सामयिक विषय पर संत शिरोमणि आचार्य विद्यासागर जी के विचार.
- निर्जरा तत्व के द्वार खोलने के लिए सामयिक अच्छी चाबी है। मुनिराज के निर्जरा के द्वार परीषहादि से हमेशा खुले रहते हैं।
- श्रावक को आर्त रौद्र ध्यान से बचने का एक मात्र अवसर सामयिक ही है।
- सामयिक के समय समता रूपी पाटे पर बैठ जाओ परीषह रूपी करेंट का प्रभाव नहीं पड़ेगा। समतारूपी तड़ित चालक लगाने से बिजली परीषह से आत्मा को क्षति नहीं पहुँचेगी।
- सामयिक में उत्साह न होना ही उसका अनादर है।
- सामयिक सानन्द सम्पन्न करने के लिए भोजन गरिष्ठ नहीं लेना चाहिए।
- प्रत्येक क्रिया में उत्साह होना चाहिए, यदि लड़ाई में उत्साह है तो सामयिक में दस गुना उत्साह होना चाहिए।
- जो पाँच इन्द्रिय और मन के वश में नहीं है वो 'अवश' है और 'अवशी' के द्वारा किया गया कार्य आवश्यक कहलाता है। करने योग्य कहा जाता है।
- भरत चक्रवर्ती दिग्विजय करने भी गये तो भी तीनों समय सामयिक करते थे, आत्मा का चिन्तन करते थे। इसे कहते हैं गृद्धता का अभाव भोगों में अनासति।
- मनुष्य आयु का बंध होने पर सम्यग्दर्शन भी साथ नहीं जायेगा यहीं छूटेगा अत: उसे सुरक्षित रखने के लिए तीनों समय एक दो घंटे सामयिक करो, स्वाध्याय करो।
- आप पिक्चर लगातार तीन घंटे बैठकर देख सकते हैं, पर सामयिक में नहीं, सामयिक में तो नींद भी आती है, पिक्चर में नहीं आती, ध्यान एक तरफ बना रहता है। इसका यही अर्थ है कि सामयिक में अविश्वास तथा पिक्चर में विश्वास है।
- ऐसा कार्य न करें जिससे सामयिकादि में कमी आ जाये।
- लाभ कम हानि ज्यादा हो ऐसे कार्य न करें।
- आत्मा की कथा/बात करके दूसरे को सन्तुष्ट करना सामयिक के काल में तो यह विकथा है।
- सामयिक के काल में स्वाध्याय नहीं करना। सामयिक के समय में आत्मा में रहकर आत्मा से बात करो।