हिंसादि पंच अघ हैं तज दो अघों को, पालो सभी परम पंच महाव्रतों को।
पश्चात् जिनोदित पुनीत विरागता का, आस्वाद लो, कर अभाव विभावता का ॥३६४॥
वे ही महाव्रत नितान्त सुसाधु धारें, निःशल्य हो विचरते त्रय-शल्य टारें।
मिथ्या निदान व्रतघातक शल्य माया, ऐसा जिनेश उपदेश हमें सुनाया ॥३६५॥
है मोक्ष की यदि व्रती करता उपेक्षा, चारित्र ले विषय की रखता अपेक्षा।
तो मूढ़ भूल मणि जो अनमोल देता, धिक्कार काँच मणि का वह मोल लेता ॥३६६॥
जो जीव थान, कुल मार्गण योनियों में, पा जीवबोध, करुणा रखता सबों में।
आरम्भ त्याग उनकी करता न हिंसा, हो साधु का विमल भाव वही 'अहिंसा' ॥३६७॥
निष्कर्ष है परम पावन आगमों का, भाई! उदार उर धार्मिक आश्रमों का।
सारे व्रतों सदन है, सब सद्गुणों का, आदेय है विमल जीवन साधुओं का।
है विश्वसार जयवन्त रहे अहिंसा, होती रहे सतत ही उसकी प्रशंसा ॥३६८॥
ना क्रोध भीतिवश स्वार्थ तराजु तोलो, लेओ न मोल अघ हिंसक बोल बोलो।
होगा द्वितीय व्रत ‘सत्य' वही तुम्हारा, आनन्द का सदन जीवन का सहारा ॥३६९॥
जो भी पदार्थ परकीय उन्हें न लेते, वे साधु देखकर भी बस छोड़ देते।
है स्तेय भाव तक भी मन में न लाते, 'अस्तेय' है व्रत यही जिन यों बताते ॥३७०॥
ये द्रव्य चेतन अचेतन जो दिखाते, साधू न भूलकर भी उनको उठाते।
ना दाँत साफ करने तक सींक लेते, अत्यल्प भी बिन दिए कुछ भी न लेते ॥३७१॥
भिक्षार्थ भिक्षु जब जाँय, वहाँ न जाँय, जो स्थान वर्जित रहा अघ हो न पाँय।
वे जाँय जान कुल की मित भूमि लौं ही, ‘अस्तेय' धर्म परिपालन श्रेष्ठ सो ही ॥३७२॥
अब्रह्म सेवन अवश्य अधर्म मूल, है दोष-धाम दुख दे जिस भाँति शूल।
निर्ग्रन्थ वे इसलिए सब ग्रन्थ त्यागी, सेवे न मैथुन कभी मुनि वीतरागी ॥३७३॥
माता सुता बहन सी लखना स्त्रियों को, नारी-कथा न करना भजना गुणों को।
‘श्री ब्रह्मचर्य व्रत' है यह मार-हन्ता, है पूज्य वन्द्य जग में सुख दे अनन्ता ॥३७४॥
जो अन्तरंग बहिरंग निसंग होता, भोगाभिलाष बिन चारित भार ढोता।
है पाँचवाँ व्रत ‘परिग्रह त्याग' पाता, पाता स्वकीय सुख,तू दुख क्यों उठाता ॥३७५॥
दुर्गन्ध अंग तक ‘संग'' जिनेश गाया, यों देह से खुद उपेक्षित हो दिखाया।
क्षेत्रादि बाह्य सब संग अतः विसारो, होके निरीह तन से तुम मार मारो ॥३७६॥
जो माँगना नहिं पड़े गृहवासियों से, ना हो विमोह ममतादिक भी जिन्हों से।
ऐसे परिग्रह रखें उपयुक्त होवे, पै अल्प भी अनुपयुक्त न साधु ढोवें ॥३७७॥
जो देह देश-श्रम-काल बलानुसार, आहार ले यदि यती करता विहार।
तो अल्प कर्म मल से वह लिप्त होता, औचित्य एक दिन है भव-मुक्त होता ॥३७८॥
जो बाह्य में कुछ पदार्थ यहाँ दिखाते, वे वस्तुतः नहिं परिग्रह हैं कहाते।
मूर्छा परिग्रह परन्तु यथार्थ में है, श्री वीर का सदुपदेश मिला हमें है ॥३७९॥
ना संग संकलन संयत हो करो रे! शास्त्रादि साधन सुचारु सदा धरो रे।
ज्यों संग ही विहग ना रखते अपेक्षा, त्यों संयमी समरसी, सबकी उपेक्षा ॥३८०॥
आहार-पान-शयनादिक खूब पाते, पै अल्प में सकल कार्य सदा चलाते।
सन्तोष-कोष, गतरोष अदोष साधु, वे धन्य धन्यतर हैं शिर मैं नवा दूँ ॥३८१॥
ना स्वप्न में न मन में न किसी दशा में, लेते नहीं अशन वे मुनि हैं निशा में।
जिह्व-जयी जितकषाय जिताक्ष जोगी, कैसे निशाचर बनें, बनते न भोगी ॥३८२॥
आकीर्ण पूर्ण धरती जब थावरों से, सूक्ष्मातिसूक्ष्म जग जंगम जंतुओं से।
वे रात्रि में न दिखते युग लोचनों से, कैसे बने अशन शोधन साधुओं से? ॥३८३॥