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नव आचार्य श्री समय सागर जी को करें भावंजली अर्पित ×
अंतरराष्ट्रीय मूकमाटी प्रश्न प्रतियोगिता 1 से 5 जून 2024 ×
मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज
  • (२९) ध्यान सूत्र

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    ज्यों मूल, मुख्य द्रुम में जग में कहाता, या देह में प्रमुख मस्तक है सुहाता।

    त्यों ध्यान ही प्रमुख है मुनि के गुणों में, धर्मों तथा सकल आचरणों व्रतों में ॥४८४॥

     

    सद्ध्यान है मनस की स्थिरता सुधा है, तो चित्त की चपलता त्रिवली त्रिधा है।

    चिन्ताऽनुप्रेक्ष क्रमशः वह भावना है, तीनों मिटें बस यही मम कामना है ॥४८५॥

     

    ज्यों नीर में लवण है गल लीन होता, योगी समाधि सर में लवलीन होता।

    अध्यात्मिका धधकती फलरूप ज्वाला, है नाशती द्रुत शुभाशुभ कर्म शाला ॥४८६॥

     

    व्यापार योगत्रय का जिसने हटाया, संमोह राग रति रोषन को नशाया।

    ध्यानाग्नि दीप्त उसमें उठती दिखाती, है राख खाख करती विधि को मिटाती ॥४८७॥

     

    बैठे करे स्वमुख उत्तर पूर्व में वा, ध्याता सुधी, स्थित सुखासन में सदैवा।

    आदर्श-सा विमल चारित काय वाला, पीता समाधि-रस पूरित पेय प्याला ॥४८८॥

     

    पल्यंक आसन लगाकर आत्म ध्याता, नासाग्र को विषय लोचन का बनाता।

    व्यापार योग त्रय का कर बंद ज्ञानी, उच्छ्वास श्वास गति मंद करें अमानी ॥४८९॥

     

    गर्हा दुराचरण की अपनी करो रे! माँगो क्षमा जगत से मन मार लो रे!

    हो अप्रमत्त तबलों निज आत्म ध्याओ, प्राचीन कर्म जब लौं तुम ना हटाओ ॥४९०॥

     

    निस्पंद योग जिसके, मन मोद पाता- सद्ध्यान लीन, नहिं बाहर भूल जाता।

    ध्यानार्थ ग्राम पुर हो, वन-काननी हो, दोनों समान उसको, समता धनी हो ॥४९१॥

     

    पीना समाधि-रस को यदि चाहते हो, जीना युगों युगयुगों तक चाहते हो।

    अच्छे बुरे विषय ऐंद्रिक हैं तथापि, ना रोष-तोष करना, उनमें कदापि ॥४९२॥

     

    निस्संग है निडर नित्य निरीह त्यागी, वैराग्य-भाव परिपूरित है विरागी।

    वैचित्र्य भी विदित है भव का जिन्हों को, वे ध्यान-लीन रहते, भजते गुणों को ॥४९३॥

     

    आत्मा अनंत दृग, केवल-बोध-धारी, आकार से पुरुष शाश्वत सौख्यकारी।

    योगी नितान्त उसका उर ध्यान लाता, निर्द्वन्द्व पूर्ण बनता अघ को हटाता ॥४९४॥

     

    आत्मा तना तन, निकेतन में अपापी, योगी उसे पृथक से लखते तथापि।

    संयोग-जन्य तन आदि उपाधियों को, वे त्याग,आप अपने गुणते गुणों को ॥४९५॥

     

    मेरे नहीं ‘पर' यहाँ पर का न मैं हूँ, हूँ एक हूँ विमल केवल ज्ञान मैं हूँ।

    यों ध्यान में सतत चिंतन जो करेगा, ध्याता स्व का बन, सुमुक्ति रमा वरेगा ॥४९६॥

     

    जो ध्यान में न निजवेदन को करेगा, योगी निजी-परम-तत्त्व नहीं गहेगा।

    सौभाग्यहीन नर क्या निधि पा सकेगा? दुर्भाग्य से दुखित हो निज रो सकेगा ॥४९७॥

     

    पिण्डस्थ आदिम पदस्थन रूप-हीन, हैं ध्यान तीन इनमें तुम हो विलीन।

    छद्मस्थता, सु-जिनता, शिव-सिद्धिता ये, तीनों हि तत् विषय हैं क्रमशः सुहायें ॥४९८॥

     

    खड्गासनादिक लगा युगवीर स्वामी, थे ध्यान में निरत अंतिम तीर्थ नामी।

    वे श्वभ्र स्वर्गगत दृश्य निहारते थे, संकल्प के बिन समाधि सुधारते थे ॥४९९॥

     

    भोगों, अनागत गतों व तथागतों की, कांक्षा जिन्हें न स्मृति, क्यों फिर आगतों की?

    ऐसे महर्षि-जन कार्मिक काय को ही, क्षीणातिक्षीण करते, बनते विमोही ॥५००॥

     

    चिंता करो न कुछ भी मन से न डोलो, चेष्टा करो न तन से मुख से न बोलो।

    यों योग में गिरि बनो, शुभ ध्यान होता, आत्मा निजात्मरत ही सुख बीज बोता ॥५०१॥

     

    है ध्यान में रम रहा सुख पा रहा है, शुद्धात्म ही बस जिसे अति भा रहा है।

    पाके कषाय न कदापि दुखी बनेगा, ईर्षा विषाद मत शोक नहीं करेगा ॥५०२॥

     

    वे धीर साधु उपसर्ग परीषहों से, होते न भीरु चिगते अपने पदों से।

    मायामयी अमर सम्मद वैभवों में, ना मुग्ध लुब्ध बनते निज ऋद्धियों में ॥५०३॥

     

    वर्षों पड़ा बहुत-सा तृण ढेर चारा, ज्यों अग्नि से झट जले बिन देर सारा।

    त्यों शीघ्र ही भव-भवार्जित कर्म-कूड़ा, ध्यानाग्नि से जल मिटे सुन भव्य मूढ़ा ॥५०४॥


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