Jump to content
नव आचार्य श्री समय सागर जी को करें भावंजली अर्पित ×
मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज
  • प्रवचनिका 2 - श्रेष्ठ संस्कार

       (1 review)

    सुनते हैं कई प्रकार के मोती होते हैं। जल की बूंदें मोती के रूप में परिणत हो जाती हैं। वह जल की बूंदें धूल में मिलकर अपने आप के जीवन को समाप्त न करके एक मोती का रूप धारण कर लेती हैं तो वह कंठहार बन जाती हैं। कभी सोचा आपने कि जब जल मोती बन सकता है तो जो अविरल धारा बहती रहती है वर्षा ऋतु में, वह जल मोती का रूप धारण क्यों नहीं करता। उपादान जल है तो वह मोती के रूप में परिवर्तित हो जाये लेकिन बिना निमित्त के ऐसा संभव नहीं है। इसलिए निमित्त की सार्थकता को ओझल नहीं किया जा सकता।


    मोती एकेन्द्रिय है, पृथिवीकायिक है और जल भी एकेन्द्रिय है, जलकायिक है लेकिन जब सीप जल की बूंदों को स्वीकार कर लेता है तभी वे मोती का रूप धारण करती हैं। निमित्त की यही विशेषता है। उपादान जो भीतर की शक्ति है उसका प्रस्फुटन उसकी अभिव्यक्ति सामने तब आती है जबकि योग्य द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव आदि निमित्त जुट जाते हैं। अन्यथा वही बूंदें नीम की जड़ में चली जाती हैं तो कटुता का अनुभव लाती हैं। बबूल की जड़ में चली जाती हैं तो काँटे का रूप धारण कर लेती हैं। सर्प के मुख को प्राप्त हुई वही बूंद हलाहल का रूप धारण कर लेती है। सूर्य के ताप को वह प्राप्त कर लेती है तो वाष्प बनकर उड़ जाती है। वस्तु का परिणमन बडी अद्वितीय शक्ति को लेकर चलता रहता है।


    आज जो जीव गर्भ में आया है वह कहाँ से आया? वह क्यों तीर्थकर बना और कैसे? किन परिणामों के द्वारा माता-पिता ने उसे धारण किया? तो उत्तर में यही कहा जायेगा कि यह सब संस्कार की देन है। आज यह दिन भी संस्कार का दिन है। एक ऐसा जीव सीप में प्रवेश करेगा तो कालान्तर में मोती का रूप धारण कर लेता है। इसकी अधिकारी वही सीप होगी जो जल को बड़ी सावधानी से ग्रहण करती है। प्रत्येक सीप में मोती बने, यह नियम नहीं है। स्वाति नक्षत्र में जब कोई सीप अपना मुख खोलती है और ऊपर मेघों से गिरती जल की बूंद भीतर प्रवेश करती है तब सीप अपने मुख को बंद करके सागर के नीचे चली जाती है। ऐसा वह नैसर्गिक संस्कार का कार्य होता है। परिष्कार का कार्य होता है तभी मोती की उपलब्धि होती है।


    आज परिष्कार की बात तो चलती है लेकिन संस्कार की बात नहीं होती। एक सीप के संस्कार को देखो। कैसा संस्कार डाला भीतर कि वह बाहर का जल जो खारा था, भीतर वही मोती का रूप धारण कर गया। जल का उपादान, इस भीतरी संस्कार के कारण मोती के रूप में परिवर्तित हो गया। जब किसी के लिये बुखार Typhoid हो जाता है जिसे हिन्दी में मोतीझरा बोलते हैं तो एक दो मोती पानी में उबाल दिये जाते हैं तो वह पानी भीतर के बुखार को निकालने में सक्षम हो जाता है। मोती से मोतीझरा बुखार भी झर जाता है। साधारण पानी में यह गुण नहीं होता। मोती के द्वारा संस्कारित होने पर यह क्षमता आ जाती है।


    इसी प्रकार तीर्थकर होने वाले जीव को अपने गर्भ में प्रवेश होने के पूर्व में माता-पिता ने कितनी निर्मल भावना भायी होगी। तीन लोक का कल्याण जिसके ऊपर निर्धारित है ऐसा वह महान् जीव आने वाला है। उसे आधार देने वाला भी कितना कल्याणकारी होगा। यह बात बहुत कम लोगों को समझ में आती है। लेकिन जो वस्तु के उद्गम स्थान की ओर दृष्टिपात करते हैं तो ज्ञात होता है कि वर्तमान तभी बनता है जब अतीत भी उज्वल होता है। जड़ें मजबूत होती हैं तभी वृक्ष विकास पाता है। संस्कार की ओर अर्थात् मूलभूत जड़ों की ओर भी देखना आवश्यक है। आज तो कलम (Cross Breed) का युग आ गया। आम की गुठली नहीं बोयी जाती। आम की कलम लगा दी जाती है। संस्कार नहीं दिया जाता, मात्र बाहर से थोड़ा परिष्कार कर दिया जाता है। आम भले ही बहुत आते हों लेकिन खाने का स्वाद और पौष्टिकता नहीं मिल पाती।


    जो पहले से संस्कार डालना प्रारंभ कर देता है भावों के माध्यम से कि हमारे निमित से कोई लोकोत्तर जीव आ जावे जो तीन लोक को दिशा बोध दे सके। तो हम धन्य हो जायेंगे। यह भी एक उज्ज्वल भावना है। धन्य हैं वह माता और वह पिता। आप लोग तो आज क्या भावना करते हैं कि हमारा लड़का वकील बन जाये, इंजीनियर बन जाये, डाक्टर बन जाये, प्रोफेसर बन जाये। कुछ भी बन जाये लेकिन कमाऊ बन जाये, साधु न बन जाये (हँसी)।


    यै: शान्तरागरुचिभिः परमाणुभिस्त्वं... हे भगवान्! शांति के जितने भी परमाणु थे आपकी देह उनके द्वारा निर्मित हो गयी। आप इसी से अद्भुत हैं। ऐसी शक्ति के परमाणुओं से निर्मित देह की भावना भाने वाले विरले ही माता-पिता होते हैं। भारतीय संस्कृति में प्रत्येक क्षण संस्कार के साथ बीते, इस बात को महत्व दिया गया है। प्रत्येक क्रिया संस्कार के साथ चलती है। विवाह संस्कार मात्र वासना की पूर्ति के लिये नहीं है, बल्कि संतान की उत्पत्ति और धर्म की परम्परा को अक्षुण्ण बनाये रखने के लिये किया जाता है। ऐसा महापुराणादि ग्रन्थों में आप देख सकते हैं। कब कैसे संस्कार डाले जायें। मन वचन काय की प्रवृत्ति कैसी रखी जाये, कितने बार खाया जाये, कब खाया जाये, क्या खाया जाये और क्यों खाया जाये। इन सभी बातों की सावधानी रखी जाती है।


    संस्कार ऐसे हों कि जिससे आने वाली संतान धार्मिक/सात्विक जीवन का संस्कार लेकर आये। उसका तामसिकता की ओर झुकाव न हो। जब विभिन्न प्रकार के सुगंधित फूलों की प्रजातियों को पैदा करते समय आवश्यक हवा, पानी और वातावरण आदि की सावधानी रखी जाती है तो आप विचार करें कि जिसके द्वारा तीन लोक में सुगंधमय वातावरण बनेगा ऐसा जीव यहाँ गर्भ में आया है तो कितनी सावधानी रखी गयी होगी। कैसे अद्भुत पवित्र संस्कार किये गये होंगे। तीन लोक के सकल चराचर पदार्थों को अपने में धारण करने की क्षमता जिसके ज्ञान में आ जाये, जो प्राणिमात्र के दुख दारिद्र को दूर करने में निमित्त बन जाये। यह सब संस्कार का ही प्रतिफल है।


    साधना अभिशाप को वरदान बना देती है। भावना पाषाण को भगवान् बना देती है। पर आज का युग स्वयं एकदम भगवान बनना चाहता है। साधना के नाम पर कुछ करना नहीं चाहता। महान् आत्माओं के चरणों में झुकना नहीं चाहता। सब समय के भरोसे छोड़ देता है। बंधुओ! साधना भगवान् बनने से पूर्व की बात है और अनिवार्य है। भगवान् बनने के उपरान्त साधना नहीं की जाती। फल पक जाने के उपरान्त पानी का सिंचन नहीं किया जाता। साधना से ही संस्कार पड़ते हैं।


    पहले मंत्रों के द्वारा सहज ही कार्य सिद्ध हो जाते थे, इसका कारण है कि मंत्र सिद्ध होने के उपरान्त ही कार्य सिद्ध हो जाता है। मंत्र सिद्ध न हो, मंत्र की साधना न हो तो मंत्र पढ़ने मात्र से कार्य सम्पन्न नहीं होता। साधना पहले आवश्यक है। जीवन को वासना से दूर रखने साधना की जाये तभी आने वाली संतान, आत्मा की उपासना करने में सक्षम होगी, उपादान की योग्यता के साथ-साथ निमित्त का भी प्रभाव पड़ता है।


    गाँधी जी ने नहीं कहा लेकिन लोगों ने स्वयं उन्हें महात्मा गाँधी कहा। वे तो अंत तक यही कहते रहे कि मेरी महानता तो माता-पिता के ऊपर निर्धारित है। उन्होंने ही मेरे ऊपर संस्कार डाले। विदेश में जा रहे हो तो ध्यान रखना, मांस-मदिरा का सेवन मत करना। यह गाँधी जी के जीवन की घटना है। विदेश जाते समय उनकी माता ने यह शपथ दिलायी थी।


    आयुर्वेद में औषधियों की शक्ति भावना पर ही आधारित है। जितना ज्यादा औषधि को भावित किया गया होगा, भावना दी गयी होगी, पुट दिया गया होगा उतनी ही वह शक्तिशाली होगी। जैनाचार्यों ने इस शक्ति को अनुभाग कहा है। जिस भावना के साथ जो कर्म आ जाता है उनमें ऐसी शक्ति पड़ जाती है कि दुनियाँ की कोई शक्ति आ जाये पर उसे समाप्त नहीं कर सकती। पुण्य कर्म की स्थिति तो ऐसी है कि यदि उसे मिटाना/हटाना चाहो तो जितना उससे बचने के लिये जायेंगे उतनी ही उसकी शक्ति और बढ़ जायेगी। पापों से मुक्त होकर जो पुण्य में लग जाते हैं और पुण्य के फल का त्याग करते जाते हैं उन्हें और अधिक पुण्य का संचय होने लगता है।


    स्वर्ण यदि असली हो तो उसकी आप कितनी ही बार कसौटी पर परखी वह खरा ही उतरेगा। उसे जितना तपाओ, समाप्त करना चाहो वह उतना ही उज्ज्वल हो जाता है। कंचन तो कंचन ही है यह भावना का फल है। साधारण पीपल नहीं, यदि चौंसठ प्रहरी पीपल हो तो क्षय रोग को भी दूर करने में सक्षम होता है। चौंसठ प्रहर तक मूसल की चोट जिस पीपल के ऊपर पड़ती है वह पीपल आयुर्वेद में चौंसठ प्रहरी पीपल कहलाता है। पल-पल उस पीपल ने चौंसठ प्रहर के प्रहारों को अपने में पी लिया। यह संस्कारित हो गया। आप मशीन के द्वारा एक घंटे में उतनी ही चोट डाल दो वह शक्ति नहीं आयेगी, ध्यान रखना, क्योंकि वहाँ चोट तो जुड़ी है लेकिन भावना नहीं जुड़ी। एक में व्यवसाय है, एक में साधना स्वाध्याय है।


    बंधुओ! तीन लोक का दारिद्रय जो मोह के कारण है उसे यदि दूर करना चाहते हो तो वित के द्वारा नहीं, धन संपदा के द्वारा नहीं बल्कि चेतन भावों के द्वारा ही, वीतराग भावों के द्वारा ही दूर किया जा सकता है। लोक-कल्याण की भावना का यह संस्कार अद्भुत है। धन्य हैं वह माता-पिता जो अपनी संतान में ऐसे भाव पैदा करने के लिये प्रयास करते हैं। हमें मन-वचन-काय की ऐसी चेष्टा करनी चाहिए ताकि विश्व का कल्याण हो।


    भावों में ऐसी उज्ज्वलता लायें जैसे मोती के लिये सीप प्रयासरत है। सीप में मोती भले ही एक हो। जैसे तीर्थकर अपने माता-पिता के एक ही होते हैं पर सारा लोक आकृष्ट हो जाता है। एक मोती ही पर्याप्त है। एक तीर्थकर की योग्यता वाला पुत्र ही पर्याप्त है। हमारा पुत्र हमारे लिये ही नहीं बल्कि विश्व के कल्याण के लिये हो, ऐसी भावना विरला ही कोई कर सकता है। इतना ही नहीं, उस पुत्र को लोक के लिये समर्पित करके आनंदित भी होता है। उसे स्वयं से अधिक समझदार मानता है। नाभिराय और माता मरुदेवी किसी के कुछ पूछने पर उसे समाधान के लिये अपने पुत्र आदिकुमार के पास भेज दिया करते थे। यहाँ पर्याय बुद्धि छोड़नी पड़ती है। छोटा/बड़ा कोई उम्र से या शरीर से नहीं मापा जाता, अंतरंग योग्यता देखनी चाहिए।


    आप इन कार्यक्रमों को लौकिक कार्यक्रम न समझे। किन्तु पारलौकिक आत्मा की ओर ले जाने के लिये प्रतीक मानें, प्रेरणा लें। आप भी माता-पिता हैं, आपके भी संतान है उसे संस्कारित करें। अंतर्दूष्टि दें और स्वयं भी संस्कारित हो जिससे सबका भविष्य उज्वल बनें।


    एक दीप हजारों दीपक जलाता है। एक दीपक के साथ बुझे हुए हजार दीपक अपने आप जल जाते हैं। परिश्रम की आवश्यकता नहीं होती और एक वह भी दीपक होता है जो रत्न दीपक कहलाता है। इस माटी के दीपक में तो बाती होती है, तेल डाला जाता है और वह बुझ भी सकता है लेकिन रत्न दीपक के लिये बाती और तेल की आवश्यकता नहीं होती वह हवा के द्वारा बुझता भी नहीं है। किसी को जलाता नहीं, स्वयं जलता रहता है ऐसे रत्न दीपक से भी श्रेष्ठ दीपक गर्भ में आ चुका है। उसकी पात्रता को ध्यान में रखकर कल पूर्व पीठिका के रूप में सीप और मोती की बात कही थी।
     


    आज उस श्रेष्ठ दीपक की बात करना चाहता हूँ जिसके गर्भ में आते ही सब ओर शांति का वातावरण बन जाता है। मंगल छा जाता है और आत्मा का महात्म्य सुनाई देने लगता है। एक विकासमान दीपक एक प्रकाशमान दीपक जो विश्व को शान्ति प्रदान करने वाला है, वह गर्भ में भले ही है लेकिन अपनी प्रभा को बाहर बिखेर रहा है। कैसी अद्भुत भावना पूर्व जीवन में भायी होगी कि जो आज गर्भावस्था में रहकर भी विश्वप्रिय है। सब आतुर हैं कि कब भगवान् का दर्शन होगा? पर्याय की दृष्टि से देखें तो वे कुमार की तरह जन्म लेंगे, अभी भगवान् नहीं हैं लेकिन अंतर्दूष्टि से देखा जाये तो प्रत्येक आत्मा भगवान् है।


    एक ऐसी आत्मा जो इसी पर्याय से अपनी आत्मा को जगमगायेगी। जिसके माध्यम से तीन लोक अपने आप के स्वरूप को पहचानेगा। ऐसी आत्मा/परमात्मा के प्रभाव से उनके परिवार का ही नहीं, सभी का दारिद्र दूर हो जाता है मात्र शारीरिक रोग ही नहीं, भव रोग का भी अंत होने लग जाता है और दिन-रात शुद्धात्मा की चर्चा/अर्चा प्रारंभ हो जाती है। पूरा का पूरा परिवार राग से वीतरागता की ओर चला जाता है। यह सब पूर्व भव में इस जीव के द्वारा स्व और पर के कल्याण की भावना का परिणाम है।


    इस तरह जिस आत्मा का गर्भ में आना कल्याणकारी होता है और इतना ही नहीं बल्कि अब इस जीव को दुबारा गर्भ में नहीं आना पड़ेगा और न ही उसकी माँ को अधिक गर्भ धारण करने होंगे, वह भी एकाध दो भव में मुक्ति का भाजन बनेगी। इसलिए भी यह गर्भ कल्याण रूप है। गर्भ में आना भी कल्याणक के रूप में मनाया जाता है।


    किसी कवि ने छोटी-सी कविता लिखी है कि मैं एक अवयस्क वृद्ध हूँ। कविता का रहस्य अपने आप में बहुत है। अभी जीव गर्भ में आया है लेकिन उसका अनुभव वृद्धत्व को प्राप्त है, जैसे दीपक छोटा सा लगता है लेकिन रात्रि के साम्राज्य को छिन्न भिन्न करने में सक्षम है। फिर यह कोई सामान्य दीपक नहीं है जिसके तले अंधेरा हो। यह सामान्य रत्न-दीपक भी नहीं है बल्कि विशिष्ट चैतन्य रत्न दीपक है। इसकी गरिमा शब्दों में नहीं कही जा सकती। शब्द बहुत बौने पड़ जाते हैं। शब्दों में विराटता का वर्णन करने की सामथ्र्य नहीं है लेकिन भावों की उमड़न रुक नहीं पाती जिससे बार-बार गुणानुवाद का मन हो जाता है, जैसे सूर्य की आरती दीपक से की जाती है।


    हीरा बहुमूल्य होता है लेकिन आत्मतत्व रूपी हीरा तो अमूल्य है, अद्वितीय है। इस एक आत्म तत्व के प्रति अपने आपको समर्पित करने वाली यह महान् आत्मा धन्य है जिसने अतीत में भी रत्नत्रय की साधना की, और आगे भी रत्नत्रय की आराधना करके मुक्ति को पायेगी। जन्म के उपरान्त देखने में भले ही कोमल बालक दिखेगा लेकिन तीन लोक का पालक होगा। आज का प्रत्येक बालक कल का नागरिक बन सकता है लेकिन प्रत्येक नागरिक राष्ट्रपिता नहीं बन सकता। उसके लिये अलग योग्यता चाहिए। फिर यह गर्भस्थ शिशु तो मात्र राष्ट्रपिता नहीं बल्कि तीन लोक का नाथ बनने वाला है उसकी योग्यता कितनी होगी। यह इस अवसर पर विचार करना चाहिए।


    आज की यह धर्मसभा गर्भस्थ आत्मा का कल्याणक मनाने के लिये आतुर है वहीं दूसरी ओर विज्ञान के माध्यम से यह परीक्षा की जाती है कि गर्भस्थ आत्मा लड़का है या लड़की है। यदि लड़की है तो हटा दी। लड़का है तो रहने दो। कौन-से ऐसे संविधान में लिखा है, किस देश की संस्कृति इस जघन्य अपराध को इस पाप को ठीक मानती है। कुछ समझ में नहीं आ रहा। यह कहाँ का न्याय है, यह तो अन्याय है। यह विज्ञान का दुरुपयोग है। आप धर्म की बात सुनना चाहते हैं लेकिन गर्भस्थ शिशु की पीड़ा को नहीं सुनना चाहते।


    गर्भस्थ शिशु पर किये गये इंजेक्शन और दवाइयों के प्रयोग से उसे जो मर्मान्तक पीड़ा होती होगी वह आप देखना नहीं चाहते। ऐसा जघन्य काम हो रहा है इस भारत वर्ष में और लोग चुप हैं। दंड की बात दूर है धन के द्वारा पुरस्कृत किया जा रहा है। मैं आलोचना नहीं कर रहा हूँ आपके लोचन खोलना चाह रहा हूँ। आज गर्भ कल्याणक के अवसर पर इस युग की यह समस्या विचारणीय है।


    क्षत्रियों का धर्म तो यही है कि अबोध बालक-बालिका पर, उन्मत्त/पागल व्यक्ति पर, नारी के ऊपर और नि:शस्त्र योद्धा के ऊपर प्रहार कभी न किया जाये। लेकिन आज क्या हो रहा है? दोनों कुलों के यश को वृद्धिगत करने वाली बालिका पर प्रहार किया जा रहा है। नारी जगत् ने इतिहास में कितना कुछ किया है और आगे भी करने की क्षमता रखती है। यह किसी से छिपा नहीं है। जीव का परिणमन है। शरीर को लेकर कर्म प्रकृति को लेकर अंतर संभव है लेकिन आत्मा तो सभी में वही है। अनंत शक्तिवान है। बंधुओ, सव्वे सुद्धा हु सुद्धणया अर्थात् सभी जीव अंतर्दूष्टि से देखा जाये तो शुद्धत्व को प्राप्त करने की क्षमता वाले हैं। अपने आपको सम्यग्दृष्टि मानने वालो थोड़ा तो विचार करो।


    यदि आप जीवन प्रदान नहीं कर सकते तो आपको जीवन लेने का क्या अधिकार है? वह जीव तो स्वयं जीवन लेकर आया है। उसका कल्याण वह स्वयं करेगा। भगवान् महावीर की धरती पर, भगवान् वृषभनाथ की धरती पर, भगवान् राम की धरती पर, माता मरुदेवी और राजा नाभिराय की धरती पर यह जघन्य कृत्य ठीक नहीं है। इसका समर्थन शासन क्यों करता है? शासन तो आपके हाथ में है। प्रजातंत्र है, आप ही शासक हैं और शासित भी आपको होना है। लोकतंत्र में टके सेर भाजी टके सेर खाजा, अंधेर नगरी और चौपट राजा यह नहीं चलेगा। आत्म गौरव होना चाहिए। स्वाभिमान होना चाहिए। अपनी उज्वल संस्कृति का ख्याल होना चाहिए।


    ऐसा आज कोई अहिंसा को मानने वाला जैन क्यों नहीं है जो खुले आम निडरता से इसे बंद कराने का प्रयास करे/होना चाहिए। आप सोचते हैं, अकेले धार्मिक कार्य करने से पुण्य संचित होता है ऐसा एकान्त नहीं है। पुण्य संचय तो सादगी पूर्ण जीवन से, संयत जीवन जीने से होता है। दु:शासन का शासन भी भंग हो गया था, द्रौपदी के आत्मानुशासन के सामने। भरी सभा में दु:शासन ने द्रौपदी को निरावरित करना चाहा था लेकिन पसीना-पसीना हो गया था पर वस्त्र हट नहीं पाया। ऐसी शीलवान द्रौपदी की कथा आप पढ़ते हैं और गर्भस्थ बालक पर प्रहार करते हैं कुछ समझ में नहीं आता।


    गर्भस्थ शिशु का भविष्य कैसा है। यह कोई नहीं जानता। क्या पता कौन सा शिशु महात्मा गाँधी बन जाये। कौन अकलंक-निकलंक जैसा धर्म रक्षक बन जाए। कौन जिनसेन स्वामी जैसा महान् बन जाये और कौन बालिका चंदनबाला जैसी आर्यिका बनकर संघ का नेतृत्व संभालकर युग को संबोधित करे। आपके सागर नगर से क्षमासागर जी, सुधासागरजी, जैसे मुनि निकले हैं और दृढ़मती जैसी आर्यिका गणिनी भी है जिसके अनुशासन में पच्चीस, तीस-तीस आर्यिकाएँ हैं।


    बंधुओ! सब अपने-अपने कर्म लेकर आते हैं। संसार में किसी का पालन-पोषण हमें करना है ऐसा अहंकार व्यर्थ है। कर्म सिद्धान्त पर अगर आपको विश्वास है तो संकल्प कीजिये कि हम अपने जीवनकाल में कभी गर्भस्थ शिशु की हत्या नहीं होने देंगे। जीवनदान बड़ा महत्वपूर्ण दान है। एक महान् आत्मा का जन्म ही सारे विश्व में उजाला करने के लिये पर्याप्त है। धर्मात्मा यदि बचा रहेगा तो सारी प्रजा धर्ममय बनी रहेगी। सब ओर सुख शांति होगी।



    User Feedback

    Create an account or sign in to leave a review

    You need to be a member in order to leave a review

    Create an account

    Sign up for a new account in our community. It's easy!

    Register a new account

    Sign in

    Already have an account? Sign in here.

    Sign In Now

    रतन लाल

      

    आज परिष्कार की बात तो चलती है लेकिन संस्कार की बात नहीं होती। एक सीप के संस्कार को देखो। कैसा संस्कार डाला भीतर कि वह बाहर का जल जो खारा था, भीतर वही मोती का रूप धारण कर गया।

    • Like 1
    Link to review
    Share on other sites


×
×
  • Create New...