संमोह योग-वश आतम में अनेकों, होते विभिन्न परिणाम विकार देखो।
सर्वज्ञ-देव ‘गुणथान' उन्हें बताया, आलोक से सकल को जब देख पाया ॥५४६॥
‘मिथ्यात्व' आदिम रहा गुण-थान भाई, ‘सासादना' वह द्वितीय अशान्ति दाई।
है ‘मिश्र' है ‘अविरती समदृष्टि' प्यारी, है ‘एक देश विरती' धरते अगारी॥
होती ‘प्रमत्त विरती' गिर साधु जाता, हो ‘अप्रमत्त विरती' निज पास आता।
स्वामी 'अपूर्व करणा' दुख को मिटाती, है 'आनिवृत्तिकरणा' सुख को दिलाती ॥५४७॥
है ‘सांपराय अतिसूक्षम' लोभवाला, है ‘शान्तमोह' ‘गतमोह' निरा उजाला।
है ‘केवली जिन सयोगि' ‘अयोगी' न्यारे, इत्थं चतुर्दश सुनो! गुणथान सारे ॥५४८॥
तत्त्वार्थ में न करना शुचिरूप श्रद्धा, ‘मिथ्यात्व' है वह कहें जिन शुद्ध बुद्धा।
मिथ्यात्व भी त्रिविध संशय नामवाला, दूजा गृहीत, अगृहीत तृतीय हाला ॥५४९॥
सम्यक्त्वरूप गिरि से गिर तो गई है, मिथ्यात्व की अवनि पै नहिं आ गई है।
‘सासादना' यह रही निचली दशा है, मिथ्यात्व की अभिमुखी दुख की निशा है ॥५५०॥
जैसा दही-गुड़ मिलाकर स्वाद लोगे, तो भिन्न-भिन्न तुम स्वाद न ले सकोगे।
वैसे ही ‘मिश्र गुणथानन' का प्रभाव, मिथ्यापना समपनाश्रित मिश्रभाव ॥५५१॥
छोड़ी अभी नहिं चराचर जीव हिंसा, ना इन्द्रियाँ दमित कीं तज भाव-हिंसा।
श्रद्धा परन्तु जिसने जिन में जमाई, होता वही ‘अविरती समदृष्टि' भाई ॥५५२॥
छोड़ी नितान्त जिसने त्रस जीव हिंसा, छोड़ी परन्तु नहिं थावर जीव-हिंसा।
लेता सदा जिनप-पाद-पयोज स्वाद, हो 'एकदेश विरती' ‘अलि' निर्विवाद ॥५५३॥
धारा महाव्रत सभी जिसने तथापि, प्रायः प्रमाद करता फिर भी अपापी।
शीलादि-सर्वगुण-धारक संग-त्यागी, होता ‘प्रमत्त विरती' कुछ दोष-भागी ॥५५४॥
शीलाभिमंडित, व्रती गुण धार ज्ञानी, त्यागा प्रमाद जिसने बन आत्म-ध्यानी।
पै मोह को नहिं दबा न खपा रहा है, है 'अप्रमत्त विरती', सुख पा रहा है ॥५५५॥
जो भिन्न-भिन्न क्षण में चढ़ आठवें में, योगी अपूर्व परिणाम करें मजे में।
ऐसे अपूर्व परिणाम न पूर्व में हों, वे ही 'अपूर्व करणा गुणथान' में हो ॥५५६॥
जो भी अपूर्व परिणाम सुधार पाते, वे मोह के शमक, ध्वंसक या कहाते।
ऐसा जिनेन्द्र प्रभु ने हमको बताया, अज्ञान रूप तम को जिसने मिटाया ॥५५७॥
प्रत्येक काल इक ही परिणाम पाले, वे ‘आनिवृत्ति करणा गुणथान' वाले।
ध्यानाग्नि से धधकती विधिकाननी को, हैं राख खाख करते, दुख की जनी को ॥५५८॥
कौसुम्ब के सदृश सौम्य गुलाब आभा, शोभायमान जिसके उर राग आभा।
हैं ‘सूक्ष्मराग दशवें गुणस्थान' वाले, हैं वन्द्य, तू विनय से शिर तो नवां ले ॥५५९॥
ज्यों शुद्ध है शरद में सर-नीर होता, या निर्मली-फल डला जल क्षीर होता।
त्यों 'शान्त मोह' गुणधारक को निहाला, हो मोह सत्त्व,पर जीवन तो उजाला ॥५६०॥
सम्मोह हीन जिसका मन ठीक वैसा-हो स्वच्छ, हो स्फटिक भाजन नीर जैसा।
निर्ग्रन्थसाधु वह क्षीणकषाय' नामी, यों वीतराग कहते प्रभु विश्व-स्वामी ॥५६१॥
कैवल्य-बोधि रवि जीवन में उगा है, अज्ञानरूप तम तो फलतः भगा है।
पा लब्धियाँ नव, नवीन वही कहाता, त्रैलोक्य पूज्य परमातम या प्रमाता ॥५६२॥
स्वाधीन बोध दृग पाकर केवली हैं, जीता जभी स्वयं को जिन हैं बली हैं।
होते ‘सयोगि जिन योग समेत ध्यानी', ऐसा कहे अमिट अव्यय आर्षवाणी ॥५६३॥
है अष्ट-कर्म-मल को जिनने हटाया, सम्यक्तया सकल आस्रव रोक पाया।
वे हैं,‘अयोगि जिन पावन केवली' हैं, हैं शील के सदन औ सुख के धनी हैं ॥५६४॥
आत्मा अतीत गुणथान बना जभी से, सानन्द ऊर्ध्व गति है करता तभी से।
लोकाग्र जा निवसता गुण अष्ट पाता, पाता न देह भव में नहिं लौट आता ॥५६५॥
वे कर्म-मुक्त, नित सिद्ध सुशान्त ज्ञानी, होते निरंजन न अंजन की निशानी।
सामान्य अष्ट-गुण आकर हो लसे हैं, लोकाग्र में स्थित शिवालय में बसे हैं ॥५६६॥