(अ) पञ्चविध ज्ञान
संमोह-संभ्रम-ससंशय हीन प्यारा, कल्याण खान वह ज्ञान प्रमाण प्याला।
माना गया स्वपर-भाव प्रभाव-दर्शी, साकार नैकविध शाश्वत-सौख्यस्पर्शी ॥६७४॥
सज्ज्ञान पंचविध ही ‘मतिज्ञान' प्यारा, दूजा ‘श्रुतावधि'- तृतीय सुधा सुधारा।
चौथा पुनीत ‘मनपर्यय' ज्ञान मानूं, है पांचवाँ परम ‘केवल' ज्ञान-भानू ॥६७५॥
सज्ज्ञान पंच विध ही गुरु गा रहे हैं, लेके सहार जिसका शिव जा रहे हैं।
सम्पूर्ण क्षायिक सुकेवल-ज्ञान नामी, चारों क्षयोपशम का अवशेष स्वामी ॥६७६॥
ईहा, अपोह, मति, शक्ति, तथैव संज्ञा, मीमांस, मार्गण, गवेषण और प्रज्ञा।
ये सर्व ही ‘अभिनिबोधक ज्ञान' भाई, पूजो इसे बस यही शिव सौख्य-दाई ॥६७७॥
आधार ले विषय का मति के जनाता- जो अन्य द्रव्य 'श्रुत-ज्ञान' वही कहाता।
ओ लिंगशब्दज-तया श्रुत ही द्विधा है, होता नितान्त मतिपूर्वक ही सुधा है।
है मुख्य शब्दज जिनागम में कहाता, जो भी उसे उर धरे भव पार जाता ॥६७८॥
पाके निमित्त मन इन्द्रिय का, अघारी, होता प्रसूत ‘श्रुत-ज्ञान' श्रुतानुसारी।
है आत्म-तत्त्व पर-सम्मुख थापने में, स्वामी! समर्थ श्रुत ही मति जानने में ॥६७९॥
हो पूर्व में ‘मति' सदा, श्रुत' बाद में हो, ना पूर्व में श्रुत कभी, मति बाद में हो।
होती ‘पृ' धातु परिपूरण पालने में, हो पूर्व में मति अतः श्रुत पूरणे में ॥६८०॥
सीमा बना समय आदिक की सयाने, रूपी पदार्थ भर को इकदेश जाने।
जो ख्यात भाव-गुण प्रत्यय से ससीमा, माना गया 'अवधिज्ञान' वही सुधीमान् ॥६८१॥
है चित्त चिंतित अचिंतित चिंतता है, या सार्ध-चिंतित नृलोकन में यहाँ है।
जो जानता बस उसे शिव सौख्य दाता, प्रत्यक्ष ज्ञान ‘मनपर्यय' नाम पाता ॥६८२॥
शुद्धैक औ अब अनन्त विशेष आदि, ये अर्थ हैं सकल केवल के अनादि।
‘कैवल्य ज्ञान' इन सर्व-विशेषणों से, शोभे अत: भज उसे, बच दुर्गुणों से ॥६८३॥
जो एक साथ सहसा बिन रोक-टोक, है जानता सकल लोक तथा अलोक।
‘कैवल्य-ज्ञान', जिसको नहिं जानता हो, ऐसा गतागत अनागत भाव ना हो ॥६८४॥
(आ) परोक्ष प्रमाण
वस्तुत्व को नित नितान्त अबाध भाता, सम्यक्तया सहज ज्ञान उसे जनाता।
होता प्रमाण वह ज्ञान अतः सुधा है, ‘प्रत्यक्ष पावन परोक्षतया' द्विधा है ॥६८५॥
ये धातु दो अशु तथा अश जो कहाती, व्याप्त्यर्थ में अशन में क्रमशः सुहाती।
है अक्ष शब्द बनता सहसा इन्हीं से, ऐसा सदा समझ तू, नहिं औ किसी से ॥
है जीव अक्ष जग वैभव भोगता है, सर्वार्थ में सहज व्याप सुशोभता है।
तो अक्ष से जनित ज्ञान वही कहाता, ‘प्रत्यक्ष' है त्रिविध, आगम यों बताता ॥६८६॥
द्रव्येन्द्रियाँ मनस पुद्गलभाव धारें, है अक्ष से इसलिए अति भिन्न न्यारे।
संजात ज्ञान इनसे वह ठीक वैसा, होता ‘परोक्ष' बस लिंगज ज्ञान जैसा ॥६८७॥
होते परोक्ष मति औ श्रुत जीव के हैं, औचित्य हैं परनिमित्तक क्योंकि वे हैं।
किंवा अहो परनिमित्तक हो न कैसे? हो प्राप्त-अर्थ-स्मृति से अनुमान जैसे ॥६८८॥
होता परोक्ष श्रुत लिंगज ही, महान, प्रत्यक्ष हो अवधि आदिक तीन ज्ञान।
स्वामी! प्रसूत मति, इंद्रिय चित्त से जो, “प्रत्यक्ष संव्यवहरा' उपचार से हो ॥६८९॥