अ- बाह्य तप
जो ब्रह्मचर्य रहना, 'जिन' ईश पूजा, सारी कषाय तजना, तजना न ऊर्जा।
ध्यानार्थ अन्न तजना'तप' ये कहाते, प्रायः सदा भविक लोग इन्हें निभाते ॥४३९॥
है मूल में द्विविध रे! तप मुक्तिदाता, जो अन्तरंग-बहिरंग-तया सुहाता।
हैं अंतरंग तप के छह भेद होते, हैं भेद बाह्य-तप के उतने हि होते ॥४४०॥
‘ऊनोदरी' ‘अनशना' नित पाल रे! तू, ‘भिक्षा क्रिया' रसविमोचन मोक्ष हेतु।
‘संलीनता' दुख-निवारक कायक्लेश, ये बाह्य के छह हुए कहते जिनेश ॥४४१॥
जो कर्म नाश करने समयानुसार, है त्यागता अशन को, तन को सँवार।
साधु वही ‘अनशना तप' साधता है, होती सुशोभित तभी जग साधुता है ॥४४२॥
आहार अल्प करते श्रुत-बोध पाने, वे तापसी समय में कहलाँय स्याने।
भाई बिना श्रुत उपोषण प्राण खोना, आत्मावबोध उससे न कदापि होना ॥४४३॥
ना इन्द्रियाँ शिथिल हों मन में न पापी, ना रोग काऽनुभव काय करे कदापि।
होती वही अनशना, जिससे मिली हो, आरोग्यपूर्ण नव चेतनता खिली हो ॥४४४॥
उत्साह-चाह-विधि-राह पदानुसार, आरोग्य-काल निज-देह बलानुसार।
ऐसा करें ‘अनशना' ऋषि साधु सारे, शुद्धात्म को नित निरन्तर वे निहारें ॥४४५॥
लेते हुए अशन को उपवास साधे, जो साधु इन्द्रियजयी निज को अराधे।
हों इन्द्रियाँ शमित तो उपवास होता, धोता कुकर्म मल को, सुख को संजोता ॥४४६॥
मासोपवास करते लघु-धी यमी में, ना हो विशुद्धि उतनी, जितनी सुधी में।
आहार नित्य करते फिर भी तपस्वी, होते विशुद्ध उर में, श्रुत में यशस्वी ॥४४७॥
जो एक-एक कर ग्रास घटा घटाना, औ भूख से अशन को कम न्यून पाना।
‘ऊनोदरी' तप यही व्यवहार से है, ऐसा कहें गुरु, सुदूर विकार से हैं ॥४४८॥
दाता खड़े कलश ले हँसते मिले तो, लेऊँ तभी अशन प्रांगण में मिले तो।
इत्यादि नेम मुनि ले अशनार्थ जाते, भिक्षा क्रिया यह रही गुरु यों बताते ॥४४९॥
स्वादिष्ट मिष्ट अति इष्ट गरिष्ट खाना-घी दूध आदि रस हैं इनको न खाना।
माना गया तप वही ‘रस त्याग' नामा, धारूँ उसे, वर सकूँ वर-मुक्ति-रामा ॥४५०॥
एकान्त में, विजन कानन मध्य जाना, श्रद्धा समेत शयनासन को लगाना।
होता वही तप सुधारस पेय प्याला, प्यारा ‘विविक्त शयनासन' नाम वाला ॥४५१॥
वीरासनादिक लगा, गिरि गह्वरों में, नाना प्रकार तपना वन कन्दरों में।
है ‘कायक्लेश' तप, तापस तापतापी, पुण्यात्म हो धर उसे तज पाप पापी ॥४५२॥
जो तत्त्व-बोध सुखपूर्वक हाथ आता, आते हि दु:ख झट से वह भाग जाता।
वे कायक्लेश समवेत अतः सुयोगी, तत्त्वानुचिंतन करें समयोपयोगी ॥४५३॥
जाता किया जब इलाज कुरोग का है, ना दुःख हेतु सुख हेतु न रुग्ण का है।
भाई इलाज करने पर रुग्ण को ही, हो जाय दुःख सुख भी सुन भव्य-मोही ॥४५४॥
त्यों मोहनाश सविपाकतया यदा हो, ना दुःख हेतु सुख हेतु नहीं तदा हो।
पै मोह के विलय में रत है वसी को, होता कभी दुख कभी सुख भी उसी को ॥४५५॥
आ - आभ्यन्तर तप
‘प्रायश्चिता" विनय'औ ‘ऋषि-साधु-सेवा', 'स्वाध्याय' 'ध्यान' धरते वरबोध मेवा।
‘व्युत्सर्ग', स्वर्ग अपवर्ग महर्घ-दाता, हैं अंतरंग तप ये छह मोक्ष धाता ॥४५६॥
जो भाव है समितियों व्रत संयमों का, प्रायश्चिता वह सही दम इन्द्रियों का।
ध्याऊँ उसे विनय से उर में बिठाता, होऊँ अतीत विधि से विधि सो विधाता ॥४५७॥
काषायिकी विकृतियाँ मन में न लाना, आ जाँय तो जब कभी उनको हटाना।
गाना स्वकीय गुणगीत सदा सुहाती, ‘प्रायश्चिता' वह सुनिश्चय नाम पाती ॥४५८॥
वर्षों युगों भवभवों समुपार्जितों का, होता विनाश तप से भवबंधनों का।
प्रायश्चिता इसलिए' तप' ही रहा है, त्रैलोक्य-पूज्य प्रभु ने जग को कहा है ॥४५९॥
आलोचना अरु प्रतिक्रमणोभया है, व्युत्सर्ग, छेद, तप, मूल, विवेकता है।
श्रद्धान और परिहार प्रमोदकारी, प्रायश्चिता दशविधा इस भाँति प्यारी ॥४६०॥
विक्षिप्त-चित्तवश आगत दोषकों की, हेयों अयोग्य अनभोग-कृतादिकों की।
आलोचना निकट जा गुरु के करो रे, भाई, नहीं कुटिलता उर में धरो रे ॥४६१॥
माँ को यथा तनुज, कार्य अकार्य को भी, है सत्य, सत्य कहता, उर पाप जो भी।
मायाभिमान तज, साधु तथा अघों की, गाथा कहें स्वगुरु को, दुखदायकों की ॥४६२॥
है शल्य शूल चुभते जब पाद में जो, दुर्वेदनानुभव पूरण अंग में हो।
ज्यों ही निकाल उनको हम फेंक देते, त्यों ही सुशीघ्र सुख सिंचित श्वास लेते ॥४६३॥
जो दोष को प्रकट ना करता छुपाता, मायाभिभूत यति भी अति दुःख पाता।
दोषाभिभूत मन को गुरु को दिखाओ, निःशल्य ही विमल हो सुख-शांति पाओ ॥४६४॥
आत्मीय सर्व परिणाम विराम पावें, वे साम्य के सदन में सहसा सुहावें।
डूबो लखो बहुत भीतर चेतना में, आलोचना बस यही ‘जिनदेशना' में ॥४६५॥
प्रत्यक्ष सम्मुख सुधी गुरु सन्त आते, होना खड़े, कर जुड़े शिर को झुकाते।
दे आसनादि करना गुरु-भक्ति सेवा, माना गया विनय का तप ओ सदैवा ॥४६६॥
चारित्र, ज्ञान, तप दर्शन, औपचारी, ये पाँच हैं विनय भेद, प्रमोदकारी।
धारो इन्हें विमल-निर्मल जीव होगा, दु:खावसान, सुख आगम शीघ्र होगा ॥४६७॥
है एक का वह समादर सर्व का है, तो एक का यह अनादर विश्व का है।
हो घात मूल पर तो द्रुम सूखता है, दो मूल में सलिल, पूरण फूलता है ॥४६८॥
है मूल ही विनय आर्हत-शासनों का, हो संयमी विनय से घर सद्गुणों का।
वे धर्म-कर्म तप भी उनके वृथा हैं, जो दूर हैं विनय से सहते व्यथा हैं ॥४६९॥
उद्धार का विनय द्वार उदार भाता, होता यही सुतप संयम-बोध धाता।
आचार्य संघ भर की इससे सदा हो, आराधना, विनय से सुख-सम्पदा हो ॥४७०॥
विद्या मिली विनय से इस लोक में भी, देती सही सुख वहाँ परलोक में भी।
विद्या न पै विनय-शून्य सुखी बनाती, शाली, बिना जल कभी फल-फूल लाती ॥४७१॥
अल्पज्ञ किन्तु विनयी ‘मुनि' मुक्ति पाता, दुष्टाष्ट-कर्म-दल को पल में मिटाता।
भाई अत: विनय को तज ना कदापि, सच्ची सुधा समझ के उसको सदा पी ॥४७२॥
जो अन्न-पान-शयनासन आदिकों को, देना यथा-समय सज्जन साधुओं को।
कारुण्य-द्योतक यही भवताप-हारी, सेवामयी सुतप है शिवसौख्यकारी ॥४७३॥
साधू विहार करते करते थके हों, वार्धक्य की अवधि पै बस आ रुके हों।
श्वानादि से व्यथित हो नृप से पिटाये, दुर्भिक्ष रोगवश पीड़ित हों सताये।
रक्षा संभाल करना उनकी सदैवा, जाता कहा ‘सुतप' तापस साधु-सेवा ॥४७४॥
‘सद्वाचना' प्रथम है फिर ‘पूछना' है, है 'आनुप्रेक्ष' क्रमशः ‘परिवर्तना' है।
‘धर्मोपदेश' सुखदायक है सुधा है, स्वाध्याय-रूप-तप पावन पंचधा है ॥४७५॥
आमूलतः बल लगा विधि को मिटाने, पै ख्याति-लाभ-यश पूजन को न पाने।
सिद्धान्त का मनन जो करता-कराता, पा तत्त्वबोध बनता सुखधाम धाता ॥४७६॥
होते नितान्त समलंकृत गुप्तियों से, तल्लीन भी विनय में मृदु वल्लियों से।
एकाग्र-मानस जितेंद्रिय अक्ष-जेता, स्वाध्याय के रसिक वे ऋषि साधु नेता ॥४७७॥
सद्ध्यान सिद्धि जिन आगम ज्ञान से हो, तो निर्जरा करम की निज ध्यान से हो।
हो मोक्ष-लाभ सहसा विधि निर्जरा से, स्वाध्याय में इसलिए रम जा जरा से ॥४७८॥
स्वाध्याय-सा न तप है, नहिं था, न होगा, यों मानना अनुपयुक्त कभी न होगा।
सारे इसे इसलिए ऋषि संत त्यागी, धारें, बने विगतमोह, बने विरागी ॥४७९॥
जो बैठना शयन भी करना तथापि, चेष्टा न व्यर्थ तन की करना कदापि।
व्युत्सर्ग रूप तप है, विधि को तपाता, पीताभ हेम-सम आतम को बनाता ॥४८०॥
कायोतसर्ग तप से मिटती व्यथाएँ, हो ध्यान चित्त स्थिर द्वादश भावनाएँ।
काया निरोग बनती मति जाड्य जाती, संत्रास सौख्य सहने उर शक्ति आती ॥४८१॥
लोकेषनार्थ तपते उन साधुओं का, ना शुद्ध हो तप महाकुलधारियों का।
शंसा अतः न अपने तप की करो रे, जाने न अन्य जन यों तप धार लो रे ॥४८२॥
स्वामी समाहत विबोध सुवात से है, उदीप्त भी तप-हुताशन शील से है।
वैसा कुकर्म वन को पल में जलाता, जैसा वनानल घने वन को जलाता ॥४८३॥