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नव आचार्य श्री समय सागर जी को करें भावंजली अर्पित ×
मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज
  • स्वाध्याय

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    स्वाध्याय विषय पर संत शिरोमणि आचार्य विद्यासागर जी  के विचार.

     

    1. तत्व के बारे में जो सुना है गुरु के मुख से, उसको पुनः पुन: चिन्तन में लाना यह स्वाध्याय माना जाता है।
    2. स्वाध्याय सिर्फ पढ़ा-लिखा ही नहीं, जो पढ़ा लिखा नहीं है, वह भी स्वाध्याय कर सकता है।
    3. हमें अध्ययन के साथ-साथ चिन्तन करना चाहिए, लेकिन आज तो चिन्तन के लिए मौका ही नहीं है।
    4. संवर और निर्जरा का स्थान बढ़ायें तो स्वाध्याय सार्थक है। अन्यथा वह व्यर्थ है।
    5. आज स्वाध्याय तो बहुत करते हैं लेकिन संयम और विवेक शून्य है। मैं उसे स्वाध्याय नहीं मानता।
    6. संयोग-वियोग में जो समता परिणाम बनाये रखता है तथा अनुकूलता और प्रतिकूलता में हर्ष-विषाद नहीं करता ऐसा संयमी व्यक्ति ही सच्चा स्वाध्याय करने वाला है।
    7. जो चौबीसों घण्टे अपने आवश्यकों में मन को लगाये रखता है, उसका स्वाध्याय तो निरंतर चलता ही रहता है।
    8. वास्तविक स्वाध्याय तो अपनी प्रत्येक क्रिया के प्रति सजग रहने में है। ‘स्व” का निकट से अध्ययन करने में है।
    9. स्वाध्याय में किसी भी मत को लेकर के कभी आग्रह नहीं करना चाहिए।
    10. अपने मन के अनुकूल आ जाता है तो उसके लिए खुश हो जाना और अपने मन के अनुकूल नहीं आता है, तो खुश नहीं होना ये स्वाध्याय का कोई परिणाम नहीं माना जाता है।
    11. स्वाध्याय से कर्मों की निर्जरा तथा श्रमण संस्कृति की रक्षा हो सकती है।
    12. निर्जरा के लिए स्वाध्याय, उससे अधिक निर्जरा के लिए अध्यापन बताया।
    13. अनुप्रेक्षा और आम्रायरूप स्वाध्याय से चिंतन होना चाहिए अन्यथा विषय चला जायेगा।
    14. पशु चर लेते हैं फिर चर्वण करते उसमें वे रस का भी आनन्द लेते हैं।
    15. स्वाध्याय का तीसरा अंग अनुप्रेक्षा आज अकाल जैसा ग्रस्त है, उसकी और कोई देखता ही नहीं जो वैराग्य में बहुत कार्यकारी है।

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