बोले, 'भाषामयी समिति' में नित ले हिलोरें ॥४०२॥
हो स्पष्ट, हो विशद, संशयनाशिनी हो, हो श्राव्य भी सहज हो सुखकारिणी हो।
माधुर्य-पूर्ण मित मार्दव-सार्थ-भाषा, बोले महामुनि, मिले जिससे प्रकाशा ॥४०३॥
जो चाहता न फल दुर्लभ भव्य दाता, साधू अयाचक यहाँ बिरला दिखाता।
दोनों नितान्त द्रुत ही निजधाम जाते, विश्रान्त हो सहज में सुख शान्ति पाते ॥४०४॥
उत्पादना-अशन-उद्गम दोष हीन, आवास अन्न शयनादिक ले, स्वलीन।
वे एषणा समिति साधक साधु प्यारे, हो कोटिशः नमन ये उनको हमारे ॥४०५॥
आस्वाद प्राप्त करने बल कान्ति पाने, लेते नहीं अशन जीवन को बढ़ाने।
पै साधु ध्यान तप संयम बोध पाने, लेते अतः अशन अल्प अये! सयाने ॥४०६॥
गाना सुना गुण गुणा गण षट् पदों का, पीता पराग रस फूल-फलों दलों का।
देता परन्तु उनको न कदापि पीड़ा, होता सुतृप्त, करता दिन-रैन क्रीड़ा ॥४०७॥
दाता यथा-विधि यथाबल दान देते, देते बिना दुख उन्हें मुनि दान लेते।
यों साधु भी भ्रमर से मृदुता निभाते, वे ‘एषणा समिति' पालक हैं कहाते ॥४०८॥
उद्दिष्ट, प्रासुक भले, यदि अन्न लेते, वे साधु, दोष मल में व्रत फेंक देते।
उद्दिष्ट भोजन मिले, मुनि वीतरागी, शास्त्रानुसार यदि ले, नहिं दोष भागी ॥४०९॥
जो देखभाल, कर मार्जन पिच्छिका से, शास्त्रादि वस्तु रखना, गहना दया से।
‘आदान निक्षिपण' है समिती कहाती, पाले उसे सतत साधु, सुखी बनाती ॥४१०॥
एकान्त हो विजन विस्तृत ना विरोध, सम्यक् जहाँ बन सके त्रसजीव शोध।
ऐसा अचित्त थल पै मलमूत्र त्यागे, ‘व्युत्सर्गरूप-समिती' गह साधु जागे ॥४११॥
आरम्भ में न समरम्भन में लगाना, संसार के विषय से मन को हटाना।
होती तभी 'मनसगुप्ति' सुमुक्तिदात्री, ऐसा कहें श्रमण श्री-जिनशास्त्र-शास्त्री ॥४१२॥
आरम्भ में न समरम्भन में लगाते, सावद्य से वचन योग यती हटाते।
होती तभी 'वचन-गुप्ति' सुखी बनाती, कैवल्य ज्योति झट से जब जो जगाती ॥४१३॥
आरम्भ में न समरम्भन में लगाते, ना काय योग अघ कर्दम में फसाते।
ओ ‘कायगुप्ति', जड़ कर्म विनाशती है, विज्ञान-पंकज-निकाय विकासती हैं॥४१४॥
प्राकार ज्यों नगर की करता सुरक्षा, किंवा सुवाड़ कृषि की करती सुरक्षा।
त्यों गुप्तियाँ परम पंच महाव्रतों की, रक्षा सदैव करतीं मुनि के गुणों की ॥४१५॥
जो गुप्तियाँ समितियाँ नित पालते हैं, सम्यक्तया स्वयं को ऋषि जानते हैं।
वे शीघ्र बोध बल दर्शन धारते हैं, संसार सागर किनार निहारते हैं ॥४१६॥