स्वाधीन चित्त कर तू शुभ-ध्यान द्वारा, कर्तव्य आदिम यही मुनि भव्य प्यारा।
सद्ध्यान संतुलित होकर भी सदा ये, भावो सदा सुखद द्वादश-भावनायें ॥५०५॥
संसार, लोक, वृष, आस्रव, निर्जरा है, अन्यत्व औ अशुचि, अध्रुव, संवरा है।
एकत्व औ अशरणा अवबोधना ये, चिन्ते सुधी सतत द्वादश-भावनायें ॥५०६॥
हैं जन्म से मरण भी वह जन्म लेता, वार्धक्य भी सतत यौवन साथ देता।
लक्ष्मी अतीव चपला बिजली बनी है, संसार ही तरल है स्थिर ही नहीं है ॥५०७॥
हे भव्य! मोह घट को झट पूर्ण फोड़ो, सद्यः क्षयी विषय को विष मान छोड़ो।
औ चित्त को सहज निर्विषयी बनाओ, औचित्य पूर्ण परमोत्तम सौख्य पाओ ॥५०८॥
अल्पज्ञ ही परिजनों धन-वैभवों को, है मानता ‘शरण' पाशव गोधनों को।
ये हैं मदीय यह मैं उनका बताता, पै वस्तुतः शरण वे नहिं प्राण त्राता ॥५०९॥
मैं संग शल्य-त्रय को त्रययोग द्वारा, हूँ हेय जान तजता जड़ के विकारा।
मेरे लिए शरण त्राण प्रमाण प्यारी, हैं गुप्तियाँ समितियाँ भव-दुःखहारी ॥५१०॥
लावण्य का मद युवा करते सभी हैं, पै मृत्यु पा उपजते कृमि हो वही हैं।
संसार को इसलिए बुध सन्त त्यागी, धिक्कारते, न रमते उसमें विरागी ॥५११॥
ऐसा न लोक-भर में थल ही रहा हो, मैंने न जन्म मृत दुःख जहाँ सहा हो।
तू बार-बार तन धार मरा यहाँ है, तू ही बता स्मृति तुझे उसकी कहाँ है ॥५१२॥
दुर्लंघ्य है भवपयोधि अहो! अपारा, अक्षुण्ण जन्म-जल-पूरित पूर्ण खारा।
भारी जरा मगरमच्छ यहाँ सताते, हैं दुःख पाक, इसका गुरु हैं बताते ॥५१३॥
जो साधु रत्नत्रय-मंडित हो सुहाता, संसार में परम-तीर्थ वही कहाता।
संसार पार करता, लख क्योंकि मौका, हो रूढ़ रत्नत्रय रूप अनूप नौका ॥५१४॥
हे मित्र! आप अपने विधि के फलों को, हैं भोगते सकल जीव शुभाशुभों को।
तो कौन हो स्वजन? कौन निरा पराया? तू ही बता समझ में मुझको न आया ॥५१५॥
पूरा भरा दृग-विबोधमयी सुधा से, मैं एक शाश्वत सुधाकर हूँ सदा से।
संयोगजन्य सब शेष विभाव मेरे, रागादि भाव जितने मुझसे निरे रे ॥५१६॥
संयोग भाव-वश ही बहु दुःख पाया, हूँ कर्म के तपन तप्त, गया सताया।
त्यागूं उसे यतन से अब चाव से मैं, विश्राम लूँ सघन चेतन छाव में मैं ॥५१७॥
तूने भवाम्बुनिधि मज्जित आतमा की, चिंता न की न अब लौं उस पै दया की।
पै बार-बार करता मृत साथियों की, चिंता दिवंगत हुए उन बंधुओं की ॥५१८॥
मैं अन्य हूँ तन निरा, तन से न नाता, ये सर्व भिन्न तुझसे सुत, तात, माता।
यों जान मान बुध पंडित साधु सारे, धारें न राग इनमें, निज को निहारें ॥५१९॥
शुद्धात्म वेदन-तया सम-दृष्टि-वाला, है वस्तुतः निरखता तन को निराला।
‘अन्यत्व' रूप उसकी वह भावना है, भाऊँ उसे जब मुझे व्रत पालना है ॥५२०॥
निष्पन्न है जड़मयी पल हड्डियों से, पूरा भरा रुधिर मूत्र-मलादिकों से।
दुर्गन्ध द्रव्य झरते नव-द्वार द्वारा, ऐसा शरीर फिर भी सुख दे तुम्हारा? ॥५२१॥
जो मोह-जन्य जड़-भाव विभाव सारे, हैं त्याज्य यों समझ साधु उन्हें विसारें।
तल्लीन हो प्रशम में तज वासना को, भावें सही परम' आस्रव भावना' को ॥५२२॥
वे गुप्ति औ समिति पालक अक्ष-जेता, औ अप्रमत्त परमातम-तत्त्ववेत्ता।
हैं कर्म के विविध आस्रव रोध पाते, हैं भावना परम ‘संवर' की निभाते ॥५२३॥
है लोक का यह वितान असार सारा, संसार तीव्र-गति से गममान न्यारा।
यों जान मान मुनि हो शुभ ध्यान धारो, लोकाग्र में स्थित शिवालय को निहारो ॥५२४॥
स्वामी! जरा मरण-वारिधि में अनेकों, जो डूबते बह रहे उन प्राणियों को।
सद्धर्म ही शरण है गति, श्रेय दीप, पूजें उसे शिव लसे सहसा समीप ॥५२५॥
तो भी रहा सुलभ ही वर देह पाना, पै धर्म का श्रवण दुर्लभ है पचाना।
हो जाय प्राप्त जिससे कि क्षमा अहिंसा, ये भिन्न-भिन्न बन जाय शरीर हंसा ॥५२६॥
सद्धर्म का सुलभ है सुनना सुनाना, श्रद्धान पै कठिन है उस पै जमाना।
सन्मार्ग का श्रवण भी करते तथापि, होते कई स्खलित हैं मति मूढ़ पापी ॥५२७॥
श्रद्धान औ श्रवण भी ‘जिन-धर्म' का हो, पै संयमाचरण तो अति दुर्लभा हो।
लेते सुधी रुचि सुसंयम में कई हैं, पाते तथापि उसको सहसा नहीं है ॥५२८॥
सद्भावना वश निजातम शोभती त्यों, नि:छिद्र नाव जल में वह शोभती ज्यों।
नौका समान भवपार उतारती है, रे! भावना अमित दुःख विनाशती है ॥५२९॥
सच्चा प्रतिक्रमण, द्वादश भावनायें, आलोचना शुचि समाधि निजी कथायें।
भावो इन्हें, तुम निरंतर पाप त्यागो, शीघ्रातिशीघ्र जिससे निज-धाम भागो ॥५३०॥
Edited by संयम स्वर्ण महोत्सव