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नव आचार्य श्री समय सागर जी को करें भावंजली अर्पित ×
अंतरराष्ट्रीय मूकमाटी प्रश्न प्रतियोगिता 1 से 5 जून 2024 ×
मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज
  • (३५) द्रव्य सूत्र

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    ये जीव, पुद्गल ख, धर्म, अधर्म, काल, होते जहाँ समझ 'लोक' उसे विशाल।

    आलोक से सकल लोक अलोक देखा, यों ‘वीर' ने सदुपयोग दिया सुरेखा ॥६२४॥

     

    आकाश, पुद्गल, अधर्म, व धर्म, काल, चैतन्य से विकल हैं सुन भव्य बाल!

    होते अतः सब ‘अजीव' सदीव भाई, लो! 'जीव' में उजल चेतना सुहाई ॥६२५॥

     

    ये पाँच द्रव्य, नभ, धर्म, अधर्म, काल, औ जीव शाश्वत अमूर्तिक हैं निहाल।

    है मूर्त पुद्गल सदा सब में निराला, है जीव चेतन-निकेतन बोधशाला ॥६२६॥

     

    ये जीव पुद्गल जु सक्रिय द्रव्य दो हैं, तो शेष चार सब निष्क्रिय द्रव्य जो हैं।

    कर्माभिभूत-जड़ पुद्गल से क्रियावान्, है जीव,कालवश पुद्गल है क्रियावान् ॥६२७॥

     

    है एक एक नभ, धर्म, अधर्म तीनों, तो शेष शाश्वत अनंत अनंत तीनों।

    हैं वस्तुतः सब स्वतंत्र स्वलीन होते, ऐसा जिनेश कहते वसु-कर्म खोते ॥६२८॥

     

    है धर्म औ वह अधर्म त्रिलोक-व्यापी, आकाश तो सकल लोक-अलोक व्यापी।

    है मर्त्य लोक भर में व्यवहार काल, सर्वज्ञ के वचन हैं सुन भव्य बाल ॥६२९॥

     

    देते हुए श्रय परस्पर में मिले हैं, ये सर्व-द्रव्य पय शक्कर से घुले हैं।

    शोभे तथापि अपने-अपने गुणों से, छोड़े नहीं निज स्वभाव युगों-युगों से ॥६३०॥

     

    है स्पर्श, रूप, रस, गंध विहीन स्थाई, है खण्ड-खण्ड नहिं पूर्ण अखण्ड भाई।

    हैं लोक पूर्ण सुविशाल असंख्य देशी, धर्मास्तिकाय वह है सुन तू हितैषी ॥६३१॥

     

    त्यों धर्म जीव जड की गति में सहाई, ज्यों मीन के गमन में जल होय भाई।

    औदास्य भाव धरता नहिं प्रेरणा है, धर्मास्तिकाय यह है जिन-देशना' है ॥६३२॥

     

    धर्मास्तिकाय खुद ना चलता चलाता, पै प्राणि पुद्गल चले, गति है दिलाता।

    होता न प्रेरक निमित्त तथापि भाई, ज्यों रेल के गमन में पटरी सहाई ॥६३३॥

     

    है धर्म-द्रव्य उस भाँति अधर्म द्रव्य, कोई क्रिया न करता सुन भद्र! भव्य!

    औदास्य-भाव धरती-सम धार लेता, ज्यों प्राणि पुद्गल रुकें स्थिति-दान देता ॥६३४॥

     

    आकाश व्यापक अचेतन भावधाता, होता पदार्थ दल का अवगाहदाता।

    भाई अमूर्त नभ के फिर भेद दो हैं, है एक लोक, इक दीर्घ अलोक सो है ॥६३५॥

     

    जीवादि द्रव्य छह ये मिलते जहाँ हैं, माना गया अमित लोक यही यहाँ है।

    आकाश केवल अलोक वही कहाता, यों ठीक-ठीक यह छंद हमें बताता ॥६३६॥

     

    है स्पर्श रूप रस गंध विहीन होता, संवर्तनामय सुलक्षण जो कि ढोता।

    है धारता गुण सदा अगुरूलघू को, है काल स्वीकृत यही जग के प्रभु को ॥६३७॥

     

    है हो रहा नित अचेतन पुद्गलों में, धारा-प्रवाह परिवर्तन चेतनों में।

    वो काल का बस अनुग्रह तो रहा है, वैराग्य का परम कारण हो रहा है ॥६३८॥

     

    घण्टा निमेष समयावलि आदि देखो, होते प्रभेद जिसमें सहसा अनेकों।

    होता वही समय में व्यवहार काल, है वीतराग जिन का मत है निहाल ॥६३९॥

     

    दो भेद, ‘स्कन्ध', 'अणु' पुद्गल के पिछानो, हैं स्कन्ध भेद छह,दो अणु के सुजानो।

    है कार्य रूप अणु, कारण रूप दूजा, पै चर्म चक्षु अणु, की करती न पूजा ॥६४०॥

     

    है स्थूल-स्थूल, फिर स्थूल, व स्थूल सूक्ष्म, औ सूक्ष्म स्थूल पुनि सूक्ष्म सुसूक्ष्म-सूक्ष्म।

    भू, नीर, आतप, हवा, विधि-वर्गणायें, ये हैं उदाहरण स्कन्धन के गिनाये ॥६४१॥

     

    किंवा धरा, सलिल, लोचन-गम्य छाया, नासादि के विषय पुद्गल कर्म माया।

    अत्यन्त सूक्ष्म परमाणु, छहों यहाँ ये, हैं स्कन्ध भेद पुद्गल के बताये ॥६४२॥

     

    जो द्रव्य होकर न इन्द्रिय-गम्य होता, है आदि-मध्य अरु अन्त विहीन होता।

    है एक देश रखता अविभाज्य भाता, ऐसा कहें 'जिन' यही परमाणु गाथा ॥६४३॥

     

    जो स्कन्ध में वह क्रिया अणु में इसी से, तू जान पुद्गल सदा 'अणु' को खुशी से।

    स्पर्शादि चार गुण पुद्गल धार पाता, है पूरता पिघलता पर स्पष्ट भाता ॥६४४॥

     

    ओ जीव है, विगत में चिर जी चुका है, जो चार प्राण धर के अब जी रहा है।

    आगे इसी तरह जीवन जी सकेगा, उच्छ्वास-आयु-बल-इन्द्रिय पा लसेगा ॥६४५॥

     

    विस्तार संकुचन शक्तितया शरीरी, छोटा बड़ा तन प्रमाण दिखे विकारी।

    पै छोड़ के समुद्धात दशा हितैषी, हैं वस्तुतः सकल जीव असंख्य-देशी ॥६४६॥

     

    ज्यों दूध में पतित माणिक दूध को ही, हैं लाल-लाल करता सुन मूढ़-मोही।

    त्यों जीव देह स्थित हो निज देह को ही, सम्यक् प्रकाशित करें नहिं अन्य को ही ॥६४७॥

     

    आत्मा तथापि वह ज्ञान प्रमाण भाता, है ज्ञान भी सकल ज्ञेय प्रमाण साता।

    है ज्ञेय तो अमित लोक अलोक सारा, भाई अत: निखिल व्यापक ज्ञान प्यारा ॥६४८॥

     

    ये जीव हैं द्विविध, चेतन-धाम सारे, संसारि मुक्त द्विविधा उपयोग धारें।

    ‘संसारि-जीव' तनधारक हैं दुखी हैं, हैं‘मुक्त-जीव' तन-मुक्त तभी सुखी हैं॥६४९॥

     

    पृथ्वी जलानल समीर तथा लतायें, एकाक्ष जीव सब स्थावर ये कहायें।

    हैं धारते करण दो, त्रय, चार, पाँच, शंखादि जीव त्रस हैं करते प्रपंच ॥६५०॥


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