है वस्तुतः यह अकृत्रिम लोक भाता, आकाश का हि इक भाग अहो! कहाता।
भाई अनादि अविनश्वर नित्य भी है, जीवादि द्रव्य दल पूरित पूर्ण भी है ॥६५१॥
पा योग अन्य अणु का अणु स्कन्ध होता, है स्निग्ध रूक्ष गुण धारक चूंकि होता।
ना शब्द रूप अणु है, इक देशधारी, प्रत्यक्ष ज्ञान लखता 'अणु' निर्विकारी ॥६५२॥
ये सूक्ष्म स्थूल द्वयणुकादिक स्कन्ध सारे, पृथ्वी-जलाग्नि-मरुतादिक रूप धारे।
कोई इन्हें न ऋषि ईश्वर ही बनाते, पै स्वीय शक्ति-वश ही बनते सुहाते ॥६५३॥
सूक्ष्मादि स्कन्ध दल से त्रय लोक सारा, पूरा ठसाठस भरा प्रभु ने निहारा।
है योग स्कन्ध उनमें विधि रूप पाने, होते अयोग्य कुछ हैं समझो सयाने ॥६५४॥
ज्यों जीव के विकृत-भाव निमित्त पाती, वे वर्गणा विधिमयी विधि हो सताती।
आत्मा उन्हें न विधि रूप हठात् बनाता, होता स्वभाववश कार्य सदा दिखाता ॥६५५॥
रागादि से निरखता यदि जानता है, पंचाक्ष के विषय को मन धारता है।
रंजायमान उसमें वह ही फँसेगा, दुष्टाष्ट-कर्म मल में चिर ओ लसेगा ॥६५६॥
सर्वत्र हैं विपुल हैं विधि वर्गणायें, आकीर्ण पूर्ण जिनसे कि दशों दिशाएँ।
वे जीव के सब प्रदेशन में समाते, रागादिभाव जब जीव सुधार पाते ॥६५७॥
ज्यों राग-रोष-मय भाव स्वचित्त लाता, है मूढ़ पामर शुभाशुभ कर्म पाता।
होता तभी वह भवान्तर को रवाना, ले साथ ही नियम से विधि के खजाना ॥६५८॥
प्राचीन कर्म-वश देह नवीन पाते, संसारिजीव पूनि कर्म नये कमाते।
यों बार-बार कर कर्म दुखी हुए हैं, वे कर्म-बंध तज सिद्ध सुखी हुए हैं ॥६५९॥
दोहा
‘तत्त्व दर्शन' यही रहा, निज दर्शन का हेतु।
जिन-दर्शन का सार है भवसागर का सेतु ॥