चारित्र-धारक गुरो! करुणा दिखा दो, चारित्र का विधि-विधान हमें सिखा दो।
ऐसा सदैव कह श्रावक भव्य प्राणी, चारित्र धारण करें सुन सन्त वाणी ॥३०१॥
जो सप्तधा व्यसन सेवन त्याग देते, भाई कभी फल उदुम्बर खा न लेते।
वे भव्य दार्शनिक श्रावक नाम पाते, धीमान धार दृग को निज धाम जाते ॥३०२॥
रे मद्यपान परनारि कुशील-खोरी, अत्यंत क्रूरतम दंड, शिकार चोरी।
भाई असत्यमय भाषण द्यूत क्रीड़ा, ये सात हैं व्यसन, दें दिन रैन पीड़ा ॥३०३॥
है मांस के अशन से मति दर्प छाता, तो दर्प से मनुज को मद पान भाता।
है मद्य पीकर जुआ तक खेल लेता, यों सर्व दोष करके दुख मोल लेता ॥३०४॥
रे मांस के अशन से जब व्योम गामी, आकाश से गिर गया वह विप्र स्वामी।
ऐसी कथा प्रचलिता सबने सुनी है, वे मांस भक्षण अतः तजते गुणी हैं ॥३०५॥
जो मद्य पान करते मदमत्त होते, वे निन्द्य कार्य करते दुख बीज बोते।
सर्वत्र दु:ख सहते दिन-रैन रोते, कैसे बने फिर सुखी जिन धर्म खोते ॥३०६॥
निष्कम्प मेरु सम जो जिन भक्ति न्यारी, जागी, विराग जननी उर मध्य प्यारी।
वे शल्यहीन बनते रहते खुशी से, निश्चिंत हो, निडर, ना डरते किसी से ॥३०७॥
संसार में विनय की गरिमा निराली, है शत्रु मित्र बनता मिलती शिवाली।
धारे अत: विनय श्रावक भव्य सारे, जावे सुशीघ्र भववारिधि के किनारे ॥३०८॥
हिंसा, मृषा वचन, स्तेय कुशीलता ये, मूच्र्छा परिग्रह इन्हीं वश हो व्यथाएँ।
है पंच पाप इनका इक देश त्याग, होता ‘अणुव्रत' धरें जग जाय भाग ॥३०९॥
हा! बंध छेद वध निर्बल प्राणियों का, संरोध अन्न जल पाशव मानवों का।
क्रोधादि से मत करो टल जाय हिंसा, जो एक देश व्रत पालक हो अहिंसा ॥३१०॥
भू-गो सुता-विषय में न असत्य लाना, झूठी गवाह न धरोहर को दबाना।
यों स्थूल सत्य व्रत है यह पंचधा रे! मोक्षेच्छु श्रावक जिसे रुचि संग धारे ॥३११॥
मिथ्योपदेश न करो, सहसा न बोलो, स्त्री का रहस्य अथवा पर का न खोलो।
ना कूटलेखन लिखो कुटिलाइता से, यों स्थूल सत्य-व्रत धार बचो व्यथा से ॥३१२॥
राष्ट्रानुकूल चलना ‘कर' ना चुराना, ले चौर्य द्रव्य नहिं चोरन को लुभाना।
धंधा मिलावट करो न, अचौर्य पालो, हा! नाप-तौल नकली न कभी चला लो ॥३१३॥
स्त्री मात्र को निरखते अविकारता से, क्रीड़ा अनंग करते न निजी प्रिया से।
होते कदापि न हि अन्य विवाह पोषी, कामी अतीव बनते न स्वदारतोषी ॥३१४॥
निस्सीम संग्रह परिग्रह का विधाता, है दोष का, बस रसातल में गिराता।
तृष्णा अनंत बढ़ती सहसा उसी से, दीप्त ज्यों अनल दीपक तेल-घी से ॥३१५॥
गार्हस्थ्य के उचित जो कुछ काम के हैं, सागार सीमित परिग्रह को रखे हैं।
सम्यक्त्व धारक उसे न कभी बढ़ावें, रागाभिभूत मन को न कभी बनावें ॥३१६॥
अत्यल्प ही कर लिया परिमाण भाई! लेऊँ पुनः कुछ जरूरत जो कि आई।
ऐसा विचार तक ना तुम चित्त लाओ, संतोष धार कर जीवन को चलाओ ॥३१७॥
है सात शील व्रत श्रावक भव्य प्यारे! सातों व्रतों फिर गुणव्रत तीन न्यारे।
देशावकाशिक दिशा विरती सुनो रे!‘आनर्थ दण्ड विरती' इनको गुणो रे ॥३१८॥
सीमा विधान करना हि दशों दिशा में, माना गया वह दिशाव्रत है धरा में।
आरम्भ सीमित बने इस कामना से, सागार साधन करे इसका मुदा से ॥३१९॥
होते विनष्ट व्रत हो जिस देश में ही, जाओ वहाँ मत कभी तुम स्वप्न में भी।
देशावकाशिक वही ऋषि देशना है, धारो उसे विनशती चिर वेदना है ॥३२०॥
हैं व्यर्थ कार्य करना हि अनर्थदण्ड, हैं चार भेद इसके अघ श्वभ्र कुंड।
हिंसोपदेश, अति हिंसक शस्त्र देना, दुर्ध्यान यान चढ़ना, नित मत्त होना।
होना सुदूर इनसे बहु कर्म खोना, आनर्थ दण्ड विरती तुम शीघ्र लो ना ॥३२१॥
अत्यल्प बंधन अवश्यक कार्य से हो, अत्यंत बंध अनवश्यक कार्य से हो।
कालादि क्योंकि इक में सहयोगि होते, पै अन्य में जब अपेक्षित वे न होते ॥३२२॥
ज्यादा बको मत रखो अघ शस्त्र को भी, तोड़ो न भोग परिमाण बनो न लोभी।
भद्दे कभी वचन भी हँसते न बोलो, ना अंग व्यंग करते दृग मीच खोलो ॥३२३॥
है संविभाग अतिथिव्रत मोक्षदाता, भोगोपभोग परिमाण सुखी बनाता।
शुद्धात्म सामयिक प्रोषध से दिखाता, यों चार शैक्ष्यव्रत हैं यह छंद गाता ॥३२४॥
ना कंद मूल फल फूल-पलादि खाओ, रे! स्वप्न में तक इन्हें मन में न लाओ।
औ क्रूर कार्य न करो, न कभी कराओ, आजीविका बन अहिंसक ही चलाओ।
यों कार्य का अशन का परिमाण बाँधो, भोगोपभोग परिमाण सहर्ष साधो ॥३२५॥
उत्कृष्ट, सामयिक से गृह धर्म भाता, सावद्य कर्म जिससे कि विराम पाता।
यों जान मान बुध हैं अघ त्याग देते, आत्मार्थ सामयिक साधन साध लेते ॥३२६॥
सागार सामयिक में मन ज्यों लगाता, सच्चे सुधी श्रमण के सम साम्य पाता।
हे भव्य! सामयिक को अतएव धारो, भाई किसी तरह से निज को निहारो ॥३२७॥
आ जाय सामायिक में यदि अन्य चिन्ता, तो आर्तध्यान बनता दुख दे तुरन्ता।
निस्सार सामयिक हो उसका नितान्त, संसार हो फिर भला किस भाँति सांत? ॥३२८॥
संस्कार है न तन का न कुशीलता है, आरम्भ ना अशन प्रोषध में तथा है।
लो पूर्ण त्याग इनका इक देश या लो, धारो सुसामयिक, प्रोषध पूर्ण पा लो ॥३२९॥
दो शुद्ध अन्न यति को समयानुकूल, देशानुकूल, प्रतिकूल कभी न भूल।
तो संविभाग अतिथिव्रत ओ बनेगा, रे! स्वर्ग मोक्ष क्रमवार अवश्य देगा ॥३३०॥
आहार औ अभय औषध और शास्त्र, ये चार दान जग में सुख-पूर-पात्र।
दातव्य हैं अतिथि के अनुसार चारों, ‘सागार शास्त्र' कहता, धन को बिसारो ॥३३१॥
सागार मात्र इक भोजन दान से भी, लो धन्य धन्यतम हो धनवान से भी।
दुःपात्र पात्र इस भाँति विचार से क्या? लेआम पेट भर ले!! बस पेड़ से क्या? ॥३३२॥
शास्त्रानुकूल जल अन्न दिये न जाते, भिक्षार्थ भिक्षुक वहाँ न कदापि जाते।
वे धीर वीर चलते समयानुकूल, लेते न अन्न प्रतिकूल कदापि भूल ॥३३३॥
सागार जो अशन को मुनि को खिलाके, पश्चात् सभी मुदित हों अवशेष पाके।
वे स्वर्ग मोक्ष क्रमवार अवश्य पाते, संसार में फिर कदापि न लौट आते ॥३३४॥
जो काल से डर रहे उनको बचाना, माना गया अभयदान अहो सुजाना!
है चंद्रमा अभयदान ज्वलन्त दीखे, तो शेष दान उडु हैं पड़ जाय फीके ॥३३५॥