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नव आचार्य श्री समय सागर जी को करें भावंजली अर्पित ×
अंतरराष्ट्रीय मूकमाटी प्रश्न प्रतियोगिता 1 से 5 जून 2024 ×
मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज
  • प्रवचनिका 1 - प्रारम्भ

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    दरबार में आसीन है चक्रवर्ती सिंहासन के ऊपर, प्रसन्न मुद्रा में आसीन एक सेवक आनंद विभोर होता हुआ नतमस्तक होकर कहता है कि प्रभो! आपका पुण्य अतुलनीय है, आप महान् भाग्यशाली हैं और हम भी भाग्यशाली हैं कि आप जैसे भाग्यशाली पुण्य का उपभोग करने वाली आत्मा को देखने का सौभाग्य प्राप्त हुआ है। तब चक्रवर्ती पूछता है कि बताओ आखिर बात क्या है? ऐसी कौन सी घटना घट गयी, तो सेवक कहता है कि आपको काम-पुरुषार्थ के उपरान्त वह सफलता प्राप्त हुई है कि आपको पुत्र-रत्न की प्राप्ति हुई है। आप आदेश दीजिये कि हम उत्सव मना सकें। क्षणभर व्यतीत हुआ कि दूसरा सेवक उससे भी ज्यादा प्रशंसा के साथ गद्गद् होता हुआ आकर कहता है कि यह तो महलों के भीतर की बात हो गयी। हम तो बताने आये हैं कि आपका यश, आपकी कीर्ति, आपकी ख्याति सब ओर फैलने वाली है।


    आयुध शाला में अर्थ पुरुषार्थ के फलस्वरूप आपको चक्ररत्न की प्राप्ति हुई है। अब आप चक्रेश हो गये, नरेश हो गये। अभी तक सुनते थे हम कि ३२ हजार मुकुट बद्ध राजा जिनके चरणों में आकर अभिवादन करते हैं, वह चक्रवर्ती कहलाते हैं। आप ऐसे ही चक्रवर्ती हो गये।


    और अगले ही क्षण भागता-भागता हुआ एक सेवक आ जाता है कि क्या बतायें, हम शास्त्रों में पढ़ते थे, सुनते थे और भगवान् से प्रार्थना करते थे कि आँखें उस दृश्य को साक्षात् देखकर कब पवित्र होंगी। साक्षात् दिव्यध्वनि सुनकर कान कब पवित्र होंगे। आप भाग्यशाली हैं कि आपके जीवनकाल में ऐसा महोत्सव देखने को मिल रहा है। मुक्ति मानो साक्षात् आकर खड़ी हो गयी है। आदिनाथ भगवान् को केवल ज्ञान प्राप्त हो गया है। (तालियां)


    आप तालियाँ बजाकर हर्ष प्रकट कर रहे हैं। ठीक भी है। एक भव्यात्मा को केवल ज्ञान प्राप्त हो जाता है तो उसके प्रकाश में सारा अंधकार भी अंतर्धान हो जाता है और चलने का मार्ग प्रशस्त हो जाता है। अभी तक तो उस प्रकाश की बात सुनी थी, आज तो प्रकाश में स्नपित होने का अवसर आया है। केवल ज्ञान से विभूषित होकर अब आपके पिता (व्यवहार की अपेक्षा कह रहा हूँ) जगत् पिता हो गये हैं। आदिम तीर्थकर, तीर्थ के संचालक हो गये हैं।


    इतना सुनते ही, उसी समय चक्रवर्ती ने कहा कि चलो सपरिवार धूमधाम से भगवान् के समवसरण में चलेंगे और शेष काम तो बाद में होते रहेंगे। अभी न हुकूमत की ओर दृष्टि है, न संतान की ओर दृष्टि है, अभी तो ज्ञानगुण जो हमारा है, उसकी एक संतान को शुद्ध पर्याय जो अभी तक प्राप्त नहीं हुई वही वास्तविक संतान है जो दुनियाँ को प्रकाशित करेगी। उसी का दर्शन करेंगे।


    तज्जयति परं ज्योतिः, समं समस्तैरनन्तपर्यायैः |

    दर्पणतल इव सकला, प्रतिफलति पदार्थमालिका यत्र ||

    (पुरुषार्थसिद्धियुपाय) वह कैवल्य ज्योति जयवन्त हो जिसमें दर्पण के समान सभी पदार्थ अपने अनंत पर्यायों सहित प्रतिबिम्बित होते हैं।
    सम्यकद्रष्टि को अपनी संतान की इतनी चिन्ता नहीं रहती, अपने धन के बारे में भी कोई चिन्ता नहीं रहती और हुकूमत चलाने में भी विशेष उल्लास नहीं होता। सम्यकद्रष्टि को अपनी आत्मा के बारे में सुनने का उल्लास अधिक होता है। यह अपेक्षाकृत बात कह रहा हूँ और सभी बातों की अपेक्षा अधिक उल्लास तो धर्म की बात का ही होता है, चक्रवर्ती सोचता है कि हमें अभी केवलज्ञान नहीं हुआ, कोई बात नहीं लेकिन वृषभनाथ को केवलज्ञान प्राप्त हुआ, वहाँ समवसरण की रचना होगी और हमें अपने भविष्य के बारे में अपने धर्म के बारे में, अपनी आत्मा के बारे में सुनने का अवसर मिलेगा। यह घड़ी धन्य है और वह सभी बातों को गौण करके केवल ज्ञान की पूजा करने चला जाता है।


    वह अपना द्रव्य, अपना तन-मन-धन सभी कुछ लगा देता है और पूजा करके अपने आप को कृतकृत्य अनुभव करता है। धन्य है यह अवसर। आप दुनियाँ की बातें करते हो, आत्मा की बात करनी चाहिए। आप दूसरे की बात करते हो, अपनी बात करनी चाहिए और अपनी भी मात्र ऊपर-ऊपर की नहीं, भीतरी बात करनी चाहिए। आनंद बाहर नहीं, भीतर है। आँख के अभाव में, ज्ञान के अभाव में भीतरी दृश्य का अवलोकन नहीं हो पा रहा। आत्मा का वैभव इस भव में रचेपचे होने के कारण लुटा हुआ है।


    दर्पण बहुत उज्वल है, बहुत साफ है, ठीक है, लेकिन अपना मुख, उसमें जो प्रतिबिम्बित हुआ है, उसका भी उज्वल होना महत्वपूर्ण पहले है, दर्पण की धूल हम हटाते हैं, साफ करते हैं, उज्वल बनाते हैं इसलिए कि अपना मुख देख सकें। अपने आप को देखना मुख्य उद्देश्य है। दर्पण सहायक है। इसी प्रकार परमात्म पद को हमें प्राप्त करना है तो जिसे केवल ज्ञान प्राप्त हो गया, उसकी वाणी को श्रवण करके धर्मामृत का पान करके हमें अपनी ओर आना है। हमें अपनी ओर यात्रा की दिशा मोड़ लेनी है जो बाहर हम भाग रहे हैं वह भीतर की ओर आना प्रारंभ हो जाये, तो सौभाग्य है।


    युग के आदि में वृषभनाथ भगवान् को केवलज्ञान उत्पन्न हुआ तो समवसरण की रचना हुई। भरत चक्रवर्ती को उनकी पूजा करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ था और प्रथम श्रोता-श्रावक के रूप में हजारों प्रश्न करके उन्होंने अपनी भीतरी जिज्ञासा शान्त की। आप बाहरी बात पूछते हैं। भविष्य की बात पूछ लेते हैं लेकिन चक्रवर्ती ने आत्मतत्व की गहराई की बात पूछी। जो चक्रवर्ती अभी रागी है, वीतरागी नहीं है। गृहस्थ है, संन्यासी नहीं है। असंयमी है, संयमी नहीं है लेकिन संयम की ओर संयम की गंध का आस्वादन करने के लिये भ्रमरवत् अपनी वृत्ति रखने वाला है। रागद्वेष में कमी करता हुआ आत्मा के रहस्य को सुनने का भाव रखने वाला है। यही विशेषता स्वभाव की ओर दृष्टि रखने वाले प्रत्येक मुमुक्षु की होनी चाहिए।


    बंधुओ! आज ध्वजारोहण का कार्य संपन्न हुआ है। जो अभी पंचकल्याणक होंगे, आज उसकी भूमिका बन रही है। युग के आदि में कैसे कैसे यह पंचकल्याणक की घटना घटित हुई होगी, उसको आज से एक-एक दिन उसी रूप में चित्रित किया जायेगा। इसका मूल उद्देश्य यही है कि हम निमोंही बनें। हम वीतरागी बनें। हम असंयम से संयम की ओर चलें और संयम के बल पर अपने भीतर बैठी हुई मोह की सत्ता पर प्रहार करते चले जायें। हमें मोहाविष्ट नहीं होना किन्तु मोह को वश में करना है। मन के काबू में नहीं रहना, मन को अपने काबू में रखना है। इन्द्रियों में वशीभूत नहीं होना, इन्द्रियों को अपने वश में रखना है। यह सब हमारे आधीन है।


    यह सब हमारे साधन हैं और हम अपने साध्य स्वयं हैं। इस श्रद्धान के साथ हमें आगे बढ़ना चाहिए। धन्य है वह चक्रवर्ती का जीवन, जिनकी दृष्टि कितनी पैनी होगी कि अर्थ की ओर नहीं गये। काम के फल की ओर नहीं गये किन्तु एकमात्र केवलज्ञान से प्रकाशित सूर्य के दर्शन के लिये गये। यह चित्रण (उदाहरण) आप अपने सामने रखकर देखिये। आप कितने सांसारिक प्रलोभन से ग्रसित हैं। आप कितने संसार के लोभों से आकृष्ट हैं। आप कितने विषयों की ओर झुके हुए हैं। एक बात और ध्यान में लाइये कि छियानवे हजार रानियाँ जिनके साथ हैं, जिनके हजारों पुत्र और अपार सम्पदा, हाथी, घोड़े, नव निधियाँ और चौदह रत्न हैं। बत्तीस हजार मुकुट बद्ध राजा और स्वर्ग से नीचे उतरकर आया हुआ दिव्य वैभव, जिनके चरणों में पड़ा है। जिन्हें आदि तीर्थकर के आदि पुत्र होने का गौरव प्राप्त है लेकिन जब भीतरी बात आती है तो ऐसा लगता है कि किस कोने में बैठा हुआ है वह आत्मन् और वहाँ से पूछ रहा है कि तेरा वैभव क्या है? तेरा स्वभाव क्या है? तेरा वास्तविक रूप और लावण्य क्या है? और तू पर के ऊपर क्यों इतना मुग्ध हुआ है? ऐसा विचार आते ही कभी-कभी विस्मय हो जाता है। कभी-कभी खेद खिन्नता भी आ जाती है और कभी-कभी स्वभाव की ओर दृष्टिपात होने से यह सब बाहरी तरंगें हैं, लहरे हैं, ऐसा मालूम पड़ने लगता है।


    स्वभाव तो यथावत चल रहा है अनादि अनिधन। थोड़ा हवा का झोंका आ जाता है जो ध्वजा लहरदार हो जाती है। वस्तुत: ध्वजा लहरदार नहीं है। इसी प्रकार मोह का प्रवाह चलता है, झोंका आ जाता है तो संसारी आत्मा में, मैं सुखी हूँ, मैं दुखी हूँ, मैं राजा हूँ, मैं बड़ा हूँ, या मैं छोटा हूँ, आदि आदि अनेक लहरें, संकल्प-विकल्प उत्पन्न हो जाते हैं और जैसे ही तत्वज्ञान की भूमिका में अपने आपके स्वरूप पर दृष्टिपात कर लेते हैं तो वहाँ सरोवर तो सरोवर है, ध्वजा तो ध्वजा है, सब एकदम शान्त, निर्मल और निस्तरंग।


    स्वभावनिष्ठ वह भगवान् हमारे सामने हैं। उनमें आप स्वयं को देखें, वहाँ तरंगें नहीं है, मात्र अंतरंग हैं, शान्त स्तब्ध एकमात्र स्वभाव का साम्राज्य फैला है। जो अथाह अगम्य है। और वही स्वरूप की दृष्टि से देखा जाये तो हमारे पास भी विद्यमान है। उसे देखने की आवश्यकता है, उस पर श्रद्धान करके उसे प्राप्त करने की आवश्यकता है। भरत चक्रवर्ती सम्यग्दृष्टि हैं इसलिए उनके जीवन में इतनी गंभीरता और इतनी सादगी है जो अपार वैभव मिलने के उपरान्त भी कायम है।


    थोड़ा सा वैभव मिल जाता है तो वही बात होती है कि अध-जल गगरी छलकत जात या कहो उछलत जात। आधा भरा कुम्भ हो तो छलकता जाता है ओर वही जब भरपूर हो जाता है तो कुछ बोलता नहीं। स्वभाव-निष्ठ हो जाता है। आवाज निकलने से अर्थात् व्याख्यान देने मात्र से स्वरूप का भान होता है यह गलत धारणा है। धारणा तो यह होनी चाहिए कि भरपूर होने के उपरांत ही स्वरूप का व्याख्यान प्रारंभ हो जाता है। स्वभाव हमेशा उमड़ता रहता है। उसे सप्रयास लाने की आवश्यकता नहीं पड़ती।


    जब सम्यकद्रष्टि धर्मात्मा, भगवान् के स्वरूप को जानने वाला मुमुक्षु इस स्वभाव को परिचय में लाता है। प्रभु के दर्शन से या इस प्रकार के धार्मिक आयोजनों के माध्यम से, तब उसे लगता है कि मेरे भीतर भी यही एकमात्र मानसरोवर है जिसमें अनन्तता छिपी हुई है और वह अपने इस शांत स्वभाव में ठहर जाता है किसी भी प्रकार की आकुलता नहीं होती, और इस प्रकार जितना-जितना अपने भीतर जाने का उपक्रम, प्रयास चलता है, उतनी-उतनी शांति मिलनी प्रारंभ हो जाती है। आप जितने सतह की ओर, बाहर की ओर आयेंगे उतनी ही आपको आकुलता सताने लगेगी। इन बाह्य आयोजनों के माध्यम से अंतर्मुखी दृष्टि आ जाये, यही उपलब्धि है।


    दृष्टि के ऊपर ही हमारे भाव निर्भर हैं। जैसी हम दृष्टि बनाते हैं वैसा ही भावों के ऊपर प्रभाव पड़ता है। जैसे-जैसे अंतर्दूष्टि होती जाती है भाव भी अपने आप शांत होते चले जाते हैं। उबलता, ऊफनता हुआ दूध हानिकारक है, लेकिन तपने के उपरांत वही जब स्वस्थ/शांत हो जाता है तो लाभप्रद हो जाता है। आज विश्व में कषायों की तपन और उद्वेग बढ़ता जा रहा है। एक व्यक्ति के जीवन में बढ़ता हुआ कषाय का उद्वेग विश्व में प्रलय लाने में कारण बन सकता है। वहीं यदि एक व्यक्ति का मन मानसरोवर की तरह शांत और निर्मल हो तो उसके तटों पर बहुत दूर-दूर से आये भव्य जन रूपी हंस बैठकर शांति का अनुभव कर सकते हैं। एक ही शांति अनेक में क्षोभ को शांत करने के लिये पर्याप्त है और एक का क्षोभ अनेक की शांति को भंग करने में निमित्त बन सकता है। इसलिए बंधुओ! स्वभाव की ओर दृष्टि लानी चाहिए जिससे भावों में शांति आये।


    जिसके जीवन में स्वभाव से अभी परिचय नहीं हुआ है, उसी के जीवन में आकुलता होती है। एक हाथी उन्मत्त हो जाये, स्वभाव से च्युत हो जाये तो उसके सामने खड़े होना संभव नहीं है, लेकिन जब वह अपने आप में शांत हो जाता है और अपनी मंद चाल से चलने लगता है तो बालक और बूढ़े सभी उसके सामने नृत्य करने लग जाते हैं। उस पर बैठ भी जाते हैं। स्वस्थ ओर उन्मत्त हाथी-यह दोनों कषायों के उपशमन और उद्वेग के प्रतीक हैं। जो स्वभाव से अपरिचित है, वह प्रलय में कारण बनता है और जो स्वभाव में लीन है तो उस लय में अनंत जीव अपना कल्याण कर लेते हैं।

     

    धर्म का प्रवाह आज का नहीं, जब से संसार है तब से अबाध चल रहा है। पूरे के पूरे संसार का कल्याण हो, ऐसी भावना भायी जाये तो आज भी ऐसी लहर उत्पन्न हो सकती है जो हमारे कल्याण में निमित्त बन सकती है। सर्व कल्याण की पवित्र भावना भाने वाले, वे आर्य, वे सत्पुरुष, वे महामानव युग के आदि में ऐसे कार्य कर गये, जो आज भी लोगों के लिये आदर्श बने हुए हैं। आदर्श का एक अर्थ दर्पण भी होता है। दर्पण में देखकर, आदर्श (भगवान) के दर्शन करके हमें ज्ञात हो जाता है कि हमारा कर्तव्य क्या है? हमारा स्वभाव क्या है? हमारे प्रभु कौन हैं? और हमारे लिये उन्होंने क्या संदेश दिया है। इतना यदि हम समझ लें तो जीवन कृतकृत्य हो जायेगा।


    आज इस पंचमकाल में भी कृतकृत्यता का अनुभव कर सकते हैं क्योंकि अलौकिक कार्य की शुरूआत में भी तृप्ति का अनुभव होता है। आम जब पक जाते हैं तो रस निकालते हैं, पीते हैं, तृप्ति मिलती है। यह तो ठीक है, लेकिन जिसे आप गदरे आम बोलते हैं उनका अपने आप में अलग स्वाद होता है। खटमिट्ठा भले ही रहता है पर वह भी तृप्तिकर लगता है। इसी प्रकार तृप्ति का अनुभव मुक्ति में तो यह आत्मा करेगी ही, लेकिन जिस समय वह सम्यक्र श्रद्धान के साथ मोक्षमार्ग पर अपने कदम रखता है उस समय मार्ग में भी उसे अलग आनंद और तृप्ति का अनुभव होता है।


    जैसे घर में भोजन करो और वन में जाकर पिकनिक में भोजन करो तो उसका अलग आनंद आता है। भूख नहीं भी लगी हो तो खाने का मन हो जाता है। यह क्यों होता है? क्योंकि वातावरण चेज होने से भावों में भी अन्तर आ जाता है। इसी प्रकार जिन्हें केवलज्ञान हो गया हो उसकी छाँव में जाकर उनके प्रवचन सुनने और दर्शन करने से जो एक तृप्ति का अनुभव होता है वह भी अपने आप में अलौकिक है।


    बंधुओ! नदी/सरिताएँ सागर से मिलने को आतुर हो जाती हैं लेकिन बात ऐसी है कि सागर भी मिलने को आतुर था आज। अभी-अभी हमने देखा था। सागर तटस्थ नहीं था, बह रहा था। बहता हुआ सागर कौन सा है यहाँ, और कहाँ जाकर मिलना चाहता है? यह निश्चित है कि सागर यदि बहता है तो वह मीठा हो जाता है। यदि तटस्थ रहता है तो प्रसिद्ध है कि खारा तो वह है ही। बहता हुआ सागर यही है कि सारा सागर-नगर धर्म की ओर बह रहा है। धर्मामृत को पीने के लिये आतुर है। यही तो वे क्षण हैं जब आबालवृद्ध हर्षित होकर उसमें डूब जाते हैं। यह क्षण बहुत दुर्लभ होते हैं। यह पैसे खर्च करने से नहीं, किसी व्यक्ति विशेष को आमंत्रित करने से नहीं, कोई मेवामिष्ठान्न खाने से भी नहीं किन्तु भावों की निर्मलता से आते हैं।


    जब आप अपने आपको/अपने अहंकार को भूल जाते हैं और मात्र आदर्श सामने रह जाता है और उसी में लीनता आ जाती है तो सभी का मन उल्लास से नाचने लग जाता है। युवकों और बालकों के साथ वृद्ध भी झूमने लगते हैं। दादाजी के पैर भी नाती के साथ नृत्य के लिए उठ जाते जाती है। धर्म में लीनता जब आती है तो दीनता-हीनता चली जाती है। अभी विषयों में आपकी लीनता है इसलिए आप दीनहीन बनते जा रहे हैं। अहंकारी बनते जा रहे हैं।


    जब हम देखते हैं उस अपार को और विराट की ओर दृष्टिपात करते हैं तब अपने आप की लघुता हमें प्रतीत हो जाती है। जब सागर में मिलने के लिये बड़ी गंगा, सिंधु, ब्रह्मपुत्र जैसी नदियाँ जिनमें बड़े-बड़े जहाज चलते हैं, मिलने के लिये आ जाती हैं। उस समय अपने आपको देखती हैं तो बहुत पतली, बहुत छोटी, नहीं के बराबर मालूम पड़ती हैं। असारता का दर्शन इसी प्रकार हमें भी करना है।


    इस असारता के माध्यम से ही हम पार पा जायेंगे। हमारी लघुता समाप्त जो जायेगी उस विराटता में। धन्य हैं वे प्रभु जिन्होंने हमारे अधूरे/अपूर्ण व्यक्तित्व को पूर्ण होने का संदेश दे दिया। उनका दिया उजाला हम लोगों के लिये पथ प्रदर्शक बन गया।


    अंत में इतना ही कहना चाहूँगा कि चक्रवर्ती के समान भावना हमारे/आप लोगों के जीवन में भी आये। आज जो स्थिति है वह कर्म के उदय में है, उसमें रचे-पचे नहीं, यथावत उसको देखने का प्रयास करें। पुरुषार्थ अधिक से अधिक आप करें। अर्थ के क्षेत्र में, काम पुरुषार्थ के क्षेत्र में ही नहीं बल्कि धर्म और मोक्ष पुरुषार्थ को अपने सामने रखकर पुरुषार्थशील बने। जिस महान् पुरुषार्थ के फलस्वरूप वृषभनाथ भगवान् को केवलज्ञान प्राप्त हुआ उसी प्रकार जीवन में भी वह शुभ घड़ी आयेगी, ऐसा सत्-पुरुषार्थ हम करें जिसके द्वारा कैवल्य की उपलब्धि हो। धर्म की ध्वजा फहराती रहे।


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