हो भेद ज्ञानमय भानु उदीयमान, मध्यस्थ भाव वश चारित हो प्रमाण।
ऐसे चरित्र गुण में पुनि पुष्टि लाने, होते ‘प्रतिक्रमण' आदिक ये सयाने ॥४१७॥
सद्ध्यान में श्रमण अन्तरधान होके, रागादिभाव पर हैं पर-भाव रोके।
वे ही निजातमवशी यति भव्य प्यारे, जाते ‘अवश्यक' कहे उन कार्य सारे ॥४१८॥
भाई तुझे यदि अवश्यक पालना है, हो के समाहित स्व में मन मारना है।
हीराभ सामयिक में द्युति जाग जाती, सम्मोह तामस निशा झट भाग जाती ॥४१९॥
जो साधु हो न ‘षडवश्यक' पालता है, चारित्र से पतित हो सहता व्यथा है।
आत्मानुभूति कब हो यह कामना है, आलस्य त्याग षडवश्यक पालना है ॥४२०॥
सामायिकादि षडवश्यक साथ पालें, जो साधु निश्चय सुचारित पूर्ण प्यारे।
वे वीतरागमय शुद्धचरित्रधारी, पूजो उन्हें परम उन्नति हो तुम्हारी ॥४२१॥
आलोचना नियम आदिक मूर्त्तमान, भाई प्रतिक्रमण शाब्दिक प्रत्यख्यान।
स्वाध्याय ये, चरित रूप गये न माने, चारित्र आन्तरिक आत्मिक है सयाने ॥४२२॥
संवेगधारक यथोचित शक्ति वाले, ध्यानाभिभूत षडवश्यक साधु पाले।
ऐसा नहीं यदि बने यह श्रेष्ठ होगा, श्रद्धान तो दृढ़ रखो, द्रुत मोक्ष होगा ॥४२३॥
सामायिकं जिनप की स्तुति वंदना हो, कायोतसर्ग समयोचित साधना हो।
सच्चा प्रतिक्रमण हो अघप्रत्यख्यान, पाले मुनीश षडवश्यक बुद्धिमान ॥४२४॥
लो! काँच को कनक को सम ही निहारे, वैरी सहोदर जिन्हें इकसार सारे।
स्वाध्याय ध्यान करते मन मार देते, वे साधु सामयिक को उर धार लेते ॥४२५॥
वाक्योग रोक जिसने मन मौन धारा, औ वीतराग बन आतम को निहारा।
होती समाधि परमोत्तम ही उसी की, पूजूँ उसे, शरण और नहीं किसी की ॥४२६॥
आरम्भ दम्भ तज के त्रय गुप्ति पालें, हैं पंच इन्द्रियजयी समदृष्टि वाले।
स्थाई सुसामयिक है उनमें दिखाता, यो ‘केवली' परम-शासन गीत गाता ॥४२७॥
हैं साम्यभाव रखते त्रस थावरों में, स्थाई सुसामयिक हो उन साधुओं में।
ऐसा जिनेश मत है मत भूल रे! तू, भाई! अगाध भव-वारिधि मध्य सेतु ॥४२८॥
आदीश आदि जिन हैं उन गीत गाना, लेना सुनाम उनके यश को बढ़ाना।
औ पूजना नमन भी करना उन्हीं को, होता जिनेश स्तव है प्रणमूँ उसी को ॥४२९॥
द्रव्यों थलों समयभाव प्रणालियों में, हैं दोष जो लग गये, अपने व्रतों में।
वाक्काय से मनस से उनको मिटाने, होती प्रतिक्रमण की विधि है सयाने ॥४३०॥
आलोचना गरहणा करता स्वनिन्दा, जो साधु दोष करता अघ का न धंधा।
होता ‘प्रतिक्रमण भाव' मयी वही है, तो शेष द्रव्यमय हैं रुचते नहीं हैं ॥४३१॥
रागादि भावमल को मन से हटाता, हो निर्विकल्प मुनि है निज आत्मध्याता।
सारी क्रिया वचन की तजता सुहाता, सच्चा प्रतिक्रमण लाभ वही उठाता ॥४३२॥
स्वाध्याय रूप सर में अवगाह पाता, सम्पूर्ण दोष मल को पल में धुलाता।
सद्ध्यान ही विषम कल्मष पातकों का, सच्चा प्रतिक्रमण है धर सद्गुणों का ॥४३३॥
है देह नेह तज के ‘जिन-गीत' गाते, साधु प्रतिक्रमण हैं करते सुहाते।
कायोतसर्ग उनका वह है कहाता, संसार में सहज शाश्वत शांतिदाता ॥४३४॥
घोरोपसर्ग यदि हो असुरों सुरों से, या मानवों मृगगणों मरुतादिकों से।
कायोतसर्गरत साधु सुधी तथापि, निस्पन्द शैल, लसते समता-सुधा पी ॥४३५॥
हो निर्विकल्प तज जल्प-विकल्प सारे, साधू अनागत शुभाशुभ भाव टारें।
शुद्धात्म ध्यान सर में डुबकी लगाते, वे प्रत्यखान गुण धार कहैं कहाते ॥४३६॥
जो आतमा न तजता निज भाव को है, स्वीकारता न परकीय विभाव को है।
द्रष्टा बना निखिल का परिपूर्ण ज्ञाता, 'मैं ही रहा वह' सुधी इस भाँति गाता ॥४३७॥
जो भी दुराचरण है मुझ में दिखाता, वाक्काय से मनस से उसको मिटाता।
नीराग सामयिक को त्रिविधा करूँ मैं, तो बार-बार तन धार नहीं मरूँ मैं ॥४३८॥