उद्बोध प्राप्त कर लो गुरु गीत गा लो, जीतो क्षुधा, विषय से मन को बचा लो।
निद्राजयी बन दृढ़ासन को लगालो,पश्चात् सभी तुम निजातम ध्यान पालो ॥२८८॥
संपूर्ण ज्ञान-मय ज्योति शिखा जलेगी, अज्ञान मोह-तम रात तभी मिटेगी।
हो नष्ट रागरति रोषमयी प्रणाली, उत्कृष्ट सौख्य मिलता, मिटती भवाली ॥२८९॥
दुःसंग से बच जिनागम चित्त देना, एकांत वास करना धृति धार लेना।
सूत्रार्थ चिंतन तथा गुरु-वृद्ध सेवा, ये ही उपाय शिव के मिल जाय मेवा ॥२९०॥
हो चाहते मुनि पुनीत समाधि पाना, साथी, व्रती श्रमण या बुध को बनाना।
एकांतवास करना भय त्याग देना, शास्त्रानुसार मित भोजन मात्र लेना ॥२९१॥
जो अल्प, शुद्ध, तप वर्धक अन्न लेते, क्या वैद्य औषध उन्हें कुछ काम देते।
ना गृद्धता अशन में रखते न लिप्सा, वे वैद्य हो, कर रहे अपनी चिकित्सा ॥२९२॥
प्रायः अतीव रससेवन हानिकारी, उन्मत्तता उछलती उससे विकारी।
पक्षी समूह, फल-फूल लदे द्रुमों को, ज्यों कष्ट दें, मदन त्यों विषयी जनों को ॥२९३॥
जो सर्व-इन्द्रिय जयी मित भोज पाते, एकांत में शयन आसन भी लगाते।
रागादि दोष, उनको लख काँप जाते, पीते दवा उचित, रोग विनाश पाते ॥२९४॥
आ, व्याधियाँ न जब लौं तुमको सताती, आती जरा न जब लौं तन को सुखाती।
ना इन्द्रियाँ शिथिल हों जब लौं तुम्हारी, धारो स्वधर्म तब लौं शिव सौख्यकारी ॥२९५॥