भाई सुनो तन अचेतन दिव्य नौका, तो जीव नाविक सचेतन है अनोखा।
संसार-सागर रहा दुख पूर्ण खारा, हैं तैरते ऋषि-महर्षि जिसे सुचारा ॥५६७॥
है लक्ष्य बिन्दु यदि शाश्वत सौख्य पाना, जाना मना विषय में मन को घुलाना।
दे देह को उचित वेतन तू सयाने, पाने स्वकीय सुख को, विधि को मिटाने ॥५६८॥
क्या धीर, कापुरुष, कायर क्या विचारा, हो काल का कवल लोक नितान्त सारा।
है मृत्यु का यह नियोग, नहीं टलेगा, तो धैर्य धार मरना, शिव जो मिलेगा ॥५६९॥
ओ एक ही मरण है मुनि पंडितों का, है आशु नाश करता शतशः भवों का।
ऐसा अतः मरण हो जिससे तुम्हारा, जो बार-बार मरना, मर जाय सारा ॥५७०॥
पाण्डित्य-पूर्ण मृति, पण्डित साधु पाता, निर्धान्त हो अभय हो भय को हटाता।
तो एक साथ मरणोदधिपूर्ण पीता, मृत्युंजयी बन तभी चिरकाल जीता ॥५७१॥
वे साधु पाश समझे लघु दोष को भी, हो दोष ताकि न, चले रख होश को भी।
सद्धर्म और सधने तन को संभालें, हो जीर्ण-शीर्ण तन, त्याग स्वगीत गा लें ॥५७२॥
दुर्वार रोग तन में न जरा घिरी हो, बाधा पवित्र व्रत में नहिं आ परी हो।
तो देह-त्याग न करो, फिर भी करोगे, साधुत्व त्याग करके, भव में फिरोगे ॥५७३॥
‘सल्लेखना' सुखद है सुख है सुधा है, जो अंतरंग-बहिरंग-तया द्विधा है।
आद्या, कषाय क्रमशः कृश ही कराना, है दूसरी बिन व्यथा तन को सुखाना ॥५७४॥
काषायिकी परिणती सहसा हटाते, आहार अल्प कर लें क्रमशः घटाते।
सल्लेखना व्रत सुधारक रुग्ण हों वे, तो पूर्ण अन्न तज दें, अति अल्प सोवें ॥५७५॥
एकान्त प्रासुक धरा, तृण की चटाई, संन्यस्त के मृदुल संस्तर ये न भाई।
आदर्श तुल्य जिसका मन हो उजाला, आत्मा हि संस्तर रहा उसका निहाला ॥५७६॥
हाला तथा कुपित नाग कराल काला, या भूत, यंत्र, विष निर्मित बाण भाला।
होते अनिष्ट उतने न प्रमादियों के, निम्नोक्त भाव जितने शठ साधुओं के ॥५७७॥
सल्लेखना समय में तजते न माया, मिथ्या-निदान त्रय को मन में जमाया।
वे साधु आशु नहिं दुर्लभ बोधि पाते, पाते अनन्त दुख ही भव को बढ़ाते ॥५७८॥
मायादि-शल्य-त्रय ही भव-वृक्ष-मूल, काटें उसे मुनि सुधी अभिमान भूल।
ऐसे मुनीश पद में नतमाथ होऊँ, पाऊँ पवित्र पद को शिवनाथ होऊँ ॥५७९॥
भोगाभिलाष समवेत कुकृष्णलेश्या, हो मृत्यु के समय में जिसको जिनेशा।
मिथ्यात्व कर्दम फँसा उस जीव को ही, हो बोधि दुर्लभतया, तज मोह मोही ॥५८०॥
प्राणांत के समय में शुचि शुक्ल लेश्या, जो धारता, तज नितान्त दुरन्त क्लेशा।
सम्यक्त्व में निरत नित्य,निदान त्यागी, पाता वही सहज बोधि बना विरागी ॥५८१॥
सद्बोधी की यदि तुम्हें चिर कामना हो, ज्ञानादि की सतत सादर साधना हो।
अभ्यास रत्नत्रय का करता, उसी को, आराधना वरण है करती सुधी को ॥५८२॥
ज्यों सीखता प्रथम, राजकुमार नाना- विद्या कला, असि-गदादिक को चलाना।
पश्चात् वही कुशलता बल योग्य पाता, तो धीर जीत रिपु को, जय लूट लाता ॥५८३॥
अभ्यास भूरि करता शुभ ध्यान का है, लेता सदैव यदि माध्यम साम्य का है।
तो साधु का सहज हो मन शान्त जाता, प्राणान्त के समय ध्यान नितान्त पाता ॥५८४॥
ध्याओ निजातम सदा निज को निहारो, अन्यत्र, छोड़ निज को, न करो विहारो।
संबंध मोक्ष-पथ से अविलम्ब जोड़ो, तो आपको नमन हो मम ये करोड़ों ॥५८५॥
साधु करे न मृति जीवन की चिकित्सा, ना पारलौकिक न लौकिक भोगलिप्सा।
‘सल्लेखना' समय में बस साम्य धारें, संसार का अशुभ ही फल यों विचारें ॥५८६॥
लेना निजाश्रय सुनिश्चिय मोक्ष-दाता, होता पराश्रय दुरन्त अशान्ति-धाता।
शुद्धात्म में इसलिए रुचि हो तुम्हारी, देहादि में अरुचि ही शिव-सौख्यकारी ॥५८७॥
दोहा
‘मोक्षमार्ग' पर नित चलो, दुख मिट सुख मिल जाय।
परम सुगन्धित ज्ञान की, मृदुल कली खिल जाय ॥