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सोशल मीडिया / गुरु प्रभावना धर्म प्रभावना कार्यकर्ताओं से विशेष निवेदन ×
नंदीश्वर भक्ति प्रश्नोत्तरी प्रतियोगिता ×
मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज
  • सल्लेखना

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    सल्लेखना विषय पर संत शिरोमणि आचार्य विद्यासागर जी  के विचार

     

    1. सल्लेखना कराने वाले के लिए आचार्यश्री जी द्वारा प्रदत्त कुछ विशेष बिन्दु-१ धर्म प्रिय हो। २. सिद्धान्त दृढ़ हो। ३. संवेगवान् हो। ४.पाँच पापों से डरने वाला हो।५. धीरज रखने वाला हो। ६. सामने वाले का अभिप्राय समझता हो। ७. प्रत्यय के योग्य विश्वसनीय। ८. शास्त्र का जानकार भी हो इस प्रकार सल्लेखना कराने वाले को प्रशिक्षण दिया जाता है।
    2. चारित्र प्रिय हो यदि चारित्रमोह का तीव्र उदय है तो वह दृढ़ नहीं रह पाता। चारित्र में और असंयम का परिहार नहीं कर सकते।
    3. परीषह को सहन करने की क्षमता रखने वाला हो।
    4. परीषह से जो डर जाता है वह असंयम का परिहार नहीं कर पाता।
    5. अप्रासंगिकता छोड़कर चलने वाला हो, यह कट्टरता से छूटता है।
    6. योग्य-अयोग्य भोजन का ज्ञान रखता हो। इसमें कुशलता रखता हो।
    7. क्षपक के चित्त को संतुलित रखता हो।
    8. सल्लेखना के समय सिद्धान्त ग्रंथों का स्वाध्याय नहीं होता। वैराग्य पाठ आदि का स्वाध्याय होता है, क्योंकि सल्लेखना के समय पूरे संघ को विकल्प रहता है, इसलिए सल्लेखना के समय सिद्धान्त ग्रन्थों का स्वाध्याय नहीं होता।
    9. रोने वालों को वहाँ पर नहीं जाने देना चाहिए। ज्यादा वैय्यावृत्ति भी नहीं करना चाहिए। शब्दों के माध्यम से भी वैय्यावृत्ति कर सकते हैं।
    10. प्रमादी एवं असंयमी व्यक्ति को अंदर नहीं जाने दें। वहाँ पर कोई लिहाज नहीं रखना चाहिए।
    11. अभिमानी व्यक्ति को वहाँ पर नहीं रखना चाहिए। भाव प्रधान होता है समाधिमरण, इसलिए प्रशस्तता होना चाहिए।
    12. क्षपक का धर्मध्यान बढ़ता चला जाये ऐसे भाव रखने चाहिए।
    13. जो सल्लेखना व्रत ले रहे हैं, उस व्रत के प्रति हमेशा उत्साह होना चाहिए।
    14. सल्लेखना के लिए स्वयं को ही कमर कसना होगी, दूसरे के भरोसे नहीं ली जाती सल्लेखना।
    15. सल्लेखना के समय रोगी के अनुरूप नहीं, रोग के अनुरूप दवाई दी जाती हैं।
    16. आत्मा की सेवा होती है सल्लेखना में।
    17. एक बार भोजन करने वाला सल्लेखना में यशस्वी होता है दूसरी भुति तो होना ही नहीं चाहिए।
    18. सल्लेखना की साधना हर समय होनी चाहिए।
    19. मरण करना या काय सल्लेखना करना केवल सल्लेखना नहीं है इसमें पहले हमें कषाय की सल्लेखना कर लेना चाहिए फिर बाद में काय सल्लेखना होती है।
    20. सल्लेखना यदि आपको लेना है तो जिम्मेदारी वाले कार्य को पहले छोड़ना चाहिए।
    21. सल्लेखना के समय क्षपक जो दृढ़ होता है वो शरीर से कहता है मैं तेरे अधीन नहीं रहूँगा, मैं तो अपने संकल्प को क्षत्रिय के समान बनकर अपने संकल्प पर अडिग रहूँगा इसलिए तो कहा जाता है कि क्षत्रिय ही सल्लेखना कर सकता है।
    22. जब तक मस्तिष्क और शरीररूपी सम्पदा आपके पास विद्यमान रहती है, तब तक सल्लेखना की साधना करते रहना चाहिए।
    23. केवल भोजन का त्याग करना ही मात्र सल्लेखना नहीं इसके साथ-साथ किसी से राग-द्वेष नहीं रखेंगे।
    24. ध्यान में परिश्रम होता है, सल्लेखना/समाधि में परिश्रम नहीं होता। फल आ जाने पर सारे श्रम समाप्त हो जाते हैं, फूल आने तक श्रम है, तभी तक साधना है।
    25. इच्छा के बिना प्रत्येक समय निकलना ही सल्लेखना है।
    26. जीवन की सार्थकता व्रतियों की सल्लेखना में ही पूर्ण होती है और वह भी पूर्णरूप से निर्दोष हो कठिन से कठिनतम होती है।
    27. यदि सम्यक दृष्टि है और निर्दोष सल्लेखना करना चाहता है तो अपने अवशेष जीवन को अभी से उसमें लगा देना चाहिए।
    28. इधर उधर की बातें बंद करो और सल्लेखना की तैयारी में मन लगाओ।
    29. दो प्रकार की सल्लेखना है, काय सल्लेखना और कषाय सल्लेखना। काय सल्लेखना तो समय पर होगी लेकिन कषाय सल्लेखना करना अभी से अनिवार्य है। काय सल्लेखना तो सब करते हैं पर कषाय सल्लेखना नहीं करते हैं।
    30. यदि कषाय सल्लेखना नहीं है, बाकी सब है तो उसे हम सल्लेखना नहीं कह सकते। कषाय सल्लेखना हो जायेगी तो रागद्वेष रह नहीं पायेगा। जो इसमें सफल होता है उसे अन्य निर्देश देने की आवश्यकता नहीं है।
    31. जो कषाय सल्लेखना नहीं करेगा उसका अकल्याण होगा, कल्याण नहीं होगा। आज तक ऊपर-ऊपर बर्तन माँजा है, अब भीतर भी माँज लो।
    32. कषाय सल्लेखना पल जाये तो हम मान जायेंगे कि ये अपना कल्याण कर सकता है। इस सल्लेखना में ज्यादा नंबर कौन लेता है हम ये भी देखेंगे।
    33. माया सल्लेखना कैसे करें? माया कषाय की सल्लेखना करने के लिए माया को ढूंढी। माया कषाय जैसे कब दिखना चाहता है, कब छुपना चाहता है। मान लो झूठ बोल रहे हैं कि नहीं, बोले तो कितनी बार बोले झूठ? मन,वचन, काय की अपेक्षा से स्वयं की अपेक्षा से दूसरों की अपेक्षा से कितनी बार झूठ बोलें? ये बार-बार देखें। देखना है तो दूसरों की अच्छाई देखो फिर अपने में लाओ।
    34. चारित्रशुद्धि का नाम ही कषाय सल्लेखना है।
    35. पूज्यश्री गुणभद्राचार्य ने लिखा है-कि यदि बाह्य तप नहीं करता, घोर-घोर तप नहीं करता संहनन नहीं है तो कोई बात नहीं परन्तु यदि कषाय सल्लेखना नहीं करते तो ये कायरता है।
    36. जड़ काय की सल्लेखना की अपेक्षा कषाय सल्लेखना कर ली। शरीर की सल्लेखना कोई सल्लेखना ही नहीं है। सल्लेखना उसी का नाम है जब कभी भी आ जाये तैयार रहना चाहिए शर्त नहीं रखना। सल्लेखना के लिए हमेशा सतर्क रहना चाहिए।
    37. सौम्य भावों वाला ही सल्लेखना कर सकता है। लाखों रुपयों का मंदिर बनाकर फिर कलशारोहण कराना जितना महत्वपूर्ण है उतना ही महत्व सल्लेखना का है।
    38. कषाय सल्लेखना करो। कषाय सल्लेखना करोगे तो अन्त में काय सल्लेखना भी अच्छी तरह हो जायेगी।
    39. भीतर से कषाय सल्लेखना का भाव हमेशा रखना चाहिए।
    40. जिस समय कषाय की संभावना हो उस समय कषाय नहीं करना कषाय सल्लेखना है।
    41. कषाय सल्लेखना के साथ उपवास करना। जिससे कर्म निर्जरा होती है।
    42. कषाय सल्लेखना इस सूत्र को याद रखोगे तो आपको इससे आत्मसंतोष भी होगा।
    43. हर्ष और विषाद जो होते है उसका लेखन किया जाता है क्रश किया जाता है, उसका नाम सल्लेखना है।
    44. कषाय सल्लेखना करने से ही सही साधक नजर आने लगेंगे। बाहरी चर्या के माध्यम से भीतरी स्रोत खुलते हैं, खुले ये जरूरी नहीं। उपवास मात्र करना कषाय सल्लेखना नहीं है।
    45. सल्लेखना की ओर किसी का भी ध्यान नहीं है। अनुभव की कमी है कि इसकी ओर दृष्टि ही नहीं है जबकि सबसे महत्वपूर्ण बिन्दु यही है। जीवन का सार है, निखार है यह सल्लेखना।
    46. जिसने कषाय सल्लेखना कर ली उसके लिए शरीर सल्लेखना कोई चीज नहीं है। सल्लेखना के लिए हमेशा तत्पर रहना चाहिए।
    47. जो यहाँ एक-एक समय में कषाय सल्लेखना करेगा वही अंतिम समय में करेगा।
    48. सल्लेखना उसी की अच्छी होती है जो आहार, जल आदि की मात्रा के बारे में समझता है। सल्लेखना के समय सुनियोजित एवं सुव्यवस्थित चर्या होनी चाहिए।
    49. किसी भी प्रकार की चाह से रहित होकर समता रखने का नाम समाधि है।
    50. व्रत लेते ही सल्लेखना शुरू हो जाती है, कभी भी परीक्षा हो सकती है।
    51. सल्लेखना की तैयारी करो ऐसा कहना ही न पड़े, व्रतों का सार है सल्लेखना। तपने से ही उज्ज्वलता आती है।
    52. बारह व्रत फूल के समान हैं, सल्लेखना फल है।
    53. सल्लेखना नहीं हो पायी तो जीवन की साधना अधूरी मानी जाती है।
    54. कषाय सल्लेखना की जी नहीं करता उसी को काय के प्रति मोह हो जाता है।
    55. धर्म स्वाश्रित होता है जब स्वयं से व्रत पालन नहीं हो रहा हो तो पर के माध्यम से कहाँ तक पालन करोगे? सल्लेखना लेनी होती है। धर्म के लिए शरीर को छोड़ना सल्लेखना है।
    56. यदि जल्दी सल्लेखना लेता है तो असंयम का समर्थन हो जावेगा क्योंकि जल्दी मरण हो जावेगा तो देवी (असंयम) में उत्पन्न होगा।
    57. जो व्यक्ति जीवन को वर्गीकृत नहीं करता वह सल्लेखना तक नहीं पहुँच सकता।
    58. जन्म के बाद भोजन करना सिखाया जाता है और मरण के अन्त समय में भोजन छुड़वाया जाता है।
    59. मृत्यु जीवन का अंत नहीं। मृत्यु की मृत्यु ही वास्तव में जीवन है।
    60. समाधि तो उस दशा का नाम है जो हम आधि, व्याधि और उपाधि से मुक्त होते हैं।
    61. जो अतीत और अनागत को भूल जाता है वह निर्विकल्प समाधि वाला होता है। अतीत और अनागत से ऊपर उठने वाले के दर्शन बहुत कम होते हैं।
    62. जो कक्षा में है उसे परीक्षा को नहीं भूलना चाहिए। उसी प्रकार जो व्रती बन जाये और सल्लेखना से डर जाये तो यह ठीक नहीं है।
    63. अंतिम समय में दो प्रकार की सल्लेखना करना होता है कषाय और काय, शरीर के प्रति मोह नहीं रखना कषाय सल्लेखना है और जब शरीर कार्य नहीं करे तो उसे आहार पानी देना कम कर देना काय सल्लेखना है।
    64. सल्लेखना दी नहीं जाती है बुद्धिपूर्वक ली जाती है।
    65. काय और कषाय के कारणों का सम्यक्र प्रकार से लेखन करना, कृश करना सल्लेखना है।
    66. सल्लेखना के माध्यम से अनंत संसार को कम से कम तीन भवों में बदल सकते हैं यह सल्लेखना की महत्ता है।
    67. सल्लेखना के समय छटपटाहट से नहीं डरना चाहिए, असंयम से डरना चाहिए।
    68. सात शील घर में रहकर भी पल सकते हैं, पर सल्लेखना के समय घर त्याग आवश्यक है।
    69. समाधि मरण जीवन की सफलता की कसौटी है।
    70. हर्ष विषाद से परे आत्म सत्ता की सतत अनुभूति ही सच्ची समाधि है।
    71. आदर्श मृत्यु को साधु समाधि कहते हैं। साधु का दूसरा अर्थ सजन से है। ऐसे आदर्श मरण को यदि हम एक बार भी प्राप्त करेंगे तो हमारा उद्धार हो सकता है।
    72. समाधि तभी होगी जब हमें अपनी सत्ता की शाश्वतता का भान हो जायेगा।
    73. साधु समाधि वही है जिसमें मौत को मौत के रूप में नहीं देखा जाता और जन्म को भी अपनी आत्मा का जन्म नहीं माना जाता। जहाँ न सुख का विकल्प है और न दु:ख का।
    74. सल्लेखना दिखाने की नहीं करने की होती है।
    75. जिसकी उम्र है वो उम्र अवश्य समाप्त हो जाती है।
    76. जिसकी एज है उसकी इमेज अवश्य खराब हो जाती है।
    77. पुण्य के द्वारा रोग टल सकता है लेकिन मरण नहीं टल सकता है परन्तु मरण को टालने के लिए कोई भी इसके पास साधन नहीं है।
    78. काया से चिर परिचित सम्बन्ध बना लिया, मुँह मोड़ना मुश्किल है किन्तु छोड़ना अवश्य है, न चाहते हुए भी छोड़ना होगा।
    79. अनंत बार मरण का वरण करने के उपरांत भी मृत्यु से भयभीत है नाम सुनते ही रोंगटे खड़े हो जाते हैं, थर-थर कांपने लगते हैं, असंख्य बार मरण प्राप्त किया उसी से डर रहे हैं, कुछ समझ में नहीं आता।
    80. समाधि मरण का संकल्पी साहसी होता है, संकल्पपूर्वक सुनिश्चित घटना का निश्चिंतता के साथ सामना करता है।
    81. समाधि के लिए दया, दम और त्याग को अपनाना होगा। इसके बिना कोई सीधा और छोटा रास्ता नहीं है। यदि इसके बिना समाधि प्राप्त करने के लिए कोई शार्टकट ढूँढ़ने जाओगे तो समाधि के बदले आधि-व्याधियों में ही उलझ जाओगे।
    82. समाधि कोई हाथ में लाकर रख देने की चीज नहीं है वह तो साधना के द्वारा ही मिल सकती है।
    83. जितना दया का पालन करेंगे, उतना ही समाधि के निकट पहुँचते जायेंगे समाधि के द्वार पर लगे तालों को खोलने के लिए इन्हीं चाबियों की जरूरत है।
    84. सल्लेखना के समय पर जिस व्यक्ति के मुख से अरिहंत भगवान् का नाम निकलता है वह बहुत ही भाग्यशाली है।
    85. जिसके मुख से अरिहंत नाम भी नहीं निकलता है, उसका तो कर्म ही फूट गया, खोटा कर्म है।
    86. महान् बड़भागी होते हैं वे जो जीवनपर्यत उपाध्याय परमेष्ठी का काम करते हैं और अंत में भी णमोकारमंत्र दूसरों को सुनाते जाते हैं बहुत भाग्य की बात है यह।
    87. अरिहंत, सिद्ध मुख से नहीं निकलता किन्तु कहते हैं हायरे जल ले आओ, भीतर तो सभी कुछ जला जा रहा है।
    88. जीवन भर समयसार भी पढो गोम्मटसार भी रटलो, प्रवचनसारके प्रवचन भी करलो, लेकिन जब अन्त समय प्राण पखेरू उड़ने लग जाते हैं तो अरिहंत कहते नहीं पाये जाते, ऐसे भी कई उदाहरण हैं।
    89. भय के साथ यदि मरण करेंगे तो पुन: जन्म होगा और दु:ख उठाना पड़ेगा इसलिए ये मरण का भय छोड़ देना चाहिए।
    90. भयों में मरण का भय ही सबसे बड़ा भय माना जाता है।

    Edited by admin


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