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नव आचार्य श्री समय सागर जी को करें भावंजली अर्पित ×
मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज
  • प्रवचनिका 6 - निष्ठा से प्रतिष्ठा

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    आज यह पंचकल्याणक एवं गजरथ महोत्सव का समापन सागर की इस विशाल जन-राशि के सामने सानंद सम्पन्न हुआ। यह निश्चित है कि कोई भी कार्य होता है उसकी भूमिका महीनों/ वर्षों पहले से चलती है और वह कार्य सम्पन्न हो जाता है कुछ ही दिनों में। आज तक इस सागर की एक यही लगन रही कि पंचकल्याणक महोत्सव सानंद सम्पन्न करना है और आज यह कार्य संपन्न हुआ तो सब ओर हर्ष छाया है, सारी थकान भुला दी गयी है।


    बंधुओ! हमारे सामने हमेशा कर्तव्य रहना चाहिए। कर्तापन नहीं आना चाहिए। कोई भी कार्य होता है तो वह उपादान की योग्यता के अनुरूप होता है, लेकिन उसके लिये योग्य सामग्री जुटाना भी आवश्यक होता है। सभी के परस्पर सहयोग से ऐसे महान् कार्य सम्पन्न होते हैं। भावों में आस्था होनी चाहिए। धर्म के प्रति आस्था जब धीरे-धीरे निष्ठा की ओर बढ़ती है, प्रगाढ़ होती है, तभी प्रतिष्ठा हो पाती है और जब प्रतिष्ठा की ओर दृष्टिपात नहीं करते हुए आगे बढ़ते हैं तो संस्था बन जाती है, तभी सारी व्यवस्था ठीक हो पाती है। और हमारी आस्था सुधर पाती है। यह जिन बिंब प्रतिष्ठा आस्था के साथ हमारी अवस्था को सुधारने में सहायक है।


    इस समारोह के सानंद सम्पन्न होने में पुद्गल द्रव्य भी काम कर रहा है। अपनी-अपनी योग्यता के अनुसार सभी सहयोगी बने हैं। चैतन्य परिणाम तो उपादान के रूप में माना ही गया है जो सामूहिक रूप से इस कार्य को सम्पन्न करने में साक्षात् कारण है। ऐसे भव्य आयोजन इसीलिए एकता के प्रतीक बन जाते हैं। यह एक दूसरे के सहयोग की भावना का परिणाम है कि विस्मय में डालने वाला इतना बृहत् कार्य सम्पन्न हो गया। मानव एक मात्र ऐसा प्राणी है जो सब कुछ कर सकता है। लेकिन इतना ही है कि उसका दिल और दिमाग ठीक काम करता रहे। उसमें लगन और एकता बनी रहे। तब देवता भी उसके चरणों में नतमस्तक हो जाते हैं और सहयोगी बनते हैं।


    प्रकृति का सहयोग दो प्रकार का है। एक बाहरी प्रकृति जो दिखायी पड़ती है और एक भीतरी प्रकृति जो हमारा स्वभाव है, वह दिखाई नहीं पड़ती। यदि उस भीतरी स्वभाव में, प्रकृति में विकार उत्पन्न हो जाये तो बाहरी प्रकृति अनुकूल होने पर भी संकट आ जाता है। यदि उज्वल भाव हो, भीतरी प्रकृति शान्त हो तो बाहरी प्रकृति रुष्ट नहीं होती वरन् संतुष्ट हो जाती है। कल सुना था कि व्यवस्था में लगे हुए डी.आई.जी., कलेक्टर और सभी प्रशासनिक अधिकारी वगैरह का कहना है कि रथ की फेरी के समय धूल न उड़े इसलिए पानी के सिंचन की व्यवस्था होनी चाहिए, वह हम करेंगे, तो प्रकृति ने स्वयं ही मेघों के माध्यम से रात्रि में मानो सिंचन ही कर दिया। आशय यही है कि प्रत्येक समस्या का समाधान संतोष, शान्ति, संयम और परिणामों की उज्ज्वलता से संभव है।

     

    आज महान् तीर्थकर, केवली, श्रुतकेवली या ऋद्धिधारी मुनि महाराज आदि तो नहीं है जिनके पुण्य से सारे कार्य सानंद सम्पन्न हो सकें पर सामूहिक पुण्य के माध्यम से आज भी धर्म के ऐसे महान् आयोजन सानंद सम्पन्न हो रहे हैं। यही धर्म का महात्म्य है। यही संयम की महिमा है। संयमी के साथ असंयमी भी संयमित होकर चले, वह बहुत कठिन होता है लेकिन आप सभी ने इस कठिनाई को भी बड़ी लगन से संयमित होकर पार कर लिया। यदि इस प्रकार आगे भी करते जायेंगे तो संयमी बनने में देर नहीं लगेगी। संयम से हमारा यहाँ तात्पर्य संयम की ओर रुचि होने से है जिसका उद्देश्य परम्परा से निर्वाण प्राप्त करना है।


    जो जीवन शेष है वह आप धार्मिक आयोजनों में व्यतीत करें और परस्पर उपकार और सहयोग के महत्व को समझे। जो जीव शान्ति और सुख चाहते हैं अपना उत्थान चाहते हैं उनके लिये यथोचित सामयिक सहयोग यदि आप करेंगे, उन्हें अपने समान मानकर, अपना मित्र समझकर उनका हित चाहेंगे तो परस्पर एक दूसरे का कल्याण होगा।


    सिगड़ी के ऊपर एक बर्तन रखा है उसमें दूध तपाने के लिये रखा गया है। नीचे आग जल रही है। दूध तप रहा है। तपता-तपता वह दूध मालिक की असावधानी के कारण ऊपर आने लगा। लगता है मानो वह कर्तव्यनिष्ठ व्यक्ति के पास रहना चाहता है और चूँकि उसका मालिक कर्तव्यनिष्ठ नहीं है, इसलिए उसे छोड़ना चाह रहा है या कहो कि जो उसे सता रहा है, पीड़ा दे रहा है, उस अग्नि को देखने के लिये बाहर आ रहा है और इतने में ही थोड़ी सी जल की धारा उसमें छोड़ दी गयी और वह दूध जो उबल रहा था, उफन रहा था, वह बिल्कुल शान्त हो गया।
     

    यह सोचने की बात है कि थोड़ी सी जल की धारा दूध की शान्ति के लिये कारण बन गयी। इसका रहस्य यही है कि दूध का मित्र जल है। जल के कारण ही दूध, दूध माना जाता है। यदि दूध में जल तत्व खो जाये तो उसे आप कहते हैं खोवा और खोवा की लोकप्रियता दूध के समान नहीं है। दूध को रस माना गया है। दूध बालक से लेकर वृद्ध सभी को प्रिय है और सभी के योग्य भी है। तो दूध में जो जल मिला है उसी से सभी उसको चाहते हैं। दूध की जल से यह मित्रता अनोखी है।


    विजातीय होकर भी दूध और जल में गहरी मित्रता है। दूध की दूध से मित्रता भले ही न हो लेकिन जल से तो हमेशा रहती है। गाय का दूध यदि अकौआ के दूध से मिल जाये तो फट जाता है। विकृत हो जाता है। दोनों की मैत्री कायम नहीं रह पाती। दूध का उपकारी इस प्रकार एक मात्र जल ही है। हमें सोचना चाहिए कि जब दूध और जल में मैत्री हो सकती है तो हम मनुष्यों में परस्पर मैत्री भाव, सहयोगी भाव नहीं रह सकता? रहना चाहिए।


    वर्तमान में विभिन्न प्रकार के यान तीव्रगति से अंतरिक्ष में प्रक्षेपित किये जाते हैं और वे पृथ्वी की गुरुत्वाकर्षण कक्षा से बाहर निकलकर अंतरिक्ष में प्रवेश कर लेते हैं। यह क्षमता पुद्गल के पास है। इसे हम विज्ञान की प्रगति और उन्नति मानते हैं तो क्या हम ऐसे धार्मिक आयोजनों के माध्यम से अपने जीवन की संवेगवान व संयमित करके अपने भावों को उज्ज्वल बनाकर के मोह की कक्षा से अपने आप को ऊपर नहीं उठा सकते। जो महान् आत्मायें अपने भावों की उज्ज्वलता और तपस्या के प्रभाव से अनंतकाल के लिये मोह की कक्षा से ऊपर उठ गयी हैं, उनका स्मरण अवश्य करना चाहिए और उन्हें अपना आदर्श मानकर अपने जीवन का कल्याण करना चाहिए। अंत में यही भावना करता हूँ कि-


    यही प्रार्थना वीर से अनुनय से कर जोड़।

    हरी भरी दिखती रहे धरती चारों ओर।


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    रतन लाल

      

    जो महान् आत्मायें अपने भावों की उज्ज्वलता और तपस्या के प्रभाव से अनंतकाल के लिये मोह की कक्षा से ऊपर उठ गयी हैं, उनका स्मरण अवश्य करना चाहिए और उन्हें अपना आदर्श मानकर अपने जीवन का कल्याण करना चाहिए।

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