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नव आचार्य श्री समय सागर जी को करें भावंजली अर्पित ×
मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज
  • प्रवचन पर्व 11 - उत्तम ब्रह्मचर्य

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    सव्वंगं पेच्छंतो, इत्थीण तासु मुयादि दुब्भावं | 

    तो बम्हचेरभावं, सुक्करि खलु दुद्धरं धरदि || 

    जो पुण्यात्मा स्त्रियों के सुन्दर अंगों को देखकर भी उनमें रागरूप बुरे परिणाम करना छोड़ देता है वही दुर्द्धर ब्रह्मचर्य को धारण करता है। मनोज और मनोरमा अर्थात् ‘कामदेव' और उसकी संगी-साथी ‘रति' दोनों घूमने जा रहे थे। कामदेव अपना प्रभुत्व दिखाने के लिए रति से कहता है कि मेरा कितना प्रभाव है कि तीन-लोक को मैंने अपने वश में करके रखा है और रति भी उसकी हाँ में हाँ मिलाती जा रही थी कि अचानक सामने बैठे दिगम्बर- मुनि पर दृष्टि पड़ते ही रति ने कामदेव से पूछ लिया-हे नाथ! यह यहाँ कौन बैठा है ? कामदेव की उस ओर दृष्टि पड़ते ही रति ने कामदेव से पूछ लिया- हे नाथ ! यह यहाँ कौन बैठा है? कामदेव की उस ओर दृष्टि पड़ते ही वह निष्प्रभ हो गया। रति चकित होकर पूछने लगी कि नाथ! क्या बात हो गई? आप अभी तक सतेज थे, अब आपका सारा तेज कहाँ चला गया? मन्दी क्यों आ गयी? तब कामदेव उदास भाव से बोला कि क्या बताऊँ? हमने बहुत प्रयास किया, सभी प्रकार की नीति अपनायी लेकिन यही एक पुरुष ऐसा देखा जिस पर मेरा वश नहीं चला। पता नहीं इसका मन कैसा है? इसका प्रभुत्व कैसा है? इसमें ऐसा क्या प्रभाव है कि यह मेरे प्रभाव में नहीं आया?
     


    आखिर यह कौन सी शक्ति है जो काम वासना को भी अपने वश में कर लेती है। बड़े-बड़े पहलवान कहलाने वाले भी जिस काम वासना के आगे घुटने टेक देते हैं, वही काम इस व्यक्ति की शक्ति के सामने घुटने टेक रहा है।


    अन्तक: क्रन्दको नृणां, जन्मज्वरसखा सदा।

    त्वामन्तकान्तकं प्राप्य,व्यावृत्तः कामकारतः॥८॥

    अरनाथ भगवान् की स्तुति करते हुए समन्तभद्र आचार्य कहते हैं कि हे भगवन्! पुनर्जन्म और ज्वर आदि व्याधियों का साथी और हमेशा मनुष्यों को रुलाने वाला मृत्यु का देवता यम भी मृत्यु का नाश करने वाले आपको पाकर अपनी प्रवृत्ति ही भूल गया अर्थात् आपके ऊपर यम का कोई प्रभाव नहीं पड़ रहा है। आपकी इस वीतराग शक्ति के सामने आकर सभी नतमस्तक हो जाते हैं और अन्त में रति के साथ कामदेव भी उन वीतरागी के चरणों में नतमस्तक हो गया। ठीक भी है।


    चित्रं किमत्र यदि ते त्रिदशाङ्ग –

    नाभिर्नीतं मनागपि मनो न विकार –मार्गम् ।

    कल्पान्त -काल - मरुता चलिताचलेन,

    किं मन्दराद्रि-शिखरं चलितं कदाचित्॥१५॥

    आचार्य मानतुंग महाराज ने भक्तामर स्तोत्र में भी वृषभनाथ भगवान् की स्तुति करते हुए इस श्लोक में इस भीतरी आत्म-शक्ति का प्रभाव बताया है। वे कहते हैं कि हे भगवन्! जैसे प्रलय काल के पवन से सामान्य पर्वत भले ही हिल जाये लेकिन सुमेरु पर्वत जो पर्वतों का राजा है, शैलेश है, उसका शिखर कभी चलायमान नहीं हो सकता। अनन्तकाल व्यतीत हो गया लेकिन सुमेरु पर्वत को हिलाया नहीं जा सका। उसी प्रकार तीन-लोक की सुन्दर से सुन्दर अप्सराएँ भी क्यों न आ जायें, आपके मन को विचलित नहीं कर सकती हैं। राजभवन में सिंहासन पर बैठे राजा वृषभदेव के सामने जब इन्द्र ने नीलाञ्जना को नृत्य के लिए बुलाया था तब वे भले ही उससे प्रभावित होकर नृत्य देखते रहे हों, लेकिन वे ही अप्सराएँ पुन: यदि अब भगवान् वृषभनाथ के सामने आकर नृत्य के द्वारा उन्हें प्रभावित या विचलित करना चाहें, तो असंभव है। अब तो उनका मन सुमेरु की तरह अडिग हो गया है। वे ब्रह्मचर्य में लीन हो गये हैं। इस ब्रह्मचर्य की शक्ति के सामने कामदेव भी नतमस्तक हो जाता है।


    अपनी आत्मा पर विजय पाने वालों की गौरव-गाथा जितनी गायी जाये, उतनी ही कम है। वे महान् आत्माएँ अपनी आत्मशक्ति का प्रदर्शन नहीं करतीं, वे तो अपनी शक्ति के माध्यम से अपने आत्मा का दर्शन करती है। एक पंक्ति अंग्रेजी में हमने पढ़ी थी कि 'You Can live as you like-अर्थात् आप जैसा रहना चाहें रह सकते हैं। रागद्वेष और विषय-भोगमय जीवन बनाकर रहना चाहें तो रह सकते हैं और रागद्वेष तथा विषय-भोग से मुक्त जीवन जीना चाहें तो भी जी सकते हैं। हमारे चौबीस तीर्थकरों में पाँच तीर्थकर ऐसे भी हुए हैं जिन्होंने गृहस्थी तक नहीं बसायी। वे कुमार अवस्था में ही दीक्षित होकर तपस्या में लीन हो गये। वासुपूज्य भगवान्, मल्लिनाथ भगवान्, नेमिनाथ भगवान्, पाश्र्वनाथ भगवान् और महावीर भगवान्, ये पाँचों इसी कारण ' बालयति' कहे जाते हैं। इनके आदशों पर हम चलना चाहें तो चल सकते हैं। संसार में संसारी प्राणी जिन विषय भोगों में फैंसकर पीड़ित हैं, दुखित हैं और चिन्तित भी हैं, उसी संसार में इन पाँच-बालयतियों ने विषय भोगों की ओर देखा तक नहीं और अपने आत्मकल्याण के लिए निकल गये। यही तो आत्मा की शक्ति है। जो इस शक्ति को जागृत करके इसका सदुपयोग कर लेता है, वह संसार से पार हो जाता है।


    सब संसारी प्राणियों का इतिहास पापमय रहा है। आहार, भय, मैथुन और परिग्रह रूप चार संज्ञायें (इच्छाएं) प्रत्येक संसारी प्राणी में विद्यमान हैं। सोलहवें स्वर्ग से ऊपर के देवों में जो अप्रवीचार कहा है, उसका अर्थ यह नहीं है कि वे काम वासना से रहित हो गये हैं। चारों संज्ञायें उनके भी हैं। विषय भोगों का त्याग करने वाले वीतरागी के लिए जो सुख मिलता है, उसका अनन्तवाँ भाग अप्रवीचारी होने के बाद भी उन देवों को नहीं मिलता। जब कभी गुरुओं के उपदेश से, जिनवाणी के श्रवण करने से, संसारी प्राणी यह भाव जागृत कर ले कि आत्मा का स्वभाव तो विषयातीत है, इन्द्रियातीत है तथा अपने में रमण करना है तो फिर उसके मोक्षमार्ग में आगे बढ़ने का मार्ग प्रशस्त होने में देर नहीं लगती। आज का यह अन्तिम ब्रह्मचर्य धर्म तब उसके जीवन में आने लगेगा।


    कभी विचार करें तो मालूम पड़ेगा कि जीवन में निरन्तर कितने उत्थान-पतन होते रहते हैं। शरीरकृत, क्षेत्र और कालकृत, तो फिर भी कम हैं किन्तु भावकृत परिवर्तन तो प्रतिक्षण होते ही रहते हैं और यह संसारी आत्मा निरन्तर उसी में रचती-पचती रहती है। हमने सुना था कि छत्तीसगढ़ के कुछ आदिवासी क्षेत्रों में लोगों को अभी भी चावल (भात) अत्यन्त प्रिय है। वह चावल भी ऐसा नहीं जैसा आप लोग खाते हैं। उनका चावल तो ऐसा है कि सुबह पकने रख देते हैं एक मटकी में पानी डालकर और फिर जब भूख लगती है या प्यास लग आती है तो उसमें से चावल का पानी (क्या बोलते हैं आप माँड), हाँ, वही निकालकर पी लेते हैं और एक दो लोटा पानी और उसी में डालकर पकने देते हैं। यही स्थिति संसारी प्राणी की है। प्रति समय मानों एक लोटा पानी वही सड़ा-गला पी लेता है और पुन: उसमें दो एक लोटा पानी और डाल देता है। जैसे पकते-पकते वह चावल का पानी पौष्टिक और मादक हो जाता है, ऐसे ही संसारी प्राणी का मोह और पुष्ट होता जाता है तथा अधिक मोहित करने वाला हो जाता है।
     


    यह निरन्तरता अरहट (रहट) या घटीयन्त्र के समान बनी रहती है। एक मटकी खाली नहीं हो पाती और दूसरी भरने लगती है। क्रम नहीं टूटता। श्रृंखला बनी रहती है। बन्धुओ! इस संसार की नि:सारता के बारे में और अपने वास्तविक स्वभाव के बारे में आपको विचार अवश्य करना चाहिए।

     

    दस दिन से धर्म का विश्लेषण चल रहा है। धर्म के विभिन्न नाम रखकर आचार्यों ने हमारे स्वभाव से हमारा परिचय कराने का प्रयास किया है। पहले दिन हमने 'धम्मो वत्थु सहावी' की बात कही थी। उसी की प्राप्ति के लिए यह सब प्रयास है। दस दिन तक आपने मनोयोग से सुना है। कल हो सकता है, आपके जाने का समय आ जाये। आप चले जायेंगे लेकिन जहाँ-कहीं भी जायें, इस बात को अवश्य स्मरण करते रहिये कि यह आना-जाना कब तक लगा रहेगा? वस्तु का स्वभाव परिणमनशील अवश्य है, पर संसार में आना-जाना और भटकना स्वभाव नहीं है।


    एक उदाहरण याद आ गया। 'कबीरदास' अपने पुत्र 'कमाल' के साथ चले जा रहे थे। कबीरदास अध्यात्म के भी रसिक थे। सन्त माने जाते थे। चलते-चलते अपने बेटे से उन्होंने कहा कि बेटे! संसार की दशा तुमसे क्या कहें, उधर देखो जैसे चलती चक्की में दो पाटों के बीच में धान्य पिस रहे हैं, कोई भी धान्य साबुत नहीं बच पा रहा है, ऐसी ही दशा संसारी प्राणी की भी है। संसार में कुछ भी सार नहीं है। कहते हैं कि बेटा सुनकर मुस्करा दिया और बोला-पिताजी! यह तो है ही, लेकिन इस चलती चक्की में भी कुछ धान्य ऐसे हैं जो दो पाटों के बीच में पिसने से बच जाते हैं। जरा ध्यान से सुनना, धान्य की बात है और ध्यान की भी बात है। (हँसी) जो धान्य चक्की में दो पाटों के बीच में जाने से पहले ध्यान रखता है कि अपने को कहाँ जाना है? अगर पिसने से बचना है तो एक ही उपाय है कि कील के सहारे टिक जाएं। तब फिर चक्की सुबह से शाम तक भी क्यों न चलती रहे, वे धान्य कील के सहारे सुरक्षित रहे आते हैं।


    'धम्मं सरण पव्वज्जामि' संसार में धर्म की शरण ऐसी ही है, जिसके सहारे संसार में सुरक्षित रहा जा सकता है। धर्म रूपी कील की शरण में संसारी प्राणी रूपी धान्य आ जावे तो वह कभी संसार में पिस नहीं सकता। कबीरदास सुनकर गद्गद् हो गये कि सचमुच कमाल ने कमाल की बात कही है। (हँसी)


    बन्धुओ! संसार से डरने की आवश्यकता नहीं है और कर्मों के उदय से भी डरने की आवश्यकता नहीं है। तत्वार्थसूत्र अध्याय 7, सूत्र १२ में -जगत्कायस्वभावो या संवेग-वैराग्यार्थम्। जगत् के स्वभाव को जानना ‘संवेग' का कारण है और शरीर के स्वभाव को पहचानना 'वैराग्य' में कारण है। जो निरन्तर संवेग और वैराग्य में तत्पर रहने वाली आत्माएँ हैं, उनको कर्मों के उदय से डरने की आवश्यकता नहीं है। संसार का गर्त कितना भी गहरा क्यों न हो, संवेगवान और वैराग्यवान जीव कभी उसमें गिर नहीं सकता। यह बिल्कुल लिखकर रखिये कि जब कभी भी संसार से मुक्ति मिलेगी तो उसी संवेग और वैराग्य से ही मिलेगी।


    मैं आज यही कहना चाह रहा हूँ कि पाँचों इन्द्रियों के विषयों से विरक्त होने का नाम ही ‘ब्रह्मचर्य धर्म' है। व्यवहार रूप से तो यह है कि स्त्री-पुरुष परस्पर राग-जन्य प्रणय संबंधों से विरक्त रहें, परन्तु वास्तव में तो ‘पर" पदार्थ-मात्र के प्रति विरक्ति का भाव आना चाहिए। पदार्थ के साथ, सम्बन्ध अर्थात् पर के साथ सम्बन्ध होना ही ‘संसार' है। जो अभी 'पर' में संतुष्ट है, इसका अर्थ है कि वह अपने आप में सन्तुष्ट नहीं है। वह अपने आत्म-स्वभाव में निष्ठ नहीं होना चाहता। तभी तो, पर-पदार्थ की ओर आकृष्ट है। ज्ञानी तो वह है जो अपने आप में है, स्वस्थ है। अपनी आत्मा में ही लीन है। उसे स्वर्ग के सुखों की चाह नहीं है और न ही संसार की किसी भी वस्तु के प्रति लगाव है। वह तो ब्रह्म में अर्थात् आत्मा में ही सन्तुष्ट है।


    युक्त्यनुशासन में आचार्य समन्तभद्रस्वामी ने एक कारिका लिखी है, वह मुझे अच्छी लगती है


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    हे वीर भगवन्! आपका मत-दया, दम, त्याग और समाधि की निष्ठा को लिए हुए है। नयों और प्रमाण के द्वारा सम्यक्र तत्व को बिल्कुल स्पष्ट करने वाला है और दूसरे सभी प्रवादों से अबाधा है यानि बाधा रहित है, इसलिए अद्वितीय है। ‘दया' अर्थात् प्राणिमात्र के प्रति करुणा का भाव, अपने दस-प्राणों की रक्षा करना भी अपने ऊपर दया है। प्राणों की रक्षा तो महाव्रतों को धारण करने से ही होगी। इन्द्रिय-संयम का पालन करने से होगी।


    'दम' का अर्थ है, इन्द्रियों को अपने वश में करना। इच्छाओं का शमन करना। जिसकी दया में निष्ठा होगी, वही दम को प्राप्त कर सकेगा। इन्द्रियों के ऊपर विजय प्राप्त किये बिना दया सफलीभूत नहीं होती। त्याग क्या चीज है? तो कहते हैं कि विषय-कषायों को छोड़ने का नाम 'त्याग' है। त्याग के उपरान्त ही समाधि की प्राप्ति होती है। 'समाधि ' तो उस दशा का नाम है जब हम आधि, व्याधि और उपाधि से मुक्त होते हैं। मानसिक पीड़ा या वेदना का नाम 'आधि' है और शरीरकृत वेदना को ‘व्याधि' कहा गया है। ‘उपाधि' एक प्रकार का बौद्धिक आयाम है, जिसमें स्वयं को लोगों के बीच बड़ा बताने का भाव होता है। मेरा नाम हो इस बात की चिन्ता ही ‘उपाधि' है। 'समाधि ' इन तीनों से रहित अवस्था का नाम है।


    समाधि का अर्थ ही यह है कि सभी प्रकार से समत्व को प्राप्त होना। एक लौकिक शब्द आता है समधी, इससे आप सभी परिचित हैं। (हँसी) पर इसके अर्थ से बहुत कम लोग परिचित होंगे। जिसकी 'धी' अर्थात् बुद्धि, सम अर्थात् शान्त हो गयी है वह 'समधी' है। अभी तो लौकिक रूप से समधी कहलाने वालों का मन जाने कहाँ-कहाँ जाता है? एक-सा शान्त कहीं ठहरता ही नहीं है। जब सभी बाहरी सम्बन्ध बिल्कुल छूट जाएं और आत्मा अपने में लीन हो जाए वह दशा ‘समाधि ' की है।


    सुनते हैं जब हार्ट-अटैक वगैरह कोई हृदय संबंधी रोग हो जाता है तो डॉक्टर लोग कह देते हैं कि 'कम्पलीट बेड रेस्ट' यानि पूरी तरह बिस्तर पर आराम करना होगा। आना-जाना तो क्या, यहाँ तक कि अधिक सोचना और बोलना भी बन्द कर दिया जाता है। समय पर मात्र औषधि और पथ्य दिया जाता है, तब जाकर स्वास्थ्य की प्राप्ति होती है। ऐसा ही तो समाधि में आवश्यक है। सन्तुलन आना चाहिए। शान्त भाव आना चाहिए। तभी स्वास्थ्य मिलेगा। जीवन में वास्तविक ब्रह्मचर्य की प्राप्ति भी तभी होगी।


    मन-वचन-काय की चेष्टा से जब परिश्रम अधिक हो जाता है, तो विश्राम आवश्यक हो जाता है। यह तो लौकिक जीवन में भी आप करते हैं। ऐसे ही संसार से विश्राम की दशा का नाम ‘ब्रह्मचर्य' है। आपे में रहना अर्थात् स्वभाव में रहना। जैसे पिताजी से बात करनी हो तो बेटा डरता है और देख लेता है कि अभी तो पिताजी का मन बेचैन है, शान्त नहीं है। तो वह उनके पास भी नहीं जाता। यदि कोई कहे भी कि चले जाओ, पूछ आओ तो वह कह देता है कि अभी नहीं, बाद में पूछ लूगा। अभी पिताजी आपे में नहीं हैं अर्थात् अपने शान्त स्वभाव में नहीं हैं। कहीं-कहीं पर ब्रह्मचर्य के लिए 'शील' शब्द भी आता है, शील का अर्थ ही स्वभाव है।


    लौकिक व्यवहार में कुशील शब्द स्त्री-पुरुष के बीच अनैतिक या विकारी संबंधों को सूचित करने के लिए आता है। लेकिन परमार्थ की अपेक्षा आचार्य कुन्दकुन्द महाराज, समयसार में कहते हैं कि-


    कम्ममसुहं कुसीलं सुहकम्मं चावि जाणह सुसीलं।

    किह तं होदि सुसीलं जं संसार पवेसेदि ॥१५२॥

    अशुभ कर्म कुशील हैं और शुभ कर्म सुशील हैं, ऐसा सभी जानते हैं, लेकिन परमार्थ की अपेक्षा देखा जाए तो सुशील तो वह है जो संसार से पार हो चुका है। कुशील का अर्थ है जो अपने शील/स्वभाव से दूर है। जैसे म्यान में तलवार तभी रखी जायेगी जब वह एकदम सीधी हो। थोड़ा भी टेढ़ापन हो तो रखना सम्भव नहीं है। उसी प्रकार आत्मा अपने स्वभाव में विचरण करे तो ही सुशील है। कर्मों के बंधन के रहने पर वह सुशील नहीं मानी जायेगी।


    अपने इस सुशील को सुरक्षित रखना चाहो तो विकार के प्रति राग मत रखो। अपने से जो भी पृथक् है पर है उसके संसर्ग से दूर रहो क्योंकि कुशील के साथ संसर्ग और राग करने से अपने स्वाधीन सुख का विनाश होता है। बहुत दिनों पहले हिन्दी में एक छन्द लिखा था
     


    क्या हो गया समझ में मुझको न आता, क्यों बार-बार मन बाहर दौड़ जाता |

    स्वाध्याय, ध्यान करके मन रोध पाता, पै शवान सा मन सदा मला शोध लाता ||

    (निजानुभव-शतक-४९)

    मन को अच्छी से अच्छी चीज भी दो लेकिन बुरी चीजों की ओर जाने की उसकी आदत है, वह उसे नहीं छोड़ता। ऐसे इस मन को काबू में रखने का आसान तरीका यही है कि पहले उसके स्वभाव को समझा जाए। मन का तो ऐसा है कि जैसे सितार के तार जरा ढीले हो जाएँ तो संगीत बिगड़ जाता है और अगर जोर से खींच दिये जाएं, कस दिये जायें तो टूट जाते हैं। उन्हें तो ठीक से सन्तुलित कर दिये जाने पर ही अच्छा संगीत सुनायी देता है। ऐसा ही मन को सन्तुलित करके रखा जाए तो उस पर काबू पाना आसान है।


    मन तो ज्ञान की एक परिणति है। उसे सँभालना अनिवार्य है। जैसे ही पञ्चेन्द्रिय की विषयसामग्री सामने आती है या स्मृति में आती है, वैसे ही तुरन्त मन उस ओर दौड़ जाता है। वस्तुत:, देखा जाए तो ज्ञान का यह परिणमन इतना अभ्यस्त हो गया है और विश्वस्त हो गया है कि वह 'इसी सामग्री के माध्यम से सुख मिलेगा।' यह मान बैठा है और संस्कारवश उसी ओर दुलक जाता है। बन्धुओ! पच्चेन्द्रिय के विषयों में सुख नहीं है। अगर सुख होता तो जो सुख एक लड्डू खाने में आता है उतना या उससे अधिक दूसरे में भी आना चाहिए और तृप्ति हो जानी चाहिए। लेकिन अभी तक किसी को भी तृप्ति नहीं हुई। यह बात समझ में आ जाये तो मन को जीतना आसान हो जायेगा।

     

    एक विद्यार्थी की कथा सुनाकर आपको जागृत करना चाहता हूँ। एक गुरुकुल में बहुत सारे विद्यार्थी अपने गुरु के पास वर्षों से विद्याध्यन कर रहे थे। साधना भी चल रही थी। एक बार गुरुजी के मन में आया कि परीक्षा भी लेनी चाहिए, प्रगति कहाँ तक हुई है? परीक्षा ली गयी। कई प्रकार की साधना विद्यार्थियों को करायी गयी, पर एक विशेष साधना में सारे विद्यार्थी एक के बाद एक Fail (निष्फल) होते गये। गुरुजी को लगा कि शायद अब कोई परीक्षा में Paas (सफल) नहीं हो पायेगा। सिर्फ एक विद्यार्थी और शेष रह गया। उसकी परीक्षा अभी ली जाना थी। उसे बुलाया गया । परीक्षा यह थी कि मुख में एक चम्मच बूरा (शक्कर) रखना है, और परीक्षा हो जायेगी। विद्यार्थी ने आज्ञा का पालन किया और गुरुजी के कहने पर मुख खोल दिया और उसमें एक चम्मच बूरा डाल दिया गया। गुरुजी एकटक होकर उसकी मुख मुद्रा देखते रहे। उस विद्यार्थी के चेहरे पर शान्ति छायी थी और मुख में बूरा ज्यों का त्यों रखा था।


    विद्यार्थी ने उसे खाने की चेष्टा भी नहीं की क्योंकि आज्ञा तो मात्र बूरे को मुख में रखने की थी, वह तो हो गया, स्वाद लेने या खाने का भाव ही नहीं आया। यह देखकर गुरुजी का मुख खिल गया। वे बोले-तुम परीक्षा में पास हो गये। जितेन्द्रिय होना ही ब्रह्मचर्य की सही पहचान है। यही सच्ची साधना और अध्ययन का फल है। बड़ी-बड़ी पोथी पढ़ने वाले भी इसमें हार जाते हैं। आज अधिकांश लोग इसी में लगे हैं। बड़ी-बड़ी पोथी पढ़ने वाले भी इसमें हार जाते हैं। आज अधिकांश लोग इसी में लगे हैं। एक-एक भाषा के कई-कई कोष तैयार हो रहे हैं। शोधग्रन्थ लिखे जा रहे हैं, लेकिन इन्द्रियों पर विजय प्राप्त करने की ओर किसी का ध्यान नहीं है। इन्द्रियों पर विजय प्राप्त करने वाले विरले ही लोग हैं।


    आज का युग भाषा-विज्ञान में उलझ रहा है और भीतर के तत्व को पकड़ ही नहीं पा रहा है। जो ज्ञान, साधना के माध्यम से जीवन में आता है वह भाषा के माध्यम से कैसे आ सकता है? साहित्य की सही परिभाषा तो यही है कि जो हित से सहित हो, जो हित से युक्त हो वही ‘साहित्य' है। जिसके अवलोकन से आत्मा के हित का सम्पादन हो सके, वही ‘साहित्य' है। ऐसा साहित्य ही उपादेय है जो हमें साधना की ओर अग्रसर करे। ज्ञानी भी वही है, जो खाते हुए भी नहीं खाता, जो पीते हुए भी नहीं पीता, देखते हुए भी नहीं देखता। जैसे जब, जिस चीज की ओर हमारा उपयोग नहीं होता तब वह करते हुए भी हम उसमें नहीं रचते-पचते। यही स्थिति ज्ञानी की है। वह पाँचों पापों का पूर्णरूप से त्याग करके महाव्रतों को धारण करता है। संसार के कार्य वह अनिच्छापूर्वक करता है। पाँचों इन्द्रियों के विषयों से मन को हटाकर अपने आत्म-ध्यान में लगना ही ज्ञानीपने का लक्षण है।


    बन्धुओ! छोटी-छोटी बात का संकल्प लेकर भी हम अपने जीवन में साधना कर सकते हैं और आत्मा को पवित्र बना सकते हैं। आत्मा की पवित्रता ही 'ब्रह्मचर्य' है। आप आज दशलक्षण धर्म का अन्तिम दिन मत समझिये। दशलक्षण धर्म तो तभी सम्पन्न हुए माने जायेंगे जब हम जितेन्द्रिय होकर शैलेषी दशा को प्राप्त कर लेंगे। मेरु के समान अपने शील-स्वभाव में निश्छल होंगे। तभी लोक के अग्र भाग पर अनन्त काल के लिए आत्मा में रमण करेंगे। आत्मा में रमना ही सच्चा 'ब्रह्मचर्य' है जिसके उपरान्त किसी भी प्रकार की विकृति या विकारी भावों का प्रादुर्भाव होना सम्भव नहीं है।


    निज माहिं लोक आलोक गुण परजाय प्रतिबिम्बित भये।

    रहिहैं अनन्तानन्त काल यथा तथा शिव परिणाये || 

    धनि धन्य हैं जे जीव नरभव पाय यह कारज किया।

    तिन ही अनादि भ्रमण पञ्च प्रकार तजि वर सुख लिया।॥१३॥

    कवि ने सिद्ध भगवान् की स्तुति करते हुए 'छहढाला' छठवीं ढाल के अन्त में कहा है कि वे धन्य हैं जिन्होंने मनुष्य जन्म पाकर ऐसा कार्य किया कि पुनः अब किसी भी कार्य को करने की आवश्यकता नहीं रही। संसार के परिभ्रमण से मुक्त होकर उन्होंने उत्तम-सुख को अर्थात् मोक्ष-सुख को पा लिया। मोक्ष लक्ष्मी का वरण कर लिया। अथवा यूँ कहिये कि मोक्ष लक्ष्मी ने स्वयं आकर उनके गले में मुक्ति रूपी माला पहना दी। हमेशा से ही होता आया है कि भोक्ता का वरण भोग्या द्वारा किया जाता है। 'जयोदय महाकाव्य' में जयकुमार और सुलोचना स्वयंवर का मार्मिक चित्रण आचार्य ज्ञानसागरजी महाराज ने किया है। यह स्वयंवर की परम्परा आदिब्रह्मा आदिनाथ के समय की है। यहाँ भी यही बात परिलक्षित होती है कि स्त्री ने पुरुष का वरण किया।


    आज ब्रह्मचर्य के दिन मैं यही कहना चाह रहा हूँ कि वस्तुत:, भोग्य पदार्थ की ओर झुका हुआ पुरुष वासना का दास बनकर संसार बढ़ाता है और भोग्य पदार्थ जब स्वयं उसकी ओर देखने लगें अर्थात् उसका वरण करने को उत्सुक हो जाएँ तो वह पुरुष तीन-लोक का नाथ बन जाता है। आज पुरुष की दृष्टि भोग्य पदार्थों की ओर जा रही है। यही विकृति है, विकार है। पदार्थों की ओर होने वाली दौड़ ही व्यक्ति को कंगाल बनाती है। जो अपने में है, स्वस्थ है, उसके पास ही मौलिक सम्पदा आज भी है।


    जिसकी नासिका को देखकर निशि गन्धा भी लज्जा को प्राप्त हो रही है, जिसके नयन नीलकमल के समान सुन्दर हैं, जिसकी भूकुटियाँ देखकर इन्द्रधनुष भी अपने धन को खोता हुआ सा लग रहा है, जिसके विशाल भाल की शोभा बृहस्पति की शोभा को फीका कर रही है, जिसके केशों का चुंघरालापन देखकर माया भी चकित है, जिसके अधर पल्लवों को देखकर मूंगा भी गूँगा सा होकर बैठ गया है, जिसके चरणों को देखकर सकल चराचर झुकने को तत्पर हो गये हैं, जिनके पद-नख की आभा के सामने चन्द्रमा की चाँदनी भी फीकी पड़ रही है, जिसके सुन्दर रूप को देखकर अप्सराएँ भी मोहित हो जाती हैं और जिसके कर रूपी पल्लव संसार को अभयदान देने की सामथ्र्य वाले हैं, ऐसे अद्भुत रूप सौन्दर्य को लिये एक पुरुष श्मशान में कायोत्सर्ग में लीन है।


    उसका एकमात्र ध्येय मुक्ति-लक्ष्मी है। शेष सारा संसार इन क्षणों में उसे हेय है। पर उसके रूप की ख्याति सुनकर मुग्ध हुई वहाँ के राजा की रानी का चित्त महल में भी विकल हो रहा है। चतुर्दशी का दिन था। रात्रि आधी बीत गयी थी। श्मशान में निर्भय होकर तपस्या में लीन वह पुरुष अपने मनुष्य जीवन को सार्थक बना रहा है कि अचानक रानी की परिचारिका आकर कहती है कि हे सुन्दर पुरुष! मेरे साथ चलो। अभी यह तप करने का समय नहीं है। यह तो भोग-विलास का समय है। अपने सुकुमार शरीर को इस तरह कष्ट मत दो। उठो और जल्दी करो, रानी तुम्हें याद कर रही हैं। तुम्हें क्या इस बात की तनिक भी खबर नहीं है? वास्तव में वह पुरुष कान होते हुए भी जैसे सुनायी न पड़ा हो, ऐसा अपने में लीन अडिग है। ठीक भी है। परमार्थ के क्षेत्र में कान खुले रहना चाहिए, लेकिन विषय-भोग के क्षेत्र में तो कान बहरे ही होना चाहिए। परमार्थ के क्षेत्र में ऑखें खुली रहनी चाहिए। और विषय-वासना के क्षेत्र में अन्धा होकर रहना चाहिए। परमार्थ के क्षेत्र में कर्मों पर विजय पाने के लिए बाहुओं में शक्ति और प्रताप होना चाहिए, लेकिन दूसरे के ऊपर प्रहार करने के लिए बलहीन होना चाहिए। ऐसी ही अवस्था उस समय उस पुरुष की थी। जब दासी ने देखा कि यह तो अपने में अडिग है, तो उसने उसे पूर्व नियोजित योजना के अनुसार उठवाकर महलों में ले जाने का प्रबन्ध कर लिया और वह पुरुष रानी के महल में पहुँचा दिया गया।


    वहाँ रानी सारे उपाय करके थक गयी पर वह पुरुष ध्यान से विचलित नहीं हुआ। एक तरफ वासना थी तो दूसरी ओर उपासना थी। एक तरफ निश्चल पुरुष था तो दूसरी ओर चञ्चल प्रकृति थी। जीत उसी की होती है जो अपनी इन्द्रियों और मन को जीतने में लगा होता है, जो अपने में लीन है, जो उपासना में लगा है अर्थात् अपने समीप आने में लगा है। ठीक भी है, अपने भीतर पहुँचने के उपरान्त तो अपना ही राज्य है, अपना ही देश है, अपना ही वेश है, अपना ही आदेश है और अपने ही सन्देश भी प्रचारित हो रहे हैं। (हँसी) वहाँ किसी बाहरी सत्ता का प्रवेश सम्भव कैसे हो सकता है?


    उपासना के सामने वासना को घुटने टेकने ही पड़ेंगे। रानी ने घुटने टेक दिये फिर भी पुरुष ने स्वीकार नहीं किया। जहाँ श्रीकार हो वहाँ स्वीकार या नकार की बात कैसे सम्भव है? ‘ श्री' का अर्थ है अंतरंग लक्ष्मी अर्थात् अपना ही आत्म-वैभव । जो अपने आत्म-वैभव को पाने में लगा है वह बाह्य लक्ष्मी की चाह क्यों करेगा? अपने को हारता देखकर वासना बौखला गयी। वासना की मूर्ति बनी रानी ने अपने वस्त्र फाड़ लिये। अपने हाथों अपने ही शरीर को नोंच लिया और शोर मचाने लगी। राजा को खबर पहुँचायी गयी। राजा सुनकर क्रोधित हो गया। तब रानी और चीखचीख कर रोने लगी। सभी को विश्वास हो गया कि यह सारी करामात इस पुरुष की है। यह ध्यान में लीन होने का ढोंग कर रहा है। यह सब मायाचारी है।


    बन्धुओ! यह है दुनियाँ की दृष्टि। जो मायाचारी कर रहा है, वह सच्चा साबित हो रहा है और सत्य को झूठा बनाया जा रहा है, लेकिन अन्त में जीत सत्य की ही होती है। जब प्राणदण्ड के लिए उस पुरुष को शूली पर चढ़ाया जाता है तो देवता आकर शूली के स्थान पर फूलों की माला बना देते हैं। तब रहस्य खुलता है कि दोष इसका नहीं है, दोषी तो रानी है। यह पुरुष कोई और नहीं, अपने ही नगर का महान् चारित्रवान नागरिक 'सेठ सुदर्शन' है। गृहस्थ होते हुए भी आस्था और आचरण में दृढ़ है। यही तो ब्रह्मचर्य धर्म के पालन में सच्ची निष्ठा है। कि 'मातृवत् परदारेषु परद्रव्येषु लोष्ठवत्, आत्मवत्सर्वभूतेषु यः पश्यति स पण्डितः' यही तो वास्तव में वैराग्य है कि गृहस्थ भी परस्त्री को अपनी माता के समान मानता है और दूसरे के द्वारा सञ्चित धन सम्पत्ति को कंकर-पत्थर की तरह अपने लिए हेय समझता है।


    महाराज जी (आचार्य ज्ञानसागरजी) कहा करते थे कि गृहस्थ को व्रत अवश्य लेना चाहिए। व्रत कोई भी छोटा नहीं होता। आज सुदर्शन सेठ का परस्त्री के त्याग का व्रत भी महाव्रत के समान हो गया। सभी ओर जय-जयकार होने लगी। सुदर्शन सेठ सोच में डूबे हैं कि देखो, कैसा वैचित्र्य है। मैं जिस शरीर से मुक्त होना चाह रहा हूँ, संसार के लोग उसी शरीर को चाह रहे हैं। उसके क्षणिक सौन्दर्य से प्रभावित हो रहे हैं और अपने शाश्वत आत्म सौन्दर्य को भूल रहे हैं।


    बन्धुओ! विचार करो कि एक अणुव्रती गृहस्थ श्रावक की दृढ़ता कितनी है। उसकी आस्था कितनी मजबूत है। उसका आचरण कैसा निर्मल है। पापों का एक देश त्याग करने वाला भी संसार से पार होने की क्षमता और साहस रखता है। जिसने एक बार अपने स्वभाव की ओर दृष्टि डाल दी, उसकी दृष्टि फिर विकार की ओर आकृष्ट नहीं होती।


    एक घटना याद आ गयी। एक युवक विरक्त हो गया और घर से जंगल की ओर चल पड़ा। पिता उसके पीछे-पीछे चले जा रहे हैं कि अगर यह मान गया तो वापस घर ले आयेंगे। रास्ते में एक सरोवर के किनारे कन्याएँ स्नान कर रहीं थीं। युवक थोड़ा आगे था। अत: वह पहले निकल गया। तब वे स्त्रियाँ ज्यों की त्यों स्नान करती रहीं और जब पीछे उसके पिता को आते देखा तो सभी अपने वस्त्र सँभालने लगीं। पिता चकित होकर रुक गया और उसने पूछा कि बात क्या है? अभी-अभी मेरा जवान बेटा यहाँ से निकला था, तब तुम सब पूर्ववत् स्नान करती रहीं, लेकिन मैं इतना वृद्ध हूँ फिर मुझे देखकर क्यों लज्जावश अपने वस्त्र सँभालने लगीं। वे कन्याएँ समझदार थीं, बोलींबाबा। यह जवान था और आप वृद्ध हैं, यह हम नहीं जानते। हम तो दृष्टि की बात जानते हैं। वह अपने में खोया था, उसकी दृष्टि में पुरुष या स्त्री का भेद ही नहीं था। वह तो सब कुछ देखते हुए भी मानों कुछ नहीं देख रहा था। लेकिन आपकी दृष्टि में अभी ऐसी वीतरागता नहीं आयी। आपको तो अभी भेद दिखायी दे रहा है। कहीं एक कविता पढ़ी थी उसकी कुछ पंक्तियाँ मुझे बहुत अच्छी लगीं पूरी तो ध्यान नहीं-


    "अभी तुमने

    आग के रंग के

    कपडे पहेने हैं
    योग की आग में
    तुम्हारा काम अभी
    पूरा जला नहीं है

    अभी तुम्हें

    स्त्री और पुरुष के बीच

    फर्क नजर आता है
    स्त्री के पीछे भागना

    और स्त्री से दूर भागना

    बात एक ही है
    जब तक ये यात्रा जारी है
    समझो अभी संन्यास की यात्रा शुरू नहीं हुई।”

    आचार्य कुन्दकुन्द महाराज ने नियमसार में कहा है कि-

     

    दडूण इच्छिरूवं वांछभावं णिवत्तदे तासु।

    मेहुणसण्णविवज्जिय परिणामो अहव तुरीयवदं॥५९॥

    स्त्रियों के रूप को देखकर उनके प्रति वांछा भाव की निवृत्ति होना अथवा मैथुन-संज्ञा रहित जो परिणाम हैं, वह चौथा ब्रह्मचर्य व्रत है। अर्थात् परिणामों की उज्वलता ब्रह्मचर्य के लिए बहुत आवश्यक है।


    देखना भी दो प्रकार से हो सकता है। एक देखना तो सहज भाव से होता है, वीतराग भाव से होता है तो दूसरा विकार भाव से या राग-भाव से देखना होता है। वीतरागी के परिणामों में जो निर्मलता आती है, उस पर फिर किसी विकार का प्रभाव नहीं पड़ता। जो विकार से बचना चाहता है उसका कर्तव्य सर्वप्रथम यही है कि वीतरागता की ओर वह दृष्टि-पात करे। स्वभाव की ओर देखे, केवल संन्यास व्रत धारण करना या स्वाध्याय करना ही पर्याप्त नहीं है। अपने उपयोग की संभाल प्रतिक्षण करते रहना भी आवश्यक है। अपने उपयोग की परीक्षा हमेशा करते रहना चाहिए कि उसमें कितनी निर्मलता और दृढ़ता आयी है। उपयोग की निर्मलता और दृढ़ता के सामने तीनलोक की सम्पदा भी फीकी लगने लगती है। उपयोग को विकारों से बचाकर, राग से बचाकर वीतरागता में लगाना चाहिए, यही ब्रह्मचर्य धर्म है।
     


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