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नव आचार्य श्री समय सागर जी को करें भावंजली अर्पित ×
मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज
  • (२४) श्रमण धर्मसूत्र

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    (अ) समता

     

    ये वीतराग अनगार भदंत प्यारे, साधू ऋषी श्रमण संयत सन्त सारे।

    शास्त्रानुकूल चलते हमको चलाते, वन्दूँ उन्हें विनय से शिर को झुकाते ॥३३६॥

     

    गंभीर नीर-निधि से, शशि से सुशान्त, सर्वंसहा अवनि से, मणि मंजुकान्त।

    तेजोमयी अरुण से, पशु से निरीह, आकाश से निरवलम्बन ही सदीह।

    निस्संग वायु सम, सिंह-समा प्रतापी, स्थायी रहे उरग से न कहीं कदापि।

    अत्यन्त ही सरल हैं मृग से सुडोल, जो भद्र हैं वृषभ से गिरि से अडोल।

    स्वाधीन साधु गज सादृश स्वाभिमानी, वे मोक्ष शोध करते सुन सन्त वाणी ॥३३७॥

     

    हैं लोक में कुछ यहाँ फिरते असाधु, भाई तथापि सब वे कहलायें साधु।

    मैं तो असाधु-जन को कह दूँ न साधु, पै साधु के स्तवन में मन को लगा हूँ ॥३३८॥

     

    सम्यक्त्व के सदन हो वर-बोध-धाम, शोभे सुसंयमतया तप से ललाम।

    ऐसे विशेष गुण आकर हो सुसाधु, तो बार-बार शिर मैं उनको नवा दूँ ॥३३९॥

     

    एकान्त से ‘मुनि', न कानन-वास से हो, स्वामी नहीं ‘श्रमण' भी कचलोंच से हो।

    ओंकार जाप जप, ‘ब्राह्मण' ना बनेगा, छालादि को पहन, ‘तापस' ना कहेगा ॥३४०॥

     

    विज्ञान पा नियम से ‘मुनि' हो यशस्वी, सम्यक्तया तप तपे तब हो ‘तपस्वी'।

    होगा वही 'श्रमण' जो समता धरेगा, पा ब्रह्मचर्य फिर ब्राह्मण' भी बनेगा ॥३४१॥

     

    हो जाय साधु गुण पा, गुण खो असाधु, होवो गुणी, अवगुणी न बनो न स्वादु।

    जो राग रोष भर में समभाव धारें, वे वन्द्य पूज्य निज से निज को निहारें ॥३४२॥

     

    जो देह में रम रहे विषयी कषायी, शुद्धात्म का स्मरण भी करते न भाई।

    वे साधु होकर बिना दृग, जी रहे हैं, पीयूष छोड़कर हा ! विष पी रहे हैं ॥३४३॥

     

    भिक्षार्थ भिक्षु चलते बहु दृश्य पाते, अच्छे बुरे श्रवण में कुछ शब्द आते।

    वे बोलते न फिर भी सुन मौन जाते, लाते न हर्ष मन में न विषाद लाते ॥३४४॥

     

    स्वाध्याय ध्यान तप में अति मग्न होते, जो दीर्घ काल तक हैं निशि में न सोते।

    तत्त्वार्थ चिन्तन सदा करते मनस्वी, निद्राजयी इसलिए बनते तपस्वी ॥३४५॥

     

    जो अंग संग रखता ममता नहीं है, है संग-मान तजता समता धनी है।

    है साम्यदृष्टि रखता सब प्राणियों में, ओ साधु धन्य, रमता नहिं गारवों में ॥३४६॥

     

    जो एक से मरण जीवन को निहारें, निन्दा मिले यश मिले सम भाव धारें।

    मानापमान, सुख-दुःख समान मानें, वे धन्य साधु, सम लाभ-अलाभ जानें ॥३४७॥

     

    आलस्य-हास्य तज शोक अशोक होते, ना शल्य गारव कषाय निकाय ढोते।

    ना भीति बंधन-निदान-विधान होते, वे साधु वन्द्य हम को, मन-मैल धोते ॥३४८॥

     

    हो अंग राग अथवा छिद जाय अंग, भिक्षा मिलो, मत मिलो इक सार ढंग।

    जो पारलौकिक न लौकिक चाह धारे, वे साधु ही बस! बसें उर में हमारे ॥३४९॥

     

    हैं हेयभूत विधि आस्रव रोक देते, आदेय भूत वर संवर लाभ लेते।

    अध्यात्म ध्यान यम योग प्रयोग द्वारा, हैं साधु लीन निज में तज भोग सारा ॥३५०॥

     

    जीतो सहो दृगसमेत परीषहों को, शीतोष्ण भीति रति प्यास क्षुधादिकों को।

    स्वादिष्ट इष्ट फल कायिक कष्ट देता, ऐसा ‘जिनेश' कहते शिव-पन्थ-नेता ॥३५१॥

     

    शास्त्रानुसार तब ही तप साधना हो, ना बार-बार दिन में इक बार खाओ।

    ऐसा ऋषीश उपदेश सभी सुनाते, जो भी चले तदनुसार स्वधाम जाते ॥३५२॥

     

    मासोपवास करना वनवास जाना, आतापनादि तपना तन को सुखाना।

    सिद्धान्त का मनन, मौन सदा निभाना, ये व्यर्थ हैं श्रमण के बिन साम्य बाना ॥३५३॥

     

    विज्ञान पा प्रथम, संयत भाव धारो, रे! ग्राम में नगर में कर दो विहारो।

    संवेग शान्तिपथ पै गममान होवो, होके प्रमत्त मत गौतम! काल खोओ ॥३५४॥

     

    होगा नहीं जिन यहाँ, जिन धर्म आगे, मिथ्यात्व का जब प्रचार नितान्त जागे।

    हे! भव्य गौतम! अतः अब धर्म पाया, धारो प्रमाद पल भी न, जिनेश गाया ॥३५५॥

     

    हो बाह्य भेष न कदापि प्रमाण भाई देता जभी तक असंयत में दिखाई।

    रे ! वेष को बदल के विष जो कि पीता, पाता नहीं मरण क्या-रह जाय जीता? ॥३५६॥

     

    हो लोक को विदित ये जिन साधु आये, शास्त्रादि साधन सुभेष अतः बनाये।

    औ बाह्य संयम न, लिंग बिना चलेगा, जो अंतरंग यम साधन भी बनेगा ॥३५७॥

     

    ये दीखते जगत में मुनि साधुओं के, हैं भेष, नैक-विध भी गृहवासियों के।

    वे अज्ञ मूढ़ जिन को जब धारते हैं, है मोक्ष मार्ग यह यों बस मानते हैं ॥३५८॥

     

    निस्सार मुष्टि वह अन्दर पोल वाली, बेकार नोट यह है नकली निराली।

    हो काँच भी चमकदार सुरत्न जैसा, ज्यों जौहरी परखता नहिं मूल्य पैसा।

    पूर्वोक्त द्रव्य जिस भाँति मुधा दिखाते, है मात्र भेष उस भाँति सुधी बताते ॥३५९॥

     

    है भाव लिङ्ग वर मुख्य अतः सुहाता, है द्रव्य लिङ्ग परमार्थ नहीं कहाता।

    है भाव ही नियम से गुण दोष हेतु, होता भवोदधि वही भव-सिन्धु-सेतु ॥३६०॥

     

    ये ‘‘भाव शुद्धतम हो'' जब लक्ष्य होता, है बाह्य संग तजना फलरूप होता।

    जो भीतरी कलुषता यदि ना हटाता, जो बाह्य त्याग उसका वह व्यर्थ जाता ॥३६१॥

     

    जो अच्छ स्वच्छ परिणाम बना न पाते, पै बाहरी सब परिग्रह को हटाते।

    वे भाव-शून्य करनी करते कराते, लेते न लाभ शिव का, दुख ही उठाते ॥३६२॥

     

    काषायिकी परिणती जिसने घटा दी, औ निन्द्य जान तन की ममता मिटा दी।

    शुद्धात्म में निरत है तज संग संगी, हो पूज्य साधु वह पावन भावलिंगी ॥३६३॥

     


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