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मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज

संयम स्वर्ण महोत्सव

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  1. साधना विषय पर संत शिरोमणि आचार्य विद्यासागर जी के विचार हमेशा अपने मन, वचन, काय तीनों योगों की चंचलता या प्रवृत्तियों से विराम लेकर बारबार अपने उपयोग को विश्राम में रखने का ध्येय होना चाहिए। यह बहुत बड़ी साधना है। पुण्य के फल मीठे हों, फिर भी वियोग बुद्धि हो, इसी का नाम साधना है। शरीर को सिर पर मत बैठाओ, उसको नीचे अपने अण्डर में रखने का संस्कार डालना चाहिए अन्यथा ये कभी अपनी साधना सहयोगी नहीं बन सकता। बिल्कुल जैसा आदेश दें वैसा ही ये करे ऐसी साधना हो। तीन घंटे सामयिक में बैठने को कह दो तो चुपचाप ये बैठ जाये।इतना सीधा इसे बनाना चाहिए कि वो अपने पर हावी न हो जाये। कष्ट सहन करना चाहिए उस समय सही कर्मों की निर्जरा होती है। प्रतिकूलता में यदि न डिगे तो यह सबसे बड़ी साधना होती है, प्रतिकूलता में सहन करना चाहिए। मन, वचन, काय, कृत, कारित, अनुमोदना से किसी को तकलीफ न हो ये ही साधना है। अपनी मानसिकता संभालना चाहिए यही साधना है। रत्नत्रय ही जीवन है, इसी की साधना करना है इसी की चर्चा करना है और कुछ नहीं करना। पूजा-प्रशंसा के शब्द सुनकर भी यदि जीवन में मान नहीं आता तो समझना बहुत बड़ी साधना है। मान को काठिन्य बोलते हैं मृदु का उल्टा। प्रशंसा सुनकर मान नहीं आना यह मानसिक साधना है, यह प्रौढ़ होती जाती है तो शारीरिक साधना अपने आप प्रौढ़ होती चली जाती है। जैस-मानसिक साधना प्रधानमंत्री है और शारीरिक साधना कलेक्टर जैसी है। प्रधानमंत्री आ गया तो वे सब भी आ ही जायेंगे। बुद्धि पूर्वक गलत नहीं सोचना, अशुभता की ओर जाने वाले मन को रोकना एक बहुत बड़ी साधना है। खाली बैठना बहुत कठिन है। हमें ज्ञेय परायण नहीं ज्ञान परायण बनना है। ज्ञान परायण यानि ज्ञायक संवेदन की ओर जाना यही साधना का फल है। शरीर से अन्य काम तो लेना पर वासना को भूल जाना महान् साधना है। साधना करने से ही शास्त्रों में वर्णित बातें समझ में आयेंगी मात्र पढ़ने से नहीं। मन को गुलाम बनाना सबसे बड़ी साधना है। साधना में देखा-देखी मत करो देखकर करो। बाधाओं को सहन करने वाला निरंतर साधना करने वाला व्यक्ति ही अन्त में सफल होता है। कषायों को जीतना वस्तुत: साधना का एक मात्र फल है। जिस प्रकार युवावस्था की कमाई को मनुष्य वृद्धावस्था में आराम से भोगता है। उसी प्रकार युवावस्था की धर्म-साधना का उपयोग वृद्धावस्था में किया जाता है। छत्र-छाया उन्हीं को मिलती जिन्होंने संयम के माध्यम से साधना की। काया की कंचन बनाने का एकमात्र साधन साधना है। जिस तरह दुकान चलाने के लिए धन-दौलत, नौकर-चाकर आदि आवश्यक है इसी प्रकार वीतरागता अर्जित हेतु कुछ साधना की आवश्यकता होती है। अनंत काल से प्रभु भीतर सोया है उसे साधना के बल पर एक बार जगा लें तो इस देह के बंधन से हम मुक्त हो सकते हैं। छोटी-छोटी बात का संकल्प लेकर भी हम अपने जीवन में साधना कर सकते हैं और आत्मा को पवित्र बना सकते हैं। साधर्मियों के वचनों को सुनने की साधना करना चाहिए। तेल डालना अलग और ग्रीस चिपकाना अलग होता है, गाड़ी को अधिक परिश्रम नहीं हो ऐसी गति से चलाना चाहिए सतत निरंतर। हमेशा-हमेशा सफलता का मुख देखती रहती हमारी साधना। यदि इस प्रकार अपनी गाड़ी को चलाते हैं। सफलता का कारण निरंतर साधना और परिश्रम है। भागदौड़ी छोड़कर एक गति पर आओ। हाइट जब रुक जाती है तो गति अच्छी आती है अर्थात् बल और आस्था बढ़ती जाती है। स्वार्थ को छोड़े बिना परमार्थ की साधना संभव हो नहीं सकती। जो शरीर को साधना का साधन बना देते हैं वे शरीर को सजा देते हैं, और जो शरीर को वासना का गुलाम बना देते हैं वे शरीर को सजाते हैं। अत: शरीर को साधना का साधन समझो वासना का नहीं। साध्य की प्राप्ति के लिए साधना आवश्यक है। जिन्होंने साधना में अपना चित्त लगाया है, उन्हें बाहरी साधन विचलित नहीं कर सकते हैं।
  2. सल्लेखना विषय पर संत शिरोमणि आचार्य विद्यासागर जी के विचार सल्लेखना कराने वाले के लिए आचार्यश्री जी द्वारा प्रदत्त कुछ विशेष बिन्दु-१ धर्म प्रिय हो। २. सिद्धान्त दृढ़ हो। ३. संवेगवान् हो। ४.पाँच पापों से डरने वाला हो।५. धीरज रखने वाला हो। ६. सामने वाले का अभिप्राय समझता हो। ७. प्रत्यय के योग्य विश्वसनीय। ८. शास्त्र का जानकार भी हो इस प्रकार सल्लेखना कराने वाले को प्रशिक्षण दिया जाता है। चारित्र प्रिय हो यदि चारित्रमोह का तीव्र उदय है तो वह दृढ़ नहीं रह पाता। चारित्र में और असंयम का परिहार नहीं कर सकते। परीषह को सहन करने की क्षमता रखने वाला हो। परीषह से जो डर जाता है वह असंयम का परिहार नहीं कर पाता। अप्रासंगिकता छोड़कर चलने वाला हो, यह कट्टरता से छूटता है। योग्य-अयोग्य भोजन का ज्ञान रखता हो। इसमें कुशलता रखता हो। क्षपक के चित्त को संतुलित रखता हो। सल्लेखना के समय सिद्धान्त ग्रंथों का स्वाध्याय नहीं होता। वैराग्य पाठ आदि का स्वाध्याय होता है, क्योंकि सल्लेखना के समय पूरे संघ को विकल्प रहता है, इसलिए सल्लेखना के समय सिद्धान्त ग्रन्थों का स्वाध्याय नहीं होता। रोने वालों को वहाँ पर नहीं जाने देना चाहिए। ज्यादा वैय्यावृत्ति भी नहीं करना चाहिए। शब्दों के माध्यम से भी वैय्यावृत्ति कर सकते हैं। प्रमादी एवं असंयमी व्यक्ति को अंदर नहीं जाने दें। वहाँ पर कोई लिहाज नहीं रखना चाहिए। अभिमानी व्यक्ति को वहाँ पर नहीं रखना चाहिए। भाव प्रधान होता है समाधिमरण, इसलिए प्रशस्तता होना चाहिए। क्षपक का धर्मध्यान बढ़ता चला जाये ऐसे भाव रखने चाहिए। जो सल्लेखना व्रत ले रहे हैं, उस व्रत के प्रति हमेशा उत्साह होना चाहिए। सल्लेखना के लिए स्वयं को ही कमर कसना होगी, दूसरे के भरोसे नहीं ली जाती सल्लेखना। सल्लेखना के समय रोगी के अनुरूप नहीं, रोग के अनुरूप दवाई दी जाती हैं। आत्मा की सेवा होती है सल्लेखना में। एक बार भोजन करने वाला सल्लेखना में यशस्वी होता है दूसरी भुति तो होना ही नहीं चाहिए। सल्लेखना की साधना हर समय होनी चाहिए। मरण करना या काय सल्लेखना करना केवल सल्लेखना नहीं है इसमें पहले हमें कषाय की सल्लेखना कर लेना चाहिए फिर बाद में काय सल्लेखना होती है। सल्लेखना यदि आपको लेना है तो जिम्मेदारी वाले कार्य को पहले छोड़ना चाहिए। सल्लेखना के समय क्षपक जो दृढ़ होता है वो शरीर से कहता है मैं तेरे अधीन नहीं रहूँगा, मैं तो अपने संकल्प को क्षत्रिय के समान बनकर अपने संकल्प पर अडिग रहूँगा इसलिए तो कहा जाता है कि क्षत्रिय ही सल्लेखना कर सकता है। जब तक मस्तिष्क और शरीररूपी सम्पदा आपके पास विद्यमान रहती है, तब तक सल्लेखना की साधना करते रहना चाहिए। केवल भोजन का त्याग करना ही मात्र सल्लेखना नहीं इसके साथ-साथ किसी से राग-द्वेष नहीं रखेंगे। ध्यान में परिश्रम होता है, सल्लेखना/समाधि में परिश्रम नहीं होता। फल आ जाने पर सारे श्रम समाप्त हो जाते हैं, फूल आने तक श्रम है, तभी तक साधना है। इच्छा के बिना प्रत्येक समय निकलना ही सल्लेखना है। जीवन की सार्थकता व्रतियों की सल्लेखना में ही पूर्ण होती है और वह भी पूर्णरूप से निर्दोष हो कठिन से कठिनतम होती है। यदि सम्यक दृष्टि है और निर्दोष सल्लेखना करना चाहता है तो अपने अवशेष जीवन को अभी से उसमें लगा देना चाहिए। इधर उधर की बातें बंद करो और सल्लेखना की तैयारी में मन लगाओ। दो प्रकार की सल्लेखना है, काय सल्लेखना और कषाय सल्लेखना। काय सल्लेखना तो समय पर होगी लेकिन कषाय सल्लेखना करना अभी से अनिवार्य है। काय सल्लेखना तो सब करते हैं पर कषाय सल्लेखना नहीं करते हैं। यदि कषाय सल्लेखना नहीं है, बाकी सब है तो उसे हम सल्लेखना नहीं कह सकते। कषाय सल्लेखना हो जायेगी तो रागद्वेष रह नहीं पायेगा। जो इसमें सफल होता है उसे अन्य निर्देश देने की आवश्यकता नहीं है। जो कषाय सल्लेखना नहीं करेगा उसका अकल्याण होगा, कल्याण नहीं होगा। आज तक ऊपर-ऊपर बर्तन माँजा है, अब भीतर भी माँज लो। कषाय सल्लेखना पल जाये तो हम मान जायेंगे कि ये अपना कल्याण कर सकता है। इस सल्लेखना में ज्यादा नंबर कौन लेता है हम ये भी देखेंगे। माया सल्लेखना कैसे करें? माया कषाय की सल्लेखना करने के लिए माया को ढूंढी। माया कषाय जैसे कब दिखना चाहता है, कब छुपना चाहता है। मान लो झूठ बोल रहे हैं कि नहीं, बोले तो कितनी बार बोले झूठ? मन,वचन, काय की अपेक्षा से स्वयं की अपेक्षा से दूसरों की अपेक्षा से कितनी बार झूठ बोलें? ये बार-बार देखें। देखना है तो दूसरों की अच्छाई देखो फिर अपने में लाओ। चारित्रशुद्धि का नाम ही कषाय सल्लेखना है। पूज्यश्री गुणभद्राचार्य ने लिखा है-कि यदि बाह्य तप नहीं करता, घोर-घोर तप नहीं करता संहनन नहीं है तो कोई बात नहीं परन्तु यदि कषाय सल्लेखना नहीं करते तो ये कायरता है। जड़ काय की सल्लेखना की अपेक्षा कषाय सल्लेखना कर ली। शरीर की सल्लेखना कोई सल्लेखना ही नहीं है। सल्लेखना उसी का नाम है जब कभी भी आ जाये तैयार रहना चाहिए शर्त नहीं रखना। सल्लेखना के लिए हमेशा सतर्क रहना चाहिए। सौम्य भावों वाला ही सल्लेखना कर सकता है। लाखों रुपयों का मंदिर बनाकर फिर कलशारोहण कराना जितना महत्वपूर्ण है उतना ही महत्व सल्लेखना का है। कषाय सल्लेखना करो। कषाय सल्लेखना करोगे तो अन्त में काय सल्लेखना भी अच्छी तरह हो जायेगी। भीतर से कषाय सल्लेखना का भाव हमेशा रखना चाहिए। जिस समय कषाय की संभावना हो उस समय कषाय नहीं करना कषाय सल्लेखना है। कषाय सल्लेखना के साथ उपवास करना। जिससे कर्म निर्जरा होती है। कषाय सल्लेखना इस सूत्र को याद रखोगे तो आपको इससे आत्मसंतोष भी होगा। हर्ष और विषाद जो होते है उसका लेखन किया जाता है क्रश किया जाता है, उसका नाम सल्लेखना है। कषाय सल्लेखना करने से ही सही साधक नजर आने लगेंगे। बाहरी चर्या के माध्यम से भीतरी स्रोत खुलते हैं, खुले ये जरूरी नहीं। उपवास मात्र करना कषाय सल्लेखना नहीं है। सल्लेखना की ओर किसी का भी ध्यान नहीं है। अनुभव की कमी है कि इसकी ओर दृष्टि ही नहीं है जबकि सबसे महत्वपूर्ण बिन्दु यही है। जीवन का सार है, निखार है यह सल्लेखना। जिसने कषाय सल्लेखना कर ली उसके लिए शरीर सल्लेखना कोई चीज नहीं है। सल्लेखना के लिए हमेशा तत्पर रहना चाहिए। जो यहाँ एक-एक समय में कषाय सल्लेखना करेगा वही अंतिम समय में करेगा। सल्लेखना उसी की अच्छी होती है जो आहार, जल आदि की मात्रा के बारे में समझता है। सल्लेखना के समय सुनियोजित एवं सुव्यवस्थित चर्या होनी चाहिए। किसी भी प्रकार की चाह से रहित होकर समता रखने का नाम समाधि है। व्रत लेते ही सल्लेखना शुरू हो जाती है, कभी भी परीक्षा हो सकती है। सल्लेखना की तैयारी करो ऐसा कहना ही न पड़े, व्रतों का सार है सल्लेखना। तपने से ही उज्ज्वलता आती है। बारह व्रत फूल के समान हैं, सल्लेखना फल है। सल्लेखना नहीं हो पायी तो जीवन की साधना अधूरी मानी जाती है। कषाय सल्लेखना की जी नहीं करता उसी को काय के प्रति मोह हो जाता है। धर्म स्वाश्रित होता है जब स्वयं से व्रत पालन नहीं हो रहा हो तो पर के माध्यम से कहाँ तक पालन करोगे? सल्लेखना लेनी होती है। धर्म के लिए शरीर को छोड़ना सल्लेखना है। यदि जल्दी सल्लेखना लेता है तो असंयम का समर्थन हो जावेगा क्योंकि जल्दी मरण हो जावेगा तो देवी (असंयम) में उत्पन्न होगा। जो व्यक्ति जीवन को वर्गीकृत नहीं करता वह सल्लेखना तक नहीं पहुँच सकता। जन्म के बाद भोजन करना सिखाया जाता है और मरण के अन्त समय में भोजन छुड़वाया जाता है। मृत्यु जीवन का अंत नहीं। मृत्यु की मृत्यु ही वास्तव में जीवन है। समाधि तो उस दशा का नाम है जो हम आधि, व्याधि और उपाधि से मुक्त होते हैं। जो अतीत और अनागत को भूल जाता है वह निर्विकल्प समाधि वाला होता है। अतीत और अनागत से ऊपर उठने वाले के दर्शन बहुत कम होते हैं। जो कक्षा में है उसे परीक्षा को नहीं भूलना चाहिए। उसी प्रकार जो व्रती बन जाये और सल्लेखना से डर जाये तो यह ठीक नहीं है। अंतिम समय में दो प्रकार की सल्लेखना करना होता है कषाय और काय, शरीर के प्रति मोह नहीं रखना कषाय सल्लेखना है और जब शरीर कार्य नहीं करे तो उसे आहार पानी देना कम कर देना काय सल्लेखना है। सल्लेखना दी नहीं जाती है बुद्धिपूर्वक ली जाती है। काय और कषाय के कारणों का सम्यक्र प्रकार से लेखन करना, कृश करना सल्लेखना है। सल्लेखना के माध्यम से अनंत संसार को कम से कम तीन भवों में बदल सकते हैं यह सल्लेखना की महत्ता है। सल्लेखना के समय छटपटाहट से नहीं डरना चाहिए, असंयम से डरना चाहिए। सात शील घर में रहकर भी पल सकते हैं, पर सल्लेखना के समय घर त्याग आवश्यक है। समाधि मरण जीवन की सफलता की कसौटी है। हर्ष विषाद से परे आत्म सत्ता की सतत अनुभूति ही सच्ची समाधि है। आदर्श मृत्यु को साधु समाधि कहते हैं। साधु का दूसरा अर्थ सजन से है। ऐसे आदर्श मरण को यदि हम एक बार भी प्राप्त करेंगे तो हमारा उद्धार हो सकता है। समाधि तभी होगी जब हमें अपनी सत्ता की शाश्वतता का भान हो जायेगा। साधु समाधि वही है जिसमें मौत को मौत के रूप में नहीं देखा जाता और जन्म को भी अपनी आत्मा का जन्म नहीं माना जाता। जहाँ न सुख का विकल्प है और न दु:ख का। सल्लेखना दिखाने की नहीं करने की होती है। जिसकी उम्र है वो उम्र अवश्य समाप्त हो जाती है। जिसकी एज है उसकी इमेज अवश्य खराब हो जाती है। पुण्य के द्वारा रोग टल सकता है लेकिन मरण नहीं टल सकता है परन्तु मरण को टालने के लिए कोई भी इसके पास साधन नहीं है। काया से चिर परिचित सम्बन्ध बना लिया, मुँह मोड़ना मुश्किल है किन्तु छोड़ना अवश्य है, न चाहते हुए भी छोड़ना होगा। अनंत बार मरण का वरण करने के उपरांत भी मृत्यु से भयभीत है नाम सुनते ही रोंगटे खड़े हो जाते हैं, थर-थर कांपने लगते हैं, असंख्य बार मरण प्राप्त किया उसी से डर रहे हैं, कुछ समझ में नहीं आता। समाधि मरण का संकल्पी साहसी होता है, संकल्पपूर्वक सुनिश्चित घटना का निश्चिंतता के साथ सामना करता है। समाधि के लिए दया, दम और त्याग को अपनाना होगा। इसके बिना कोई सीधा और छोटा रास्ता नहीं है। यदि इसके बिना समाधि प्राप्त करने के लिए कोई शार्टकट ढूँढ़ने जाओगे तो समाधि के बदले आधि-व्याधियों में ही उलझ जाओगे। समाधि कोई हाथ में लाकर रख देने की चीज नहीं है वह तो साधना के द्वारा ही मिल सकती है। जितना दया का पालन करेंगे, उतना ही समाधि के निकट पहुँचते जायेंगे समाधि के द्वार पर लगे तालों को खोलने के लिए इन्हीं चाबियों की जरूरत है। सल्लेखना के समय पर जिस व्यक्ति के मुख से अरिहंत भगवान् का नाम निकलता है वह बहुत ही भाग्यशाली है। जिसके मुख से अरिहंत नाम भी नहीं निकलता है, उसका तो कर्म ही फूट गया, खोटा कर्म है। महान् बड़भागी होते हैं वे जो जीवनपर्यत उपाध्याय परमेष्ठी का काम करते हैं और अंत में भी णमोकारमंत्र दूसरों को सुनाते जाते हैं बहुत भाग्य की बात है यह। अरिहंत, सिद्ध मुख से नहीं निकलता किन्तु कहते हैं हायरे जल ले आओ, भीतर तो सभी कुछ जला जा रहा है। जीवन भर समयसार भी पढो गोम्मटसार भी रटलो, प्रवचनसारके प्रवचन भी करलो, लेकिन जब अन्त समय प्राण पखेरू उड़ने लग जाते हैं तो अरिहंत कहते नहीं पाये जाते, ऐसे भी कई उदाहरण हैं। भय के साथ यदि मरण करेंगे तो पुन: जन्म होगा और दु:ख उठाना पड़ेगा इसलिए ये मरण का भय छोड़ देना चाहिए। भयों में मरण का भय ही सबसे बड़ा भय माना जाता है।
  3. आज यह पंचकल्याणक एवं गजरथ महोत्सव का समापन सागर की इस विशाल जन-राशि के सामने सानंद सम्पन्न हुआ। यह निश्चित है कि कोई भी कार्य होता है उसकी भूमिका महीनों/ वर्षों पहले से चलती है और वह कार्य सम्पन्न हो जाता है कुछ ही दिनों में। आज तक इस सागर की एक यही लगन रही कि पंचकल्याणक महोत्सव सानंद सम्पन्न करना है और आज यह कार्य संपन्न हुआ तो सब ओर हर्ष छाया है, सारी थकान भुला दी गयी है। बंधुओ! हमारे सामने हमेशा कर्तव्य रहना चाहिए। कर्तापन नहीं आना चाहिए। कोई भी कार्य होता है तो वह उपादान की योग्यता के अनुरूप होता है, लेकिन उसके लिये योग्य सामग्री जुटाना भी आवश्यक होता है। सभी के परस्पर सहयोग से ऐसे महान् कार्य सम्पन्न होते हैं। भावों में आस्था होनी चाहिए। धर्म के प्रति आस्था जब धीरे-धीरे निष्ठा की ओर बढ़ती है, प्रगाढ़ होती है, तभी प्रतिष्ठा हो पाती है और जब प्रतिष्ठा की ओर दृष्टिपात नहीं करते हुए आगे बढ़ते हैं तो संस्था बन जाती है, तभी सारी व्यवस्था ठीक हो पाती है। और हमारी आस्था सुधर पाती है। यह जिन बिंब प्रतिष्ठा आस्था के साथ हमारी अवस्था को सुधारने में सहायक है। इस समारोह के सानंद सम्पन्न होने में पुद्गल द्रव्य भी काम कर रहा है। अपनी-अपनी योग्यता के अनुसार सभी सहयोगी बने हैं। चैतन्य परिणाम तो उपादान के रूप में माना ही गया है जो सामूहिक रूप से इस कार्य को सम्पन्न करने में साक्षात् कारण है। ऐसे भव्य आयोजन इसीलिए एकता के प्रतीक बन जाते हैं। यह एक दूसरे के सहयोग की भावना का परिणाम है कि विस्मय में डालने वाला इतना बृहत् कार्य सम्पन्न हो गया। मानव एक मात्र ऐसा प्राणी है जो सब कुछ कर सकता है। लेकिन इतना ही है कि उसका दिल और दिमाग ठीक काम करता रहे। उसमें लगन और एकता बनी रहे। तब देवता भी उसके चरणों में नतमस्तक हो जाते हैं और सहयोगी बनते हैं। प्रकृति का सहयोग दो प्रकार का है। एक बाहरी प्रकृति जो दिखायी पड़ती है और एक भीतरी प्रकृति जो हमारा स्वभाव है, वह दिखाई नहीं पड़ती। यदि उस भीतरी स्वभाव में, प्रकृति में विकार उत्पन्न हो जाये तो बाहरी प्रकृति अनुकूल होने पर भी संकट आ जाता है। यदि उज्वल भाव हो, भीतरी प्रकृति शान्त हो तो बाहरी प्रकृति रुष्ट नहीं होती वरन् संतुष्ट हो जाती है। कल सुना था कि व्यवस्था में लगे हुए डी.आई.जी., कलेक्टर और सभी प्रशासनिक अधिकारी वगैरह का कहना है कि रथ की फेरी के समय धूल न उड़े इसलिए पानी के सिंचन की व्यवस्था होनी चाहिए, वह हम करेंगे, तो प्रकृति ने स्वयं ही मेघों के माध्यम से रात्रि में मानो सिंचन ही कर दिया। आशय यही है कि प्रत्येक समस्या का समाधान संतोष, शान्ति, संयम और परिणामों की उज्ज्वलता से संभव है। आज महान् तीर्थकर, केवली, श्रुतकेवली या ऋद्धिधारी मुनि महाराज आदि तो नहीं है जिनके पुण्य से सारे कार्य सानंद सम्पन्न हो सकें पर सामूहिक पुण्य के माध्यम से आज भी धर्म के ऐसे महान् आयोजन सानंद सम्पन्न हो रहे हैं। यही धर्म का महात्म्य है। यही संयम की महिमा है। संयमी के साथ असंयमी भी संयमित होकर चले, वह बहुत कठिन होता है लेकिन आप सभी ने इस कठिनाई को भी बड़ी लगन से संयमित होकर पार कर लिया। यदि इस प्रकार आगे भी करते जायेंगे तो संयमी बनने में देर नहीं लगेगी। संयम से हमारा यहाँ तात्पर्य संयम की ओर रुचि होने से है जिसका उद्देश्य परम्परा से निर्वाण प्राप्त करना है। जो जीवन शेष है वह आप धार्मिक आयोजनों में व्यतीत करें और परस्पर उपकार और सहयोग के महत्व को समझे। जो जीव शान्ति और सुख चाहते हैं अपना उत्थान चाहते हैं उनके लिये यथोचित सामयिक सहयोग यदि आप करेंगे, उन्हें अपने समान मानकर, अपना मित्र समझकर उनका हित चाहेंगे तो परस्पर एक दूसरे का कल्याण होगा। सिगड़ी के ऊपर एक बर्तन रखा है उसमें दूध तपाने के लिये रखा गया है। नीचे आग जल रही है। दूध तप रहा है। तपता-तपता वह दूध मालिक की असावधानी के कारण ऊपर आने लगा। लगता है मानो वह कर्तव्यनिष्ठ व्यक्ति के पास रहना चाहता है और चूँकि उसका मालिक कर्तव्यनिष्ठ नहीं है, इसलिए उसे छोड़ना चाह रहा है या कहो कि जो उसे सता रहा है, पीड़ा दे रहा है, उस अग्नि को देखने के लिये बाहर आ रहा है और इतने में ही थोड़ी सी जल की धारा उसमें छोड़ दी गयी और वह दूध जो उबल रहा था, उफन रहा था, वह बिल्कुल शान्त हो गया। यह सोचने की बात है कि थोड़ी सी जल की धारा दूध की शान्ति के लिये कारण बन गयी। इसका रहस्य यही है कि दूध का मित्र जल है। जल के कारण ही दूध, दूध माना जाता है। यदि दूध में जल तत्व खो जाये तो उसे आप कहते हैं खोवा और खोवा की लोकप्रियता दूध के समान नहीं है। दूध को रस माना गया है। दूध बालक से लेकर वृद्ध सभी को प्रिय है और सभी के योग्य भी है। तो दूध में जो जल मिला है उसी से सभी उसको चाहते हैं। दूध की जल से यह मित्रता अनोखी है। विजातीय होकर भी दूध और जल में गहरी मित्रता है। दूध की दूध से मित्रता भले ही न हो लेकिन जल से तो हमेशा रहती है। गाय का दूध यदि अकौआ के दूध से मिल जाये तो फट जाता है। विकृत हो जाता है। दोनों की मैत्री कायम नहीं रह पाती। दूध का उपकारी इस प्रकार एक मात्र जल ही है। हमें सोचना चाहिए कि जब दूध और जल में मैत्री हो सकती है तो हम मनुष्यों में परस्पर मैत्री भाव, सहयोगी भाव नहीं रह सकता? रहना चाहिए। वर्तमान में विभिन्न प्रकार के यान तीव्रगति से अंतरिक्ष में प्रक्षेपित किये जाते हैं और वे पृथ्वी की गुरुत्वाकर्षण कक्षा से बाहर निकलकर अंतरिक्ष में प्रवेश कर लेते हैं। यह क्षमता पुद्गल के पास है। इसे हम विज्ञान की प्रगति और उन्नति मानते हैं तो क्या हम ऐसे धार्मिक आयोजनों के माध्यम से अपने जीवन की संवेगवान व संयमित करके अपने भावों को उज्ज्वल बनाकर के मोह की कक्षा से अपने आप को ऊपर नहीं उठा सकते। जो महान् आत्मायें अपने भावों की उज्ज्वलता और तपस्या के प्रभाव से अनंतकाल के लिये मोह की कक्षा से ऊपर उठ गयी हैं, उनका स्मरण अवश्य करना चाहिए और उन्हें अपना आदर्श मानकर अपने जीवन का कल्याण करना चाहिए। अंत में यही भावना करता हूँ कि- यही प्रार्थना वीर से अनुनय से कर जोड़। हरी भरी दिखती रहे धरती चारों ओर।
  4. रथ आगे बढ़ता जा रहा है। अश्व गतिमान है। गन्तव्य तक पहुँचना है। मंगल का अवसर है। जीवन में वह अवसर, वह घड़ी एक ही बार आती है। उस घड़ी की प्रतीक्षा में लाखों जनता लगी हुई है। यात्री रथ में है, और अबाधित पथ को लांघता हुआ चला जा रहा है। अपने मनोरथ की पूर्ति हेतु संकल्प उसके पास है। लक्ष्य को प्राप्त करने के लिये वह आतुर है। लेकिन संयत होकर अपने कदम बढ़ा रहा है और कुछ ही दूरी रह गयी है पर लग रहा है कि संकल्प पूरा नहीं हो पायेगा। संकल्प परिवर्तन के योग्य भी नहीं है क्योंकि संकल्प तो जीवन की उन्नति के लिये जीवन के उत्थान के लिये किया जाता है। संकल्प मात्र जीवन निर्वाह के लिये नहीं होता, वह तो जीवन के निर्माण के लिये होता है। लेकिन मुक्ति के स्थान पर बंधन नजर आने लगे। जीवन परतंत्रता में फंसता चला जाये तो वह संकल्प ठीक नहीं माना जायेगा। आनंद के स्थान पर चीत्कार सुनाई पड़े तो ठीक नहीं। यही बात हुई और उस पथिक ने कहा रोकिये, रथ को रोकिये। रथ रुक जाता है। वह यात्री नीचे उतर जाता है और कहता है कि ठहरिए आप लोग यहीं पर। मैं अकेला जा रहा हूँ और वह अकेला ही आगे बढ़ जाता है। कोई उसके पीछे जाने का साहस नहीं कर सका। अब क्या संकल्प उसके मन में आया है, यह तो वही आत्मा जानता है या तीन लोक के नाथ जानते हैं। इतना अवश्य सभी के समझ में आ रहा है कि रास्ता बदल गया है। यह वार्ता हवाओं में फैलती चली गयी। सभी चकित हैं कि यह कैसे हुआ। हमने बहुत सोच समझकर मुहूर्त निकाला था लेकिन यह अकस्मात् परिवर्तन कैसे हो गया। सब किंकर्तव्यविमूढ़ हैं। आप समझ गये होंगे। विवाह का मंगल अवसर था और पशुओं का क्रन्दन सुनकर उन्हें बंधन में पड़ा देखकर नेमिनाथ कुमार ने पथ परिवर्तित कर लिया। अब जीवन का लक्ष्य बंधन मुक्त होना है। जीवन आज तक बंधनमय रहा, अब बंधन का सहारा नहीं चाहिए। अब आजादी के स्वर कानों में प्रविष्ट हो रहे हैं। मूक पशुओं की आजादी के साथ अपनी कर्म-बंधन से आजादी की बात आ गयी है। निमित्त मिल गया। निमित्त हमें भी मिलता है लेकिन हमारा पथ परिवर्तित नहीं होता और सारी बात सुनकर वहाँ एक दूसरी आत्मा भी उसका अनुकरण करती चली जाती है। वह रास्ता चला गया है गिरनार की ओर। गिरनार पर्वत का नाम पहले ऊर्जयन्त था, बाद में गिरनार पड़ा। राजुल ने जहाँ गिर गिरकर भी अपने संकल्प को नहीं छोड़ा। केवल स्वार्थ सिद्धि के लिये पथ बदलने वाली वह आत्मा नहीं थी। जो अहिंसा का उपासक है यह उसी पथ पर बढ़ता है जिस पथ में अहिंसा का पोषण होता है। गिरनार के झाड़-झंखाड़ में भी उसे मार्ग प्रशस्त अनुभव हुआ। अहिंसा के पथ का पथिक अपने पथ का निर्माण स्वयं करता चला जाता है। पथ का निर्माण तो चलने से ही होता है। महाव्रती ही अहिंसा के पथ पर चल सकता है। महाव्रती इसीलिए कहा जाता है कि वह अकेला ही महान् पथ पर चल पड़ता है फिर उसके पीछे बहुतों की संख्या चली आती है। "अयंनिजः परोवेत्ति गणना लघु-चेतसाम् उदारचरितानां तु वसुधैव कुटुम्बकम्।" यह मेरा है, वह तेरा है, ऐसी मनोवृत्ति संकीर्णता का प्रतीक है। उदार आचरण वाले उदारमना तो सारी वसुंधरा को ही अपना कुटुम्ब मानते हैं, अपना परिवार मानते हैं। ऐसे ही उदार चरित्र वाले मुक्ति के भाजन बनते हैं। जिस पथ के माध्यम से मेरा उद्धार हो और दूसरे का पथ भी प्रदर्शित हो, ऐसे पथ पर वे चलते हैं। भले ही उस पथ पर कंटक बिछे हों। वह पथ मेरे लिये नहीं है जिसके द्वारा हिंसा का पोषण होता हो, जिसके द्वारा जीवों को धक्का लगता हो, जिसके द्वारा जीवन पतित बनता हो, जिसके द्वारा एक दूसरे के बीच दीवार खड़ी हो जाती हो, स्वार्थ परायणता आती हो, वह पथ अहिंसा का पथ नहीं है। यही कारण था कि तोरणद्वार के पास पहुँचकर भी पथ बदल गया। कानों में वह दयनीय जीवों की आर्त ध्वनि पड़ गयी। लाखों जनता ने भी सुनी लेकिन इस पथिक का पथ बदल गया। मूक प्राणियों की वेदना भरी आवाज वास्तव में यदि किसी ने सुनी तो वे नेमिकुमार थे और उसका अनुकरण करने वाली राजुल थीं। उन्होंने अपना ही नहीं दुनियाँ का पथ प्रदर्शित किया। धन्य हैं अहिंसा के पथ के पथिक, बारात को खुश करने के लिये वन्य जीवों की हिंसा मेरे लिये ठीक नहीं है। आज पर्यावरण प्रदूषण की बात चलती है। बंधुओं! पर्यावरण के प्रदूषण में न वन्य प्राणियों का, न वनस्पति जगत् का, न ही अन्य किसी देवता का हाथ है, यह प्रदूषण मात्र मानव के मनोदूषण से उत्पन्न हो रहा है। अहिंसा के समर्थक जीवों के ऊपर दया करके अपनी सुख सुविधा को छोड़कर सबके कल्याण के मार्ग पर चलने वाले वे उदार-चरित्र नेमिनाथ जैसे महान् पुरुष ही वास्तव में पर्यावरण को सुरक्षित रखने में सहयोगी हैं। यदि दया है तो जीवन धर्ममय है। दयामय धर्म अहिंसा-धर्म एक वृक्ष की तरह है। शेष सभी सत्य, अचौर्य, अपरिग्रह और ब्रह्मचर्य उसी के संवर्धन-संरक्षण और पोषण के लिये हैं। जैन समाज में परिग्रह की बात आती है कि परिग्रह बहुत है। बंधुओ, मात्र धन संपदा का संग्रह करना परिग्रह नहीं है। परिग्रह का अर्थ तो मूछी है। मूछों का अर्थ है गाफिलता, वस्तुओं के प्रति अत्यन्त आसक्ति। दयाधर्म के विकास के लिये शान्ति और आनंद के विस्तार के लिये जो अपने वित्त (धन सम्पदा) का समय-समय पर बूंद-बूंद कर संग्रह किया है यदि उसे वितरण कर देता है तो वह परिग्रह एवं पाप का संग्रहकर्ता नहीं माना जाता है। जैन समाज का इतिहास है, आज तक उसने राजा-महाराजाओं के लिये देश पर विपत्ति आने पर अपने भंडार खोल दिये हैं। संग्रहित धन का वितरण करके सदुपयोग किया है। अपनी इसी संस्कृति का अनुकरण करते हुए आज भी अपरिग्रह वृत्ति को अपने जीवन में लाने का प्रयास करना चाहिए। वीतरागता, उज्ज्वल परिणाम और परोपकार की भावना ही जैन धर्म की शान है। धम्मो मंगल मुद्विट्ट अहिंसा संजमो तवो | देवा वि तस्स पणमंति जस धम्मे सया मणो || अहिंसा, तप और संयम ही मंगलमय धर्म है। जिसका मन सदा उस धर्माचरण में लगा है उसे देव लोग भी नमस्कार करते हैं। यह जैन धर्म विश्व-धर्म है। आदिनाथ भगवान् के समय जो धर्म था वही तो जैन धर्म है और आदिनाथ भगवान् ही आदिब्रह्मा हैं। जिनका उल्लेख वेदों में आता है और उनके पुत्र भरत के नाम से ही यह देश भारत देश माना जाता है। हमें भी उन्हीं का अनुकरण करते हुए जीवन में अहिंसा को धारण करना चाहिए। जैनियों ने कभी 'परस्परोपग्रहो जैनानाम्' नहीं कहा। जैनधर्म में तो 'परस्परोग्रहो जीवानाम्' की बात आती है। साम्प्रदायिकता के नाम पर अपने-अपने घर भरना, अपना स्वार्थ सिद्ध करना और अहं को पुष्ट करना ठीक नहीं है। आज अहं वृत्ति नहीं सेवा-वृत्ति को फैलाना चाहिए। जीवन भले ही चार दिन का क्यों न हो लेकिन अहिंसामय हो तो मूल्यवान है जो धर्म के साथ क्षणभर भी जीता है वह धन्य है। भगवान् ऋषभदेव ने तपस्या के उपरान्त कैवल्य प्राप्त होने पर हमें यही उपदेश दिया कि प्रत्येक आत्मा अपना आत्मकल्याण करने के लिये स्वतंत्र है। हमें सभी जीवों के आत्म कल्याण में करुणावान होकर, दया धर्म से ओतप्रोत होकर परस्पर उपकार की भावना रखकर, यथा संभव मदद करनी चाहिए।
  5. समय अत्यल्प रह गया है। आज अभी-अभी भगवान् की दीक्षा के उपरान्त आर्यिका दीक्षायें सम्पन्न हुई हैं। भगवान् ऋषभदेव के समय जब भगवान् का वहाँ दीक्षा-कल्याणक महोत्सव मनाया जा रहा है तो पूरी नगरी में उल्लास छाया हुआ है। सब अपने-अपने कर्तव्य में लगे हुए हैं। सबका मनोयोग उसी में लगा हुआ है। आज कैसा भावों का परिवर्तन होने जा रहा है? अभी तक तो आदि कुमार राजा सभी के स्वामी थे, अब अपने स्वयं के स्वामी बनने जा रहे हैं। द्रव्य, क्षेत्र और काल का परिवर्तन उतना महत्वपूर्ण नहीं है जितना भावों का परिवर्तन महत्वपूर्ण है। आज भावों के परिवर्तन का दिन है। किसी को यह अच्छा भले ही न लगे (पराभिप्राय निवृत्यशक्यत्वात् दूसरे के अभिप्राय का निवारण करना वैसे भी अशक्य है।) किन्तु मोक्षमार्ग में भावों की प्रधानता है। अभी तक राजसत्ता थी। दंड संहिता चल रही थी। साम-दाम, दंड भेद की बात चलती थी किन्तु अब तो अभेद की यात्रा प्रारंभ हो रही है। अब कोई आज्ञा मांगे तो भी आज्ञा नहीं दी जायेगी। अब तो - 'दुखे-सुखे वैरिणी बंधु-वर्गों, योगेवियोगे भवने वने वा। निराकृता शेष ममत्वबुद्धि, समं मनो मेस्तु सदापि नाथ।' (सामायिक पाठ - ३) अब तो सभी के प्रति ममत्व बुद्धि को छोड़कर आत्मा समत्व में लीन होना चाह रही है। भीतर से वैराग्य उमड़ रहा है। यह घटना आत्मोन्नति के लिये प्रेरणादायी है। भारत की संस्कृति आज जीवित है तो इन्हीं आत्मोन्नति की घटनाओं के माध्यम से जीवित है। धन-सम्पदा के कारण नहीं। ज्ञान-विज्ञान के कारण नहीं बल्कि त्याग, तपस्या के कारण भारतभूमि महान् है। वैभव तो वै अर्थात् निश्चय से भव यानि संसार ही है। इसलिए वैभव, वैरागी को नहीं चाहिए। उसे तो भव से दूर होने के लिये चरित्र-वृक्ष की छाँव चाहिए है। ‘स भव विभव हान्यै नोस्तु चारित्रवृक्ष' भव भव की पीड़ा समाप्त जो जाये, इसीलिए चरित्ररूपी वृक्ष का सहारा लिया जाता है। कुछ लोग वैराग्य के आदर्श के रूप में आदिनाथ भगवान् के पुत्र भरत चक्रवर्ती का नाम लेते हैं। मुझे तो लगता है कि वैराग्य के आदर्श पात्र यदि कोई हैं तो रामचंद्र जी के छोटे भ्राता भरत हैं। जिन्होंने मर्यादा पुरुषोत्तम राम की शान को, राजा दशरथ के वंश को ओर अपनी माता की कोख को भी शोभा प्रदान की है। जिन्हें सिंहासन की भूख नहीं थी। वैराग्य की भूख थी। उन्हें भवन नहीं चाहिए, वन चाहिए था। उनके आग्रह को सुनकर राम ने कहा- भइया! मुझे पिताजी की आज्ञा है वन जाने के लिये और तुम्हें पिताजी की आज्ञा से सिंहासन पर बैठना है। तुम राज्य मुझे देना चाहते हो तो ठीक है। मैं तुम्हारा बड़ा भ्राता वह राज्य तुम्हें सौंपना चाहता हूँ। एक तरफ पिताजी की आज्ञा और ज्येष्ठ भ्राता जो पिता तुल्य हैं उनकी आज्ञा और दूसरी तरफ भीतर मन में उठती वैराग्य की भावना। मुनि बनने की प्यास। परीक्षा की घड़ी है और अंत में भरत जी ने कहा कि भइया! जैसी आपकी आज्ञा। मैं सब मंजूर करता हूँ। मैं यहाँ पर रहूँगा आपका कार्य करूंगा।' आपका जैसा निर्देशन मिलेगा वैसा ही करूंगा। लेकिन आपके चरण चिहन इस सिंहासन पर रखना चाहता हूँ।” कैसी अद्भुत घटना है यह, इतनी त्याग-तपस्या घर में रहकर भी। यह है राजनीति, कि राजा बनना पड़ता था, बनाया जाता था। राजा बनने की इच्छा नहीं रखते थे क्योंकि क्षत्रिय कभी पैसे के भूखे नहीं रहते। अब तो वैश्य वृत्ति आ गयी। पैसे और पद का राग बढ़ गया है। सिंहासन के ऊपर ज्येष्ठ भ्राता के चरण चिह्न रखकर, उनको तिलक लगाकर, उनकी चरण-रज माथे पर लगाकर प्रजा के संरक्षण के लिये एक लघु भ्राता और पिता की आज्ञा से वन जाने वाले एक ज्येष्ठ भ्राता की बात अब मात्र पुराण में रह गयी है। रामायण में रह गयी है। इस दीक्षा कल्याणक के आयोजन में कि जिसमें मुकुट उतारे जा रहे हैं, सिंहासन त्यागा जा रहा है। वैराग्य की बाढ़ आ रही है, सब कुछ देखकर भी आपकी सत्ता की भूख, शासन की भूख बढ़ती जाये तो क्या कहा जाये। बंधुओ! उन राम को याद करो। लघु भ्राता भरत को याद करो। अपने ज्येष्ठ भ्राता के पीछे-पीछे चलने वाले लक्ष्मण और महलों में रहने वाली रानी सीता के त्याग को याद करो। सारे प्रजाजनों की आँखों में आँसू हैं लेकिन राजा राम अपने कर्तव्य में अडिग हैं। कैसी विनय और वैराग्य का आचरण है। यह वैराग्य की कथा आज के श्रमणों को भी आदर्श है, गृहस्थों के लिये तो आदर्श है ही। श्रमण की शोभा राग से नहीं, वीतराग निष्कलंक पथ से है। दिगंबरी दीक्षा ही निष्कलंक पथ है। राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त ने कहा है मेदनी पति भी यहाँ के भक्त और विरक्त थे। होते प्रजा के अर्थ ही रोज कार्यासक्त थे प्रजा के लिये राजा होते थे, मात्र सिंहासन पर बैठने के लिये या अहंकार प्रदर्शित करने के लिये नहीं। उनकी प्रभु भक्ति और संसार से विरक्ति हमेशा बनी रहती थी। आज भी ऐसे ही नीति-न्यायवान्, भक्त और विरक्त भरत और राम के आये बिना शांति आने वाली नहीं है। अंत में यही कहना चाहता हूँ कि धन्य हैं वे वृषभनाथ भगवान् जिन्होंने राष्ट्र पद्धति को अपनाते हुए प्रजा को अनुशासित किया और बाद में स्वयं आत्मानुशासित होकर दीक्षा लेकर वन की ओर विहार कर गये। भरत चक्रवर्ती आदि भी उनकी आज्ञा के अनुसार प्रजा का पालन करते हुए मुक्त हुए। हमें क्षात्र-धर्म की रक्षा के लिये और दिगम्बरत्व की सुरक्षा के लिये वीतरागता को ध्यान में रखना चाहिए। जंगल में भले ही न रह पायें, लेकिन जंगल को याद रखना चाहिए। वीतरागता के बिना न शिरपुर मिलेगा और न ही शिवपुर ही मिलेगा। वीतरागता की उपासना ही हमारा परम कर्तव्य है। वही मुक्ति का एकमात्र उपाय है।
  6. वेदिका पर विराजित हुए भगवान श्रीजी, शिखर पर हुआ कलश व ध्वजारोहण सी. एम. नहीं भक्त के रूप में आया हूूं: रमन डोंगरगांव | आचार्य श्री विधासागर जी महाराज के पावन सानिध्य में चल रहे गजरथ पंचकल्याणक महोत्सव के अंतिम दिवस मोक्ष कल्याणक के साथ ही सात दिवसीय महामहोत्सव का समापन हो गया। बुधवार को नव निर्मित मंदिर की वेदिका भगवान श्रीजी विराजित करने शिखर पर कलश व ध्वजारोहण किया गया। शोभायात्रा के साथ भगवान श्रीजी को वेदिका पर विराजित कर ध्वजारोहण का कार्य हुआ। आयोजन के अंतिम दिवस मुख्यमंत्री डाॅ. रमन ने पंचकल्याणक महोत्सव में शिरकत की। उन्होंने आचार्य श्री का आशीर्वाद लिया। मुख्यमंत्री सिंह ने आगामी चौमासा के लिए रायपुर का चयन का करने का निवेदन किया। उन्होंने कहा कि वे मुख्यमंत्री के तौर नहीं बल्कि प्रदेशवासियों की ओर से आशीर्वाद लेने आए हैं |
  7. संत का नाम सुना था। आज उनके चरणों में आकर वह अबला रो रही है। अपने दुख की अभिव्यक्ति कर रही है। वह क्या मांग रही है? अभी यह भाव खुल नहीं पाया है। वह कह रही है कि जब आपने दिया था तो बीच में ही वापस क्यों ले लिया। एक अबला के साथ यह तो अन्याय हुआ है। हम कुछ और नहीं चाहते जैसा आपने दिया था वैसा ही वापस कर दीजिए, क्योंकि हमने सुना है आप दयालु हैं। प्राणों की रक्षा करने वाले हैं। पतितों के उद्धारक हैं और इस तरह अपना दुख कहकर दुखी होकर वह अबला वहीं गिर पड़ी। संत जी उसका दुख समझ रहे हैं उसका एक ही बेटा था। आज अकस्मात् वह मरण को प्राप्त हो गया है। यही दुख का कारण है। संत जी ने उसे सांत्वना दी लेकिन अकेले शब्दों से शान्ति कहाँ मिलती है ? वह कहने लगी कि आप तो हमारे बेटे को वापिस दिला दो। संत जी ने अब थोड़ा मुस्कराकर कहा-बिल्कुल ठीक है। पूर्ति हो जायेगी। बेटा मिल जायेगा। लेकिन सारा काम विधिवत् होगा। विधि को मत भूलो। सबके लिये जो रास्ता है वही तुम्हें भी बताता हूँ। वह अबला तैयार हो गयी कि बताओ क्या करना है? अपने बेटे के लिये सब कुछ करने को तैयार हूँ। बेटा जीवित होना चाहिए। संत जी ने कहा-ऐसा करो कि अपने अड़ोस-पड़ोस में जाकर कुछ सरसों के दाने लेकर आना। मैं सब ठीक कर दूँगा। इतना सुनते ही वह बुढ़िया अबला जाने को तैयार हो गयी तो संत जी ने रोककर कहा कि सुनो। मैं भूला जा रहा था एक शर्त है कि जिस घर से सरसों लेना वहाँ पूछ लेना कि तुम्हारे घर में कोई मरा तो नहीं है। जहाँ कोई कभी नहीं मरा हो वहाँ से सरसों ले आना बस। अबला ने सोचा कि दुनिया में एक मैं ही दुखी हूँ और शेष सारे के सारे सुखी हैं। मरण का दुख मुझे ही है। शेष किसी के यहाँ कोई नहीं मरा और वह जल्दी से पडोस में गयी और जाकर कहा कि संतजी ने कहा कि तुम्हारा बेटा वापिस मिल जायेगा लेकिन एक मुट्ठी सरसों के दाने लेकर आओ। तुम मुझे मुट्ठी भर सरसों दे दो और पड़ोसिन से सरसों लेकर वह जल्दी-जल्दी चार कदम भाग गई, पुन: वापिस लौटकर आयी और कहा कि पहले यह तो बताओ कि तुम्हारे घर में कोई मरा तो नहीं। तो पड़ोसिन बोली-अभी फिलहाल कोई नहीं मरा लेकिन तीन वर्ष पहले आज के दिन ही उनकी मृत्यु हो गयी थी! अरे, तब ऐसे सरसों तो ठीक नहीं, ऐसा सोचकर वह बुढ़िया सरसों वापिस करके दूसरी सहेली के पास चली जाती है। वहाँ भी ऐसा ही हुआ। सरसों लेकर चार कदम आगे बढ़ी कि गुरु के वचन याद आ गये कि जहाँ कोई मरण को प्राप्त न हुआ हो वहाँ से सरसों लाना। बंधुओ! मोक्षमार्ग में भी गुरुओं के वचन हमेशा-हमेशा काम में आते हैं। उवयरणां जिणामग्गे लिंग जहजादरूवमिदि भणिदं। गुरुवयणं पिय विणओ, सुक्तज्झाणं च णिद्दिठं॥ (प्रवचनसार-२२५) आचार्य कुन्दकुन्द स्वामी ने हम लोगों के लिये, जो मोक्षमार्ग में आरूढ़ हैं, कहा है कि मोक्षमार्ग में चार बातों का ध्यान रखना तो कोई तकलीफ नहीं होगी। पहली बात यथाजात रूप अर्थात् जन्म के समय जैसा बाहरी और भीतरी रूप रहता है। बाहर भी वस्त्र नहीं, भीतर भी वस्त्र नहीं। वैसा ही निग्रंथ निर्विकार रूप होना चाहिए। पहले आठ-दस साल तक बच्चे निर्वस्त्र निर्विकार भाव से खेलते रहते थे। ऐसा सुनने में आता है कि ऐसे भी आचार्य हुए हैं जिन्होंने बालक अवस्था से लेकर मुनि बनने तक वस्त्र पहना ही नहीं और मुनि बनने के उपरांत तो निग्रंथ रहे ही। आचार्य जिनसेन स्वामी के बारे में ऐसा आता है। दूसरी बात-गुरु वचन अर्थात् गुरु के वचनों का पालन करना। गुरुमंत्र का ध्यान रखना, शास्त्र तो समुद्र हैं, शास्त्र से ज्ञान बढ़ता है, लेकिन गुरु के वचन से ज्ञान के साथ अनुभव भी प्राप्त होता है। गुरु, शास्त्र का अध्ययन करके अपने पूर्व गुरु महाराज की अनुभूतियों को अपने जीवन में उतार करके और स्वयं की अनुभूतियों को उसमें मिलाकर देते हैं, जैसे माँ, बच्चे को दूध में मिश्री घोलकर पिलाती है और कुछ गाती-बहलाती भी जाती है। तीसरी बात है -विनय, नम्रता, अभिमान का अभाव। यदि विनय गुण गुम गया, तो ध्यान रखना, शास्त्र-ज्ञान भी कार्यकारी नहीं होगा। अंत में रखा है शास्त्र का अध्ययन, चिंतन, मनन करते रहना, जिससे उपयोग में स्थिरता बनी रहे, मन की चंचलता मिट जाये। तो गुरुओं के द्वारा कहे गये वचन बड़े उपकारी हैं। उस अबला बुढ़िया को सरसों मिलने से खुशी हो जाती लेकिन जैसे ही मालूम पड़ता कि इस घर में भी गमी हो गई है तो वह आगे बढ़ जाती। ऐसा करते-करते उस बुढ़िया को धीरे-धीरे आने लगी बात समझ में अनागत कब मरण में, अतीत कब विस्मरण में ढल चुका पता नहीं, स्वसंवेदन यही है, संसार में इसी स्वसंवेदन के अभाव में संसारी प्राणी भटक रहा है। यहाँ कोई अमर बनकर नहीं आया। ऐसा सोचते-सोचते वह बुढ़िया संतजी के पास लौट आयी। संतजी ने कहा विलम्ब हो गया कोई बात नहीं। लाओ सरसों ले आयी। मैं तुम्हारा बेटा तुम्हें दे दूँगा। बुढ़िया बोली संतजी, आज तो हमारी आँखें खुल गयीं। आपकी दवाई तो सच्ची दवाई है। आपने हमारा मार्ग प्रशस्त कर दिया। आपका उपकार ही महान् उपकार है। मेरा बेटा जहाँ भी होगा, वहाँ अकेला नहीं होगा क्योंकि अड़ोसी-पड़ोसी और भी हैं जो पहले ही चले गये हैं। यह संसार है, यहाँ यह आना-जाना तो निरंतर चलता रहता है। आप लोग ' सनराइज' कहते हैं। 'सनबर्थ' कोई नहीं कहता और सनसेट सभी कहते हैं लेकिन सनडेथ कोई नहीं कहता, यह कितनी अच्छी बात है। यह हमें वस्तुस्थिति की ओर, वास्तविकता की ओर ले जाने में बहुत सहायक है। सनराइज अर्थात् सूर्य का उदय होना और सनसेट अर्थात् सूर्य का अस्त हो जाना। उदय होना, उगना कहा गया, उत्पन्न होना नहीं कहा गया। इसी प्रकार अस्त होना, डूबना कहा गया, समाप्त होना नहीं कहा गया। यही वास्तविकता है। आत्मा का जन्म नहीं होता और न ही मरण होता है। वह तो अजर-अमर है। संसारी दशा में जीव और पुद्गल का अनादि संयोग है और पुद्गल तो पूरण गलन स्वभाव वाला होता है। कभी मिल जाता है, कभी बिखर जाता है। उसी को देखकर आत्मा के जनम-मरण की बात कह दी जाती है। केवलज्ञान के अभाव में अज्ञानी संसारी प्राणी शरीर के जन्म होने पर हर्षित होता है और मरण में विषाद करता है और यही अज्ञानता संसार में भटकने में कारण बनती है। आज यह बात वैज्ञानिक लोग भी स्वीकार करते हैं कि जो नहीं है उसे उत्पन्न नहीं किया जा सकता और जो है उसका कभी नाश नहीं हो सकता, उसका रूपांतरण अवश्य हो सकता है। रूपांतर अर्थात् पर्याय का उत्पन्न होना या मिट जाना भले ही हो लेकिन वस्तु का नाश नहीं होता। बंधुओ! जो पर्याय उत्पन्न हुई है, उसका मरण अनिवार्य है किन्तु ऐसा मरण आप धारण कर लो कि जिसके बाद पुन: मरण न हो। और ऐसी सिद्ध पर्याय को उत्पन्न कर लो जो अनंतकाल तक नाश को प्राप्त नहीं होती। आज जिसका जन्म कल्याणक मनाया जा रहा है वह ऐसी आत्मा का जन्म है। शरीर के जन्म को हम आत्मा का जन्म न माने और न ही शरीर के मरण को अपना मरण माने बल्कि आत्मा के अजर-अमर स्वरूप को पहचानकर उसे प्राप्त करने के लिये कदम बढ़ायें। यही इस जन्म कल्याणक की उपलब्धि होगी।
  8. सहनशीलता/गंभीरता विषय पर संत शिरोमणि आचार्य विद्यासागर जी के विचार गंभीर वह होता है जिसके अंदर गहराई रहती है, वह शांत रहता है लहरें नहीं उठती। गंभीर जो होता है उसके पास सहनशीलता होती है। आपत्तियों में जो अपनी परख कर लेता है वह संसार से पार हो जाता है। धैर्य/सहनशीलता, विश्वास है तो वह डूब नहीं सकता वह विमान में अवश्य बैठेगा। मानसिकता जिसकी अच्छी होती है वहाँ प्रकृति साथ देती है। जो आश्रयहीन हैं उन्हें आश्रय देना इसी में मानवता पनपती है। संवेदनशीलता, परोपकार, मित्रता, सहानुभूति ये आज मात्र कोष के शब्द रह गये हैं। गंभीरता को नापने धैर्यप्धृति की आवश्यकता है। एक दूसरे के पूरक बनकर कार्य करोगे तो वह सफल होगा। समय को ही धन मानकर चलो। मार्ग में थोड़ी कठिनाइयाँ आती हैं, होनी भी चाहिए। आती हैं कठिनाइयाँ तो सहन करो.सामना करो।
  9. सुनते हैं कई प्रकार के मोती होते हैं। जल की बूंदें मोती के रूप में परिणत हो जाती हैं। वह जल की बूंदें धूल में मिलकर अपने आप के जीवन को समाप्त न करके एक मोती का रूप धारण कर लेती हैं तो वह कंठहार बन जाती हैं। कभी सोचा आपने कि जब जल मोती बन सकता है तो जो अविरल धारा बहती रहती है वर्षा ऋतु में, वह जल मोती का रूप धारण क्यों नहीं करता। उपादान जल है तो वह मोती के रूप में परिवर्तित हो जाये लेकिन बिना निमित्त के ऐसा संभव नहीं है। इसलिए निमित्त की सार्थकता को ओझल नहीं किया जा सकता। मोती एकेन्द्रिय है, पृथिवीकायिक है और जल भी एकेन्द्रिय है, जलकायिक है लेकिन जब सीप जल की बूंदों को स्वीकार कर लेता है तभी वे मोती का रूप धारण करती हैं। निमित्त की यही विशेषता है। उपादान जो भीतर की शक्ति है उसका प्रस्फुटन उसकी अभिव्यक्ति सामने तब आती है जबकि योग्य द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव आदि निमित्त जुट जाते हैं। अन्यथा वही बूंदें नीम की जड़ में चली जाती हैं तो कटुता का अनुभव लाती हैं। बबूल की जड़ में चली जाती हैं तो काँटे का रूप धारण कर लेती हैं। सर्प के मुख को प्राप्त हुई वही बूंद हलाहल का रूप धारण कर लेती है। सूर्य के ताप को वह प्राप्त कर लेती है तो वाष्प बनकर उड़ जाती है। वस्तु का परिणमन बडी अद्वितीय शक्ति को लेकर चलता रहता है। आज जो जीव गर्भ में आया है वह कहाँ से आया? वह क्यों तीर्थकर बना और कैसे? किन परिणामों के द्वारा माता-पिता ने उसे धारण किया? तो उत्तर में यही कहा जायेगा कि यह सब संस्कार की देन है। आज यह दिन भी संस्कार का दिन है। एक ऐसा जीव सीप में प्रवेश करेगा तो कालान्तर में मोती का रूप धारण कर लेता है। इसकी अधिकारी वही सीप होगी जो जल को बड़ी सावधानी से ग्रहण करती है। प्रत्येक सीप में मोती बने, यह नियम नहीं है। स्वाति नक्षत्र में जब कोई सीप अपना मुख खोलती है और ऊपर मेघों से गिरती जल की बूंद भीतर प्रवेश करती है तब सीप अपने मुख को बंद करके सागर के नीचे चली जाती है। ऐसा वह नैसर्गिक संस्कार का कार्य होता है। परिष्कार का कार्य होता है तभी मोती की उपलब्धि होती है। आज परिष्कार की बात तो चलती है लेकिन संस्कार की बात नहीं होती। एक सीप के संस्कार को देखो। कैसा संस्कार डाला भीतर कि वह बाहर का जल जो खारा था, भीतर वही मोती का रूप धारण कर गया। जल का उपादान, इस भीतरी संस्कार के कारण मोती के रूप में परिवर्तित हो गया। जब किसी के लिये बुखार Typhoid हो जाता है जिसे हिन्दी में मोतीझरा बोलते हैं तो एक दो मोती पानी में उबाल दिये जाते हैं तो वह पानी भीतर के बुखार को निकालने में सक्षम हो जाता है। मोती से मोतीझरा बुखार भी झर जाता है। साधारण पानी में यह गुण नहीं होता। मोती के द्वारा संस्कारित होने पर यह क्षमता आ जाती है। इसी प्रकार तीर्थकर होने वाले जीव को अपने गर्भ में प्रवेश होने के पूर्व में माता-पिता ने कितनी निर्मल भावना भायी होगी। तीन लोक का कल्याण जिसके ऊपर निर्धारित है ऐसा वह महान् जीव आने वाला है। उसे आधार देने वाला भी कितना कल्याणकारी होगा। यह बात बहुत कम लोगों को समझ में आती है। लेकिन जो वस्तु के उद्गम स्थान की ओर दृष्टिपात करते हैं तो ज्ञात होता है कि वर्तमान तभी बनता है जब अतीत भी उज्वल होता है। जड़ें मजबूत होती हैं तभी वृक्ष विकास पाता है। संस्कार की ओर अर्थात् मूलभूत जड़ों की ओर भी देखना आवश्यक है। आज तो कलम (Cross Breed) का युग आ गया। आम की गुठली नहीं बोयी जाती। आम की कलम लगा दी जाती है। संस्कार नहीं दिया जाता, मात्र बाहर से थोड़ा परिष्कार कर दिया जाता है। आम भले ही बहुत आते हों लेकिन खाने का स्वाद और पौष्टिकता नहीं मिल पाती। जो पहले से संस्कार डालना प्रारंभ कर देता है भावों के माध्यम से कि हमारे निमित से कोई लोकोत्तर जीव आ जावे जो तीन लोक को दिशा बोध दे सके। तो हम धन्य हो जायेंगे। यह भी एक उज्ज्वल भावना है। धन्य हैं वह माता और वह पिता। आप लोग तो आज क्या भावना करते हैं कि हमारा लड़का वकील बन जाये, इंजीनियर बन जाये, डाक्टर बन जाये, प्रोफेसर बन जाये। कुछ भी बन जाये लेकिन कमाऊ बन जाये, साधु न बन जाये (हँसी)। यै: शान्तरागरुचिभिः परमाणुभिस्त्वं... हे भगवान्! शांति के जितने भी परमाणु थे आपकी देह उनके द्वारा निर्मित हो गयी। आप इसी से अद्भुत हैं। ऐसी शक्ति के परमाणुओं से निर्मित देह की भावना भाने वाले विरले ही माता-पिता होते हैं। भारतीय संस्कृति में प्रत्येक क्षण संस्कार के साथ बीते, इस बात को महत्व दिया गया है। प्रत्येक क्रिया संस्कार के साथ चलती है। विवाह संस्कार मात्र वासना की पूर्ति के लिये नहीं है, बल्कि संतान की उत्पत्ति और धर्म की परम्परा को अक्षुण्ण बनाये रखने के लिये किया जाता है। ऐसा महापुराणादि ग्रन्थों में आप देख सकते हैं। कब कैसे संस्कार डाले जायें। मन वचन काय की प्रवृत्ति कैसी रखी जाये, कितने बार खाया जाये, कब खाया जाये, क्या खाया जाये और क्यों खाया जाये। इन सभी बातों की सावधानी रखी जाती है। संस्कार ऐसे हों कि जिससे आने वाली संतान धार्मिक/सात्विक जीवन का संस्कार लेकर आये। उसका तामसिकता की ओर झुकाव न हो। जब विभिन्न प्रकार के सुगंधित फूलों की प्रजातियों को पैदा करते समय आवश्यक हवा, पानी और वातावरण आदि की सावधानी रखी जाती है तो आप विचार करें कि जिसके द्वारा तीन लोक में सुगंधमय वातावरण बनेगा ऐसा जीव यहाँ गर्भ में आया है तो कितनी सावधानी रखी गयी होगी। कैसे अद्भुत पवित्र संस्कार किये गये होंगे। तीन लोक के सकल चराचर पदार्थों को अपने में धारण करने की क्षमता जिसके ज्ञान में आ जाये, जो प्राणिमात्र के दुख दारिद्र को दूर करने में निमित्त बन जाये। यह सब संस्कार का ही प्रतिफल है। साधना अभिशाप को वरदान बना देती है। भावना पाषाण को भगवान् बना देती है। पर आज का युग स्वयं एकदम भगवान बनना चाहता है। साधना के नाम पर कुछ करना नहीं चाहता। महान् आत्माओं के चरणों में झुकना नहीं चाहता। सब समय के भरोसे छोड़ देता है। बंधुओ! साधना भगवान् बनने से पूर्व की बात है और अनिवार्य है। भगवान् बनने के उपरान्त साधना नहीं की जाती। फल पक जाने के उपरान्त पानी का सिंचन नहीं किया जाता। साधना से ही संस्कार पड़ते हैं। पहले मंत्रों के द्वारा सहज ही कार्य सिद्ध हो जाते थे, इसका कारण है कि मंत्र सिद्ध होने के उपरान्त ही कार्य सिद्ध हो जाता है। मंत्र सिद्ध न हो, मंत्र की साधना न हो तो मंत्र पढ़ने मात्र से कार्य सम्पन्न नहीं होता। साधना पहले आवश्यक है। जीवन को वासना से दूर रखने साधना की जाये तभी आने वाली संतान, आत्मा की उपासना करने में सक्षम होगी, उपादान की योग्यता के साथ-साथ निमित्त का भी प्रभाव पड़ता है। गाँधी जी ने नहीं कहा लेकिन लोगों ने स्वयं उन्हें महात्मा गाँधी कहा। वे तो अंत तक यही कहते रहे कि मेरी महानता तो माता-पिता के ऊपर निर्धारित है। उन्होंने ही मेरे ऊपर संस्कार डाले। विदेश में जा रहे हो तो ध्यान रखना, मांस-मदिरा का सेवन मत करना। यह गाँधी जी के जीवन की घटना है। विदेश जाते समय उनकी माता ने यह शपथ दिलायी थी। आयुर्वेद में औषधियों की शक्ति भावना पर ही आधारित है। जितना ज्यादा औषधि को भावित किया गया होगा, भावना दी गयी होगी, पुट दिया गया होगा उतनी ही वह शक्तिशाली होगी। जैनाचार्यों ने इस शक्ति को अनुभाग कहा है। जिस भावना के साथ जो कर्म आ जाता है उनमें ऐसी शक्ति पड़ जाती है कि दुनियाँ की कोई शक्ति आ जाये पर उसे समाप्त नहीं कर सकती। पुण्य कर्म की स्थिति तो ऐसी है कि यदि उसे मिटाना/हटाना चाहो तो जितना उससे बचने के लिये जायेंगे उतनी ही उसकी शक्ति और बढ़ जायेगी। पापों से मुक्त होकर जो पुण्य में लग जाते हैं और पुण्य के फल का त्याग करते जाते हैं उन्हें और अधिक पुण्य का संचय होने लगता है। स्वर्ण यदि असली हो तो उसकी आप कितनी ही बार कसौटी पर परखी वह खरा ही उतरेगा। उसे जितना तपाओ, समाप्त करना चाहो वह उतना ही उज्ज्वल हो जाता है। कंचन तो कंचन ही है यह भावना का फल है। साधारण पीपल नहीं, यदि चौंसठ प्रहरी पीपल हो तो क्षय रोग को भी दूर करने में सक्षम होता है। चौंसठ प्रहर तक मूसल की चोट जिस पीपल के ऊपर पड़ती है वह पीपल आयुर्वेद में चौंसठ प्रहरी पीपल कहलाता है। पल-पल उस पीपल ने चौंसठ प्रहर के प्रहारों को अपने में पी लिया। यह संस्कारित हो गया। आप मशीन के द्वारा एक घंटे में उतनी ही चोट डाल दो वह शक्ति नहीं आयेगी, ध्यान रखना, क्योंकि वहाँ चोट तो जुड़ी है लेकिन भावना नहीं जुड़ी। एक में व्यवसाय है, एक में साधना स्वाध्याय है। बंधुओ! तीन लोक का दारिद्रय जो मोह के कारण है उसे यदि दूर करना चाहते हो तो वित के द्वारा नहीं, धन संपदा के द्वारा नहीं बल्कि चेतन भावों के द्वारा ही, वीतराग भावों के द्वारा ही दूर किया जा सकता है। लोक-कल्याण की भावना का यह संस्कार अद्भुत है। धन्य हैं वह माता-पिता जो अपनी संतान में ऐसे भाव पैदा करने के लिये प्रयास करते हैं। हमें मन-वचन-काय की ऐसी चेष्टा करनी चाहिए ताकि विश्व का कल्याण हो। भावों में ऐसी उज्ज्वलता लायें जैसे मोती के लिये सीप प्रयासरत है। सीप में मोती भले ही एक हो। जैसे तीर्थकर अपने माता-पिता के एक ही होते हैं पर सारा लोक आकृष्ट हो जाता है। एक मोती ही पर्याप्त है। एक तीर्थकर की योग्यता वाला पुत्र ही पर्याप्त है। हमारा पुत्र हमारे लिये ही नहीं बल्कि विश्व के कल्याण के लिये हो, ऐसी भावना विरला ही कोई कर सकता है। इतना ही नहीं, उस पुत्र को लोक के लिये समर्पित करके आनंदित भी होता है। उसे स्वयं से अधिक समझदार मानता है। नाभिराय और माता मरुदेवी किसी के कुछ पूछने पर उसे समाधान के लिये अपने पुत्र आदिकुमार के पास भेज दिया करते थे। यहाँ पर्याय बुद्धि छोड़नी पड़ती है। छोटा/बड़ा कोई उम्र से या शरीर से नहीं मापा जाता, अंतरंग योग्यता देखनी चाहिए। आप इन कार्यक्रमों को लौकिक कार्यक्रम न समझे। किन्तु पारलौकिक आत्मा की ओर ले जाने के लिये प्रतीक मानें, प्रेरणा लें। आप भी माता-पिता हैं, आपके भी संतान है उसे संस्कारित करें। अंतर्दूष्टि दें और स्वयं भी संस्कारित हो जिससे सबका भविष्य उज्वल बनें। एक दीप हजारों दीपक जलाता है। एक दीपक के साथ बुझे हुए हजार दीपक अपने आप जल जाते हैं। परिश्रम की आवश्यकता नहीं होती और एक वह भी दीपक होता है जो रत्न दीपक कहलाता है। इस माटी के दीपक में तो बाती होती है, तेल डाला जाता है और वह बुझ भी सकता है लेकिन रत्न दीपक के लिये बाती और तेल की आवश्यकता नहीं होती वह हवा के द्वारा बुझता भी नहीं है। किसी को जलाता नहीं, स्वयं जलता रहता है ऐसे रत्न दीपक से भी श्रेष्ठ दीपक गर्भ में आ चुका है। उसकी पात्रता को ध्यान में रखकर कल पूर्व पीठिका के रूप में सीप और मोती की बात कही थी। आज उस श्रेष्ठ दीपक की बात करना चाहता हूँ जिसके गर्भ में आते ही सब ओर शांति का वातावरण बन जाता है। मंगल छा जाता है और आत्मा का महात्म्य सुनाई देने लगता है। एक विकासमान दीपक एक प्रकाशमान दीपक जो विश्व को शान्ति प्रदान करने वाला है, वह गर्भ में भले ही है लेकिन अपनी प्रभा को बाहर बिखेर रहा है। कैसी अद्भुत भावना पूर्व जीवन में भायी होगी कि जो आज गर्भावस्था में रहकर भी विश्वप्रिय है। सब आतुर हैं कि कब भगवान् का दर्शन होगा? पर्याय की दृष्टि से देखें तो वे कुमार की तरह जन्म लेंगे, अभी भगवान् नहीं हैं लेकिन अंतर्दूष्टि से देखा जाये तो प्रत्येक आत्मा भगवान् है। एक ऐसी आत्मा जो इसी पर्याय से अपनी आत्मा को जगमगायेगी। जिसके माध्यम से तीन लोक अपने आप के स्वरूप को पहचानेगा। ऐसी आत्मा/परमात्मा के प्रभाव से उनके परिवार का ही नहीं, सभी का दारिद्र दूर हो जाता है मात्र शारीरिक रोग ही नहीं, भव रोग का भी अंत होने लग जाता है और दिन-रात शुद्धात्मा की चर्चा/अर्चा प्रारंभ हो जाती है। पूरा का पूरा परिवार राग से वीतरागता की ओर चला जाता है। यह सब पूर्व भव में इस जीव के द्वारा स्व और पर के कल्याण की भावना का परिणाम है। इस तरह जिस आत्मा का गर्भ में आना कल्याणकारी होता है और इतना ही नहीं बल्कि अब इस जीव को दुबारा गर्भ में नहीं आना पड़ेगा और न ही उसकी माँ को अधिक गर्भ धारण करने होंगे, वह भी एकाध दो भव में मुक्ति का भाजन बनेगी। इसलिए भी यह गर्भ कल्याण रूप है। गर्भ में आना भी कल्याणक के रूप में मनाया जाता है। किसी कवि ने छोटी-सी कविता लिखी है कि मैं एक अवयस्क वृद्ध हूँ। कविता का रहस्य अपने आप में बहुत है। अभी जीव गर्भ में आया है लेकिन उसका अनुभव वृद्धत्व को प्राप्त है, जैसे दीपक छोटा सा लगता है लेकिन रात्रि के साम्राज्य को छिन्न भिन्न करने में सक्षम है। फिर यह कोई सामान्य दीपक नहीं है जिसके तले अंधेरा हो। यह सामान्य रत्न-दीपक भी नहीं है बल्कि विशिष्ट चैतन्य रत्न दीपक है। इसकी गरिमा शब्दों में नहीं कही जा सकती। शब्द बहुत बौने पड़ जाते हैं। शब्दों में विराटता का वर्णन करने की सामथ्र्य नहीं है लेकिन भावों की उमड़न रुक नहीं पाती जिससे बार-बार गुणानुवाद का मन हो जाता है, जैसे सूर्य की आरती दीपक से की जाती है। हीरा बहुमूल्य होता है लेकिन आत्मतत्व रूपी हीरा तो अमूल्य है, अद्वितीय है। इस एक आत्म तत्व के प्रति अपने आपको समर्पित करने वाली यह महान् आत्मा धन्य है जिसने अतीत में भी रत्नत्रय की साधना की, और आगे भी रत्नत्रय की आराधना करके मुक्ति को पायेगी। जन्म के उपरान्त देखने में भले ही कोमल बालक दिखेगा लेकिन तीन लोक का पालक होगा। आज का प्रत्येक बालक कल का नागरिक बन सकता है लेकिन प्रत्येक नागरिक राष्ट्रपिता नहीं बन सकता। उसके लिये अलग योग्यता चाहिए। फिर यह गर्भस्थ शिशु तो मात्र राष्ट्रपिता नहीं बल्कि तीन लोक का नाथ बनने वाला है उसकी योग्यता कितनी होगी। यह इस अवसर पर विचार करना चाहिए। आज की यह धर्मसभा गर्भस्थ आत्मा का कल्याणक मनाने के लिये आतुर है वहीं दूसरी ओर विज्ञान के माध्यम से यह परीक्षा की जाती है कि गर्भस्थ आत्मा लड़का है या लड़की है। यदि लड़की है तो हटा दी। लड़का है तो रहने दो। कौन-से ऐसे संविधान में लिखा है, किस देश की संस्कृति इस जघन्य अपराध को इस पाप को ठीक मानती है। कुछ समझ में नहीं आ रहा। यह कहाँ का न्याय है, यह तो अन्याय है। यह विज्ञान का दुरुपयोग है। आप धर्म की बात सुनना चाहते हैं लेकिन गर्भस्थ शिशु की पीड़ा को नहीं सुनना चाहते। गर्भस्थ शिशु पर किये गये इंजेक्शन और दवाइयों के प्रयोग से उसे जो मर्मान्तक पीड़ा होती होगी वह आप देखना नहीं चाहते। ऐसा जघन्य काम हो रहा है इस भारत वर्ष में और लोग चुप हैं। दंड की बात दूर है धन के द्वारा पुरस्कृत किया जा रहा है। मैं आलोचना नहीं कर रहा हूँ आपके लोचन खोलना चाह रहा हूँ। आज गर्भ कल्याणक के अवसर पर इस युग की यह समस्या विचारणीय है। क्षत्रियों का धर्म तो यही है कि अबोध बालक-बालिका पर, उन्मत्त/पागल व्यक्ति पर, नारी के ऊपर और नि:शस्त्र योद्धा के ऊपर प्रहार कभी न किया जाये। लेकिन आज क्या हो रहा है? दोनों कुलों के यश को वृद्धिगत करने वाली बालिका पर प्रहार किया जा रहा है। नारी जगत् ने इतिहास में कितना कुछ किया है और आगे भी करने की क्षमता रखती है। यह किसी से छिपा नहीं है। जीव का परिणमन है। शरीर को लेकर कर्म प्रकृति को लेकर अंतर संभव है लेकिन आत्मा तो सभी में वही है। अनंत शक्तिवान है। बंधुओ, सव्वे सुद्धा हु सुद्धणया अर्थात् सभी जीव अंतर्दूष्टि से देखा जाये तो शुद्धत्व को प्राप्त करने की क्षमता वाले हैं। अपने आपको सम्यग्दृष्टि मानने वालो थोड़ा तो विचार करो। यदि आप जीवन प्रदान नहीं कर सकते तो आपको जीवन लेने का क्या अधिकार है? वह जीव तो स्वयं जीवन लेकर आया है। उसका कल्याण वह स्वयं करेगा। भगवान् महावीर की धरती पर, भगवान् वृषभनाथ की धरती पर, भगवान् राम की धरती पर, माता मरुदेवी और राजा नाभिराय की धरती पर यह जघन्य कृत्य ठीक नहीं है। इसका समर्थन शासन क्यों करता है? शासन तो आपके हाथ में है। प्रजातंत्र है, आप ही शासक हैं और शासित भी आपको होना है। लोकतंत्र में टके सेर भाजी टके सेर खाजा, अंधेर नगरी और चौपट राजा यह नहीं चलेगा। आत्म गौरव होना चाहिए। स्वाभिमान होना चाहिए। अपनी उज्वल संस्कृति का ख्याल होना चाहिए। ऐसा आज कोई अहिंसा को मानने वाला जैन क्यों नहीं है जो खुले आम निडरता से इसे बंद कराने का प्रयास करे/होना चाहिए। आप सोचते हैं, अकेले धार्मिक कार्य करने से पुण्य संचित होता है ऐसा एकान्त नहीं है। पुण्य संचय तो सादगी पूर्ण जीवन से, संयत जीवन जीने से होता है। दु:शासन का शासन भी भंग हो गया था, द्रौपदी के आत्मानुशासन के सामने। भरी सभा में दु:शासन ने द्रौपदी को निरावरित करना चाहा था लेकिन पसीना-पसीना हो गया था पर वस्त्र हट नहीं पाया। ऐसी शीलवान द्रौपदी की कथा आप पढ़ते हैं और गर्भस्थ बालक पर प्रहार करते हैं कुछ समझ में नहीं आता। गर्भस्थ शिशु का भविष्य कैसा है। यह कोई नहीं जानता। क्या पता कौन सा शिशु महात्मा गाँधी बन जाये। कौन अकलंक-निकलंक जैसा धर्म रक्षक बन जाए। कौन जिनसेन स्वामी जैसा महान् बन जाये और कौन बालिका चंदनबाला जैसी आर्यिका बनकर संघ का नेतृत्व संभालकर युग को संबोधित करे। आपके सागर नगर से क्षमासागर जी, सुधासागरजी, जैसे मुनि निकले हैं और दृढ़मती जैसी आर्यिका गणिनी भी है जिसके अनुशासन में पच्चीस, तीस-तीस आर्यिकाएँ हैं। बंधुओ! सब अपने-अपने कर्म लेकर आते हैं। संसार में किसी का पालन-पोषण हमें करना है ऐसा अहंकार व्यर्थ है। कर्म सिद्धान्त पर अगर आपको विश्वास है तो संकल्प कीजिये कि हम अपने जीवनकाल में कभी गर्भस्थ शिशु की हत्या नहीं होने देंगे। जीवनदान बड़ा महत्वपूर्ण दान है। एक महान् आत्मा का जन्म ही सारे विश्व में उजाला करने के लिये पर्याप्त है। धर्मात्मा यदि बचा रहेगा तो सारी प्रजा धर्ममय बनी रहेगी। सब ओर सुख शांति होगी।
  10. सम्यक दर्शन विषय पर संत शिरोमणि आचार्य विद्यासागर जी के विचार सम्यक दर्शन की प्रयोगशाला के लिए कोई स्थान नहीं। चाहिए इसके लिए तो हम जितना भीतर रहेंगे उतना निखार आयेगा। बिना व्यय के आय ही आय। यदि कोई इस प्रयोग शाला में आता है तो साधन सामग्री का कोई अभाव नहीं उसको अच्छी तरह खिला–पिलाकर पुष्ट करो। प्रतिकूलता में अनुकूलता चाहते हैं इसलिए निर्विचिकित्सा अंग नहीं पलता। जिस प्रकार माइक में करंट का महत्व है उसी प्रकार मोक्षमार्ग में सम्यक दर्शन का महत्व है। जीणोंद्धार उसका किया जाता है जिसकी नींव पक्की हो, दीवाल आदि में क्रेक आ जाये जब लेकिन नींव में ही यदि कमी आ जाये तो उसका जीणोद्धार ही नहीं होता। ऐसा ही आप लोगों को समझना चाहिए। सम्यक दर्शन के प्रौढ़/मजबूत होने पर ज्ञानचारित्र के फूल खिल सकते हैं। सम्यक दर्शन की भूमिका बनाये रखना चाहते हो तो कषायों को आप घटाइये। जितनी घटा सकते हैं उतनी घटाइये। सम्यक दर्शन के बिना आपके चारित्र की शुद्धि नहीं हो सकती है और चारित्र में विकास नहीं हो सकता है इसलिए हमें सम्यक दर्शन को अच्छे से विशुद्ध बनाये रखना चाहिए। सम्यक दर्शन के साथ जो चारित्र होता है वो कर्म निर्जरा निश्चित रूप से करता है। भीतरी रुचि के कारण से ही सम्यक दर्शन होता है। एक पशु भी भीतरी रुचि के कारण सम्यक दर्शन प्राप्त कर सकता है और हम सम्यक दर्शन का स्वरूप पढ़ते रहे फिर भी भीतरी रुचि नहीं हो पाती है इसलिए सम्यक दर्शन से दूर रहते हैं। हमारे पास सम्यक दर्शन है तो हम उसका सदुपयोग करते हैं तो हमारी कर्म निर्जरा होती जाती है और मोक्ष के लिए वो परम्परा से कारण होता है। हम यदि उसका दुरुपयोग करेंगे तो वो हमारे लिए कर्म निर्जरा का कारण नहीं होता है। उत्कृष्ट विशुद्धि हम प्राप्त कर सकते हैं तो सम्यक दर्शन के माध्यम से ही कर सकते हैं।
  11. सत्यधर्म विषय पर संत शिरोमणि आचार्य विद्यासागर जी के विचार. झूठ नहीं बोलने का नाम सत्य है न कि सत्य बोलने का नाम सत्य है। आप असत्य बोलें या न बोलें जब तक सत्य का संकल्प नहीं लेते तब तक वह असत्य की कोटि में ही आता है। सत्य को प्राप्त करने के लिए चारों कषायों के ऊपर नियंत्रण रखना आवश्यक है। असत्य से बचने के लिए प्रमाद से भी बचना चाहिए। और बोलना जहाँ से प्रारम्भ होता है वहाँ पर निश्चित रूप से प्रमाद है। धर्मात्मा जब भीतर के परम आनंद को जानता है, उस समय वह सत्य का सही-सही पालन करता है। सत्य का पालन बाहर देखते हुए नहीं होता। ध्यान रखो दुनिया को देखने से सत्य सिद्ध नहीं होगा। सत्य का रक्षण नहीं कर सकेंगे, किन्तु परिणामों को देखने से ही सत्य का संरक्षण हो सकता है अन्यथा नहीं। कोई क्या कहेगा? इसके बारे में नहीं सोचना चाहिए। यदि सोच लें तो सत्य का पालन नहीं हो सकता। जो रागद्वेष के कारण मौन धारण कर लेते हैं, वह मौन नहीं माना जायेगा। हाँ यदि प्रायश्चित के रूप में मौन धारण कर लेते हैं तो वह मौन माना जाता है। भीतर की अभिव्यक्ति को रोकने के लिए मौन धारण करने के लिए बहुत सशक्त व्यक्ति की आवश्यकता होती है। कर्मों के उदय का प्रतिकार न करने की जो इच्छा/साधना होती है उसका नाम सत्य है। निमित्त के ऊपर टूटने वाला सत्य का पालन नहीं कर सकता। निमित्त की ओर दृष्टि रखी नहीं कि सत्य कथचित् गायब हो गया। सत्य के लिए बहुत कठिनाई के साथ साधना करनी पड़ती है। सत्य के लिए सब कुछ न्यौछावर करना पड़ता है। मार्दव निजी (स्व की) चीज है। मान पर है, यह दूसरे को (पड़ोसी को) देखकर खड़ा होता है। निरभिमानता आत्मा का स्वभाव है। मान तो आत्मा को तोलने वाला तराजू है। धर्म अभ्यन्तर में उतरता है, तब आर्जवता ऋजुता का पालन होता है।
  12. दरबार में आसीन है चक्रवर्ती सिंहासन के ऊपर, प्रसन्न मुद्रा में आसीन एक सेवक आनंद विभोर होता हुआ नतमस्तक होकर कहता है कि प्रभो! आपका पुण्य अतुलनीय है, आप महान् भाग्यशाली हैं और हम भी भाग्यशाली हैं कि आप जैसे भाग्यशाली पुण्य का उपभोग करने वाली आत्मा को देखने का सौभाग्य प्राप्त हुआ है। तब चक्रवर्ती पूछता है कि बताओ आखिर बात क्या है? ऐसी कौन सी घटना घट गयी, तो सेवक कहता है कि आपको काम-पुरुषार्थ के उपरान्त वह सफलता प्राप्त हुई है कि आपको पुत्र-रत्न की प्राप्ति हुई है। आप आदेश दीजिये कि हम उत्सव मना सकें। क्षणभर व्यतीत हुआ कि दूसरा सेवक उससे भी ज्यादा प्रशंसा के साथ गद्गद् होता हुआ आकर कहता है कि यह तो महलों के भीतर की बात हो गयी। हम तो बताने आये हैं कि आपका यश, आपकी कीर्ति, आपकी ख्याति सब ओर फैलने वाली है। आयुध शाला में अर्थ पुरुषार्थ के फलस्वरूप आपको चक्ररत्न की प्राप्ति हुई है। अब आप चक्रेश हो गये, नरेश हो गये। अभी तक सुनते थे हम कि ३२ हजार मुकुट बद्ध राजा जिनके चरणों में आकर अभिवादन करते हैं, वह चक्रवर्ती कहलाते हैं। आप ऐसे ही चक्रवर्ती हो गये। और अगले ही क्षण भागता-भागता हुआ एक सेवक आ जाता है कि क्या बतायें, हम शास्त्रों में पढ़ते थे, सुनते थे और भगवान् से प्रार्थना करते थे कि आँखें उस दृश्य को साक्षात् देखकर कब पवित्र होंगी। साक्षात् दिव्यध्वनि सुनकर कान कब पवित्र होंगे। आप भाग्यशाली हैं कि आपके जीवनकाल में ऐसा महोत्सव देखने को मिल रहा है। मुक्ति मानो साक्षात् आकर खड़ी हो गयी है। आदिनाथ भगवान् को केवल ज्ञान प्राप्त हो गया है। (तालियां) आप तालियाँ बजाकर हर्ष प्रकट कर रहे हैं। ठीक भी है। एक भव्यात्मा को केवल ज्ञान प्राप्त हो जाता है तो उसके प्रकाश में सारा अंधकार भी अंतर्धान हो जाता है और चलने का मार्ग प्रशस्त हो जाता है। अभी तक तो उस प्रकाश की बात सुनी थी, आज तो प्रकाश में स्नपित होने का अवसर आया है। केवल ज्ञान से विभूषित होकर अब आपके पिता (व्यवहार की अपेक्षा कह रहा हूँ) जगत् पिता हो गये हैं। आदिम तीर्थकर, तीर्थ के संचालक हो गये हैं। इतना सुनते ही, उसी समय चक्रवर्ती ने कहा कि चलो सपरिवार धूमधाम से भगवान् के समवसरण में चलेंगे और शेष काम तो बाद में होते रहेंगे। अभी न हुकूमत की ओर दृष्टि है, न संतान की ओर दृष्टि है, अभी तो ज्ञानगुण जो हमारा है, उसकी एक संतान को शुद्ध पर्याय जो अभी तक प्राप्त नहीं हुई वही वास्तविक संतान है जो दुनियाँ को प्रकाशित करेगी। उसी का दर्शन करेंगे। तज्जयति परं ज्योतिः, समं समस्तैरनन्तपर्यायैः | दर्पणतल इव सकला, प्रतिफलति पदार्थमालिका यत्र || (पुरुषार्थसिद्धियुपाय) वह कैवल्य ज्योति जयवन्त हो जिसमें दर्पण के समान सभी पदार्थ अपने अनंत पर्यायों सहित प्रतिबिम्बित होते हैं। सम्यकद्रष्टि को अपनी संतान की इतनी चिन्ता नहीं रहती, अपने धन के बारे में भी कोई चिन्ता नहीं रहती और हुकूमत चलाने में भी विशेष उल्लास नहीं होता। सम्यकद्रष्टि को अपनी आत्मा के बारे में सुनने का उल्लास अधिक होता है। यह अपेक्षाकृत बात कह रहा हूँ और सभी बातों की अपेक्षा अधिक उल्लास तो धर्म की बात का ही होता है, चक्रवर्ती सोचता है कि हमें अभी केवलज्ञान नहीं हुआ, कोई बात नहीं लेकिन वृषभनाथ को केवलज्ञान प्राप्त हुआ, वहाँ समवसरण की रचना होगी और हमें अपने भविष्य के बारे में अपने धर्म के बारे में, अपनी आत्मा के बारे में सुनने का अवसर मिलेगा। यह घड़ी धन्य है और वह सभी बातों को गौण करके केवल ज्ञान की पूजा करने चला जाता है। वह अपना द्रव्य, अपना तन-मन-धन सभी कुछ लगा देता है और पूजा करके अपने आप को कृतकृत्य अनुभव करता है। धन्य है यह अवसर। आप दुनियाँ की बातें करते हो, आत्मा की बात करनी चाहिए। आप दूसरे की बात करते हो, अपनी बात करनी चाहिए और अपनी भी मात्र ऊपर-ऊपर की नहीं, भीतरी बात करनी चाहिए। आनंद बाहर नहीं, भीतर है। आँख के अभाव में, ज्ञान के अभाव में भीतरी दृश्य का अवलोकन नहीं हो पा रहा। आत्मा का वैभव इस भव में रचेपचे होने के कारण लुटा हुआ है। दर्पण बहुत उज्वल है, बहुत साफ है, ठीक है, लेकिन अपना मुख, उसमें जो प्रतिबिम्बित हुआ है, उसका भी उज्वल होना महत्वपूर्ण पहले है, दर्पण की धूल हम हटाते हैं, साफ करते हैं, उज्वल बनाते हैं इसलिए कि अपना मुख देख सकें। अपने आप को देखना मुख्य उद्देश्य है। दर्पण सहायक है। इसी प्रकार परमात्म पद को हमें प्राप्त करना है तो जिसे केवल ज्ञान प्राप्त हो गया, उसकी वाणी को श्रवण करके धर्मामृत का पान करके हमें अपनी ओर आना है। हमें अपनी ओर यात्रा की दिशा मोड़ लेनी है जो बाहर हम भाग रहे हैं वह भीतर की ओर आना प्रारंभ हो जाये, तो सौभाग्य है। युग के आदि में वृषभनाथ भगवान् को केवलज्ञान उत्पन्न हुआ तो समवसरण की रचना हुई। भरत चक्रवर्ती को उनकी पूजा करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ था और प्रथम श्रोता-श्रावक के रूप में हजारों प्रश्न करके उन्होंने अपनी भीतरी जिज्ञासा शान्त की। आप बाहरी बात पूछते हैं। भविष्य की बात पूछ लेते हैं लेकिन चक्रवर्ती ने आत्मतत्व की गहराई की बात पूछी। जो चक्रवर्ती अभी रागी है, वीतरागी नहीं है। गृहस्थ है, संन्यासी नहीं है। असंयमी है, संयमी नहीं है लेकिन संयम की ओर संयम की गंध का आस्वादन करने के लिये भ्रमरवत् अपनी वृत्ति रखने वाला है। रागद्वेष में कमी करता हुआ आत्मा के रहस्य को सुनने का भाव रखने वाला है। यही विशेषता स्वभाव की ओर दृष्टि रखने वाले प्रत्येक मुमुक्षु की होनी चाहिए। बंधुओ! आज ध्वजारोहण का कार्य संपन्न हुआ है। जो अभी पंचकल्याणक होंगे, आज उसकी भूमिका बन रही है। युग के आदि में कैसे कैसे यह पंचकल्याणक की घटना घटित हुई होगी, उसको आज से एक-एक दिन उसी रूप में चित्रित किया जायेगा। इसका मूल उद्देश्य यही है कि हम निमोंही बनें। हम वीतरागी बनें। हम असंयम से संयम की ओर चलें और संयम के बल पर अपने भीतर बैठी हुई मोह की सत्ता पर प्रहार करते चले जायें। हमें मोहाविष्ट नहीं होना किन्तु मोह को वश में करना है। मन के काबू में नहीं रहना, मन को अपने काबू में रखना है। इन्द्रियों में वशीभूत नहीं होना, इन्द्रियों को अपने वश में रखना है। यह सब हमारे आधीन है। यह सब हमारे साधन हैं और हम अपने साध्य स्वयं हैं। इस श्रद्धान के साथ हमें आगे बढ़ना चाहिए। धन्य है वह चक्रवर्ती का जीवन, जिनकी दृष्टि कितनी पैनी होगी कि अर्थ की ओर नहीं गये। काम के फल की ओर नहीं गये किन्तु एकमात्र केवलज्ञान से प्रकाशित सूर्य के दर्शन के लिये गये। यह चित्रण (उदाहरण) आप अपने सामने रखकर देखिये। आप कितने सांसारिक प्रलोभन से ग्रसित हैं। आप कितने संसार के लोभों से आकृष्ट हैं। आप कितने विषयों की ओर झुके हुए हैं। एक बात और ध्यान में लाइये कि छियानवे हजार रानियाँ जिनके साथ हैं, जिनके हजारों पुत्र और अपार सम्पदा, हाथी, घोड़े, नव निधियाँ और चौदह रत्न हैं। बत्तीस हजार मुकुट बद्ध राजा और स्वर्ग से नीचे उतरकर आया हुआ दिव्य वैभव, जिनके चरणों में पड़ा है। जिन्हें आदि तीर्थकर के आदि पुत्र होने का गौरव प्राप्त है लेकिन जब भीतरी बात आती है तो ऐसा लगता है कि किस कोने में बैठा हुआ है वह आत्मन् और वहाँ से पूछ रहा है कि तेरा वैभव क्या है? तेरा स्वभाव क्या है? तेरा वास्तविक रूप और लावण्य क्या है? और तू पर के ऊपर क्यों इतना मुग्ध हुआ है? ऐसा विचार आते ही कभी-कभी विस्मय हो जाता है। कभी-कभी खेद खिन्नता भी आ जाती है और कभी-कभी स्वभाव की ओर दृष्टिपात होने से यह सब बाहरी तरंगें हैं, लहरे हैं, ऐसा मालूम पड़ने लगता है। स्वभाव तो यथावत चल रहा है अनादि अनिधन। थोड़ा हवा का झोंका आ जाता है जो ध्वजा लहरदार हो जाती है। वस्तुत: ध्वजा लहरदार नहीं है। इसी प्रकार मोह का प्रवाह चलता है, झोंका आ जाता है तो संसारी आत्मा में, मैं सुखी हूँ, मैं दुखी हूँ, मैं राजा हूँ, मैं बड़ा हूँ, या मैं छोटा हूँ, आदि आदि अनेक लहरें, संकल्प-विकल्प उत्पन्न हो जाते हैं और जैसे ही तत्वज्ञान की भूमिका में अपने आपके स्वरूप पर दृष्टिपात कर लेते हैं तो वहाँ सरोवर तो सरोवर है, ध्वजा तो ध्वजा है, सब एकदम शान्त, निर्मल और निस्तरंग। स्वभावनिष्ठ वह भगवान् हमारे सामने हैं। उनमें आप स्वयं को देखें, वहाँ तरंगें नहीं है, मात्र अंतरंग हैं, शान्त स्तब्ध एकमात्र स्वभाव का साम्राज्य फैला है। जो अथाह अगम्य है। और वही स्वरूप की दृष्टि से देखा जाये तो हमारे पास भी विद्यमान है। उसे देखने की आवश्यकता है, उस पर श्रद्धान करके उसे प्राप्त करने की आवश्यकता है। भरत चक्रवर्ती सम्यग्दृष्टि हैं इसलिए उनके जीवन में इतनी गंभीरता और इतनी सादगी है जो अपार वैभव मिलने के उपरान्त भी कायम है। थोड़ा सा वैभव मिल जाता है तो वही बात होती है कि अध-जल गगरी छलकत जात या कहो उछलत जात। आधा भरा कुम्भ हो तो छलकता जाता है ओर वही जब भरपूर हो जाता है तो कुछ बोलता नहीं। स्वभाव-निष्ठ हो जाता है। आवाज निकलने से अर्थात् व्याख्यान देने मात्र से स्वरूप का भान होता है यह गलत धारणा है। धारणा तो यह होनी चाहिए कि भरपूर होने के उपरांत ही स्वरूप का व्याख्यान प्रारंभ हो जाता है। स्वभाव हमेशा उमड़ता रहता है। उसे सप्रयास लाने की आवश्यकता नहीं पड़ती। जब सम्यकद्रष्टि धर्मात्मा, भगवान् के स्वरूप को जानने वाला मुमुक्षु इस स्वभाव को परिचय में लाता है। प्रभु के दर्शन से या इस प्रकार के धार्मिक आयोजनों के माध्यम से, तब उसे लगता है कि मेरे भीतर भी यही एकमात्र मानसरोवर है जिसमें अनन्तता छिपी हुई है और वह अपने इस शांत स्वभाव में ठहर जाता है किसी भी प्रकार की आकुलता नहीं होती, और इस प्रकार जितना-जितना अपने भीतर जाने का उपक्रम, प्रयास चलता है, उतनी-उतनी शांति मिलनी प्रारंभ हो जाती है। आप जितने सतह की ओर, बाहर की ओर आयेंगे उतनी ही आपको आकुलता सताने लगेगी। इन बाह्य आयोजनों के माध्यम से अंतर्मुखी दृष्टि आ जाये, यही उपलब्धि है। दृष्टि के ऊपर ही हमारे भाव निर्भर हैं। जैसी हम दृष्टि बनाते हैं वैसा ही भावों के ऊपर प्रभाव पड़ता है। जैसे-जैसे अंतर्दूष्टि होती जाती है भाव भी अपने आप शांत होते चले जाते हैं। उबलता, ऊफनता हुआ दूध हानिकारक है, लेकिन तपने के उपरांत वही जब स्वस्थ/शांत हो जाता है तो लाभप्रद हो जाता है। आज विश्व में कषायों की तपन और उद्वेग बढ़ता जा रहा है। एक व्यक्ति के जीवन में बढ़ता हुआ कषाय का उद्वेग विश्व में प्रलय लाने में कारण बन सकता है। वहीं यदि एक व्यक्ति का मन मानसरोवर की तरह शांत और निर्मल हो तो उसके तटों पर बहुत दूर-दूर से आये भव्य जन रूपी हंस बैठकर शांति का अनुभव कर सकते हैं। एक ही शांति अनेक में क्षोभ को शांत करने के लिये पर्याप्त है और एक का क्षोभ अनेक की शांति को भंग करने में निमित्त बन सकता है। इसलिए बंधुओ! स्वभाव की ओर दृष्टि लानी चाहिए जिससे भावों में शांति आये। जिसके जीवन में स्वभाव से अभी परिचय नहीं हुआ है, उसी के जीवन में आकुलता होती है। एक हाथी उन्मत्त हो जाये, स्वभाव से च्युत हो जाये तो उसके सामने खड़े होना संभव नहीं है, लेकिन जब वह अपने आप में शांत हो जाता है और अपनी मंद चाल से चलने लगता है तो बालक और बूढ़े सभी उसके सामने नृत्य करने लग जाते हैं। उस पर बैठ भी जाते हैं। स्वस्थ ओर उन्मत्त हाथी-यह दोनों कषायों के उपशमन और उद्वेग के प्रतीक हैं। जो स्वभाव से अपरिचित है, वह प्रलय में कारण बनता है और जो स्वभाव में लीन है तो उस लय में अनंत जीव अपना कल्याण कर लेते हैं। धर्म का प्रवाह आज का नहीं, जब से संसार है तब से अबाध चल रहा है। पूरे के पूरे संसार का कल्याण हो, ऐसी भावना भायी जाये तो आज भी ऐसी लहर उत्पन्न हो सकती है जो हमारे कल्याण में निमित्त बन सकती है। सर्व कल्याण की पवित्र भावना भाने वाले, वे आर्य, वे सत्पुरुष, वे महामानव युग के आदि में ऐसे कार्य कर गये, जो आज भी लोगों के लिये आदर्श बने हुए हैं। आदर्श का एक अर्थ दर्पण भी होता है। दर्पण में देखकर, आदर्श (भगवान) के दर्शन करके हमें ज्ञात हो जाता है कि हमारा कर्तव्य क्या है? हमारा स्वभाव क्या है? हमारे प्रभु कौन हैं? और हमारे लिये उन्होंने क्या संदेश दिया है। इतना यदि हम समझ लें तो जीवन कृतकृत्य हो जायेगा। आज इस पंचमकाल में भी कृतकृत्यता का अनुभव कर सकते हैं क्योंकि अलौकिक कार्य की शुरूआत में भी तृप्ति का अनुभव होता है। आम जब पक जाते हैं तो रस निकालते हैं, पीते हैं, तृप्ति मिलती है। यह तो ठीक है, लेकिन जिसे आप गदरे आम बोलते हैं उनका अपने आप में अलग स्वाद होता है। खटमिट्ठा भले ही रहता है पर वह भी तृप्तिकर लगता है। इसी प्रकार तृप्ति का अनुभव मुक्ति में तो यह आत्मा करेगी ही, लेकिन जिस समय वह सम्यक्र श्रद्धान के साथ मोक्षमार्ग पर अपने कदम रखता है उस समय मार्ग में भी उसे अलग आनंद और तृप्ति का अनुभव होता है। जैसे घर में भोजन करो और वन में जाकर पिकनिक में भोजन करो तो उसका अलग आनंद आता है। भूख नहीं भी लगी हो तो खाने का मन हो जाता है। यह क्यों होता है? क्योंकि वातावरण चेज होने से भावों में भी अन्तर आ जाता है। इसी प्रकार जिन्हें केवलज्ञान हो गया हो उसकी छाँव में जाकर उनके प्रवचन सुनने और दर्शन करने से जो एक तृप्ति का अनुभव होता है वह भी अपने आप में अलौकिक है। बंधुओ! नदी/सरिताएँ सागर से मिलने को आतुर हो जाती हैं लेकिन बात ऐसी है कि सागर भी मिलने को आतुर था आज। अभी-अभी हमने देखा था। सागर तटस्थ नहीं था, बह रहा था। बहता हुआ सागर कौन सा है यहाँ, और कहाँ जाकर मिलना चाहता है? यह निश्चित है कि सागर यदि बहता है तो वह मीठा हो जाता है। यदि तटस्थ रहता है तो प्रसिद्ध है कि खारा तो वह है ही। बहता हुआ सागर यही है कि सारा सागर-नगर धर्म की ओर बह रहा है। धर्मामृत को पीने के लिये आतुर है। यही तो वे क्षण हैं जब आबालवृद्ध हर्षित होकर उसमें डूब जाते हैं। यह क्षण बहुत दुर्लभ होते हैं। यह पैसे खर्च करने से नहीं, किसी व्यक्ति विशेष को आमंत्रित करने से नहीं, कोई मेवामिष्ठान्न खाने से भी नहीं किन्तु भावों की निर्मलता से आते हैं। जब आप अपने आपको/अपने अहंकार को भूल जाते हैं और मात्र आदर्श सामने रह जाता है और उसी में लीनता आ जाती है तो सभी का मन उल्लास से नाचने लग जाता है। युवकों और बालकों के साथ वृद्ध भी झूमने लगते हैं। दादाजी के पैर भी नाती के साथ नृत्य के लिए उठ जाते जाती है। धर्म में लीनता जब आती है तो दीनता-हीनता चली जाती है। अभी विषयों में आपकी लीनता है इसलिए आप दीनहीन बनते जा रहे हैं। अहंकारी बनते जा रहे हैं। जब हम देखते हैं उस अपार को और विराट की ओर दृष्टिपात करते हैं तब अपने आप की लघुता हमें प्रतीत हो जाती है। जब सागर में मिलने के लिये बड़ी गंगा, सिंधु, ब्रह्मपुत्र जैसी नदियाँ जिनमें बड़े-बड़े जहाज चलते हैं, मिलने के लिये आ जाती हैं। उस समय अपने आपको देखती हैं तो बहुत पतली, बहुत छोटी, नहीं के बराबर मालूम पड़ती हैं। असारता का दर्शन इसी प्रकार हमें भी करना है। इस असारता के माध्यम से ही हम पार पा जायेंगे। हमारी लघुता समाप्त जो जायेगी उस विराटता में। धन्य हैं वे प्रभु जिन्होंने हमारे अधूरे/अपूर्ण व्यक्तित्व को पूर्ण होने का संदेश दे दिया। उनका दिया उजाला हम लोगों के लिये पथ प्रदर्शक बन गया। अंत में इतना ही कहना चाहूँगा कि चक्रवर्ती के समान भावना हमारे/आप लोगों के जीवन में भी आये। आज जो स्थिति है वह कर्म के उदय में है, उसमें रचे-पचे नहीं, यथावत उसको देखने का प्रयास करें। पुरुषार्थ अधिक से अधिक आप करें। अर्थ के क्षेत्र में, काम पुरुषार्थ के क्षेत्र में ही नहीं बल्कि धर्म और मोक्ष पुरुषार्थ को अपने सामने रखकर पुरुषार्थशील बने। जिस महान् पुरुषार्थ के फलस्वरूप वृषभनाथ भगवान् को केवलज्ञान प्राप्त हुआ उसी प्रकार जीवन में भी वह शुभ घड़ी आयेगी, ऐसा सत्-पुरुषार्थ हम करें जिसके द्वारा कैवल्य की उपलब्धि हो। धर्म की ध्वजा फहराती रहे।
  13. संग्रहित धन विषय पर संत शिरोमणि आचार्य विद्यासागर जी के विचार. संग्रह धन का हो या किसी अन्य चीज का वह किसी काम का नहीं होता। जिस प्रकार नदियाँ लगातार प्रवाहित होकर अपने जल से जीव जन्तुओं की प्यास बुझाती हैं, उसी प्रकार समुद्र, झील या स्थिर जल पीने योग्य नहीं होता। इसी प्रकार धन का संग्रह भी खारा होकर किसी योग्य नहीं रहता। धन का प्रवाह होना चाहिए। इसे परहित, धर्म, स्वास्थ्य, शिक्षा परदान करना चाहिए। जिससे धन मीठा रहे और बढ़े। आज प्रचलन में जो धन तेरस है वो वास्तव में ध्यान तेरस है उसी को आज धन तेरस कहते हैं क्योंकि तेरस के दिन महावीर भगवान् ने योग निरोध किया था इसलिए ये ध्यान तेरस है। संग्रह वृत्ति पालकों में होती है, बालकों में नहीं।
  14. संकल्प-विकल्प विषय पर संत शिरोमणि आचार्य विद्यासागर जी के विचार. यदि संकल्प-विकल्प को तोड़ने का आपने संकल्प नहीं लिया तो आपको श्रुतज्ञान व संकल्प-विकल्प तोड़ देंगे......तुड़वाओ......तुड़वाना है तो। अपने ही हाथों अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मारना.......मुहावरा बोलते हैं ना आप लोग। इस संकल्प व विकल्प को जिसने इष्ट व अनिष्ट की कल्पना के लिए कारण माना उसको वह छोड़ देगा। दुनिया की ओर मत देखो संकल्प व विकल्प के स्रोत को देखो। संकल्प-विकल्प का स्रोत श्रुतज्ञान है। मन विकल्प का शस्त्र है। अपनी नींव ये डालों की हमें संकल्प विकल्प ज्यादा करना नहीं है। नहीं करना है तो.....होंगे नहीं....नहीं समझे.... | नींव अच्छी होनी चाहिए कच्ची नहीं। बार-बार उसको खोले ना.....उसकी रिपेरिंग नहीं होती है। दीवाल की तो रिपेरिंग हो सकती है नींव की आज तक रिपेरिंग किसी ने नहीं करवाई। आज संकल्प विकल्प के कारण विज्ञान घाटे में है। आज आठ वर्ष के बालक की दौड़-धूप ज्यादा है उसके मस्तिष्क में क्या-क्या भरा है? पता नहीं, हम नहीं कह सकते। पहले के लोग संतोषी होते थे इसका अर्थ यह है कि-हमें ज्यादा संकल्प और विकल्प नहीं करना चाहिए। पहले के लोग घाटे में नहीं, घाटे में आज का युग है। चाहे पढ़ा-लिखा हो.कुछ भी हो। आज जो संकल्प विकल्प होते हैं वो पहले नहीं होते थे। आज चाहे ७-८ वर्ष का बच्चा हो. वो भी इतने ही संकल्प विकल्प करता है, जितने कि ८० साल का बुड़ा भी नहीं करता। विषय व कषायों की अपेक्षा से आज का लड़का भले आठ वर्ष का हो वह बड़े-बड़े कार्य कर देगा, हैरान कर देगा घर में और ८० साल के दादाजी संतोष के साथ बैठ करके वह आराम के साथ घर चला रहे हैं। उनको विकल्प है ही नहीं। संकल्प और विकल्पों को तोड़ने का जो संकल्प नहीं कर रहा है पुरुषार्थ नहीं कर रहा है वो बावला है। वो परीक्षा में तीन काल में नम्बर सही नहीं पा सकेगा। कुछ लोगों को निर्विकल्प रहना बीमारी सी लगती है इसलिए वे हमेशा किसी न किसी विकल्प में पड़े रहते हैं। संसार में यदि सबसे बड़ा कार्य है तो वह संकल्प-विकल्प नहीं करना। संकल्प-विकल्प से प्रशम भाव नहीं रहता विषम भाव बन जाता है। संकल्प-विकल्परूपी अग्नि ईधन के अभाव में समाप्त हो जाती है फिर चित्त शांत हो जाता है। पर संपर्क रूपी ईधन से बचो। योगीगण संकल्प-विकल्प से दूर होने के लिए वन का आश्रय ले लेते हैं। पुराण ग्रन्थों में पढ़ा है जो कोई भी विद्या सिद्ध करते हैं वे जंगल में ही करते हैं। मन की एकाग्रता के लिए एकांत आवश्यक है। संकल्प लेकर बैठ जाओ एकांत वहीं है। संकल्प-विकल्प ही संसाररूपी जंगल में पटक देते हैं। मन में ही विकल्पों का ताँता उत्पन्न होता हैं। आगे कौन क्या साथ देगा यह सोचने वालों आप घबराओ नहीं, आप घबराते क्यों हो? आपके साथ आपका संकल्प तो रहेगा। संकल्प के अलावा संसार में कोई साथ नहीं है। परिचय विकल्पों का घर है। उपयोग की खुराक मात्र संवेदन है, बुद्धि की खुराक विकल्प है। जो स्वागत के साथ विदाई की बात जानता है वह न स्वागत गान से हर्षित/प्रभावित होता है और न ही मृत्यु गीत से उदास/दुखित होता है। आकुलता नहीं करना यही मोक्षमार्ग है। जिसके पास वैराग्य की कमी है उसे आकुलता सताती है। आप यदि सुख चाहते हैं, कर्मों को काटना चाहते हैं से सर्वप्रथम संकल्प-विकल्प छोड़ दो क्योंकि अन्य कोई संसार में भटकाने वाला नहीं है। संकल्प विकल्प संसार वृद्धि के लिए कल्पवृक्ष हैं, कामधेनु हैं। जैसे कल्पना करने से वस्तु की प्राप्ति कल्पवृक्ष से हो जाती है, इसी प्रकार संकल्प-विकल्प करोगे तो निश्चितरूप से संसार का ही विकास होगा। आप लोगों का संसार से मुक्त होने का संकल्प है संसार से मुक्त होना चाहते हो तो संकल्प व विकल्प कम कर दो पहले पूर्ण समाप्त तो नहीं कर पाओगे। संकल्प विकल्प को कम करते जाना यही एक मात्र आत्मिक साधना मानी जाती है। संकल्प रखो विकल्प आये तो चाटा मारो । संकल्प की दुकान पर विकल्प नहीं आना चाहिए या तो संकल्प की दुकान खोलो या विकल्प की खोलो । संकल्प एक ही है उपसर्ग अलग-अलग है। संकल्प सम्यक दर्शन का प्रतीक है। विकल्प मिथ्यादर्शन का प्रतीक है। क्षायिक सम्यक दृष्टि भी भूल जाता है क्योंकि उसने संकल्प किया नहीं। कोई भी दुकान हो माल एक ही रखना ट्रेडमार्क एक नम्बर का दो नम्बर का नहीं। ग्रहण करना और छोड़ना विकल्प का कारण है। संकल्प के लिए जागृति की आवश्यकता होती है तथा दिशा के चयन की। दुनिया में विकल्प नहीं है, विकल्पों के माध्यम से दुनिया होती है, जब विकल्प हमारे नहीं हो सकते तो हम विकल्प के कैसे हो सकते हैं ये ही अध्यात्म है। हम इस विकल्प में ही पड़कर अपना सारा समय खराब करते रहते हैं।
  15. संस्कार विषय पर संत शिरोमणि आचार्य विद्यासागर जी के विचार. हिन्दी भारतीय संस्कृति की आत्मा है। वीतरागता की उपासना करने वाला, रत्नत्रय की आराधना करने वाला ही संस्कारवान है। घर की रक्षा के समान, इन जिनालयों की सुरक्षा के भी संस्कार अपने बच्चों में डालें। जैसे बच्चों के ऊपर अर्थ के संस्कार डालते ही वैसे ही परमार्थ के अच्छे संस्कार डालो। धर्म के संस्कार वहाँ पर भेजना चाहिए, वहाँ पर जा करके रखना चाहिए जहाँ पर सभी को प्रकाश मिल सके। जिस प्रकार प्रकाश में प्रकाश की आवश्यकता नहीं होती। अंधकार में उसका मूल्य और महत्व बढ़ जाता है। उसी प्रकार आज यदि आपका जीवन संस्कारित है, तो जो संस्कारहीन व्यक्ति हैं, उनको संस्कारित बनाने का प्रयास कर कीजिये। इसके द्वारा आपके तन, मन और धन का उपयोग अच्छा हो सकता है। प्रत्येक व्यक्ति का यह कर्तव्य होता है कि वह एक संस्कारित जीवन का निर्माण करे। इसी से धर्म आगे बढ़ सकता है। इसके माध्यम से स्व और पर दोनों का कल्याण होता है। शरीर के साथ जो धर्म के द्वारा संस्कारित आत्मा है उसका मूल्य है और उस संस्कारित आत्मा के कारण ही शरीर का भी मूल्य बढ़ जाता है। बच्चों को यदि माता-पिताओं के माध्यम से संस्कार नहीं मिलेंगे तो वह बच्चा घर को संभाल नहीं सकेगा। एक लेख में आया था विवाह न करो। क्यों? संतान होगी, उसका पालन-पोषण से परिवार बढ़ेगा तो सुख-दुख आयेंगे किन्तु बिना विवाह के भी बच्चे हो सकते हैं तो उन्हें छोड़ देंगे। सोचो! पशु भी ऐसे नहीं करते, जब तक पंख नहीं आते, उनके और आप पैर वालो क्या करते हो सोचो? कहाँ गये आपके संस्कार ? जब कूँए में ही भांग पड़ गई तो लोटा छानने से क्या होगा? आज ये पढ़ाया जाता है कि ब्रह्मचर्य कोई वस्तु नहीं वासना तो समय से जागृत होगी बस विवाह मत करो। अब आपके पास आत्मा को कसने के लिए कौन सा प्वाइंट है? शिक्षा पद्धति ऐसी होना चाहिए जिसमें संस्कार विकसित हों, नैतिक शिक्षा पर बल होना चाहिए ताकि मानवीय मूल्यों का विकास हो। देवगति में संस्कार देने की बात नहीं है। इस मनुष्य पर्याय में सम्यक ज्ञान पूर्वक संस्कार डालना चाहिए तभी देवगति में जाकर समवसरण में जाने के भाव होंगे। यदि सम्यक दृष्टि है तो दूसरे भव में संस्कार काम आ सकते हैं। मिथ्यादृष्टि तो सब भूलकर विषय कषायों में लग जाता है। अनादिकाल से आत्मा की दीवार पर धर्म का कोई रंग रोगन हुआ नहीं अब यदि आप नया धर्म का रंग लगाना चाहते हो तो पुराने संस्कारों को साफ करना होगा। जिस प्रकार कारीगर ईंट चूना आदि से मात्र मकान तैयार करता है किन्तु अन्य कोई उसे सुसज्जित करते हैं। इसी प्रकार माता-पिता तो बालक को जन्म मात्र देते हैं किन्तु गुरु उसे सद्संस्कारों से सुसज्जित कर देते हैं। अरिहंत भगवान् नवनीत के समान हैं, सिद्ध भगवान् घी के समान हैं तथा हम सभी दूध के समान हैं। इस दूध में धर्म संस्कारों की जामन डालकर जमाओ और फिर वैराग्य की मथानी से स्वयं का मंथन करो। ये ज्ञान और संयम के संस्कार थोड़े भी पर्याप्त हैं मुक्ति की प्राप्ति के लिए। बीज के समान योग्य वातावरण पाकर यह संस्कार एक दिन बहुत बड़े वट वृक्ष के रूप में प्रतिफलित होंगे। होटल का खाना और डिब्बे का दूध इन दोनों से आपके बच्चों पर धार्मिक संस्कार नहीं डल सकते। वीतरागी का संस्कार मिले तो राग वीतरागता में बदलेगा नियम से। हमें अपनी पीढ़ी में ऐसे ही संस्कार डालना चाहिए जिसके माध्यम से उनका आर्थिक विकास न होकर आत्मिक विकास हो। आत्मा की स्वतंत्रता के लिए संस्कारों का झंडा फहराएँ। रत्नत्रय के पवित्र संस्कारों के द्वारा पाप के संस्कारों से मुक्त होकर आत्मा शुद्ध बन सकती है। पवित्र संस्कारों के द्वारा ही पतित से पावन बना जा सकता है। जो व्यक्ति पापों से अपनी आत्मा को छुड़ाकर केवल विशुद्ध भावों के द्वारा संस्कारित करता है वही संसार से ऊपर उठ पाता है। संस्कारों से जीवन को आकार मिलता है। जो घर में भोजन न करके बाजार में खाता है उसके धन और धर्म दोनों के संस्कार चले जाते हैं। आज कितना भी धार्मिक वातावरण बना लिया जाता है फिर भी धर्म के संस्कार नहीं पड़ रहे हैं। हिंगड़े हींग के डिब्बे में से हिंगड़ा निकाल कर साफ कर दो और उसमें कस्तूरी रख दो तो वह हिंगड़ा भी अपना प्रभाव डालता है, उसी प्रकार आज बच्चों को कितने अच्छे संस्कार दो तो भी वह कुसंस्कार रूपी हिंगड़ा छूटता नहीं है। जिनवाणी की शरण से, गुरुओं के समागम से, सदाचरण से संस्कारित होकर जैसा वातावरण यहाँ है वैसा आप अपने ज्ञान से दूसरी जगह ले जा सकते हैं। हाँ वातावरण अच्छा नहीं है, वहाँ भी यहाँ जैसा जीवनयापन कर सकते हैं, अपने पूर्व संस्कारों से। और वहाँ रहने वाले व्यक्तियों को भी जिनवाणी शरण गुरु समागम की चाह पैदा कर सकता है। रत्नत्रयरूपी संस्कार ही हमारे काम आयेंगे। मुक्त होने का एक ही रास्ता है हम आत्मा के ऊपर स्नत्रय के संस्कार डालते चले जायें। संस्कार चश्मे के समान है जो आत्मा को देखने का साधन बन जाते हैं और आत्म विकास के लिए कारण होते हैं। रुचि और आस्थापूर्वक डाले गये संस्कार ही आगे काम आते हैं। मनुष्य भव अच्छे संस्कार डालने के लिए आषाढ़ के समय खेत में बीज डालने/बोने के समान हैं इसलिए मनुष्य जीवन के समय को व्यर्थ मत खोओ। संतान के ऊपर आपका सबसे बड़ा उपकार यही है कि उसके ऊपर अच्छे संस्कार डालो, उन्हें धर्म मार्ग पर लगाओ। बच्चों पर आप मात्र पैसे कमाने के संस्कार डालोगे तो आप उन पर उपकार नहीं अपकार कर रहे हैं। धन कमाने के संस्कार डालने की आवश्यकता नहीं है, वे तो स्वयं आ जाते हैं। इन विषय भोगों के वातावरण में हमें बच्चों में धर्म के संस्कार डालना ही चाहिए।
  16. सामयिक विषय पर संत शिरोमणि आचार्य विद्यासागर जी के विचार. निर्जरा तत्व के द्वार खोलने के लिए सामयिक अच्छी चाबी है। मुनिराज के निर्जरा के द्वार परीषहादि से हमेशा खुले रहते हैं। श्रावक को आर्त रौद्र ध्यान से बचने का एक मात्र अवसर सामयिक ही है। सामयिक के समय समता रूपी पाटे पर बैठ जाओ परीषह रूपी करेंट का प्रभाव नहीं पड़ेगा। समतारूपी तड़ित चालक लगाने से बिजली परीषह से आत्मा को क्षति नहीं पहुँचेगी। सामयिक में उत्साह न होना ही उसका अनादर है। सामयिक सानन्द सम्पन्न करने के लिए भोजन गरिष्ठ नहीं लेना चाहिए। प्रत्येक क्रिया में उत्साह होना चाहिए, यदि लड़ाई में उत्साह है तो सामयिक में दस गुना उत्साह होना चाहिए। जो पाँच इन्द्रिय और मन के वश में नहीं है वो 'अवश' है और 'अवशी' के द्वारा किया गया कार्य आवश्यक कहलाता है। करने योग्य कहा जाता है। भरत चक्रवर्ती दिग्विजय करने भी गये तो भी तीनों समय सामयिक करते थे, आत्मा का चिन्तन करते थे। इसे कहते हैं गृद्धता का अभाव भोगों में अनासति। मनुष्य आयु का बंध होने पर सम्यग्दर्शन भी साथ नहीं जायेगा यहीं छूटेगा अत: उसे सुरक्षित रखने के लिए तीनों समय एक दो घंटे सामयिक करो, स्वाध्याय करो। आप पिक्चर लगातार तीन घंटे बैठकर देख सकते हैं, पर सामयिक में नहीं, सामयिक में तो नींद भी आती है, पिक्चर में नहीं आती, ध्यान एक तरफ बना रहता है। इसका यही अर्थ है कि सामयिक में अविश्वास तथा पिक्चर में विश्वास है। ऐसा कार्य न करें जिससे सामयिकादि में कमी आ जाये। लाभ कम हानि ज्यादा हो ऐसे कार्य न करें। आत्मा की कथा/बात करके दूसरे को सन्तुष्ट करना सामयिक के काल में तो यह विकथा है। सामयिक के काल में स्वाध्याय नहीं करना। सामयिक के समय में आत्मा में रहकर आत्मा से बात करो।
  17. समता विषय पर संत शिरोमणि आचार्य विद्यासागर जी के विचार. समता का अभ्यास करते रहना चाहिए। हम समता का अभ्यास करते हैं तो इसका प्रभाव दुनिया के ऊपर भी पड़ता है और धर्म की प्रभावना भी होती है। हमें जैसा जो मिले उसी में काम चला लेना चाहिए। वही चाहिए यह भावना नहीं करना चाहिए। हमारे सिर्फ शब्द नहीं होना चाहिए भाव में घुल मिल जाने का नाम ही उत्तम समता का धारक है। मुनि बने हो तो समता रखो, इसी में हमारी भाव सामयिक हो जाती है, इस प्रकार का चिंतन करते रहना चाहिए। समता गुण से उत्पन्न हुआ शुभ भाव जो है यह उत्तम सामयिक है। समता गुण के उत्पन्न होने से क्षमादि गुण भी उत्पन्न हो जाते हैं। ऐसे इस गुण को धारण करने वाला ही उत्तम सामयिक कर पात है। जो व्यक्ति अपनी शक्ति को तप संयम गुणों में लगाता है वो ही सामयिक कर पाता है। सामने वाला हजार बार गलती करे तो भी समता से सहन करो, कर्म निर्जरा होती रहेगी। उपसर्ग मानकर सहन करो, यह तो अच्छा निमित्त है। पहले का ऋण चुक रहा है, सोचो और अपने आपको हल्का बना लो । समता रखने का हमेशा प्रयास करें। प्रत्येक पल समता के बीज बोते जाइये, यही मरण समाधि की तैयारी है। समता रूपी बगीचे में रहने वाला व्यक्ति भिन्न-भिन्न फूलों की महक लेता रहता है। हमेशा समता रखना चाहिए, अभी समता रहेगी तो समाधि के समय काम आयेगी। समता, विनय और नम्रता होना चाहिए। समता रूपी त्यौहार साधु के जीवन में हर पल रहता है, श्रावक के तीन सन्ध्याओं में। परीषह विजय करने वाला ही समता रख सकता है। समता की शरण आये बिना केवलज्ञान तीन काल में सम्भव नहीं। समता से भरा जैन धर्म का वृक्ष खड़ा है उसकी ओर देखिये। 'समता' का विलोम है 'तामस'। 'समता' जीवन का वरदान है और 'तामस' अभिशाप है। अनेकांत का हृदय है समता। सामने वाला जो कहता है उसे सहर्ष स्वीकार करो। आज बुद्धि का विकास तो है लेकिन समता का अभाव है। समता धारण करने का अर्थ दीनता नहीं है। काम चलाऊ नहीं है समता धारण करना तो ये हमारा स्वभाव है। छह प्रकार के बाहरी तपों के द्वारा जितनी कर्म निर्जरा नहीं होती है उससे भी हजार गुनी कर्म निर्जरा समता रखने में और साधर्मियों के द्वारा अपमान सहन करने की क्षमता में होती है। कम समय में ज्यादा निर्जरा करना चाहते हो जो समता रखी। सामयिक वो निजरा नहीं होती है जो उपसर्ग की अवधि में समता रखने से होती है। लौकिक रणांगन में यह तलवार और ढाल की आवश्यकता होती है किन्तु वैराग्य के क्षेत्र में आप केवल समता के भाव लेकर बैठ जाओगे तब भी आपका रक्षण हो जायेगा। समता के समय जो प्रहार करने के लिए आये हैं वो भी अपने आप आत्म समर्पण करके चले जायेंगे। जब लड़ने के लिए योद्धा, प्रतियोद्धा या प्रतियोगी नहीं है तो फिर कौन लड़ेगा? कोई भी नहीं लड़ेगा। स्वाधीनता, सरलता और समता भाव को धारण करो क्योंकि यही आत्मा की निधि है। इसको नहीं अपनाने पर दुख का कारण होता है। जहाँ समता है वहाँ किसी प्रकार का झगड़ा, संघर्ष, विसंवाद नहीं होगा, संवाद होगा। आज दु:ख का अनुभव हो रहा है एक मात्र विषमता के कारण तथा समता के अभाव में। जब समता का प्रादुर्भाव होगा तब सौभाग्य का द्वार खुल जायेगा। तीन बार प्रतिक्रमण करते हैं, अपने आपको पापी कह रहे हैं, पर दूसरा कोई कह देता है तो बौखला जाते हैं, तब ही आध्यात्म का स्वाद ले सकोगे, तब ही आनन्द आयेगा जब किसी के पापी कहने पर समता रखोगे। हमारी वृत्ति समता की ओर रहना उसका रखना ही सामयिक है। २८ मूल गुणों में यदि दोष लग जाते हैं तो समता के साथ सामयिक करने से मूलगुणों में जो दोष हैं वो भी निर्दोषता को प्राप्त हो जाते हैं। इस समता को अपना स्वभाव बनाना चाहिए। समता के घट से हृदय भरा होना चाहिए लेकिन मन मर्कट समता को नष्ट करता है। इसलिए इस मन मर्कट को वश में करना है तो सामयिक रूपी समता के माध्यम से कर सकता है। जिस समय मन मरकट चंचल रहता है उस समय ये सामयिक आदि भी बिगाड़ देता है। इसलिए समता को अपना स्वभाव बनाने की कोशिश करना चाहिए। दिन भर तो बैठ के चर्चा करते रहे लेकिन सामयिक लेट करके करता है तो यह ठीक नहीं है। मूलगुणों की रक्षा के लिए कारण होती है सामयिक। इसलिए हमें सामयिक को अच्छे से करना चाहिए। ये कर्म निर्जरा के लिए कारण होती है। हम शारीरिक मानसिक शक्ति को विपरीत दिशा में लगा देते हैं इसलिए सामयिक में मन नहीं लगता है। उस शक्ति का सही प्रयोग करने पर वो सामयिक होती है।
  18. संयम विषय पर संत शिरोमणि आचार्य विद्यासागर जी के विचार. जैसे सड़क पर चलने वाले हर यात्री की सड़क के नियमों का पालन करना अनिवार्य होता है उसी प्रकार मोक्षमार्ग में चलने वाले के लिए नियम-संयम का पालन अनिवार्य है। संयम के द्वारा प्रतिक्षण असंख्यातगुणी कर्म निर्जरा होती रहती है। जिसने संयम की ओर कदम बढ़ाये उसके लिए बिना माँगे ऐसा अपूर्व पुण्य का संचय होने लगता है जो असंयमी के लिए कभी संभव नहीं। संयम वह है जिसके द्वारा अनंतकाल से बंधे संस्कार भी समाप्त हो जाते हैं। संयमी व्यक्ति ही कर्म के उदय रूपी थपेड़े झेल पाता है। जिसके भीतर संयम के प्रति रुचि है वह तो संयमी के दर्शन मात्र से ही अपने कल्याण के पथ को अंगीकार कर लेता है। संयम ऐसा होना चाहिए जो जीवन में सुगंधी पैदा कर दे। संयम के माध्यम से व्यक्ति अपने जीवन में आदि से लेकर अन्त तक पुष्पवृष्टि के द्वारा अभिषिक्त होता रहता है। संयमी व्यक्ति के जीवन में कभी विषाद या विकलांगता या दीनता- हीनता नहीं आती। वह तो राजाओं से बढ़कर अर्थात् महाराजा बनकर निश्चिंतता को पा लेता है। संयमी व्यक्ति हमेशा खुश रहता है ध्यान रखना सुख नहीं रहता खुश रहता है। संयमी का चंचल खुश रहते है जीवन भर खुश रहता है। सभी खुद महकता है और उस खुशहाली का कारण उत्तम संयम ही है। जीवन में संयम के साथ सुगंध तभी आती है जब हम संयम को प्रदर्शित नहीं करते बल्कि अंतरंग में प्रकाशित करते हैं। संयम वह है जिसके द्वारा जीवन स्वतंत्र और स्वावलंबी हो जाता है। संयम दर्शन की वस्तु है उसे प्रदर्शन की वस्तु नहीं बनाना। संयोग-वियोग में जो समता परिणाम बनाये रखता है तथा अनुकूलता और प्रतिकूलता में हर्ष-विषाद नहीं करता ऐसा संयमी व्यक्ति ही सच्चा स्वाध्याय करने वाला होता है। संयम के मार्ग पर चले तो स्वर्ग चरणों में होगा। समय का सदुपयोग करना संयमी का विशेष गुण है। संयम पूर्वक प्रत्येक घडी असंख्यात गुणी निर्जरा करते हुए समय का सदुपयोग करना ही कल्याणकारी है और इसी में मनुष्य जीवन की सार्थकता है। हमें संयम की भूमिका नहीं भूलना चाहिए। करोड़ जिह्वा की कथा से व्यथा का अंत नहीं होता किन्तु संयम वैराग्य की एक कथा से सारसमझ में आ जाता है असार संसार की वास्तविकता प्रकट हो जाती है। आपको यदि अपना सर्वागीण विकास करना है तो बगैर प्रतीक्षा किये एक के बाद एक कदम संयम के साथ आगे बढ़ी। असंयमी से कभी भी संयमी को शिक्षा लेने की भावना भी नहीं करना चाहिए। जिन्होंने अपने जीवन में संयम की कोई गंध भी नहीं सुंघी और वहाँ पर आप संयम लेकर के जाओ और कुछ सीखो पढ़ो तो क्या होगा उसका? उसको अभिमान होगा। आप असंयमी को तो नमोऽस्तु करोगे नहीं विनय करेंगे नहीं तो काय की शिक्षा लेना?लेकिन आज विनय के बिना जो शिक्षा ली जा रही है उसी के परिणाम सामने आ रहे हैं। स्पर्धा भी यदि करना है तो संयम की करो, ये सबसे उत्तम विवेक का काम है। तत्वज्ञान का लाभ है। जो निराकुल अवस्था को प्राप्त करना चाहता है, वह संयम अवश्य ही हाथ में लेता है संयम साधन है निराकुल अवस्था को प्राप्त करने के लिए। इस हाथ आप संयम धारण करो और उस हाथ सुख प्राप्त करो ऐसा है संयम। संयम सुख का झरना है। याद रखें, यदि कोई चुल्लू के बराबर संयम से डर रहा है तो इसका मतलब है उसने अभी सागर पिया ही नहीं है। संयम के आते ही निर्जरा चालू हो जाती है। जैसे सड़क पर चलने वाले हर यात्री को सड़क के नियमों का पालन करना अनिवार्य होता है उसी प्रकार मोक्षमार्ग में चलने वाले के लिए नियम-संयम का पालन अनिवार्य होता है। संयमी का पूरा जीवन ही उपदेशमय हो जाता है। जैसे गाड़ी सीखने के उपरान्त भी संयम और सावधानी की बड़ी आवश्यकता है, ऐसे ही सम्यक दर्शन और सम्यक ज्ञान हो जानने के उपरान्त भी संयम की बड़ी आवश्यकता है। आत्मा का विकास संयम के बिना संभव नहीं है। संयम वह सहारा है जिससे आत्मा उर्ध्वगामी होती है। पुष्ट और सन्तुष्ट होती है। संयम को ग्रहण कर लेने वाले की दृष्टि में इन्द्रिय के विषय हेय मालूम पड़ने लगते हैं। सम्यक दृष्टि संयम को सहज स्वीकार करता है। इसलिए वह सब कुछ छोड़कर भी आनन्दित होता है। हमेशा संयम का ध्यान रखना। असंयमी के बीच बैठकर भी असंयम का व्यवहार नहीं करना। संयम से व्यक्ति का स्वयं बचाव होता है और दूसरे का बचाव भी हो जाता है। जिसकी संयम में रुचि गहरी है वह स्वप्न में भी अपने को संयमी ही देखता है। संयम के माध्यम से ही आत्मानुभूति होती है। संयम के माध्यम से ही हमारी यात्रा मंजिल की ओर प्रारम्भ होती है और मंजिल तक पहुँचाती हैं। यात्रा पद तो संयम का ही है। देशसंयम और सकल संयम ही पथ बनाते हैं क्योंकि चलने वाले से ही पथ का निर्माण होता है बैठा हुआ व्यक्ति पथ का निर्माण नहीं कर सकता। असंयम के संस्कार अनादि काल से है तभी तो आज तक आप कभी भी भूल के भी स्वप्न में दीक्षित नहीं हुए होंगे। कभी मुनि महाराज बनने का स्वप्न नहीं देखा होगा। हाँ महाराजों की आहार देने का स्वप्न अवश्य देखा होगा। जिसका मन अभी दिन में भी भगवान् की पूजा, भक्ति और संयम की ओर नहीं लगता वह रात्रि में स्वप्न में भगवान् की पूजा करते हुए या संयम पूर्वक आचरण करते हुए स्वयं को कैसे देख पायेगा? बंधुओ अगर अपना आत्म कल्याण करना हो तो संयम कदम-कदम पर अपेक्षित है। संयम का एक अर्थ इन्द्रिय और मन पर लगाम लगाना भी है। और असंयम का अर्थ बेलगाम होना है। बिन ब्रेक की गाड़ी और बिना लगाम का घोड़ा जैसे अपनी मंजिल पर नहीं पहुँचता उसी प्रकार असंयम के साथ जीवन बिताने वाले की मंजिल नहीं मिलती। संयमरूपी तटों के माध्यम से हम अपने जीवन की धारा को मंजिल तक ले जाने में सक्षम होते हैं। कर्म के वेग और बोझ को सहने की क्षमता असंयमी के पास नहीं है वह तो जब चाहे तब जैसे कर्म का उदय आया वैसा कर लेता है। जो मन पर लगाम लगाने का आत्म पुरुषार्थ करता है वही संयमी हो पाता है और वही कर्म के उदय को, उसके आवेग को झेल पाता है। आप अपने जीवन को ऊपर उठाना चाहते हो तो संयम की छाँव में आओ। उसी की सेवा करो उसी को जीवन में आधार बनाओ बाकी कषाय को बाहर निकालने की कोशिश करो। धर्म का अंकुश कषाय पर रखा जा सकता है संयम के माध्यम से। ज्ञेय पर कंट्रोल की आवश्यकता नहीं है, पर ज्ञाता पर कंट्रोल की जरूरत है। ज्ञान पर कंट्रोल टेढ़ी खीर है। संयम का अर्थ है प्राण और इन्द्रियों को कंट्रोल में रखना। दया का मतलब प्राणी संयम और दमन का मतलब इन्द्रिय संयम है। बाहर की ओर जो शक्ति जा रही है, उसको रोकना संयम है। द्रव्येन्द्रिय पर तो अज्ञानी भी कंट्रोल कर लेता है, पर भावेन्द्रिय पर कंट्रोल करने वाला ज्ञानी ही होता है। द्रव्य संयम दूसरों पर कंट्रोल और भाव संयम स्वयं पर कंट्रोल है। द्रव्य संयम में मान रहता है, भाव संयम में मान नहीं रहता। द्रव्य संयम एक प्रकार से ऊपर का फोटो है और भाव संयम अन्दर का एक्सरा है। वह अन्दर की कमी बताता है। संयम लब्धि स्थान में मरण नहीं है संयमासंयम में भी मरण नहीं है संयम की यह विशेषता है। जिस समय मरण होता है उस समय संयम नहीं होता। भावों में संयम रखने से पाप को पुण्य रूप हम परिवर्तित कर सकते हैं। कर्म के उदय को भूलोगे तो असंयम में आ जाओगे। यदि किसी को बोध की बात आप करना चाहते हैं तो संयम के बिना यह संभव नहीं, अनुकंपा/वात्सल्य के बिना ये संभव नहीं, उसके पास जो व्यक्तित्व है उसको पहचाने बिना संभव नहीं। सम्यक दर्शन को सुचारु रखने संयम का आधार श्रेष्ठ है। अनंत सुख को प्राप्त करने संयम को हम जीवन बना सकते हैं। कर्म ही एक मात्र तंत्र हो ऐसा नहीं है भावों के माध्यम से संयम के साथ हम उसे परिवर्तित कर सकते हैं। संयम की ओर आकृष्ट होंगे तो श्रुतज्ञान अद्भुत-अद्भुत होगा। संयमी एक दूसरे के पूरक बनकर आगे बढ़ते जायेंगे तो किसी को कोई सुरक्षा की आवश्यकता नहीं पड़ेगी। असंयमी को भी संयम की ओर बढ़ने का उपदेश दिया जाता है किन्तु संयमी के साथ असंयमी भी साथ रहने लगे तो गड़बड़। संयम का अर्थ ही है आपकी परीक्षा। संयमासंयम आते ही यशस्कीर्ति प्रकृति का बंध शुरू हो जाता है यशकीर्ति तो हो पर यशस्कीर्ति में मन न हो तभी तुम्हारी परीक्षा है। वीतरागता क्या है यह तभी परीक्षा हो जायेगी। वीतरागता और समता में भी अंतर है तीनलोक की संपदा होने पर भी अपना पराया न मानकर वस्तु स्थिति मात्र है वही समता है वीतरागी। औदारिक शरीर के आधार से संयम पलता है यदि उसी को ही परिमाण नहीं देंगे तो संयम कैसे पलेगा? यह शरीर संयम का साधन है तो इस शरीर में काम के सर्प कीड़े आदि रहते हैं। यदि काम रूपी सर्प बलिष्ठ होता है तो वो निश्चित रूप से काटता है। शरीर का इतना ही साथ देना चाहिए जो हमारे अंदर बैठे काम रूपी सर्प आदि हमें काट नहीं सकें उनसे बचने के लिए हमें वैसा आहार करना चाहिए। गुरुओं से पूछे बिना जो अपने मन से काम करता है, असंयमियों से सलाह लेता है तो असंयम के भाव उत्पन्न होने लगते हैं। हमने संयम से वैराग्य चाहा भोग मिले, ये तो संयम की सजा हो गई। ऐसा नहीं समझना चाहिए किन्तु वहाँ पर भी चैत्य वंदना क्षेत्रों में तीर्थ वंदना नन्दीश्वर, पंचमेरु आदि की वंदना का सहज सुलभ योग बनता है उसमें झुकाव ज्यादा रहता है पूर्व संयमी का, भोगों की अपेक्षा। इन्द्रिय विषयों की उपेक्षा बिना उपेक्षा संयम नहीं आ सकता। पंचेन्द्रिय विषय विष हैं इसलिए संयम की ओर कदम जाना महत्वपूर्ण है। संयमी को असंयमी से कुछ चाह नहीं रखना चाहिए। असंयमी से चाह रखने पर संयम का महत्व कम होता है। संयम की विराधना न करते हुए चलते हैं वे अतिथि हैं। संयम में बंधे रहो यही कल्याण का रास्ता है। बाकी बंधन संसार के ही कारण हैं। शील संयम के साथ ज्ञान का कोई विरोध नहीं है बल्कि मैत्री है, क्योंकि शील के बिना पंचेन्द्रिय के विषय ज्ञान को नष्ट कर देंगे। ज्ञान की रक्षा ज्ञान के द्वारा नहीं होती बल्कि शील संयम के द्वारा होती है। जिनके पास शील है वह सुशील माना जाता है उसका ही मनुष्य जीवन सार्थक माना जाता है। हमें अपने संयम के द्वारा कर्मों की बाढ़ को संयमित करना है। ज्ञाता दृष्टा बनना ही सबसे बड़ा संयम है। संयम से साधना में सफलता मिलती है। जहाँ संयम नहीं वहाँ अशांति है। बगैर संयम का जीवन कागज के फूल की तरह जिसमें सुगंध नहीं होती। संयम मनुष्य जीवन को संतुलित बनाता है। जिसके द्वारा समाज का पतन हो रहा है, जिसके द्वारा शिक्षण का पतन हो रहा है, जिसके द्वारा भविष्य बिगड़ता जा रहा है, जिसके द्वारा साहित्य दीमक खाने लगा है जिन्हें पढ़ने वाला कोई नहीं ऐसा साहित्य सामने आ रहा है ऐसी चर्चा आती जा रही है कि इस स्थिति में हम संयम की बात नहीं करेंगे तो जीवन समाज का उत्थान कैसे होगा? दुनियादारी की बात सारे के सारे सुना रहे रेडियो, टी.वी., टेप रिकार्डर आ गये सब आया लेकिन सब कुछ असंयम के लिए संयम का कोई आविष्कार हो तो बता दीजिये। मुक्ति का पथ संयम की आराधना से पूर्णता को प्राप्त होता है। आत्मबोध के होने पर संयम बोझ नहीं हो सकता। जो संयम को बोझ मानते है उन्होंने आत्मा के वैभव को सही-सही नहीं समझा। संयमरूपी बन्धन कोई बन्धन नहीं होता वरन सांसारिक गति विधियों से मुक्त होने के लिए यह एक अनिवार्य साधन होता है। आपके विचारों की एवं आचरण की गाड़ी संयमरूपी पटरी पर ही चलना चाहिए। यदि गाड़ी नियम/संयम रूपी पटरी से नीचे उतर गई तो फिर आप चला नहीं सकेंगे। गृहस्थ को हमेशा ध्यान रखना चाहिए कि वह पटरी पर है या नहीं। अन्यथा बहुत सारे एक्सीडेंट होने की संभावनायें रहती हैं। अत: संयमरूपी पटरी पर सावधानी से चलें। पटरी से अर्थात् संयम एवं समय के बंधन से नीचे मत उतरिये। संयम ही मनुष्य जीवन की निकटवर्ती पर्याय है। जीवन का प्रारम्भ मनुष्य पर्याय में संयम अंगीकार करने पर ही होता है। संयम का पालन अहिंसा धर्म के लिए होता है। मनुष्य होकर संयम से डरना पागलपन है। सीता का नियम था कि मैं राम के अलावा किसी पर पुरुष से सम्बन्ध नहीं रखेंगी और रावण का नियम था कि स्त्री की इच्छा के बिना मैं उसे हाथ नहीं लगाऊँगा इस संयम के कारण दोनों बच गये। यथोचित संयम धारण करके ही जीवन का निर्वाह करना चाहिए, इस बात को ध्यान से सुनना, इसे रंग पंचमी के रंग के समान यूँ ही नहीं उड़ा देना। रावण ने असंयम को नहीं छोड़ा इसलिए परिवार को ही नहीं सभी के जीवन के लिए कंटकाकीर्ण बन गया। असंयम भाव कषाय के बिना नहीं हो सकता। संयम कदम के समान है। जैसे कदम के सहारे बिना, न चल सकते है, न बैठ सकते है और न खड़े हो सकते हैं, वैसे ही बिना संयम के जीवन चल नहीं सकता।
  19. स्वाध्याय विषय पर संत शिरोमणि आचार्य विद्यासागर जी के विचार. तत्व के बारे में जो सुना है गुरु के मुख से, उसको पुनः पुन: चिन्तन में लाना यह स्वाध्याय माना जाता है। स्वाध्याय सिर्फ पढ़ा-लिखा ही नहीं, जो पढ़ा लिखा नहीं है, वह भी स्वाध्याय कर सकता है। हमें अध्ययन के साथ-साथ चिन्तन करना चाहिए, लेकिन आज तो चिन्तन के लिए मौका ही नहीं है। संवर और निर्जरा का स्थान बढ़ायें तो स्वाध्याय सार्थक है। अन्यथा वह व्यर्थ है। आज स्वाध्याय तो बहुत करते हैं लेकिन संयम और विवेक शून्य है। मैं उसे स्वाध्याय नहीं मानता। संयोग-वियोग में जो समता परिणाम बनाये रखता है तथा अनुकूलता और प्रतिकूलता में हर्ष-विषाद नहीं करता ऐसा संयमी व्यक्ति ही सच्चा स्वाध्याय करने वाला है। जो चौबीसों घण्टे अपने आवश्यकों में मन को लगाये रखता है, उसका स्वाध्याय तो निरंतर चलता ही रहता है। वास्तविक स्वाध्याय तो अपनी प्रत्येक क्रिया के प्रति सजग रहने में है। ‘स्व” का निकट से अध्ययन करने में है। स्वाध्याय में किसी भी मत को लेकर के कभी आग्रह नहीं करना चाहिए। अपने मन के अनुकूल आ जाता है तो उसके लिए खुश हो जाना और अपने मन के अनुकूल नहीं आता है, तो खुश नहीं होना ये स्वाध्याय का कोई परिणाम नहीं माना जाता है। स्वाध्याय से कर्मों की निर्जरा तथा श्रमण संस्कृति की रक्षा हो सकती है। निर्जरा के लिए स्वाध्याय, उससे अधिक निर्जरा के लिए अध्यापन बताया। अनुप्रेक्षा और आम्रायरूप स्वाध्याय से चिंतन होना चाहिए अन्यथा विषय चला जायेगा। पशु चर लेते हैं फिर चर्वण करते उसमें वे रस का भी आनन्द लेते हैं। स्वाध्याय का तीसरा अंग अनुप्रेक्षा आज अकाल जैसा ग्रस्त है, उसकी और कोई देखता ही नहीं जो वैराग्य में बहुत कार्यकारी है।
  20. शिक्षा, परीक्षा विषय पर संत शिरोमणि आचार्य विद्यासागर जी के विचार आज शिक्षा का फल क्या होना चाहिए इस ओर दृष्टि ही नहीं बस ९० प्रतिशत की ओर दृष्टि है। यदि नागरिकता नहीं है तो शिक्षा का कोई महत्व नहीं। नगर की ओर न देखी नागरिकता की ओर देखो। आज मात्र पैसे की ओर दृष्टि है वस्तु की ओर नहीं ये दिवालियापन है। मात्र पैसा खाने की चीज नहीं है ऐसी शिक्षा घोलकर भी पी ली तो वह जीवन में काम आने वाली नहीं। आज यह स्थिति है कि कोई अपने देश में ज्ञान प्राप्त करे, तो ज्ञानी नहीं, कितु विदेश से ज्ञान प्राप्त करके आए तो कोई भी स्वीकार कर लेता है। आज साहित्य में पाप-पुण्य आत्म तत्व की कोई बात ही नहीं। आज सामाजिक व्यवस्था समाप्त आत्मा के ऊपर मूर्त जड़ मोह का साम्राज्य छा चुका है। इतिहास नहीं पढ़ने से आज सब कुछ टूट रहा है, बिखर रहा है समाज। पहले परीक्षा नहीं आलोड़न, मंथन, मनन होता था। शिक्षा परीक्षा के लिए आवश्यक है लेकिन शिक्षा का उद्देश्य परीक्षा नहीं होना चाहिए। आज शिक्षक, शिक्षिकाओं, अभिभावकों और बच्चों की सभी की दृष्टि मात्र परीक्षा की ओर है। परीक्षा और नतीजा शिक्षा का मूल्यांकन नहीं है, वह बहुत कुछ रखता है अंदर अपने, लेकिन परीक्षा की दहाड़ सुनते ही छलांग लेना समाप्त हो जाता है, ये शिक्षा नहीं। भारतीय संस्कृति के अनुसार आज तन्मय बच्चा नहीं हो पाता। पूर्व-पूर्व की विद्या आगे रहना अनिवार्य है। परीक्षा शिक्षा का अभिन्न अंग हो सकता है लेकिन मुख्य अंग नहीं। शिक्षा यदि संस्कारों के साथ है तो भीति/भय की संदेह की कोई बात नहीं। आज जो अंधकार जैसा छा रहा है वह सही शिक्षा का परिणाम नहीं। शिक्षा की संस्था में काम करने वालो सुनो ! यह ट्यूशन की पद्धति भारत से गायब हो जाये ऐसा कार्य करो, क्योंकि ट्यूशन के कारण स्मृति भंग हो रही है। आज भीतर की ओर जाने की कोई शिक्षा नहीं दी जा रही है जबकि ये सबसे महत्वपूर्ण शिक्षा है। आज शिक्षा के क्षेत्र में करोड़ों रुपये व्यय हो रहे हैं खरबों भी कह दो तो अतिशयोक्ति नहीं होगी। इतना व्यय होने के उपरांत भी भीतरी कोई संकेत उसे नहीं मिल रहा है। हम उसको सुशिक्षित कैसे कहें? सुशिक्षा कैसे कहें? धर्म के साथ शिक्षा दीजिये जिससे उनका कल्याण हो जाये। बच्चों को संयम का यह शिक्षण अवश्य देना, हाथी है तो अंकुश है, घोड़ा है तो उसके लिए लगाम है, ऊँट है तो नकील है, ओर गाड़ियाँ हैं तो ब्रेक है। मनुष्य भी एक ऐसा पॉवरफुल व्यक्ति है उसके लिए क्या है? ब्रेन को अपने-अपने अंडर में रखें। मन को अपने काबू में रखेगा तो स्वयं को भी सुरक्षित रख लेगा और दूसरों को भी सुरक्षित रखने में योगदान देगा। यदि चारित्र को उच्च नहीं बनाओगे, मन को संयमित नहीं बना पाओगे, तो यह एजुकेशन नहीं। पहले हेय-उपादेय का ज्ञान कराना शिक्षा का मूल उद्देश्य होता था और यह मूल उद्देश्य होना चाहिए। पहले सभी पुरुषार्थों का जीवन में कहाँ तक योगदान है, इसका समग्र अध्ययन कराया जाता था। आज ये नहीं होने के कारण ये सब व्यवस्थाएं छिन्न-भिन्न हो रही हैं। आज तो घर में कोई नहीं रहता, दिनभर घर में ताला लटका रहता है। डयूटी देने जाते हैं, डयूटी देकर आ जाते हैं और थोड़ा समय मिल जाये तो भोजन पानी हो गया, वह भी समय नहीं रहा तो थाली सजी–सजाई आर्डर पर आ जाती है कल्पवृक्ष कामधेनु की भाँति। बटन दबा दो.आ जाये। बच्चे भी स्कूल चले जाते हैं, न माँ का प्यार, ना पिता जी का प्यार, ना और कोई विशेष कोई भी व्यवस्था नहीं। लिखना और पढ़ना शिक्षा के क्षेत्र में गौण मानते हैं और सुनना सुनाना मुख्य मानते हैं। जो नियंत्रण में रहते हैं उन्हें परीक्षा वरदान सिद्ध होती है। विद्यालय में प्रवेश का अर्थ है कि परीक्षा प्रारंभ हो गई। पहले पढ़ने लिखने की बात न कह करके उसके गुणधर्म से परिचय कराया जाता था। बच्चे को घुट्टी में सब कुछ दिया जाता है वह पचा लेगा ये विधा प्राचीन काल में थी इसे मैं महत्वपूर्ण समझता हूँ। बोझ को देकर के बोध बुझ जाता है, बोझ है बस्ता उसे देखकर उसका दिमाग ही बुझ जाता है। शिक्षा हमेशा-हमेशा सुन करके भी गहराई तक पहुँचा सकते हैं। मुझे क्या चाहिए उसकी प्राप्ति कैसे होगी ये शिक्षा का सबसे अच्छा परिणाम है। विदेशी शिक्षा में आज आप स्वयं बिक रहे हो जबकि देशी शिक्षा से आप अपने आर्ट को तैयार करके स्वयं बेच सकते हो। विदेशी शिक्षा में मूल्यांकन जड़ का किया जाता है मूल्यांकन करने वाले का कोई मूल्यांकन नहीं होता। देशी शिक्षा में स्वयं का बिकना असंभव है। वह श्रम करता है। उनके अभिभावकों ने ऐसा मंत्र फूँका है, उन्हें सही दिशा दी है। आज मंत्र चले गये यंत्र आ गये, तंत्र समाप्त हो गए। मंत्र सिद्ध करता है तो हजारों किलो मीटर पर भी वह काम करता है। जहाँ शिक्षा व्यवस्था नहीं है उन्हें सिखाना ही वास्तव में शिक्षा है। वर्तमान में शिक्षा काल पहले फिर दीक्षा इसलिए ये स्थिति है जबकि पहले दीक्षा काल फिर शिक्षा काल यही करना। शिक्षा का सही अर्थ है। बच्चा चलना सीखता है तो लिखकर नहीं चलकर सीखता है। जो प्रयोग नहीं करता उसे आगे की शिक्षा दी नहीं जाती। अपने जीवन में बच्चे उदारता के साथ दूसरे के जीवन का भी संरक्षण कर सके, इस तरह की शिक्षा दो । उदारता के साथ जैसे जल सबको उपलब्ध हो वैसे ही शिक्षा भी जो भी अपढ़ हैं सभी को उपलब्ध हो। उसको ऐसे समझा दो कि वह हमेशा आपको याद रखे। बूंद एक होती है और दूसरी बूंद से मित्रता रखती है तो वह गतिशील हो जाती है। जड़ होकर भी फिर सागर तक पहुँच जाती है। शिक्षा सबके लिए उपयोगी हो जीवन को उन्नत बनाने के लिए। जो व्यक्ति भाषा को नहीं समझेगा तो संघर्ष तो होगा ही। जिस भाषा में शिक्षा दी जायेगी उसी साहित्य से वह परिचित होगा अपनी मातृभाषा से वंचित रह जायेगा इसलिए संक्रमण से बच नहीं पायेगा दूसरे साहित्य अपनाते चले जाते है और अपना भूल जाते हैं। क्रय-विक्रय शिक्षा के क्षेत्र में नहीं होना चाहिए। आज इसी कारण सारी जनता परेशान है। जिस देश में जो विज्ञान है उसे हम लेते जायें ये शिक्षा है लेकिन शिक्षा की बात जहाँ आती है वहाँ किसी विशेष देश की भाषा के माध्यम से ही हम सब जगह शिक्षा दें ये गलत है इससे विकास रुक रहा है हम उलझना नहीं चाहते हैं सुलझना चाहते हैं। आज जीव विज्ञान को भी पढ़ते हैं तो मात्र नौकरी का उद्देश्य है जीवकाण्ड का नहीं। उद्देश्य हमारा शिक्षा देना है तो मात्र अंग्रेजी भाषा में ही देंगे, ये क्यों? शिक्षा की व्यापकता को कभी नहीं भूलना। मूल को मजबूत बनाओ। शिक्षा अपने आप विकसित होगी मातृभाषा का यदि ध्यान रहे तो। विज्ञान या अंग्रेजी भाषा की शिक्षा का अंग नहीं मानेंगे। रागी व द्वेषी व्यक्ति कभी भी न सुख प्राप्त कर सकता है और न किसी को सुख दे सकता है। विज्ञान के विकास के लिए किसी भी देश ने अपनी मातृभाषा को शिक्षा के लिए नहीं छोड़ा सभी जगह अपनी-अपनी मातृभाषा में शिक्षा दी जाती है। विकसित देशों की ये स्थिति है तो विकासशील भारत को क्या करना? विकास की बात यदि करना है तो शिक्षा की बात करो। वृक्ष हमेशा ऊर्ध्वगामी होता है। आत्मा का स्वभाव ऊर्ध्वगामी है। इसी प्रकार शिक्षा का स्वरूप भी ऊर्ध्वगामी हो। साधन के बारे में हमारा आग्रह नहीं है कम्प्यूटर ने भी संस्कृत भाषा को सर्वश्रेष्ठ माना है। हमारी शिक्षा संस्थाएँ विश्वविद्यालय तक पहुँचती हैं लेकिन कॉलेज जो हैं वो विश्वविद्यालय तक नहीं पहुँचते। विश्व विद्यालय में हर तरह की शिक्षाएँ हैं, विज्ञान में ये नहीं है, बच्चों का अधूरापन रहता है। जब तक ग्रेजुएशन नहीं होता तब तक शिक्षा का विभाजन नहीं होना चाहिए। हर तरह की शिक्षा उन्हें मिलनी चाहिए। अधिकार प्राप्त हो फिर आप किसी भी तरफ चले जायें। लेकिन विज्ञान आ गया फिर वह किसी भी तरफ नहीं जा पाता। जो होशियार है उसको क्या होशियार करना जिसको कुछ नहीं आता उसको हमें तैयार करना चाहिए ये हमारा उद्देश्य है। जो हँस रहा है वह आपके ऊपर हँसेगा उसे हँसाने की जरूरत नहीं लेकिन जो रो रहा है उसे हँसाने की आवश्यकता है। नियमावली कट्टरता की प्रतीक नहीं यह कण्डीशन परिस्थिति के साथ बनाई जाती है। कण्डीशन यदि फैल हो गया तो क्या रहा? प्राणवायु का भी कण्डीशन मात्रा अनुपात रहता है, उससे बाहर होने पर खराब हो जाती है। विज्ञान की शिक्षा के लिए मेरा निषेध नहीं है लेकिन अच्छी तरह से सारी शिक्षाएँ देकर आगे बढ़ाइये। आगे जाकर वह फेल नहीं होगा। नीचे एक तना मजबूत बनाओ फिर शाखाओं की बात करो। बच्चों का तना मजबूत नहीं हो पाता है हम विभिन्न भाषाओं को रख देते हैं। शिक्षक के अन्दर विद्यार्थी की भूख जागृत करने की कला होनी चाहिए। वह आपसे भी आगे निकलेगा। आज शिक्षा के क्षेत्र में राजनीति का प्रवेश हुआ है इसलिए ये व्यवसायीकरण हो गया है। आज प्रजानीति का उपयोग नहीं होने से राजनीति शिक्षा में आ गई। अर्थ के लिए नहीं शिक्षा परमार्थ के लिए होनी चाहिए। विज्ञान शिक्षा नहीं विधा (प्रक्रिया) है। जिस भाषा में परलोक के बारे में कोई साधन सामग्री का विश्लेषण नहीं है उसकी बात यहाँ मत करो। आय का स्रोत मात्र यहीं नहीं परलोक में भी ये आय को संचय करके जायें अर्थात् भटके नहीं परलोक में भी अच्छे संस्कारों को लेकर जाये। व्यवसायीकरण के कारण अर्थनीति की ओर शिक्षा चली गई। शहरीकरण के कारण नियमावली टूट रही है। बच्चों से आप निराश हो जाओ तो अपने आप वह सीधा हो जायेगा लेकिन हम दया करके उसे वरदान नहीं अभिशाप सिद्ध हो रहे हैं। बाँध बाँधा जाता है तो जितना-जितना पानी का संग्रह ज्यादा होता है तो ऊपर हाइट बढ़ाना बंद कर देते हैं ताकि पानी का घनत्व पृथ्वी के ऊपर फैल जाता है। शिक्षा के क्षेत्र में भी वेट बढ़े नहीं क्षेत्र बढ़ता चला जाये ताकि अनुशासन के नियम ढीले न हो अर्थात् नियमावली से हटकर कोई काम नहीं हो चाहे वह किनारे पर भी हो लेकिन नियमित हो। आगे बढ़ने में भाषा ही काम में आती है। लिखने से नहीं बोलने से ही भाषा का प्रभाव पड़ता है। जेसे आप अन्न खाते है, पानी पीते है, वह प्राण का रूप धारण कर लेता है वैसे ही जो कुछ आचरण है वह भाषानुसार हो जाता है, वैसा ही उसका रहन-सहन, खान-पान, चाल-ढाल आदि-आदि हो जाती है। शिक्षा बाहर या भीतर की कोई भी हो जिससे हमारा जीवन उन्नत हो, दया-करुणा-प्रेम से जीवन को ओत-प्रोत कर दे वह शिक्षा सही है। आज तो हमें बच्चों को डॉक्टर इंजीनियर बनाना है इसकी होड़ है, नीति न्याय से कोई मतलब नहीं। भाषा के बिना विद्या नहीं आती है यह ठीक है लेकिन भाषा मात्र ही नहीं भाषा के साथ भाव रूप हाथ मिलेगा तब तालियाँ बजेंगी। भावों से सुख शांति की स्थापना कर सकते हैं। हमें अपने भीतर भावों को पैदा करना होगा दूसरी भाषा के माध्यम से हममें वह भाव नहीं आ पायेगा। शिक्षा के माध्यम से किसी एक निश्चित लक्ष्य तक विद्यार्थी को पहुँचाना ही शिक्षा का मूल उद्देश्य होना चाहिए। रत्नों का प्रभाव शरीर पर जिस प्रकार से पड़ता है उसी प्रकार रत्नों के प्रभाव की तरह जीवन में शिक्षा का भी प्रभाव पड़ता है। शिक्षा में वही सब कुछ दिया जाता है वही संस्कार दिया जाता है जो जीवन भर उसके काम आये। संस्कारित शिक्षा जो होती है वह हमेशा सामाजिक व दार्शनिक विचारों को सर मस्तिष्क तक ले जाने में सक्षम होती है। आज दार्शनिक व सामाजिक आधार ही नहीं रहा सब चौपट हो गये हैं। सुसंस्कारित शिक्षा का प्रचार-प्रसार करिये इसे अर्थमय न बनायें। जीवन बनाने के साथ-साथ जीवन सुरक्षित करेगी संस्कारित शिक्षा। ज्यादा न सुनकर प्रयोग चालू करो। आज शिक्षा व चिकित्सा इन दोनों क्षेत्रों में प्रयोग न होने से इन दोनों की रीढ़ ही टूट सी गई है। शिक्षा और चिकित्सा का जोड़ा है यह तभी सही हो जब शिक्षा में शिक्षा के साथ, अध्ययन के साथ प्रयोग को महत्व दिया जायेगा। शिक्षा व संस्कार का प्रयोग यदि करते हैं तो अगले जीवन में भी वह काम करेगा। जिस प्रकार कृषक विधिवत कार्य करता है तो फसल लहलहा उठती है। उसी प्रकार केवल बौद्धिक आयाम का नाम शिक्षा नहीं उसका विधिवत् प्रयोग भी होना आवश्यक है। आजकल की शिक्षा-गुंथा आटा बाहर रखा हुआ है जिस पर पपड़ी जम गई है उसके जैसी है। ऐसे आटे की लोई निकाल कर रोटी बनायेंगे तो अच्छे-अच्छे पाक शास्त्री भी फेल हो जायेंगे। मात्र रुचि के अनुरूप भी शिक्षा नहीं देना चाहिए। जैसे कोई मीठा-मीठा ही खाना चाहता है दूसरी वस्तु देने पर भूख नहीं है ऐसा कह देता है और मीठा दे दो तो खा लेता है। ऐसा करने से लीवर कमजोर हो जायेगा। शिक्षा आदि चरण में ही क्यों दी जाती है? क्योंकि बाद में मान्यता नहीं रहती, मनाना रहता है। मानता है बालक तभी तक शिक्षा है। तर्क के बाद मानने के लिए आधार चाहिए वह मानता तो है किन्तु देर से। जैसे ठोका-ठाकी किये बिना मृदंग, तबला आदि में स्वर नहीं फूटते रंग नहीं आता। इसमें शिल्पी के हाथ की करामात है तर्जनी, मध्यमा, हथेली का प्रयोग आवश्यक है उसी प्रकार शिक्षा के क्षेत्र में भी प्रयोग आवश्यक है। शिखर तक पहुँचना, ऊँचाइयों को छूना आदि-आदि सब प्रयोग से ही होता है। संगीत में सराबोर होना संस्कार व प्रयोग के माध्यम से होता है लेकिन आज का संगीत तो सराबोर तो नहीं बोर करता है। बेनटेक्स के गहने देखने में सोने स्वर्ण जैसे लगते हैं लेकिन उन आभरणों की कीमत एक हजार भी नहीं है। इसी प्रकार विदेशी शिक्षा आर्टिफिशिल गहनों जैसी है उसकी कीमत भी उतनी ही है। विदेश अर्थात् विशेष स्तर के देश में रहने वाले। विदेशी शिक्षा देखने में स्टेण्डर्ड जैसी लगती है लेकिन संस्कार विहीन होने से उसका कोई मूल्य नहीं है। विदेशी शिक्षा से अपने आपको और अपनी संतानों को भी दूर रखिये। विशेष रूप से परिश्रम करिये, प्रयोग करिये और सबको भी समझा दीजिये। अंग्रेजी भाषा से बालक खुश्क तो होगा लेकिन खुश नहीं होगा क्योंकि निगेटिव शब्द हैं। शिक्षा का यदि लक्ष्य निर्धारित नहीं है तो समझ लो भटक रहे हो। आज दर्शन नहीं है इसलिए निर्धारित शिक्षा है हम इसे शिक्षा रूप संज्ञा दे नहीं सकते आज दर्शन नहीं प्रदर्शन है। प्रदर्शन उथला होता है दर्शन गहराता है। बच्चों को बहुत पढ़ना होता है उससे स्मृति ठंडी हो जाती है। सुनने से स्मृति बढ़ती है, सुनने में एकाग्रता ज्यादा होती है किन्तु आज पढ़ने और पढ़ाने की मात्रा इतनी बढ़ गई है कि स्मृति की आवश्यकता नहीं है। आज की अंग्रेजी शिक्षा हमारे लिए अभिशाप बनती जा रही है। कुछ काल और व्यतीत होने पर पिता-माँ, भाई-बहिन कौन हैं यह भी बता नहीं सकेगा। आज अंग्रेजी भाषा की शिक्षा देकर आप अपनी संतान की अपने सामने-सामने ही बुद्धि भ्रष्ट कर देंगे। प्रयोगहीन, संस्कारहीन विदेशी शिक्षा से दूर रहना चाहिए। अंग्रेजी भाषा में न साहित्य है, न शब्द हैं, न ही आचरण है फिर आप लोग अपने बच्चों को क्या पढ़ाना चाह रहे हैं? विद्या का उद्देश्य अंग्रेजी भाषा में फलीभूत नहीं होगा। अंग्रेजी भाषा केवल नौकरी के लिए पढ़ा रहे हो तो इसका मतलब है शिक्षा के उद्देश्य का सही ज्ञान आपको नहीं हुआ। शिक्षा, विद्या अर्जन के बाद अभिमान, परिग्रह, कषाय आदि घटती जाती है, घटना चाहिए तभी सही शिक्षा है। शिक्षा के प्रयोग से कषाय घटेगी और उम्र बढ़ेगी। कषाय भिड़न्त जितनी होगी उतना ही उसने शिक्षा का महत्व नहीं समझा यह मानना होगा। रोये-धोये, भिड़े ऐसी शिक्षा क्या शिक्षा है? जिस समय जो योग्य था वह नहीं दिया तो काहे की शिक्षा? वह तो शब्द मात्र है। शिक्षा के क्षेत्र में लेखन ही महत्वपूर्ण नहीं है। अध्यापन व प्रयोग को ही महत्वपूर्ण मानता हूँ। प्रयोग चालू करें, शिक्षा को आप जीवित जाने। जो सोया है उसे जगा देती है यह शिक्षा है,ये पक्का है। पहले गुरुकुल होते थे और पेड़ के नीचे बैठकर अध्ययन-अध्यापन, प्रयोग हो जाता था।महाविद्यालय, विश्वविद्यालय आदि-आदि नहीं थे। आज बच्चों की पीठ में बस्ता लदे रहते हैं। बच्चे हों, विद्यार्थी हों, यात्री हों सभी पीठ पर लादे घूम रहे हैं। आपकी शिक्षा में बोझ है बच्चों की पीठ पर किन्तु बोध नहीं। पृष्ठों के माध्यम से, शब्दों की परिगणना के माध्यम से आपका अर्थ गौरव नहीं बनेगा। कम शब्दों में भी अर्थ गौरव ज्यादा हो सकता है। आज पढ़ना भी मात्र नौकरी के लिए कर रहे हैं। एक बार में अर्थ निकल गया तो संतुष्ट हो जाते हैं। जबकि बार-बार पढ़े तो और-और रहस्य मिलेगा। इंग्लिश का आइ बनाते हैं इसमें एक रेखा खींची और दोनों ओर से आड़ी रेखा खींचकर रेखा को सीमित कर दिया अर्थात् उसमें विकास नहीं, उन्नति रुक गई। यदि टी बना है तो उसमें रेखा खींचकर ऊपर से मात्र बंद किया मतलब उद्देश्य निश्चित है, विशालता है। आई में विशालता नहीं। शिक्षा का उद्देश्य विस्तृत/विकसित होना चाहिए वह आई में नहीं हुआ, टी में फैल गया दोनों तरपक्र । आज आप क्या पढ़ा रहे हैं? क्या दे रहे हैं? क्या खर्च कर रहे हैं ? कितना खर्च कर रहे हैं? इससे क्या मिलेगा? ये भी पता नहीं। आज पैरों का, हाथों का उपयोग नहीं हो रहा है। बैठे - बैठे मात्र पढ़ने से हेल्थ, वेल्थ ओर यहाँ तक की करेंट भी समाप्त। आप गाड़ी चलाते हैं, बुद्धि से चलाते हैं कि मात्र पैरों से। मात्र पैरों से चलाना आचरण नहीं किन्तु ऐसी विद्या जो आचरण/चारित्र की परिचायक है वही सही विद्या है। आज शिक्षा का स्तर इतना बढ़ गया है कि पढ़ा लिखा होकर भी असभ्य वातावरण में जी रहा है। आज युग बहुत तीव्रता से आगे बढ़ रहा है। अंग्रेजी की होड़ में प्रभु गायब, हर व्यक्ति का व्यक्तित्व समाप्ति की ओर है जिस लाइन, जिस पद्धति से चल रहा है उसे देखकर तो नहीं लगता कुछ बचेगा। बुद्धि के माध्यम से समझे और पैरों से आचरण की ओर जायें। पैरों से यदि आचरण की ओर कदम नहीं बढ़ेंगे तो मात्र बुद्धि से कुछ नहीं होने वाला, कुछ हाथ नहीं लगेगा ऐसी शिक्षा से। जैसे भूख से अधिक खाने पर अजीर्ण हो जाता है अर्थात् अन्न भी विष का रूप ले लेता है, जानलेवा हो जाता है उसी प्रकार आज की बुद्धि, आज की शिक्षा प्राण लेवा बन रही है। अब गाँधी जी आदि पुरुषों को मात्र १५ अगस्त तथा २६ जनवरी के दिन ही याद किया जाता है। इसी प्रकार हिन्दी को मात्र हिन्द दिवस के दिन याद करेंगे। पहले थोड़ा सा सिर पर हाथ फेरते ही दिमाग में बात आ जाती थी लेकिन अब तो ठोकने के बाद भी कुछ नहीं आता। पहले जो शिक्षा थी उसमें लिखना कम होता था प्रयोग ज्यादा था। दो बार याद करो अभ्यास करोगे तो पच जायेगा तथा अभ्यास नहीं करने पर बच जाता है। अनभ्यासे विषं विद्या, अजीर्णे भोजनं विषं ऐसा कहा है। बहुत ज्यादा पढ़ने की आवश्यकता नहीं, गिनने की आवश्यकता नहीं, गुनने की आवश्यकता है। बुद्धि का उपयोग कीजिये। आज ऐसे-ऐसे विद्यालय हैं जहाँ विद्या नहीं मिलती अलग से प्रशिक्षण, ट्यूशन -इन ट्यूशन चले हैं जैसे विद्यालयों में जो आगे दिया जाने वाला है वह पहले ही दे देते हैं। जैसे आहार में सौंफ, इलायची, लौंग आदि-आदि शुरू में दे दो ऐसा है क्या? नहीं रोटी-पानी, दाल आदि-आदि सब में से जिसे पूर्व में देना है, उसे पूर्व में तथा बाद में जो देने लायक है, वह बाद में देना नहीं तो हानिकारक हो जायेगा। ज्यादा पढ़-पढ़ करके बुद्धि का प्रयोग यंत्र बनाने में नहीं करना, पैरों का प्रयोग करिये। रोबोट यंत्र क्या है? जैसा कहो वैसा सब कुछ करता जाता है। यंत्र चलाने वाला ही विस्मृत हो जाये गलत बटन दब जाये तो बटन दबाने वाले को ही दोनों हाथों से दबोच ले ऐसा ही आज हो रहा है। वह यंत्र रोक करके कभी कृतज्ञता व्यक्त नहीं कर पायेगा, इससे उसे कुछ लेना-देना नहीं है। जैसे डॉक्टर रोग देखकर दवाई देता है, उसको उल्टी न हो जाये, दवाई गले उतर जाये ताकि ठीक हो जाये। उसी प्रकार ऐसी शिक्षा, ऐसा वक्तव्य दें कि उसके जीवनपर्यत काम आ सके। यह प्रयोगात्मक शिक्षा जल्दी से ग्राह्य होती है। आज टीचिंग के स्थान पर प्रयोग रख दिया यानि १० प्रतिशत ही प्रयोग किया जा रहा है जो कार्यकारी नहीं। प्रयोग में पूरे नंबर मिलते हैं। प्रयोग के लिए कोई समय सीमा निर्धारित नहीं है, अध्ययन का समय तो निर्धारित है। कोई भी विषय को पढ़ने में, पढ़कर समझने में घंटों लगते हैं और उसी को दृश्य या झाँकियों के माध्यम से साकार देखने से एक मिनट में ज्ञान प्राप्त कर लेता है। झाँकियाँ क्या हैं? विचारों की आकृति हैं। ऐसी प्रस्तुति हो कि सामने वाला देखकर ही बोध को प्राप्त हो जाये। क्योंकि सामने वाले दर्शक के पास पूरा इतिहास पढ़ने का तो टाइम तो है ही नहीं। जो आप बताना चाह रहे हैं वह उसके जीवन में उतर जाये उसके पल्ले पड़ जाये, गले उतर जाये वहीं सही शिक्षा है। अनपढ़ व्यक्ति प्रयोग कर करके बहुत कुछ सीख जाता है। और आज प्रयोग के अभाव में पिछड़ते जा रहे हैं। गम्य दुर्गम्य/अगम्य वस्तु तक हमारी दुबली-पतली बुद्धि भी जिससे पहुँचती है उसी का नाम तो शिक्षा है। दुबली-पतली भले हो लेकिन पकड़ती तो है कुछ न कुछ। काया छोटी है लेकिन बुद्धि छोटी नहीं, चोटी की है फिर भी चोटी नहीं होती। चोटी की बुद्धि है यानी वह बुद्धि छोटी नहीं है वो दुबली पतली नहीं है वो बहुत आगे की है। शिक्षा का आधार क्या है? सामाजिक और दर्शन। आज शिक्षा में सामाजिक ज्ञान समाप्त कर रहे हैं और दर्शन को तो बिल्कुल देखना ही नहीं चाहते। साइंस वाले दूरदर्शन से देख रहे हैं हम दर्शन के प्रेमी हैं और आप लोग दूरदर्शन के आदि हो गये हैं, दर्शन को तो दूर रख दिया है। दूरदर्शन देखते-देखते, सुनते-सुनते चश्मा लग जाता है, उतरता ही नहीं धागा बांधना पड़ता है और कहता है गाँधी छाप है। आज तो आपके बच्चे का जीवन प्रारम्भ ही दूरदर्शन से है। भैया दूरदृष्टि रखो। दूरदृष्टि रखने से अपने आपके भविष्य के बारे में और अतीत के बारे में ज्ञान प्रारम्भ होता है। जब हम आठवीं कक्षा में पढ़ते थे तब की बात है। एक छात्र का नाम व सरनेम था रामचन्द्र पांडुरंग कर मर कर। इसको अंग्रेजी में अनुवादित किया तो-राममून पांडु कलर डू। डू इस प्रकार इंग्लिश का नाम हो गया। इतना परिवर्तन विपरीत दिशा में हो गया यह गलत है। पथ में चलते-चलते थोड़ा साइड होकर पुन: रास्ते पर आना तो ठीक है लेकिन बिल्कुल विपरीत में चली गई है आज की शिक्षा पद्धति। फिर भी जागृत नहीं हो रहे हैं। सब शब्दों का अनुवाद, भावानुवाद हो सकता है लेकिन व्यक्ति या देश के नाम का कोई दूसरा भावानुवाद नहीं होता है। अध्यापन और प्रयोग के द्वारा निश्चित आदर्श तक पहुँचाना ही शिक्षा है। आजकल प्रयोग नहीं हो रहा है। पहले परीक्षा नहीं प्रयोग होते थे। आज तो पाठ्यक्रम ही गलत-गलत दिया जा रहा है। हुण्डावसर्पिणी काल में वृद्धि बुराइयों की तथा हास अच्छाईयों का होता जायेगा। न्याय का पक्ष वहीं लेता है जिसकी शिक्षा अच्छी होती है। कहीं न कहीं अटकाव होता है तो भटकाव हो जाता है। मर्यादा का भंग बड़ों से, गुरुओं से, शिक्षकों से गलती होती है तो नीति ही उनके कान पकड़ती है इसलिए शिक्षा ही सबसे बड़ी माँ है। मर्यादा का भंग नहीं होना चाहिए, कर्तव्य का पालन करते जायें। संकेत और शिक्षा के माध्यम से जो पूर्वजों ने दिया हे वह हमारी निधि है। उसे सुरक्षित रखिये। जिसमें आत्मा का अनुसंधान हो वही सही शिक्षा है। आत्मा की निधि का ज्ञान सही शिक्षा से होगा। अच्छे भावों के साथ, अच्छे क्षेत्र पर, अच्छे व्यक्तियों के बीच शिक्षा प्राप्त करने के लिए बच्चों को रखेंगे तो एक अच्छा नागरिक बनेगा वह बच्चा। पहले तो आत्मा के विकास के लिए परमार्थ के विकास के लिए शिक्षा होती थी। आजकल अर्थ का बोल बोला है। स्वर्गों में आज तक विश्वविद्यालय नहीं खुले। क्यों? केवली वहाँ जाते नहीं। वे स्वर्गवासी भोगविलासी हैं। भोगभूमि भी नहीं जाते हैं केवली भगवान। यहाँ की भूमि में ही केवली भगवान् विचरण करते हैं इसलिए कर्मभूमि की धरती ही शिक्षा का केन्द्र है। यहाँ कर्मभूमि की शिक्षा की स्वर्गों में भी आरती उतारी जाता है आठ वर्ष अंतर्मुहूर्त के बाद शिक्षा प्रारम्भ हो जाती हैं। एकमात्र संकेत और शिक्षा ही हमें जागृत करने के साधन हैं इनके द्वारा संकेतों की गहराई तक पहुँचते हैं। अहिंसा करुणा वात्सल्य की शिक्षा को जान सकते हैं। अन्य कोई शिक्षा का मूल्य नहीं। जो हमें मिला है उसे सब तक पहुँचाने, बाँटने का आधार है तो वह है शिक्षा। शिक्षा आधार स्तंभ भी है। शिक्षण का कार्य दूसरों के लिए कर रहे हैं ऐसा नहीं, स्वयं के लिए आनंददायी और गहराई में पहुँचने का, डुबकी लगाने का उपक्रम है। तैराक की तरह वह स्वयं अनुभव कर सकता है। विद्यालयों में ही शिक्षण हो ऐसा नहीं किन्तु यह शिक्षक का कर्तव्य है कि उसको किस ढंग से कब, कहाँ, कैसे प्रदर्शित करना है इसकी कला होना चाहिए। वक्तव्य का अर्थ कुछ भी कहें ऐसा नहीं किन्तु कहने योग्य को कहना वक्तव्य है। शिक्षा से बढ़कर के कोई भी वस्तु नहीं है। चाहे देवगति हो, तिर्यचगति हो, मनुष्य गति हो सबमें प्रशिक्षण चलता है। नारकीय प्रशिक्षित रहते हैं वो वेदना प्रशिक्षित कर देती हैं कि ऐसा किया इसलिए ऐसा हुआ है। रावण को पहले समझ में नहीं आई थी लेकिन नरकों में अवधिज्ञान, प्रत्यक्षज्ञान होने से सब बात समझ में आ गई। सारे विषय अपने आप अलग हो जाते है जब सम्यग्ज्ञान होता है। आज की पीढ़ी को विषयों से विरक्ति हो, विषयों से दूर हो इस प्रकार का शिक्षण देना चाहिए। ये मुख्य है हाँ फिर तो आगे उन्नति की ओर वह बढ़ता जायेगा। मन को आप काबू में रखो, आपको शिक्षा बहुत कीमती होगी यदि मन को आधीन कर लिया तो। ध्यान रखो सबसे ज्यादा कमजोर और अनिष्टकारी कार्य हो सकता है तो वो मन के माध्यम से यही शिक्षा सभी ग्रन्थों में दी है। पुरुष के लिए नारी विषय है, नारी के लिए पुरुष विषय है इसलिए दोनों एक-दूसरे से बचें क्योंकि दोनों के योग से कषाय होगी तथा दोनों के नहीं मिलने से हित होगा यह शिक्षा दी है ग्रन्थों में। यदि स्त्री-पुरुष का मिलना है तो दो मिल गये, विवाह/पाणिग्रहण हो गया और गृहस्थाश्रम स्वीकार कर लें फिर और किसी से नहीं मिलना यह वर्ण व्यवस्था बताई हैं। ये सब क्या है? शिक्षा है। भूख लगे तो दे दो नहीं तो बिल्कुल नहीं देना। पहले शिक्षा आर्यिका-आर्यिकाओं को तथा बालिकाओं को देती थी तथा श्रमण-श्रमण को तथा बालकों देते थे। देओ और अपना-अपना निर्वाह करो और जब समवसरण लगे तो सब मिल जाओ। आज अव्यवस्थाएँ हो रही हैं जिससे कई समस्याएँ सामने आ रही हैं। आज यह विदेशी शिक्षा प्रणाली के कारण कन्या व छात्रशाला एक हो गई है। पहले छात्र-छात्राओं के अलग-अलग विद्यालय होते थे, दक्षिण में भी यहीं व्यवस्था थी। सबसे ज्यादा अमेरिका में सामाजिक अव्यवस्थाएँ फैल रही हैं उनका कारण इस प्रकार की शिक्षा प्रणाली ही है। पहले ब्रह्मचर्याश्रम में गुरुकुल में सब शिक्षा दी जाती थी फिर अध्ययन पूर्ण कर घर आते थे। अब किसी एक को चुनना, कौन चुने? माता-पिता निर्णय करते थे, स्वयंवर प्रथा थी क्षत्रियों में। आज तो माता-पिता रोते हैं रोते क्यों हैं? माता-पिता ने स्वयं शिक्षा नहीं दी बच्चों को,इसी का यह परिणाम है। विदेशी शिक्षा का यह परिणाम है। ध्यान रखो। द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव की सीमा का उल्लंघन करने वाला हमेशा-हमेशा ताड़ित होगा। जिस समय जो कहा है, मर्यादा-सीमा में करो। भूख लगे तभी खाओ सुबह नाश्ता में गरिष्ठ दे दिया तो भोजन क्या करेगा? आप दूसरों को शिक्षा देने की बात करते हो, पहले स्वयं शिक्षित हो जाओ। हमारी क्या-क्या कमजोरियाँ हैं क्या-क्या नहीं यह देखें सोचें। इसमें औपचारिकता नहीं करना मुझे औपचारिकता अच्छी नहीं लगती है। पहले जमाने में छात्र-छात्राओं के विद्यालय अलग-अलग होते थे तथा अलग-अलग बैठते थे। यदि मिले हुए स्कूल होते थे तो भी अलग-अलग बैठते थे। लेकिन आज तो एक छात्र फिर छात्रा फिर छात्र ऐसे बैठते हैं ये कौन सा सुधार आया है शिक्षा के माध्यम से? ये शिक्षा पद्धति कहाँ तक बिगाड़ेगी पता नहीं। गणित आदि के सूत्र जो हैं उसे विद्या कहा है और हित-अहित की बातें जो समझाई जाती हैं उसे शिक्षा कहा है। पहले नीति वाक्य हितोपदेश के रूप में, शिक्षा के क्षेत्र में दी जाती थी। हितोपदेश का अर्थ क्या? दूसरे का हित करने वाली शिक्षा जिस उपदेश में हो वह हितोपदेश है। अहित किससे होता है? हिंसा, झूठ, चोरी से ज्यादा परिग्रह लादने से होता है। प्राय: करके शिक्षा में हित की ही बातें कही जाती हैं। भाषा वही महत्वपूर्ण मानी जाती है जिस भाषा में विशेष रूप से साहित्य का सृजन हो, अतुल विज्ञान, शिक्षा-पद्धति समृद्ध हो, देश की उन्नति, मानव समाज के विषय में विशेष आदर्श प्रस्तुत किये हों वह भाषा अपने आप ही समृद्ध, महत्वपूर्ण मानी जाती है। मनुष्यों के लिए विद्यालय खोलते हैं लेकिन पशुओं के लिए विद्यालय नहीं खोलते पशु से मनुष्य शिक्षा ले लेते हैं। पक्षियों के पास एक साल का इकट्ठा माल रहता है क्या? नहीं, फिर उसे पशु क्यों कहते हैं? यह दो पैर का कौन सा पशु है मानव के रूप में? वे पशु तो रात में खाते भी नहीं है, जब तक सूर्य नारायण उदित नहीं होता तब तक वे खाते भी नहीं और बोलते भी नहीं हैं सभ्य पशु हैं वे आज तो मनुष्य दिन में नहीं रात में खाते हैं। आज तो मनुष्यों की यह नई पीढ़ी कहती है कि सामाजिक बन्धन को तोड़ो किन्तु यह बंधन नहीं व्यवस्था है। जैसे गैया गाय को खूंटी से बाँध देते हैं ताकि इधर-उधर कहीं चली न जाये, भटक न जाये और वह भी इस बंधन को स्वीकार करती है। बिना आवाज किये ही सार में आकर खड़ी हो जायेगी। समय ही आवाज है ये शिक्षा उन्हें कहाँ से मिली? यह बड़ा विचित्र सा लगता है। अमेरिका में हिन्दी भाषा के शिक्षण के लिए ४०० करोड़ की व्यवस्था की है। यहाँ न रोड़ न करोड़ की आवश्यकता है कन्या स्वयं सरस्वती होती है और जहाँ सरस्वती है वहाँ लक्ष्मी अपने आप आ जाती है। दक्षिण में कभी भी लक्ष्मी पूजन नहीं होती है लेकिन बसंत पंचमी के दिन स्लेट बती लेकर सरस्वती का चित्र बनाकर लाई फूला चढ़ाते थे। भव-भावांतर तक अर्थात् जब तक मुक्ति नहीं मिलेगी तब तक यह संस्कार काम करेंगे। आज निर्देशन ओर गाईडेन्स की पद्धति आ जाने से शिक्षा पद्धति में भी गड़बड़ी आ गई है। सेल्फ स्टडी भी कब? जब पूर्ण अध्ययन हो जाये तब वह तभी शोध कर पायेगा। होमवर्क तो कर सकता है। प्राचीन काल में गुरुकुलों में एक ही गुरुजी होते थे एक कक्षा के सभी विषय वे ही पढ़ाते थे। सभी विषयों को पढ़ाने में दक्ष होते थे वह, आजकल तो ट्यूशन से पढ़-पढ़कर आते हैं और पास हो जाते हैं। आज शिक्षण प्रणाली जो होना चाहिए वह नहीं है। शिक्षा देने वाले में सहनशीलता होना चाहिए, मात्सर्य-ईर्ष्याभाव नहीं होना चाहिए किन्तु एक-दूसरे के पूरक होना चाहिए। कुछ देश ऐसे हैं जहाँ प्रात: सम्बन्ध होते हैं शाम को छूट जाते हैं, शाम को होते हैं सुबह छूट जाते हैं इनमें कोई घनिष्ठता/मैत्री आदि नहीं रहती इसके बारे में भी अध्ययन कर लेना चाहिए। इसके बारे में भी शिक्षा दी जाती है ली जाती है। इधर-उधर की बातें शिक्षा में नहीं की जाती हैं। आज की शिक्षा में ये कोई बिंदु नहीं। शिक्षा क्या है? यह पुस्तक मेरे पास आई थी उसमें देखा तो कोई महत्वपूर्ण बिन्दु नहीं थे। महत्वपूर्ण बिन्दु हैं-संस्कृति और सिद्धान्त। संस्कार का कार्य प्रारम्भ दशा में बीज रूप होता है फिर फूलता-फलता बढ़ता है, सबको छाया देता है। ऐसे ही संस्कार के बीज शिक्षा के साथ फेंकते जाओ वह सहस्त्रगुणा फलित होता है। आज अंग्रेजी में शिक्षा होने से घरों में बच्चे अंग्रेजी में बोलते हैं, हिन्दी भाषा का बोल चाल बंद होता जा रहा है ऐसे में आगे की पीढ़ी तो संस्कृति व भाषा ही भूल जायेगी। वस्तु तत्व के पास जाने के लिए हमारे पास भाषा के अलावा कोई साधन नहीं। पुराने दस्तावेज जो हैं वह उन्हीं के हस्ताक्षर रूप में रखो। हस्ताक्षर सुरक्षित नहीं रहेंगे तो संस्कृति सुरक्षित नहीं रहेगी। हिन्दी में ही हस्ताक्षर होना चाहिए। भूत-व्यन्तर भी उसी भाषा में बात करते हैं जिस भाषा से पूर्व में करते थे। जितना आप अन्य भाषा का विस्तार करेंगे मूल हिन्दी भाषा समाप्त हो जायेगा। जैसे दूध में जितना पानी मिलाओगे उतना दूध का वास्तविक रूप दूर हो रहा है ऐसा समझ लो। निश्चित दिशा, सही दिशा में कार्य करेंगे तभी उन्नति हो सकती है। नहीं तो नहीं। भारतीय इतिहास पढ़कर वस्तु स्थिति समझिए तथा विदेशी संस्कृति का समर्थ न करिए। आज शिक्षा के लिए विदेश भेज रहे हैं, पैसा खर्च कर रहे हैं ओर वह बेटा विदेश में ही नागरिकता धारण कर लेता है तथा माता-पिता से भी कहता है-आप भी यहीं पर आ जाओ ये क्या है?
  21. सव्वंगं पेच्छंतो, इत्थीण तासु मुयादि दुब्भावं | तो बम्हचेरभावं, सुक्करि खलु दुद्धरं धरदि || जो पुण्यात्मा स्त्रियों के सुन्दर अंगों को देखकर भी उनमें रागरूप बुरे परिणाम करना छोड़ देता है वही दुर्द्धर ब्रह्मचर्य को धारण करता है। मनोज और मनोरमा अर्थात् ‘कामदेव' और उसकी संगी-साथी ‘रति' दोनों घूमने जा रहे थे। कामदेव अपना प्रभुत्व दिखाने के लिए रति से कहता है कि मेरा कितना प्रभाव है कि तीन-लोक को मैंने अपने वश में करके रखा है और रति भी उसकी हाँ में हाँ मिलाती जा रही थी कि अचानक सामने बैठे दिगम्बर- मुनि पर दृष्टि पड़ते ही रति ने कामदेव से पूछ लिया-हे नाथ! यह यहाँ कौन बैठा है ? कामदेव की उस ओर दृष्टि पड़ते ही रति ने कामदेव से पूछ लिया- हे नाथ ! यह यहाँ कौन बैठा है? कामदेव की उस ओर दृष्टि पड़ते ही वह निष्प्रभ हो गया। रति चकित होकर पूछने लगी कि नाथ! क्या बात हो गई? आप अभी तक सतेज थे, अब आपका सारा तेज कहाँ चला गया? मन्दी क्यों आ गयी? तब कामदेव उदास भाव से बोला कि क्या बताऊँ? हमने बहुत प्रयास किया, सभी प्रकार की नीति अपनायी लेकिन यही एक पुरुष ऐसा देखा जिस पर मेरा वश नहीं चला। पता नहीं इसका मन कैसा है? इसका प्रभुत्व कैसा है? इसमें ऐसा क्या प्रभाव है कि यह मेरे प्रभाव में नहीं आया? आखिर यह कौन सी शक्ति है जो काम वासना को भी अपने वश में कर लेती है। बड़े-बड़े पहलवान कहलाने वाले भी जिस काम वासना के आगे घुटने टेक देते हैं, वही काम इस व्यक्ति की शक्ति के सामने घुटने टेक रहा है। अन्तक: क्रन्दको नृणां, जन्मज्वरसखा सदा। त्वामन्तकान्तकं प्राप्य,व्यावृत्तः कामकारतः॥८॥ अरनाथ भगवान् की स्तुति करते हुए समन्तभद्र आचार्य कहते हैं कि हे भगवन्! पुनर्जन्म और ज्वर आदि व्याधियों का साथी और हमेशा मनुष्यों को रुलाने वाला मृत्यु का देवता यम भी मृत्यु का नाश करने वाले आपको पाकर अपनी प्रवृत्ति ही भूल गया अर्थात् आपके ऊपर यम का कोई प्रभाव नहीं पड़ रहा है। आपकी इस वीतराग शक्ति के सामने आकर सभी नतमस्तक हो जाते हैं और अन्त में रति के साथ कामदेव भी उन वीतरागी के चरणों में नतमस्तक हो गया। ठीक भी है। चित्रं किमत्र यदि ते त्रिदशाङ्ग – नाभिर्नीतं मनागपि मनो न विकार –मार्गम् । कल्पान्त -काल - मरुता चलिताचलेन, किं मन्दराद्रि-शिखरं चलितं कदाचित्॥१५॥ आचार्य मानतुंग महाराज ने भक्तामर स्तोत्र में भी वृषभनाथ भगवान् की स्तुति करते हुए इस श्लोक में इस भीतरी आत्म-शक्ति का प्रभाव बताया है। वे कहते हैं कि हे भगवन्! जैसे प्रलय काल के पवन से सामान्य पर्वत भले ही हिल जाये लेकिन सुमेरु पर्वत जो पर्वतों का राजा है, शैलेश है, उसका शिखर कभी चलायमान नहीं हो सकता। अनन्तकाल व्यतीत हो गया लेकिन सुमेरु पर्वत को हिलाया नहीं जा सका। उसी प्रकार तीन-लोक की सुन्दर से सुन्दर अप्सराएँ भी क्यों न आ जायें, आपके मन को विचलित नहीं कर सकती हैं। राजभवन में सिंहासन पर बैठे राजा वृषभदेव के सामने जब इन्द्र ने नीलाञ्जना को नृत्य के लिए बुलाया था तब वे भले ही उससे प्रभावित होकर नृत्य देखते रहे हों, लेकिन वे ही अप्सराएँ पुन: यदि अब भगवान् वृषभनाथ के सामने आकर नृत्य के द्वारा उन्हें प्रभावित या विचलित करना चाहें, तो असंभव है। अब तो उनका मन सुमेरु की तरह अडिग हो गया है। वे ब्रह्मचर्य में लीन हो गये हैं। इस ब्रह्मचर्य की शक्ति के सामने कामदेव भी नतमस्तक हो जाता है। अपनी आत्मा पर विजय पाने वालों की गौरव-गाथा जितनी गायी जाये, उतनी ही कम है। वे महान् आत्माएँ अपनी आत्मशक्ति का प्रदर्शन नहीं करतीं, वे तो अपनी शक्ति के माध्यम से अपने आत्मा का दर्शन करती है। एक पंक्ति अंग्रेजी में हमने पढ़ी थी कि 'You Can live as you like-अर्थात् आप जैसा रहना चाहें रह सकते हैं। रागद्वेष और विषय-भोगमय जीवन बनाकर रहना चाहें तो रह सकते हैं और रागद्वेष तथा विषय-भोग से मुक्त जीवन जीना चाहें तो भी जी सकते हैं। हमारे चौबीस तीर्थकरों में पाँच तीर्थकर ऐसे भी हुए हैं जिन्होंने गृहस्थी तक नहीं बसायी। वे कुमार अवस्था में ही दीक्षित होकर तपस्या में लीन हो गये। वासुपूज्य भगवान्, मल्लिनाथ भगवान्, नेमिनाथ भगवान्, पाश्र्वनाथ भगवान् और महावीर भगवान्, ये पाँचों इसी कारण ' बालयति' कहे जाते हैं। इनके आदशों पर हम चलना चाहें तो चल सकते हैं। संसार में संसारी प्राणी जिन विषय भोगों में फैंसकर पीड़ित हैं, दुखित हैं और चिन्तित भी हैं, उसी संसार में इन पाँच-बालयतियों ने विषय भोगों की ओर देखा तक नहीं और अपने आत्मकल्याण के लिए निकल गये। यही तो आत्मा की शक्ति है। जो इस शक्ति को जागृत करके इसका सदुपयोग कर लेता है, वह संसार से पार हो जाता है। सब संसारी प्राणियों का इतिहास पापमय रहा है। आहार, भय, मैथुन और परिग्रह रूप चार संज्ञायें (इच्छाएं) प्रत्येक संसारी प्राणी में विद्यमान हैं। सोलहवें स्वर्ग से ऊपर के देवों में जो अप्रवीचार कहा है, उसका अर्थ यह नहीं है कि वे काम वासना से रहित हो गये हैं। चारों संज्ञायें उनके भी हैं। विषय भोगों का त्याग करने वाले वीतरागी के लिए जो सुख मिलता है, उसका अनन्तवाँ भाग अप्रवीचारी होने के बाद भी उन देवों को नहीं मिलता। जब कभी गुरुओं के उपदेश से, जिनवाणी के श्रवण करने से, संसारी प्राणी यह भाव जागृत कर ले कि आत्मा का स्वभाव तो विषयातीत है, इन्द्रियातीत है तथा अपने में रमण करना है तो फिर उसके मोक्षमार्ग में आगे बढ़ने का मार्ग प्रशस्त होने में देर नहीं लगती। आज का यह अन्तिम ब्रह्मचर्य धर्म तब उसके जीवन में आने लगेगा। कभी विचार करें तो मालूम पड़ेगा कि जीवन में निरन्तर कितने उत्थान-पतन होते रहते हैं। शरीरकृत, क्षेत्र और कालकृत, तो फिर भी कम हैं किन्तु भावकृत परिवर्तन तो प्रतिक्षण होते ही रहते हैं और यह संसारी आत्मा निरन्तर उसी में रचती-पचती रहती है। हमने सुना था कि छत्तीसगढ़ के कुछ आदिवासी क्षेत्रों में लोगों को अभी भी चावल (भात) अत्यन्त प्रिय है। वह चावल भी ऐसा नहीं जैसा आप लोग खाते हैं। उनका चावल तो ऐसा है कि सुबह पकने रख देते हैं एक मटकी में पानी डालकर और फिर जब भूख लगती है या प्यास लग आती है तो उसमें से चावल का पानी (क्या बोलते हैं आप माँड), हाँ, वही निकालकर पी लेते हैं और एक दो लोटा पानी और उसी में डालकर पकने देते हैं। यही स्थिति संसारी प्राणी की है। प्रति समय मानों एक लोटा पानी वही सड़ा-गला पी लेता है और पुन: उसमें दो एक लोटा पानी और डाल देता है। जैसे पकते-पकते वह चावल का पानी पौष्टिक और मादक हो जाता है, ऐसे ही संसारी प्राणी का मोह और पुष्ट होता जाता है तथा अधिक मोहित करने वाला हो जाता है। यह निरन्तरता अरहट (रहट) या घटीयन्त्र के समान बनी रहती है। एक मटकी खाली नहीं हो पाती और दूसरी भरने लगती है। क्रम नहीं टूटता। श्रृंखला बनी रहती है। बन्धुओ! इस संसार की नि:सारता के बारे में और अपने वास्तविक स्वभाव के बारे में आपको विचार अवश्य करना चाहिए। दस दिन से धर्म का विश्लेषण चल रहा है। धर्म के विभिन्न नाम रखकर आचार्यों ने हमारे स्वभाव से हमारा परिचय कराने का प्रयास किया है। पहले दिन हमने 'धम्मो वत्थु सहावी' की बात कही थी। उसी की प्राप्ति के लिए यह सब प्रयास है। दस दिन तक आपने मनोयोग से सुना है। कल हो सकता है, आपके जाने का समय आ जाये। आप चले जायेंगे लेकिन जहाँ-कहीं भी जायें, इस बात को अवश्य स्मरण करते रहिये कि यह आना-जाना कब तक लगा रहेगा? वस्तु का स्वभाव परिणमनशील अवश्य है, पर संसार में आना-जाना और भटकना स्वभाव नहीं है। एक उदाहरण याद आ गया। 'कबीरदास' अपने पुत्र 'कमाल' के साथ चले जा रहे थे। कबीरदास अध्यात्म के भी रसिक थे। सन्त माने जाते थे। चलते-चलते अपने बेटे से उन्होंने कहा कि बेटे! संसार की दशा तुमसे क्या कहें, उधर देखो जैसे चलती चक्की में दो पाटों के बीच में धान्य पिस रहे हैं, कोई भी धान्य साबुत नहीं बच पा रहा है, ऐसी ही दशा संसारी प्राणी की भी है। संसार में कुछ भी सार नहीं है। कहते हैं कि बेटा सुनकर मुस्करा दिया और बोला-पिताजी! यह तो है ही, लेकिन इस चलती चक्की में भी कुछ धान्य ऐसे हैं जो दो पाटों के बीच में पिसने से बच जाते हैं। जरा ध्यान से सुनना, धान्य की बात है और ध्यान की भी बात है। (हँसी) जो धान्य चक्की में दो पाटों के बीच में जाने से पहले ध्यान रखता है कि अपने को कहाँ जाना है? अगर पिसने से बचना है तो एक ही उपाय है कि कील के सहारे टिक जाएं। तब फिर चक्की सुबह से शाम तक भी क्यों न चलती रहे, वे धान्य कील के सहारे सुरक्षित रहे आते हैं। 'धम्मं सरण पव्वज्जामि' संसार में धर्म की शरण ऐसी ही है, जिसके सहारे संसार में सुरक्षित रहा जा सकता है। धर्म रूपी कील की शरण में संसारी प्राणी रूपी धान्य आ जावे तो वह कभी संसार में पिस नहीं सकता। कबीरदास सुनकर गद्गद् हो गये कि सचमुच कमाल ने कमाल की बात कही है। (हँसी) बन्धुओ! संसार से डरने की आवश्यकता नहीं है और कर्मों के उदय से भी डरने की आवश्यकता नहीं है। तत्वार्थसूत्र अध्याय 7, सूत्र १२ में -जगत्कायस्वभावो या संवेग-वैराग्यार्थम्। जगत् के स्वभाव को जानना ‘संवेग' का कारण है और शरीर के स्वभाव को पहचानना 'वैराग्य' में कारण है। जो निरन्तर संवेग और वैराग्य में तत्पर रहने वाली आत्माएँ हैं, उनको कर्मों के उदय से डरने की आवश्यकता नहीं है। संसार का गर्त कितना भी गहरा क्यों न हो, संवेगवान और वैराग्यवान जीव कभी उसमें गिर नहीं सकता। यह बिल्कुल लिखकर रखिये कि जब कभी भी संसार से मुक्ति मिलेगी तो उसी संवेग और वैराग्य से ही मिलेगी। मैं आज यही कहना चाह रहा हूँ कि पाँचों इन्द्रियों के विषयों से विरक्त होने का नाम ही ‘ब्रह्मचर्य धर्म' है। व्यवहार रूप से तो यह है कि स्त्री-पुरुष परस्पर राग-जन्य प्रणय संबंधों से विरक्त रहें, परन्तु वास्तव में तो ‘पर" पदार्थ-मात्र के प्रति विरक्ति का भाव आना चाहिए। पदार्थ के साथ, सम्बन्ध अर्थात् पर के साथ सम्बन्ध होना ही ‘संसार' है। जो अभी 'पर' में संतुष्ट है, इसका अर्थ है कि वह अपने आप में सन्तुष्ट नहीं है। वह अपने आत्म-स्वभाव में निष्ठ नहीं होना चाहता। तभी तो, पर-पदार्थ की ओर आकृष्ट है। ज्ञानी तो वह है जो अपने आप में है, स्वस्थ है। अपनी आत्मा में ही लीन है। उसे स्वर्ग के सुखों की चाह नहीं है और न ही संसार की किसी भी वस्तु के प्रति लगाव है। वह तो ब्रह्म में अर्थात् आत्मा में ही सन्तुष्ट है। युक्त्यनुशासन में आचार्य समन्तभद्रस्वामी ने एक कारिका लिखी है, वह मुझे अच्छी लगती है हे वीर भगवन्! आपका मत-दया, दम, त्याग और समाधि की निष्ठा को लिए हुए है। नयों और प्रमाण के द्वारा सम्यक्र तत्व को बिल्कुल स्पष्ट करने वाला है और दूसरे सभी प्रवादों से अबाधा है यानि बाधा रहित है, इसलिए अद्वितीय है। ‘दया' अर्थात् प्राणिमात्र के प्रति करुणा का भाव, अपने दस-प्राणों की रक्षा करना भी अपने ऊपर दया है। प्राणों की रक्षा तो महाव्रतों को धारण करने से ही होगी। इन्द्रिय-संयम का पालन करने से होगी। 'दम' का अर्थ है, इन्द्रियों को अपने वश में करना। इच्छाओं का शमन करना। जिसकी दया में निष्ठा होगी, वही दम को प्राप्त कर सकेगा। इन्द्रियों के ऊपर विजय प्राप्त किये बिना दया सफलीभूत नहीं होती। त्याग क्या चीज है? तो कहते हैं कि विषय-कषायों को छोड़ने का नाम 'त्याग' है। त्याग के उपरान्त ही समाधि की प्राप्ति होती है। 'समाधि ' तो उस दशा का नाम है जब हम आधि, व्याधि और उपाधि से मुक्त होते हैं। मानसिक पीड़ा या वेदना का नाम 'आधि' है और शरीरकृत वेदना को ‘व्याधि' कहा गया है। ‘उपाधि' एक प्रकार का बौद्धिक आयाम है, जिसमें स्वयं को लोगों के बीच बड़ा बताने का भाव होता है। मेरा नाम हो इस बात की चिन्ता ही ‘उपाधि' है। 'समाधि ' इन तीनों से रहित अवस्था का नाम है। समाधि का अर्थ ही यह है कि सभी प्रकार से समत्व को प्राप्त होना। एक लौकिक शब्द आता है समधी, इससे आप सभी परिचित हैं। (हँसी) पर इसके अर्थ से बहुत कम लोग परिचित होंगे। जिसकी 'धी' अर्थात् बुद्धि, सम अर्थात् शान्त हो गयी है वह 'समधी' है। अभी तो लौकिक रूप से समधी कहलाने वालों का मन जाने कहाँ-कहाँ जाता है? एक-सा शान्त कहीं ठहरता ही नहीं है। जब सभी बाहरी सम्बन्ध बिल्कुल छूट जाएं और आत्मा अपने में लीन हो जाए वह दशा ‘समाधि ' की है। सुनते हैं जब हार्ट-अटैक वगैरह कोई हृदय संबंधी रोग हो जाता है तो डॉक्टर लोग कह देते हैं कि 'कम्पलीट बेड रेस्ट' यानि पूरी तरह बिस्तर पर आराम करना होगा। आना-जाना तो क्या, यहाँ तक कि अधिक सोचना और बोलना भी बन्द कर दिया जाता है। समय पर मात्र औषधि और पथ्य दिया जाता है, तब जाकर स्वास्थ्य की प्राप्ति होती है। ऐसा ही तो समाधि में आवश्यक है। सन्तुलन आना चाहिए। शान्त भाव आना चाहिए। तभी स्वास्थ्य मिलेगा। जीवन में वास्तविक ब्रह्मचर्य की प्राप्ति भी तभी होगी। मन-वचन-काय की चेष्टा से जब परिश्रम अधिक हो जाता है, तो विश्राम आवश्यक हो जाता है। यह तो लौकिक जीवन में भी आप करते हैं। ऐसे ही संसार से विश्राम की दशा का नाम ‘ब्रह्मचर्य' है। आपे में रहना अर्थात् स्वभाव में रहना। जैसे पिताजी से बात करनी हो तो बेटा डरता है और देख लेता है कि अभी तो पिताजी का मन बेचैन है, शान्त नहीं है। तो वह उनके पास भी नहीं जाता। यदि कोई कहे भी कि चले जाओ, पूछ आओ तो वह कह देता है कि अभी नहीं, बाद में पूछ लूगा। अभी पिताजी आपे में नहीं हैं अर्थात् अपने शान्त स्वभाव में नहीं हैं। कहीं-कहीं पर ब्रह्मचर्य के लिए 'शील' शब्द भी आता है, शील का अर्थ ही स्वभाव है। लौकिक व्यवहार में कुशील शब्द स्त्री-पुरुष के बीच अनैतिक या विकारी संबंधों को सूचित करने के लिए आता है। लेकिन परमार्थ की अपेक्षा आचार्य कुन्दकुन्द महाराज, समयसार में कहते हैं कि- कम्ममसुहं कुसीलं सुहकम्मं चावि जाणह सुसीलं। किह तं होदि सुसीलं जं संसार पवेसेदि ॥१५२॥ अशुभ कर्म कुशील हैं और शुभ कर्म सुशील हैं, ऐसा सभी जानते हैं, लेकिन परमार्थ की अपेक्षा देखा जाए तो सुशील तो वह है जो संसार से पार हो चुका है। कुशील का अर्थ है जो अपने शील/स्वभाव से दूर है। जैसे म्यान में तलवार तभी रखी जायेगी जब वह एकदम सीधी हो। थोड़ा भी टेढ़ापन हो तो रखना सम्भव नहीं है। उसी प्रकार आत्मा अपने स्वभाव में विचरण करे तो ही सुशील है। कर्मों के बंधन के रहने पर वह सुशील नहीं मानी जायेगी। अपने इस सुशील को सुरक्षित रखना चाहो तो विकार के प्रति राग मत रखो। अपने से जो भी पृथक् है पर है उसके संसर्ग से दूर रहो क्योंकि कुशील के साथ संसर्ग और राग करने से अपने स्वाधीन सुख का विनाश होता है। बहुत दिनों पहले हिन्दी में एक छन्द लिखा था क्या हो गया समझ में मुझको न आता, क्यों बार-बार मन बाहर दौड़ जाता | स्वाध्याय, ध्यान करके मन रोध पाता, पै शवान सा मन सदा मला शोध लाता || (निजानुभव-शतक-४९) मन को अच्छी से अच्छी चीज भी दो लेकिन बुरी चीजों की ओर जाने की उसकी आदत है, वह उसे नहीं छोड़ता। ऐसे इस मन को काबू में रखने का आसान तरीका यही है कि पहले उसके स्वभाव को समझा जाए। मन का तो ऐसा है कि जैसे सितार के तार जरा ढीले हो जाएँ तो संगीत बिगड़ जाता है और अगर जोर से खींच दिये जाएं, कस दिये जायें तो टूट जाते हैं। उन्हें तो ठीक से सन्तुलित कर दिये जाने पर ही अच्छा संगीत सुनायी देता है। ऐसा ही मन को सन्तुलित करके रखा जाए तो उस पर काबू पाना आसान है। मन तो ज्ञान की एक परिणति है। उसे सँभालना अनिवार्य है। जैसे ही पञ्चेन्द्रिय की विषयसामग्री सामने आती है या स्मृति में आती है, वैसे ही तुरन्त मन उस ओर दौड़ जाता है। वस्तुत:, देखा जाए तो ज्ञान का यह परिणमन इतना अभ्यस्त हो गया है और विश्वस्त हो गया है कि वह 'इसी सामग्री के माध्यम से सुख मिलेगा।' यह मान बैठा है और संस्कारवश उसी ओर दुलक जाता है। बन्धुओ! पच्चेन्द्रिय के विषयों में सुख नहीं है। अगर सुख होता तो जो सुख एक लड्डू खाने में आता है उतना या उससे अधिक दूसरे में भी आना चाहिए और तृप्ति हो जानी चाहिए। लेकिन अभी तक किसी को भी तृप्ति नहीं हुई। यह बात समझ में आ जाये तो मन को जीतना आसान हो जायेगा। एक विद्यार्थी की कथा सुनाकर आपको जागृत करना चाहता हूँ। एक गुरुकुल में बहुत सारे विद्यार्थी अपने गुरु के पास वर्षों से विद्याध्यन कर रहे थे। साधना भी चल रही थी। एक बार गुरुजी के मन में आया कि परीक्षा भी लेनी चाहिए, प्रगति कहाँ तक हुई है? परीक्षा ली गयी। कई प्रकार की साधना विद्यार्थियों को करायी गयी, पर एक विशेष साधना में सारे विद्यार्थी एक के बाद एक Fail (निष्फल) होते गये। गुरुजी को लगा कि शायद अब कोई परीक्षा में Paas (सफल) नहीं हो पायेगा। सिर्फ एक विद्यार्थी और शेष रह गया। उसकी परीक्षा अभी ली जाना थी। उसे बुलाया गया । परीक्षा यह थी कि मुख में एक चम्मच बूरा (शक्कर) रखना है, और परीक्षा हो जायेगी। विद्यार्थी ने आज्ञा का पालन किया और गुरुजी के कहने पर मुख खोल दिया और उसमें एक चम्मच बूरा डाल दिया गया। गुरुजी एकटक होकर उसकी मुख मुद्रा देखते रहे। उस विद्यार्थी के चेहरे पर शान्ति छायी थी और मुख में बूरा ज्यों का त्यों रखा था। विद्यार्थी ने उसे खाने की चेष्टा भी नहीं की क्योंकि आज्ञा तो मात्र बूरे को मुख में रखने की थी, वह तो हो गया, स्वाद लेने या खाने का भाव ही नहीं आया। यह देखकर गुरुजी का मुख खिल गया। वे बोले-तुम परीक्षा में पास हो गये। जितेन्द्रिय होना ही ब्रह्मचर्य की सही पहचान है। यही सच्ची साधना और अध्ययन का फल है। बड़ी-बड़ी पोथी पढ़ने वाले भी इसमें हार जाते हैं। आज अधिकांश लोग इसी में लगे हैं। बड़ी-बड़ी पोथी पढ़ने वाले भी इसमें हार जाते हैं। आज अधिकांश लोग इसी में लगे हैं। एक-एक भाषा के कई-कई कोष तैयार हो रहे हैं। शोधग्रन्थ लिखे जा रहे हैं, लेकिन इन्द्रियों पर विजय प्राप्त करने की ओर किसी का ध्यान नहीं है। इन्द्रियों पर विजय प्राप्त करने वाले विरले ही लोग हैं। आज का युग भाषा-विज्ञान में उलझ रहा है और भीतर के तत्व को पकड़ ही नहीं पा रहा है। जो ज्ञान, साधना के माध्यम से जीवन में आता है वह भाषा के माध्यम से कैसे आ सकता है? साहित्य की सही परिभाषा तो यही है कि जो हित से सहित हो, जो हित से युक्त हो वही ‘साहित्य' है। जिसके अवलोकन से आत्मा के हित का सम्पादन हो सके, वही ‘साहित्य' है। ऐसा साहित्य ही उपादेय है जो हमें साधना की ओर अग्रसर करे। ज्ञानी भी वही है, जो खाते हुए भी नहीं खाता, जो पीते हुए भी नहीं पीता, देखते हुए भी नहीं देखता। जैसे जब, जिस चीज की ओर हमारा उपयोग नहीं होता तब वह करते हुए भी हम उसमें नहीं रचते-पचते। यही स्थिति ज्ञानी की है। वह पाँचों पापों का पूर्णरूप से त्याग करके महाव्रतों को धारण करता है। संसार के कार्य वह अनिच्छापूर्वक करता है। पाँचों इन्द्रियों के विषयों से मन को हटाकर अपने आत्म-ध्यान में लगना ही ज्ञानीपने का लक्षण है। बन्धुओ! छोटी-छोटी बात का संकल्प लेकर भी हम अपने जीवन में साधना कर सकते हैं और आत्मा को पवित्र बना सकते हैं। आत्मा की पवित्रता ही 'ब्रह्मचर्य' है। आप आज दशलक्षण धर्म का अन्तिम दिन मत समझिये। दशलक्षण धर्म तो तभी सम्पन्न हुए माने जायेंगे जब हम जितेन्द्रिय होकर शैलेषी दशा को प्राप्त कर लेंगे। मेरु के समान अपने शील-स्वभाव में निश्छल होंगे। तभी लोक के अग्र भाग पर अनन्त काल के लिए आत्मा में रमण करेंगे। आत्मा में रमना ही सच्चा 'ब्रह्मचर्य' है जिसके उपरान्त किसी भी प्रकार की विकृति या विकारी भावों का प्रादुर्भाव होना सम्भव नहीं है। निज माहिं लोक आलोक गुण परजाय प्रतिबिम्बित भये। रहिहैं अनन्तानन्त काल यथा तथा शिव परिणाये || धनि धन्य हैं जे जीव नरभव पाय यह कारज किया। तिन ही अनादि भ्रमण पञ्च प्रकार तजि वर सुख लिया।॥१३॥ कवि ने सिद्ध भगवान् की स्तुति करते हुए 'छहढाला' छठवीं ढाल के अन्त में कहा है कि वे धन्य हैं जिन्होंने मनुष्य जन्म पाकर ऐसा कार्य किया कि पुनः अब किसी भी कार्य को करने की आवश्यकता नहीं रही। संसार के परिभ्रमण से मुक्त होकर उन्होंने उत्तम-सुख को अर्थात् मोक्ष-सुख को पा लिया। मोक्ष लक्ष्मी का वरण कर लिया। अथवा यूँ कहिये कि मोक्ष लक्ष्मी ने स्वयं आकर उनके गले में मुक्ति रूपी माला पहना दी। हमेशा से ही होता आया है कि भोक्ता का वरण भोग्या द्वारा किया जाता है। 'जयोदय महाकाव्य' में जयकुमार और सुलोचना स्वयंवर का मार्मिक चित्रण आचार्य ज्ञानसागरजी महाराज ने किया है। यह स्वयंवर की परम्परा आदिब्रह्मा आदिनाथ के समय की है। यहाँ भी यही बात परिलक्षित होती है कि स्त्री ने पुरुष का वरण किया। आज ब्रह्मचर्य के दिन मैं यही कहना चाह रहा हूँ कि वस्तुत:, भोग्य पदार्थ की ओर झुका हुआ पुरुष वासना का दास बनकर संसार बढ़ाता है और भोग्य पदार्थ जब स्वयं उसकी ओर देखने लगें अर्थात् उसका वरण करने को उत्सुक हो जाएँ तो वह पुरुष तीन-लोक का नाथ बन जाता है। आज पुरुष की दृष्टि भोग्य पदार्थों की ओर जा रही है। यही विकृति है, विकार है। पदार्थों की ओर होने वाली दौड़ ही व्यक्ति को कंगाल बनाती है। जो अपने में है, स्वस्थ है, उसके पास ही मौलिक सम्पदा आज भी है। जिसकी नासिका को देखकर निशि गन्धा भी लज्जा को प्राप्त हो रही है, जिसके नयन नीलकमल के समान सुन्दर हैं, जिसकी भूकुटियाँ देखकर इन्द्रधनुष भी अपने धन को खोता हुआ सा लग रहा है, जिसके विशाल भाल की शोभा बृहस्पति की शोभा को फीका कर रही है, जिसके केशों का चुंघरालापन देखकर माया भी चकित है, जिसके अधर पल्लवों को देखकर मूंगा भी गूँगा सा होकर बैठ गया है, जिसके चरणों को देखकर सकल चराचर झुकने को तत्पर हो गये हैं, जिनके पद-नख की आभा के सामने चन्द्रमा की चाँदनी भी फीकी पड़ रही है, जिसके सुन्दर रूप को देखकर अप्सराएँ भी मोहित हो जाती हैं और जिसके कर रूपी पल्लव संसार को अभयदान देने की सामथ्र्य वाले हैं, ऐसे अद्भुत रूप सौन्दर्य को लिये एक पुरुष श्मशान में कायोत्सर्ग में लीन है। उसका एकमात्र ध्येय मुक्ति-लक्ष्मी है। शेष सारा संसार इन क्षणों में उसे हेय है। पर उसके रूप की ख्याति सुनकर मुग्ध हुई वहाँ के राजा की रानी का चित्त महल में भी विकल हो रहा है। चतुर्दशी का दिन था। रात्रि आधी बीत गयी थी। श्मशान में निर्भय होकर तपस्या में लीन वह पुरुष अपने मनुष्य जीवन को सार्थक बना रहा है कि अचानक रानी की परिचारिका आकर कहती है कि हे सुन्दर पुरुष! मेरे साथ चलो। अभी यह तप करने का समय नहीं है। यह तो भोग-विलास का समय है। अपने सुकुमार शरीर को इस तरह कष्ट मत दो। उठो और जल्दी करो, रानी तुम्हें याद कर रही हैं। तुम्हें क्या इस बात की तनिक भी खबर नहीं है? वास्तव में वह पुरुष कान होते हुए भी जैसे सुनायी न पड़ा हो, ऐसा अपने में लीन अडिग है। ठीक भी है। परमार्थ के क्षेत्र में कान खुले रहना चाहिए, लेकिन विषय-भोग के क्षेत्र में तो कान बहरे ही होना चाहिए। परमार्थ के क्षेत्र में ऑखें खुली रहनी चाहिए। और विषय-वासना के क्षेत्र में अन्धा होकर रहना चाहिए। परमार्थ के क्षेत्र में कर्मों पर विजय पाने के लिए बाहुओं में शक्ति और प्रताप होना चाहिए, लेकिन दूसरे के ऊपर प्रहार करने के लिए बलहीन होना चाहिए। ऐसी ही अवस्था उस समय उस पुरुष की थी। जब दासी ने देखा कि यह तो अपने में अडिग है, तो उसने उसे पूर्व नियोजित योजना के अनुसार उठवाकर महलों में ले जाने का प्रबन्ध कर लिया और वह पुरुष रानी के महल में पहुँचा दिया गया। वहाँ रानी सारे उपाय करके थक गयी पर वह पुरुष ध्यान से विचलित नहीं हुआ। एक तरफ वासना थी तो दूसरी ओर उपासना थी। एक तरफ निश्चल पुरुष था तो दूसरी ओर चञ्चल प्रकृति थी। जीत उसी की होती है जो अपनी इन्द्रियों और मन को जीतने में लगा होता है, जो अपने में लीन है, जो उपासना में लगा है अर्थात् अपने समीप आने में लगा है। ठीक भी है, अपने भीतर पहुँचने के उपरान्त तो अपना ही राज्य है, अपना ही देश है, अपना ही वेश है, अपना ही आदेश है और अपने ही सन्देश भी प्रचारित हो रहे हैं। (हँसी) वहाँ किसी बाहरी सत्ता का प्रवेश सम्भव कैसे हो सकता है? उपासना के सामने वासना को घुटने टेकने ही पड़ेंगे। रानी ने घुटने टेक दिये फिर भी पुरुष ने स्वीकार नहीं किया। जहाँ श्रीकार हो वहाँ स्वीकार या नकार की बात कैसे सम्भव है? ‘ श्री' का अर्थ है अंतरंग लक्ष्मी अर्थात् अपना ही आत्म-वैभव । जो अपने आत्म-वैभव को पाने में लगा है वह बाह्य लक्ष्मी की चाह क्यों करेगा? अपने को हारता देखकर वासना बौखला गयी। वासना की मूर्ति बनी रानी ने अपने वस्त्र फाड़ लिये। अपने हाथों अपने ही शरीर को नोंच लिया और शोर मचाने लगी। राजा को खबर पहुँचायी गयी। राजा सुनकर क्रोधित हो गया। तब रानी और चीखचीख कर रोने लगी। सभी को विश्वास हो गया कि यह सारी करामात इस पुरुष की है। यह ध्यान में लीन होने का ढोंग कर रहा है। यह सब मायाचारी है। बन्धुओ! यह है दुनियाँ की दृष्टि। जो मायाचारी कर रहा है, वह सच्चा साबित हो रहा है और सत्य को झूठा बनाया जा रहा है, लेकिन अन्त में जीत सत्य की ही होती है। जब प्राणदण्ड के लिए उस पुरुष को शूली पर चढ़ाया जाता है तो देवता आकर शूली के स्थान पर फूलों की माला बना देते हैं। तब रहस्य खुलता है कि दोष इसका नहीं है, दोषी तो रानी है। यह पुरुष कोई और नहीं, अपने ही नगर का महान् चारित्रवान नागरिक 'सेठ सुदर्शन' है। गृहस्थ होते हुए भी आस्था और आचरण में दृढ़ है। यही तो ब्रह्मचर्य धर्म के पालन में सच्ची निष्ठा है। कि 'मातृवत् परदारेषु परद्रव्येषु लोष्ठवत्, आत्मवत्सर्वभूतेषु यः पश्यति स पण्डितः' यही तो वास्तव में वैराग्य है कि गृहस्थ भी परस्त्री को अपनी माता के समान मानता है और दूसरे के द्वारा सञ्चित धन सम्पत्ति को कंकर-पत्थर की तरह अपने लिए हेय समझता है। महाराज जी (आचार्य ज्ञानसागरजी) कहा करते थे कि गृहस्थ को व्रत अवश्य लेना चाहिए। व्रत कोई भी छोटा नहीं होता। आज सुदर्शन सेठ का परस्त्री के त्याग का व्रत भी महाव्रत के समान हो गया। सभी ओर जय-जयकार होने लगी। सुदर्शन सेठ सोच में डूबे हैं कि देखो, कैसा वैचित्र्य है। मैं जिस शरीर से मुक्त होना चाह रहा हूँ, संसार के लोग उसी शरीर को चाह रहे हैं। उसके क्षणिक सौन्दर्य से प्रभावित हो रहे हैं और अपने शाश्वत आत्म सौन्दर्य को भूल रहे हैं। बन्धुओ! विचार करो कि एक अणुव्रती गृहस्थ श्रावक की दृढ़ता कितनी है। उसकी आस्था कितनी मजबूत है। उसका आचरण कैसा निर्मल है। पापों का एक देश त्याग करने वाला भी संसार से पार होने की क्षमता और साहस रखता है। जिसने एक बार अपने स्वभाव की ओर दृष्टि डाल दी, उसकी दृष्टि फिर विकार की ओर आकृष्ट नहीं होती। एक घटना याद आ गयी। एक युवक विरक्त हो गया और घर से जंगल की ओर चल पड़ा। पिता उसके पीछे-पीछे चले जा रहे हैं कि अगर यह मान गया तो वापस घर ले आयेंगे। रास्ते में एक सरोवर के किनारे कन्याएँ स्नान कर रहीं थीं। युवक थोड़ा आगे था। अत: वह पहले निकल गया। तब वे स्त्रियाँ ज्यों की त्यों स्नान करती रहीं और जब पीछे उसके पिता को आते देखा तो सभी अपने वस्त्र सँभालने लगीं। पिता चकित होकर रुक गया और उसने पूछा कि बात क्या है? अभी-अभी मेरा जवान बेटा यहाँ से निकला था, तब तुम सब पूर्ववत् स्नान करती रहीं, लेकिन मैं इतना वृद्ध हूँ फिर मुझे देखकर क्यों लज्जावश अपने वस्त्र सँभालने लगीं। वे कन्याएँ समझदार थीं, बोलींबाबा। यह जवान था और आप वृद्ध हैं, यह हम नहीं जानते। हम तो दृष्टि की बात जानते हैं। वह अपने में खोया था, उसकी दृष्टि में पुरुष या स्त्री का भेद ही नहीं था। वह तो सब कुछ देखते हुए भी मानों कुछ नहीं देख रहा था। लेकिन आपकी दृष्टि में अभी ऐसी वीतरागता नहीं आयी। आपको तो अभी भेद दिखायी दे रहा है। कहीं एक कविता पढ़ी थी उसकी कुछ पंक्तियाँ मुझे बहुत अच्छी लगीं पूरी तो ध्यान नहीं- "अभी तुमने आग के रंग के कपडे पहेने हैं योग की आग में तुम्हारा काम अभी पूरा जला नहीं है अभी तुम्हें स्त्री और पुरुष के बीच फर्क नजर आता है स्त्री के पीछे भागना और स्त्री से दूर भागना बात एक ही है जब तक ये यात्रा जारी है समझो अभी संन्यास की यात्रा शुरू नहीं हुई।” आचार्य कुन्दकुन्द महाराज ने नियमसार में कहा है कि- दडूण इच्छिरूवं वांछभावं णिवत्तदे तासु। मेहुणसण्णविवज्जिय परिणामो अहव तुरीयवदं॥५९॥ स्त्रियों के रूप को देखकर उनके प्रति वांछा भाव की निवृत्ति होना अथवा मैथुन-संज्ञा रहित जो परिणाम हैं, वह चौथा ब्रह्मचर्य व्रत है। अर्थात् परिणामों की उज्वलता ब्रह्मचर्य के लिए बहुत आवश्यक है। देखना भी दो प्रकार से हो सकता है। एक देखना तो सहज भाव से होता है, वीतराग भाव से होता है तो दूसरा विकार भाव से या राग-भाव से देखना होता है। वीतरागी के परिणामों में जो निर्मलता आती है, उस पर फिर किसी विकार का प्रभाव नहीं पड़ता। जो विकार से बचना चाहता है उसका कर्तव्य सर्वप्रथम यही है कि वीतरागता की ओर वह दृष्टि-पात करे। स्वभाव की ओर देखे, केवल संन्यास व्रत धारण करना या स्वाध्याय करना ही पर्याप्त नहीं है। अपने उपयोग की संभाल प्रतिक्षण करते रहना भी आवश्यक है। अपने उपयोग की परीक्षा हमेशा करते रहना चाहिए कि उसमें कितनी निर्मलता और दृढ़ता आयी है। उपयोग की निर्मलता और दृढ़ता के सामने तीनलोक की सम्पदा भी फीकी लगने लगती है। उपयोग को विकारों से बचाकर, राग से बचाकर वीतरागता में लगाना चाहिए, यही ब्रह्मचर्य धर्म है।
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