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मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज

संयम स्वर्ण महोत्सव

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  1. 'जब तक उपासक स्वयं उपास्य नहीं बन जाता, तब तक उसे उपास्य की उपासना करना अनिवार्य है।' माता-पिता जिस तरह बच्चे को धीमी चाल से चलकर उसे चलना सिखाते हैं, उसी प्रकार गुरु, शिष्यजनों को मोक्ष-मार्ग में चलना सिखाते हैं। यद्यपि बच्चा चलता अपने पैरों से है, तथापि माता-पिता की अंगुली उसे सहायक होती है, शिष्य मोक्ष-मार्ग में प्रवृत्ति स्वयं करता है परन्तु गुरु की अंगुलि-गुरु का इंगन उसे आगे बढ़ने में सहायक होता है। गुरु का स्थान महत्वपूर्ण है, क्योंकि सिद्ध तो बोलते नहीं हैं, साक्षात् अरहन्त जो बोलते हैं उनका इस समय अभाव है, यहाँ पर स्थापना-निक्षेप से अरहन्त हैं परन्तु अचेतन होने के कारण उनसे शब्द निकलते नहीं हैं, अत: मोक्ष-मार्ग में गुरु ही सहायक सिद्ध होते हैं, मार्ग पर चलते समय यदि कोई बोलने वाला साथी मिल जाता है तो मार्ग तय करना सरल हो जाता है, गुरु-निग्रन्थ साधु, हमारे मोक्ष-मार्ग के बोलने वाले साथी हैं,इनके साथ चलने से हमारा मोक्ष-मार्ग सरल हो जाता है। अरहन्त भगवान् के समवसरण में गणधर होते हैं, वे गुरु ही तो कहलाते हैं, नय-विवक्षा से कहा जाये तो गुरु और देव में अन्तर नहीं है, चार और पाँच में क्या अन्तर है? आप कहेंगे, एक का अन्तर है, पर एक का अन्तर तो तीन और पाँच के बीच में होता है। चार और पाँच के बीच में नहीं। अज्ञानतिमिरान्धानां ज्ञानाञ्जनशलाकया । चक्षुरुन्मीलितं येन तस्मै श्रीगुरवे नमः॥ जिन्होंने अज्ञानरूपी तिमिर से अन्धे मनुष्यों के चक्षु ज्ञान-रूपी अंजन की सलाई से उन्मीलित कर दिये हैं, उन गुरु के लिए नमस्कार हो। नेत्रदान महादान कहलाता है, जिन गुरु ने अन्तर के नेत्र खोल दिए हैं उनकी महिमा कौन कहे सकता है | जिस प्रकार दिशासूचक-यन्त्र सही-सही दिशा का बोध कराता है, उसी प्रकार वीतरागी सच्चे गुरु भी सही-सही दिशा का बोध कराते हैं, विषय-भोग की दिशा सही दिशा नहीं है, उसका बोध कराने वाला कुगुरु कहलाता है, जो सिद्धगति का मार्ग दिखलाता है वह सुगुरु है, हमें भावना रखनी चाहिए कि ऐसे सुगुरु सदा हमारे हृदय में निवास करें, वीतरागी गुरु ही शरणभूत है, रागी द्वेषी गुरु स्वयं संसार के गर्त में पड़े हुए हैं, वे दूसरे का उद्धार क्या करेंगे? संसार के प्राणी भेड़ के समान होते हैं, वे विचार किये बिना ही दूसरे का अनुकरण करने लगते हैं। पर, गुरु विवेक-मार्ग का, सम्यक्र पथ का प्रदर्शन करते हैं, गुरु कुटुम्ब-परिवार की मोह, ममतामयी महागर्त से भव्य प्राणी को हाथ का सहारा देकर बाहर निकालते हैं। समन्तभद्र आचार्य ने रत्नकरण्डकश्रावकाचार में गुरु का लक्षण बताया है- विषयाशावशातीतो निरारम्भोऽपरिग्रहः । ज्ञान-ध्यान-तपोरक्तस्तपस्वी स प्रशस्यते॥ विषयों की आशा से रहित, आरम्भ से रहित, परिग्रह से रहित तथा ज्ञान, ध्यान और तप में अनुरत, तपस्वी साधक गुरु कहलाते हैं। अथवा 'ज्ञानं च ध्यानं च इति ज्ञान-ध्याने त एव तपसी ज्ञान-ध्यान-तपसी तत्र अनुरक्त इति ज्ञानध्यानतपो रत:” इस समास के अनुसार जो ज्ञान अर्थात् स्वाध्याय और ध्यानरूपी तप में अनुरत रहते हैं, स्वाध्याय और ध्यान ये दोनों उत्कृष्ट तप हैं, अत: इनमें अनुरत रखने की बात कही गयी है, देखा आपने, यह जीव तपस्वी कब बन सकता है? जब ज्ञान, और ध्यान में रंग गया हो, ज्ञान-ध्यान में कब रंगता है प्राणी? जब वह परिग्रह को छोड़ देता है, परिग्रह कब छूटता है? जब आरम्भ छूट जाता है, आरम्भ कब छूटता है? जब विषयों की आशा छूट जाती है, तात्पर्य यह है कि तपस्वी या निग्रन्थ गुरु बनने के लिए पंचेन्द्रियों के विषयों की आशा को सबसे पहले छोड़ना पड़ता है। पेट्रोल जाम हो जाने से जब गाड़ी स्टार्ट नहीं होती है तब ड्रायवर उसे धक्का लगवाकर स्टार्ट कर लेता है, गुरु भी तो शिष्य को धक्का देकर आगे बढ़ाते हैं, स्वयंबुद्ध मुनि थोड़े होते है, बोधितबुद्ध ज्यादा होते हैं, बोधित-बुद्ध वही कहलाते हैं, जिन्हें गुरु समझाकर चारित्र के मार्ग में आगे बढ़ाते हैं। 'मातेव बालस्य हितानुशास्ता', गुरु माता के समान बालक का हितकारी है, बालक पिता से भयभीत रहता है, वह डरते-डरते उनके पास जाता है। पर, माता के पास वह निर्भय होकर जाता है, उससे अपनी आवश्यकता पूरी कराता है, इसी प्रकार, भव्य-प्राणी देव के पास पहुँचने में संकोच करता है, साक्षात् अरहन्त-देव के दर्शन तो कर सकता है—पर उन्हें छू नहीं सकता, परन्तु गुरु के पास जाने में एवं उनसे बात करने में कोई संकोच नहीं लगता, जिस प्रकार कोई कारीगर मकान ईटें-चूना लगाकर बनाते हैं और कोई उसे सुसज्जित करते हैं, इसी प्रकार, माता-पिता मनुष्य को जन्म देते हैं, पर; गुरु उसे सुसज्जित कर सब प्रकार की सुविधाओं से पूर्ण करते हैं, गुरु शिष्य की योग्यता देखकर उसे उतनी देशना देते हैं जितनी कि वह ग्रहण कर सकता है, माँ ने लड्डू बनाये, बच्चा कहता है मैं तो पाँच लड्डू लूँगा, माँ कहती है कि लड्डू तो तेरे लिए ही बनाये हैं पर तुझे एक लड्डू मिलेगा, क्योंकि तू पाँच लडू खा नहीं सकता, बच्चा कहता है तुम तो पाँच-पाँच खाती हो-मुझे क्यों नहीं देती? क्या मेरे पेट नहीं है? माँ कहती है-पेट तो है पर मेरे जैसा बड़ा नहीं है, तात्पर्य यह है कि माँ बच्चे को उसके ग्रहण योग्य लडू देती है, अधिक नहीं, आप लोग जितना ग्रहण करते है उतना हजम कहाँ करते हैं, हजम कर सको, उसे जीवन में उतार सको तो एक दिन की देशना से ही काम हो सकता है।
  2. "जो व्यक्ति अरहंत भगवान् को जानता है, उनके द्रव्य, गुण और पर्याय-समूह को जानता है, वही व्यक्ति अपने आत्म-तत्व को जान सकता है।" देव की आराधना मानव को भी देव बना देती है, लोक में कहावत प्रसिद्ध है कि दीप से दीप जलता है। एक माँ ने अपने बालक से कहा 'बेटा! यह दियासलाई है, इससे दीपक जला लो।” बालक ने एक के बाद एक कड़ी को जलाते हुए दियासलाई खाली कर दी। पर, दीपक नहीं जला। अन्त में माँ से कहता है-माँ दीपक जला नहीं, पूरी दियासलाई समाप्त हो गयी! माँ ने दीपक हिलाकर कहा-बेटा! इसमें तेल तो है नहीं, कैसे जलता, तेल ही तो दीपक का उपादान कारण है। वही दीप-रूप परिणत होता है, उसके बिना दीपक कैसे जलेगा? तेल और बत्ती होने के साथ-साथ बत्ती की मुख-शुद्धि भी होना आवश्यक है, यदि उसके ऊपर काली-काली कीट लगी हुई है तो भी दीपक का जलना कठिन है। कहने का तात्पर्य यह है कि यदि आप लोग देव बनना चाहते हैं तो उसके लिए आत्मा-रूपी उपादान की सम्भाल करो, हृदय की शुद्धि करो। इसके बाद अन्य निमित्त बनेंगे । कुन्दकुन्दस्वामी ने प्रवचनसार में लिखा है- जो जाणदि अरहंतं दव्वतगुणतपज्जयतेहिं। सो जाणादि अप्पाणं मोहो खलु जादि तस्स लयं॥ जो द्रव्य, गुण और पर्याय के माध्यम से अरहन्त को जानता है वह आत्मा को जानता है। जो आत्मा को जानता है, उसका मोह नियम से विनाश को प्राप्त होता है। संसार का प्रत्येक पदार्थ त्रिरूप है अर्थात् द्रव्य, गुण, पर्याय रूप है, अन्य पदार्थों के समान अरहन्त परमेष्ठी भी त्रिकालात्मक हैं। उनके ज्ञाता, दृष्टा स्वभाव वाले जीव-द्रव्य चराचर को जानने वाले केवलज्ञानादि गुण और अन्तिम विभाव-व्यंजन-पर्याय को जो जानता है और साथ में अपने द्रव्य-गुण-पर्याय की तुलना करता है वह अवश्य ही आत्मा को जानता है तथा जिसने शुद्ध-बुद्ध अर्थात् वीतराग, सर्वज्ञ स्वभाव वाले आत्मा को जान लिया वह रागादि विकारों को भी स्वीकृत नहीं कर सकता। साक्षात् अहरन्त तो आज उपलब्ध नहीं हैं, पर, स्थापना-निक्षेप के द्वारा जिनकी स्थापना की जाती है, वे अरहन्त विद्यमान हैं, अरहन्त की प्रतिमा एक दर्पण है, उस दर्पण में अपने आपको देखकर लगी हुई कालिमा को दूर करने का प्रयत्न करो, कोई भी व्यक्ति दर्पण देखने के लिए, दर्पण नहीं देखता, किन्तु दर्पण में अपना मुख देखता है, उसमें लगी हुई कालिमा को छुड़ाता है। बिना दर्पण देखे घर से बाहर नहीं निकलता, उसे भय लगता है कि मुख की कालिमा देखकर बाजार में कोई हँसी करके अनादर न कर दे। एक आदमी कुएँ पर पानी पीने गया, आते समय वहाँ अपनी तौलिया भूल आया। रास्ते में वह एक व्यक्ति को कन्धे पर तौलिया डाले देखता है, कहाँ गयी मेरी तौलिया? उसे याद आ गयी कि मैं कुएँ पर भूल आया हूँ, अब वह बड़ी तेजी से कुएँ की ओर दौड़ता है कि कोई उसे पार न कर दे, तो जिस प्रकार तौलिया के देखने से तौलिया का स्मरण हो जाता है, उसी प्रकार अरहन्त भगवान् की वीतराग-मुद्रा देखने से अपनी वीतराग-दशा का स्मरण हो आता है, मैं तो राग-द्वेष से रहित ज्ञाताद्रष्टा-स्वभाव वाला हूँ, इससे मुझे मुक्ति पाना है, देखो ये अरहन्त परमेष्ठी राग-द्वेष से मुक्ति पा चुके। क्या मैं नहीं पा सकूंगा? अवश्य पा सकूंगा। णमो अरहंताण, णमो सिद्धाण यहाँ अरहन्त परमेष्ठी को पहले नमस्कार किया है और सिद्ध परमेष्ठी को बाद में, जबकि अरहन्त चार अघातिया कर्मों से सहित होने के कारण संसारी (जीवनमुक्त) हैं और सिद्ध परमेष्ठी अष्टकर्म से रहित होने के कारण मुक्त हैं। इतना स्पष्ट अन्तर होते हुए भी अरहन्त को पहले नमस्कार करने का प्रयोजन है कि उनसे हमें मंगल की प्राप्ति होती है, सिद्ध परमेष्ठी के अस्तित्व का पता भी हमें अरहन्त से मिलता है, इसीलिए 'अरहन्त मंगल' के पश्चात् 'सिद्ध मंगल' कहा जाता है, अरहन्त उस काँच के समान हैं जिसके पीछे लाल-लाल मसाला लगा हुआ है, उस मसाले के कारण ही दर्पण में हमें हमारा मुख दिखता है, सिद्ध परमेष्ठी उस काँच के समान हैं जिस पर कोई मसाला नहीं लगा, सब कुछ आर-पार हो जाता है। दूसरा उदाहरण लीजिये-सुवर्ण यदि शुद्ध है तो कोमलता के कारण उससे आभूषण नहीं बनते। पर, जिस सुवर्ण में थोड़ी अशुद्धता है किंचित् मात्र ताँबा आदि जिसमें मिला हुआ है, उससे आभूषण बनते हैं और ये टिकाऊ रहते हैं, सिद्ध परमेष्ठी शुद्ध सुवर्ण के समान हैं, अत: उनसे किसी को उपदेशादि नहीं मिलता। पर, अरहन्त अशुद्ध सुवर्ण के समान हैं उनसे सबको उपदेशादि मिलता है, यहाँ अशुद्धता का सम्बन्ध अपूज्यता के साथ नहीं लगाना, इतनी अशुद्धता के रहने पर भी अरहन्त प्रभु शत-इन्द्रों के द्वारा पूज्य होते हैं। अरहन्त भगवान् की विशेषता वीतरागता और सर्वज्ञता से है। सम्यग्दर्शन की प्राप्ति वीतरागी और सर्वज्ञ की उपासना से ही हो सकती है, रागी और अल्पज्ञानी जीवों की उपासना से नहीं। अरहन्त की प्रतिमा को प्रतिष्ठा-शास्त्र के अनुसार अरहन्त माना जाता है तथा उसके दर्शन करने से सम्यक्त्व की प्राप्ति होती है, शास्त्र के द्वारा उसी जीव का आत्मा जागृत हो सकता है जो बहरा नहीं है तथा पढ़-लिख सकता है परन्तु अरहन्त की प्रतिमा का दर्शन तो प्रत्येक मनुष्य के लिए सम्यक्त्व की प्राप्ति में सहायक हो सकता है। दृश्य-काव्य अर्थात् नाटक-सिनेमा आदि का जो प्रभाव होता है वह श्रव्य-काव्य का नहीं। अरहन्त का दर्शन दृश्य-काव्य के समान तत्काल आनन्द देने वाला होता है, यह तो रही उपशम और क्षयोपशम सम्यक्त्व की बात, किन्तु क्षायिक सम्यग्दर्शन तो साक्षात् जिनेन्द्र के पादमूल का आश्रय लिये बिना ही नहीं सकता। पूज्यपादस्वामी ने सर्वार्थसिद्धि के प्रारम्भ में निग्रन्थाचार्य का वर्णन करते हुए लिखा है "अवाग् विसर्ग वपुषा मोक्षमार्ग निरूपयन्तं" अर्थात् वचन बोले बिना ही जो शरीरमात्र से मोक्ष-मार्ग का निरूपण कर रहे थे। वन्दना अर्थात् देव-दर्शन मुनि के छह आवश्यकों में शामिल है, उसे मुनि अवश्य ही करते हैं, समन्तभद्र स्वामी ने कहा है स्तुतिः स्तोतुः साधो कुशलपरिणामाय स तदा। भवेन्मा वा स्तुत्यः फलमपि ततस्तस्य च सतः॥ अर्थात् जिसकी स्तुति करना है वह सामने हो और नहीं भी हो परन्तु स्तुति करने वाले साधु को उसके फल की प्राप्ति अवश्य ही होती है, इस तरह जब स्तुति करना स्वाधीन है, तब उसके करने में उपेक्षा क्यों? आलस्य क्यों? वन्दना या दर्शन करते समय इतना ध्यान अवश्य रखना चाहिये, वन्दना का प्रयोजन भोग की प्राप्ति न हो, अपितु कर्मों का क्षय हो, अभव्य-जीव भोग के निमित्त धर्म करता है। पर, भव्य-प्राणी कर्म-क्षय के लिए धर्म करता है, कितना अन्तर है दोनों में, एक का लक्ष्य संसार है और दूसरे का लक्ष्य मुक्ति। ज्ञानी जीव भगवान् के दर्शन करते समय कहता है-गुणवन्त प्रभो, ‘तुम हम सम, परन्तु तुम से हम भिन्नतम'। अर्थात् हे प्रभो! द्रव्य-दृष्टि से हम और आप समान हैं। पर, पर्याय-दृष्टि से हम आप से सर्वथा भिन्न हैं, आपका आलम्बन लेकर हम आपके समान बनना चाहते हैं, निकट-भव्यजीव के ज्ञान का प्रवाह अपना रास्ता स्वयं बनाता चलता है, किस प्रकार? जिस प्रकार कि नदी का प्रवाह अपने उद्गम-स्थान से निकलकर समुद्र तक अपना रास्ता स्वयं बनाता चलता है। अरहंत तो निमित्त मात्र हैं, कार्य की सिद्धि के लिए उपादान आप स्वयं हैं, अपनी शक्ति की ओर दृष्टिपात करो, उसी से कल्याण होने वाला है।
  3. डोंगर गांव विशेष सूचना १५/११/२०१७, बुधवार डोंगर गांव पञ्च कल्याणक प्रतिष्ठा के सम्पन्न होने के अवसर पर एक विशेष घोषणा की गई डोंगरगढ़ प्रतिभास्थली में प्रतिष्ठित होने वाली प्रतिमा जी जिसके पञ्च कल्याणक डोंगर गांव में संपन्न हुए उस प्रतिमा जी की भव्य शोभा यात्रा डोंगर गांव से डोंगरगढ़ तक निकाली जाएगी जिसमें आचार्यश्री विद्यासागर जी महाराज ससंघ भी पद विहार करके डोंगरगढ़ जाएंगे साथ में प्रतिष्ठा महोत्सव के सभी मुख्य पात्र एवं श्रावक भी कतार बद्ध तरीके से इस शोभा यात्रा में पद विहार करेंगे शोभा यात्रा डोंगर गांव से १७/११/२०१७ को प्रारम्भ होकर डोंगरगढ़ में १९/११/२०१७ तक मंगल प्रवेश होने की सम्भावना है डोंगर गांव से डोंगरगढ़ की दुरी मात्र ३६ km है |
  4. यह संसार परिणामनशील है। इस सांसारिक रंग-मंच पर अनेक पात्र आते हैं और अपना खेल दिखाकर चले जाते हैं, लेकिन, यह रंग-मंच आज तक खाली नहीं हुआ। एक लड़का अपनी माँ की गोद में बैठकर माँ से अच्छी-अच्छी बातें सुनाने का अनुरोध करता है, जिससे उसका जीवन समृद्धिशाली बन सके, माँ सोचकर कहती है कि पड़ोसी व्यापारी का लड़का पढ़ने में काफी होशियार है, कक्षा में हमेशा प्रथम आता है, बड़ा होने पर व्यापार सँभालने लगा है और काफी कमा रहा है इत्यादि-इत्यादि। माँ के द्वारा उस लड़के की प्रशंसा में आधा घण्टा व्यतीत कर देने पर वह लड़का अपनी माँ से कहता है कि तू तो पर ही की प्रशंसा किये जा रही है, कुछ अपनी भी तो बात कर, अपने लड़के की कोई बात ही नहीं कर रही है, जब माँ उसकी बात नहीं मानती तो वह पर की वस्तु-स्थिति जो थी उसे सुनने से इंकार-कर गोद छोड़कर भागने लगता है, माँ उसका हाथ पकड़कर पुन: गोद में बैठा लेती और कहती है कि तू ठीक कह रहा है, तेरी मान्यता भी ठीक है पर क्या तू अपनी ही बात सुनना चाहता है? आज कौन अपनी बात सुनना चाहता है? मैं तेरी माँ बन बैठी हूँ, फिर भी मुझे ही अपनी बात अच्छी नहीं लगती है, यदि मैं तुझे अपनी सही-सही बात कहूँगी तो तुझे भी अच्छी नहीं लगेगी, इस पर लड़का कहता है-‘नहीं माँ! मुझे बिल्कुल अच्छी लगेगी।” तो फिर सुन-तू, मेरा बेटा नहीं है। मेरा लाड़ला नहीं है, मैं तेरा हित करने वाली नहीं हूँ, इत्यादि-इत्यादि। तब वह लड़का धीरेधीरे सोचने लगता है कि माँ जो कुछ कह रही है ये सही बात कह रही है। अभी तक इस सांसारिक प्राणी की स्वार्थ-बुद्धि हुई नहीं है, कहने के लिए वह स्वार्थ कहता है, यह संसार महान् स्वार्थपरायण है, लेकिन वह न अपनी प्रशंसा सुनना चाहता है न दूसरों की ही, अपनी प्रशंसा की जाये कि आत्मा अनन्तज्ञान का सुख भण्डार है, आत्मा का पर से-किसी भी सांसारिक पदार्थ से कोई सम्बन्ध नहीं है-आत्मा यदि है तो ज्ञान-दर्शन वाला है, आत्मा यदि है तो वह अपने आप में है और यदि नहीं है तो पर की अपेक्षा नहीं है, तो इसे भी कोई सुनता नहीं है, तो सुनाने वाला क्या सुनाये 'पर' की प्रशंसा या 'स्व' की प्रशंसा? यह काफी विचित्र है। लोग प्राय: कहते हैं कि महाराज! आज रविवार है, हम ‘छुट्टी” लेकर आये हैं तथा संसार से छुट्टी पाना चाहते हैं, तो मैं कहता हूँकि यदि ये ‘की’ संसार से छुट्टी पाने के लिए है तो वरदान सिद्ध होगी, लेकिन ऐसा होता नहीं है। जब तक 'स्व" क्या है?'पर" क्या है? ये ज्ञान नहीं होता तब तक कुछ भी कहना, सुन पाना बड़ा कठिन है, पर की कथा यदि पर को सुनाई जाये तो भी ठीक नहीं, स्व की कथा यदि स्व को सुनाई जाये तो स्व ही उसे पहचान नहीं पाता, यदि पहचान कराने का प्रयास भी कराया जाये तो भी उसे पसन्द नहीं आता, क्योंकि भूतकाल से अभी तक उसे 'स्व" का परिचय नहीं हुआ, दूसरे के माध्यम से 'स्व' का वर्णन सुनने पर उसे रुचता नहीं, संसारी प्राणी की दशा काफी खराब है, इसके बाद भी गुरु लोग कहें "कहैं सीख गुरु करुणा धार।" एक बार की बात है, समवसरण की रचना हुई और भगवान समवसरण में सिंहासन पर विराजमान थे, दिव्यध्वनि खिर रही है, असंख्य देवी-देवता एकल होकर बड़े मनोयोग से उसे सुन रहे हैं, दो श्रावक भी उसे सुनने जाते हैं, रास्ते में उन्हें अंडौआ (एरण्ड) के पेड़ के नीचे बैठे एक मुनि-महाराज दिखाई पड़ते हैं, वे उन्हें वन्दना करके कहते हैं- हे महाराज! हम भगवान् के समवसरण जा रहे हैं, वहाँ जाकर पूछेगे कि हमारा पुरुषार्थ कब तक जागृत होगा? हम उसके माध्यम से मुक्ति पा सकेंगे या नहीं? अगर आपको भी कुछ पूछना हो, कुछ शंका समाधान करना हो, तो कहिये, हम पूछकर बता देंगे।” महाराज! कहते हैं कि यदि तुम्हें मेरे बारे में कुछ पूछना ही है तो पूछ लेना कि इस प्रकार साधना करते-करते हमें कब मुक्ति मिलेगी? (यह कथा श्वेताम्बरों में आती है, हमें इसका भाव ग्रहण करना है।) दोनों श्रावक समवसरण जाते हैं तो पहले अपने हित की बात पूछते हैं, उन्हें भगवान् की ओर से जवाब मिलता है कि तुम सात-आठ भवों से मुक्ति पा जाओगे, ये सुनकर वो काफी प्रसन्न होते हैं, इसके बाद वे मुनि महाराज की बात भगवान् को बताते हैं तो भगवान् कहते हैं-जाओ, उनसे जाकर कह दो कि वे जिस पेड़ के नीचे बैठे हैं उसमें जितने पते हैं उतने भवों के बाद उन्हें मुक्ति मिलेगी, ये सुनकर वे सोचने लग जाते हैं कि भगवान् ने तो कह दिया लेकिन भगवान ने जो कह दिया सो कह दिया। लौटते समय रास्ते में वे देखते हैं कि मुनि महाराज एरण्ड के वृक्ष के पास से उठकर कहीं और बैठ गये हैं, वे उन्हें देखकर नमोऽस्तु कहते हैं और उदास हो जाते हैं, उन्हें उदास देखकर मुनि महाराज मुस्कराकर पूछते हैं—कि क्या भगवान ने आप लोगों के बारे में कुछ अन्यथा कह दिया! तुम्हें मुक्ति होगी कि नहीं? वे कहते हैं-महाराज! हमें तो मुक्ति होगी, तो फिर क्या मुझे नहीं होगी? हमें तो होगी सात-आठ भव में, लेकिन आपके लिए हम भवों की संख्या नहीं बता सकते, आप जिस पेड़ के नीचे-आकर बैठ गये हैं उस पेड़ में जितने पते हैं उतने जन्मों में आपको दाखिल होना पड़ेगा, आप बबूल के पेड़ के नीचे आकर बैठ गये हैं और इसमें तो असंख्य पते हैं, यह सुनकर महाराज उदास होने के बजाय प्रसन्न हो उठते हैं, वे उन्हें धन्यवाद देते हुए कहते हैं-धन्य हूँ, धन्य हूँ, मैं भव्य तो हूँ और एक दिन इस संसार से, महान् कीचड़ (कर्दम) से ऊपर उढूँगा। वे श्रावक सोचने लग जाते हैं, कि ये कैसा साधु है। अपने असंख्य भवों से डर नहीं रहा है, डर किसका है? यदि संसार से नहीं छूटे तब डर है, संसार से तो मुझे छूटना है, संसार से छूटने के लिए ये संयम है, प्रवचन है, तीर्थ-यात्रायें आदि अनेक कार्य हैं। धार्मिक कार्य में श्रीगणेश से लेकर इति तक, प्रारम्भिक दशा से अन्तिम दशा तक, जितनी भी क्रियाएँ होती हैं वे सब संसार से छूटने के लिए ही हैं, ये निर्णय या प्रतिज्ञा कर लेना आवश्यक है, ये बात अलग है कि किसी की क्रिया में विलम्ब हो सकता है, लेकिन ये ध्यान रखो जिसने भी ये दृढ़-संकल्प कर लिया है कि मुझे इन क्रियाओं के द्वारा कर्म काटना है एक भव, दो भव, ज्यादा से ज्यादा सात-आठ भव लग सकते हैं, फिर वह नियम से इस पार से उस पार तक पहुँच जायेगा, जिसके हृदय में ऐसा विश्वास हुआ है या प्रतीति हुई है या आस्था बन चुकी है, तो उसी को आचार्य सम्यग्दृष्टि बोलते हैं। ये सुनाकर वे चले जाते हैं, जब कभी भी मुमुक्षु भव्य-प्राणी अकेला बैठकर (वैसे वो अकेला ही रहता है) विचार करता है तो उसकी एकमात्र ध्येय-आस्था और विश्वास की डोर ही काम करती है, अन्य कोई साथी रहता नहीं है, वो अकेला ही जन्मता है। अकेला ही मरण करता है, अकेला ही धर्म-साधन करेगा और अकेला ही मुक्ति पायेगा, इसमें भी एकत्व ही रहेगा, अनेकत्व कहीं नहीं आयेगा। भले ही हम अनेकान्तवाद के उपासक हैं लेकिन ये एकान्त है कि एकान्त में ही अकेले की मुक्ति होगी, वहाँ अनेकान्त नहीं रहेगा, वहाँ भी अपने को अपने आप का ही अनुभव करना पड़ेगा, तनिक भी किसी दूसरे का अनुभव नहीं होगा। सभी चीजों का कोई न कोई प्रतिपक्ष होता है, अपने से भिन्न द्रव्य जितने हैं वे सारे के सारे प्रतिपक्ष हैं, चाहे वे भगवान हों, चाहे वे देव हीं, चाहे दानव हीं, चाहे मानव हीं, चाहे पुद्गल हों, चाहे चेतन हों, चाहे अचेतन हों, चाहे मुक्त हों या संसारी हों । सब हमारे लिए प्रतिपक्ष हैं और उनके लिए हम प्रतिपक्षी हैं, इस प्रकार का दृढ़-श्रद्धान जब तक किसी को नहीं होता है तब तक मुक्ति के मार्ग में उसे रस नहीं आ सकता है, मुक्ति के मार्ग पर चाहे कितने ही व्यक्ति हों वे एक दूसरे के प्रतिपक्षी हैं, जब तक एकत्व का चिन्तन नहीं होगा तब तक इस संसारी प्राणी की दीनता तीन काल में छूट नहीं सकती है, इस बात को कुन्दकुन्द आचार्य डके की चोट पर कहते हैं, संसार में ऐसी कोई वस्तु नहीं है जिसका आश्रय लेने का भाव इस संसारी प्राणी ने नहीं किया हो। अचेतन का लेता है, चेतन का लेता है, माँ बेटे का सहारा लेती है, बेटा माँ का, पिता पुत्र का सहारा लेता है, पुत्र पिता का, सारी की सारी वस्तुएँ सहारे से ही चल रही हैं, बिना सहारे कोई चलता ही नहीं है, आज का यह मानवीय जीवन अन्योन्याश्रित हो चुका है और इसी अन्योन्याश्रय को छुड़ाने के लिए अध्यात्मवाद खड़ा हुआ है, वह अध्यात्म है जिसमें एकमात्र आत्मा ही रह जाती है, परमात्मा गायब हो जाता है। इतना साहस जिस व्यक्ति के व्यक्तित्व में आ जाता है वही अकेला इसे झेल सकता है अन्यथा तीन काल में भी सम्भव नहीं है। ये जीवन आनन्दमय तभी हो सकता है जब वहाँ एकत्व हो। जहाँ अनेकत्व है वहाँ रोने के सिवा कुछ नहीं है, मोक्षमार्ग पर आकर भी जो अनेकत्व का चिंतन करता है उसके सारे के सारे दिन रोने में चले जाते हैं। जिसने अपने जीवन में एकत्व की स्थापना नहीं की चाहे वह मोक्षमार्गी हो या संसारमार्गी उसे सुख नहीं मिल सकता 'न भूतो न भविष्यति' घर छोड़ते समय आप ये ध्यान रखना कि ऐसा घर नहीं छोड़ना कि वो एकत्व भी छूट जाये और ये भी तो ध्यान रखना कि बीच में न कोई गुरु सहयोग देंगे न कोई साथी क्योंकि वे भी अकेले हैं। 'आप अकेला अवतरे मरे अकेला होय।' जब हम इतिहास पलटते हैं तो देखते हैं कि इस संसारी प्राणी ने अनंतों भव काटे हैं, मनुष्य बना है या नहीं बना है कोई महत्व नहीं रखता, लेकिन पर्यायें तो अनंतों मिली हैं, क्योंकि यह संसार परिणमनशील है, इस सांसारिक रंगमंच पर अनेक पात्र आते हैं और अपना भेष दिखाकर चले जाते हैं, लेकिन यह रंगमंच आज तक खाली नहीं हुआ है, इस सांसारिक रंगमंच में ४ मंच हैं-एक तिर्यञ्चगति, एक देवगति, एक मनुष्यगति और एक नरकगति। वे दो श्रावक पुन: समवसरण जाते हैं, वे भगवान् से पूछते हैं कि भगवान् उन महाराज का क्या हुआ? भगवान् कहते हैं तुम तो इसी भव में हो और तुम्हारे जीवन में जो बूढ़े महाराज थे न, उनका अवसान हो गया और उन्हें मुक्ति मिलने वाली है, वे कहते हैं कि हे भगवान्! तो फिर ये 'रत्नकरण्डकश्रावकाचार' की कारिका तो फालतू हो गयी? आपने तो कहा था कि उस पेड़ के जितने पते हैं उतने भव उनके हैं? हमारा तो एक भी भव पूर्ण नहीं हुआ है और वे यहाँ तक कैसे आ गये? हे भव्य जीवों तुम्हें मालूम नहीं है, तुम्हें अपने ऊपर जो अभिमान था कि हम महाराज से पहले मुक्ति पावेंगे वो गलत था, मुक्ति का साधन भवों के ऊपर निर्धारित होकर भी पुरुषार्थ के ऊपर निर्धारित है। उन मुनि महाराज ने इस प्रकार निदान किया था और निदान करने के फलस्वरूप उन्हें निगोद का बन्ध हुआ था और वहाँ "एक श्वांस में अठदस बार, जन्मो मरयो भरयो दुखभार। निकस भूमि जल पावक भयो, पवन प्रत्येक वनस्पति थयो।" एक श्वांस में अठारह बार वहाँ जन्म-मरण कर कुछ ही दिनों में उन्होंने अपने भवों की अनंत संख्या समाप्त कर ली, इसके बाद मनुष्य जन्म ग्रहण किया और पुन: मुनि-दीक्षा ग्रहण कर ली और उसी स्थान पर जिस स्थान पर बैठे थे तपस्या कर रहे हैं और उन्हें केवलज्ञान प्राप्त होने वाला है। यहाँ आने वाले हैं, दर्शन कर लेना। इसी प्रकार हम लोगों का जीवन चल रहा है, अपने आप को पर्याय बुद्धि मत मानिये। संसार में यदि शरण लेने योग्य हैं तो देव, गुरु, शास्त्र और उसमें भी एकमात्र अनन्य शरण है तो आत्म-धर्म और कोई शरण नहीं है, पहले शुरू में व्यवहार शरण, फिर देव गुरु शास्त्र की शरण का माध्यम लेकर आत्म शरण । आज यदि किसी के साथ आपका बैर है और वह यदि बैर नहीं रखता तो आप तो यहीं रह जाओगे और वह बैर समाप्त कर मुक्ति का भाजन बन जायेगा, कोई किसी को रोक नहीं सकता है। शरीर के ऊपर बन्धन है वचनों के ऊपर बन्धन हैं लेकिन विचार-शक्ति के ऊपर किसी का बन्धन नहीं, वहाँ पर इमरजेंसी का कोई काम नहीं, यह स्वतंत्र सत्ता का प्रतीक है, वह सत्ता दूसरी सत्ता के साथ कोई सम्बन्ध नहीं रखती, सिद्ध परमेष्ठी के साथ सजातीयता होकर भी वे हमारे प्रतिपक्ष, हैं उनके हम प्रतिपक्ष हैं, सर्वप्रथम भगवान् का देव गुरु शास्त्र का पक्ष लेना होगा, राग का नहीं, यह व्यवहार सम्यग्दर्शन है। फिर इसके उपरांत निश्चय पक्ष यदि है तो भगवान् को भी प्रतिपक्षी समझ करके अपना ही पक्ष लेना होगा, भगवान् स्वयं कहते हैं कि यदि आत्मा में लीन होना चाहते हो तो मेरा भी पक्ष छोड़ दो। इसी प्रकार सभी पक्षों से अतीत होना होगा तभी हम आत्मा में तैर सकते हैं, भगवान से और सभी पक्षों से अतीत होकर एकमात्र आत्मानुभूति प्राप्त करना होगा, लेकिन ध्यान रखना, दो ही शरण हैं देव-गुरु-शास्त्र या आत्म-धर्म, इसके अलावा कुछ नहीं, यही आज के इस रविवार के उपदेश का आशय है, वे मुनि महाराज अन्यत्र कहीं नहीं गये, अनंत-शक्ति के धारक होकर लोक के अग्र भाग पर उच्च सिंहासन पर विराजमान हैं, जो आपने नहीं दिया उन्होंने अपने सम्यक्र पुरुषार्थ के माध्यम से प्राप्त किया, उस पावन पद को आप भी अपने पुरुषार्थ के माध्यम से अनंतकाल तक के लिए प्राप्त कर सकते हैं, बस, काल की ओर मत देखी। वह तो सदा मौजूद है, एकमात्र अपने परिणामों को सुधारते हुए मुक्ति के पथ पर अविरल बढ़ते जाइये, आप मुनि-महाराज की कथा और उन दो सज्जनों की जो भ्रान्ति थी उसे भी याद रखेंगे और सिर्फ याद ही नहीं उसके माध्यम से अपने भव्यत्व का उद्धाटन कीजिये और इसके लिए कोई काल सापेक्षिक नहीं है। दृढ़ संकल्प कर लो कि हमें उसे प्राप्त करना है, नियम से प्राप्त हो जायेगा।
  5. दूसरों को मत देखो, अपने आपको देखो आत्मा अमूर्त है, दिखती नहीं है, इसलिए उस अमूर्त तत्व पर विश्वास करना भी कठिन कार्य अवश्य है, किन्तु असम्भव नहीं, अनादिकाल से भटकता हुआ यह संसारी प्राणी अमूर्त-तत्व पर विश्वास कम रखता है, क्योंकि वह देखने में नहीं आते, अज्ञानी प्राणी मात्र जो दृश्य देखने में आते हैं उन्हीं को सब कुछ समझता है, इसलिए प्रथमानुयोग के माध्यम से आचार्यों ने महापुरुषों के जीवन-चरित का आदि, मध्य और अन्त साकार किया है। परिणामों का चित्रण करणानुयोग है। करण के दो अर्थ हैं, परिणाम और गणित। अत: करणानुयोग लोक-अलोक के विभाजन, युग-परिवर्तन एवं चतुर्गति जीवों के सुख-दुखों का वर्णन करने वाला होता है। दुख कोई व्यक्ति नहीं चाहता इसलिए करणानुयोग में दर्शित दुखों का वर्णन बुरे कार्यों के मध्य अवरोध उत्पन्न करता है और व्यक्तियों को सत्यपथ पर चलने की प्रेरणा प्रदान करता है। 'चरणम् अनुसरतव्यम्' चरणम् का अर्थ है चरित्र और उसका अनुसरण करना अर्थात् पालन करना। जिस चरित के माध्यम से वह अमूर्त द्रव्य भी प्राप्त हो जाता है; वह अनन्तात्मक द्रव्य कहाँ तक छिपा रहेगा? कहाँ तक अमूर्त रहेगा? साधना तो वह है जो साध्य का मुख दिखा दे। 'मूलाचार' ग्रन्थ मूल प्राकृतभाषा में है। इस पर सकलकीर्ति आचार्य महाराज ने संस्कृत भाषा में टीका लिखी। इसमें कृतिकर्म का प्रसंग है। अर्थात् साधु के करने योग्य कार्य का वर्णन 'है। इस ग्रन्थ में आचार्यों ने पद-पद पर प्रत्येक गाथा में साधुओं को उनके कर्तव्यों के प्रति इंगित किया है। जिन कर्तव्यों का पालन करके साधु-जन्म, जरा और मरण के दुखों से बचकर शीघ्र ही अनन्त सुख रूप मुक्ति का लाभ लेते हैं और जो स्वभाव विभाव में परिणत हो चुका था, उस स्वभाव को प्राप्त करके उस अमूर्त आत्म-द्रव्य का साक्षात्कार करते हैं। 'णमो लोए सव्वसाहूण" साधु का पद महान् माना जाता है, अतः बड़े-बड़े आचार्य भी उस साधु के लिए तीन सन्ध्याओं में नमस्कार करते हैं, क्योंकि मुक्ति का साक्षात् लाभ तो न आचार्य को है और न उपाध्याय को है, मुक्ति को साक्षात् प्राप्त करने का अधिकारी तो मात्र साधु ही है, बड़े-बड़े महान् आचार्य भी जो उस साधु को नमस्कार कर रहे हैं, इसका मतलब यह है कि उनकी दृष्टि उस द्रव्य की ओर है, पर्याय की ओर नहीं। आचार्य, उपाध्याय और साधु में वैसे साधु-पद की अपेक्षा कोई अन्तर नहीं है क्योंकि सभी समान रूप से अट्ठाईस मूलगुणों का पालन करते हैं। दूसरी बात यह है कि साधु ही साधना के अन्तिम बिन्दु पर पहुँचता है, इसलिए भी साधु-पद की महिमा बतायी गयी है। आचार्य शब्द का अर्थ है कि- आचरति आचारयति इति आचार्य:! (सर्वार्थसिद्धि:) जो स्वयं आचरण करे एवं अपने शिष्यों को आचरण कराये, वह आचार्य कहलाता है। अध्यात्म और आचारपरक महान् ग्रन्थों को लिखकर आचार्यों ने हमारे ऊपर महान् उपकार किया है। कल्याण करने के लिए दिशा-बोध दिये गये हैं, फिर भी उनकी उपेक्षा करके स्वार्थ-सिद्धि के लिए हम किस ओर खिंचते चले जा रहे हैं। बड़े-बड़े शास्त्रों का अध्ययन करने के बाद भी 'अनुभूति के नाम पर हम कुछ नहीं कर पाये। स्मृति के माध्यम से बुद्धि का आयाम करके मात्र कोश बना लिया है दिमाग में। ज्ञान जब हृदयंगम होकर चरित्र में उतरता है तभी उपयोगी होता है, अन्यथा नहीं। अध्यात्म तो है ही किन्तु हमें सुख-शान्ति प्राप्ति हेतु चरणानुयोग का ज्ञान भी आवश्यक है, क्योंकि उस अध्यात्म की प्राप्ति चरित्र के बिना तीन काल में भी सम्भव नहीं। चरणानुयोग से भी कोई मुमुक्षु-प्राणी दृष्टि ले सकता है। सामने जो चल रहा है, आचरण ही जिसका जीवन बना हुआ है, उसे देख कर भी आपका जीवन भव्य बन सकता है। यह बात उसके लिए है जिसकी होनहार ठीक हो। होनहार का अर्थ है अच्छा होने की योग्यता। ‘निकट-भव्य' की दृष्टि उस ओर जाती है और वह आचरण देखकर अपने आचरण को सुधार लेता है। गौतम स्वामी ग्यारह अंग और नौ पूर्व के ज्ञाता थे, किन्तु यह सब बीज सम्यग्दर्शन के थे। सम्यग्दर्शन होने के पूर्व तक वे एक तापस, एक ब्राह्मण परिचालक थे, किन्तु उनमें अंकुर लक्षण बहुत होनहार को लेकर थे। एक इतिहासकार का कहना है कि वर्तमान में एक अंग का अंश मात्र ज्ञान शेष है, वह भी क्रमश: क्षीण होता जा रहा है, वह इन्द्रभूति ब्राह्मण ग्यारह अंग और नव पूर्व के क्षयोपशम-ज्ञान की शक्ति लेकर चलने वाला था, मात्र पानी के सिंचन की आवश्यकता थी। ज्योंही उसने महावीर के समवसरण को देखा त्योंही मान गल गया और जो सम्यग्दर्शन शक्ति रूप में था वह प्रकट हो गया और वह संयमी बन गया। उसी प्रकार प्रत्येक भव्य आत्मा में भी ऐसी ही शक्ति विद्यमान है, उसके क्षय, क्षयोपशम की आवश्यकता है और वह शक्ति उसे प्राप्त हो सकती है। उस शक्ति को प्रकट कर जीव अपने योग और उपयोग को शुद्ध कर सकता है। वह योग पवित्र है। संयोग एक दो में नहीं अनेक में है। अनन्त का मिटना मुश्किल कार्य है, वियोग भी दो के ही मध्य होता हैं | संसारी प्राणी संयोग और वियोग के पीछे पड़ा हैं, उसने योग कभी नहीं साधा योग क्या चीज है? संयोग और वियोग को भूल जाओ, योग पर दृष्टि रखो, योग में न कोई संघटन है न विघटन, न कोई इट-वियोग, न कोई अनिष्ट-संयोग होता है। जो कुछ होता है वह होता ही है, उसका दर्शक मात्र योगी होता है। जिसकी दृष्टि में पदार्थ का परिणमन मात्र है, उसे इष्ट-अनिष्ट का अनुभव कैसे होगा? अकेले में क्या संयोग और क्या वियोग । जब योग शब्द पर लगे हुए 'वि' और 'सम' उपसर्ग हट जाते हैं, और ‘उप’ यानी निकट का सम्बन्ध लग जाता है तब वह योग उपयोग में परिणत हो जाता है, अर्थात् सिर्फ साधक की परिणति उपयोगमय हो जाती है। अत: हमारा तो सबसे यही कहना है-बंधुओं आज आप सभी लोग उपसर्ग, संयोग-वियोग इन सभी चीजों से हटकर अपने उपयोग का सही-सही उपयोग करो। एक व्यक्ति ने कहा-मैं बहुत दुखी हूँ, मैंने पूछा-तुम्हारा दुख क्या है? वह बोला-मैं बड़ा बनना चाहता हूँ, मैंने कहा-यह शुभ बात है, किन्तु बड़ा बनना नहीं बड़ा हूँ यह देखना है, बड़े बनने की इच्छा छोड़ दो, बड़ा-छोटा ये कल्पना मात्र है, छोटी-बड़ी कोई चीज नहीं है। जब हम एक वस्तु के आगे दूसरी वस्तु रखते हैं तब चीजें छोटी-बड़ी दिखती हैं तथा तुलना करने से अच्छे-बुरे की कल्पनाएँ जन्म लेती हैं, अतः दूसरों को मत देखो, अपने आपको देखो, सब कुछ तैयार है, कुछ करना नहीं है, मात्र कल्पनाएँ करना छोड़ दो, कल्पनाएँ छोड़ना है और कुछ नहीं करना है। यह कार्य साधारण नहीं, विषय-कषायों से युक्त प्राणियों के लिए यह कार्य असाध्य तो नहीं, पर, दु:साध्य अवश्य है। धार्मिक क्षेत्र में प्रवेश पाने के लिए जो दोनों हाथों में धन-सम्पत्ति का कचरा है उसे फेंक दो और दोनों हाथों में दया दान, संयम के साधन आदरपूर्वक ले लो। दोनों कानों से जिनवाणी को सुनो, आँखों से भगवान का दर्शन करना चाहिए, एक कान से ध्यानपूर्वक सुनकर दूसरे कान को बन्द कर लेना चाहिए ताकि बात निकले नहीं, हृदयंगम हो जाये, अनादिकालीन आपके अपने जो संस्कार हैं उनको तोड़ना है, आप नये संस्कार जमायें, नये संस्कार जमाने में बहुत प्रयत्न करना पड़ता है, दीवार पर रंग करना है, प्रत्येक वर्ष करते हैं तो मात्र झाडू लगाकर कर लो, पर यदि अनेक वर्षों से दीवार पर रंग नहीं किया है तो पहले खरोंचें, मारमारकर उसकी पतें उतारनी पड़ती हैं, तब कहीं जाकर दीवाल पर रंग आता है। अनादिकाल से आत्मा की इस दीवार पर धर्म का कोई रंग-रोगन तो किया नहीं अभी तक और अब नया रोगन लगाना चाहते हैं, अध्यात्म एक प्रकार का रंग है, इसका अलग ही ढंग है, जब तक दीवार पर पुराने रंग का रंग है, उसका निवारण नहीं होता, तब तक समझना-अभीष्ट वस्तु बहुत दूर है। धर्म अधर्म की आपने संक्षिप्त परिभाषा जानना चाही, नोट कर लो भैया! ‘‘जो आपको आज तक अच्छा नहीं लगा वह है धर्म और जो आज तक अच्छा लगा वह है अधर्म ।' वैसे आप धर्म का स्वरूप बहुत अच्छी तरह समझते हैं, इसीलिये तो धर्म से दूर हो जाते हैं, संसारी प्राणी धर्म को खूब समझता है। इसीलिए वीतरागता से दूर है। आप लोगों को भी वैराग्य होता है, किन्तु धर्म से, त्याग से, आत्मा से वैराग्य होता है। . लेकिन आत्मा में वैराग्य नहीं होता। विषय, कषाय, राग-द्वेष आपको हेय नहीं लगते, आप सोचते होंगे यदि वीतरागता प्राप्त हो जाये तो मैं लुट जाऊँगा, सब हमारे आनेजाने के मार्ग बन्द हो जायेंगे, किन्तु यथार्थ दृष्टि से देखा जाये तो आप लोगों की यह धारणा गलत है। मैं तो राग छोड़ने को भी नहीं कहता, राग अपनाना होगा, द्वेष अपनाना होगा। राग अपनी आत्मा से और जब द्वेष ‘द्वेष' से करने लगेंगे तभी आत्म-कल्याण की शुरूआत होगी, अपनी आत्मा को छोड़कर यदि तुम किसी से भी राग नहीं करोगे तो-आत्मा में ‘स्व” स्वभाव में स्थित हो जाओगे। जितना राग पर से किया, उतना राग आत्मा से किया जाये और जितना द्वेष वीतरागता से किया उतना द्वेष अब द्वेष से किया जाये तो समझ लो बेड़ा पार हो जायेगा। कैवल्य की उत्पत्ति हो जायेगी, संसार-समुद्र से तर जाओगे। जैन-दर्शन जितना सरल है, उतना अन्य कोई दर्शन नहीं। सबसे प्यार करना कठिन है। बुरी अच्छी सबको कथचित् ठीक कहकर मान्यता देना बड़ा मुश्किल है। यह सब जैन-दर्शन के विशाल उदार हृदय की महानता है, इस प्रकार के मार्ग पर आप कभी चलते हैं क्या? तो आप चले नहीं घूमे। हैं, घूमना कोई चलना थोड़े है, चलना महान् है, चलने में सुगंधी है, चलने से दिशा मिल जाये, मंजिल मिल जाती है। अनादिकाल से भटकता हुआ यह यात्री छोर पा जाता है, इसको फिर बारबार चारों गतियों में घूमना-भटकना नहीं पड़ता। पर, आपको घुमावदार रास्ता ही पसन्द है, आपको उसी में मजा आ रहा है, कभी मनुष्य, कभी तिर्यञ्च, कभी नारकी, कभी देव . इस प्रकार आप कोल्हू के बैल की भाँति घूम रहे हैं.वहीं वहीं पर.इसी संसार में.! उसी तूलि से बन्दर का चित्र बनता है, उसी तूलि से परमेश्वर का, सभी का उपादान एक ही है, काल भी वहीं पर मौजूद है, लेकिन परिणमन सब भिन्न-भिन्न हो रहे हैं। अन्त में, हमारा आप सभी से यही कहना है कि आप अपनी दृष्टि बदलए, काल के समान दृष्टि को भी उदासीन बनायें, क्योंकि दृष्टि के बदलने से सृष्टि में भी बदलाहट आ जायेगी, क्योंकि कहा ही गया है कि- ‘जैसी दृष्टि वैसी सृष्टि” इतना ही पर्याप्त है।
  6. "बाधाओं को सहन करने वाला, निरन्तर साधना करने वाला व्यक्ति ही अन्त में सफल होता हैं |” एक बार एक व्यक्ति मेरे पास आकर कहने लगे - ‘महाराज जी! कुछ कृपा कर दो, जिससे काम चलने लगे। क्या काम आप करना चाहते हैं? मैंने पूछा-यही चलना, फिरना, भोजनपान आदि। उन्होंने कहा- इन कामों में बाधा क्यों आती है? महाराज क्या कहूँ? मुझे दिखता नहीं है। कुछ तन्त्र-मन्त्र कर दो, जिससे दिखने लगे, उन्होंने कहा। मैंने पूछा-'क्या अवस्था है आपकी?” उत्तर मिला महाराज! ज्यादा नहीं पचासी की होगी। उन महानुभाव की बात सुनकर मुझे लगा कि मानव जब जर्जर शरीर हो जाता है, इन्द्रियाँ शिथिल हो जाती हैं तब भी भोगोपभोग की आकांक्षा नहीं छोड़ना चाहता। इसीलिये नीतिकारों ने कहा है - यावत्स्वास्थ्यं शरीरस्य, यावच्चेन्द्रिय-सम्पदः । तावद्युक्तं तपः कर्म वार्धक्ये केवलं श्रमः॥ अर्थात् जब तक शरीर स्वस्थ है और इन्द्रियाँ अपना कार्य करने में समर्थ हैं, तब तक आत्मकल्याण के लिए कुछ कर लेना चाहिए, अन्यथा वृद्धावस्था आयेगी, शरीर निश्चत ही शिथिल होगा और इन्द्रियाँ भी शक्तिहीन होयेंगी, उस अवस्था में मात्र पश्चाताप ही शेष रह जायेगा। वीर्यान्तराय कर्म के क्षयोपशम से शक्ति यदि प्राप्त हुई है, तो उसका सदुपयोग करना चाहिए। भोगोपभोग सामग्री के इकट्ठे करने में शक्ति को लगाना उसका दुरुपयोग करना है, संसार के अन्दर कोई अमर बनकर नहीं आया है। एक दिन सबको यथास्थान जाना है। विषय चाह दावानल दह्यो, मरत विलाप करत दुख सह्यो। भाग्यवश कभी देव भी हो गया, तो वहाँ विषयों की चाहरूपी दावानल में जलता रहा और अन्त में माला मुरझाने पर इस प्रकार का संक्लेश करता है कि उस काल में एकेन्द्रिय की भी आयु बाँधकर पृथ्वीकायिक, जलकायिक और वनस्पतिकायिक में उत्पन्न हो जाता है। ‘तहतें चय थावर तन धर्यो, यो परिवर्तन पूरे कर्यो।' यह जीव कब-से परिवर्तन कर रहा है और कब तक करता जायेगा, इसका ठिकाना नहीं है। यह निश्चत समझिये देवों का आयु-बंध, भुज्यमान आयु के अन्तिम छह माह शेष रह जाने पर आठ अपकर्षों के माध्यम से होता है। इसलिए देव तो अन्तिम जीवन में सावधानी बरतने से संकट से बच सकते हैं, परन्तु कर्मभूमिज मनुष्य, तिर्यञ्च का आयु-बन्ध, भुज्यमान आयु के दो भाग निकलने पर प्रारम्भ होता है, जबकि इन मनुष्य-तिर्यच्चों को इस बात का ज्ञान नहीं है कि मेरी आयु कितनी है और उसका तृतीय अंश कब प्रारम्भ होने वाला है? इस दशा में तो उसे सदा सावधान ही रहना पड़ेगा अन्यथा असावधानी से खोटी आयु का बन्ध हो सकता है। सम्यग्दृष्टि विचार करता है कि जीवन क्षणभंगुर है, बिजली की कौंध के समान नश्वर है। पर, मिथ्यादृष्टि सोचता है कि अभी क्या हुआअभी-अभी तो आया हूँ, कुछ भोगोपभोग का भी मजा ले लेने दो। पर, वह यह सब सोचता ही रहता है, इधर जीवन की लीला समाप्त हो जाती है। हर एक व्यक्ति को धर्म-साधना के लिए अपना जीवन-क्रम निश्चत कर लेना चाहिए। इसके बिना वह लक्ष्यहीन हो भटकता ही रहता है। जो जीवन-क्रम निश्चत कर घर में कुछ साधना कर लेते हैं उन्हें आगे का मार्ग सरल हो जाता है। अभ्यास के बिना कार्य की सिद्धि होना सम्भव नहीं है। विद्यार्थी वर्षभर अभ्यास करता है, तब परीक्षा में उतीर्ण होता है। जिस छात्र ने कुछ अभ्यास किया नहीं, वह परीक्षा में उत्तीर्ण नहीं हो सकता। दक्षिण में दशहरा का त्यौहार होता है, खूब उत्सव मनाते हैं, उस समय लोग आपस में सोना बाँटते हैं, यह सोना नहीं, एक वृक्ष के गोल-गोल पत्तों को वे सोना कहते हैं, उन्हीं का आदान-प्रदान करते हैं, गेहूँ भी घर में बोकर उगाते हैं। सात-आठ दिनों में गेहूँ के पौधे बड़े हो जाते हैं। पर, सूर्य की किरणों का प्रकाश न मिलने से पीले-पीले रहते हैं, जैसे कि टी. बी के मरीज। आपके प्रदेश में भी तो श्रावण-मास में कजलियाँ निकालते हैं, ली जैसी होती हैं वे पीली-पीली, अन्धकार में रहने से उनमें वृद्धि तो अधिक हो जाती है, परन्तु सर्दी-गर्मी सहन करने की क्षमता नहीं रहती, जो पौधे सूर्य-किरणों के प्रकाश में बोये जाते हैं वे हरे-भरे होते हैं और उनमें 'सर्दी-गर्मी सहन करने की क्षमता रहती है, फल-फूल भी उन्हीं में लगते हैं, पीली-पीली कजलियों में नहीं। अत: बाधाओं को सहन करने वाला, निरन्तर साधना करने वाला व्यक्ति ही अन्त में सफल होता है। विवेकी मनुष्य घर का परित्याग कर बाहर जाता है और अपनी क्षमता से सर्दी-गर्मी को सहता हुआ आत्म-कल्याण की ओर अग्रसर होता है। कहने का तात्पर्य यह है कि जिस प्रकार घर में आग लगने पर कुंआ खुदवाने से कोई लाभ नहीं होता, उसी प्रकार वृद्धावस्था में धर्म का मार्ग अंगीकृत करने पर लाभ नहीं होता, धर्म तो शरीर की शक्ति रहते हुए कर लेना चाहिए, जिस प्रकार युवावस्था की कमाई को मनुष्य वृद्धावस्था में आराम से भोगता है, उसी प्रकार युवावस्था की धर्मसाधना का उपयोग वृद्धावस्था में करता है। कुन्दकुन्द स्वामी ने कहा है रतो बंधदि कम्मं मुंचदि जीवो विराग-संपत्तो। एसो जिणो वदेसो तम्हा कम्मेसु मा रज्ज।॥ ( समयसार—गाथा) अर्थात् रागी जीव कर्मों को बाँधता है, और विरागी जीव कर्मों को छोड़ता है, यह जिनेन्द्र भगवान् का उपदेश है, इसीलिए कर्मों में रागी मत बनो। भव्य-जीव विरागी होकर सत्तर कोड़ा-कोड़ी सागर की स्थिति वाले मिथ्यात्व कर्म को अन्त: कोड़ा-कोड़ी सागर की स्थिति में ला देता है, इतना ही नहीं, उसे समाप्त कर सकता है, परन्तु अभव्य नहीं, अभव्य जीव को विशुद्धि-लब्धि नहीं होती, अर्थात् उस जाति की विशुद्धता में वह देशना से लाभ नहीं ले सकता, गुरुओं की देशना को सुन लेना ही देशना-लब्धि नहीं है। पर, उसके ग्रहण, धारण और अनुभव की शक्ति आ जाना देशना-लब्धि है। बहुत पहले गृहस्थावस्था की बात है, एक बार एक सज्जन आकर बोले-जरा, हमारे घर चलिए, एक भाई को बड़ी वेदना हो रही है उसे संबोध दीजिए, मैं चला गया, जाकर देखा कि उसकी हालत मरणासन्न है, अत: मैं 'णमोकार-मन्त्र' सुनाने लगा, वहीं खड़ा हुआ दूसरा व्यक्ति कहने लगा यह मर थोड़े ही रहा है-जो आप 'णमोकार-मन्त्र' सुना रहे हैं! मुझे लगा कि देखो ये रागी प्राणी धर्म-कर्म की बात तब सुनना चाहते हैं, जब उसमें सुनने-समझने की शक्ति भी शेष नहीं रह जाती, थोड़ी देर बाद उस व्यक्ति का प्राणहत हो गया, राम-नाम सत्य है, ही शेष रह गया। दीपक जब से जलना शुरू करता है, तभी से बुझने लगता है, जितना तेल समाप्त होता जाता है, उतना ही वह बुझता जाता है, जब बिल्कुल समाप्त हो जाता है, तब अन्धेरा ही शेष रह जाता है। इसी प्रकार, इस जीव का अनुवीचि मरण प्रत्येक समय हो रहा है, यह जीव नवीन शरीर के परमाणुओं को ग्रहण करने के पहले ही अपनी एक, दो अथवा तीन समय की आयु समाप्त कर चुकता है, तात्पर्य यह है कि जब मरण प्रति समय हो रहा है तो प्रति समय सावधानी बरतनी चाहिए। बिजली ऊपर चमकती है, उसे देखने से लाभ नहीं, किन्तु उसके प्रकाश में अपने पैरों के नीचे की भूमि को देख लेने में लाभ है, हम लोग किसी का उपदेश सुनते हैं, पर उस उपदेश को सुनकर अपने आप की ओर नहीं देखते, काम तो अपने आप को देखने से सिद्ध होगा, जो वस्तु जहाँ है वहीं उसकी खोज करनी चाहिए। एक बुढ़िया की सुई गुम गयी, उसे अन्धेरे में ढूँढ़ती देख किसी ने कहा-माँ! अंधेरे में क्या ढूँढ़ती हो, उजेले में ढूँढ़ो, वह जहाँ उजेला था वहाँ ढूँढ़ने लगी, दूसरा आदमी आया, आकर पूछता है माँ जी! क्या ढूँढ़ रही हो? बेटा! सुई ढूँढ़ रही हूँ, बुढ़िया ने कहा, कहाँ गुमी थी यह तो पता है? गुमी तो वहाँ थी पर ढूँढ़ यहाँ रही हूँ, एक भाई ने कहा-उजेले में ढूँढ़ो, तो यहाँ ढूँढ़ने लगी, दूसरे आदमी ने कहा—तो यहाँ ढूँढ़ने से थोड़े ही मिल जायेगी। बुढ़िया झुंझलाकर बोली-एक कहता है उजेले में ढूँढ़ो और एक कहता है औधेरे में ढूँढ़ो, किस-किस की बात मानूँ, उस आदमी ने समझाया कि जहाँ सुई गुमी है वहाँ उजेला लेकर ढूँढ़ो तो मिलेगी नहीं तो नहीं। यह तो एक दृष्टान्त रहा, परमार्थ यह है कि हम लोग भी तो धर्म को कहाँ ढूँढ़ते हैं? तीर्थ स्थानों में, ऋषियों के प्रवचनों में परन्तु धर्म तो हमारी आत्मा में है, उसकी उपलब्धि वहीं होगी। पर मन्दिर आदि को केवल उसका साधन बनाया जा सकता है। उदासीनाश्रम की बात एक दिन आयी, परन्तु आज कोई व्यक्ति-साधक उदासीन तो दिख नहीं रहा है, हाँ आश्रम ही जरूर उदासीन दिख रहा है, मात्र मकान बनाकर खड़ा कर देना उदासीनाश्रम नहीं है, आप लोगों में यदि उदासीनता आये तो उदासीनाश्रम अपने आप बन जायेगा, बोलो, है कोई आप लोगों में उदासीन बनने को तैयार? कोई नहीं! भोगोपभोग की लालसा को घर में भी घटाया जा सकता है। पर, घटाया तब जा सकता है जब उसका लक्ष्य बनाया जाये, क्योंकि लक्ष्य के बिना किसी भी कार्य में सफल होना सम्भव नहीं। अरे 'अणुव्रत' का धारण करना कोई कठिन नहीं है, लक्ष्य करो उस ओर तो अणुव्रत का पालन सरलता से हो सकता है, अणुव्रत का अर्थ होता है छोटा व्रत और महाव्रत का अर्थ होता है व्रत के पीछे लगना, महाव्रत और अणुव्रत में से जो शक्य हो उसे अवश्य प्राप्त करो और विरक्ति की ओर बढ़ने का प्रयास करो।
  7. "दुखी व्यक्ति को सुखी बनाना ही उपकार है, चाहे वह 'स्व' हो या 'पर'।” आचार्य गुरुवर ज्ञानसागरजी द्वारा रचित 'दयोदय' नामक काव्य में एक कारिका आयी है वह आपके सामने रखी जा रही है। इसी के माध्यम से मानव के कर्तव्य को स्पष्ट किया जायेगा। परोपकाराय दुहन्ति गावः, परोपकाराय वहन्ति नद्यः । परोपकाराय तरोः प्रसूतिः, परोपकाराय सताम विभूतिः॥ तीन चरणों में प्रकृति की गोद में रहने वाले कुछ जीवों का मूल्यांकन किया गया और अन्तिम चरण में उपदेश का जो पात्र है उसके बारे में कुछ बताया गया है। संज्ञी पञ्चेन्द्रिय वे गायें तिर्यञ्च अवस्था में हैं। ‘वध-बन्धनादिक दुख घने।” इस दोहे को चरितार्थ करती हैं, वे परतन्त्र हैं और अपने भावों की अभिव्यक्ति शब्दों के माध्यम से नहीं कर सकतीं, मानव के समान अनेक उपलब्धियाँ भी प्राप्त नहीं कर पातीं, बहुत सारे दुखों को सहने के उपरान्त भी उस शरीर के पिंजरे में रहती हुई उनकी आत्मा पर-कल्याण के लिए आकुल-व्याकुल समर्पित रहती है, रूखी-सूखी घास-फूस खा करके भी वह मिठास भरा दूध प्रदान करती है, जिस गाय के मल-मूत्र के द्वारा यह धरा अपने माथे पर फसल को लेकर खड़ी हो जाती है, मरने के उपरान्त भी उसके एक-एक अंग मानव के काम में आते हैं, पर, ‘मानव उनका मूल्यांकन कहाँ तक करता है? यह वही जाने, वह उसके मूल्यांकन के अभाव में भी अपनी रीति-नीति छोड़ती नहीं, बदलती नहीं है, वह सब कुछ देती है, लेकिन लेती कुछ भी नहीं है, गायें दूध पीती नहीं, दूध पिलाती हैं, उसकी आत्मा कहती है जीवन जीने के लिए जो आवश्यक है, घास-फूस इतना ही पर्याप्त है। शेष जीवन अपने लिए नहीं, पर के लिए समर्पित है।' परोपकार शब्द आया है, इसीलिये मैं विषय से विषयान्तर तो नहीं लेकिन अरुचिकर विषय की ओर जाना चाहता हूँ।'कृ' धातु है करने के अर्थ में, इसमें उपसर्ग लगाने पर अनेक प्रकार के शब्दों का उद्भव हो जाता है, 'अप' उपसर्ग लगाने पर अपकार, ‘उप’ उपसर्ग लगाने पर उपकार हो जाता है। हम लोगों ने करना तो सीखा और सीखा क्या, हुम तो सीनियर हैं करने में, लेकिन वही करते आये हैं जो हमारी अवनति के लिए कारण हैं। आचार्य कहते हैं यदि हम अपनी बुद्धि का प्रयोग करते हुए 'कृ' धातु में ‘उप’ उपसर्ग लगाते हैं तो बहुत अच्छा हो जाता है, उसका अर्थ उपकार करना है। तो उपकार शब्द का वस्तुत: क्या अर्थ होता है? क्या करना होता है? उपकार का अर्थ दुखी व्यक्ति को सुखी बनाना है, इसका अर्थ यह नहीं लगाना चाहिये कि पर के ऊपर ही दुख हो रहा है, उसके ऊपर आपत्ति आयी है, उसे दूर करना है, जो भी व्यक्ति दुखी है उसको सुखी बनाना है। ये निश्चत है कि अपनी आत्मा भी दुखी है, सही उपकार तो वही है ‘उप’ मानें निकट के अर्थ में कुछ कार्य करना है, तो निकट क्या है? आत्म-तत्व, जो आत्म-तत्व के निकट पहुँचना चाह रहा है वह जीव-तत्व है, उसके ऊपर उपकार करना है, चाहे 'स्व' का हो या 'पर' का हो, बाकी किसी के ऊपर आप उपकार करेंगे तो वह उसे अपकार में परिवर्तित कर देगा, क्योंकि जीवन के ऊपर उपकार जो करने का प्रसंग है वह पतित से पावन बनाने की ओर इंगित करता है, उपकार का अर्थ दूर भगाना नहीं है बल्कि उसे अपने पास; निकट में लाना। आचार्यों ने छह द्रव्यों का वर्णन यत्र-तत्र ग्रन्थों में किया है, उसमें पाँच द्रव्य ( जीव-द्रव्य को छोड़कर) सारे के सारे उपकार करते हैं, जीव के ऊपर, उपकार हम जीव के ऊपर ही कर सकते हैं, पुद्गलों का उपकार जो हमारे ऊपर होता है वह बुद्धिपूर्वक नहीं, परस्परोपग्रहो जीवानाम् कहा है। उपग्रह और उपकार में कोई विशेष अन्तर नहीं है, निकट रूप से कुछ ग्रहण करना है। उपकार शब्द परोपकार के लिए कहा है, संसारी प्राणी अपने ऊपर उपकार कर भी नहीं सकता है। अपने ऊपर उपकार करने वाला व्यक्ति बहुत आगे पहुँच जाता है, आचार्य समन्तभद्र महाराज ने सुपाश्र्वनाथ भगवान् की स्तुति करते हुए कहा है अपने आपके ऊपर उपकार करने वाला व्यक्ति दूसरे की तरफ से उपकार नहीं चाहता है, दूसरे के माध्यम से अपने जीवन को जो चलायेगा, वह अपने ऊपर उपकार नहीं कर सकता है। परोपकार का अर्थ केवल पर का ही उपकार होता है, ऐसा नहीं, परोपकार का अर्थ होता है ‘परम उत्कृष्ट-रूपेण उपकार: परोपकार:'। उपकार 'स्व” के ऊपर करो या 'पर' के ऊपर, वह उपकार परोपकार ही माना जायेगा। हम जब तक सही मायने में इस अर्थ को नहीं समझ सकते; तब तक हम अपने आपको स्वस्थ तीन काल में नहीं बना सकते हैं। गाय यदि दूध का त्याग नहीं करेगी तो वह बीमार पड़ जायेगी, जीना चाहते हो तो उपकार करो, त्याग करो। एकेन्द्रिय जीव-पानी प्रवाह के रूप में बहता जा रहा है, उसी ओर जा रहा है, जहाँ पर जीव त्रस्त हैं, पीड़ित हैं आप नदी में जाकर अवगाहन कर लेते हैं, अपनी तपन को शान्त कर लेते हैं, अपने शरीर एवं कपड़ों की गन्दगी को उसमें विसर्जित कर देते हैं, इसके उपरान्त भी वह नदी आपसे प्रतिरोध नहीं करती है, उसे आप गाली भी देंगे तो भी वह मंजूर करके चली जायेगी, आप उसकी प्रशंसा भी करेंगे तो वह रुकेगी नहीं, कोई इसका उपकार स्वीकार कर लेता है तो ठीक है, नहीं कर लेता है तो भी ठीक है, जीवन-यात्रा रुकती नहीं। आप पेड़-पौधे-वनस्पतियों को खा लेते हैं, छिन्न-भिन्न कर देते हैं, इसके उपरान्त भी वह कुछ नहीं करती, किसी भी आम के पेड़ ने आज तक स्वयं आम नहीं खाये। यदि कोई व्यक्ति उसके सारे आम तोड़ लेता है तो भी ठीक, त्याग करना सीखी। हम किस ओर जा रहे हैं? संग्रह-वृत्ति मानव को छोड़कर के कोई भी अपनाता नहीं है, परिग्रही यदि कोई है तो वह मानव है। पेट तो सबके पास है लेकिन मनुष्य पेट के अलावा पेटी भी भरता है, यह मनुष्य अनेक प्रकार के पाप और अनर्थ करता चला आ रहा है, यदि मनुष्य अपनी शक्ति का सदुपयोग करता है-उपकार के रूप में, तो वह महात्मा बन जाता है और सब जीव, के लिए मुक्ति का मार्ग प्रशस्त करता है। आचार्यों की वाणी है कि जो व्यक्ति विषयों में ही अपने जीवन को समर्पित कर देता है वह कोई भी हो; नरक-निगोद का वासी बनेगा, ऊपर उठने के लिए कुछ न कुछ त्याग आवश्यक है। पहले बड़े-बड़े राजा महाराजा होते थे, वे अन्त में वैराग्य धारण कर घर का त्याग कर देते थे, जो संग्रह किया था उसे बाँट देते थे। 'खाली हाथ आये हैं खाली हाथ जाना है।” इस सिद्धान्त को वे भूलते नहीं थे। किन्तु आज का ये पंचमकालीन मानव सुख को चाहता हुआ भी त्याग-धर्म को भूलता जा रहा है, उसमें संग्रहणी बीमारी आ चुकी है। यदि कोई व्यक्ति परित्याग करता है संग्रह का तो उसकी यह खिल्ली उड़ाता है, उसे वह उपहास का पात्र बनाता जा रहा है। यह इस युग का परिणाम है और होना भी अनिवार्य है क्योंकि आगे जो कुछ भी होना है उसकी भूमिका तो बनाना आवश्यक है, बिना भूमिका, बिना नींव के वह महान् प्रासाद खड़ा नहीं हो सकता। पाप का कार्य करेगा तभी उसका फल भोगने नरकनिगोद में जायेगा। आचार्य कहते हैं-इस प्रकार, वह अनन्त बार जा चुका है किन्तु उपकार न अपने ऊपर किया न पर के ऊपर, यदि किया है तो जो अज्ञानी है, जड़ है कुछ जानता नहीं, कुछ उपकार करता नहीं, उसके ऊपर उपकार किया-जिसका नाम शरीर है। ऐसा कौन-सा व्यक्ति यहाँ पर होगा जो शरीर का नौकर नहीं बना होगा, भूख लगती है खाने के लिए तैयार हो जाता है। यदि कोई व्यक्ति कहता है यहाँ पर क्यों बैठे हो? उठ जाओ, तो गुस्सा आ जायेगा। पर, अन्दर से आवाज आती है खिसक जाओ यहाँ से, तो वह खिसक जाता है। उस महाशय से हम पूछना चाहते हैं कि जिस बात से उसे गुस्सा आया था वह खिसक क्यों रहे हैं? अन्दर से ऐसी कौन-सी दिव्य-ध्वनि या आकाशवाणी हुई जो उसकी पूर्ति के लिए वे उठ खड़े हुए। वो कौन है काम बताने वाला जिसके कार्य को वह बिना सोचे-विचारे करता जा रहा है, ये कौन-सा दासत्व है और जड़ के ऊपर उपकार करने वाला तीन काल में सुफल नहीं भोग सकता। सुख-शान्ति नहीं भोग सकता, जड़ के द्वारा सुख मिलने वाला नहीं है। संसारी प्राणी न 'पर' के ऊपर उपकार कर रहा है और न ‘स्व' के ऊपर। स्व के ऊपर उपकार करने वाला व्यक्ति पर के ऊपर भी नियम से उपकार करता ही जाता है। गंगा नदी बहती हुई बंगाल की खाड़ी में गिर जाती है तो ध्यान रखना वह निकलने के स्थान गंगोत्री से बंगाल की खाड़ी तक अपनी शरण में आये लोगों को परितृप्त किये बिना नहीं गयी। इसी प्रकार; इस मानव की भी लम्बी-चौड़ी यात्रा जब यहाँ से ले करके सिद्धालय (महात्मा बनने) तक होती है, तो उसके बीच में अनेक जीव आ जाते हैं और उसकी शरण के माध्यम से दिशा-बोध पा लेते हैं, वह पाते ही चले "सताम् विभूतिः परोपकाराय”। सज्जनों की विभूति मन-धन-वचन जो कुछ भी है, वह सारा का सारा 'पर' के उपकार के लिए है, उस धन का सदुपयोग इसके अलावा कुछ नहीं हो सकता। जड़ तत्व की सुरक्षा एवं विकास के लिए जो व्यक्ति मौलिक धन का प्रयोग करता है, तो समझ लीजिये उसको किसी चीज का क्या मूल्य है? ये ज्ञान नहीं है, वह पैर धोने के लिए अमृतकलश को ढोल रहा है, 'वह भस्म के लिए रत्न-राशि को जला रहा है।' ये ध्यान रखिये, आत्मा की उन्नति के लिए, चाहे 'स्व' आत्मा हो या 'पर' आत्मा हो, इस तन, मन, धन का प्रयोग जो नहीं करता और इनका प्रयोग यदि शरीर की सुरक्षा के लिए करता है तो पागल और इसमें कोई अन्तर नहीं है, वह यदि मूढ़ है तो संसारी प्राणी विषयों में फैंसा हुआ मूढ़शिरोमणि है। न ‘स्व' का काम किया जा रहा है न 'पर' का। जो कभी उपकार मानने वाला नहीं है, उस पर हमारा सर्वस्व समर्पित है, आत्म-तत्व के लिए कोई कार्य नहीं। आचार्य कहते हैं परोपकार के अलावा कोई महान् कार्य नहीं। मोक्ष-मार्ग में यदि किसी का हाथ है तो मन का सबसे ज्यादा, वचन का उससे कम, हाथ और तन का तो केवल मन और वचन के साथ लग जाना इतना ही काम है। धन मोक्ष-मार्ग में रोड़ा अटकाने वाला है, उससे मोक्ष-मार्ग की प्राप्ति सम्भव नहीं।
  8. ‘प्रभु के हृदय की बात जब तक नहीं समझोगे, तब तक उन जैसी दृष्टि, उन जैसा आचरण, उन जैसे चैतन्य की परिणति को प्राप्त नहीं कर सकते।' एक बालक का नाम सोना रखा और बाजार से आठ आने की सफेद टोपी खरीदकर पहना दी, भगवान् के मन्दिर में गये और कहने लगे भगवन्! तुम मेरी कामना पूरी करो, मैं सोने की टोपी चढ़ाता हूँ और सोने की टोपी चढ़ा दी। आप लोग बहुत समझदार लोग हैं, भगवान् को भी प्रलोभन देते हैं और वो भी मिथ्या, भगवान् कामना पूरी करें या न करें, पर आपका विकल्प चलता रहता हैं |” भगवान् वीतरागी हैं, वे न किसी से कुछ चाहते और न किसी को कुछ देते। अभी तक वीतरागता का रहस्य आपकी समझ में नहीं आ रहा। जिसने वीतरागता के रहस्य को समझ लिया वही वास्तविक जैन है, आप अपनी डॉयरी में भले ही अपने को जैन अंकित कर लें, किन्तु जो श्रमण-संस्कृति के सिद्धान्तों के अनुरूप चलेगा, जीवन को निष्पक्ष और भेद-भाव रहित बनायेगा, वही जैन है। धार्मिक क्षेत्र अन्तरंग भावों के ऊपर निर्धारित है। हम महावीर के प्रति कुछ नहीं कर तक हम अहिंसक नहीं बनेंगे तब तक महावीर के भक्त महावीर के अनुयायी नहीं कहे जा सकते। भगवान् की राह और भक्त की राह एक होनी चाहिए, यह बात ठीक है कि भगवान् आगे और भत पीछे होता है, किन्तु धारा, जाति-भिन्न नहीं होनी चाहिए। दोनों में ऐक्य होना चाहिए, दिशा समान होना चाहिए। ‘सागर दूर सिमरिया नीरी' ये पंक्तियाँ वर्णीजी की जीवन-गाथा में लिखी हैं। दूर हो कोई बात नहीं किन्तु लक्ष्य होना चाहिए, लक्ष्य निर्धारित होते ही मुक्ति दूर नहीं, यदि लक्ष्य की ओर एक पग रख लें और दिशा परिवर्तित नहीं करें तो गन्तव्य पाना सम्भव है, किन्तु विपरीत दिशा की यात्रा मंजिल से दूरी बढ़ाती है। आप किधर देख रहे हैं? किस ओर बढ़ रहे हैं? आप जिस दिशा में बढ़ रहे हैं उस दिशा में महावीर गये नहीं और उस दिशा में बढ़ने के लिए शिष्यों को भी वर्जित कर गये हैं। जब कार को रिवर्स (पीछे) ले जाते हैं तब सामने दर्पण देखते हैं, पर दृश्य पीछे का होता है। शास्त्रों में हमने पढ़ रखा है कि दिव्य-दृष्टि बनना चाहिए, हम रात-दिन दिव्य दिव्य दिव्य के साथ द्रवीभूत हुए चले जा रहे हैं, पिघल गये हैं किन्तु गाड़ी अर्थात् हमारा आचरण पीछे-पीछे की ओर जा रहा है। हम विपरीत दिशा की यात्रा करने में लगे हैं। भगवान् के दरबार में आप आये, बड़े बाबा की शरण में आप आये और आप खाली हाथ जाते हैं, आपको मैं खाली हाथ जाते देखें यह अच्छी बात नहीं है, आप वंचित हैं, स्वयं के द्वारा ठगे गये है, आशा के द्वारा ठगे गये हैं। बड़े बाबा की कृपा अनूठी होती है, बाबा के प्रसाद का आस्वादन ले लें और उठकर चले जायें, मैं नहीं मानता जो जायेंगे मैं समझेंगा वे जाने के लिए आये थे। जड़ की सेवा में प्रभु की आराधना कहाँ? उनके हृदय की बात जब तक नहीं समझोगे तब तक उन जैसी दृष्टि, उन जैसा आचरण, उन जैसी चैतन्य की परिणति को प्राप्त नहीं कर सकते। भगवान् की वीतराग-मुद्रा देखने से कैसा आनन्द आता है? चैतन्य की धारा फूटती नजर आती है, कोई लिप्सा नहीं, कोई प्रलोभन नहीं, मात्र चैतन्य की अजस्त्र-धारा बहती रहती है। जो उस धारा से स्नपित हो जाता है, वह धन्य हो जाता है। बडे बाबा की बड़ी कृपा, हुई मुझ पर आदीश। पूर्ण हुई मम कामना, पाकर जिन आशीष॥ आपने अपने आदर्श द्वारा बड़े बाबा का आशीष प्राप्त नहीं किया, क्योंकि आप अनास्था की डोर से बँधे हैं। विषय-कषायों में रच-पच-कर आप मात्र निगोद की यात्रा करने में लगे हैं। रागद्वेष के द्वारा आत्मा को पुष्ट बनाना अधोगति का कारण है। अभी तक आप सोने की टोपी चढ़ा रहे हैं, चढ़ाते रहेंगे, पर यथार्थ में महावीर के अनुयायी बनने के लिए 'महावीर के पक्ष का अनुसरण करना होगा, उनके सिद्धान्तों के अनुसार अपने जीवन को आगे बढ़ाना होगा, स्वयं महावीर बनना होगा।
  9. बन्धुओ! जैसी भावना की थी, आज उससे भी बढ़कर के फल मिल गया है, ऐसी स्थिति में किसे अपार आनन्द की अनुभूति नहीं होगी ? नियम से होगी। जब कोई एक छात्र ३६५ दिन अध्ययन करता है और अन्तिम चार-पाँच दिनों में उतीर्ण हो जाता है, उस समय उसे खाने-पीने की चिन्ता नहीं रहती, किन्तु अपनी मित्र मण्डली को खूब मिठाई बाँटने में लग जाता है, इसी में उसे आनन्द आता है। इसी प्रकार मुमुक्षु सम्यक दृष्टि की बात है, जब कोई धार्मिक अनुष्ठान करता है तो उसे दिल में (हृदय में) आनन्द की ऐसी बाढ़ आती है जिसका कथन संभव नहीं, ऐसे महान् विषम पंचमकाल में भी इस प्रकार का महान् सतयुग जैसा कार्य हो जाता है तो सहज ही आनन्द का अनुभव होता है। मैं आज आपके सामने यह बात कहना चाह रहा हूँ, जिसकी प्राय: करके जैनियों के यहाँ कमी रह गई, क्योंकि हम यदि पूरी की पूरी ‘शाबासी ” दे दें तो आप लोगों की गति के रुकने की पूर्ण सम्भावना हो सकती है, लेकिन यह बात हो ही नहीं सकती। इसीलिए जैनियों को यह नहीं समझना चाहिए कि केवल हम जैनियों की सीमा तक ही धर्म का प्रचार-प्रसार करें। आज मैं लगभग बीस साल से दक्षिण से उत्तर की ओर आया हूँ, दक्षिण में प्राय: करके जो धार्मिक आयोजन होते हैं, उनमें निमंत्रित जनता सभी आती है, उसमें इसका भी पता नहीं चलता कि कौन जैन है और कौन अजैन। आज यहाँ इस गाजरथ महोत्सव में भी मात्र जैन ही नहीं आये हैं- सभी आये हैं। इस सन्दर्भ में जैनाचार्यों ने यह बात कही है कि जब कोई भी धार्मिक आयोजन सम्पन्न होता है तो यह ध्यान रखना कि सर्वप्रथम द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव, सबकी नियुक्ति होना अनिवार्य है। हम जड़रूप काल की तो प्रशंसा कर लेते हैं, जैसे अभी पण्डितजी ने कहा कि-'क्रमबद्धपर्याय काल के अनुसार हो जाए' इत्यादि। हम अचेतन की प्रशंसा नहीं सुनना चाहते हैं। जो चेतन जीव हैं, जिसके द्वारा हमें संयोग प्राप्त हुआ है, उसके संयोग को भी विस्मृत नहीं किया जा सकता। आचार्यों ने अपनी मांगलिक लेखनी के माध्यम से शास्त्रों की रचना करके लिखा है कि एक आचार्य परमेष्ठी अपने जीवनकाल में तपस्या के माध्यम से, शिक्षा-दीक्षा के माध्यम से धर्म की जो प्रभावना करते हैं, उसका छठवाँ भाग उस क्षेत्र के नेता (राजा) को प्राप्त हो जाता है, सुना आप लोगों ने। मैं यह कह रहा हूँकि कोई भी धार्मिक अनुष्ठान करता है, धर्म कार्य करता है तो उस क्षेत्र के नेता को छठा भाग चला जाता है। उन लोगों का सहयोग यदि नहीं मिलेगा तो आज इस धर्म-निरपेक्ष देश में जो धार्मिक बातें मंच लगा करके कर रहे हैं, वह सब नहीं कर सकेंगे। क्योंकि देश के सामने विदेश का आक्रमण, विदेशी आक्रमण के लिए उन्हें क्या-क्या करना पड़ रहा है मालूम है आपको ? नहीं! जो व्यक्ति राजकीय सत्ता का अतिक्रमण करके कोई कार्य करता है तो वह अपनी तरफ से धार्मिक कार्य में बाधा उपस्थित करता है। शास्त्रों में आचार्यों के ऐसे कई उल्लेख हैं। इसलिए हमें यह सोचना चाहिए कि अहिंसा ही विश्व धर्म है। पुराण ग्रन्थों में, शास्त्रों में उल्लेख किया गया है कि जो धर्म से स्खलित हैं, पथ से दूर हैं, उन्हें धर्ममार्ग पर लाने का प्रयास करना चाहिए। बीस साल से मैं देख रहा हूँ कि सम्यक दृष्टि को ही उपदेश देना चाहा जा रहा है। लेकिन सम्यक दर्शन होने के उपरान्त उपदेश देने की कोई आवश्यकता नहीं होती। जहाँ पर अन्धकार हो, वहाँ पर प्रकाश की आवश्यकता होती है, प्रकाश में यदि आप लाइट जलाते हैं तो देश को/धर्म को खतरा है, सभी को खतरा है। मतलब यह हुआ कि जहाँ पर जिसकी उपयोगिता है वहाँ पर उसको करना चाहिए। दूसरी बात धर्म प्रभावना की है, तो जो पतित से पतित हैं आचार-विचारों में जाकर के गले लगाना चाहिए। आजकल तो ५-६ व्यक्ति बैठ जाते हैं। एक मीटिंग कर लेते हैं और कहते हैं कि हम अखिल भारतीय दिगम्बर समाज की कमेटी वाले हैं। ऐसी कमेटियाँ समाज में बहुत सारी हैं, किन्तु इन पार्टियों से कोई मतलब सिद्ध होने वाला नहीं है। जो धर्म करता है उसे सोचना चाहिए कि जो अधर्मात्मा है, जो मानव जन्म को प्राप्त करके भी भीतर की चीज को पहचान नहीं पा रहा है, उसके पास जा करके, उसकी कमियों को देख करके, उसकी आवश्यकता को पूर्ण करके उसे आकृष्ट किया जाना चाहिए। दान के बिना अहिंसाधर्म की रक्षा न आज तक हुई है और न आगे होगी। यदि पैसे वाला, पैसे वाले को दान दे तो कुछ नहीं होगा। जैनाचार्यों का कहना है कि जो सेठ है, साहूकार है, उन्हें गरीबों के पास जाकर के अपनी सम्पदा का उपयोग-प्रयोग करना चाहिए। भूदान, आवास दान, शैक्षणिक दान आदि-आदि जो अनेक प्रकार के दानों के विधान किये गये हैं, वे आज जैनियों के यहाँ से प्राय:कर निकल चुके हैं। चार दानों में, अभयदान भी हमारे यहाँ माना गया है, लेकिन आज तो जो दान के नाम से केवल अन्नदान या शास्त्रदान को ही समझते हैं, उन जैनी भाईयों से मेरा कहना है कि वह अभी दान की नामावली भी नहीं जानते हैं। दान कितने होते हैं-मालूम है आपको ? सर्वप्रथम कहेंगे शास्त्रदान। शास्त्रदान नाम का कोई दान नहीं है। उपकरण दान कहा गया है, शास्त्र भी एक प्रकार का उपकरण है। आज एक सज्जन ने अपने वित्त का उपयोग करके एक चैत्यालय का निर्माण किया, जिनबिम्ब का निर्माण कराया, हजारों-लाखों व्यक्तियों को जो दर्शन दिलाने में निमित्त हुआ, वह भी उपकरण दान है। कल या परसों हमने एक बात कही थी कि जो व्यक्ति अपने दर्शन-धर्म-विचारों से दूसरों को आकृष्ट करना चाहता है तो उसका कर्तव्य है कि उसकी कमियाँ क्या हैं यह जानें। यदि बच्चा रोता है तो उसे खिलाने की आवश्यकता है या पिलाने की या खेल खिलाने की आवश्यकता है, यह जानना जरूरी है। ऐसा नहीं है कि जब वह रोने लग जाए तो उसे केवल खाना खिलायें और दूध पिलायें किन्तु वह आपकी गोद में बैठना चाहता है और आप उसे नीचे रख दें तो उसका पेट भरा होने पर भी रोने लग जाएगा। यही स्थिति धार्मिक व्यक्तियों की हुआ करती है, इसलिए आज दिनों - दिन जैनियों की बहुत कमी होती जा रही है, आज तक कभी भी सुनने में नहीं आया कि जो व्यक्ति बिल्कुल अभक्ष्य-भक्षी है उसे भक्ष्य-भक्षी, शाकाहारी बनाने का भी कोई उपक्रम किया जा रहा है। भारतवर्ष शाकाहार प्रधान देश माना जाता है, विश्व में कई देश हैं, उन देशों में गणना करने पर ९०% जनता मांसाहारी सिद्ध हुई और केवल १०% ही शाकाहारी बच रही, उसमें से छुप-छुप कर मांसाहार करने वालों की बात शामिल नहीं है, आज डायरेक्ट खाने वाली वस्तुओं में शाकाहार जैसी कोई वस्तु नहीं रह गई है। इसलिए वर्तमान में अहिंसा को मुख्यता देकर अहिंसा ही हमारा धर्म है, अहिंसा ही हमारा उपास्य देव है, उसकी रक्षा करने के लिए सर्वप्रथम कदम बढ़ाना चाहिए। आज भारतवर्ष में कई स्थानों पर अनेक प्रकार की हत्याओं के माध्यमों से औषधियाँ और प्रसाधन सामग्री बनाई जा रही हैं और इनडायरेक्ट रूप से आप लोग ही उसका उपयोग करते हैं। अभी सर्वप्रथम पण्डितजी ने कहा था कि यह बुन्देलखण्ड है, लेकिन बुन्देलखण्ड में भी ऐसी हवा आने लगी है, जहाँ पर अनेक प्रकार की आचार-विचार विधान की व्यवस्थाएँ थीं, लेकिन वहाँ पर भी ऐसी सामग्री आने लगी है समझने के लिए साबुन को ले लीजिए। पहले साबुन को जैनी लोग नहीं बेचते थे, बीड़ियाँ बगैरह भी नहीं बेचते थे, तम्बाखू की बिक्री करते हैं, तो अष्टमी-चतुर्दशी को इसे भी बन्द कर दिया जाता था, सोड़ा-साबुन अष्टमी-चतुर्दशी और अन्य पर्वो के दिनों में उपयोग नहीं करते थे, आज के साबुन में तो अनेक प्रकार की चर्बियाँ आ गई हैं, साबुन में ही क्या? खाने-पीने की चीजों में भी चर्बियाँ आ चुकी हैं, भले ही आप लोगों को ज्ञात ना हो। पहले दिन ही मॅने कहा था कि 'मद्य-मांस का त्याग’इस त्याग का मतलब मात्र 'डायरेक्ट' सेवन त्याग से नहीं है, किन्तु ऐसी-ऐसी वस्तुएँ आपके खाने-पीने में आ चुकी जिनमें बहु मात्रा में मद्य का, मांस का, मधु का पुट रहता है, इन चीजों को त्यागकर ही अहिंसा धर्म की रक्षा कर सकते हैं, अन्यथा नहीं। दूसरी बात, शिक्षणप्रणाली भी ऐसी आ चुकी है कि आज का लड़का, जो पढ़ा-लिखा है वह हमारे सामने आकर के कहता है-महाराज! अण्डा तो शाकाहार है और दूध तो अभक्ष्य है। मांस के अन्तर्गत आता है। आप सोचिये! जीवन कितना परिवर्तित होता चला जा रहा है। अब केवल 'सम्यक दर्शन. सम्यक दर्शन' ऐसा चिल्लाने से कोई चीज प्राप्त होने वाली नहीं है। जो व्यक्ति इन बातों को नहीं समझ रहा है वह प्रभावना नहीं कर रहा है बल्कि अप्रभावना की ओर जनता को आकृष्ट कर रहा है। खाना-पीना, क्रियाकाण्ड की बात है ऐसा कह करके टालना, एक प्रकार से अहिंसा देवता को धक्का लगाना है। मै कह रहा था कि आचार्य जो कि जीवन पर्यन्त तपस्या करते हैं तो उसका छठवाँ हिस्सा एक राजा को मिला करता है। भले ही वह राजा धार्मिक कार्य कुछ भी न करता हो लेकिन रात - दिन उसकी दृष्टि में रहता है कि राजकीय सत्ता की सुरक्षा हो, अन्य देशों की सत्ता का आक्रमण न हो। यदि सत्ता पलट जाए और विदेशी आ जाए तो आपको एक घण्टे क्या, एक समय के लिए भी धर्मध्यान करने का अवसर न मिले। आज भारतीय सेना बार्डर पर खड़ी है अपने शस्त्रों को लेकर। आप सोचेंगे कि इन शस्त्रों को लेना हिंसा है ? लेकिन शस्त्रों को लेना हिंसा नहीं है किन्तु आप सभी के अहिंसाधर्म की रक्षा के लिए इन लोगों ने हाथों में शस्त्र ले रखे हैं। ध्यान रखो ? इनकी प्रशंसा, उनके गुणगान यदि करते हो तो आप अहिंसक माने जाएंगे। यह बात अलग है कि वे कैसी दृष्टि वाले हैं ? हमें यह कहने की आवश्यकता नहीं, लेकिन वस्तुस्थिति तो यही है कि जिस जीव की जीवों के ऊपर उपकार करने की दृष्टि है, जीवों की पीड़ा में सुख-दु:ख में पूरक बनने की दृष्टि है वह सम्यक दृष्टि है। उस सम्यक दृष्टि की देवता लोग भी आरती उतारते हैं। आप लोगों को इस बात का विशेष ध्यान रखना होगा कि सम्यक दर्शन कोई खिलौना नहीं है जो बाजार से खरीद सकें अथवा समयसारादि ग्रन्थों को पढ़कर प्राप्त हो जाए और यह भी नहीं है कि मन्दिर में बैठने से या मात्र संत-समागम से ही वह प्राप्त होता है, किन्तु सम्यक दर्शन की स्थिति बड़ी विचित्र है, वह कब किसे, कैसे प्राप्त हो जाए कुछ कह नहीं सकते, क्योंकि धर्म किसी की बपौती नहीं है। कुछ लोगों की धारणा होती है कि जैनधर्म, जैन जाति से सम्बन्धित है, लेकिन जाति जो होती है, वह शरीर से सम्बन्ध रखती है, जबकि धर्म का सम्बन्ध भीतरी आत्मा, भीतरी उपयोग से होता है, ऐसे ही धर्म का आदिनाथ स्वामी से लेकर महावीर भगवान के द्वारा तीर्थ का संचालन हुआ है, आज हम लोगों के पाप कर्म का उदय है, जो ऐसे साक्षात् तीर्थकरों का दर्शन नहीं हो पा रहा है, किन्तु आज भी उनका तीर्थ अवशिष्ट है, सच्चे देव-गुरु-शास्त्र के रूप में हमारे सामने उपस्थित है, यही सौभाग्य है। जड़ के प्रति तो राग सभी रखते हैं और जड की रक्षा के लिए अपने जीवन को बलिदान भी कर देते हैं, किन्तु जो व्यक्ति चेतन-आत्मा की बात देखकर, दु:खी जीवों को देखकर यदि आँखों में पानी नहीं लाता, उस पत्थर जैसे हृदय से हम कभी भी धर्म की अपेक्षा नहीं रख सकते। हमारा हृदय अंदर से तो कोमल होना चाहिए किन्तु बाह्य की विपरीत परिस्थितियों में इतना कठोर होना चाहिए कि जिसके ऊपर एटमबम भी फोड़ दिया जाये तो भी भीतर के रत्नत्रय धर्म को सुरक्षित रख सके। राम का जीवन देख लीजिए, पाण्डवों के जीवन को देख लीजिए, उसके साथ-साथ कौरवों और रावण के जीवन को देखिए। रागी-विषयी, कषायी, पुरुषों के जीवन का कैसा अवसान हुआ? किस रूप में जीवन का उपसंहार हुआ तथा वीतराग पुरुषों के जीवन का, धर्म की रक्षा करने वालों का क्या उपसंहार हुआ। वन में रहकर भी राम ने प्रजा की सुरक्षा की और भवन में रहकर के भी रावण प्रजा के लिए अभिशाप सिद्ध हुआ। आज हम केवल चर्चा वाला धर्मध्यान करना चाहते हैं, लेकिन ऐसा संभव नहीं है। ग्रन्थों में ऐसा उल्लेख है कि जब निग्रन्थ साधु यत्र-तत्र विचरण करते हैं तो वहाँ के जीव आपस में बैरभाव को छोड़कर, उनके चरणों में बैठ जाते हैं, यह किसकी महिमा है ? आचार्य कहते हैं -यह वीतरागता की महिमा है, प्रेम का, वात्सल्य का प्रभाव है, जीवों को देखकर के हमें आह्वाद पैदा होना चाहिए, लेकिन हम कैसे हैं ? हमारी दृष्टि कैसी है? जैसे कि नेवला और सर्प के बीच में हुआ करती है, बस वैसी ही है, ऐसे वातावरण में हम धर्मात्मा बनना चाहते हैं जो कि असम्भव है। जैनधर्म की विशालता यही है कि वह व्यक्ति को जन्म से जैन न होते हुए भी उसे कर्म से जैन बनाता है। आठ साल तक वह एक प्रकार से पशुओं जैसा आचरण कर सकता है, इसके बाद यदि वह धार्मिक संस्कार पा लेता है तो उसके जीवन में धर्म आ सकता है। चेतन की परीक्षा करने की चेष्टा करिये। कहाँ पर कौन दु:खी है, पीड़ित है, इसको देखने की आवश्यकता है। ऐसे फोन लगा लीजिए, कैसे फोन ? बिना तार (वायरलेस) के ही दु:खी प्राणियों तक आपका उपयोग पहुँच जाये और मालूम हो जाये कि कौन-सा जीव कहाँ पर पीड़ित है। कौन-से जीव को क्या आवश्यकता है। ऐसा भी कभी हो सकता है ? हाँ. हो सकता है, एक उदाहरण दूँ आपको। एक बार की बात, एकदम हिचकियाँ आने लग गई। एक व्यक्ति ने कहा कि पानी पीलो, पानी पियेंगे तो हिचकियाँ आना बन्द हो जाएगा। मैंने पूछा- वह हिचकियाँ आती क्यों हैं ? उसने कहा-तुम्हें इस समय किसी ने याद किया होगा, दूर स्थित व्यक्ति ने याद किया वहाँ और हिचकियों की प्रक्रिया यहाँ चालू हो गई, ऐसा सुनकर मैं सोचता रहा, विचार करता रहा। इसी प्रकार धार्मिक भाव को लेकर के अपने उपयोग को भेज दो, जहाँ कभी भी दु:खी जीव हों, नियम से उन पर प्रभाव पडेगा, उन विचारों के अनुरूप कल्याण का मार्ग मिलेगा। बस ऐसा करने की चेष्टा प्रारम्भ करिए फल अवश्य मिलेगा। आज करोड़ों रुपया बरसाया जा रहा है, लेकिन गरीब व्यक्तियों को, पतित विचार वालों को, धार्मिक बनाने का भाव किसी के मन में नहीं आ रहा है। इसलिए इस प्रकार (पंचकल्याणक महोत्सव) के आयोजनों के माध्यम से, उस प्रकार के कार्यक्रम आज से ही प्रारम्भ किये जायें। जो गरीब हैं, अशिक्षित हैं, अनाथ हैं, उसके लिए सनाथ बनाने का प्रयास किया जाए, बाद में उन्हें धार्मिक शिक्षण देने का प्रयास करो तो आज का यह आयोजन ठीक है, अन्यथा नाम मात्र के लिए ही आयोजन रह जायेगा। दस व्यक्ति बैठ कर इसकी प्रशंसा करने लगें, करें लेकिन मैं इस ‘सिंघई पदवी' का समर्थन-प्रशंसा नहीं कर सकूंगा। एक जमाना था जब इस प्रकार का आयोजन कर उपाधियाँ दीं जाती थीं पर आज यह जरूरी नहीं है। इन उपाधियों का मैं निषेध कर रहा हूँ किन्तु इनके माध्यम से अड़ोस-पड़ोस में तब तक सौहार्दमय व्यवहार नहीं बढ़ता तब तक इन उपाधियों का क्या प्रयोजन ? हमारे भगवानों ने कहा है कि-आधि, व्याधि और उपाधियाँ संसार में भटकाने वालीं हैं, अत: उपाधियों से दूर हो समाधि की साधना करें तो वृषभनाथ भगवान की जयजयकार करने में सार्थकता आ जायेगी, अन्यथा मात्र प्रशंसा से कुछ भी सार्थकता नहीं होने वाली। विश्व में क्या हो रहा है ? इसको देखने की चेष्टा करो, धर्म कहाँ नहीं है ? हमारे पास धर्म है, दूसरे के पास नहीं, हम सम्यक दृष्टि हैं दूसरे मिथ्यादृष्टि, हम जैनधर्म की ज्यादा प्रभावना कर रहे हैं, दूसरे नहीं, इस प्रकार के भाव जिसके मन में है वह अभी जैनधर्म की बात समझ ही नहीं रहा है, वह जैनधर्म से कोसों दूर है। "न धर्मों धार्मिकैबिना" दो हजार वर्ष लगभग हो चुके हैं आचार्य समन्तभद्रस्वामी ने डंका बजाया था। बन्धुओ! जो मद के आवेश में आकर धर्मात्माओं के प्रति यदि अनादर का भाव व्यक्त कर रहा है तो वह अपने शुद्ध अहिंसाधर्म की ही हत्या कर रहा है, क्योंकि "न धर्मों धार्मिकैबिना" कहा है, हमारे अन्दर संकीर्णता आ चुकी, आती जा रही है, सन्तों का कहना है कि "वसुधैव कुटुम्बकम्" आज जैनीजैनी, हिन्दू-हिन्दू भी एक प्रकार के दायरे/सीमाओं में बँधते चले जा रहे हैं, यह संकीर्णता धर्म का परिणाम नहीं है, इसे ध्यान रखिये, बातों से धर्म नहीं होता, कारण कि जो बहिरा है, वह भी धर्म कर रहा/सकता है, जो अन्धा है, लूला है वह भी धर्म को कर सकता है, परन्तु जो पञ्चेन्द्रिय होकर के हाथ-पैर अच्छे होकर भी, मात्र ऊपर-ऊपर बातें करता है तो वह कर्मसिद्धान्त से अभी भी कोसों दूर है, पास आने की चेष्टा करनी चाहिए उसे, एक बार तो कम से कम, गरीबों की ओर देखकर दया का अनुभव करो, धर्मात्मा यही सोचता रहता है, ऐसा सोचना ही अपायविचय धर्मध्यान है। अपायविचय धर्मध्यान का अर्थ क्या है व उसका क्या महत्व है ? आचार्य कहते हैं कि जितना आज्ञाविचय धर्मध्यान का महत्व है उतना ही अपायविचय धर्मध्यान का है। जिनेन्द्रदेव की आज्ञा का उल्लंघन नहीं करना, सर्वज्ञ की आज्ञानुसार चलना यह आज्ञाविचय धर्मध्यान है। इसकी सच्चाई से अपायविचय धर्मध्यान की महत्ता कहीं अधिक है। "संसारी प्राणी का कल्याण हो, इनका दु:ख दूर हो, सभी मार्ग का अनुसरण करें" ऐसा विचार करना अपायविचय धर्मध्यान है। इस प्रकार की ही भावना में जब वृषभनाथ भगवान की पूर्वावस्था की आत्मा तल्लीन हुई थी, उस समय तीर्थकर प्रकृति का बन्ध हुआ था, उसी का परिणाम दूसरे जीवन में असंख्यात जीवों का कल्याण, एक जीव के माध्यम से हुआ, सुभिक्ष हुआ, दिशाबोध दिया और सर्वेसर्वा बने। आज भी उनके नाम से असंख्यात जीवों का कल्याण हो रहा है, ऐसा कौन-सा कमाल का काम किया उन्होंने? यही किया जो उनके दिव्य-उपदेश से स्पष्ट है - दया धर्म का मूल है, पाप मूल अभिमान। तुलसी दया ना छाँड़िये, जब लौं घट में प्राण। क्या कहता है यह दोहा ? जब तक इस संसार में रहे, घट में प्राण रहे तब तक दया धर्म का पालन करो, तभी सबका, स्व-पर का कल्याण हो सकता है। यदि दया की जगह अभिमान घट में आया हुआ है तो तीनकाल में भी कल्याण होने वाला नहीं, पाप का मूल अभिमान है, लोभ के वशीभूत होकर व्यक्ति अन्याय-अत्याचार के साथ वित्त का संग्रह करता है और फिर मान के वशीभूत होकर यदि दान करता है तो वह कभी भी प्रभावना नहीं कर सकता, ना ही अपनी आत्मा का कल्याण कर सकता है। सबसे पहले नीति-न्याय से वित्त का अर्जन करें, फिर दानादि कार्य के माध्यम से अड़ोस-पड़ोस की सहायता करें, जैन आयतनों की रक्षा करने के लिए कदम बढ़ायें। इस प्रकार करना प्रत्येक सद्गृहस्थ का कर्तव्य है-ऐसी सन्तों की वाणी है। इस वाणी का जब तक अनुसरण होगा, धर्म का अभाव नहीं होगा, लेकिन जिस दिन जिनवाणी का अनुसरण बन्द हो जायेगा और अभिमान के वशीभूत हो जायेंगे उस दिन रावण-राज्य आने में देरी नहीं। एक उदाहरण दे रहा हूँ जिसमें धर्म क्या है ? कैसा है ? क्या तिर्यच धर्मशास्त्र का स्वाध्याय करते हैं ? क्या कभी तिर्यच आपके सामने आपके ऊपर उपकार करते हैं ? क्या वे कोई धार्मिक अनुष्ठान करते हैं ? कभी मन्दिर भी आते-जाते हैं? यदि आ जाते हैं तो उन्हें धर्मलाभ होता है क्या? आचार्यों ने कहा-धर्मलाभ हो यह कोई नियम नहीं। अभी पण्डितजी ने भी कहा था- आयोजन जितने भी हैं, सभी साधन के रूप में हैं, साध्य के रूप में तो धर्म रहेगा। ये साधन हैं। इनमें उलझे रहे, उपाधियों में उलझे रहे तो तिर्यच हमसे कहीं आगे बढ़े हुए होंगे, जो इनसे सर्वथा दूर हैं। रामायण आपने पढ़ी होगी, सुनी होगी। पद्मपुराण में भी यह कथा आती है, जटायु पक्षी की वह कथा जिसने रामायण की पृष्ठभूमि बना दी है, राम जब वनवास में थे। सीता और लक्ष्मण भी साथ-साथ है, जंगल में अपना काल व्यतीत कर रहे हैं, एक दिन की बात, आहार चर्या के समय सन्त आये। सभी ने आहार दान दिया। आहार दान के समय सन्त के पैर धोए गये थे। उस जल में एक जटायु पक्षी आकर बैठ गया और उसमें लोट-पोट करते ही, उसका सारा का सारा बदन व बाल स्वर्ण के हो गये। उसकी सभी ने प्रशंसा की, सन्त ने उसकी भावना को समझ लिया, सन्त ने उसके कल्याण का आशीर्वाद तो दिया ही, साथ ही साथ उसके पालन-पोषण एवं रक्षण की जिम्मेदारी भी श्रीराम को सौंप दी, सन्त चले गये और बात भी जाती रही।.एक दिन की बात, सीता को रावण हरणकर ले जाने वाला है तो जटायु पक्षी सोचता है.एक अबला, उसको हरण कर रहा है, उसके ऊपर प्रहार कर रहा है और मैं यहाँ बैठा देख रहा हूँ, जबकि मैं संकल्पित हूँ। "रघुकुल रीति सदा चली आई। प्राण जायें पर वचन न जाई।" राम ने मुझे प्रतिज्ञा दिलाई कि अनाथ के ऊपर यदि किसी का हाथ उठता है तो देखते न बैठना। हम लोग नश्वर जीवन को नहीं समझ रहे हैं, इसे अविनश्वर बनाने का प्रयास कर रहे हैं। जिस समय किसी धर्मात्मा के ऊपर संकट आ जाता है, उस समय दूसरा धर्मात्मा यदि छुपने का प्रयास करता है तो वह कायर है, उसे नश्वर जीवन के सदुपयोग के लिए सिंह के समान गर्जना करते हुए सामने आना चाहिए, मुझे कोई भय नहीं, जीवित रहने की कोई आवश्यकता नहीं, यही मेरा धर्म है, यही जीवन। धर्म सदा ही मेरे साथ रहेगा, मैं जीवित रहूँ या नहीं, यह सोच वह आक्रमण करने के लिए तैयार हो जाता है, वही सच्चा धर्मात्मा माना जाता है। धर्मात्मा के ऊपर आज पहाड़ टूट रहे हैं और हम देख रहे हैं, फिर भी अपनी आत्मा को धर्मात्मा मानते हैं, उसे मैं तो जीवित भी नहीं मानता, जड़ का धर्म मानना भले ही स्वीकार कर लूगा। आप लोग जिस प्रकार धन की रक्षा करते हैं, उससे भी बढ़कर धर्म की रक्षा करनी चाहिए। धर्म के द्वारा ही जीवन बन सकता है, यदि धर्मात्मा का अनादर मन से, वचन से, काय से, कृत-कारितअनुमोदन से स्वप्न में भी करते हैं तो उस धर्मात्मा को नहीं, वरन् स्वयं के अहिंसा धर्म को अनादृत करते हैं, ऐसी गर्जना इसयुग में आचार्य समन्तभद्रस्वामी जैसे महान् आचार्यों ने की है। मान बहुत बढ़ता जा रहा है, यह सब पंचमकाल की देन है, हमारा जीवन ऐसा बनना चाहिए, जैसी सिगड़ी के ऊपर भगौनी का। उसमें दूध तप रहा है दो, तीन किलो, लेकिन दूध तपने के उपरान्त ऊपर आने लग जाता है, तपन के कारण वह ऊपर आता रहता है, ज्यों ही ऊपर आता है, त्यों ही तपाने वाला, दूध समाप्त न हो जाए, इस भय से पास आ जाता है और क्या करता है उस समय ? उस समय वह जल्दी-जल्दी शान्तिधारा (कुछ जल) छोड़ देता है, दूध नहीं ढांकता, बल्कि थोड़ा जल डाल देता है, जल डालते ही दूध नीचे चला जाता है, इसका क्या मतलब हुआ ? मतलब तो ये हुआ कि जब अग्नि ने दूध में जो जल था उसे जलाया तो दूध ने भी सोचा कि जब मेरे मित्र, दोस्त, मेरे सहयोगी के ऊपर यदि अग्नि ने धावा बोला है तो मैं भी इसे समाप्त करूंगा। यही सोचकर वह उबलता हुआ, अग्नि की ओर आने लगा, लेकिन दूध तपाने वाले ने डर करके अग्नि के प्राण न निकल जाए इसलिए शान्तिधारा छोड़ दी, अरे भैया! तुम्हारे मित्र को हम दे देते हैं, तुम बैठ जाओ, तो दूध बैठ जाता है। ऐसी होनी चाहिए मित्रता, उसको ही मित्र, दोस्ती, साथी और सहयोगी कहते हैं, जो विपत्ति के समय पर, प्रसंग पर साथ दे, अन्यथा ना तो वह साथी माना जाएगा, ना धर्मात्मा ही। बन्धुओ! मान प्रतिष्ठा के लिए संसारी प्राणी सब कुछ त्याग कर देता है, लेकिन अपने आत्मोदय के लिए कुछ भी नहीं करता। मैं इन सभी कार्यक्रमों की प्रशंसा तभी करता हूँ, जब आप लोगों के कदम इस दिशा की ओर भी बढ़ते हैं। यह जीवित कार्य है, इस युग में यह कार्य हुआ ही नहीं है। हुआ भी है तो बहुत कम हुआ है। विनोबा जी, जिस समय दक्षिण की ओर भूदान को लेकर के आए थे, तभी मुझे महापुराण के भूदान की बात याद आ गई, वहाँ पर गृहस्थों के चार धर्मों में पूजा भी रखी है, पूजा का अर्थ भूदान लिखा गया है, जी हाँ! महापुराण का उल्लेख है। जो व्यक्ति खाने के लिए मोहताज हो रहा है, उसके लिए आश्रय दे दीजिए तो वह नियम से धर्म को अपनायेगा. अपनायेगा। आज हम तात्कालिक उपदेश तो दे देते हैं, जिसके द्वारा उसके कार्य की पूर्ति नहीं होने वाली है, इस कारण वह धर्म के प्रति जल्दी आकर्षित नहीं होता, युग बदल चुका है, विनोबाजी की बात को सुनकर मैंने सोचा-हाँ, आज भी भूदान यज्ञ की बात जीवित है जो कि जैनाचार्य के द्वारा घोषित की गई थी। आज कौन-कौन ऐसे व्यक्ति हैं जो आवासदान देने को तैयार हैं। कभी आपने सोचा जीवन में कि जो गर्मी-सर्दी से पीड़ित हैं, उसे आवास दान दें, एक मकान बनवा दें, आवास देने के उपरान्त उनको ऐसा ही नहीं छोड़ा जाये, किन्तु उन्हें कह दिया जाए कि देखो भैय्या! तुम्हारी आवास सम्बन्धी आवश्यकता की पूर्ति तो हो गई, अब कम से कम धर्म-कर्म करना चाहिए। राजस्थान की बात है, जहाँ पर सेठजी ने एक फैक्टरी (मिल) खोली थी, उसमें जो गरीबगरीब व्यक्ति थे, उनको काम पर लगाया और उनकी सारी की सारी, वेतनादि की भी व्यवस्था कर दी गई। फिर कहा गया-हमने इतना सारा प्रबन्ध आपका कर दिया है, अब प्रत्येक व्यक्ति को रात्रिभोजन, मद्य, मांस, मधु का त्याग और देवदर्शन के उपरान्त ही मिल में काम करना चाहिए। जब तक वे रहे, तब तक तो कार्यक्रम वैसा ही चलता रहा, बाद में वह समाप्त हो गया और मिल भी उनके हाथ से निकल गयी। बन्धुओ! जो कोई भी कार्य किया जाता है, धर्म के लिए किया जाता है, वह भी क्रम से, विधिपूर्वक करना चाहिए, मात्र जय-जयकार करने से कुछ नहीं होगा, अभी मैं देख रहा था कि, जुलूस प्रारम्भ हो गया, रथ भी प्रारम्भ हुआ, हम आगे-आगे चल रहे थे। इस आयोजन को देखने के लिए हजारों-लाखों की जनता आई पर चलने वाले लोग प्रशस्त चाल से नहीं चल रहे थे, साथ में लाठी वाले तो धूल भी उड़ा रहे थे, जिसमें दृश्य देखना ही बन्द हो गया था। यहाँ इन अवसरों पर ऐसी व्यवस्था होनी चाहिए कि जो दूर-दूर से व्यक्ति आये हैं, उन्हें भी पूरा-पूरा लाभ मिले। यही प्रेम है, वात्सल्य है। उन्हें पहले व आगे बैठाना चाहिए। लेकिन हम आगे बैठ जाते हैं। वे हमारे सर्वप्रथम अतिथि हैं, उनका सत्कार-सम्मान करना चाहिए। हम तो यहीं के हैं। इस प्रकार का वातावरण हो जाये तो इसी का नाम राम राज्य है। आज हम कहते तो हैं कि राम-राज्य आ जाये। भगवान महावीर स्वामी का राज्य आ जाये।महावीर भगवान का सन्देश मिल जाये, लेकिन कहने मात्र से तीन काल में भी मिलने वाला नहीं। बातों के जमा-खर्च से कभी कुछ नहीं होता। जिस प्रकार दूध में ज्यों ही पानी डाला, वह शान्त हो गया। उसी प्रकार हम भी यदि अपने साधर्मियों के प्रति वात्सल्य रखेंगे सद् व्यवहार करेंगे तो मैं कहता हूँकि स्वप्न में भी किसी के ऊपर कोई संकट आने वाला नहीं। अभी पण्डितजी ने कहा था-धर्मसंकट में है, धर्म गुरु संकट में है, जिनवाणी भी संकट में है, किन्तु मैं कहता हूँकि ये तीनों संकट मुक्त हैं तभी मुक्ति के साधन है। संकट तो हमारे ऊपर है। संकट तभी आते हैं जब हमारे भीतर ये तीनों जीवित नहीं रहते। धर्म-कर्म से हमारा कोई भी सम्बन्ध नहीं रहेगा तो जीवन बिना संकट के रह नहीं पायेगा। इनकी रक्षा की जाए तो कोई आपत्ति नहीं। इनकी रक्षा का अर्थ यही है कि हम धर्म को ही जीवन समझ लें। मात्र लिखना-पढ़ना धर्म नहीं है, धर्म तो जीवित वस्तु का नाम है। हम अंहिसा परमो धर्म की जय बोलते है, अंहिसा अमर हो ऐसा कहते है | लेकिन गाधीजी ने, जिनके पास मात्र दो सूत्र थे, अहिंसा और सत्य, इन दोनों सूत्रों के माध्यम से ढाई सौ वर्षों से आई हुई, ब्रिटिश सत्ता से, बिना शस्त्र, पिस्तोल, बिना रायफल, तलवार, ढाल, तोप और बिना एटमबम के ही स्वतन्त्रता दिलाई। उन्होंने सत्य, अहिंसा का ऐसा 'एटमबम' छोड़ दिया कि सभी देखते रह गये और सोचते रहे, ऐसी कैसी खोपड़ी है। हम लाखों रुपये भी दे दें तो भी नहीं मिलने वाली। लाख क्या ? कई लाखों में भी मिलने वाली नहीं। यह अहिंसा की उपासना है, उसी का यह प्रभाव है कि ब्रिटिश सरकार को यहाँ से भागना पड़ा। आज ३५-४० वर्ष हो गये स्वतन्त्रता मिले इस देश को लेकिन इसका सदुपयोग, सही-सही नहीं हो रहा है। आज हम आपस में लड़ रहे हैं कुर्सी के लिए। ऐसी-ऐसी भी लड़ाई हमने देखी-सुनी है कि एक कुर्सी के लिए दस व्यक्ति लड़ रहे हैं तो कुर्सी नियम से टूटेगी ही। पहले तो ऐसा नहीं था कि -कहते थे की कुर्सी पर आप बैठिये, आप ही इस पर बैठने के पात्र हैं, हम तो आपके निर्देशन के अनुसार चलेंगे, पर आज ? प्रत्येक व्यक्ति नेता बनना चाहता है, कोई पीछे चलना नहीं चाहता, पागल भी हमेशा आगे चलता है और उसके पीछे हँसने वाला, पागल कभी भी हँसता नहीं, क्या नेता बन जायेगा वह ? नहीं, ऐसा तीन काल में भी नहीं हो सकता। कुर्सी केवल एक निमित है, उस कुर्सी का प्रयोजन इतना ही है कि उस पर बैठकर अपनी आँखों से देख सकें कि-कहाँ पर, कैसे-कैसे रह रहे हैं, हम उनके दुख दर्द को समझ सकें और मिटाने का प्रयास रात-दिन करें। एक जगह लिखा है - "परिहर्तुमनागसि" जो निरपराध जीव हैं, उनके ऊपर प्रहार करने के लिए क्षत्रिय के हाथ में तलवार नहीं दिये गये, किन्तु अपराधियों को भयभीत करने के लिए शस्त्र दिये गये हैं, उपदेश भी इसलिए होता है कि दुःख दूर हो और शान्ति की स्थापना हो। आप लोगों का कार्य आगे होने वाला है, मैं भगवान से यही प्रार्थना करता हूँ कि आपकी भावना, धर्म के प्रति दिन दूनी रात चौगुनी निष्ठा के साथ बढ़ती रहे, तीन घण्टे हो गये किसी को भी ना खाने की चिन्ता है, ना पीने की, पीछे क्या हो रहा है इसका ख्याल भी नहीं रहा, गर्मी में भी सभी लोग पैदल चल रहे हैं, उस पर भी नग्न पैरों, फिर भी सभी के मुख पर आनन्द की लहरें दिखाई दे रही हैं। मुझे देखकर यही लगता है कि आज भी अटूट श्रद्धा है, ऐसी ही बनी रहे यही भगवान से प्रार्थना करते हैं। कैसा भी युग आ जाये, उसको भी शान्ति के साथ, वात्सल्य प्रेम के साथ निभायें। रूखी-सूखी रोटी हो, इसकी भी कोई परवाह नहीं, बस! प्रेम के साथ दो व्यक्ति मिलकर एक रोटी भी खाते हैं तो पहलवान बन जाते हैं, एक अकेला ही व्यक्ति दस रोटी भी ईष्या के साथ खाता है तो उसे अस्पताल जाने की आवश्यकता पड़ती है। बाजरे की रूखीसूखी खाओ, लेकिन धर्म की रक्षा के लिए धर्मात्मा बनकर खाओ। तीनकाल में भी आपको कष्ट नहीं होगा, देव आकर आपकी रक्षा करेंगे, दानव जब उपसर्ग करेंगे तो देव आकर हटायेंगे, खदेडेंगे और रक्षा होगी। अहिंसा धर्म एवं धर्मात्मा की रक्षा करना देवताओं का काम है, इसीलिए उन्हें शासनदेवता भी कहते हैं। जब हम धर्म करते हैं-उसमें दृढ़ रहते हैं तो वे ऊपर से आ जाते हैं, वे भी देखते रहते हैं कि कौन क्या कर रहा है। जैसे पुलिस लड़ते हुए व्यक्तियों के बीच नहीं आती और न ही आने की आज्ञा शासन की है, लड़-भिड़कर गिर जाते हैं, जब उठना भी मुश्किल हो जाता है, उस समय पुलिस पहुँचकर पकड़ती है, कॉलर पकड़कर कहती है क्या कर रहे हो! अपराधी कहते हैं-आप जो कहो मैं वह करने को अब तैयार हूँ। इसी प्रकार देवता लोग भी आकर सहायता करते हैं, यदि आपका कार्य ठीक-ठीक चल रहा है तो उनके सहयोग की आने-जाने की कोई आवश्यकता नहीं, उस समय तो वह अपनी प्रशंसा करके वंदना करेंगे और अपने आपको कृतकृत्य मानेंगे। नारायण, नारायण धन्य है नर साधना । इन्द्र पद ने भी की, जिसकी आराधना। ऐसे इन्द्र भी, आप लोगों की प्रशंसा के लिए आयें। अत: धन्य हैं। अन्तिम मंगल भावना के रूप में यह दोहा आपके सामने है। यही प्रार्थना वीर से, अनुनय से कर जोड़। हरी-भरी दिखती रहे, धरती चारों ओर।
  10. अभी-अभी बोलियाँ हो रही थीं। मैं सोच रहा था कि बोली लेने वाले यह जानते हैं और करने वाले भी जानते हैं कि पैसा अपने से बिल्कुल भिन्न है। तब भी मुझे समझ में यह नहीं आ रहा था कि २-२, ३-३ बार बोलने के उपरान्त जैसे क्रेन के द्वारा कोई बड़ी वस्तु उठती है धीरे-धीरे, ऐसी ही बोलियाँ उठ रही थीं, ऐसा क्यों ? जबकि धन विभिन्न पदार्थ है, उसके साथ हमारा कोई सम्बन्ध नहीं फिर भी ऐसा लग रहा था कि जैसे गोंद से आपका और उन नोटों का गठबन्धन हो गया है, नोट ट्रेझरी में हैं और आप यहाँ आकर बैठे हैं, फिर भी नहीं निकल रहे हैं, बोली लेने वाले के तो नहीं निकल रहे हैं क्योंकि उन्हें मोह है, लेकिन यहाँ जो बोली करा रहे थे वह भी दो के साथ - साथ ढाई बोल रहे थे यानि उनका भी मोह और बढ़ रहा था। आज मोह को छोड़कर ही शरीरातीत अवस्था प्राप्त हुई, कितना घनिष्ठ सम्बन्ध है आत्मा के साथ, देख लीजिए! आज द्रव्य कर्म से, भाव कर्म से और नोकर्म से, इन तीन कर्मों से अतीत हो करके उस आत्मा का जन्म हुआ है, सिद्धपरमेष्ठी की ही सही जन्मजयंती है आज के दिन। अनन्तकाल के लिए यह जन्म, ज्यों का त्यों रहेगा, अनन्तकाल के लिए मरण का-मरण हो चुका अब, ऐसा उत्पाद हुआ और ऐसा उत्पात (हलचल) हुआ कि कहना संभव नहीं। यह तो ऋषभनाथ ही जान सकते हैं, हम नहीं जान सकते। आज इस बात को देखने (निर्वाणकल्याणक) में इतना आनन्द आता है कि जितना कि अन्य में नहीं आता, निर्वाणकल्याणक में मुझे विशेष ही आनन्द आता है, हालांकि दीक्षाकल्याणक, केवलज्ञानकल्याणक भी कल्याणक हैं, लेकिन निर्वाण कल्याणक को देख अपूर्व ही आनन्द उमड़ता है। कल तक तो समवसरण की रचना थी, अब समवसरण बिखर गया। वृषभनाथ भगवान का समवसरण १४ दिन पहले ही बिखर गया, मुक्ति पाने से पहले, याने १४ दिन तक समवसरण के बिना रहे थे, समवसरण में विराजमान होते हैं तो अहन्त परमेष्ठी माने जाते हैं, छत्र, चंवर, सिंहासन और कमल के चार अंगुल ऊपर अधर में बैठे रहते हैं। अहन्त परमेष्ठी एक प्रतिमा जैसे हो जाते हैं। समवसरण में जब तक विराजमान रहेंगे तो उन्हें केवलज्ञान तो भले ही रहा आवे, लेकिन मुक्ति तीनकाल में मिलने वाली नहीं, किसी को भी आज तक कुर्सी पर बैठे-बैठे, किसी संस्था के संचालक को मुक्ति नहीं मिली, केवलज्ञान होने में तथा मुक्ति में उतना ही अन्तर है, जितना कि १५ अगस्त और २६ जनवरी में। केवलज्ञान हुआ यह स्वतन्त्रता दिवस है और मुक्ति गणतन्त्र दिवस। यह बिल्कुल नियम है कि स्वतन्त्रता के लिए पहले बात होती है और कह दिया जाता है कि तुम्हें स्वतन्त्रता मिलेगी-दी जायेगी, लेकिन सत्ता जो है, वह गणतन्त्र दिवस के दिन आती है। आज भगवान को अपनी निजी सत्ता हाथ लगी, जो कि पर के हाथ चली गई थी, उसके लिए उन्होंने बहुत कोशिश की, अनशन भी प्रारम्भ किये, तब कहीं जाकर के सत्ता मिली है। आप सोचते हैं सत्ता को ले लेना आसान है, लेकिन नहीं दूसरों की सत्ता पर अधिकार नहीं करना है। अपनी सत्ता को प्राप्त करने के लिए आचार्यों ने कहा है कि अन्तर्मुहूर्त पर्याप्त है, पर यह सब व्यायाम करना आवश्यक है तभी जो ग्रन्थियाँ हैं, छूट सकेंगी, जो कि आपकी नहीं हैं, उसी साधना में कठिनाई है, इसलिए साधु की यह विशेषता होती है कि वह केवल आत्मसाधना करता है। वही साधु हुआ करता है। कुछ इससे आगे के होते हैं, जो अपनी साधना को करते हुए भी दूसरों को उपदेश दे देते हैं, वे उपाध्याय परमेष्ठी कहलाते हैं। यदि कोई उपदेश ग्रहण कर मार्ग को, पंथ को अपनाना चाहता है तो उसे शिक्षा-दीक्षा देकर के पथ के ऊपर आरूढ़ करा देते हैं। 'चरति आचारयति वा इति आचार्य:' वह आचार्य परमेष्ठी कहलाते है और मोक्षमार्गस्य नेतारं भेत्तारं कर्मभूभृताम्। ज्ञातारं विश्वतत्वानां वन्दे तदगुणलब्धये॥ अरहन्त परमेष्ठी वे माने जाते हैं, जो कि हितोपदेशी होते हैं, सर्वज्ञ होते हैं और मोक्षमार्ग के नेता होते हैं। अरहन्तों में तीर्थकर भी होते हैं, जो कि सिद्ध परमेष्ठी को नमोऽस्तु करते हैं। ऐसा क्यों ? सभी के आराध्य देवता तो सिद्ध ही हुआ करते हैं। शेष सारे के सारे आराधक हैं, अरहन्त परमेष्ठी को मुनि माना जाता है, सिद्ध परमेष्ठी मुनियों की कोटि में नहीं आते, वे तो मुनियों से पूज्य हैं, शाश्वत सत्य हैं। अहन्त परमेष्ठी को भी साधु जीवन की उपासना करनी पड़ती है। तब यह पद लिया ही क्यों उन्होंने? पूर्व जीवन में उन्होंने भावना भायी थी कि 'क्षेमं सर्वप्रजानां।' दर्शनविशुद्धि आदि षोडशभावनाएँ, जिनमें सबका कल्याण हो, संसार में तिलतुष मात्र भी सुख नहीं, सभी को सही-सही दिशाबोध मिले, इन्हीं का तो फल है। प्रत्येक सम्यक दृष्टि को भी ऐसी भावना नहीं हुआ करती, यदि होने लग जाए तो सभी को तीर्थकर पद के साथ मुक्ति मिले। पर ऐसा असम्भव है। असंख्यातों में एक-आध ही सम्यक दृष्टि ऐसी भावना वाले होते हैं। अरहन्त परमेष्ठी की अवस्था कोई भगवद् अवस्था नहीं है, उन्हें उपचार से भगवान कह देते हैं। उनके चार घातियाँ कर्मों के नाश हो जाने पर, अब जन्म से छुट्टी मिल गई, इसी अपेक्षा से या उपचार से कह देते हैं। दूसरी बात और कहूँ-उनको (अरहन्त) मुक्ति कब मिलती है ? अरहन्त परमेष्ठी को मुक्ति तीनकाल में नहीं मिल सकती। आचार्य परमेष्ठी को भी नहीं मिल सकती, उपाध्याय परमेष्ठी को भी नहीं मिल सकती। मुक्ति के पात्र साधु परमेष्ठी हैं। मोक्षमार्ग के नेतृत्व को अपनाये रहेंगे जब तक, तब तक मुक्ति नहीं। उनके समवसरण में बैठे-बैठे कोई उपदेश सुनकर के भावलिंगी मुनि को मुक्ति हो सकती है, पर समवसरण के संचालक (तीर्थकर) को मुक्ति नहीं होती। कितनी बड़ी बात है। हम लोग कम से कम कुर्सी का तो मोह छोड़ दें, कुर्सी मिल भी नहीं रही है सबको, लेकिन सभी झगड़ा करते हैं कुर्सी के लिए मात्र उस मोह के कारण, चुनाव भी लड़ते हैं। आज तो तीर्थकर प्रभु की भी कुर्सी (सिंहासन) छूट गयी। तीन लोक में कहीं भी ऐसी सम्पदा नहीं मिलती है। इन्द्र की आज्ञा से कुबेर के द्वारा समवसरण की रचना होती है, सारे भण्डार को खाली करके, समवसरण की रचना केवलज्ञान उत्पन्न होने के उपरान्त क्यों हुई ? सारी की सारी सम्पदा पहले भी कुबेर के भण्डार में थी, वह अपने लिए अथवा इन्द्र के लिए समवसरण की रचना क्यों नहीं कर सकता ? नहीं! यह तो मात्र तीर्थकर प्रकृति के उत्कृष्ट पुण्य का विपाक है उन्हीं के लिए यह सब कुछ सम्पदा मिलती है। आचार्य परमेष्ठी भी जब तक आचार्य परमेष्ठी बने रहेंगे तब तक श्रेणी में आरोहण नहीं हो सकता। उपाध्याय परमेष्ठी को भी श्रेणी नहीं मिलेगी। और यहाँ तक की तीर्थकर को भी, जब तक अहन्त परमेष्ठी के रूप में रहेंगे तब तक मुक्ति नहीं, सब कुछ यहाँ पर छोड़ना पड़ता है, सारा का सारा ठाठ-बाट यहीं पर धरा रह जायेगा, आठ कर्मों को भी यहीं छोड़ जायेंगे और जाकर ऊध्र्वलोक में विराजमान हो जाएंगे, अनन्तकाल के लिये। इससे सिद्ध हो गया कि साधु की साधना छठवें गुणस्थान से प्रारम्भ होकर चौदहवें गुणस्थान तक चलती है। आप लोगों के यहाँ भी चौदह कक्षाएँ होती हैं, उनमें एक स्नातक और एक स्नातकोत्तर। ये चौदह गुणस्थान संसारी जीव की चौदह कक्षाएँ हैं। एक-एक गुणस्थान चढ़ते-चढ़ते अहन्त परमेष्ठी स्नातक हुए हैं और तेरहवें गुणस्थान में प्रवेश हुआ और वहाँ पर अन्तर्मुहूर्त रह करके स्नातकोत्तर हुए, ज्यों ही स्नातकोत्तर हुए तो निरुपाधि अवस्था उपलब्धि हो गई उन्हें, जब तक कक्षाएँ शेष रहती हैं तब तक छात्र ही माना जाता है, इसी प्रकार चौदहवें गुणस्थान तक तो सभी मुनि महाराज माने जाते हैं, किन्तु चौदहवें गुणस्थान के ऊपर चले जाते हैं तो वे नियम से सिद्ध परमेष्ठी होते हैं, शाश्वत सिद्धि प्राप्त हो जाती है उन्हें। धन्य है यह दिन, इस प्रकार से आत्मा का विकास करते-करते अन्त में उन्हें इस पद की उपलब्धि हुई जो कि आत्मोपलब्धि कही जाती है, उन्होंने अपना कुछ भी नहीं छोड़ा। जो पराया था वह सारा का सारा यहीं पर रह गया। जो निजी था वह शाश्वत सत्य बन गया। एक उदाहरण देता हूँ कि अरहन्त और सिद्ध परमेष्ठी में कितना अन्तर है। दूध है और घृत है। दोनों एक दूध में विद्यमान रहते हैं, पर जब आप दूध पीते हैं तब घृत का स्वाद नहीं आता आपको, घी, दूध में ही है परन्तु घी का स्वाद नहीं आता, घी का स्वाद अलग है और दूध का अलग, इसी तरह दूध की गन्ध और घी की गन्ध की बात है, दूध की गन्ध दूर से नहीं आती जबकि घी की महक तो कहीं रखो अर्थात् दूर से भी आती है, दूसरी, दूध के द्वारा अर्थात् दूध से भरे बर्तन में आप अपनी मुखाकृति को नहीं देख सकते जबकि घी में आपकी मुखाकृति स्पष्ट दिखाई दे जाएगी, दूध में कभी भी मुख नहीं झलकेगा, यह बात अलग है कि मुख का मात्र बाहरी आकार ही दिखे, किन्तु दूध में आपका अवतरण नहीं हो सकता। तीसरी बात, दूध हमेशा कच्चा होता है अर्थात् कभी पर्यायान्तर (दही, तक्र) को प्राप्त हो जाता है, लेकिन घी में अवस्थानन्तर अब संभव नहीं, क्योंकि वह पूर्ण शुद्ध हो गया है। चौथी बात, दूध से कभी भी प्रकाश नहीं किया जा सकता अर्थात् दीपक में भरने पर प्रकाश नहीं देता जबकि घी सदा ही प्रकाश देता है जब आप चाहें। इसीलिए घी से आरती भी उतारी जाती है, दूध से नहीं। पाँचवीं बात, दूध में देखें तो उसकी पूर्णता (गहराई) नजर नहीं आती, जबकि घी में देखने पर उसकी सतह तक स्पष्ट दिखाई देता है। उससे पता चल जाता है कि कितना घी है। ऐसा ही अन्तर सिद्ध और अहन्त में होता है क्योंकि सिद्ध परमेष्ठी शुद्ध तत्व रूप से परिणमन करने लगे, एक काँच होता है और एक दर्पण, दोनों में जितना अन्तर है उतना ही सिद्ध और अहन्त में है। सिद्ध परमेष्ठी काँच होते हैं, अहन्त परमेष्ठी दर्पण। काँच तो शुद्ध साफ होने से जो कुछ आर-पार है स्पष्ट दिखा देता है परन्तु दर्पण हमारी दृष्टि को पकड़ लेता है, हम उस पार नहीं देख सकते दर्पण से। इस प्रकार होने पर, णमो 'अरहंताण' ऐसा क्यों हो जाता है पहले ? कारण यही है कि सिद्ध परमेष्ठी हमें दिखते नहीं और अहन्त परमेष्ठी हमें दिखते हैं, उपदेश देते हैं। सिद्ध प्रभु हितोपदेशी नहीं, सर्वज्ञ तो हैं, कर्मों से मुक्ति भी है पर हितोपदेशी नहीं। हम तो स्वार्थी हैं, जिसके द्वारा हमारा काम निकले उन्हीं को हम पहले याद कर लेते हैं, अहन्त परमेष्ठी के द्वारा हमें स्वरूप का उद्बोधन मिलता है, एक प्रकार से नेतृत्व भी करते हैं और चल भी रहे हैं, इसलिए अहन्त परमेष्ठी को इन मूर्त आँखों से देख सकते हैं, सर्वज्ञत्व को हम देख नहीं सकते, यह भीतरी भाव है। हम भगवान के दर्शन करते हैं, लेकिन उनके अनन्तगुणों में से एक के अलावा शेष गुणों को देख नहीं सकते हैं। मात्र वीतरागता वह गुण है जो दिखे बिना रह भी नहीं सकता। वीतरागता हमारी आँखों में आ जाती है। भगवान को देखने से उनके कोई भी ज्ञान का पता नहीं चलता कि उनके पास केवलज्ञान है कि नहीं अथवा श्रुतज्ञान या मतिज्ञान। कुछ भी नजर नहीं आता मात्र नासादृष्टि पर बैठे वीतरागमुद्रा में। केवलज्ञान हमारी दृष्टि का विषय भी नहीं बन सकता, वह मात्र श्रद्धान का विषय है, लेकिन मुद्रा के देखने से ज्ञान हो जाता है कि हमारे प्रभु कैसे हैं ? हमारे प्रभु वीतरागी हैं। वीतरागता आत्मा का स्वभावभूत गुण है। वीतरागता के बिना हमारा कल्याण नहीं हो सकता। इसलिए सम्यक दृष्टि की दृष्टि में केवलज्ञान नहीं झलकता, सर्वज्ञत्व नहीं झलकता, किन्तु मिथ्या दृष्टि की दृष्टि में भी भगवान की वीतरागता झलकती है। इसलिए वह भी बिना विरोध के वीतराग के चरणों में नतमस्तक हो जाता है। यदि अरहन्त भगवान हमारे लिए पूज्य हैं तो वीतरागता की अपेक्षा से ही, सारा का सारा संसार आकर उनकी पूजा करता है। कौन से भगवान सही हैं ? तो हर कोई कहेगा-जो रागी हैं, वह सही नहीं, जो द्वेषी हैं वह भी नहीं, जो परिग्रही वह भी नहीं, लेकिन जो वीतराग हो बैठे हैं, इनके पास कितना ज्ञान है, इससे किसी को कोई मतलब नहीं। वीतरागता जहाँ कहीं नहीं मिल सकती है, इसलिए धन्य है वह घड़ी आदिनाथ के लिए, जब उन्होंने अपने आपको इस संसार से पार कर लिया तथा हमारे लिये एक आदर्श प्रस्तुत किया, युग-युग व्यतीत हो गये, इस प्रकार का कार्यक्रम किये। यद्यपि संसार अनादिकाल से चल रहा है तो सिद्ध होने का क्रम भी अनादि ही है, फिर भी हम लोगों का नम्बर सिद्धों में नहीं आ पाया। अत: हमें अब इसके लिये पुरुषार्थ करना होगा, एक ही पुरुषार्थ है, मोक्ष पुरुषार्थ जो आज तक नहीं किया। जानने के लिये तो तीन लोक है, परन्तु छद्मस्थ के ज्ञान से यह कार्य नहीं बनने वाला और छोड़ने को मात्र राग-द्वेष और मोह, ये तीन हैं। इन राग, द्वेष और मोह को छोड़े बिना हमारा ज्ञान सही नहीं कहलायेगा, इसलिए संघर्ष करो और जो कुछ भी करना पड़े करो, मात्र राग-द्वेष-मोह छोड़ने के लिये, जिसने संघर्ष किया, वह अपनी आत्मसत्ता को लेकर के बैठ गया, उसका साम्राज्य चल गया, आज तक जो नौकर था, वह सेठ बन गया, जो सेठ था वह नौकर की चाकरी कर रहा है, गुलामी कर रहा है, इस शरीर के पीछे क्या-क्या अनर्थ करना पड़ता है इस आत्मा को, कैसे-कैसे परिणाम करता रहता है। आप्तपरीक्षा में विद्यानन्दजी महाराज ने लिखा है कि - ततो नेशस्य देहोऽस्ति प्रोक्तदोषानुषङ्गतः। नापि धर्मविशेषोऽस्य देहाभावे विरोधता:॥ (आप्तपरीक्षा-२५) उन्होंने इसको (शरीर को) जेल बताया है। इसीलिये कल तक भगवान को अनन्तसुख था लेकिन अव्याबाध नहीं था। कुछ लोग पूछते हैं मुझसे, महाराज! अनन्तसुख और अव्याबाधसुख में क्या अन्तर है? बहुत अन्तर है, मैं कहता हूँ-जैसे जेल में किसी को कह दिया ‘कल तुझे जेल से छुटकारा मिल जाएगा,” अभी नहीं मिला है, जब तक जेल से बाहर नहीं जायेगा तब तक वस्तुत: सुख नहीं है, सुखानुभव के लिये तो जेल से बाहर आना होगा। जिस प्रकार जेल से बाहर आते समय, जेल का जो ड्रेस होता है, एड्रेस होता है, सबका सब उतार दिया जाता है। उसी प्रकार यह संसार का ड्रेस है, इसको छोड़ने पर ही सही सुख, अव्याबाध-सुख मिलता है। यही अन्तर है अनन्तसुख और अव्याबाधसुख में। लेकिन हम हैं कि एक ड्रेस के ऊपर और ड्रेस पहनते जा रहे हैं और यूँ सोचते हैं कि तुम्हारे पास तो ऐसा ड्रेस ही नहीं, ऐसा मुझे अभी तक मिला ही नहीं था। उन सबको छोड़कर आज ऋषभनाथ सिद्ध हो गये और क्या-क्या छोड़ दिया उन्होंने? तीनों कर्मों को छोड़ दिया और साथ-साथ...... 'औपशमिकादि भव्यत्वानां च' (त.सू १०/३) औपशमिक भाव, क्षयोपशामक भाव आदि भी छोड़ दिया, इतना ही नहीं जो परिणामिक भाव में भव्यत्व भाव था उसको भी छोड़ दिया। क्या मतलब है महाराज ? मतलब समझाते हैं जैसे-आप स्टेशन पर चले गये, आपको देहली जाना है, रेल का टिकट ले लिया, जितने पैसे माँगे उतने दे दिये, टिकट लेकर रख लेते हैं, कहाँ रखते हैं! वहाँ रखते हैं महाराज! जहाँ गुम न हो सके, सब कुछ सामान गुम जाए संभव है लेकिन टिकट गुम जाए तो क्या होगा ? कम से कम दोनों कान पकडो और उट्ठक-बैठक करो स्टेशन पर, (आजकल यह नहीं होता) तलाशी होगी, कहाँ से आये, क्यों आये, कहाँ जा रहे हो, ये सभी प्रश्न और उसके साथ सजा या जुर्माना। अत: अच्छे ढंग से रख लेते हैं, ज्यों ही स्टेशन आ गया, प्लेटफार्म आ गया, गाड़ी रुकी और उतर जाते हैं, उस समय वह टिकट, टिकट-चेकर के हाथ में थमा देते हैं और गेट के पार हो जाते हैं, टिकट नहीं देते हैं तो बाहर नहीं जाने देगा, क्योंकि टिकट यहीं तक के लिये था, बाहर चले जाने पर टिकट का कोई काम नहीं। चेकर टिकट को लेकर फाड़ देता है, वह जब फाड़ता है तब आप रोते नहीं, दुखी नहीं होते। कारण, अब फाडो या अपने पास रखो, यह सभी कुछ तुम जानो, हम तो अपने स्थान पर आ गये। इसी प्रकार सम्यक दर्शन-ज्ञान-चारित्र की अभिव्यक्ति का कारणभूत जो भव्यत्व परिणाम उत्पन्न हो गया था वह इनके साथ ही समाप्त हो गया, हो जाता है, जिस तरह टिकट स्टेशन पर।चौदहवें गुणस्थान की बार्डर आते ही यह रत्नत्रय की टिकट को कोई भी ले लें, क्योंकि संसार की अपेक्षा से है, मेरा ज्ञायक तत्व तो कोई भी ले नहीं सकता, ऐसे में एक समय में सात राजु पार करके फिर वहाँ लोक के शिखर पर जाकर विराजमान हो जाते हैं। यहाँ पर शंका हो सकती है कि ऊध्र्वगमन आत्मा का स्वभाव है, जो स्वभाव होता है वह अमिट होता है, अनन्त होता है फिर वहीं तक जाकर क्यों रुक गये सिद्ध भगवान ? भगवान कुन्दकुन्ददेव ने नियमसार में कहा है-धर्मास्तिकाय के अभाव के कारण, लोक के शिखर पर जाकर के वे सिद्ध प्रभु विराजमान हो जाते हैं। उनकी मात्र वह सात राजु की योग्यता नहीं, किन्तु उनकी योग्यता तो अनन्त है, लेकिन धर्मास्तिकाय के अभाव के कारण आगे गमन नहीं होता। इस प्रकार तो उन्होंने अपनी गति को प्राप्त कर लिया। अब आप भी फेरी के बाद अपनीअपनी गति पकड़ेंगे। किसी की मोटर पर, किसी की मोटरसाईकल पर तो किसी की साईकल पर। आप पूछ सकते हैं कि महाराज! आप भी तो गति करेंगे, कौन-सी और किस ओर करेंगे? भैय्या! हमारी सदागति रहती है, कहीं टिकती ही नहीं, ना हमारे पास ड्रेस है और ना ही एड्रेस, भगवान का कहना है कि ड्रेस रखोगे तो पकड़ में आ जाओगे, एड्रेस रखोगे तो पुलिस आ जायेगी, अतः बिना ड्रेस, एड्रेस के रहो, इसलिए तो अनियत विहार करता हूँ, पता नहीं पड़ता.सदागति तभी तो होती है, ऐसा होना भी आवश्यक है। आप सभी ने पाँच-छह दिनों में जो कुछ भी देखा, सुना, अध्ययन किया, मनन किया, भावना की वह वस्तुत: दुनियाँ में कहीं भी चले जायें, मिलने वाली नहीं। कई दुकानें मिलेंगी, लेकिन इस प्रकार की चर्या, दृश्य कहीं भी नहीं मिलेगा। यहाँ पर कोई कडीशन (शर्त) नहीं है। विदाउट कडीशन ही आत्मा का स्वभाव है। कडीशन से ही दु:ख का अनुभव हो रहा है। उस भव्यत्व की टिकट को छोड़कर के भी उन्होंगे मार्ग को पूरा कर लिया और मंजिल पा ली। धन्य है यह मोक्षमार्ग, धन्य है यह मोक्ष और धन्य हैं वे, जिन्होंने मोक्ष और मोक्षमार्ग का कथन किया। यह स्वरूप अनन्तकाल से चला आ रहा है, आज हमें भी उसका पाठ पढ़कर के अपने जीवन में उपलब्ध करने का प्रयास करना है।
  11. जिस समय युग के आदि में वृषभनाथ को केवलज्ञान हुआ, उसी घड़ी वहाँ पर और दो घटनाएँ घटी थीं। 'भरत' प्रथम चक्रवर्ती माना जाता है, उसके पास एक साथ तीन दूत आकर समाचार सुना रहे हैं, सर्वप्रथम व्यक्ति की वार्ता थी-प्रभो! आपका पुण्य कितना विशाल है, पता नहीं चलता, काम पुरुषार्थ के फलस्वरूप पुत्ररत्न की प्राप्ति हुई है, दूसरा कहता है कि-हे स्वामिन्! इसकी बात तो घर तक की सीमित है तथा यह अवसर कई बार आया होगा। अभी तक हम लोग सुना करते थे कि आप छहखण्ड के अधिपति हैं, लेकिन आज आयुधशाला में एक ऐसी घटना घट गई, जैसे आप लोगों में चुनाव के लिए उम्मीदवार के रूप में खड़े होने की संभावना पर 'फलाने को टिकट मिल गया” ऐसा सुनकर जीप वगैरह की भाग-दौड़ी प्रारम्भ हो जाती है। ऐसी ही स्थिति वहाँ पर हो गई थी, आयुधशाला में चक्ररत्न की प्राप्ति हुई है, जो कि आपके चक्रवर्ती होने का प्रमाण प्रस्तुत कर रही है। तीसरा दूत कहता है-यह सब स्वार्थ की बातें हैं, हमारी बात तो सुनो। मैं इन सबसे भिन्न अद्भुत बात बताऊँगा, अर्थपुरुषार्थ करके कई बार इस प्रकार के दुर्लभ कार्य प्राप्त हुए हैं तथा कामपुरुषार्थ करके कई बार पुत्ररत्न की प्राप्ति हो गई, लेकिन धर्मपुरुषार्थ करके इस जीव ने अभी तक केवलज्ञान की प्राप्ति नहीं की, पर आज आपके पिताजी मुनि वृषभनाथजी को केवलज्ञान की उपलब्धि हो गई है। इन तीनों में बड़ी बात कौन-सी है भैय्या! आप कहेंगे कम से कम लाला का मुख तो देखना चाहिए पहले, फिर दूसरी, अरे! चक्ररत्न की प्राप्ति हो गई, हुकूमत और सत्ता हाथ में आयी है। लेकिन यदि सही सत्ता की बात पूछना चाहते हो तो तीन लोक में वही सही सत्ता मानी जाती है। जिस सत्ता के सामने सारी सताएँ समाप्त हो जायें। केवलज्ञान-सत्ता ही वास्तविक सत्ता है, जिसके समक्ष अन्य सताएँ कुछ भी नहीं है। तीनों की वार्ता सुनी और चक्री उठकर चलने को तैयार हो गये, लेकिन रनवास की ओर नहीं गये और न ही आयुधशाला की ओर, उन्होंने कहा यह सब तो बाद की बात है, सर्वप्रथम तो समस्त परिवारजन को तैयार करो, अष्टमंगलद्रव्य के साथ और हाथी को उस ओर ले चलो जहाँ वृषभनाथ भगवान के समवसरण की रचना हो चुकी है, हमें सुनना है कि भगवान् अब क्या कहेंगे? पिताजी की अवस्था में कुछ और बात कहा करते थे, अब तो कुछ भिन्न ही कहेंगे, अब मुझे बेटा भी नहीं कहेंगे वे, और मैं भी तो उन्हें पिताजी नहीं कहूँगा, अब वो ऐसे बन गये कि जैसे अनन्तकाल से आज तक नहीं बने थे। आज तक उस दिव्य-दीपक का उदय नहीं हुआ था, अनन्तकाल से वह शक्ति छिपी हुई थी, केवलज्ञानावरण कर्म के द्वारा, जो आज व्यक्त हुई है, इस तरह के विचारों में निमग्न होते हुए समवसरण में पहुँचे। समवसरण में पहुँचते ही भरत चक्रवर्ती ने नमोऽस्तु कर भगवान् की दिव्यध्वनि सुनी, सुनकर वे तृप्त हो गये।‘‘मैं और कुछ नहीं चाहता, मेरे जीवन में यह घड़ी, यह समय कब आयेगा, जब मैं अपने जीवन को स्वस्थ (स्व में स्थित) बनाऊँगा। भगवान् ने स्वस्थ बनने का प्रयास लगातार एक हजार वर्ष तक किया और आज वे स्वस्थ बन गये, आज उसका फल मिल गया। मोक्ष-पुरुषार्थ किये बिना, मोह को हटाये बिना, तीनकाल में केवलज्ञान की प्राप्ति नहीं हो सकती, इसके उपरान्त ही मुक्ति मिलेगी, यह बात अलग है कि किसी को केवलज्ञान होने के उपरान्त अन्तर्मुहूर्त में ही मुक्ति मिल सकती है और किसी को कुछ कम पूर्वकोटि तक भी विश्राम करना पड़ सकता है। अब दिव्यध्वनि क्यों? या यह कहिए कि केवलज्ञान होने के उपरान्त उनकी क्या स्थिति रहती है, जानने-देखने के विषय में ? यह प्रश्न सहज ही उठता है क्योंकि जब श्रेणी में ही निश्चयनय का आश्रय करके वह आत्मस्थ होने का प्रयास करते हैं तो केवलज्ञान होने के उपरान्त दुनियाँ की बातों को देखने में लगेंगे क्या ? ऐसा सवाल तो तीन काल में भी नहीं होना चाहिए ना, लेकिन नहीं। नियमसार में आचार्य कुन्दकुन्ददेव ने कहा है कि-केवलज्ञान होने के उपरान्त केवली भगवान इस तरह जानते हैं, देखते हैं। जाणादि पस्सदि सव्वं ववहारणायेण केवली भयवं। केवलणाणी जाणादि पस्सदि णियमेणा अप्पाणं ॥ (नियमसार-१५९/२) शुद्धोपयोग अधिकार में कहा है कि केवली भगवान नियम से अर्थात् निश्चय से या यो कहें नियति से, अपनी आत्मा को छोड़ करके दूसरों को जानने का प्रयास नहीं करते, परन्तु व्यवहार से वे स्व और पर दोनों को अर्थात् सबको-सब लोकालोक को जानते हैं, देखते हैं। सर्वज्ञत्व आत्मा का स्वभाव नहीं है, यह उनके उज्ज्वल ज्ञान की एक परिणति मात्र है, अत: व्यवहारनय की अपेक्षा से कहा जाता है कि वे सबको जानते हैं, ज्ञेय-ज्ञायक सम्बन्ध तो वस्तुत: अपना, अपने को, अपने साथ, अपने लिए, अपने से, अपने में जानने-देखने से सिद्ध हुआ करता है, ऐसा समयसार का व्याख्यान है। इस तरह का श्रद्धान रखना-बनाना ही निश्चय-सम्यक दर्शन कहा है तथा अन्यथा श्रद्धान को व्यवहार सम्यक दर्शन कहते हैं इत्यादि। इसलिए - सकल ज्ञेय - ज्ञायक तदपि, निजानन्द रसलीन। सो जिनेन्द्र जयवन्त नित, अरि रज रहस विहीन। (दौलतराम जी कृत स्तुति) केवली भगवान् सबको जानते हैं व्यवहार की अपेक्षा से, किन्तु आनन्द का जो अनुभव कर रहे हैं वह किसमें ? अपने भीतर कर रहे हैं, यही वस्तुतत्व है, णियमेण अर्थात् निश्चय से देखेंगे तो सबको नहीं देखेंगे, सबको नहीं जानेंगे, सबको जानने-देखने का पुरुषार्थ उन्होंने किया नहीं था, यदि सबको जानने-देखने का पुरुषार्थ कर लें तो गड़बड़ हो जायेगा, उनका ज्ञान स्वतन्त्र है, वे स्वतन्त्र हैं और उनके गुण भी स्वतन्त्र हैं, किसी के लिए उनका अस्तित्व, उनका वैभव नहीं, उनकी शक्ति नहीं, स्वयं के लिए है, पर के लिए नहीं, हमारे लिए वो केवली नहीं किन्तु स्वयं अपने लिए केवली हैं, हमारे लिए तो हमारा मतिज्ञान, श्रुतज्ञान है, वही साथ-साथ रह रहा है किन्तु केवली का ज्ञान तो हमारे लिए आदर्श होगा, आदर्श से हम भी अपने मतिज्ञान, श्रुतज्ञान को मिटाकर केवलज्ञान में परिणत कर सकते हैं, ऐसा आदर्श ज्ञान देखकर हमारे भीतर भी आदर्श बनना चाहिए। छद्मस्थावस्था में उपयोग हमेशा अर्थ-पदार्थ को ही लेकर चलता है, छद्मस्थावस्था का सामान्य लक्षण भी यही बनाना चाहिए कि जो ज्ञान, पदार्थ की ओर मुड़कर के जानता है वह ज्ञान छद्मस्थ का है और जो पदार्थ की और मुड़े बिना अपने-आपसे अपने-आपको जानता है या अपने आप में लीन रहता है वह केवलज्ञान प्रत्यक्ष पूर्णज्ञान है, चाहे मतिज्ञान हो या श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान हो या मन:पर्यय, चारों ही ज्ञान पदार्थ की ओर मुड़ करके जानते हैं, यही आकुलता है, फिर ज्ञान की निराकुलता क्या है ? ज्ञान की निराकुलता यही है कि वह पदार्थ की ओर न मुड़कर के अपनी ओर, अपने में ही रहे। केवलज्ञान ही एक ऐसा ज्ञान है जो पदार्थ की ओर नहीं मुड़ता है, मुड़ना ही आकुलता है, स्व को छोड़कर के पर की ओर मुड़ा जाता है और पर को छोड़कर स्व की ओर मुड़ जाता है, दो प्रकार के मोड़ है, हमारा मोड़ तो दूसरे की होड़ के लिए पर की ओर मुड़ता है, अपनी वस्तु को छोड़कर जिसका ज्ञान, पर के मूल्यांकन के लिए चला जाता है वह छद्मस्थ का आकुलित ज्ञान, रागी-द्वेषी का ज्ञान है, केवली का ज्ञान सब कुछ झलकते हुए भी अपने-आप में लीन है, स्वस्थ है। ज्ञान का पदार्थ की ओर ढुलक जाना ही परम-अार्त पीड़ा है, दु:ख है और पदार्थ का ज्ञान में झलक आना ही परमार्थ क्रीड़ा है, सुख है............(मूकमाटी) हम दूसरों को समझाने का प्रयास कर रहे हैं, दूसरों के लिए हमारा जीवन होता जा रहा है, लेकिन दर्पण जिस प्रकार बैठा रहता है उसी प्रकार केवलज्ञान बैठा रहता है, उसके सामने जो कोई भी पदार्थमालिका आती है तो वह झलक जाती है, यह केवलज्ञान की विशेषता है। सुबह मंगलाचरण किया था, जिसमें अमृतचन्द्राचार्यजी ने कहा था देखो - ‘‘पदार्थमालिका प्रतिफलति यत्र तस्मिन् ज्योतिषि तत् ज्योतिः जयतु'' पुरुषार्थसिद्धयुपाय-१ वह केवलज्ञान-ज्योति जयवन्त रहे जिस केवलज्ञान में सारे के सारे पदार्थ झलक जाते हैं लेकिन पदार्थों की ओर ज्योति नहीं जाती, दर्पण पदार्थ की ओर नहीं जाता और पदार्थ दर्पण की ओर नहीं आते फिर भी झलक जाते हैं तो दर्पण अपना मुख बन्द भी नहीं करता, ज्ञेयों के द्वारा यदि ज्ञान में हलचल हो जाती है, आकुलता हो जाती है तो वह छद्मस्थ का ज्ञान है ऐसा समझना और तीनलोक के सम्पूर्ण ज्ञेय जिसमें झलक जायें और आकुलता न हो, फिर भी सुख का अनुभव करें, वही केवलज्ञान है। यह स्थिति छद्मस्थावस्था में तीनकाल में बनती नहीं है, छद्मस्थ अवस्था में केवलज्ञान की किरण, केवलज्ञान का अंश मानना भी हमारी गलत धारणा है। इसलिए छद्मस्थावस्था में केवलज्ञान की क्वालिटी का ज्ञान छद्मस्थावस्था में मानने पर सर्वघाती प्रकृति को भी, देशघाती के रूप में अथवा अभावात्मक मानना होगा, जो कि सिद्धान्त-ग्रन्थों को मान्य नहीं है। इस जीव की वह केवलज्ञान शक्ति अनन्तकाल से अभाव रूप (अव्यक्त) है। कार्तिकेयानुप्रेक्षा में एक गाथा आती है का वि अपुव्वा दीसदि पुग्गलदव्वस्स एरिसि सक्ती। केवलणाणसहावो विष्णासिदो जाई जीवस्स॥ (कार्तिकेयानुप्रेक्षा–२११) पुद्गल के पास ऐसी अद्भुत शक्ति नियम से है, जिस शक्ति के द्वारा उससे जीव का स्वभावभूत केवलज्ञान एक प्रकार से नाश को प्राप्त हुआ है। कर्म सिद्धान्त के ग्रन्थों में कर्म के दो भेद बताए गये हैं। 'जैन सिद्धान्त प्रवेशिका' में पं. गोपालदास बरैया ने इसकी परिभाषा स्पष्ट की है, जिसे आचार्यों ने भी स्पष्ट किया है, वे दो भेद हैं-देशघाती और सर्वघाती। केवलज्ञानावरणी कर्म का स्वभाव सर्वघाती बताया है, सर्वघाती प्रकृति को बताया है कि वह इस प्रकार होती है जिस प्रकार कि सूर्योदय के समक्ष अन्धकार का कोई सम्बन्ध नहीं तथा अन्धकार के सद्भाव के साथ सूर्य का, अर्थ यह हुआ कि केवलज्ञान की जो परिणति है उस परिणति की एक किरण भी बारहवें गुणस्थान के अन्तिम समय तक उद्घाटित नहीं होगी, क्योंकि केवलज्ञानावरण कर्म की ऐसी ‘विरोधी' शक्ति है जिसको बोलते है सर्वघाती। इससे स्पष्ट हो जाता है कि पुद्गल के पास भी ऐसी शक्ति है कि जो बारहवें गुणस्थान में जाने के उपरान्त जीव को अज्ञानी घोषित कर देती है, बारहवें गुणस्थानवर्ती छद्मस्थ माने जाते हैं, लेकिन वीतरागी इसलिए हैं कि मोह का पूर्ण रूप से क्षय हो चुका है, बड़ी अद्भुत बात है, मोह का क्षय होने के उपरान्त भी वहाँ पर अज्ञान पल रहा है, यह भंग प्रथम गुणस्थान से लेकर बारहवें गुणस्थान तक चलता है, चाहे वो एकेन्द्रिय हो या पञ्चेन्द्रिय, चाहे पशु हो या देव, चाहे मुनि हो या आर्यिका, कोई भी हो बारहवें गुणस्थान तक, जब तक उसका पूर्ण विकास नहीं हो जाता तब तक अज्ञान रूप भंग उसके सामने से हट नहीं सकेगा। घातिया कर्मों को नष्ट किये बिना केवलज्ञान का प्रादुर्भाव तीन काल में भी नहीं हो सकेगा, उस केवलज्ञान की महिमा कहाँ तक कही जाये, कितना पुरुषार्थ किया होगा उन्होंने, उस पुद्गल की शक्ति का संहार करने के लिए! बात बहुत कठिन है और सरल भी है कि एक अन्तर्मुहूर्त में आठ साल का कोई लड़का जो कि निगोद से निकलकर आया है, यहाँ पर उसने मनुष्य पर्याय प्राप्त की, आठ साल हुए नहीं कि, वह भी इतना बड़ा अद्भुत कार्य अपने जीवन में कर सकता है, इतना सरल है और कठिनाई को तो आप जानते ही हैं कि १००० वर्ष तक कठिन तप किया भगवान वृषभनाथ ने तब कहीं जाकर के केवलज्ञान प्राप्त हुआ। जीव के पास भी ऐसी-ऐसी अद्भुत शक्तियाँ हैं, जिनसे कर्मों की चित्र-विचित्र शक्तियों को नष्ट कर देता है, भिन्न-भिन्न प्रकार के आठ कर्म होते हैं। आठ कर्मों में भी १४८ भेद और हो जाते हैं, यह संख्या की अपेक्षा है, परन्तु १४८ कर्म के भी असंख्यात लोक प्रमाण भेद हो जाते हैं। किसके कर्म किस क्वालिटी के हैं-जाति की अपेक्षा, नाम की अपेक्षा से तो मूल में आठ होते हुए भी उनकी भीतरी क्वालिटी के बारे में हम कोई अन्दाजा नहीं कर सकते, क्योंकि हमारा ज्ञान छद्मस्थ/अल्प है, इसीलिए किसी को अन्तर्मुहूर्त में केवलज्ञान होना संभव है और किसी को हजारों वर्ष भी लग सकते हैं। केवलज्ञान प्राप्त करने के लिए कई प्रकार की निर्जरा करनी पड़ती है, निर्जरा अधिकार में आचार्यों ने कहा है कि-कर्म दो प्रकार के हैं पाप और पुण्य। इनकी निर्जरा किये बिना मुक्ति संभव नहीं, केवलज्ञान नहीं और कुछ भी नहीं। पहले-पहले पाप कर्मों की निर्जरा की जाती है, पुण्य कर्म की नहीं। पाप कमों में भी सर्वप्रथम घातिया कमों की निर्जरा की जाती है अघातिया कमों की नहीं, कुछ सापेक्ष रूप से हो जाती है यह बात अलग है। जैसे कुछ पौधों को बो दिया, लगा दिया, रोप दिया, खाद पानी दे दिया तो उसके साथ घास-पूस भी उग आया, तब घास-पूस को उखाड़ा जाता है लेकिन उसके साथ-साथ कुछ पौधे, जो कि रोपे गये थे उखड़ जाते हैं, उनको उखाड़ने का अभिप्राय नहीं होता, वस्तुत: इसी तरह सापेक्षित रूप से कुछ अघातिया कर्मों की भी निर्जरा हो जाती है, की नहीं जाती। सर्वप्रथम सम्यक दृष्टि जीव निर्जरा करता है तो पाप कर्म की ही करता है, यह जैन कर्म के सिद्धान्त हैं, मैंने श्री धवल में कहीं नहीं देखा कि सम्यक दृष्टि जीव पुण्य कर्म की निर्जरा करता है, बल्कि यह कथन तो श्रीधवल (पु. १३) में बार-बार आया है कि 'सम्माइट्ठी पसत्थकम्माण अणुभागं कदाविण हणदि' प्रशस्त कर्मों के अनुभाग की निर्जरा सम्यक दृष्टि तीनकाल में कभी भी नहीं करता, क्योंकि जो बाधक होता है मार्ग में, उसी की सर्वप्रथम निर्जरा की जाती है। इसी प्रकार हम पूछते हैं कि आस्रव और बन्ध की क्रिया में भी वह कौन-सी पुण्य प्रकृति को बन्ध होने से रोक देता है? १० वें गुणस्थान तक की व्यवस्था में जो प्रशस्त कर्म बँधते हैं तो कर्म सिद्धान्त के वेत्ता बताएँ कि उनमें से कितने, कौन से प्रशस्त कर्मों को रोकता है ? अर्थ यह हुआ कि कर्मों की निर्जरा किए बिना केवलज्ञान नहीं हो सकता, लेकिन कर्मों की निर्जरा का क्रम भी निश्चित है, वह कैसा है? यह देखने की बडी आवश्यकता है विद्वानों को, स्वाध्याय प्रेमियों को और साधकों को, इस क्रम को देख करके, जान करके जब हमारा श्रद्धान बनेगा तब ही हमारा श्रद्धान सही होगा, तीन प्रकार के विपर्यासों से रहित होगा, तीन प्रकार का विपर्यास हुआ करता है-एक कारण विपर्यास, दूसरा स्वरूप विपर्यास और तीसरा भेदाभेद विपर्यास। कौन-सा कारण, किसके लिए बाधक है - जिन पुण्य-पाप नहीं कीना, आतम अनुभव चित दीना। तिनहीं विधि आवत रोके, संवर लहि सुख अवलोके ॥ सम्यक दृष्टि पुण्य और पाप दोनों से परे होता है, न वह पुण्य करता है और न ही पाप, तब कहीं आत्मिक सुख का अनुभव करता है, लेकिन यहाँ पर ध्यान रखो! पं. दौलतरामजी संवर भावना का व्याख्यान कर रहे हैं, इसलिए पुण्य और पाप दोनों के कर्तव्य से भिन्नता की बात कही है, न कि कर्म-सिद्धान्त कि अपेक्षा से। उन कर्मों की बन्धव्युच्छित्ति आदि की अपेक्षा से भी नहीं। आगम का कथन तो है कि १०वें गुणस्थान तक पुण्य के आस्रव को रोकने का कहीं भी सवाल नहीं और १०वें गुणस्थान के ऊपर तो ना पुण्य कर्मों का और ना ही पाप कर्मों का साम्परायिक आस्रव होता है। यह सब वह भावनाकार पं. दौलतरामजी के कथन में अविवक्षित है, कारण कि वहाँ मात्र भावना की ही विवक्षा है। कल पण्डितजी जो कह रहे थे कि सम्यक दृष्टि पूर्वबद्ध पुण्य-पाप कर्मों निर्जरा करता है और नवीन पुण्य-पाप कर्मों को रोक देता है, जो पुण्यास्त्रव को रोकने का प्रयास नहीं करता, वह व्यक्ति सम्यक दृष्टि नहीं है, वह तो अभी विपर्यास में पड़ा है। अब आप ही देख लीजिए कि विपर्यास में कौन है ? बात ऐसी है कि जब हम इन (श्री धवलादि) ४० ग्रन्थों का अध्ययन करते हैं तो बहुत डर लगने लग जाता है कि थोड़ी-सी भूल से हम जिनवाणी को दोषयुक्त करने में भागीदार हो जायेंगे। बहुत ही सावधानी की बात है। संभाल-संभाल कर बोल रहा हूँ भगवान यहाँ पर बैठे हैं, दिव्यज्ञानी हैं। पं. दौलतरामजी ने बहुत मार्के की बात कही है ‘जिन पुण्य-पाप नहीं कीना' इसका अर्थ हुआ कि साम्परायिक आस्रव १०वें गुणस्थान तक होता है। साम्परायिक का अर्थ होता है कषाय, जिसके माध्यम से आगत कर्मों में स्थिति और अनुभाग पड़ जाता है। इसके उपरान्त ईर्यापथ आस्रव होता है वह भी एक मात्र सातावेदनीय का। जो दुनियाँ को साता देता है, उस साता के अभाव में आप तिलमिला जायेंगे। केवल असाता-असाता का बन्ध कभी नहीं होता है, न ही संभव है। क्योंकि साता-असाता दोनों आवश्यक हैं संसार की यात्रा के लिए, पुण्य और पाप दोनों चाहिए। अकेला पुण्य का आस्रव दसवें गुणस्थान तक कभी भी नहीं होता और अकेले पाप का भी नहीं, केवल साता का आस्रव ११-१२-१३वें गुणस्थान इन तीनों में होता है, इस कर्मास्त्रव (पुण्यास्त्रव) से हमारा कोई भी बिगाड़ नहीं होता, मुक्ति के लिए बिगाड़ फिर भी है, लेकिन केवलज्ञान के लिए यह कर्मास्त्रव (पुण्याखव) बेड़ी नहीं है, क्या कहा ? सुना कि नहीं। केवलज्ञान प्राप्त करने के लिए केवल घातिया कर्मों का नाश करना होता है, घातिया कर्मों में, चाहे मूल प्रकृति हो या उत्तर प्रकृति, कोई भी प्रकृति प्रशस्त प्रकृति नहीं होती। इसलिए जैनाचार्यों का कहना है कि सर्वप्रथम पाप कर्मों की निर्जरा करके नवीन कर्मों को तू रोक ले, पुण्य तेरे लिए कोई विपरीत काम नहीं करेगा, बाधक नहीं होगा, पुण्य को रखने की बात नहीं कही जा रही है, लेकिन निर्जरा का क्रम तो यही होगा कि सर्वप्रथम पाप का संवर करें, नवीन पापास्त्रव को रोकें, पूर्वबद्ध कर्मों की निर्जरा करें और वर्तमान बन्ध को मिटा दें तो नियम से वह केवलज्ञान प्राप्त करा देगा। यह भी ध्यान रखना कि जब तक साता का आस्त्रव होता रहेगा तब तक उसे मुक्ति का कोई ठिकाना नहीं है, केवलज्ञान होने के उपरान्त भी आठ वर्ष अन्तर्मुहूर्त कम पूर्वकोटि वर्ष तक भी वह रह सकता है। वैभाविक पर्याय में और केवल साता का आस्रव होता रहता है, उस आस्रव को रोकने के लिए आचार्य कहते हैं कि तृतीय व चतुर्थ शुक्लध्यान आवश्यक है, वे ही भीतर बैठे हुए अघातिया कर्मों का नाश करने में समर्थ हैं। अघातिया कर्मों की निर्जरा करने का नम्बर बाद में आता है, लेकिन घातिया कर्मों की निर्जरा करने का प्रावधान पहले है। संवर के क्षेत्र में, बन्ध के क्षेत्र में भी इसी क्रम की बात आती है। इसलिए 'जिन पुण्य पाप नहीं कीना', इस दोहे का अर्थ-मर्म सही-सही वही व्यक्ति समझ सकता है जो कर्म सिद्धान्त के बारे में सही-सही जानकारी रखता है। यदि इस प्रकार की सही-सही जानकारी नहीं रखता हुआ भी वह कहता है कि सम्यक दृष्टि पाप-पुण्य दोनों प्रकार के कर्मास्त्रव को रोक देता है, वह भी चतुर्थ गुणस्थान में रोक देता है तो उसे तो अपने-आप ही बन्ध होगा और कोई छोटा बन्ध नहीं, बहुत बड़ा बन्ध माना जायेगा क्योंकि सामने वाला सोचेगा कि विकल्प तो मिटे नहीं फिर भी यह कह रहे हैं कि पुण्य नहीं होना चाहिए और हो रहा है तो इसका अर्थ है कि मेरे पास सम्यक दर्शन नहीं है और धर्मात्मा भी नहीं हो सकता जब तक, तब तक कि पुण्य बन्ध को न रोकूं। ऐसा करने वाले व्यक्ति के पास जब खुद के सम्यक दर्शन का पतियारा (ठिकाना) नहीं है, तो चारित्र की बात करना ही गलत हो जाएगी। इस प्रकार यदि श्रद्धान बना लेता है तो दोनों ही संसार की ओर बढ़े चले जा रहे हैं - उपदेश सुनने वाला भी और उपदेश देने वाला भी। जैसा कि कहा है - "केचित्प्रमादान्त्रष्टाः केचिच्चाज्ञानान्त्रष्टाः, केचिन्त्रष्टैरपि नष्टाः '' -बृहद द्रव्यसंग्रह टीका से.... कुछ लोग प्रमाद के द्वारा नष्ट हो जाते हैं, कुछ लोक अज्ञान के द्वारा नष्ट हो जाते हैं और कुछ लोग नष्ट हो रहे लोगों के पीछे-पीछे नष्ट हो जाते हैं। हम सिद्धान्त का ध्यान नहीं रख पाते हैं, इससे बातों-बातों में कितना गलत कह जाते हैं, यह पता भी नहीं चलता। इसलिए बन्धुओ! यदि आप स्वाध्याय का नियम लेते हैं तो दूसरों को सुनाने का विकल्प छोड़कर लीजिए, तभी नियम ठीक होगा, दूसरों को समझाने की अपेक्षा से भी नहीं, दूसरों को समझाने चले जाओ तो लाभ कम होगा, हानि ज्यादा होगी। इसके द्वारा जिनवाणी को सदोषी बनाना और हाथ आ जायेगा। भीति लगती है कि ४० ग्रन्थों में कहाँ-कहाँ पर कैसे-कैसे भंग बनते हैं, यह भी पता नहीं चल पाता और अपनी तरफ से उसमें निष्कर्ष देने लगते हैं। जबकि हम उसके अधिकारी नहीं होते। इसलिए सोच लेना चाहिए कि चतुर्थ गुणस्थान में सम्यक दृष्टि को कौन-कौन से पुण्य कर्म का संवर होता है ? १४८ ही तो कर्मों की संख्या है और कोई ज्यादा नहीं है जो कि याद न रह सके। यहाँ दुनियादारी के क्षेत्र में तो हम बहुत कुछ याद कर लेते हैं, लेकिन १४८ में से चतुर्थगुणस्थान में कौन-कौन से कर्म का आस्रव रुका, संवर हुआ, उनमें प्रशस्त कितने, अप्रशस्त कितने हैं ? पाप कर्म कितने हैं, पुण्य कितने हैं, यह याद नहीं रह पाता ? यदि इसको ठीक-ठीक समझ लें तो अपने आप ही ज्ञात हो जायेगा कि हमारी धारणा आज तक पुण्य कर्म को रोकने में लगी रही, लेकिन आगम में ऐसा कहीं लिखा नहीं है। बात खुरई (सागर, मध्यप्रदेश) की है जब आगम में निकला कि "सम्माइट्ठी पसत्थकम्माण अणुभागं कदावि ण हणदि" तो देखते रह गये। वाह.......वाह! स्वाध्याय का यह परिणाम निकला। आप इस प्रकार के स्वाध्याय में लगे रहिए। ऐसा स्वाध्याय करिए, इसे मैं बहुत पसन्द करूंगा। इस प्रकार के सही-सही स्वाध्याय से एक-दो दिन में ही आप अपनी प्रतिभा के द्वारा बहुत-सी गलत धारणाओं का समाधान पा जायेंगे। लेकिन यह ध्यान रखना कि ग्रन्थ आर्षप्रणीत मूल संस्कृत और प्राकृत के हों, उनका स्वाध्याय करना। उसमें भाषा सम्बन्धी कोई खास व्यवधान नहीं आयेगा। यदि कुछ व्यवधान आ भी रहे हों तो उसमें स्वाध्याय की कमी नहीं, हमारे क्षयोपशम की, बुद्धि में समझ सकने की कमी हो सकती है। आप बार-बार पढ़िये, अपने आप समझ पैदा होगी, ज्ञान बढ़ेगा। महाराजजी ने एक बार कहा था कि 'एक ग्रन्थ का एक ही बार अवलोकन करके नहीं छोड़ना चाहिए। तो फिर कितनी बार करना चाहिए ? १०८ बार करना चाहिए कम से कम, लेकिन वह भी ऐसा नहीं कि तोता रटन्त पाठ करो किन्तु पहले की अपेक्षा दूसरी बार में, दूसरी की अपेक्षा तीसरी बार में आपकी प्रतिभा बढ़ती रहनी चाहिए, तर्कणा पैनी होनी चाहिए, तो अपने आप शंकाओं का समाधान होता चला जाता है। आज हमारी स्मरण शक्ति, बुद्धि १४८ कर्मों के नाम भी नहीं जानती और आद्योपान्त ग्रन्थ का अध्ययन करना तो मानो सीखा ही नहीं और हम चतुर्थ गुणस्थान में पुण्य-पाप, दोनों कर्मों के आस्रव से उस सम्यक दृष्टि को दूर कराने के प्रयास चालू कर देते हैं, लेकिन सफल नहीं हो पाते और न आगे कभी सफल हो सकेंगे। बन्धुओ! यह बात अच्छी नहीं लग रही होगी। परन्तु माँ जिनवाणी की ही है, मैं नहीं कह रहा हूँ। मैं तो बीच में मात्र भाषान्तरकार के रूप में हूँ जिनवाणी कह रही है आप सोचिए और पं. दौलतरामजी को सही-सही समझने का प्रयास कीजिए, वे संवर के प्रकरण को ले करके, सर्वप्रथम मुनियों की बात कह रहे हैं कि बारह भावनाओं का चिन्तन कौन करता है ? आप कहेंगे महाराज! क्या श्रावक नहीं कर सकते? नहीं, करना तो सभी को चाहिए, बात करने की नहीं लेकिन भावना फलीभूत किसकी होगी ? ठीक-ठीक किसकी होगी ? तो आचार्य उमास्वामी ने तत्वार्थसूत्र में स्वयं कहा है कि - ‘‘ स गुप्तिसमिति-धर्मानुप्रेक्षापरीषहजयचारित्रैः ?" तत्त्वार्थसूत्र – ९/२ भावना सही-सही होनी चाहिए, भावना केवल पाठ न रह जाए, अत: चारित्र को अंगीकार करके परीषहों के साथ बारह भावनाओं का चिन्तन, धर्म को समीचीन बनाते हुए, समितियों में सम्यक्रप्पना लाते हुए, गुप्ति की ओर बढ़ना, यही एकमात्र संवर का यहाँ पर तात्पर्य परिफलित होता है। तो बारह भावनाओं का चिन्तन ज्यों ही तीर्थकरों ने किया तो फिर वे वन की ओर चले गए। उस समय ऊपर की ओर से कौन आते हैं ? देवर्षि आते हैं। कौन होते हैं वे देवर्षि ? लौकान्तिक देवों को कहते हैं देवर्षि, बालब्रह्मचारी होते हैं, पंचम स्वर्ग के ऊपर उनकी कॉलोनी बनी है उनमें रहते हैं। द्वादशांग के पाठी होते हैं, सफेद वस्त्र धारण करते हैं, वहाँ कोई भी देवियाँ नहीं होती तथा हमेशा बारह भावनाओं का चिन्तन करते रहते हैं। वे कहाँ से गए हैं ? तो, जाते तो हैं वे मात्र भरत, ऐरावत एवं विदेहक्षेत्र की कर्मभूमियों से, भोगभूमि से कोई नहीं जा सकता वहाँ पर! महाराज क्या सम्यक दृष्टि वहाँ जा सकते हैं ? हाँ सम्यक दृष्टि ही जाते हैं लेकिन 'अविरत सम्यक दृष्टि लौकान्तिक देव नहीं हो सकते हैं।” किसी एक व्यक्ति से कल हमने सुना-वह कह रहे थे कि महाराज! वहाँ पर रात्रि में चर्चा चल रही थी कि अविरत सम्यक दृष्टि लौकान्तिक देव हो सकते हैं। लेकिन आप तो कह रहे थे कि मुनि बने बिना नहीं जा सकते हैं। कौन कहता है कि अविरत सम्यक दृष्टि लौकान्तिक देव हो सकता है ? मैं तो अभी भी कह रहा हूँ कि प्रत्येक मुनि के पास भी लौकान्तिक बनने की योग्यता नहीं। जो रत्नत्रय को पूर्णरूपेण निभाता है, वह भावनाओं के चिन्तन में अपने जीवन को खपाता है, महाव्रतों का निर्दोष पालन करता है, इस प्रकार की चर्या निभाते हुए अन्त में वह लौकान्तिक बनता है। तिलोयपण्णत्ति को उठा करके देख लेना चाहिए। जो व्यक्ति मुनि हुए बिना चतुर्थ गुणस्थान से लौकान्तिक देव बनने का प्रयास कर रहा है वह व्यक्ति इस ओर नहीं देख रहा है जो तिलोयपण्णति में कहा गया है। इस प्रकार की कई गल्तियाँ हमारे अन्दर घर कर चुकी हैं। यदि अज्ञान के कारण कोई बात अन्यथा हो जाए तो बात एक बार अलग है, क्षम्य है। लेकिन तत्सम्बन्धी जिसे ज्ञान भी नहीं और ऊपर से आग्रह है तो उन्हें इस प्रकार के उपदेश या प्रवचन नहीं देना चाहिए। प्रवचन देने का निषेध नहीं है किन्तु जिस विषय के बारे में पूर्वापर ज्ञान हमें सही-सही नहीं है और उसका हम प्रवचन दें तो इसमें बहुत सारे व्यवधान हो सकते हैं। यदि इसमें कषाय और आ जाए तो फिर बहुत गड़बड़ हो जाएगा। मोक्षमार्ग बहुत सुकुमार है और बहुत कठिन भी। अपने लिए कठोर होना चाहिए और दुसरो के लिए सुकुमार होना चाहिए किन्तु कषायो की वजह से दूसरों को कठोर बना देते हैं और अपने लिए नरम बना लेना चाहते हैं। लेकिन मोक्षमार्ग है आपकी इच्छा के अनुसार नहीं बनने वाला, भैय्या ! भगवान के दर्शन अच्छे ढंग से करो, उनकी भक्ति करो, भगवान की भक्ति करने से हमें कुछ नहीं होता, ऐसा नहीं सोचना चाहिए। आचार्य कुन्दकुन्द जैसे आचार्य भी कहते हैं कि - अरिहंत णमोक्कारो, भावेण य जो करेदि पयडमदी। सो सव्वदुक्खमोक्ख, पावदि अचिरेण कालेण। (मूलाचार-१/५०६) जो प्रयत्नवान हो करके अरहन्तों की भक्ति करता है, भावों की एकाग्रता के साथ करता है तो नियम से वह कुछ ही दिनों में, घड़ियों में सभी दु:खों से मुक्ति पा जायेगा।' भावेण' यह शब्द बहुत मार्के का है। अर्थ यह है कि अरहन्त भक्ति करो पर 'हेयबुद्धि' से करना, इस पर मन कुछ सोचने का कहता है, कई लोग ऐसा व्याख्यान देते हैं कि भक्ति आदि क्रियाएँ हेयबुद्धि से करना चाहिए, लेकिन वह मेरे गले नहीं उतरता है। कई लोग कहते हैं कि महाराज! कम से कम अरहन्तभक्ति करते समय हमारी हेयबुद्धि कैसे हो ? हम तो हैरान हो जाते हैं कि भैया! इस प्रकार का प्रश्न तो आपने कर दिया हमारे सामने किन्तु इसके लिए उत्तर मैं कहाँ से ढूँडू? और यदि इसका उत्तर समीचीन नहीं देता हूँ तो मुझे दोष लगेगा। आपको कुछ नहीं कहने पर आप और भी इस तरह की गलत धारणा बना लेंगे। दूसरी तरफ आगम में ऐसा कुछ कहा भी नहीं जिससे आपका समाधान हो सके। अब तो फंदे में पड़ गये हम, किन्तु फिर भी ढूँढता रहता हूँ कि कौन-सा शब्द कहाँ पर किस रूप में प्रयुक्त होता रहता है ? मैं मंजूर करता हूँकि अरहन्त-भक्ति करते-करते किसी को भी केवलज्ञान नहीं हुआ, लेकिन इसका अर्थ यह नहीं है कि अरहन्त-भक्ति के द्वारा संवर और निर्जरा भी नहीं होती, ऐसा कदापि नहीं मानना। संवर, निर्जरा नियम से होती है, इस संवर-निर्जरा के द्वारा साक्षात् केवलज्ञान नहीं होता, यह बात बिल्कुल अलग है कि जो केवलज्ञान प्राप्ति की भूमिका में है और 'अरहन्त-भक्ति (अरहन्त-सिद्ध)' करता रहेगा तो उसे अरहन्त पद नहीं मिलेगा क्योंकि उसकी स्थिति अभी पराश्रित है। समयसारादि ग्रन्थों में कहा गया है कि अरे! तू मुनि हो गया, अब शुद्धोपयोग धारण कर, शुद्धोपयोग में लीन हो जा, यदि शुद्धोपयोग में लीन हो जाएगा तो तू भी उसी के समान बन जाएगा जिसकी भक्ति कर रहा है। सुबह भजन में कोई सज्जन कह रहे थे कि "भक्त नहीं भगवान् बनेंगे।" मैंने सुना क्या बोल रहे हैं भजनकार ? भैय्या! यह तो बहुत गड़बड़ बात होगी कि जो भक्त तो नहीं बनेगा और भगवान बनेगा, भगवान तो बनना है लेकिन भक्त बनकर भगवान् बनेंगे, ऐसा क्रम होना चाहिए। नहीं तो सारे के सारे लोग भक्ति छोड़कर भगवान बनने बैठ जायेंगे तो मामला गड़बड़ हो जाएगा। प्रसंग को लेकर अर्थ को सही निकाला जाए तो कोई विसंवाद नहीं, किन्तु उसी पर अड़ जायें तो मामला ठीक नहीं, भक्ति के द्वारा जो केवलज्ञान माने, तो वह समयसार नहीं पढ़ रहा है और समयसार पढ़ते हुए यदि हम यह कहें कि ‘भक्ति से कुछ नहीं होता” तो भी समयसार नहीं पढ़ रहे हैं। आचार्य कुन्दकुन्ददेव कहते हैं कि - मग्गप्पहावणार्डे, पवयणभक्तिप्पचोदिदेणा मया । भणियं पवयणसारं पंचत्थियसंगहं सुक्त। (पञ्चास्तिकाय-१७३) प्रवचनभक्ति के द्वारा प्रेरित हुई मेरी आत्मा ने इस प्रवचन (आगम) के साररूप पञ्चास्तिकाय– संग्रह सूत्र को कहा। मार्ग की प्रभावना को दृष्टि में रखकर ऐसी भावना उद्भूत हुई। भक्ति से ओतप्रोत होकर जिनवाणी की सेवा करने का ऐसा भाव यदि इस भूमिका में नहीं होगा तो कौन-सी भूमिका में होगा ? क्या सप्तमभूमि में होगा ? नहीं होगा। करुणा से युक्त हृदय वाले ही भक्ति कर सकते हैं। यदि कुन्दकुन्दाचार्य की अरहन्तभक्ति-श्रुतभक्ति नहीं होती तो यह जिनवाणी भी हमारे सामने नहीं होती। आप भी तो बोलते हैं कि 'तो किस भांति पदारथ पांति, कहाँ लहते रहते अविचारी' हाँ.....हाँ! जिनवाणी -भक्ति में क्या मार्मिक बात कही है कि हमारा अस्तित्व कहाँ, यदि यह जिनवाणी न होती तो ? किसी उर्दू शायर ने भी कहा है उसे भी याद ला रहा हूँ, बहुत अच्छी बात कहीं-उनकी ये दृष्टि हो या न हो, लेकिन मैंने तो इसका इस प्रकार अर्थ निकाला है - नाम लेता हूँ तुम्हारा लोग मुझे जान जाते हैं। मैं एक खोई हुई चीज हूँ जिसका पता तुम हो। मेरा कोई 'एड्रेस' नहीं, पता नहीं, अगर कुछ है तो तुम ही हो! तुम्हारी शरण छूट गयी तो हमारे लिये कोई शरण नहीं भगवान। "अन्यथा शरणां नास्ति त्वमेव शरणां मम'''...अरहंते सरणां पव्वज्जामि । समाधिभक्ति – १५ हे भगवान! (पञ्चपरमेष्ठी) आपके चरण-कमलों की शरण को छोड़ करके कौन-सी मुझे शरण है ? भगवान की भक्ति करते हुए यदि हेयबुद्धि लाने का प्रयास करोगे तो बन्धुओ! ध्यान रखो। 'शुद्धोपयोग' की भूमिका आपको नहीं मिलेगी और अशुभोपयोग की भूमिका छूटेगी नहीं। भक्ति शुभोपयोग हुआ करती है। लेकिन शुभोपयोग के द्वारा केवल बन्ध होता है, ऐसा नहीं है, शुभोपयोग के द्वारा संवर-निर्जरा भी होती है। सर्वप्रथम प्रवचनसार में आत्मख्याति लिखते हुए अमृतचन्द्राचार्य ने गाथा की टीका में लिखा है कि - एसा पसत्थभूदा समणाण वा पुणो घरत्थाण। चरिया परेति भणिदाताएव परं लहदि सोक्ख॥ यह जो श्रावकों की अरहन्त-भक्ति, दान और पूजादि रूप प्रशस्तचर्या है, इसके द्वारा "क्रमतः परमनिर्वाणसौख्यकारणत्वाच्या मुख्यः" ये शब्द अमृतचन्द्राचार्य के हैं (प्रवचनसार २५४ टीका)। जयसेनाचार्यजी ने इसका और खुलासा किया है। सर्वप्रथम इन अध्यात्म ग्रन्थों में ‘क्रमत:' शब्द का प्रयोग किया है तो अमृतचन्द्राचार्यजी ने ही। जो (अमृतचन्द्राचार्य) क्रमत: अर्थात् परम्परा से परम निर्वाण के सुख को प्राप्त करने के लिए सराग चर्या और अरहन्त-भक्ति को कारण मानते हैं तो उसके लिए 'एकान्त से संसार का ही कारण मानना, ऐसा कह देना, आचार्य अमृतचन्द्राचार्य को दुनिया से अपरिचित कराना है।” शुद्धोपयोग के साथ कुछ भी आस्रव नहीं होता, बिल्कुल ठीक है। परन्तु शुभोपयोग के द्वारा केवल आस्रव ही होता है, ऐसा नहीं है। इसलिए तो अमृतचन्द्राचार्यजी ने ये शब्द दिये ‘क्रमत: परमनिर्वाणसौख्यकारणत्वाच्च मुख्य:” और कुन्दकुन्द भगवान क्या कहते हैं ?'ताएव परं लहदि सोक्ख' अर्थात् उसी सरागचर्या के द्वारा क्रमश: निर्वाण की प्राप्ति होती है। यहाँ पर यदि मुनि कहे कि हम भी ऐसा ही करें तो आचार्य कहते हैं कि-बाबला कहीं का! तुम्हारी शोभा इसमें नहीं, तुम्हारी तो भूमिका शुद्धोपयोग की है, शान्ति से बैठ जा और आत्मा का ध्यान कर ले! तुम्हें क्रमश: नहीं 'साक्षात्' की भूमिका है। लेकिन वर्तमान में बन्धुओ! इस विवक्षा को नहीं समझोगे तो उस भक्ति को भी खो दोगे और उधर भी कुछ नहीं मिलेगा, तब कहाँ रहोगे? इस सब अवस्था को देखकर भगवान कुन्दकुन्द को कितना दु:ख होगा, अमृतचन्द्राचार्य को कितना दु:ख होगा? उन्होंने प्रयास किया लिखने में, टीका करने में और हम अर्थ निकालने वाले ऐसा अर्थ निकाल रहे हैं ? बेचारी इस भोली-भाली जनता का क्या होगा ? इसलिए आचार्यों ने टीका के ऊपर टीकाएँ, कुंजी, नोट्स ये.वी.सब कुछ लिखे हैं। लेकिन टीका की कीमत, कुंजी की कीमत, तब तक ही है जब तक मूल है। ताला ही मूल नहीं तो टीका, कुंजी का बड़ा-सा गुच्छा अपने पास रख ले तो भी कुछ (कोई भी) कीमत नहीं। आज किताब का तो अध्ययन कोई करता नहीं और कुंजियों के द्वारा पास होने वाले विद्यार्थी बहुत हैं। उन विद्यार्थियों को देखकर ऐसा लगता है कि जब ताला नहीं मिलेगा तो कुंजी का प्रयोग कहाँ करेंगे ये लोग ? उस कुंजी ‘की’ कीमत तब है जब मूल किताब में कहाँ पर क्या लिखा है, उसको देखने में ‘की’ (key) लगा दो तो ठीक है, लेकिन जब नवम्बर और अप्रैल आ जाता है उस समय कालेज के भी विद्यार्थी पढ़ाई प्रारम्भ करते हैं तो पास कैसे होंगे? की पढ़कर ही जैसे भी हो वैसे पास हो जायें, बस यही सोचते हैं। कदाचित् वे पास हो भी जाएँ लेकिन यहाँ पर ऐसा नहीं चलेगा भैय्या! यहाँ पर पूरा का पूरा प्रयास करने की आवश्यकता है। आचार्य समन्तभद्रस्वामी ने अरहन्त-भक्ति में तो विशेष रूप से कमाल किया है, वे कहते हैं - न पूजयार्थस्त्वयि वीतरागे न निन्दया नाथ! विवान्तवैरे। तथापि ते पुण्यगुणस्मृतिर्नः पुनातु चित्तं दुरिताञ्जनेभ्यः॥ (स्वयम्भूस्तोत्र-१२/२) हे भगवन्! हम आपकी भक्ति कर रहे हैं, स्तुति कर रहे हैं और आपको स्मरण कर रहे हैं, इससे आपका कोई भी प्रयोजन नहीं है, क्योंकि आप तो वीतरागी हैं। हे भगवन्! कोई भी आकर, आपकी निन्दा करे तो आपको कोई प्रयोजन नहीं, क्योंकि आप वीतदेषी हैं। आपके चरणों में भक्ति कर रहा हूँ मैं, इससे आपको तो कोई लाभ-प्रयोजन नहीं किन्तु मेरा ही मतलब सिद्ध हो जाता है, कारण कि अभी तक बिगड़ा रहा, अब आज आपकी भक्ति के माध्यम से सुधर जाऊँगा, इसके लिए आप मना भी नहीं करते हैं। उन्होंने पाँच कारिकाओं के द्वारा वासुपूज्य भगवान की स्तुति करते हुए मात्र पूजा का ही वर्णन किया है। वे कहते हैं कि - पूज्यं जिनं त्वार्चयतो जनस्य, सावद्यलेशो बहुपुण्यराशौ। दोषाय नालं कणिका विषस्य, न दूषिका शीतशिवाम्बुराशौ ॥ (स्वयम्भूस्तोत्र-१२/३) हे भगवन्! आपकी स्तुति, पूजापाठ आदि करते-करते कोई श्रावक दोष का भागीदार नहीं होगा, सावद्य पूजन होने पर भी, क्योंकि पूजन के द्वारा इतना फल मिलता है-कर्मों की निर्जरा होती है कि क्या बताऊँ ? और उसके साथ-साथ यदि कुछ कर्मों का बन्ध भी हो रहा हो तो वह उसके लिए बाधक नहीं होगा, दोषकारक सिद्ध नहीं होगा। क्या उदाहरण दिया है ? समुद्र है, वह भी अमृत का, उसमें यदि विष की एक कणिका डाली जाय तो वह समुद्र को किसी भी प्रकार से विकृत नहीं बना सकती। मैं पूछना चाहता हूँ बड़ी-बड़ी सिटियों से लोग आये होंगे यहाँ पर। वहाँ पर आप सबकी दुकानें तो होंगी, भले ही घर की न हो, किराये से ले रखी हो, माल तो आपका ही होता है, मकान आपका नहीं लेकिन आप चाहते होंगे कि सागर में दुकान चकराघाट पर या तीनबती पर खुल जाए, ताकि हमारी दुकान चौबीसों घण्टे चलती रहे, ग्राहकों का तांता लगा ही रहे। लेकिन मैं पूछना चाहता हूँ कि वहाँ पर दुकान मिलेगी कैसे ? जो माँगे वह देने को तैयार है, हम दस लाख की पगड़ी देने को तैयार हैं, लेकिन मिल तो जाय कम से कम। मान लो मिल गई और धड़ाधड़ चलने भी लगी, मालामाल हो गये तो मालूम है किराया लेने वाला (मालिक) क्या कहता है कि आपको किराया और बढ़ाना होगा? तब आप कहते हैं-बढ़ाओ कोई बात नहीं, ले लो और ले लो, एक माह हुआ नहीं कि २९ तारीख के दिन ही निकाल करके रख देते हैं। आया नहीं कि दे दिया। क्योंकि गड़बड़ किया तो दुकान खाली करनी पड़ेगी, तब तो मुश्किल हो जाएगा। इसलिए सब कुछ देने को तैयार हो जाते हैं। दुकान अच्छी चल रही है। अपनी गांठ का देना होता तो थोड़े ही निकालते। जो आ रहा है, उसी में से थोड़ा-सा दे दिया। ये स्थिति होती है जिसकी निजी दुकान नहीं है, उसकी यह बात है, तब तो जिसकी दुकान भी घर की है, जिसको कुछ भी, एक पाई भी न देना पड़े, खुद का घर, खुद की दुकान, नौकर भी नहीं, सब कुछ स्वयं करते हैं तो मालामाल हो जायेंगे। देने की आवश्यकता ही नहीं, मात्र लेना ही लेना है। इसी प्रकार अरहन्त-भक्ति में, पूजा में लाभ ही लाभ है। अत: भक्ति आदिक धार्मिक कार्य 'हेयबुद्धि' से नहीं किये जाते किन्तु आचार्यों ने कहा है "परमभक्तया एव अरहन्तभत्ति कुरु" परमभक्ति के द्वारा अरहन्तभक्ति करो किन्तु उस भक्ति के द्वारा जो भी पुण्यबन्ध होता है, उस पुण्यबन्ध के उदय का जब फल मिलेगा तब उसमें आकांक्षा-रागद्वेष-हर्ष विषाद नहीं करना। पं. दौलतरामजी कहते हैं कि - पाप पुण्य फल मांहि हरख विलखो मत भाई। यह पुद्गल परजाय उपज विनसे थिर नाई। क्या कहते हैं वे ? पुण्य और पाप के फल-काल में न तो हर्ष होना चाहिए, न ही विषाद, किन्तु संसारी प्राणी का बिना इसके (हर्ष-विषाद के) चल नहीं सकता। फल के लिए जो व्यक्ति अंरहत भक्ति आदि पुण्य करता है, उसका वह पुण्य पापानुबन्धी पुण्य है और जो व्यक्ति अंरहत भक्ति आदि पुण्य संवर और निर्जरा के निमित्त करता है, कर्मक्षय के लिए करता है, वही सार्थक है। शुद्धोपयोग की भूमिका नहीं है तब क्या करूं? तो आचार्य कहते हैं कि चिन्ता मत कर बेटा! मैं कह रहा हूँ, रास्ता यही है तेरे लिए 'क्रमत: परमनिर्वाण सौख्यकारणत्वाच्च मुख्य:” इस भव में नहीं तो ना सही, किन्तु मिलेगा तो, परम आह्वाद की प्राप्ति होगी नियम से, सभी को आह्वाद पहुँचाने का प्रयास करो, जिससे व्यक्ति अरहन्त भक्ति करने लग जायेगा ऐसा प्रवचन दीजिए, ऐसा नहीं कि 'भुति की भक्ति' शुरू कर दें। 'अहन्त भक्त' बनेगा तो नियम से वह मुनि बनेगा और अपनी आत्मा में स्वस्थ होगा। यह सब यदि करना चाहते हो तो नियम से, अच्छे ढंग से अरहन्त भक्ति करना चाहिए। अरहन्त भक्ति करते-करते प्राण निकल जाये, ऐसा आचार्य समन्तभद्र और कुन्दकुन्द भगवान का कहना है। सल्लेखना के समय पर जिस व्यक्ति के मुख से अरहन्त भगवान् का नाम निकलता है, वह बहुत ही भाग्यशाली है। जिसके मुख से 'अरहन्त' नाम भी नहीं निकलता है, उसका तो कर्म ही फूट गया, खोटा है। महान् बड़भागी होते हैं वे जो जीवन पर्यन्त उपाध्याय परमेष्ठी का काम करते हैं और अन्त में भी 'णमोकार मन्त्र' दूसरों को सुनाते जाते हैं, बहुत भाग्य की बात है।' अरहन्त-सिद्ध' मुख से नहीं निकलता, किन्तु कहते हैं- 'हायरे ! जल लाओ, भीतर तो सभी कुछ जला जा रहा है।” जीवनभर समयसार भी पढ़ लो, गोम्मटसार भी रट लो, प्रवचनसार के प्रवचन भी कर लो, लेकिन जब अन्त समय प्राणपखेरु उड़ने लग जाते हैं तो अरहन्त कहते नहीं पाये जाते, ऐसे भी कई उदाहरण आगम में दिये गये हैं। ४८ मुनियों को वैय्यावृत्ति में लगाया जाता है और बार-बार कहा जाता है कि 'आपके माध्यम से हमें मार्ग मिला है' और आप कह रहे हैं कि जल लाओ, भोजन लाओ। रात तो देखो, अपनी अवस्था को भी देखो, आप किस अवस्था में हैं और यह क्या कह रहे हैं, पूर्व की याद करो, नरकों की याद करो, जहाँ ‘सिन्धु नीरतें प्यास न जाए तो पण एक न बूंद लहाय॥' यह प्यास, भूख तो अनन्तकाल से साथ दे रही है। अब तो केवली भगवान् की बात सुनिए-घबराओ नहीं, अरहन्त भक्ति को याद रखो, आज भी नियमपूर्वक, विधिपूर्वक सल्लेखना करने वाला उत्कृष्ट से २-३ भव और जघन्य से ७-८ भव में मोक्ष जाता है। पं. दौलतरामजी कहते हैं कि यदि तू मुनि नहीं बन सकता तो कम से कम श्रावक के व्रत तो पालन कर/धारण कर। दो ही धर्मों का व्याख्यान शास्त्रों में आता है-एक अनगार, दूसरा सागार। तीसरा कोई धर्म नहीं है। आप कहीं भी चले जायें दो ही धर्म मिलेंगे, दोनों में चलने को कहा है। एक बात और कहना चाहूँगा कि अमृतचन्द्राचार्यजी ने पुरुषार्थसिद्धयुपाय में कहा हैआप लोग बहुत पढ़ते हैं उसको, जब भी उपदेश देओ तो सर्वप्रथम मुनि बनने का उपदेश देना बाद में श्रावक धर्म का क्योंकि सामने वाला यदि मुनि बनने की इच्छा से आया है और आप उसे गृहस्थाश्रम के योग्य धर्म का उपदेश देंगे तो दण्ड के पात्र होंगे। केवल एक धर्म का कभी भी वर्णन नहीं होना चाहिए। मात्र सम्यक दर्शन कोई धर्म नहीं है किन्तु सम्यक दर्शन-सम्यक ज्ञान और सम्यक्र चारित्र, तीनों मिलाने पर ही धर्म बनते हैं, ऐसा आचार्यों का कहना है। बन्धुओ! या तो श्रावक बनी या मुनि बनो, तीसरा कोई मार्ग नहीं है। यदि धर्म का पालन नहीं कर सकते तो, भाव तो रखो मन में कम से कम, इस प्रकार की भावना होना भी महादुर्लभ है। कृष्णजी के सामने समस्या आ गई, वे कह देते हैं प्रद्युम्न आदि सब चले जाओ, सबको हमारी तरफ से छुट्टी है मुनि बनने की, दीक्षा लेने की। बेटे ने कहा-आप भी चलेंगे पिताजी, मेरी भावना नहीं हो रही है, क्यों नहीं हो रही है पिताजी? कितने मार्के की बात है देखो, "सिद्धान्त कहता है कि जिस जीव को मनुष्यायु, तिर्यञ्चायुया नरकायुका बन्ध हो चुका है उसको कभी भी संयम लेने की भावना तक नहीं होती।" लेकिन वह सम्यग्दृष्टि है तो दूसरे को दीक्षा लेने में कभी व्यवधान नहीं डालेगा। जो व्यक्ति शिक्षा-दीक्षा का निषेध करता है वह व्यक्ति नियम से संयम के प्रतिपक्षी होने के कारण मिथ्यादृष्टि है। बन्धुओ! यह ध्यान रखो, खुद मोक्षमार्ग पर नहीं चल सकते तो कोई बात नहीं किन्तु तुम चलो बेटा, तुम चलो बेटा, तुम चले जाओ। हम बाद में आ जायेंगे, जब कभी हमारी शक्ति आ जायेगी तब, ऐसा प्रोत्साहन तो देता है। ‘मैं नहीं चल रहा हूँ इसलिए तुम कैसे आगे पहुँच सकते हो।” इस घमण्ड से दूसरों के मार्ग में बाधक का कार्य नहीं करो, 'आज मोक्षमार्ग पर कोई नहीं बढ़ सकता', ऐसा भी कभी मत कहना, क्योंकि नियमसार की एक गाथा है आचार्य कुन्दकुन्ददेव की-अनेक प्रकार के भाव होते हैं, अनेक प्रकार कर्म होते हैं, अनेक प्रकार की उपलब्धियाँ होती हैं। इसलिए आपस में इस प्रकार का संघर्ष कषाय करके ‘स्व' और ‘पर' के लिए कभी भी ऐसे बीज मत बोओ, जिसके द्वारा विष फल खाना पड़े और नरक-निगोद आदि गतियों में जाना पड़े। दिव्यध्वनि में भगवान् ने दो ही धर्मों का वर्णन किया है और सम्यक दर्शन के साथ दोनों धर्म हुआ करते हैं। इनमें से एक परम्परा से मुक्ति का कारण है और एक साक्षात्। मुनिधर्म साक्षात् मुक्ति का कारण है और श्रावकधर्म परम्परा से, परन्तु आज तो दोनों ही धर्म परम्परा से हैं क्योंकि आज साक्षात् केवलज्ञान नहीं होगा। इसलिए इस सत्य को, इस तथ्य को सही-सही समझ करके अपने मार्ग को आगे तक प्रशस्त करने का ध्यान रखिए क्योंकि - ज्ञान ही दु:ख का मूल है, ज्ञान ही भव का कूल। राग सहित प्रतिकूल है, राग रहित अनुकूल॥ चुन-चुन इनमें उचित को, मत चुन अनुचित भूल। सब शास्त्रों का सार है, समता बिन सब धूल।
  12. आज चौथा दिन है। कल ऋषभकुमार ने दीक्षा अंगीकार कर ली है। इसके उपरान्त तप में लीन हैं, आज उन्हें केवलज्ञान की उपलब्धि होने वाली है। इसके पूर्व उन्हें भूख लगी, यह सब कुछ इसलिए कह रहा हूँ कि तीर्थकर की कोई भी चर्या ‘आर्टीफिशयल' नहीं हुआ करती, दिखावट नहीं हुआ करती, प्रदर्शन के लिए भी नहीं हुआ करती, दुनिया को उपदेश देने के लिए भी नहीं हुआ करती, क्योंकि छद्मस्थ अवस्था में वे उपदेश नहीं दिया करते हैं, दिखावटी कोई नाटक नहीं किया करते हैं। ऋषभनाथ, जो मुनिराज बने हैं वे, छठवें-सातवें गुणस्थान में घूम रहे हैं, क्योंकि उनका उपयोग अभी भी श्रेणी के लायक नहीं है, अर्थ यह हुआ कि उनकी चंचलता अभी नहीं मिटी और जब चंचलता नहीं मिटी तो वह क्रिया, केवल दिखाने के लिए नहीं है। कल चर्चा रही थी कि, महाराज! तीर्थकरों को पिच्छी-कमण्डलु का विधान तो नहीं है और कल तो यहाँ दिया गया ? बात तो ठीक है, संसारी प्राणी को मुनिचर्या की सही-सही पहचान हो, ज्ञान हो इसलिए ये दिया गया है। जो तीर्थकर दीक्षित होते हैं, वे पिच्छी और कमण्डलु नहीं लेते, क्योंकि ज्यों ही वे दीक्षित होते हैं, त्यों ही उन्हें सारी ऋद्धियाँ प्राप्त हो जाती हैं, एक मात्र केवलज्ञान को छोड़कर, उनकी मन, वचन, काय की चेष्टा के द्वारा त्रसों का और स्थावरों का घात नहीं हुआ करता, इस प्रकार की विशुद्धि उनकी चर्या में आ जाती है और वे वर्द्धमान चारित्र वाले होते हैं, इसलिए इसके बारे में कुछ ज्यादा कहने की आवश्यकता नहीं है, किन्तु जब वे आहार के लिए उठते हैं, त्यों ही उपकरण का विधान उपस्थित हो जाता है। प्रवचनसार में आचार्य कुन्दकुन्ददेव ने प्रस्तुत किया है कि, अरे! तूने तो सब कुछ छोड़ने का संकल्प लिया था, छोड़ने का संकल्प लेकर, अब ग्रहण करने के लिए जा रहा है, गृहस्थों के सामने हाथ यूँ करेगा (फैलायेगा), बड़ी अद्भुत बात है, चाहे तीर्थकर हो, चाहे चक्रवर्ती हो, चाहे कामदेव हो, कोई भी हो, कर्मों के सामने सबको घुटने टेकने पड़ेंगे, जब छोड़ने का संकल्प लेकर दीक्षा ग्रहण की थी, तो इस समय ग्रहण करने क्यों जा रहे हैं ? आचार्य कहते हैं-उत्सर्गमार्ग और अपवादमार्ग की सूचना आगम में है। जो व्यक्ति अपवादमार्ग को भूल जाता है वह भी Fail (असफल) हो जाता है और जो व्यक्ति उत्सर्गमार्ग को भूल जाता है वह भी असफल हो जाता है,दोनों में ही साम्य हो, वेतन देना अनिवार्य है। लेकिन यहाँ पर वेतन के साथ ‘कण्डीशन' भी है कुछ, वेतन के साथ शर्त हुआ करती हैं, उनको जो स्वीकारता है, उसे कहते हैं साधु। साधु शर्तों के साथ ही अपनी आत्मा की साधना करता है, आगम के अनुकूल करता है, भगवान की चर्या भी आगम के अनुकूल होती है, विपरीत नहीं हुआ करती, २८ मूलगुणों के धारक होते हैं वे, इसलिए एक बार ही आहार के लिए निकलने का नियम होता है, यह बात अलग है कि उनकी क्षमता ६ माह तक की रही, किन्तु ६ माह के उपरान्त वह भी उठ गये। इस चर्या में जब चार हजार मुनि महाराज असफल हो गये तभी से प्रारम्भ हो गया है ३६३ मतों का प्रचलन, दिगम्बर होने के उपरान्त जो शोधन करके आहार नहीं करता वह सम्यक्र समिति वाला नहीं माना जाएगा। अन्य संस्था, समिति वाला हो सकता है, वे मुनिराज श्रावक के घर आकर आहार कब ग्रहण करते हैं जबकि श्रावक की सारी की सारी क्रिया देख लेते हैं, नवधाभक्ति देख लेते हैं, श्रावक यदि नवधाभक्ति करता है तो ही आहार लेते हैं, नहीं तो नहीं लेते। तो क्या हो गया था ? कल किसी ने कहा था कि उन्हें अन्तरायकर्म का उदय था, बिल्कुल ठीक है किन्तु लडू लाकर के दिखा रहे थे, क्यों नहीं लिए उन्होंने ? तब जवाब मिलता है, श्रावकों की गलती थी, मुनि महाराज की कोई गलती नहीं थी, श्रावकों की क्या गलती थी? तो उन्होंने कहा कि-नवधाभक्ति नहीं की थी। जब तक नवधाभक्ति नहीं होगी, तब तक लाये गए आहार को वे नहीं लेंगे, बहुत कठिन है, यह चर्या, एक माह, दो माह, तीन माह, चार माह, छह माह तो गये उपवास किये, उसके बाद ६ माह और अन्तराय चला, फिर भी उस क्रिया-चर्या की इति नहीं की, इस चर्या से डिगे नहीं थे, यह मात्र जड़ की क्रिया नहीं है, किन्तु यह भीतर में छठे-सातवें गुणस्थान में झूलता हुआ जो ज्ञानवान चेतन भगवान आत्मा है, उसी की क्रिया है-काम है। एषणा के कारण ही संसार में विप्लव मचा हुआ है, एक दिन के लिए भी भूख सताने लग जाए तो ‘मरता क्या न करता', 'भूखा क्या-क्या करता” ये सब कहावतें चरितार्थ होने लगती हैं लेकिन कितने ही कठोर उपसर्ग-परीषह क्यों न हों तो भी मुनि महाराज अपनी चर्या से तीनकाल में भी डिगते नहीं। टस से मस नहीं होते। वे कभी माँगते नहीं हैं, क्योंकि यही एक मुद्रा ऐसी रह गई है संसार में, जिसके पीछे रोटी है और बाकी जितने भी हैं वे सब रोटी के पीछे हैं। मात्र साहित्य से काम नहीं चलने वाला इस जगह। यदि हमारे पास क्रिया है, दिगम्बर मुद्रा है तो साक्षात् महावीर भगवान को दिखा सकते हैं। युग के आदि में जो वृषभनाथ हुए थे उनकी चर्या का पालन करने वाले आज भी हैं। यह हमारा सौभाग्य है। यह संसारी प्राणी चार संज्ञाओं से ग्रसा हुआ है, आहार की संज्ञा से कोई निवृत्त नहीं है छठे गुणस्थान तक अर्थात् यह संज्ञा छठे गुणस्थान तक होती है, आहार संज्ञा का मतलब है आहार की इच्छा होना। आप लोगों को भी आहार की इच्छा होती है और मुनि महाराज को भी आहार की इच्छा है। किन्तु आप लोगों को आहार की इच्छा के साथ-साथ रस की भी इच्छा होती है। रस की इच्छा जिह्वा की भूख मानी जाती है और मुनिराज को मात्र पेट की भूख होती है। वह भूख वस्तुत: भूख नहीं है। रस की भूख ऐसी भूख है कि भूत लगा देती है, संसारी प्राणी इसी भूत के पीछे ही सारा का सारा श्रृंगार करता है। खाते तो आप भी हैं, उतना ही पेट है और मुनि का पेट भी उतना है। फिर भी लगता है कि आपके पेट में कही गुंजाइश अधिक है, जिससे अनथऊ (सायंकाल का भोजन) की चिन्ता हुआ करती है आपको, मुनिराज को इसकी चिन्ता नहीं हुआ करती, उन्हें दिन में एक बार ही चेतन को वेतन देने का काम है, इसलिए ऋषभनाथ आपके घर आयेंगे। आचार्य ज्ञानसागरजी महाराज ने पूछा था समयसार पढ़ाते समय, बताओ-तीर्थकर की प्रमत्त अवस्था कैसे पकड़ोगे ? समयसार की व्याख्या पढ़ाने के उपरान्त पूछा था, क्योंकि उन्हें ज्ञात करना था कि ये किस प्रकार अपनी बुद्धि से अर्थ निकाल पाता है। मैंने कहा-महाराजजी ! आपने इस प्रकार पढ़ाया तो है ही नहीं ? इसलिए तो पूछ रहा हूँ मैं, कि कैसे पकड़ोगे ? आधा-एक मिनिट सोचता रहा फिर बाद में मैंने कहा कि महाराज! जब तीर्थकर चर्या के लिये उठते हैं, उस समय बिना इच्छा के नहीं उठते, आहार लेते समय मांगेगे, वह भी बिना इच्छा के नहीं, तभी एक-एक ग्रास पर हम उनकी प्रमाद चर्या को पकड़ सकते हैं, जिस समय वे ग्रास लेते हैं, उस समय छठा गुणस्थान माना जायेगा, जो कि प्रमाद की अवस्था है, कारण कि लेने की इच्छा है, ध्यान रखना वे आहार को ऐसे ही नहीं ले लेते, हम लोगों जैसे किन्तु यूँ-यूँ (अंजुली बाँधकर शोधन का इशारा) शोधन करते हैं, शोधन करने का नाम है अप्रमत्त अवस्था। ये यूँ-यूँ क्या अंगुली से ? यह जड़ की क्रिया है क्या? नहीं। ऐसा कभी मत सोचना कि यह जड़ की क्रिया है किन्तु यह सप्तम गुणस्थान की क्रिया है, इसको आगम में एषणा समिति कहते हैं, यह अप्रमत्त दशा का द्योतक है। ग्रास को लेने के लिए हाथ को यूँनीचे फैलाना, यह तो आहार संज्ञा का प्रतीक है, उस समय छठा गुणस्थान है, प्रमत्त है, किन्तु शोधन के लिए यूँ-यूँ अंगुली का चलाना, यह सप्तम गुणस्थान है। पुन: हाथ फैलाना छठा और शोधन सातवाँ। इस प्रकार होती है उनकी क्रिया। इतना विशेष ध्यान रखना कि आहार लेते समय रस का स्वाद, रस में चटक-मटक नहीं करते। यह बहुत सुन्दर है, बढ़िया है। ऐसा कह देंगे या मन में ऐसा भाव आ जायेगा तो गुणस्थान से नीचे आ जायेंगे। लेकिन उन्हें बढ़िया-घटिया से कोई मतलब नहीं रहता। उनके अन्दर तो 'अरसमरूवमगध. ' वाली गाथा चलती रहती है। आहार देते समय श्रावक लोग कह देते हैं कि महाराज! जल्दी-जल्दी ले-लो। हम शोधन करके ही तो दे रहे हैं, लेकिन नहीं। मैं तो देखकर ही लूगा, क्योंकि आपकी एषणासमिति तो आपके लिए है, मेरी एषणासमिति मेरे लिए है। तुम्हारी जो क्रिया होगी वह तुम्हारे गुणस्थान की रक्षा करेगी और मेरी जो क्रिया होगी वह मेरी रक्षा करेगी, मेरे गुणस्थान की रक्षा करेगी। आगम की आज्ञा का उल्लंघन हम नहीं कर सकते। वह जड़ की क्रिया अपितु जड़हीन अर्थात् ज्ञानवान आत्मा की क्रिया है। क्षुधा होती है-भूख बहुत जोरों से लगी है, तो देख लो, एक पूड़ी भी थोड़ी-सी देर से आ जाती है तो कैसी गड़बड़ी हो जाती है भैया! या तो पहले भोजन पर नहीं बुलाते, बुलाना है तो पहले पूड़ी का प्रबन्ध तो कर लेते, दाल के बिना काम चल जाए लेकिन पूड़ी के बिना कैसे चले। कुछ तो मिल जाए थाली में, उसी के साथ खाकर, थाली खाली कर दें, होता यह है कि भूख की इतनी तीव्र वेदना होती है कि असह्य होती है, किन्तु मुनिमहाराज कितनी ही भूख होने पर अपनी एषणासमिति को पालते हुए ही आगे का ग्रास लेते हैं। आचार्य कुन्दकुन्ददेव ने तो कहा है-मुनि की परीक्षा समिति के माध्यम से ही होती है, वो जिस समय सोयेंगे, उस समय समिति चल रही है। बोलेंगे उस समय भाषासमिति चल रही है, जिस समय उठेगे-बैठेगे उस समय आदान-निक्षेपण समिति चल रही है, जब चलेंगे, ईर्यासमिति से चलेंगे, पूरी की पूरी समितियाँ चल रही हैं, किसी भी क्रिया में कमी नहीं है, इसका मतलब है-अर्थ है कि प्रत्येक क्रिया के साथ सावधानी चल रही है, यानि चौबीसों घण्टे (हमेशा) स्वाध्याय चल रहा है। श्वेताम्बर और दिगम्बर दोनों में भेद का मूल कारण यही है-एषणा समिति। अंजुली में डालते ही खा जाना, यह रागी का काम है, माँगना रागी का काम है, परन्तु महाराज का काम है, अंजुली में आते ही ठीक-ठीक शोधन करके खाना, रागी व्यक्तियों जैसे कभी भी नहीं खाना, शोधन करना बुद्धिमान की क्रिया है। हमें इस बात का गौरव है, गौरव ही नहीं स्वाभिमान भी है कि कम से कम महावीर भगवान के वीतराग-विज्ञान का जो मूर्तरूप है उसका पालन तो कर रहे हैं। इसमें गौरव होना भी सहज है। मात्र बातों के जमा खर्च से काम नहीं चल सकता किन्तु आगम की जो आज्ञा है उसका पालन करना सर्वप्रथम आवश्यक है, जिसका पेट खाली है, वह व्यक्ति कभी भी पेट पर हाथ रखकर आनन्द का अनुभव नहीं कर सकेगा, क्योंकि वह आत्माराम को भूखा रखता है। इसलिए मेरा कहना ये है! मेरा क्या कहना ? आचार्यों का कहना है, अब आचार्यों का भी क्या कहना, दिव्यध्वनि खिरने वाली है मध्याह्न में, उसी दिव्यध्वनि का कहना है कि यदि तुम सुख का अनुभव करना चाहते हो तो, अपनी चर्या को ऐसी (सदाचारपूर्ण)बनाओ। यद्वा-तद्वा चर्या बनाओगे तो नियम से मात खा जाओगे-भटक जाओगे, आज तक मार्ग से भटके रहे, कहीं रास्ता नहीं मिला, यही कारण है, कारण को सही-सही जानना आवश्यक है, क्योंकि कारण में ही विपर्यास हुआ करता है कार्य में नहीं। पहले भी कहा था-मंजिल में और सुख में कोई विसंवाद नहीं हुआ करता, मात्र सुख को प्राप्त कराने वाले कारणों में विसंवाद होता है। हमारी बुद्धि, जहाँ पर भी चर्या में कठिनाई होने लगती है तो उसे भूलती-भूलती चली जाती है, चलते समय ही कठिनाईयाँ होती हैं, बन्धुओ! बैठे-बैठे नहीं। इन सभी कठिनाईयों को पार करने का मार्ग प्रशस्त कर रहे हैं, उनकी चर्या के उपरान्त सभी समझ सके थे कि मुनिराज को इस प्रकार चर्या करना चाहिए तथा श्रावकों को भी इसका ज्ञान हुआ। ऋषभनाथ को १००० वर्ष तक केवलज्ञान नहीं हुआ, तब ६-६ महिने के उपरान्त वे उठे, हजारों बार उठे। अर्थात् हजारों बार उन्हें भूख लगी, आहार की इच्छा हुई। यह छठवें गुणस्थान की बात है, आहार की क्रिया, जबकि सातवे गुणस्थान तक चलती है यह श्रीधवल, श्रीजयधवल और महाबन्ध के द्वारा ज्ञात होता है। अत: ज्ञानी को कोई रस सम्बन्धी, अन्न सम्बन्धी और कोई सामग्री सम्बन्धी परिग्रह नहीं रहता। फिर रहता भी है और नहीं भी रहता, यह क्या कह रहे आप ? जैसा कहा है वैसा ही तो कहूँगा, मैं अपनी तरफ से थोड़े ही कह रहा हूँ, विषय सम्बन्धी राग को तो अनन्तकाल तक के लिए छोड़ दिया है उन्होंने, सामान्य जीवो जैसा ग्रहण करना उनका कम नहीं है, श्वेताम्बर कहते हैं-भगवान बनने के उपरान्त भी वे कवलाहार लिया करते हैं तो आचार्यों को परिश्रम और करना पड़ा। उन्होंने कहा हमें बताओ, आहारसंज्ञा छठवें गुणस्थान तक ही रहती है तब तेरहवें गुणस्थान में कैसे आहार लेंगे? इसलिए आज भी इस क्रिया का अवलोकन आप लोगों को करते रहना चाहिए, मात्र चाहिए ही क्या, किन्तु बहुत आवश्यक है, जिससे समझ में आयेगा कि दिगम्बर परम्परा में किस प्रकार इस क्रिया को निर्दोष रखा कुन्दकुन्द भगवान ने, तूफान चला था तूफान उस समय, जिसमें बड़े बड़े पहाड़ भी उड़ रहे थे। लेकिन - 'बुद्धिसिरेणुद्धरियो समष्पियो भव्वलोयस्स' समयसार (सर्वविशुद्धि अधिकार) इन महान् आध्यात्मिक ग्रन्थ एवं मुनिचर्या को जीवित रखने का श्रेय, इस तूफान से बचाने का श्रेय, यदि किसी को है तो वह है आचार्य कुन्दकुन्दस्वामी को, यह ध्यान रखना वे कुन्दकुन्द स्वामी केवल साहित्य लिखकर के इस मुनिमार्ग को जीवित नहीं रख पाये, किन्तु उन्होंने स्वयं इस चर्या को निभाया और इसे उसी शुद्ध रूप में आज तक सुरक्षित पालन करने वाले अनेकानेक मुनिराज हुए, यह गौरव की बात है। ऐसे मुनि महाराज ही चौबीसों घण्टे स्वाध्याय करने वाले माने जाते हैं क्योंकि षट् आवश्यकादि क्रियाओं से उनका हमेशा ही स्वाध्याय चलता रहता है, इसलिए मात्र किताबों से ही स्वाध्याय होता है, ऐसा नहीं है। जैसे कल हमने बताया था-किसी को लगा होगा कि महाराजजी ने तो स्वाध्याय का निषेध कर दिया, किन्तु यहाँ स्वाध्याय का निषेध नहीं किया गया, बल्कि इन क्रियाओं से स्वाध्याय हमारा ठीक-ठीक हो रहा है या नहीं, इसका परीक्षण होता रहता है, जो इन क्रियाओं का पालन नहीं करता, उस व्यक्ति का स्वाध्याय, स्वाध्याय नहीं माना जाएगा। समयसार में भगवान कुन्दकुन्द ने कहा है- 'पाठोण करेदि गुण।' तोता रटन्त पाठ करना गुणकारी नहीं है-कार्यकारी नहीं है। 'आलस्याभाव: स्वाध्याय:' कहा गया है, इसलिए नियमसारजी में कुन्दकुन्दस्वामी ने यहाँ तक कह दिया कि स्वाध्याय तो प्रतिक्रमण एवं स्तुति आवश्यकों में गर्भित हो जाता है, यह नियमसार की गाथा है। कुन्दकुन्दस्वामी की आम्नाय के अनुसार एवं मूलाचार आदि ग्रन्थों को लेकर, आचार्य प्रणीत जितने भी आचार-संहितापरक ग्रन्थ हैं उनमें कहीं भी २८ मूलगुणों में मुनियों के लिए स्वाध्याय आवश्यक नहीं बताया गया, यदि स्वाध्याय को आवश्यकों में गिनना शुरु कर देंगे तो २९ मूलगुण हो जायेंगे या फिर एक को अलग करके उसे रखना होगा, यह सब ठीक नहीं, अवर्णवाद कहलायेगा, व्युत्क्रम भी नहीं कर सकते, अतिक्रम भी नहीं कर सकते, अनाक्रम भी नहीं कर सकते हैं हम जिनवाणी में। अन्यूनमनतिरिक्त याथातथ्यं बिना च विपरीतात्। नि:सन्देह वेद यदाहुस्तज्ज्ञानमागमिनः॥ (रत्नकरण्डक श्रावकाचार-४२) इस प्रकार ज्ञान की परिभाषा समन्तभद्रस्वामी ने की है, न्यूनता से रहित होना चाहिए, विपरीतता से रहित होना चाहिए, ज्यादा नहीं होना चाहिए, अन्यथा भी नहीं होना चाहिए, ‘याथातथ्यं' जैसा कहा गया है वैसा ही होना चाहिए अन्य नहीं। आचार्य कुन्दकुन्ददेव भी कहते हैं कि हमारे वे मुनिराज तीन काल में अपनी आत्मा को नहीं भूलते, क्योंकि यदि भूल करेंगे तो क्रियाओं में सावधानी नहीं आ सकेगी, ध्यान रखना दिव्य-उपदेश होगा मध्याह्न में, क्या कहेंगे भगवान, किसको कहेंगे और किस रूप में कहेंगे ? सर्वप्रथम देशनालब्धि का अधिकारी कौन है? इसका उत्तर पुरुषार्थसिद्धयुपाय में, जिसका कि अभी मंगलाचरण किया गया है, दिया है, जिसके पास योग्यता नहीं है उसे देशना मत दो, उसको यदि देशना देंगे तो यह अनादर-अपमान करेगा, जिनवाणी का अनादर हो जाएगा, उन्होंने कहा है-जो आठ अनिष्टकारक हैं, दुर्द्धर है, जिनका छोड़ना बहुत कठिन है। 'दुरितायतनानि', पाप की खान हैं, पाप की मूल खान कौन है ? मद्य, मांस, मधु और सात प्रकार के व्यसन जो इसमें आते हैं। "जिनधर्मदेशनाया: भवन्ति पात्राणि शुद्धधिय:" इन पापों का, इन व्यसनों का त्यागी जो नहीं है, उसको यदि तुम पवित्र जिनवाणी को दोगे तो सम्भव नहीं, उसका वह सही-सही उपयोग करेगा। इसे आप सामान्य चीजें साग-सब्जी जैसा नहीं समझे कि ठीक नहीं लगा तो बदल लिया, दो और रख दो या कम कर दो, ऊपर से और डाल दो, ऐसा नहीं हो सकता, यह जिनवाणी है जिनवाणी इसको जो सिर पर लेकर के उठायेगा वही इसका महत्व समझ सकेगा। मैं स्वाध्याय का उस रूप में निषेध नहीं करता, किन्तु जिस व्यक्ति की भूमिका नहीं है स्वाध्याय करने की उस व्यक्ति को, यदि समयसार पढ़ने के लिए दे देते हो तो, आप नियम से प्रायश्चित के भागी होंगे, ऐसा मूलाचार में कहा है। मुनिराज को कहा गया है कि जो व्यक्ति जिनवाणी का आदर नहीं करता, उसको आप अपने प्रलोभन की वजह से यदि जिनवाणी सुना देते हैं तो आप जिनवाणी का अनादर करा रहे हैं। हाँ, जिस किसी को भगवान के दर्शन नहीं कराना, किन्तु पूछताछ करके कराना। समझने के लिए यहाँ पर कोई जौहरी भी हो सकता है, जो जवाहरात का काम करता हो, उससे मैं पूछना चाहता हूँ, वह अपनी तस्तरी में मोती-मणिकाओं को रखकर दिखाता-फिरता है क्या ? बहुत सारी दुकानें हैं जयपुर के जौहरी बाजार में, अन्य दुकानों पर जैसा सामान लटकाएँ रहते हैं वैसा जौहरी बाजार में जाने के उपरान्त किसी भी दुकान में नहीं देखा, मैं पूछना यह चाहता हूँ, क्या उन्होंने बेचने का प्रारम्भ नहीं किया ? किया तो है, दुकान तो खोली है, फिर ग्राहक आकर पूछता है कि क्यों भैय्या! आपके पास में ये सामान है? हाँ! है तो सही, लेकिन हमारे बड़े बाबाजी अभी बाहर गये हैं, आप यहाँ शान्त बैठिये। गए-बए कहीं नहीं थे। उस ग्राहक की तीव्र इच्छा की परीक्षा की जा रही थी, मात्र वह पूछने तो नहीं आया है, खरीदने के लिए भी आया है या नहीं, आप लोग उस समय तकिए के ऊपर आरामतलबी के साथ बैठे रहते हैं, ३-४ बार के निरीक्षण कर लेने के बाद, जब यह निश्चित हो जाता है कि, ये असली ग्राहक है तब आप डिबिया में से डिबिया, डिबिया में से डिबिया और भी डिबिया में डिबिया.फिर पुड़िया में से पुड़िया, पुड़िया में से पुड़िया.ऐसे निकालते चले जाने पर.फिर लाल रंग का कवर, फिर नीले रंग का कवर, और.आते-आते अन्त में एक पुड़िया खुल ही जाती है, तो क्या कहते हैं उससे, हाथ नहीं लगाना उसको, यूँ दूर से ही दिखा देते हैं, किसी को नहीं कहना। यहाँ पर भी इसी प्रकार की मूल्यवान वस्तु है जिनवाणी, जो व्यक्ति आत्मा आदि को कुछ नहीं समझता, जानने की इच्छा भी नहीं कर रहा, उसको कभी भी नहीं देना। किन्हीं-किन्हीं आचार्यों ने कहा है-आत्मा की बात तो सामने रखना, लेकिन इतना ख्याल रखना कि उसका मूल्य किसी प्रकार से कम न हो जाए, इस ढंग से रखना, जबरदस्ती नहीं करना किसी को, क्योंकि वह व्यक्ति उसका पालन नहीं कर सकता। किसी ने कहा है कि- 'भूखे भजन न होई गोपाला, ले लो अपनी कण्ठीमाला।” ऐसा कहेंगे वे आत्मा के बारे में जो उससे अपरिचित व्यक्ति हैं, उसे अपनी माला की आवश्यकता है, अन्य की नहीं। स्वाध्याय का निषेध नहीं कर रहा हूँ, बल्कि भूमिका का विधान है यह, स्वाध्याय की क्रिया को करना जिसने प्रारम्भ कर दिया है, वह तो नियम से स्वाध्याय कर ही रहा है, मैं बार-बार कहा करता हूँ-जिस समय आप खिचड़ी बनाना चाहते हैं, उस समय भी आप स्वाध्याय कर रहे होते हैं। कैसे स्वाध्याय कर रहे हैं महाराज? मैं कहता हूँ कि आप बिल्कुल सही-सही ढंग से स्वाध्याय कर रहे हैं, क्योंकि उस समय आप अभक्ष्य से बचने के लिए एक-एक कणों का निरीक्षण कर रहे हैं। किसी ने कहा महाराज जी! समता रखना चाहिए? किन्तु कब रखना चाहिए? प्रतिकूल वातावरण में या अनुकूल वातावरण में? बन्धुओ! भक्ष्य-अभक्ष्य के बारे में कभी समता नहीं रखना चाहिए, ध्यान रखो। भक्ष्य-अभक्ष्य के बारे में यदि समता रखोगे तो नियम से पिट जाओगे और गुणस्थान से भी धड़ाम से नीचे गिरोगे, उस समय बुद्धि का पूरा-पूरा प्रयोग करना चाहिए। हाँ, तो एक-एक का ज्ञान होना आवश्यक है वहाँ पर, हेय चीजें, अभक्ष्य चीजें, अनुपसेव्य चीजें जो कुछ भी मिली हुई हैं, उनको अलग-अलग निकालना ही तो क्रिया-कलाप का स्वाध्याय है, ऐसा करना भगवान की आज्ञा अनुपालन भी है, यही सही स्वाध्याय है, जो प्रकाश रहते हुए तो इधर-उधर घूमता है जबकि अनथऊ का समय है और जब प्रकाश नहीं रहता, उस समय जल्दी-जल्दी भोजन कर लेना चाहता है और सोचता है एक बार स्वाध्याय कर लेंगे तो सारा का सारा दोष ठीक हो जाएगा, लेकिन ध्यान रखो बन्धुओ! ऐसा नहीं होगा, वह क्रियाहीन स्वाध्याय फालतू माना जायेगा। उससे किसी प्रकार का लाभ नहीं हो सकता, क्योंकि उसकी आस्था उसके प्रति नहीं है। आप शंका कर सकते हैं महाराजजी, छहढाला में आवश्यकों में स्वाध्याय को शामिल किया है ? उसका उत्तर भी सुन लीजिए-छहढाला में जहाँ छठवीं ढाल में ‘नित करें श्रुतिरति', ये पाठ है वहाँ उसके स्थान पर संशोधन कर ‘प्रत्याख्यान,' का प्रयोग कर लेना चाहिए। उन्हें, जिन्हें की हमेशा श्रुत की सुरक्षा की भावना रहती है, क्योंकि स्वयं छहढालाकार ने कहा है कि -‘सुधी सुधार पढ़ो सदा' इसलिए सुधारना लेखक के अनुकूल है, इसमें दूसरा हेतु यह भी है कि २८ मूलगुणों में प्रत्याख्यान नाम का एक मूलगुण ही समाप्त हो जायेगा, आप लोग तो मुनि नहीं है, अत: इस ओर दृष्टि नहीं गई शायद, पर मैं तो मुनि हूँ, २८ मूलगुणों का पालना है-जानना है, अत: मेरी दृष्टि इस ओर रही, मैंने इसे देखने के लिए कुन्दकुन्ददेव का साहित्य टटोला और जितने भी आचार्य हुए हैं, उनके द्वारा प्रणीत ग्रन्थों को देखा। सब जगह प्रत्याख्यान ही मिला। किसी ने भी स्वाध्याय को ६ आवश्यकों में नहीं गिना, इसलिए स्वाध्याय स्वयं प्रतिक्रमण, स्तुति और वंदना में हो जाता है, जिसका समर्थन कुन्दकुन्ददेव ने अपने नियमसार में किया है, अत: दौलतरामजी के विनीत भावों का आदर करते हुए जैसा कि उन्होंने कहा ‘सुधी सुधार पढ़ो सदा' प्रत्याख्यान पाठ कर लेना चाहिए। एक बात का और ध्यान रखना होगा कि हम स्वाध्याय किस समय करें, हम स्वाध्याय करते हैं, किन्तु सामायिक के काल में नहीं करना चाहिए तथा इसी प्रकार कुछ और समय आगम में कहे गये हैं, उनमें नहीं करना चाहिए, जो कि स्वाध्याय के विधान करते हैं, उस समय में यदि करना ही चाहें तो 'आलस्याभाव:स्वाध्याय:।' स्वाध्याय का अर्थ लिखना पढ़ना नहीं है। स्वाध्याय का अर्थ वस्तुतः आलस्य के भावों का त्याग है अर्थात् जिस व्यक्ति का उपयोग, चर्या हमेशा जागरूक रहती है उसका सही स्वाध्याय माना जाता है। प्रवचनसार के अन्दर उत्सर्ग एवं अपवाद मार्ग के प्रकरण में आचार्य कुन्दकुन्ददेव ने लिखा है कि मुनिराज के पास किसी प्रकार का ग्रन्थ भी नहीं रहता, क्योंकि शुद्धोपयोगी ही मुनिराज की चर्या मानी जाती है, इससे उनके पास पिच्छिका-कमण्डलु भी मात्र समिति के समय उपकरणभूत माने जाते हैं, यहाँ यह भी ध्यान रखना चाहिए कि स्वाध्याय करते-करते आज तक किसी को शुद्धोपयोग नहीं हुआ और न ही केवलज्ञान हुआ है, न हो रहा है और न होगा। अत: शुद्धोपयोगी मुनियों का कोई भी उपकरण नहीं होता। दूसरी बात मैं यह कहना चाहूँगा कि कुन्दकुन्ददेव के ग्रन्थों में रचयिता का नामोल्लेख करने का श्रेय किसको है ? स्वाध्याय करने वालों से पूछते हैं हम ? कुन्दकुन्दस्वामी के साहित्य का आलोड़न करने वालों से पूछते हैं हम? कुन्दकुन्दस्वामी का यह समयसार है, प्रवचनसार है, पञ्चास्तिकाय है, इस प्रकार कहने वालों में किसका नम्बर है। आचार्य कुन्दकुन्द ने तो द्वादशानुप्रेक्षा के अलावा कहीं लिखा ही नहीं कि यह मेरी कृति है, इसलिए समयसार किसका है ? यह कहने का प्रथम श्रेय किसको ? भरी सभा में इसलिए पूछ रहा हूँ कि स्वाध्याय करो-स्वाध्याय करो, ऐसा। कहने से कुछ नहीं होने वाला, बन्धुओं! बहुत ही चिन्तन और मनन करने की बात है यह, जिसने कुन्दकुन्द स्वामी से पहचान करायी, उसका नाम लेओ, कौन हैं वह ? बार-बार कहा जाता है कि अमृतचन्दजी ने टीका लिखकर बहुत महान् कार्य किया, बिल्कुल ठीक है, परन्तु उनकी टीका में कुन्दकुन्ददेव का नाम तक नहीं है, क्यों नहीं है? भगवान जाने या कुन्दकुन्द जाने या जानें स्वयं अमृतचन्दजी। कुन्दकुन्दस्वामी के नामोल्लेख का पूरा-पूरा श्रेय मिलता है जयसेनाचार्यजी को। कुन्दकुन्दस्वामी का नाम अपने मुख से लेने वालों को, बार-बार कहना चाहिए कि धन्य हैं वे जयसेनाचार्य, यदि आज वे नहीं होते तो समयसार के कर्ता आचार्य कुन्दकुन्द हैं, इसे भी नहीं पहचान पाते, धन्य हैं वे टीकायें। ऐसी टीकायें लिखी हैं कि सामान्य व्यक्ति भी पढ़कर अर्थ निकाल सकता है। बन्धुओ! स्वाध्याय करना अलग वस्तु है और भीतरी रहस्य-गहराई को समझना अलग वस्तु है, ये सभी बातें सभा में रखना आवश्यक नहीं समझ रहा हूँ, अत: यदि विद्वान् आयें तो हम उनसे विचार-विमर्श कर लें इसके बारे में, खुलकर विचार होना चाहिए, जो गुत्थियाँ हैं उन्हें सुलझाना होगा, तभी समझेंगा कि वस्तुत: स्वाध्याय क्या वस्तु है। प्रवचनसार में, समयसार में, पञ्चास्तिकाय में पाँच-पाँच, छह-छह बार कहा है 'कुन्दकुन्दाचार्यदेवैभणितं।' उन्होंने लिखा है, हम आचार्य कुन्दकुन्द के कृपापात्र हुए हैं, ऐसे आचार्य महाराज के हम ऋणी हैं, जिन्होंने हमें दिशाबोध दिया है, जिन्होंने भी दिशाबोध दिया, उनका नाम लेना अनिवार्य है, जैसा कल पण्डितजी ने कहा था-सर्वप्रथम और कोई आचार्य का नाम नहीं आता, मात्र कुन्दकुन्ददेव के अलावा, कुन्दकुन्दाम्नाय-कुन्दकुन्दाम्नाय ऐसा कहना चाहिए, लेकिन यहाँ ध्यान रखो कि कुन्दकुन्ददेव का नाम सर्वप्रथम कौन लेता है उसे भी १० बार याद करना चाहिए, अन्यथा हम अन्धकार में रह जायेंगे, हमें जयसेनाचार्य को योग्य श्रेय देना होगा, अमृतचन्दजी का उपकार भी हम मानेंगे, लेकिन लोगों को जहाँ संदेह होता है, हो रहा है, उसका निवारण करना भी आवश्यक है, अमृतचन्द्रजी ने अपने नाम का उल्लेख प्रत्येक ग्रन्थ में टीकाओं के साथ-साथ किया है, अनेक विधियों से किया है, पर आचार्य कुन्दकुन्ददेव का नाम एक बार भी नहीं लिया, क्यों नहीं लेते हैं ? भगवान जाने और अमृतचन्द्रजी स्वयं जाने कि उनसे क्यों नहीं लिया गया कुन्दकुन्ददेव का नाम, आप लोग तो मात्र कुन्दकुन्द का नाम लेते हैं किन्तु मैं कुन्दकुन्द का नाम लेता हूँ और उनके बिना चलता तक नहीं, साथ ही, बीच-बीच में जयसेनाचार्य को भी, याद किये बिना चल नहीं सकता, कारण कि, मुझे बिना टार्च (जयसेनाचार्य) के चला ही नहीं जाता। वह टार्च दिखाने वाले हैं, वस्तु को स्पष्ट करने वाले हैं तो आचार्य जयसेन स्वामी हैं। मैं उनको, उनकी कृपा को, उनके उपकार को कैसे भूल सकता हूँ, आज न जयसेन हैं न अमृतचन्द्रजी, न कुन्दकुन्द भगवान, हम तो जिससे दिशा मिली उनका नाम लेंगे, कई लोग नाम नहीं लेना चाहते, क्यों नहीं लेना चाहते ? इसके बारे में हमारे मन में शंका उठी है, अतः इस गूढ़ विषय की ओर स्वाध्याय करने वालों को देखना-सोचना चाहिए, यह बात हिन्दी में नहीं मिलेगी, आप प्रशस्ति पढिये, एक-एक पंक्ति पढिये, दिन-रात समयसार का स्वाध्याय करते हैं, फिर भी आज तक आप इस विषय से अनभिज्ञ रहे, कि भगवान कुन्दकुन्ददेव को प्रकाश में लाने वाले कौन हैं ? बहुत से कुन्दकुन्दाचार्य नाम के मुनिराज हुए हैं, लेकिन प्रकृत कुन्दकुन्दाचार्यजी ने जो चर्या निभायी तथा उस चर्या को सुरक्षित रखकर, हम सभी को देने का श्रेय प्राप्त किया, उनके लिए बड़ेबड़े आचार्यों ने कहा था कि वे महान्-तीर्थकर होंगे। उनका गुणानुवाद करके हम धन्य हो गये। अमृतचन्दजी समयसार, प्रवचनसार और पञ्चास्तिकाय की वृत्तियों द्वारा रहस्यों को तो खोलना चाहते हैं पर कुन्दकुन्दचार्य का नाम लिखना क्यों नहीं चाहते, यह बात समझ में नहीं आती, बड़े-बड़े व्याख्याकार यदि उनका नाम नहीं लेंगे तो हमारे लेने का क्या महत्व होगा ? अमृतचन्द्रजी उन ग्रन्थों पर टीका करने वालों में आदि टीकाकार हैं, फिर नाम क्यों नहीं लेना चाहते, कुन्दकुन्ददेव के साहित्य का स्वाध्याय करने-प्रचारित करने वालों को तो कम से कम सोचना अवश्य चाहिए कि टीकाकार मूलकर्ता का नाम क्यों नहीं ले रहे हैं, विषय बहुत गंभीर एवं चिन्तनीय है। आगे मैं यह कहना चाहता हूँ कि वही पुरुषार्थसिद्धयुपाय में कह रहे हैं कि जब तक सप्तव्यसनों का त्याग नहीं होता, तब तक स्वाध्याय करने की योग्यता किसी भी व्यक्ति के पास नहीं आती, वैसे सप्त व्यसन राष्ट्र की उन्नति के लिए भी हानिकारक हैं और आत्मोन्नति के लिए भी, इस तरह जब देशनालब्धि की पात्रता के लिए सप्तव्यसनों के त्याग का विधान किया गया है, तब स्वाध्याय करने के पहले इतना तो नियम दिला देना/ले लेना चाहिए, बाद में स्वाध्याय आरम्भ करें। इसे मैं क्रमबद्ध स्वाध्याय कहता हूँ, अन्यथा आप क्रमबद्ध पर्याय की चर्चा तो करते रहेंगे, जिससे कि कुछ भी लाभ होगा नहीं तब तक, जब तक कि स्वाध्याय को कम से कम क्रमबद्ध नहीं करते। एक आन्दोलन चला था, ब्रिटिश गवर्नमेंट को भारत से निकालने के लिए, कैसे निकाला जाए ? तो उनकी जितनी भी चीजें हैं, परम्परायें हैं, उन सबको समाप्त कर देना आवश्यक होगा। इसी क्रम में शिक्षाप्रणाली को लेकर विरोध चला, गाँधीजी ने शिक्षाप्रणाली को लेकर आन्दोलन चलाया, उस समय कई विद्याथों उनके पास आकर कहने लगे-भविष्य के साथ अहित कर रहे हैं आप। बेटा! क्या बात हो गई, बताओ तो ? छात्र ने कहा-आप सब कुछ का विरोध करें-कर सकते हैं पर शिक्षण का तो विरोध मत करो, बापू जी ने कहा-बिल्कुल ठीक है। लेकिन हम शिक्षण का विरोध तो नहीं करते। वह लड़का कहता है-मेरी समझ में नहीं आ रहा, आप हमें घुमाना चाह रहे हैं? घुमाना नहीं चाह रहा हूँ बेटा! मैं यह कहना चाहता हूँ कि शिक्षण होना चाहिए और सभी को उससे लाभान्वित होना चाहिए, शिक्षित होना चाहिए, परन्तु शिक्षण की पद्धति भी तो सही-सही होनी चाहिए, जैसे हम दूध पी रहे हैं, लेकिन दूध पीते हुए शीशी में पी रहे हैं, भारतीय सभ्यता शीशी से दूध पीने की नहीं है, शीशी भी ऊपर से बिल्कुल काली है, जिसमें पता भी नहीं चले कि दूध है या और कुछ भी, एक तो शीशी में तथा दूसरे काले रंग वाली शीशी में और ऊपर से शराब की दुकान पर बैठकर पी रहे हैं, मुझे ऐसा लगा, गाँधीजी ने बहुत चतुराई से काम लिया। उन्होंने शिक्षण का विरोध नहीं किया किन्तु शिक्षा प्रणाली का विरोध किया है, इसमें रहस्य यही है कि हम जिस शिक्षण प्रणाली से शिक्षा लेंगे तो आपके विचार भी तदनुसार ही होंगे, उसे कोई अस्वीकार नहीं कर सकता है, इसी प्रकार यदि आपके हाथ में शीशी है वह भी काली और उसमें रखा दूध आप शराब की दुकान पर से पी रहे हैं तो एक भी व्यक्ति ऐसा न होगा जो कि देखकर आपको शराबी न समझे, इसलिए दूध को दूध के रूप में पिओ, भले ही दिखाकर पिओ कि देखो दूध पी रहा हूँ। इसी तरह वस्तु-विज्ञान को दिखाओ पर दूसरों को विचलित न होने दो, जो वस्तु दिखा रहे हैं वह सत्ता के माध्यम से नहीं किन्तु आगम की पद्धति के अनुसार दिखाना चाहिए, इस प्रकार दिखाने से सामने वाले व्यक्ति का जो उपयोग है वह केन्द्रित होगा और उसका विश्वास हमारे ऊपर शीघ्र तथा ज्यादा होगा, वात्सल्य-प्रेम बढ़ेगा। यदि हठात् कहने लग जाएंगे तो एक भी बात मानने वाला नहीं होगा, अत: हमें जो शंका है उसे आगम के अनुरूप ही समाधान करके धारणा बनानी चाहिए। श्रीधवल, श्री जयधवल, महाबन्ध में आचार्यों ने कहा है कि श्रावकों का क्या कर्तव्य होना चाहिए- "दाणां पूया सीलमुववासो" श्रीजयधवल को सिद्धान्त ग्रन्थ माना जाता है, जिसे भगवद् गुणधरस्वामी ने लिखा है जिसकी टीका वीरसेनस्वामी ने की है, उसमें उन्होंने श्रावक के चार आवश्यक धर्म बतलाये हैं, आवश्यकों को उन्होंने धर्म संज्ञा दी है, जो व्यक्ति दान को, पूजा को, शील को, उपवास को जड़ की क्रिया कहेगा तो उसके उस उपदेश से सारी की सारी जनता विमुख हो जायेगी, क्योंकि यह उपदेश प्रणाली ही आगम से उल्टी है, यह जड़ की क्रिया नहीं, धर्म की क्रिया है, वस्तुभूत जो धर्म है, 'वत्थुसहावो धम्मो' उस धर्म को प्राप्त करने के लिए श्रावकों के लिए चार आवश्यकों का मार्ग ही सही प्रणाली-पद्धति है। यही भगवान का संदेश और आज्ञा भी है। जो व्यक्ति आज्ञा का उल्टा प्रयोग करके केवल बन्ध के कारणों में इन धर्मों को गिनाता है, इसके द्वारा संवर, निर्जरा नहीं मानता, वह अपने व्याख्यान से जिनवाणी का-धर्म का अवर्णवाद कर रहा है। यह वाक्य मेरे नहीं हैं, मैं तो केवल एक प्रकार का एजेन्ट हूँ, एजेन्ट का काम होता है कि सही-सही वस्तु का प्रसार करना, एक दुकान से दूसरी दुकान में पूरी-पूरी ईमानदारी के साथ दिखाओ, फिर भले ही कोई उस वस्तु को अच्छा कहे या बुरा, अच्छा कहे तो भी वस्तु वही है तथा बुरा कहने पर भी वही है, उसको तो दिखाने का वेतन कम्पनी से मिल ही रहा है, उसमें कोई बाधा नहीं, इसी प्रकार मुझे भी अरहन्त भगवान की तरफ से वेतन मिल रहा है, इसलिए इस प्रकार के व्याख्यान जब तक हम समाज के सामने नहीं रखेंगे तब तक सही-सही स्वाध्याय की प्रणाली आने वाली नहीं है, यह करना हमारा कर्तव्य है इसलिए इसे करना भी आवश्यक समझता हूँ समय-समय पर | आज हम देख रहे हैं कि स्वाध्याय करते हुए भी जिस व्यक्ति के कदम आगे नहीं बढ़ रहे हैं, उसका अर्थ यही है कि उसे स्वाध्याय करना तो सिखा दिया है, किन्तु भीतरी अर्थ, जो वस्तुतत्व था, उससे उसे अपरिचित रखा है। उसको अंधेरे में रखा है, जो व्यक्ति वस्तुतत्व को अंधेरे में रखता है, वह व्यक्ति स्वयं भी खाली हाथ रह जाता है और दूसरे को भी खाली हाथ भेजता है-घुमाता रहता है, लेकिन हमारी (जिनवाणी की) दुकान ऐसी नहीं है, हम भी नीची दुकान-मकान रखते हैं परन्तु ऊँचे पकवान रखते हैं, ऊँची दुकान फीके पकवान यहाँ नहीं मिलेंगे। 'वत्कृष्प्रामाण्याद्वचन प्रामाण्यम्' (धवला पुस्तक-१/१९७/४) वक्ता की प्रमाणता से वचन प्रामाणिक होते हैं, कारण कि वक्ता यद्वा-तद्वा नहीं कह सकेगा, उसके पास किसी प्रकार का पक्षपात नहीं हुआ करता, एजेन्ट जो होता है वह किसी प्रकार से कमवेशी दाम नहीं बताता, जिसको लेना हो लो, नहीं लेना हो न लो, इससे उसे कोई फर्क नहीं पड़ता। लोग पूछते हैं हम नहीं लेंगे तो तुम्हारा काम कैसे चलेगा ? वह कहता है कि हमारी दुकान/ कम्पनी बहुत बड़ी है, जिसमें बिना काम के भी काम चलता है, कभी कम्पनी असफल होने की संभावना भी नहीं, ध्यान रखना, लौकिक कम्पनियाँ असफल हो सकती हैं पर वीतराग भगवान की कम्पनी तीन काल में असफल नहीं हो सकती, इसलिए मैंने तो भैय्या! ऐसी कम्पनी में नौकरी कर ली है कि, जितना हम काम करेंगे उतना दाम मुझे आयु के अन्त तक मिलता रहेगा। अब हमें अपने जीवन की आजीविका की कोई चिन्ता नहीं। आचार्यों ने कहा है, जिस चतुर वत्ता की आजीविका श्रोताओं के ऊपर निर्धारित है वह वक्ता वस्तुतत्व का प्रतिपादन ठीक-ठीक नहीं कर सकता। उन्होंने कहा है 'क्रोधलोभभीरुत्वहास्यप्रत्याख्यानान्यनुवीचिभाषण च पञ्च।' वत्ता से पहले श्रोता को जान लेना चाहिए कि वता कैसा-कौन है। जैसा पण्डितजी ने अभी कहा था-किसका लेख है, यह किसका प्रवचन है ? यह ठीक-ठीक जान लेना आवश्यक है, यदि पाठक कुछ भी नहीं जानता और लेखक ठीक है तो वह सब कुछ मानने तो तैयार है, नहीं तो वह मानने के लिए तैयार नहीं होगा। सिद्धान्त कभी भी वक्ता के घर का नहीं चलता, जैसे घर की दुकान हो सकती है, लेकिन नाप-तौल के मापक घर के नहीं हो सकते। क्यों भैय्या दुकानदारो! दुकानदार का मतलब है, दो कान वाले, दो कान वाले दुकानदारो! हम पूछना चाहते हैं कि माल आपका, दुकान आपकी, सब कुछ आपका, किन्तु नाप-तौल भी आपका हो तो ? पकड़े जायेंगे। सब कुछ आपका हो सकता है पर नाप तौल तो शासकीय ही होगा। इसी प्रकार प्रवचन आप कर सकते हैं, ग्रन्थ भी प्रकाशित कर सकते हैं परन्तु घर का लिखा ग्रन्थ प्रकाशित नहीं कर सकते। आचार्यों के ग्रन्थों का सम्पादन/प्रकाशन करने वालों से हम यह कहना चाहते हैं कि वे ऐसा प्रकाशन करें, ऐसे सम्पादकों को रखें, अनुवादकों को रखें, जो जनसेवी हों और निभांक भी हों। विद्वानों के बिना यह काम सही-सही नहीं हो सकता, पर वे भी वेतन पर तुलने वाले नहीं होना चाहिए, कितने ही कष्ट आ जायें फिर भी वह इधर का डंडा (मात्रा) उधर लगाने को मंजूर न करता हो, इतना संयत हो। एक वकील होता है और एक न्यायाधीश हुआ करता है, दोनों एल.एल.बी. हुआ करते हैं, किन्तु न्यायाधीश वकील नहीं दे सकता, जजमेन्ट जज का ही माना जाता है, एक बार ही दिया जाता है उसमें फिर हेर-फेर नहीं होता, चाहे अपील करें दूसरी अदालत में, यह दूसरी बात है। अदालत में एक बार लिख दिया न्यायाधीश ने सो लिख दिया, लेकिन वकीलों की स्थिति वह नहीं हुआ करती, उसके तो एक रात में हजारों प्वाइन्ट, बदल जाते हैं, आज न्यायाधीश की बड़ी आवश्यकता है, वकीलों की नहीं, वकील को पेशी पर जाना पड़ता है, अत: पेशी कहलाती है, परन्तु न्यायाधीश की पेशी नहीं हुआ करती, कोर्ट में न्यायाधीश के सामने राष्ट्रपति को भी यूँ (झुकना) करना पड़ता है। इसी तरह सिद्धान्त के सामने सबको झुकना पड़ता है, तीर्थकर भी नमोऽस्तु करते हैं, जो वस्तुतत्व जैसा है, जिस रूप में है, वही सिद्धान्त है उसी को नमस्कार करना पड़ता है। अरहन्त परमेष्ठी को भी नमस्कार नहीं करना होता है, आचार्य को भी नहीं, साधु को भी नहीं, लेकिन वस्तुस्वरूप में अवस्थित सिद्धपरमेष्ठी को उन्हें भी (तीर्थकरों को भी) नमस्कार करना पड़ता है अर्थात् तीर्थकर उस न्यायालय को नमोऽस्तु करते हैं, जिससे ऊपर कोई नहीं, जिसके उच्चतम न्यायालय में कालिमा नहीं है, न्यायाधीश कैसे कपड़े पहनते हैं ? फक-सफेद। और वकील ? काला कोट पहनते हैं। भैय्या ! इसलिए उनकी आज्ञा नहीं मानी जाती, न्यायाधीश की बात मानना आवश्यक ही नहीं अनिवार्य भी है। इसी तरह सिद्धरूप शुद्धतत्व की बात मानने में हमारा कल्याण होगा, वीतरागी की बात मानने में कल्याण होगा, अन्य की में नहीं, बिना माने हमारा कल्याण संभव नहीं, यह सब हमारे आचार्यों ने कहा है, उसी तत्व तक ले जाने की बात उन्होंने की है। बन्धुओ! हमें शब्दों की ओर से भीतरी अर्थ की ओर झुकना है, कहाँ तक कहूँ कहा नहीं जाता। इन महान् आचार्यों के हमारे ऊपर बहुत उपकार हैं, हम उनका ऋण तभी चुका सकते हैं, जब हम उनके कहे अनुसार (जैसा कहा वैसा) बनने का प्रयास करेंगे। कुन्दकुन्ददेव के समान तो नहीं चल सकते और उस प्रकार चलने का विचार भी शायद नहीं कर सकते, यह माना जा सकता है परन्तु उनका कहना है कि बेटा! जितनी तुम्हारी शक्ति है उतनी शक्ति भर तो २८ मूलगुणों को धारण कर, उसमें यदि कमी नहीं करेगा तो मैं तुमसे बहुत प्रसन्न होऊँगा, तेरा उद्धार हो जाएगा, ऐसा समझो। तत्वार्थसूत्र में एक सूत्र आता है-"परस्परोपग्रहो जीवानाम्" इसकी व्याख्या करते हुए कहा गया है कि गुरु-शिष्य के ऊपर उपकार करता है और शिष्य गुरु के ऊपर, मालिक मुनीम के ऊपर उपकार करता है और मुनीम मालिक के ऊपर, शिष्य-गुरु से पूछता है कि हमारा उपकार आपके ऊपर कैसे हो सकता है? यह तो आपका ही उपकार मेरे ऊपर है जो कृपा की, तब आचार्य जवाब देते हैं कि गुरुका उपकार शिष्य को दीक्षा-शिक्षा देने में है और शिष्य का उपकार गुरु द्वारा जो बताया है उस पर चलने में होता है, जब तक उनके अनुसार नहीं चलेंगे तब तक हम अपने बापदादाओं के, अपने गुरुओं के द्वारा किये गये उपकार को नहीं समझ सकते तथा उनके उपकार को प्रत्युपकार के रूप में सामने लाना है नहीं तो हम सपूत नहीं कहलायेंगे। "पूत के लक्षण पालने में" सब लोग इस कहावत को जानते हैं, शब्दों की गहराई में आप चले जाइये और वस्तुत: शब्दों की गहराई में चले जाएँ तब कहीं जाकर अर्थ को पा सकेंगे, पूत का लक्षण है, माता-पिता गुरु की आज्ञा को पालने का। जो लड़का/पूत माता-पिता-गुरुकी आज्ञा का पालन नहीं करता, वह तीनकाल में भी सपूत नहीं कहलायेगा। कहावत है- "पूत कपूत तो का धन संचय और पूत सपूत तो का धन संचय।" अर्थ यही हुआ सपूत को कुल का दीपक माना गया है, देश की, वंश की, कुल की, परम्परा में जो चार चाँद लगा देता है वही सपूत है, हम अपने आपसे पूछ लें कि हम अरहन्त भगवान के पूत हैं, सपूत हैं या.? कहने की आवश्यकता नहीं, क्योंकि हम उनकी आज्ञा का यथासंभव पालन कर रहे हैं, जो हमारा कर्तव्य है, हम जिस तरह भी कदम बढ़ाये, यदि माता-पिता-गुरुओं का वरदहस्त हमारे ऊपर रहेगा तो हम उस ओर अबाधित बढ़ते जायेंगे। आज १२-१३ साल हो गये, मालूम नहीं चला, कोई बाधा नहीं, पूज्य गुरुवर आचार्य श्रीज्ञानसागरजी महाराज का वरदहस्त सदा साथ रहा और उनके ऊपर रहने वाले अनेक महान् आचार्यों के वरदहस्त भी साथ हैं, ऊपर हैं। घबड़ाना नहीं, जिस समय चक्रवात चलता है तो नाव आगे नहीं बढ़ती और पीछे भी नहीं जाती। तब ताकत के साथ स्थिर रखना होती है, हमें नाम नहीं करना जोरदार, काम जोरदार करना है। हमें अपनी नाव मजबूत रखना है, उसे चक्रवात से हटा के अलग नहीं करना है क्योंकि नाव की शोभा पानी में ही है तथा उसको निश्छिद्र रखना है, जिस समय किसी छिद्र द्वारा नाव में पानी आ जायेगा तो नाव डूब जायेगी, हमें कागज की नावों में नहीं चलना है। कागजी नावों से आज सारा का सारा समाज, सारे प्राणी परेशान है, आज नावें भी सही नहीं है बल्कि आज नाव के स्थान पर चुनाव हावी होता जा रहा है, हमें अपनी जीवन की नाव को भव-समुद्र में आये चक्रवात से रक्षा करके उस पार तक ले जाना है जहाँ तक अन्तिम मंजिल है। आज ऋषभनाथ महाराज आहार के लिए उठेगे, आप सभी नवधा भक्ति से खडे होइये, १० भक्ति या ८ भक्ति नहीं करना है, नवधाभक्ति ही जब पूरी-पूरी होंगी तभी वे आहार ग्रहण करेंगे, आज हमें उनके माध्यम से दान की क्रिया, ज्ञान की क्रिया समझनी है, जो वस्तुत: भीतरी आत्मा के प्राप्त करने की एक प्रणाली है, दिगम्बर चर्या खेल नहीं है बन्धुओ! आचार्य कुन्दकुन्ददेव ने इस चर्या के लिए महान् से महानतम उपमाएँ दी हैं-यही प्रव्रज्या है, यही श्रमणत्व है, यही जिनत्व है, यही चैत्य है, यही चैत्यालय है, यही जिनागम है, यही सर्वस्व है, यही चलते-फिरते सिद्धों का रूप है। केवल ऊपर शरीर रह गया है, भीतर आत्मा वही है, जैसी कुन्दकुन्ददेव की है, जैसी सिद्ध भगवान की है। कहाँ तक कहा जाए, यह पथ, यह चयाँ ऐसी है, जिसका स्थान कभी भी अांका नहीं जा सकता, अनमोल है यह चर्या, यह व्रत तो आज भी दिगम्बर संत पाल रहे हैं। अन्त में आचार्य ज्ञानसागरजी को स्मरणपथ पर लाकर यह व्याख्यान समाप्त करता हूँ। तरणि ज्ञानसागर गुरो! तारो मुझे ऋषीश। करुणाकर करुणा करो, कर से दो आशीष।
  13. दो दिन आपके थे अब तीन दिन हमारे हैं, हमारा यह प्रथम दिन है, आज ज्यों ही वृषभकुमार ने दीक्षा अंगीकार की, त्यों ही परिग्रह और उपसर्गों का कार्यक्रम प्रारम्भ हो गया, इधरऊपर से बूंदाबाँदी भी प्रारम्भ हो गई, आप लोग भीतर ही भीतर प्रार्थना कर रहे होंगे कि पानी रुक जाए भगवान लेकिन एक प्राणी (दीक्षितसंयमी) कहता है-जो भी परीक्षा लेनी हो, ले लो, उसके लिए ही खड़ा हुआ हूँ, यह जीवन संघर्षमय है, इसे बहुत हर्ष के साथ अपनाया है। तपकल्याणक-अभिनिष्क्रमण में, घर से निकाला नहीं गया किन्तु निकालने से पूर्व ही निकल गये, जो निकलते नहीं, उनकी फजीती इस प्रकार की होगी कि एक दिन चार व्यक्ति मिलकर कन्धे पर रख चौखट से बाहर निकाल देंगे, इसमें किसी भी प्रकार के संदेह की गुंजाइश नहीं, जो हमारा घर नहीं, उसमें हम छिपे बैंठे और उसमें किसी भी प्रकार से रहने का प्रयास करें, तो भी उसमें रह पाना संभव नहीं। इसीलिए - विहाय यः सागरवारिवाससं . वधूमिवेमां वसुधावधूं सतीम्। मुमुक्षुरिक्ष्वाकु-कुलादिरात्मवान् प्रभुः प्रवव्राज सहिष्णुरच्युतः॥ (स्वयम्भूस्तोत्र -१/३) आचार्य समन्तभद्र ने स्वयंभूस्तोत्र की रचना करते हुए आदिनाथ की स्तुति में कहा-भगवन्! आपने सागर तक फैली धरती को ही नहीं छोड़ा किन्तु जो प्यारी-प्यारी सुनन्दा-नन्दा थी, उनको भी छोड़ दिया, जिसके साथ गांठ पडी थी, उस गांठ को उन्होंने खोलने का प्रयास किया, जब नहीं खुली तो कैंची से काट दिया, अब कोई मतलब नहीं, जिसके साथ बड़े प्यार से सम्बन्ध हो गया, उसको तोड़ दिया, आज अब किसी और के साथ सम्बन्ध हो गया, यह क्यों हुआ ? अभी तक शान्त सरोवर था, उसमें किसी ने एक ककर पटक दिया, ककर नीचे चला गया, उधर तल तक पहुँचा, इधर तट तक लहर आ गई, नीचे से ककर ने संकेत भेजना शुरु कर दिये, बुलबुले के माध्यम से, यानि भीतर क्रान्ति हो गई, भीतर जल क्रान्ति होती है तब इस प्रकार के बुलबुले निकलते हैं, जब बुलबुला निकलता है तो वह आपको बुला-बुला कर कहता है-जीवन बहुत थोड़ा है, प्रतिसमय नष्ट हो रहा है ऐसी स्थिति में आपके भीतर उसके प्रति जो अमरत्व की भावना है, वह अयथार्थ है। राजा राणा छत्रपति, हाथिन के असवार | मरना सबको एक दिन अपनी-अपनी बार || बारहभावना - १ जब मरने का, जीवन के अवसान का समय आयेगा, तब हम कुछ भी नहीं कर पायेंगे। मरण-मृत्यु आने से पहले हमें जागृत होना है, छत्र, चंवर और सम्पदा कुछ भी कार्यकारी नहीं होगी, ये तो इन्द्रधनुष, आकाश की लाली और तृण-बिन्दु की भाँति क्षणभंगुर है, बहुत जल्दी मिटने वाले हैं और बहुत जल्दी पैदा भी होते हैं, जो अनन्तकाल तक रहे, ऐसा उत्पाद हो, जो उत्पात को ही, समाप्त को ही समाप्त कर दे, ऐसा कौन-सा उत्पाद है? वह एक ही उत्पाद है, जिसे भीतर जाकर देख सकते हैं, जान सकते हैं। ऊपर बहुत खलबली मच रही हो और यदि भीतर में शान्ति हो तो ऊपर की खलबली भीतर की शान्ति में कोई बाधक के रूप में कार्यकारी नहीं, अन्दर की शान्ति बारह भावनाओं का फल है, यह समझ वह (मुनि ऋषभनाथ) ध्यान में बैठ गए। सोलहकारण भावनाओं के द्वारा जगत् का कल्याण करने का एक संकल्प हुआ, एक बहुत बड़ी इच्छा शक्ति, जो संसार की और नहीं, किन्तु कल्याण की और खीच रही थी उत्पन्न हुई, उस दौरान भावना भायी और फल यह निकला कि तीर्थकर प्रकृति का बन्ध हुआ, कब हो गया, उन्हें ज्ञात नहीं, किस रूप में है ? ज्ञात नहीं, फिर भी समय पर काम करने वाला है। अभी भी सत्ता में है, लेकिन सत्ता में होकर भी, जिस प्रकार वह ककर बुलबुले के द्वारा संकेत भेज देता है उसी प्रकार उसने संकेत दिया कि अब घर-बार छोड़ दीजिए, वन की ओर रवाना हो जाइये, इन्द्र, जो कि अभी तक चरणों में रहा, कहता है कि आपने नन्दा-सुनन्दा को छोड़ा, राज्य-पाट छोड़ा और सब कुछ छोड़ दो, लेकिन, कम से कम मुझे तो मत छोड़ो, मैंने आपको पाला है, दूध पिलाया है, ऐशोआराम की चीजें दी हैं, अत: जब तक रहो तब तक मुझे सेवा का अवसर प्रदान करते रहना चाहिए, तब जवाब मिलता है-मैं अकेला हूँ! मैं अब कुमार के रूप में, राजा के रूप में अथवा किसी अन्य रूप में भी नहीं हूँ, मुझे अब वन जाना है, अकेले ही जाना है, साथ में लेकर जाने वाला अब नहीं, यदि आप स्वयं आ जाए तो कोई आवश्यकता अथवा विरोध भी नहीं, मतलब यह हुआ कि अभी तक अनेक व्यक्तियों के बीच में बैठा और अब अकेला होने का भाव क्यों हुआ ? हाँ! इसी को कहते हैं मुमुक्षुपना लक्ष्मीविभवसर्वस्वं, मुमुक्षोश्चक्रलांछनम्। साम्राज्यं सार्वभौमं ते, जरत्तृणमिवाभवत्॥ (स्वम्भूस्तोत्र-१८/३) मुमुक्षुपन की किरण जब फूट जाती है हृदय में, तब बुभुक्षुपन की सारी की सारी ज्वाला शान्त हो जाती है, अन्धकार छिन्न-भिन्न हो जाता है, सूर्य के आने से पूर्व ही प्रभात बेला आ जाती है, इसी को कहते हैं मुमुक्षुपन, तब लक्ष्मी, विभव, साम्राज्य, सार्वभौमपना ये जितने भी हैं सब ‘जरतृणवत्'- जीर्ण-शीर्ण एक तृण के समान देखने में आते हैं। आपको यदि रास्ते पर पीली मिट्टी देखने में आ जाती है तो आपको यही नजर आता है कि पीली है तो सोना होना चाहिए? अब भीतर ही भीतर लहर आ जाती है कि झुककर देखने में क्या बात है? झुक लो, भले ही कमर में दर्द हो, झुककर जब हाथ में लेता है तो लगता है कि कुछ ऐसावैसा ही है, सोना नहीं है, तो पटक देता है और यदि सोना हुआ तो उस मिट्टी के मिलने से ऐसा समझता है कि आज मेरा अहोभाग्य है, भगवान का दर्शन किया था इसलिए ऐसा हुआ, लेकिन यहाँ भगवान ने तो आत्मसर्वस्व प्राप्ति के लिए सब कुछ छोड़ दिया, जीर्ण-शीर्ण तृण समझकर, उसे छोड़ दिया, उसकी तरफ से मुख को मोड लिया, प्रत्युत्पन्नमति इसी को कहते हैं। आचार्य कुन्दकुन्ददेव ने प्रवचनसार में कहा है एवं पणमिय सिद्धे जिणवरवसहे पुणो-पुणो समणे | पडिवज्जदु सामण्णां, जदि इच्छदि दुक्खपरिमोक्ख || (प्रवचनसार-२०१) यदि तुम दु:ख से मुक्ति चाहते हो तो श्रामण्य को अंगीकार करो, श्रामण्य के बिना कोई मतलब सिद्ध नहीं होने वाला, दु:ख से मुक्ति तीन काल में भी संभव नहीं, 'you should adopt equinimity where by NIRVANA is attend. इसके द्वारा तो मुक्ति का लाभ मिलता है भुक्ति का नहीं, भुक्ति तो अनन्तकाल से मिलती आ रही है, सुबह खा लिया तो शाम को फिर भूख आ गई, अन्थी (सन्ध्या भोजन) कर ली तो नाश्ते की चिन्ता, कब नींद खुले और कब नाश्ता करें ? अरे! नाश्ता में आस्था रखने वालो, थोड़ा विचारो-सोचो तो कि मुक्ति का कौन-सा रास्ता है, मुक्ति की बात तो तब चलती है जबकि भुति की कोई भी वस्तु नहीं रहती है। जब श्रमण बनने चले जाते हैं श्रमण परिषद् के पास, तब कहते हैं कि मुझे दु:ख से मुक्ति दिलाकर अनुग्रहीत करो स्वामिन्! मैं महाभटका हुआ, अनाथ-सा व्यक्ति हूँ, अब आपके बिना कोई रास्ता नहीं, कोई जगह नहीं है, उन्होंने कहा-तुम दु:ख से मुक्ति चाहते हो तो तुम्हें श्रमण बनना होगा, श्रमणता क्या है स्वामिन्! अब बताते हैं कि श्रमणता क्या है और श्रमण बनने के पूर्व किस-किसको पूछता है, प्रवचनसार में इसका बहुत अच्छा वर्णन दिया गया है, वह श्रमणार्थी सर्वप्रथम माँ के पास जाकर कहता है-माँ! तू मेरी सही माँ नहीं है, मेरी माँ तो शुद्धचैतन्य आत्मा है। अब उसी के द्वारा पालन-पोषण होगा, आप तो इस जड़मय शरीर की माँ है, फिर भी मैं व्यवहार से आपको कहने आया हूँ कि यदि आपके अन्दर बैठी हुई चेतन आत्मा जाग जाये तो बहुत अच्छा होगा, फिर तो आप भी माँ बन जायेंगी, नहीं तो मैं जा रहा हूँ, अब नकली माँ के पास रहना अच्छा नहीं लगता, अब आप रोयें या धोयें, कुछ भी करें, पर मैं जा रहा हूँ, अब पिता के पास चला जाता है और कहता है-पिताजी! आपने बहुत बड़ा उपकार किया, लेकिन एक बात है, वह सभी जड़मय शरीर का किया, किन्तु आज मुझे ज्ञान उत्पन्न हुआ कि मेरे पिता तो शुद्ध चैतन्य-आत्मतत्व हैं अन्य कोई नहीं, उसी के द्वारा ही मेरी रक्षा होती आ रही है, इसलिए मेरा चेतन आत्मा ही पिता है और चेतना माँ, इतना कह उन्हें भी छोड़कर चल देता है, इसके बाद सबको कहता-कहता, बीच में ही जिसके साथ सम्बन्ध हो गया था, उसके पास जाकर कहता है-प्रिये! आज तक मुझे यही ज्ञात था कि तुम ही मेरी प्रिया हो, लेकिन नहीं, अब मुझे ज्ञात हो गया कि चेतना ही मेरी एकमात्र सही प्रिया है, पत्नी है, वह ऐसी पत्नी नहीं है जो बीच में ही छोड़कर चली जायें, वह तो मेरे साथ सदा रहने वाली है, वही तो शुद्ध चेतना मेरी पत्नी है, बस, एक के द्वारा ही सारे सम्बन्ध हैं, वही पिता है, वही माँ, वही पति है, वही पत्नी, वही बहिन भी है और भाई भी। जो कुछ है उसी एकमात्र से मेरा नाता है, इसके अलावा किसी से नहीं इससे यह नहीं समझ लेना चाहिए कि सबसे पूछना आवश्यक है, घबराओ नहीं, आप लोगों के जितने भी सम्बन्धी हैं वे कभी भी आपकी आज्ञा नहीं दे सकते। हाँ! आपको ही इस प्रकार का कार्यक्रम बनाना होगा, ऐसी उपेक्षा दृष्टि रखनी होगी, भीतर ही भीतर देखना आरम्भ करना होगा कि सभी अपने-अपने काम में जुट जाएँ और आप उपेक्षा कर चल दें। भगवान को आपने कभी देखा है, क्या कर रहे हैं ? कौन आता है, कौन जाता है यह देख रहे हैं? नहीं, लाखों, करोड़ों ही नहीं, जितनी भी जनता आ जाये और सारी की सारी जनता उनको देखने का प्रयास करती है किन्तु वह जनता को कभी नहीं देखते, उनकी दृष्टि नासा पर है, उसमें किसी प्रकार का अन्तर आने वाला नहीं। नासादृष्टि का मतलब क्या ? न आशा, नासा। किसी भी प्रकार की आशा नहीं रही, इसी का नाम नासा है। यदि उनकी दृष्टि अन्यत्र चली गई तो समझिये नियम से आशा है, वह आशा, हमेशा निराशा में ही घुलती गई यह अतीतकाल का इतिहास है। न भूत की स्मृति अनागत की अपेक्षा, भोगोपभोग मिलने पर भी उपेक्षा | ज्ञानी जिन्हें विषय तो विष दीखते हैं ? वैराग्य-पाठ उनसे हम सीखते हैं || समयसार–२२९ (पद्यानुवाद-कुन्दकुन्द का कुन्दन) वे ज्ञानी हैं, वे ध्यानी हैं, वे महान् तपस्वी हैं, वे स्वरूपनिष्ठ आत्माएँ हैं, जिन्हें भूत-भविष्य के भोगों की इच्छा-स्मृति नहीं है, मैंने खाया था इसकी कोई स्मृति नहीं है, बहुत अच्छी बात सुनी थी, एक बार और सुना दो तो अच्छा है, अनागत की कोई इच्छा नहीं, जब अनागत की कोई इच्छा नहीं और अतीत की स्मृति नहीं तो वर्तमान में भोगों की फजीती हो जाती है, वह उन्हें लात मार देती है, इसी को कहते हैं समयसार में हेय-बुद्धि। किसके प्रति हेय-बुद्धि ? भोगोपभोग के प्रति, भोगोपभोग को लात मारना, खेल नहीं है, यहाँ भोगोपभोग सामग्री हमें लात मार देती है, फिर भी हम उसके पीछे चले जाते हैं, लेकिन ज्ञानी की यह दशा, यह परिभाषा अद्वितीय है। आचार्य कुन्दकुन्ददेव, जिनके दर्शनमात्र से वैराग्यभाव सामने आ जाता है, जिनके स्वरूप को देखते ही अपना रूप देखने में आ जाता है। सो धर्म मुनिन करि धरिये, तिनकी करतूति उचरिये | ताको सुनिये भवि प्राणि अपनी अनुभूति पिछानी || (छहढाला-५/१५) वह मुद्रा, जिसके दर्शन करने से हमारा स्वरूप सामने आ जाए, आत्मा का क्या भाव है, वह ज्ञात हो जावे, अनन्तकाल व्यतीत हो गया, आज तक स्वरूप का ज्ञान क्यों नहीं हुआ ? वैराग्य को वैराग्य से ही देखा जाता है, विरागी की दृष्टि रागी को देखकर भी, राग में विरागता का अनुभव करती है और रागी की दृष्टि विरागता को देख, विरागता में भी राग का अनुभव करती है, यह किसका दोष है ? यह किसका फल है, इसको कोई क्या कर सकता है, जिसके पेट में जो है वही तो डकार में आयेगा । दो टैंक थे तैरने के, एक में दूध था और एक में मट्ठा-मही था, उन टैंकों में दो व्यक्ति तैर रहे थे, दोनों को डकारें आई, ज्यों ही डकार आई, एक ने कहा-वाह-वाह, बहुत अच्छा-बहुत अच्छा, क्या सुवास और सुरस है ? भगवन्! अम्लपित जैसी डकार आ रही है, दूसरे ने कहा, अरे क्या बात हो गई, तुम तो दूध के टैंक में हो और अम्लपित की बात कर रहे हो ? बात ही समझ में नहीं आती, दूसरा कहता है-तुम तो मट्टे के टैंक में हो और फिर भी वाह-वाह कर रहे हो ? ऐसी कौन-सी बात है ? बात ऐसी है कि आपके टैंक में दूध परन्तु पेट रूपी टैंक में महेरी खा रखी है, इसलिए उसी की डकारें आ रहीं हैं और हम यद्यपि मट्टे के टैंक में है लेकिन मैंने क्या खा रखा है मालूम है? जिसमें बादाम-पिस्ता मिलाई गई ऐसी खीर उड़ाकर आया हूँ तब डकार कौन-सी, किस प्रकार की आयेगी ? बात ऐसी ही है कि समयसार की चर्चा करते-करते भी अभी डकार खट्टी आ रही है। इसका मतलब यही है, भीतर कुछ और ही खाया है, मैं तो यही सोचता हूँ कि इसको (समयसार) तो पी लेना चाहिए, जिससे भीतर जाने के उपरान्त जब कभी डकार आयेगी तो उसकी गन्ध से, जहाँ तक पहुंचेगी जिस तक पहुंचेगी, वह संतुष्ट हो जायेगा, उसका स्पर्श मिलते ही संतुष्ट हो जायेगा उसकी मुख-मुद्रा देखने से भी सन्तुष्टि होगी, लोग पूछते फिरेंगे कि क्या-क्या खा रखा है, कुछ तो बता दो ? सफेद मात्र देखकर सन्तुष्ट मत होइये, परीक्षा भी करो कम से कम, कारण दोनों सफेद द्रव्य हैं, मट्ठा भी और दूध भी। लेकिन दोनों के गुण धर्म अलग-अलग हैं, स्वाद लीजिए, उसे चखने की आवश्यकता है आज लखने की आवश्यकता है, लिखने की नहीं लिखनहारा बहुत पाओगे, 'लखनहारा' तो विरला ही मिलेगा। लखनहारा जो भीतर उतरता है, लिखनहारा तो बाहर ही बाहर घूमता है, शब्दों को चुनने में लगा रहता है। बाहर आने पर भीतर का नाता टूट जाता है जो भीतर की ओर दृष्टि रखता है वह धन्य है। आज वृषभकुमार को वैराग्य हुआ, उनकी दृष्टि, जो कि पर की ओर थी, अपनी ओर आ गई, अपनी ओर क्या, अपने में ही स्थिर होने को है, अपने में स्थिर होने के लिए बाहरी पदार्थों का सम्बन्ध तोड़ना आवश्यक होता है, जब तक बाहरी द्रव्यों के साथ सम्बन्ध रहेगा, वह भी मोह सम्बन्धी तो दु:ख और परेशानी ही पैदा करेगा, किन्तु स्वस्थ होने पर दु:ख और परेशानी का बिल्कुल अभाव हो जाएगा, स्वस्थ होने के लिए बाहरी चकाचौंध से दूर होना अनिवार्य है, इसलिए समयसार में यह गाथा अद्वितीय ही लिखी गई है उप्पण्णोदयभोगे वियोगबुद्धीय तस्स सो णिच्चं। कंखामणागदस्स य उदयस्स ण कुव्वदे णाणी॥ (समयसार–२२८) वह ज्ञानी उदय में आई हुई भोगोपभोग सामग्री को त्याग कर देता है, हेय बुद्धि से देखता है, उन भोगों की स्मृति तो बहुत दूर की बात, आकांक्षा की बात भी बहुत दूर की होगी, अब तो अनाप-सनाप-सम्पदा जो मिली है उसे कहता है-यह सम्पदा कहाँ, आपदा का मूल है, यह अर्थ अनर्थ का मूल है, परमार्थ अलग वस्तु है और अर्थ अलग वस्तु, मेरा अर्थ, मेरा पदार्थ मेरे पास है, उसके अलावा मेरा कुछ भी नहीं, तिल-तुषमात्र भी मेरा नहीं है, मैं तो एकाकी यात्री हूँ, कहाँ जाऊँगा ? कोई इच्छा भी नहीं, किससे मिलना? किसी से कोई मतलब नहीं, अब मुक्ति की इच्छा भी नहीं, इच्छा मात्र से भी कोई मतलब नहीं, बस, अपने आप में रम जाने के लिए तत्पर हूँ। मुमुक्षु को अकेला होना अनिवार्य है, आचार्य समन्तभद्र स्वामी ने दो स्थानों पर 'मुमुक्षु' संज्ञा दी। एक-वृषभनाथ के दीक्षा के समय और दूसरी अरनाथ भगवान जब चक्रवर्तित्व पद छोड़कर चले गये तब, उस समय अरनाथ भगवान को सब कुछ क्षणभंगुर प्रतीत हुआ, दु:ख का मूल कारण प्रतीत हुआ, इसीलिए उन्होंने उसको छोड़ दिया, ऐसा मुमुक्षु ही ज्ञानी-वैरागी होता है। उसी का दर्शन करना चाहिए, रागी का दर्शन करने से कभी भी सुख शान्ति का, वैभव-आनन्द का अनुभव होने वाला नहीं। वृषभनाथ भगवान के जमाने की बात। चक्रवर्ती भरत के कुछ पुत्र थे, जो कि निगोद से निकलकर आये थे, (बीच में एक-आध त्रस पर्याय सम्भव है) सभी के सभी बोलते नहीं थे, चक्रवर्ती को बहुत चिन्ता हुई, उन्होंने एक दिन आदिनाथ भगवान से समवसरण में जाकर पूछाप्रभो! तीर्थकरों की वंशपरम्परा में ऐसे कोई पंगु, लूला, बहरे और अपंग नहीं होते, लेकिन कुछ पुत्र तो ऐसे हैं जो बोलते ही नहीं, हमें तो दिमाग में खराबी नजर आती है, मुझे जब अड़ोसी-पड़ोसी उलाहना देते हैं कि-तुम्हारे बच्चे गूंगे हैं, बहरे हैं, तब बहुत पीड़ा होती है, मैं क्या करूं? भगवान वृषभनाथ ने कहा-वे गूंगे और बहरे नहीं हैं, बल्कि तुम ही बहरे हो, भगवन् कैसे बहरे हैं हम ? बहरे इसलिए कि उनकी भाषा तुम्हें ज्ञात नहीं, देखो तुम्हारे सामने ही वे हमसे बोलेंगे, उन्होंने कहा-सब लोग राजपाट में घुसते चले जा रहे हैं, झगड़ा तुम्हारे सामने है, कलह हो रहा है, भाईभाई में लड़ाई हो रही है, इससे इनको वैराग्य हुआ, अत: सब कुछ छोड़कर सभी पुत्र भगवान के पास चल दिये और कहा-हे प्रभो! जो आपका रूप सो हमारा रूप, जो आपकी जाति सो हमारी जाति, बस हम, आपकी जाति में मिल जाना चाहते हैं और 'नम: सिद्धदेभ्य:' कह पंचमुष्ठी केशलौंच कर बैठ गये। तब चक्रवर्ती भरत ने कहा-वे गूंगे नहीं थे क्या ? नहीं! इन्हें जातिस्मरण हो गया था, इसलिए नहीं बोलते थे। बन्धुओ! मैं जातिस्मरण की बात इसलिए कह रहा हूँ कि कुछ आपको भी स्मरण आ जाए जातिस्मरण की बात जिससे नारकियों के लिए सम्यकदर्शन होता है, उन्हें वहाँ पर वेदना के अतिरेक से भी सम्यकदर्शन होता है, परन्तु मनुष्यों को ना जातिस्मरण से और ना ही दु:ख का अतिरेक होने से होता है। मनुष्य भव में तो जिनबिम्ब के दर्शन से, जिनवाणी सुनने/पढ़ने आदि से ही होता है। मनुष्य को जातिस्मरण और वेदनानुभव से सम्यकदर्शन क्यों नहीं होता? तो आचार्यों ने कहा वह जाति की ओर देखता है, लेकिन जो भव्य है, सम्यकद्रष्टि है वह उससे दूर रहता है, देखो भरत! तुम्हारे पुत्रों को बोलने की शक्ति होते हुए मात्र पर्याय को देखकर तुम्हारे साथ बोलना पसन्द नहीं, बोलने की इच्छा नहीं उनकी, क्योंकि कामदेव के ऊपर चक्र चलाने वाले हैं आप, भाई के ऊपर चक्र चलाने वाले हैं। सर्वार्थसिद्धि से तो उतरे हुए हो और धार्मिक सीमा का भी उल्लंघन करते हो। दोनों तद्भव मोक्षमागी हो अत: कामदेव एवं चक्रवर्ती दोनों ही अन्त में फकीरी (मुनि पद) अपना कर मोक्ष को चले जाओगे, इसीलिए मन्त्रियों ने कहा-तुम दोनों ही लडो, हम देख लेते हैं, कौन पास होता है, चक्रवर्ती भरत तीनों में फेल हो गये और चौथे में भी, युद्ध तो तीन ही थे चौथा कौनसा था ? चौथा यह था कि सीमा का उल्लंघन नहीं करना, धर्म युद्ध करना। उन्होंने उसका भी उल्लंघन कर चक्र का प्रयोग कर दिया, छोड़ा नहीं, कसर बाकी नहीं रही। सर्वार्थसिद्धि से उतरे थे, तीनों के साथ अनुगामी अवधिज्ञान आया था, तीनों में वृषभनाथ तो दीक्षित हो गये, लेकिन इन दोनों को अवधिज्ञान की कुछ याद भी नहीं, फिर जातिस्मरण तो बहुत दूर की बात रही, अपना धन, अपना ज्ञान, वर्तमान में हम कहाँ से आये हैं ? यह तक पता नहीं है। यह ज्ञान होना चाहिए कि अपने परिवार पर चक्र का कोई प्रभाव नहीं होता, लेकिन बुद्धि भ्रष्ट हो गई, धन के, मान-प्रतिष्ठा के पीछे, किन्तु बाहुबली का पुण्य बहुत जोरदार था, इसलिए उसने परिक्रमा लगाई और रुक गया, इस प्रकार बाहुबली ने तीनों युद्धों में तो हरा ही दिया और चौथे में भी सबके सामने नीचा दिखा दिया। इस सब रहस्य को देख, अविनश्वर आत्मा का ज्ञान उन सब बच्चों को हो गया, इसलिए बोले नहीं किसी के साथ, जब तक उम्र पूर्ण नहीं हो जाती, योग्यता नहीं आती तब तक के लिए मौन और बाद में दीक्षा ले ली, वृषभनाथ भगवान ने ऐसा जब कहा तब कहीं चक्रवर्ती को ज्ञात हुआ कि यह भी सम्भव है, मैं तो यह सोचता हूँ कि पिताजी सम्यकद्रष्टि और चक्रवर्ती भी थे तो कम से कम पिताजी के चरण छू लेने चाहिए थे, लेकिन नहीं, अभी बहुत छोटे हैं, दूध के दाँत भी नहीं टूटे, पर उन्होंने एक बात समझने योग्य कही-रागी के साथ हम बोलने वाले नहीं, हम तो वैरागी-वीतरागी सन्तों के साथ बोलेंगे, यह बहुत अद्भुत परिणाम जातिस्मरण का है, इस कथा को सुनकर ऐसा लगने लग जाता है कि दूसरे को देखना बंद कर केवल अपनी आत्मा की ओर ही लगना चाहिए। भीतर जो बात रहेगी वही तो फूटती हुई बाहर आयेगी। एक बच्चा था, वह काफी बदमाश था, स्कूल नहीं जाता था, ऐसे ही घूम-फिरकर आ जाता था, एक दिन माता-पिता को पता चला कि यह दिन खराब करता रहता है, अत: फेल हो जायेगा, तो मास्टर को कहा-इसे प्रतिदिन उपस्थित रखो और अच्छी शिक्षा दो, वह बालक होशियार भी था और बदमाश भी, एक दिन मास्टर ने पूछा-५ और ५ कितने होते हैं ? उसने कहा १० रोटी।। ४-४ कितने होते हैं ? ८ रोटी।। ३-३ कितने होते हैं ? ६ रोटी। तब मास्टर ने सोचा यह रोटी क्यों बोल रहा है ? क्या खाना खाकर नहीं आया ? या मम्मी ने रोटी नहीं खिलाई? मास्टर ने पूछा-क्या रोटी नहीं खाई ? उसने कहा जी, नहीं खाई, मम्मी ने कहा है, तब तक खाना नहीं मिलेगा जब तक स्कूल से पढ़कर नहीं आते, इससे ज्ञात होता है कि वह ८ बोल रहा है, किन्तु रोटी नहीं भूल रहा है, हम समयसार की कितनी ही गाथाएँ याद कर लें, लेकिन हमारे भीतर जो अभिप्राय है वह याद आता जाता है। हमारे अभिप्राय के अनुसार ही कदम बढ़ते हैं, दृष्टि भले ही कहीं हो बन्धुओ! आप लोग रिवर्स में गाड़ी चलाते हैं, अब भले ही ड्राइवर सामने देख रहा हो, लेकिन सामने के दर्पण में जो पीछे का बिम्ब है उसे देखता है, देखने को तो लगता है कि दृष्टि सामने हैं परन्तु दृष्टि नियम से रिवर्स की ओर ही रहती है, इसी तरह हम दृष्टि भी इन विषयों से रिवर्स कर लें, कैसे हो, रिवर्स होना ही बडी बात है। जब ऋषभनाथ के जीवन में घटना घटी तो उन्होंने अपनी दृष्टि को मोड़ लिया, अपने-आप में समेट लिया, सबको उन्होंने समाप्त नहीं किया, किन्तु अपने को समेट लिया यह अद्भुत कार्य है, हम दुनिया को समेटकर कार्य करना चाहते हैं जो "ण भूदो ण भविस्सदि।" विहाय यः सागरवारिवाससं वधूमिवेमां वसुधावधूं सतीम। मुमुक्षुरिक्ष्वाकु-कुलादिरात्मवान प्रभुः प्रवव्राज सहिष्णुरच्युतः॥ (स्वयम्भूस्तोत्र-१/३) भगवन्! आप अपने पद से च्युत नहीं हुए, ज्ञानी जीव अपने पद से च्युत नहीं होते यही उनका ज्ञानीपना है,” मात्र जानने वाले को ज्ञानी नहीं कहते, ज्ञानी का अर्थ अच्छा खोल दिया, जो राग नहीं करे, द्वेष नहीं करे, मोह नहीं करे, मद-मत्सर नहीं करे, समता का अभाव न हो, उन्हीं का नाम श्रमण है, वे श्रमण बन चुके, इसलिए अपने पद को कभी छोड़ेंगे नहीं, ऐसे अच्युत और सहिष्णु हैं कि कितने भी उपसर्ग आ जाएं तो भी चलायमान नहीं होंगे, मोक्षमार्ग परिषह और उपसर्गों के रास्तों से गुजरता है - मार्गाच्यवननिर्जरार्थं परिषोढव्याः परिषहाः॥ तत्त्वार्थसूत्र- ९/८ मार्ग अर्थात् संवर मार्ग से च्युति–स्खलन न हो, गिरावट न हो। इसलिए उपसर्ग और परिषह सहन करने की आदत/अभ्यास करना चाहिए, अब यह नहीं चलेगा कि उष्णता आ गई तो पंखा खोल लिया या कूलर चला दिया, यहाँ पर न कूलर ही होगा और न ही हीटर, यहाँ पर तो सभी वातानुकूल है और बातानुकूल भी, दोनों अनुकूल हैं, गर्मी पड़े तो निर्जरा, नहीं पड़े तो निर्जरा, उपसर्ग हो तो ज्यादा निर्जरा, नहीं हो तो भी निर्जरा, कोई प्रशंसा करे तो भी निर्जरा। निन्दा करते तो भी निर्जरा, कोई आवे तो भी निर्जरा, नहीं आवे तो भी निर्जरा, बड़ी अद्भुत बात हो गई, लोग आयें तो अच्छा लगता है, नहीं आयें तो अकेले कैसे बैठे ? जो व्यक्ति भीड़ में रहने का आदि हो उसको यदि मीसा में बन्द कर दिया जाये तो उसकी स्थिति एकदम बिगड़ जायेगी, कहीं 'वेट' कम हो जायगा या कुछ और ही हो जाएगा, लेकिन जिसे मीसा में ही रहने की आदत हो गई है वह तो पहलवान होकर निकलेगा। हमारे ऋषभनाथ का हाल भी इसी तरह का है कि उन्हें अब मीसा में बन्द करो या किसी अन्य में, उन्हें तो भीतर 'पीस' है, आनन्द-सुख, शान्ति-चैन, सब कुछ अन्दर है, मैं अकेला हूँ तब बन्द करो या कुछ और, मुझे चैन ही मिलेगी ऐसा सोचते हैं, बड़ी अद्भुत बात है, कहीं भी चले जायें, कैसी भी अवस्था आ जाए, कैसा भी कर्म का उदय आ जाय, अब अनुकूल हो या प्रतिकूल। बल्कि विश्वास तो यह है कि अब नियम से कूल-किनारा मिलेगा, इसी को कहते हैं श्रामण्य। श्रमणता पाने के उपरान्त किसी भी प्रकार की कमी अनुभूत नहीं होना चाहिए, मात्र ज्ञान से पूर्ति करता रहता है। समयसार के संवराधिकार में कहा है - जह कणायमग्गितवियं पि कणयसहावं णा तं परिच्चयदि । तह कम्मोदयतविदो ण जहदि णाणी दु णाणित्तं ॥ (समयसार- १९१) ज्ञानी अपने ज्ञानपने को नहीं छोड़ता, भले कितने कर्म के उदय कठोर से कठोरतम क्यों न आयें। जिस प्रकार कनक को आप कैसे भी तपाते जाएं, तपाते जाएं, वह सोना और भी दमकता चला जाता है, वह अपने कनकत्व को, स्वर्णत्व को नहीं छोड़ता। जयसेनस्वामी ने तो इसकी व्याख्या करते हुए कहा है कि -'पाण्डवादिवत्' कौन पाण्डव ? जो पाण्डव वनवास में भेजे गये थे, वे क्या ? नहीं, नहीं। वे जो स्वयं अपनी तरफ से वनवास में आये थे, अर्थात् मुनि बनकर आये और उनके शरीर पर तपे हुए लोहे की जंजीरें डाल दी गई, फिर भी शान्त हैं ऐसे 'पाण्डवादिवत्।' रत्नत्रय में भी तप के बिना चमक नहीं आती, रत्नत्रय को तपाना आवश्यक है, उसी से मुक्ति मिलती है, तपाराधना से ही मुक्ति मिलती है, रत्नत्रय से नहीं। जैसे-हम हलुवा बनाते हैं तो मिश्री हो, आटा हो और घी हो, उन्हें अनुपात में मिला दो, उसमें और कुछ भी मिलाना हो तो मिला दो, लेकिन अभी हलुवा नहीं बनेगा, कब तक नहीं बनेगा ? जब तक की नीचे से अग्नि का उसे पाक नहीं मिलेगा, ज्यों ही अग्नि की तपन पैदा होगी त्यों ही तीनों चीजें मिलने लगेंगी और मुलायम हलुवा तैयार हो जायेगा, इसी तरह रत्नत्रय रूप में तीनों जब तक भिन्न-भिन्न रहेंगे और तप का सहारा नहीं लेंगे तो ध्यान रखिये! कोटिपूर्व वर्ष तक भी चले जाए तब भी मुक्ति नहीं होगी, होगी तो तप से ही। अभी एक बात पण्डितजी ने कही थी कि अन्तर्मुहूर्त में भरत चक्रवर्ती को केवलज्ञान पैदा हो गया, बात बिल्कुल ठीक है, परन्तु मुक्ति क्यों नहीं मिली अन्तर्मुहूर्त में उन्हें ? एक लाख वर्ष तक उन्हें तप करना पड़ा, जितनी तपस्या ऋषभनाथ ने की उतनी ही तपस्या भरतचक्रवर्ती ने की। अभीअभी वाचना (खुरई में) चल रही थी, उसमें भंग आया था कि 'अन्तर्मुहूर्त में केवलज्ञान भले ही हो जाए परन्तु मुक्ति नहीं मिलती," इसका अर्थ है कि केवलज्ञान अन्तिम स्टेज नहीं है, अन्तिम मंजिल नहीं है, वह तो एक प्रकार से बीच स्टेशन है जिसके उपरान्त मंजिल है, केवलज्ञान यदि उपाधि नहीं तो वह बीच में अवश्य मिलेगा, केवलज्ञान होने के उपरान्त भी तो मोक्षमार्ग पूर्ण नहीं होता, इसलिए मुक्ति देने की क्षमता केवलज्ञान में नहीं। जिसके द्वारा मुक्ति मिलती है, उसे उपादेय मानिये। मात्र तपाराधना के द्वारा मुक्ति होती है वह अन्तर्मुहूर्त में मंजिल तक पहुँचा देती है, देखिये! भरत रह गये, ऋषभनाथ भी रह गये, परन्तु बाहुबली केवलज्ञान को प्राप्त कर सर्वप्रथम मुक्ति के उद्घाटक बने इस युग के आदि में पिताजी और भाई से पहले, आगे जाकर दरवाजा खोलकर बैठ गये, बाद में पिताजी आये और भरत भी। एक मजे की बात तो यह रही कि ऋषभनाथ भगवान को भी बाहुबली के सिद्ध स्वरूप का चिन्तन करना पड़ा, भरत को भी करना पड़ा, जिसका जैसा पुरुषार्थ होता है उसको वैसा ही फल मिलता है, इसलिए हमारा लक्ष्य मंजिल का है, स्टेशन का नहीं, जैसे दिल्ली जाने के लिए तो आगरा भी एक स्टेशन आयेगा जो मंजिल नहीं है, मंजिल के निकट अवश्य है पर उससे भी आगे जाना है, दिल्ली अंतिम स्टेशन एवं मंजिल के रूप में होगा, दिल्ली पहुँचते ही उतर जाइये और मस्त हो जाओ, साथ ही यह देखते रहे कि पीछे क्या-क्या हो रहा है। गजकुमार स्वामी जैसों के उदाहरण हमारे सामने हैं, वह बाल्यावस्था में जब मात्र बारह वर्ष के थे, गोद में बैठने की क्षमता रखते थे, उस समय मात्र अन्तर्मुहूर्त में मुक्ति पा गये, वह भी केवलज्ञान प्राप्त कर लेते हैं, हाँ! अन्तर्मुहूर्त में सब कुछ काम हो जाता है। एक और बड़ी बात कही गयी है कि जिसने आज तक त्रस पर्याय प्राप्त नहीं की, जिसे वेद की वेदनाओं का अनुभव नहीं, अभी निगोद से निकलकर आ रहा है और आठ साल का होते ही मुनिवर के व्रत ले अन्तर्मुहूर्त में मुक्ति प्राप्त कर लेता है-ऐसा आगम का उल्लेख है। ऐसे उल्लेख अनन्त की संख्या में हैं, कोई भी अन्त वाला नहीं अर्थात् ऐसे पुरुषार्थशील प्राणी अनन्त हो गये और होंगे। बस, अब हमारे नम्बर की बात है, इसी की प्रतीक्षा में हम हैं, हमें भीतरी पुरुषार्थ जागृत करना है, भीतर कितनी ऊर्जा-शक्ति है ? इसका कोई भी मूल्यांकन हम इन छद्मस्थ ऑखों से नहीं कर सकते, इसे प्रकट करने में भगवान ऋषभनाथ लगे हुए हैं, वे सोच रहे हैं कि-कोई भी प्रतिकूल अथवा अनुकूल अवस्था आ जाये, मेरे लिये सभी कुछ समान है, उनका चिन्तन चल रहा है। बाहर यह जो कुछ दिख रहा है सो मैं नहीं हूँ और वह मेरा भी नहीं है ये आँखें मुझे देख नहीं सकती मुझमें देखने की शक्ति है उसी का में स्रष्टा हूँ सभी का मैं दृष्टा हूँ!! (चेतना के गहराव में) बहुत सरल-सी पंक्तियाँ हैं, लेकिन इन पंक्तियों में बहुत सार है- यह जो कुछ भी ठाट-बाट दिख रहा है वह ‘मैं नहीं हूँ” और वह ‘मेरा भी नहीं", ऐसा हो जाए तो अपने को ऋषभनाथ बनने में देर न लगे, लेकिन बन नहीं पा रहा है, क्यों नहीं बन पा रहा है ? भीतर से पूछो, भीतर की बात पूछो, क्यों नहीं हो पा रहा है, ऋषभनाथ कहते हैं-तू तटस्थ होकर देख, देखना स्वभाव है, जानना स्वभाव है लेकिन चलाकर नहीं, चलाकर देखना राग का प्रतीक है, जो हो रहा है उसे होते हुए देखिये-जानिये। एक व्यक्ति जिसको वैराग्य का अंकुर पैदा हुआ है, पर अतीत में बहुत कुछ घटनाएँ उसके जीवन में घटी थी, उन सबको गौण कर वह दीक्षित हो गया, दीक्षा लेने के उपरान्त एक दिन का उपवास रहा, अगले दिन चर्या को निकलने वाला था तो गुरुदेव ने कहा-चर्या के लिए जाना चाहते हो ? जाओ ठीक है। पर ध्यान रखना ! हॉ.हाँ आपकी आज्ञा शिरोधार्य है, आपकी जो आज्ञा, वह जो सेठ हैं, उन्हीं के यहाँ जाना है, उनका नाम भी बता दिया गया, पर!. वहाँ महाराज! हाँ, मैं कह रहा हूँ वहीं जाना है, अन्यत्र नहीं जाना, पसीना आने लगा नवदीक्षित साधु को, लेकिन महाराज की आज्ञा, अब क्या करें, वह चल दिया, एक-एक कदम उठाते-उठाते चला गया, उसके घर की ओर। वह सोच रहा है-जिसके लिए मैं जा रहा हूँ। वह सम्भव नहीं, अभी भी कुछ बदला भोगना होगा, यह बात उसके दिमाग में गहरे घर करती जा रही है, फिर भी वह उसके सामने तक पहुँच गया, उस सेठ ने दूर से ही मुनि महाराज को देखकर सोचा धन्य है हमारा भाग्य!.नमोऽस्तु. नमोऽस्तु महाराज! आवाज तो उसी सेठ की है, बात क्या है, क्या उसके स्थान पर कोई अन्य तो नहीं, दिखता तो वही है, उसी के आकार-प्रकार, रंग-ढंग जैसा है। जैसे-जैसे महाराज पास गये वैसे-वैसे वह सेठ और भी विनीत होकर गद्गद् हो गया, उसके हाथ काँपने लगे, सोच रहा हैविधि में कहीं चूक न हो जाये, गलती न हो जाये,उधर सेठ नमोऽस्तु .नमोऽस्तु .नमोऽस्तु बोल, तीन प्रदक्षिणा लगाता है, इधर महाराज सोचते हैं कि-यह सब नाटक तो नहीं हो रहा है, क्योंकि इसके जीवन में यह संभव नहीं। मैं तभी गुरु-आज्ञा से यहाँ आया हूँ, अन्यत्र जाना नहीं है। झूठ बोल सकने की अब बात ही नहीं, विधि तो मिल गई और पड़गाहन (प्रतिग्रहण) भी हो गया अब..... । महाराज! मनःशुद्धि, वचनशुद्धि और कायशुद्धि, आहार जलशुद्ध है, महाराज गृह-प्रवेश कीजिए, भोजनशाला में प्रवेश कीजिए, काँपते-काँपते सेठ ने कहा। मुनिराज सोच रहे थे कि यह कैसा परिवर्तन हुआ, जीवन के आदि से लेकर अभी तक के इतिहास में ३६ का आँकड़ा था। लेकिन यहाँ तो ३६ का उल्टा ६३ हो गया, यह कैसे, अभी तक वह ३६ का काम करता था, पर अब, यह ६३ शलाका पुरुषों का ही चमत्कार है, उसने अपने को ६३ शलाका पुरुषों के चरणों में जाकर के अर्थात् तीर्थकर आदि के मार्ग पर चलने के लिए संकल्प कर लिंग परिवर्तन कर लिया। और लिंग बदलते ही उसका जो बैर जन्मतः था, भव-भव से वह टूट गया, किन्तु मुनिराज को अभी इस बात का ज्ञान नहीं था। वह सोच रहे थे कि सम्भव हो अभी वह बैर भाव, मेरे साथ बदला ले ले। लेकिन नहीं! सेठ ने नवधाभक्ति के साथ आहार करवाया और आहार के बाद पैर पकड़कर फूट-फूटकर रोने लगा व कहा-मैंने गलती की, माफ करिये, माफ करिये, मैं भीतरी आत्मा की छवि को नहीं देख पाया था, भीतर ही भीतर ऐसा एक परिवर्तन अब हुआ, मैं बिल्कुल पर्याय बुद्धि अपनाता चला गया, आत्मा की ओर मेरी दृष्टि ही नहीं गई, अब मुनि महाराज कहते हैं कि - यह दृष्टि मेरी नहीं है भैय्या! मैं तो भगवान के पास गया, उनकी शरण में जाने की ही कृपा है कि मुझे इस प्रकार की दिव्य-दृष्टि मिली, माफी तो हम दोनों मिलकर वहीं पर मागेंगे! चलो तुम भी चलो साथ उनके चरणों में, वहाँ पहुँचने पर महाराज बोलते हैं क्यों भैया! मुलाकात हो गई ? मुलाकात क्या, अब यह मुलाकात कभी मिटने वाली नहीं है, कारण, बैर भाव जो चलता है वह केवल पर्याय-बुद्धि को लेकर चलता है, यह समझ में आ गया। आप लोग तो रामायण की बात करते होंगे, लेकिन मैं तो रावणयात्रा की बात करता हूँ। रावण, राम से भी दस कदम आगे काम करने वाला है, ये हलधर थे, तो वे तीर्थकर बनेंगे, ऐसे तीर्थकर होंगे जिनके सीतारानी का जीव स्वयं गणधर बनेगा, जितना विप्लव दोनों ने मिलकर किया था, उससे कहीं अधिक शान्ति धरती पर करके मोक्ष चले जायेंगे, लक्ष्मण का जीव भी तीर्थकर बनेगा, सीता का जीव बीच में कुछ पर्याय धारण कर गणधर परमेष्ठी बनेगा। रावण की ब्राडकास्टिंग करने गणधर बनकर बैठेगा, अब सोचिये, भव-भव का वह बैर कहाँ चला गया। संसारी प्राणी अतीत की ओर और अनागत की ओर नहीं देखता है इसके सामने तो एक वर्तमान पर्याय ही रह जाती है, प्रागभाव को भी देखा करो, प्रध्वंसाभाव को भी देखा करो और तद्भाव को भी देखा करो, तभी भव-भव का नाता टूट जाएगा, ऐसा भव प्रादुभूत हो जायेगा कि जिसका दर्शन करते ही अनन्तकालीन कषाय की श्रृंखला टूटकर छिन्न-भिन्न हो जायेगी, कितना सुन्दर दृश्य होगा, रावण के भविष्य का उस समय, जब रामायण अतीत का दृश्य हो जाएगा। एक बार चित्र देखा हुआ, यदि दुबारा देखते हैं तो रास नहीं आता, जो नहीं देखा उसके बारे में बहुत भावना उठती है। आश्चर्य की बात यह है कि भव-भव में बैर पकड़ने वाले ये जीव एक स्थान पर ऐसे बैठकर सब लोगों को हित के मार्ग का दर्शन देकर आदर्श प्रस्तुत करके मोक्ष चले जायेंगे। इस प्रकार की घटनायें (रावण-सीता-राम जैसी घटनाएँ) पुराणों में अनन्तों हो गई, भविष्यत् काल में अनन्तानन्त होंगी। जब अतीतकाल की विवक्षा को लेते हैं तो अनन्त की कोटि में कहते हैं और अनागत की अपेक्षा से अनन्त नहीं, बल्कि अनन्तानन्त कहा जाता है। राम-रावण-सीता जैसी घटनाओं में कभी आप भी राम हो सकते हैं, कभी रावण और भी कुछ हो सकते हैं, नाम तो पुन: पुन: वहीं आते जाते हैं, क्योंकि शब्द संख्यात हैं और पदार्थ अनन्त। फलाचंद नाम के कई व्यक्ति हो सकते हैं, इसी सभा में १०-२० मिल सकते हैं, सागर सिटी में ५०-१०० मिल सकते हैं, उस समय यदि किसी की दानराशि, उसी नाम वाले से मांगे तो घोटाला हो जाएगा, अब क्या करें ? बोली किसने ली थी क्या पता? इसलिये सागर में भी मुहल्ला एवं अपने पालक का भी नाम बताओ? अर्थात् शब्द बहुत कमजोर है, शब्द के पास शक्ति नहीं और ना ही अनन्त है, इसलिए इन सब बातों को भूल जाओ, अभावों में प्रागभाव और प्रध्वंसाभाव क्या था यह ज्ञात हो गया। महाराज सोचते हैं कि-वह बैर भाव अभी रह सकता है क्या ? नहीं! लेकिन लिंग (भेष) न बदलता तो संभव भी था। क्योंकि सजातीयता थी, लेकिन ज्यों ही मुनिलिंग धारण किया और मुद्रा लेकर चले, त्यों ही उस व्यक्ति के साथ जो बैर चल रहा था, जाता रहा, उसने सोचा-अब यह वह व्यक्ति नहीं, किन्तु इसका सम्बन्ध तो अब महावीर प्रभु से हो चुका, यह लिंग घर का नहीं है। इसलिए जिनलिंग देखने के उपरान्त समता आ जाती है, किसी व्यक्ति विशेष का लिंग नहीं है यह। किसी व्यक्तिविशेष की पूजा नहीं है जैनशासन में, किसी एक व्यक्ति का शासन नहीं चल सकता, किसी की धरोहर नहीं, यह तो अनादिकाल से चली आ रही परम्परा है और अनन्तानन्तकाल तक चलती रहेगी, मात्र नाम की पूजा नहीं, नाम के साथ गुणों का होना आवश्यक है, स्थापना निक्षेप में यही बात होती है।' यह वही है' इस प्रकार का ऐक्य हो जाता है, अर्थात् यह वृषभनाथ ही हैं, इसमें और उसमें कोई फर्क नहीं, इस तरह का ‘बुद्धया ऐक्यं स्थाप्य" बुद्धि के द्वारा एकता का आरोपण करना, जैसा कि कल ही पण्डितजी कह रहे थे-‘‘यह प्रतिमा नहीं भगवान हैं, ऐसी ताकत होती है,” तब कहीं वह बिम्ब सम्यकदर्शन के लिए निमित्त बन सकता है, नहीं तो वह अभिमान का भी कारण है, इसलिए किसी व्यक्ति को स्मरण में न लाकर उसे प्रागभाव की कोटि में यदि चला गया तो उसका क्षय हो चुका, इसीलिए अब उस व्यक्तित्व का भी सम्बन्ध था, पर अब वीतरागता से सम्बन्ध। जो व्यक्ति इस प्रकार के लिंग को देख करके, उनकी पूजा-अर्चा नहीं करता, उनके लिए आहारदान नहीं देता तो उसके लिए आचार्य कुन्दकुन्द अष्टपाहुड में कहते हैं सहजुष्पण्ण रूवं दट्टुं जो मण्णएण मच्छरिओ। सो संजमपडिवण्णो, मिच्छाइट्ठी हवदि एसो॥ (दर्शनपाहुड-२४) कितनी गजब की बात कही है आचार्य कुन्दकुन्ददेव ने - सम्यकदर्शन और मिथ्यादर्शन को एक दर्पण के सामने लाकर के रख दिया हैं | “Face is the index Of the heart” ह्रदय की अनुक्रमणिका मुख-मुद्रा है, हृदय में क्या बात है यह मुख के द्वारा समझ लेते हैं। आचार्य कुन्दकुन्द कहते हैं कि अभी भी तुम्हारी दृष्टि में बैर भाव है, अभी भी वह सेठ है, पर्याय बुद्धि है तेरी, तेरी दृष्टि में वीतरागता नहीं आ रही है, वीतरागता किसी की अथवा घर की नहीं होती, न इसे चुराया जा सकता है और न किसी की बपौती है। नग्नत्व ही उसका साधन है, भगवान महावीर या वृषभनाथ भगवान और भी जिनको पूजते हैं उनका लिंग है। कुन्दकुन्द भगवान ने कहा-यथाजातरूप भगवान महावीर और इस लिंग में कोई अंतर नहीं है, इसको देखकर जो व्यक्ति मात्सर्यादिक भावों के साथ वंदना आदि नहीं करता है वह मिथ्यादृष्टि है, यह ध्यान रखिये, यथाजातरूप होना चाहिए, क्योंकि वे ही जो छठे- सातवें गुणस्थानवर्ती हैं वे ही आपके घर तक आहार के लिए आ सकते हैं, अन्य नहीं, जिसके हृदय में सम्यकदर्शन है, वह जिनेन्द्र भगवान के रूप को देखते ही सब पर्यायों को भूल जाता है, यह मेरा बैरी था, मित्र था, पिताजी थे, मेरे भाई थे या और कोई अन्य सम्बन्धी, अब कोई सम्बन्ध नहीं, सब छूट गया, इस नग्नावस्था के साथ तो मात्र पूज्य-पूजक सम्बन्ध रह गया है। इसके उपरान्त भी अतीत की ओर दृष्टि चली जाती है, रागद्वेष हो जाते हैं, परिचर्या में नहीं लगता है तो कुन्दकुन्दस्वामी ने उसे मिथ्यादृष्टि कहा, आगे दूसरी गाथा में कहते हैं - अमराण वंदियाणं रूवं दट्टण सीलसहियाणं । ये गारवं करंति य सम्मतविवज्जीया होंति॥ (दर्शनपाहुड-२५) अमरों के द्वारा जो वन्दित है, उस पद को तथा शील सहित व्यक्ति को देखकर भी जो गर्व करता है, उसका तिरस्कार करता है तो वह सम्यकदर्शन से कोसों दूर है। ऐसा नहीं है कि एक बार सम्यकदर्शन मिल गया फिर पेटी में बन्दकर, अलीगढ़ का ताला लगाकर ट्रेजरी में बन्द कर दे, कहीं हिल न जाए, आचार्य कहते हैं कि-ऐसा नहीं है, अन्तर्मुहूर्त में ही कई बार उलट-पलट हो सकता है, भीतर के भीतर माल ‘पास’ हो सकता है। ताला ऊपर रह जाये और माल भीतर से 'सप्लाई' हो जाये। भीतर परिणामों में उथल-पुथल होता रहता है, यह सब पुण्य और पाप की बात है, इसी अष्टपाहुड में आचार्य कुन्दकुन्ददेव ने एक जगह लिखा-‘‘बाहुबली, सर्वप्रथम द्रव्यलिंगी की कोटि में हैं, बड़ी अद्भुत बात है, सर्वार्थसिद्धि से तो आये हैं और मुनि भी बने, फिर भी द्रव्यलिंगी की कोटि में उनको रखा, यह मात्र दृष्टि की बात है, बात ऐसी है कि वर्द्धमान चारित्र वाला छठे-सातवें गुणस्थान में तो परिवर्तन कर सकता है, लेकिन जिसका वर्द्धमान चारित्र नहीं है, वह व्यक्ति नीचे गिरकर छठे से पाँचवें में भी आ सकता है, चौथे में आ सकता है और क्षायिक सम्यकद्रष्टि नहीं है तो प्रथम गुणस्थान तक आ सकता है, ऐसे भी भंग आगम में बनाये गये हैं, उन्होंने कहा-एक व्यक्ति क्षायिक सम्यकदर्शन के साथ मुनिपद को अपनाता है और सातवें गुणस्थान को छू लेता है और अन्तर्मुहूर्त में छठवें में आ जाता है, फिर चतुर्थ गुणस्थान में आकर ८ वर्ष और कुछ कम पूर्वकोटि वर्ष व्यतीत कर सकता है। श्री धवल पढ़िए। उसका अध्ययन करिए तब ज्ञान होगा, क्षायिक सम्यकद्रष्टि तो है पर असंयमी हो गया, अब कैसे आहारदान दें ? परिचर्या कैसे करें ? हो सकता है देने वाला पंचमगुणस्थानवर्ती हो और लेने वाले मुनि महाराज चौथे गुणस्थानवर्ती, यहाँ ध्यान रखिये मुनिलिंग की पूजा की जाती है, भीतर रत्नत्रय है या नहीं, यह आपकी आँखों का विषय नहीं, अब हम पूछते हैं कि क्षायिक सम्यकदर्शन होते हुए भी उसे ऊपर क्यों नहीं उठाया, जबकि अभी भी दिगम्बरावस्था है, जब सम्यकदर्शन है तो चरित्र भी सम्यक्र होना चाहिए, छठवें-सातवें गुणस्थान को छूना चाहिए, पर नहीं होता है। इसका कारण, भिन्न-भिन्न शक्तियों की सीमाएँ, लक्षणों और गुणों की सीमाएँ ही हैं। भिन्न-भिन्न प्रयोजनों के कारण भी आगे नहीं बढ़ पाता, उसकी विशुद्धि इतनी घट गई कि ऊपर से तो मुनिलिंग की चर्या का अनुपालन करता हुआ पूर्वकोटि वर्षों तक सम्यकद्रष्टि बना रह सकता है। ऐसा भी सम्भव है कि जो क्षायिक सम्यकद्रष्टि नहीं है वह दीक्षा लेते समय छठे-सातवें गुणस्थान में था और अन्तर्मुहूर्त में ही मिथ्यात्व गुणस्थान में आ गया, अब क्या करें ? क्या आप आहार देना बंद कर देंगे ? उसे कपड़े पहनना चाहिए क्या ? अरे! यदि कपड़ा नहीं पहनता तो धोकाधड़ी कर नहीं। सम्यकदर्शन कोई ऐसी वस्तु नहीं कि बाँध के रख लिया जाये। क्षायिक सम्यकदर्शन होते हुए भी छठे-सातवें गुणस्थान से नीचे उतरना पड़े। हाँ! यह तो अवश्य है कि चारित्र बाँधा जा सकता है किन्तु भीतरी परिणामरूप चारित्र को नहीं बाँधा जाता, इसका अर्थ यह हुआ कि कर्म की भी अपनी शक्ति है, उसकी शक्ति के सामने किसी का पुरुषार्थ कुछ नहीं कर सकता। द्रव्यलिंगी कहने से मिथ्यादृष्टि को ही नहीं लेना चाहिए, कारण, बाहुबली मिथ्यादृष्टि होने वाले नहीं, सर्वार्थसिद्धि से क्षायिक सम्यकदर्शन के साथ आये थे, इसी प्रकार की कई बातें राम के जीवन में आती हैं, भूमिका के अनुसार जब-जब कर्मों का उदय आता है, तब-तब उसकी चपेट से आत्मा के कैसे परिणाम होते हैं। उसे कहा है "कोउ-कोउ समै आत्मा ने कर्म दाबे छे, कोउ-कोउ समै कर्म ने आत्मा दाबे छे।" समणसुक्तं-६१ अर्थात् कभी-कभी आत्मा कर्मों को दबाता है और कभी-कभी कर्म, आत्मा को दबाते हैं। यह कस्समकस्सा चलता रहता है, अन्त में जीत आत्मा की ही होगी। यह चलना भी चाहिए। मानलो, मैदान में दो कुश्ती खेलने वाले आ गये, एक मिनट में ही एक गिर गया (चित हो गया) तो लोग कहते हैं कि मजा नहीं आया, कुछ दाँव-पेंच होना चाहिए था। जब सारा का सारा बदन लाल हो जाए, २-३ बार गिर-उठकर एक बार चित्त करें तो-वाह.वाह ! कमाल कर दिया, कहेंगे, क्योंकि हमें आनंद तभी आता है। उसी प्रकार जब जाना ही है इस लोक से तो करामात कर दिखाने से नहीं चूकना चाहिए, कर्मों ने अनन्तकाल से इसको दबाये रखा, अब एक बार ऐसी सन्धि आयी है, एक बार में ही न दबा दें बल्कि दबाते रहे-दबाते रहे, जब बिल्कुल लतफत हो जाये, कहे-मैं भाग जाऊँगा, चला जाऊँगा-ऐसा कर दो अपने आत्मा के बल से, जब सम्पूर्ण बल खुलकर सामने आयेगा तो सभी कर्म भागते फिरेंगे, तभी वीतरागता प्राप्त होगी। वीतराग और अराग में क्या अंतर है ? यह जो पृष्ठ कागज का है यह अरागी है और भी जितनी भी वस्तुएँ देखने में आ रही हैं, वे सभी अरागी हैं, जड़ हैं, किन्तु चेतना वाले जीव ही कुछ रागी और कुछ वीतराग होते हैं, जिसके पास राग था, उसका अभाव करने से वीतरागता आती है। हमें अरागी नहीं वीतरागी बनना है। आप लोग भी तो वीतराग हैं लेकिन कैसा ? 'आत्मानं प्रति रागो यस्य न वर्तते इति वीतराग:' आत्मा के प्रति जिसका राग नहीं है वह भी वीतराग है और जिसकी आत्मा में राग नहीं वह भी वीतराग है। आपको आत्मा के प्रति राग न होते हुए भी आप सरागी माने जाते हैं, क्योंकि भिन्न-भिन्न जो अन्य वस्तुएँ हैं, उन सबके प्रति आपको राग है। आप कहते तो हैं- यह भिन्न है, यह भिन्न है, लेकिन थोड़ी भी प्रतिकूल दशा आ जाये तो खेद-खिन्न है। यह पर है, यह पर है-फिर भी उसी में तत्पर है यह सब नाटक क्या है ? जब नये दीक्षित श्रमण ने महाराज के चरणों में नम्न किया तो महाराज ने कहा-क्यों क्या बात, निकल गया पूरा का पूरा काँटा ? महाराज! आपने तो अच्छी संधि पकड़ी, हृदय की बात जान ली। भैय्या! हम हृदय की बात जानते हैं बाद की बात नहीं, किसी और के पास नहीं पहुँचना था, क्योंकि सबके प्रति तुम्हारे क्षमा भाव हैं, जहाँ बैर नहीं वहाँ क्षमा भाव है, अब तुमने दीक्षा ले ली, लेकिन जिसके साथ तुम्हारा बैर-भाव था, वह निकला कि नहीं ? भीतर रहना नहीं चाहिए, उसको तुम्हीं टटोलो और कहाँ पर ? वहीं पर जाकर, उसमें अवश्य ही परिवर्तन होना चाहिए, उस श्रावक के, इस लिंग (जिनलिंग) को देखने मात्र से निष्ठा पैदा हो गयी कि इस प्रकार का बैर रखने वाले भी मेरे आंगन तक आ सकते हैं, मान का पूरा का पूरा हनन, जो राजा था, दूसरों पर सत्ता रखता था, सब कुछ करता था, वही आज यूँ हाथ पसारकर आया है, यह भीतर की अग्नि-परीक्षा है, जो दिया जाय वह लेना बहुत ही कठिन व्रत है, उसमें अपनी माँग नहीं होना, बहुत कठिन है। एक बार, सागर में वाचना चल रही थी, तब आचार्य गुणभद्र का संदर्भ देते हुए कहा था कि-श्रावक का पद कभी भी बड़ा नहीं होता, मात्र दान के अलावा। जिस समय उसके सामने तीन लोक के नाथ भी हाथ करते हैं, उस समय श्रावक को अपूर्व आनंद होता है और उसी आनंद के साथ अपना हाथ यूँ करता है (दान देता है)। तब हमने कहा-बात तो बिल्कुल ठीक है, परन्तु हाथ कांपते किसके हैं ? देने वालों के ही हाथ कांपते हैं, लेने वालों के नहीं, क्यों कांपते हैं ? क्योंकि देने वाला दे तो रहा है परन्तु क्या पता, कैसे हो जाए, इसीलिए कांपते हैं, लेकिन महाराज निभीकता के साथ लेते हैं। बंधुओ ! राजा हो या महाराज, जब तक राजकीय मान सम्मान है तब तक तीन लोक का नाथ नहीं बन सकता, चाहे कितनी भी कठिन तपस्या क्यों न कर लें। इसीलिए वृषभनाथ ने दीक्षा ली, इसका अर्थ यही है कि उसके पास भीतर बैठी हुई, क्रोध, मान, माया, लोभ भले ही अनन्तानुबन्धी न हो पर शेष सभी कषाय तो विद्यमान होगी, इनका जब तक क्षय होगा। तब तक उदयावली से उदय में आकर इनका कार्य देखा जा सकता है। वर्धमानचारित्र वालों को भी हो सकता है परन्तु वह संज्वलन होगा, अत: उसको भी जीतने के लिए बार-बार प्रयास करना और जो कर रहे हैं वे धन्य हैं। समयसारकलश में एक स्थान पर लिखा है बहती रहती कषाय नाली, शान्ति-सुधा भी झरती है, भव पीड़ा भी, वहीं प्यार कर, मुक्ति-रमा मन हरती है। तीन लोक भी आलोकित है, अतिशय चिन्मय लीला है, अद्भभूत से अद्भभूत तम महिमा, आतम की जय शीला है। – (समयसार कलश -२७४) वहीं पर कषाय नाली है, वहीं अमृत का झरना, वहीं तीन लोक, वहीं मुक्तिरमा, वहीं पर तीनों लोकों को आलोकित करने वाला अद्भुत-दिव्यज्ञान, लेकिन यह अतिशय लीला चेतना की ही है। धन्य हैं वे मुनिराज और उनकी चेतना, जो दीक्षा लेने के उपरान्त कषाय रहते हुए भी, कषाय नहीं करते हैं, कषाय चले जाने के बाद हमने कषाय जीत ली, ऐसा नहीं, जैसे-रणांगन में शत्रु के सामने कूदना ही कार्यकारी है, जब बैरी भाग जाए, उस समय कूदें तो क्या मतलब, शत्रु के सामने हाथ में तलवार हो और ढाल तथा छाती यूँ करके रणांगन में कूदकर किये गये प्रहार से बच, संधि पा अपनी तलवार चलाने से काम होता है, उसी प्रकार वैराग्यरूपी ढाल को अपने हाथ में लेकर, ज्ञान की तलवार चलाने से अनन्तकालीन कर्म की फौज जो की भीतर बैठी है, छिन्न-भिन्न हो जाती है, बस अन्तर्मुहूर्त का समय लगता है, हमें जितना भी पुरुषार्थ करना है वह मात्र मोह को जीतने के लिए ही करना है, मोह को जीतने पर ही विजय मानी जायेगी अन्यथा कोई मतलब नहीं, कुछ भी सिद्ध होने वाला नहीं। उस श्रावक को भी ऐसा ज्ञान हो गया कि भगवन्! इनके साथ जो बैर था, जो गांठ पड़ गई थी, वह कभी खुलेगी यह संभव नहीं लगता था, कम से कम इस भव में तो कतई संभव नहीं लगता था, उस पर्याय का प्रध्वंसाभाव हो गया जिससे कि हमारी गांठ बँधी थी, अब मुनिलिंग आ गया, मुनिलिंग प्राप्त होते ही मेरे भीतर किसी भी प्रकार का राग-द्वेष भाव नहीं आये, कारण कि वे वीतराग होकर आये थे, रागी-द्वेषी होकर नहीं। यदि हमारे सामने कोई वीतराग के साथ आते हैं तो हमें भी वीतराग भाव की उपलब्धि होगी और यदि मान दिखाते हैं तो हमारे भीतर भी मान की उदीरणा हो जाती है। सामने वाला व्यक्ति मान नहीं दिखाता तो हमारा भी मान उपशान्त हो जाए। जैसे-सिंह देखता है कि सामने वाला व्यक्ति मेरी ओर किस दृष्टि से देख रहा है, यदि लाल कटाक्षों से देखता है तो सिंह भी इसी प्रकार से कर लेता है, यदि वह शान्त रूप से चलता है तो सिंह भी शान्त मुद्रा से चला जाता है। एक बार की बात, दो संत जंगल से चले जा रहे हैं, उधर से एक सिंह भी आ गया, सिंह को देखकर दोनों को थोड़ा-सा क्षोभ हो गया, क्या पता? आजू-बाजू खिसकने के लिए कोई स्थान नहीं था, अब क्या करें ? अब तो वह जैसा आ रहा है, वैसे ही हम चले, रुकने से क्या मतलब ? जो करना हो कर लेगा, इसलिए चलने में कोई बाधा नहीं, बस उस तरफ नहीं देखना है, ईयपिथ से चलना है, नीचे देखते हुए दोनों चले गये। बीच में से वह भी क्रास कर चला गया, सिंह इधर चला गया और वे उधर, कुछ दूर जाकर इन लोगों ने मुड़कर देखा तो उसने भी देखा कि कहीं कोई प्रहार तो नहीं। दोनों शांत चले गये और सिंह भी चला गया। बंधुओ! कषाय-भाव की उदीरणा दूसरों को देखकर भी होती है। इसलिए बहुत सम्हल कर चलने की बात है, कषायवान् के सामने जाने से कषाय की उदौरणा बहुत जल्दी हो जाया करती है, जिस प्रकार अग्नि को ईंधन के द्वारा बल मिल जाता है उसी प्रकार कषायवान् व्यक्ति के सामने कोई कषाय करता है तो उसको बहुत जल्दी कषाय आती है। एक छोटा-सा लड़का माँ की गोद में बैठा है, माँ दूध पिलाती-पिलाती आँखें लाल कर ले तो वह दूध पीना छोड़कर देखने लग जाता है, कि क्या मामला है ? गड़बड़-सा लगता है, तो मुँह का भी दूध वहीं छोड़ देता, ज्यादा विशेष हो गया तो वह वहाँ से खिसकने लगेगा, लेकिन ज्यों ही चुटकी बजाकर प्यार दिखाया तो फिर पीने लगेगा। इसका मतलब यही हुआ कि दूसरों की कषाय समाप्त करना चाहते हो तो हमें भी उपशान्त होते चले जाना चाहिए। अतृणे पतिता वह्निः स्वयमेवोपशाम्यति । सुभाषित शतक-३९ जहाँ पर तृण नहीं, घास-पूस नहीं है वहाँ पर धधकती एक अग्नि की लकड़ी भी रख दो तो वह भी पाँच मिनिट में समाप्त हो जाती है, ईधन का अभाव होते ही शान्त हो जाएगी, इसी तरह हमारे पास कषाय है वह शान्त होते ही अपने आप शान्ति आ जाएगी, जब तक ईधन का सहयोग मिलेगा ईंधन पटकते रहेंगे वह बढ़ती जायेगी। उपशम भाव ही हमारे लिए अजेय और अमोघ अस्त्र है, इस अमोघ अस्त्र के द्वारा दुनियाँ को नहीं, अपनी आत्मा को जीतकर चलना है। जैसे आदिनाथ ने आज दीक्षा अंगीकार कर ली, ऐसे श्रमणत्व को मैं बार-बार नमस्कार करता हूँ, ऐसा श्रमणत्व हम लोगों को भी मिले ऐसी भावना करनी चाहिए, अतीत में कितनी भी कषाय हो गई हो, उसकी याद नहीं करनी चाहिए, अनागत की 'प्लानिंग' भी नहीं करनी चाहिए। यह सब पर्याय बुद्धि है। आप तो प्रागभाव और प्रध्वंसाभाव को घटाकर देख लीजिए सारा माहौल शान्त हो जायेगा। एक वीरत्व की बात याद आ गई, वह और आपके सामने रख देता हूँ ताकि आप भी उसका उपयोग कर सकें - कौन कहता है कि आसमां में सुराख नहीं हो सकता। एक पत्थर तो दिल से उछालकर देखो यारो। याद रखिये! आत्मा के पास अनन्तशति है, इस शक्ति का उपयोग कषायों के प्रहार करने के लिए कीजिए, हमारी यह शक्ति अब दबी नहीं रहनी चाहिए, सोई नहीं रहनी चाहिए, नहीं तो चोरों का साम्राज्य हो जायेगा। क्या आप अपनी सम्पदा को चोरों के हाथ में देना चाहेंगे ? नहीं ना। इसलिए दहाड़ मारकर उठो, जैसे सिंह के सामने कोई नहीं आता, वैसे ही उठो, सिंहवृत्ति को अपनाओ, चूहों से बनकर हजार वर्ष जीने की अपेक्षा सिंह जैसा बनकर एक दिन जीना श्रेष्ठ है। मुनि महाराजों की वृत्ति ही सिंहवृत्ति कहलाती है, वह सिंह जैसे क्रूर तो नहीं होते किन्तु सिंह जैसे निभौंक जरूर होते हैं, निरीह होते हैं, पीठ-पीछे से धावा नहीं बोलते, छुपकर जीवन-यापन नहीं करते, उनका जीवन खुल्लमखुल्ला रहता है, वनराजों के पास जाकर महाराज रहते हैं, भवनों में रहने वाले वनराजों के पास नहीं ठहर सकते। आज भगवान ने दीक्षा ली तो इन्द्र चाकर बनना चाहता था लेकिन उन्होंने स्वीकार नहीं किया, उसे कह दिया-तुम पालकी भी नहीं उठा सकते हो, पहले मनुष्य उठा लें, क्योंकि ये संयम धारण कर सकते हैं, अब मुझे किसी से कुछ लेना देना नहीं, ना ये, ना तुम, मैं मात्र अकेला हूँ, था और रहूँगा, इस एकत्व के माध्यम से आज तक हजारों आत्माएँ अपना कल्याण कर गई, कर रही हैं, आगामीकाल में भी करेंगी। अपूर्णता से अपने जीवन को पूर्णता की ओर ले जायेंगी। मैं उन वृषभनाथ भगवान को, जो आज मुनि बने हैं, यह पंक्ति बोलते हुए स्मरण में लाता हूँ - बल में बालक हूँ किस लायक, बोध कहाँ मुझमें स्वामी। तव गुण-गण की स्तुति करने से, पूर्ण बनूँ तुम-सा नामी॥ गिरि से गिरती सरिता पहले पतली-सी ही चलती है। किन्तु अन्त में रूप बदलती सागर में जा ढलती है ||
  14. उस धर्म को बारम्बार नमस्कार हो जिस धर्म की शरण को पाकर के संसारी प्राणी पूज्य बन जाता है, आराध्य बन जाता है। अक्षय/अनन्तसुख का भंडार बन जाता है। अभी आपके सामने दीक्षा की क्रिया-विधि सम्पन्न हुई, यह मात्र आप लोगों को उस अतीत के दृश्य की ओर आकृष्ट करने की एक योजना है कि किस प्रकार वैभव और सम्पन्नता को प्राप्त करते हुए भी, भवन से वन की ओर विहार हुआ, संसार महावन में भटकने वाले भव्य जीवो! थोड़ा सोची, विचार करो कि आत्मा का स्वरूप क्या है ? अभी तक वैभव से अलंकृत वह श्रृंगारहार, जो कुछ भी था, उस सबको उतार दिया, कारण, आज तक जो लाद रखा था उसको जब तक उतारेंगे नहीं, तब तक तरने का कोई सवाल नहीं होता, आप लदने में ही सुख-शान्ति का अनुभव कर रहे हैं और मुमुक्षु उसको उतारने में, सुख का, शान्ति का अनुभव कर रहे हैं, यह भीतरी बात है, देखने के लिए क्रिया ऐसी लगती है कि जैसे आप लोग कमीज उतार देते हैं और पहन लेते हैं लेकिन वहाँ पहनने का कोई सवाल नहीं, अब दिगम्बर दशा आ गई, अभी तक एक प्रकार से वे श्वेताम्बर थे, अब वो दिगम्बर बन गये और आप दिगम्बर के उपासक हैं इसलिए आप दिगम्बर हैं, वस्तुत: आप दिगम्बर नहीं हैं, आप इसलिए सब वस्त्र पहनते हुए भी दिगम्बर माने जाते हैं, इस मत को जो नहीं मानते वो तो हमेशा वस्त्र में ही डूबे रहते हैं। आपके मन में एक धारणा बननी चाहिए कि मेरी भी यह दशा इस जीवन में कब हो! वह घड़ी, वह समय, वह अवसर कब प्राप्त हो मुझे, हे भगवन्! मेरे जैसे आप भी थे, लेकिन हमारे बीच में से आप निकल चुके, कल तक मैं कहता रहा-भैय्या! आदिकुमार-ऋषभकुमार आपके घर में हैं जो कुछ भी करना हो कर लो, सब कुछ आपके हाथ की बात है, लेकिन ज्यों ही वन की ओर आ जायेंगे, नियम से आप मेरे पास आ जाएंगे कि महाराज! अब आगे क्या करना है, ये मान नहीं रहे हैं, घर में रहना नहीं चाहते, अब कहा जाएंगे पता नहीं। बस अब तो उन्हें पता है और आपको? सुनो, आप लोग तो लापता हो जाएंगे, अब आपका कोई भी पता नहीं रहेगा, इसीलिए उस दिगम्बर की शरण में चले जाइये, वहाँ सबको शरण मिल जायेगी। अन्यथा शरणां नास्ति त्वमेव शरणां मम । तस्मात्कारुण्यभावेन रक्ष-रक्ष मुनीश्वरः॥ (समाधिभक्ति-१५) हे यते! हे यतियों में भी अग्रनायक! हमारे लिए शरण दो, भगवान को वैराग्य हुआ, उनके साथ चार हजार और दीक्षित हो जाते हैं, यहाँ पर तो उनके माता-पिताओं को भी वैराग्य हो रहा है। तीर्थकर अकेले लाडले पुत्र होते हैं, घर में यदि दो पुत्र हो जायें तो या तो छोटे के ऊपर ज्यादा प्रेम होगा या बड़े पर और लोग तो समझते हैं कि जो कमाता है उसके ऊपर ज्यादा प्रेम बरसता है, जो नहीं कमाता उसके ऊपर करेंगे ही नहीं, इनका इतना तेज पुण्य होता है कि लाड-प्यार जो कुछ भी मिलता है माता-पिता का वह एक के लिए ही मिलता है इसलिए वे विषयों में डूब जाते हैं और बाद में विषय से विरक्ति का संकल्प लेते हैं, यहाँ पर भी माता-पिता बनने का सौभाग्य भी बहुत मायने रखता है, तीर्थकर के माता-पिता, यह संसारी प्राणी आज तक नहीं बना, बन जाने पर नियम से एक-आध भव से मुक्ति मिलती है, इन लोगों (उपस्थित माता-पिताओं) की भावना हुई है कि इस पुनीत अवसर पर वे आजीवन ब्रह्मचर्य व्रत अंगीकार करें और अपने कल्याण का मार्ग प्रशस्त करें। इस माध्यम से हम भी भगवान से प्रार्थना करते हैं, जिस प्रकार प्रभु का कल्याण हो गया/ हो रहा है, इनका भी हो। उधर भगवान् के साथ चार हजार राजा भी दीक्षित हुए, लेकिन उन्होंने दीक्षा नहीं दी किसी को, दीक्षा किसलिए नहीं दी ? इसलिए नहीं दी कि, वे किसी को आदेश नहीं देंगे। दीक्षा लेने के उपरान्त वे गहरे उतरेंगे, किसी से कुछ नहीं कहेंगे, भीतर-भीतर आत्मतत्व में डुबकी लगाते-लगाते जब एक हजार वर्ष व्यतीत हो जायेंगे, तब कैवल्य की उपलब्धि होगी, इन एक हजार वर्षों तक मौन रहेंगे, आहार के लिए आयेंगे, सब कुछ क्रियायें होगी लेकिन कुछ उपदेश नहीं देंगे। न आशीर्वाद देंगे, न कोई आदेश, मौन रहना ही इन्हें पसन्द होगा, इसके बाद बनेंगे। ऋषभनाथ भगवान, दिखाने के लिए कल ही कैवल्य हो जाएगा, कारण एक हजार साल तक तो आप वैसे भी प्रतीक्षा नहीं कर सकोंगे, अत: मतलब ये है कि इस प्रकार की साधना में उतरेंगे कि वह आत्मा का रूप बन जाएंगे, यही सत्य मार्ग है। इस समय ज्यादा कहना आपको अच्छा नहीं लग रहा होगा क्योकि आप आकुलित है,भगवान आपके घर से चले गये हैं, भगवान नहीं थे वे, कुमार थे और आपके अण्डर में नहीं रह पाये, ये ध्यान रखना माता-पिता का कर्तव्य होता है अपनी संतान की रक्षा करें, यदि वह घर में रहना चाहे, तो उसके लिए सब कुछ व्यवस्था करें, घर में नहीं रहता तो यह देख लेना चाहिए कि कहाँ जाना चाहता है, कहीं विदेश तो नहीं जाता, यदि विदेश आदि जाने लगे तो, नहीं, यह हमारी परम्परा नहीं है, यहीं पर रहो, यह काम करो, ऐसा समझाना चाहिए और यदि आत्मा के कल्याण के लिए वन की ओर जाना चाहता है तो आपके वश की कोई बात नहीं है, यही हुआ आपके वश की बात नहीं रही और ऋषभकुमार निकल चुके घर से। धन्य है यह घड़ी, यह अवसर, युग के आदि में यह कार्य हुआ था और आज हमने उस दृश्य को देखा, जाना, किसके माध्यम से जाना यह सब कुछ ? अपने आप जान लिया क्या ? अपने आप आ गई क्या यह क्रिया? नहीं! इसके पीछे कितना रहस्य छुपा हुआ है, बड़े-बड़े महान् सन्तों ने इस क्रिया को अपने जीवन में उतारा और किसी ने इस क्रिया को अपनी लेखनी के माध्यम से लिख दिया, यही एक मार्ग है जो मोक्ष तक जाता है और कोई नहीं। विश्व में, सारे के सारे मार्ग को बताने वाले साहित्य हैं, लेकिन यहाँ पर साहित्य के साथसाथ साहित्य के अनुरूप आदित्य भी है, आज तक हमारी यह परम्परा अक्षुण्य है, यह हम लोगों के महान् पुण्य और सौभाग्य का विषय है, आज भी ऐसा साहित्य मिलता है, जिससे हम अध्यात्म - दशा को प्राप्त कर सकते हैं, हमें भी बता दो ? तो यहाँ पर वही क्रियायें हो रही हैं जिन्हें देखकर मालूम होता है कि ऐसे प्राप्त की जाती है वह अवस्था, इतना ही नहीं, आज कुन्दकुन्दाचार्य की परम्परा के अनुरूप चलने वाले, लिंग को धारण करने वाले भी मिलते हैं, तीन लिंग बताये गये हैं-एक मुनि का, एक श्रावक का और एक आर्यिका का या श्राविका का। आचार्य कुन्दकुन्ददेव ने दर्शनपाहुड में कहा है जैनियों के चौथा लिंग नहीं है - "चउत्थ पुण लिंगदंसण णत्थि" आज हमारा कितना सौभाग्य है कि कुन्दकुन्ददेव ने, समन्तभद्रस्वामी ने, पूज्यपादस्वामी आदि अनेक आचार्यों ने इस वेष को धारण किया, कितने बड़े साहस का काम किया, सांसारिक वेश को उतार देना भी बहुत सौभाग्य की बात है, अनेक सन्त हुए और बीच में ऐसा भी काल आया, जिसमें सन्तों के दर्शन दुर्लभ हो गये थे। जैसे मैंने कल कहा था दौलतरामजी, टोडरमलजी, बनारसीदासजी, ये सब तरसते रहे, जिनलिंग को देखना चाहते थे लेकिन केवल शास्त्रों को देख करके रह जाना पड़ा उन्हें, यहाँ तक भी कहने में आता है कि टोडरमलजी के जमाने में श्रीधवल, श्रीजयधवल, महाबन्ध का दर्शन तक नहीं हो सका, पढ़ना चाहते थे वे। उन्होंने लिखा है कि मैंने गोम्मटसार को पढ़ा उसकी टीका के माध्यम से, उसमें भी उन्होंने लिखा केशववणों की टीका नहीं होती तो हम गोम्मटसार का रहस्य नहीं समझ सकते थे, ऐसे-ऐसे साधकों ने इस जिनवाणी की सेवा करते हुए केवल सेवा ही नहीं किन्तु इस वेश को भी धारण कर अपने को धन्य किया, कल पण्डितजी भी कह रहे थे कि हमने भी अपने जीवन में जिनवाणी की सेवा करने का इतना अवसर प्राप्त किया, किन्तु मैं समझता हूँ कि आज दीक्षा-कल्याणक का दिन है, पण्डितजी ! जिनवाणी की सेवा तो जिनलिंग धारण करके ही करना सर्वोत्तम है। यदि आप जैसे विद्वान् जिनलिंग धारण कर इस तरह सेवा करें तो सही सेवा होगी जिनवाणी की, धर्म की प्रभावना भी होगी। बात ऐसी है जिनलिंग की महिमा कहा तक गायी जाये, जहाँ तक गाये, जितनी गावे उतनी ही आनन्द की लहर भीतर-भीतर आती जाती है, एक उदाहरण देता हूँ-एक सन्त के पास परिवार सहित एक सेठजी आते हैं, दर्शन करते हैं, पूजन करते हैं, जो कुछ भी करना कर लिया, इसके उपरान्त प्रार्थना करते हैं कि भगवन्! संसार का स्वरूप बताने की कोई आवश्यकता नहीं है, कारण, हमें समझ में आ गया है, लेकिन अब मुझे मुक्ति का स्वरूप बताओ ? लोग मुझसे भी पूछते हैं कि महाराज! आपको वैराग्य कैसे हुआ, मेरी समझ में नहीं आता है, चारों ओर चकाचौंध है विषयों की और आपको वैराग्य कैसे? हम जानना चाहते हैं, आपने न घर देखा, न बार, न कोई विवाह हुआ, कुछ समझ में नहीं आता, क्या जान करके आपने घर छोड़ दिया ? छोड़ने को क्या, क्या छोड़ा ? कुछ था ही नहीं मेरे पास-हमने कहा, समझदारी की बात तो मैं यह मानता हूँ-कहना चाहता हूँकि जो फैंसे हुए हैं, उनके चेहरे को देख करके मैं भाग आया, कोई भी दिखता है, हँसता हुआ नहीं दिखता, रोता ही रहता है, अपना रोना ही रोता है, मैं समझता हूँ कि बहुत अच्छी बात है जो हम फैंसे नहीं, यहाँ से दूर चलिये इसकी क्या आवश्यकता है। पढ़ने की, लिखने की कोई आवश्यकता नहीं, अनुभव की कभी कोई आवश्यकता नहीं, जो अनुभव कर रहे हैं वही टेलीविजन (मुखमुद्रा) हम देख रहे हैं, इनको देख लो, इनकी समस्या समझ लो, बस अपने लिए वहीं रास्ता बन गया, तो वह कहता है कि मुक्ति का स्वरूप बताओ, किस प्रकार इनसे छुटकारा पाऊँ, सन्त कहते हैं-कुछ नहीं, सो जाओ, सो......जाओ, कल आना जैसी आज्ञा-कहकर चला गया सेठ, घर पर सेठजी ने एक तोता बहुत ही लाड-प्यार से पाल रखा था, उसने पूछा-आज कहाँ गये थे सेठजी! महाराजजी आये थे उनके पास उपदेश सुनने गया था-सेठ ने कहा, क्या कहा महाराज ने-तोते ने पूछा, सेठ ने कहा-उन्होंने कुछ नहीं कहा सिवा इसके कि कल आना, लेकिन आज क्या करना-तोते ने पूछा। सो जा-सेठ ने कहा, अच्छी बात है। दूसरे दिन सेठ पुन: महाराज के पास पहुँच गया, क्यों, क्या बात है? महाराज ने पूछा। महाराज आपने तो कहा था-आज सो जा, कल आ जाना, इसलिए आ गया, अरे! मालूम नहीं पड़ा, यही तो प्रवचन था-महाराज ने समझाया, सोने का प्रवचन था ? हाँ.... हाँ..! "जो व्यवहार में सोता है वह निश्चय में जागता है और जो निश्चय में सोता है वह व्यवहार में जागता है।" अब बात उसे समझ में आ गयी थी, उपदेश के बाद घर गया तो देखा तोता तो बिल्कुल अचेत पड़ा है, पिजरे में। अरे! यह क्या हो गया ? महाराजजी ने उपदेश बहुत अच्छा दिया-अच्छा समझाया, मैं इसको भी बता देता, लेकिन यह क्या हो गया ? मर गया, यह तो मर गया, हे भगवान्! क्या हो गया ? इस प्रकार करते हुए पिंजरे का दरवाजा खोल करके उसको देखता है, बिल्कुल अचेत है, ओऽहो! यूँ ही नीचे रख देता है तो वह उड़ जाता है और एक खिड़की के ऊपर जाकर बैठ जाता है और कहता है महाराज ने बहुत अच्छा उपदेश सुनाया-बहुत अच्छा सुनाया, कैसे सुनाया? सेठ ने कहा, आपने तो कहा था आज सो जा-तोते ने कहा, सो जा, सो...... जा। रहस्य को सेठ ने अब समझ लिया। "एक बार सो जाओ मुक्ति मिल जायेगी,” लेकिन ‘सोना' कैसे ? मखमल के गढ़े बिछाकर के नहीं, एयरकंडीशन में नहीं बल्कि शरीर तो सो जाए और आत्मा अप्रमत रह जाए, आज का विज्ञान क्या कहता है ? आत्मा को सुलाओ ताकि रेस्ट मिल जाए, इस शरीर को, मतलब क्या ? यही कि चिन्ताओं से, विचारों से, विकल्पों से छुट्टी दे दो मा मुज्झह मा रजह मा दुस्सह इट्ठणिट्टअत्थेसु। थिरमिच्छह जड़ चित्तं विचितझाणपसिद्धीए॥ (द्रव्यसंग्रह-४८) आत्मा के ध्यान की प्रसिद्धि के लिए मन की एकाग्रता अनिवार्य है, मन को एकाग्र करना चाहते हो तो इष्ट तथा अनिष्ट पदार्थों में राग-द्वेष मत करो। इतना ही पर्याप्त है। मोक्षमार्ग यह है और संसार मार्ग यह है, कौन-सा आपको इष्ट है? आप चुन सकते हैं। जबरदस्ती किसी को नहीं किया जा सकता, जबरदस्ती से मार्ग ही संभव नहीं, खुद स्वयं जो अंगीकार करे, उसी का ये मार्ग और जो अंगीकार करता है उसको हजारों व्यवधान आ जाते हैं, व्यवधान आने पर आचार्य कहते हैं कि वह सारे के सारे व्यवधान शरीर रूपी पहाड़ के ऊपर टूट सकते हैं, लेकिन आत्माराम के ऊपर उसका कोई भी स्पर्श तक नहीं हो सकता है, यही एक मोक्षमार्ग है, इस मोक्षमार्ग की कहाँ तक प्रशंसा करूं, अपरम्पार है।
  15. प्रात:काल जन्मकल्याणक महोत्सव हो चुका है। उसी के विषय में कुछ कहना चाह रहा हूँ। भगवान् का जन्म नहीं हुआ करता, जन्म के ऊपर विजय प्राप्त करने से बनते हैं भगवान्, भगवान् का जन्म नहीं होता किन्तु जो भगवान् बनने वाले हैं उनका जन्म होता है, इसी अपेक्षा से यहाँ पर जन्मकल्याणक मनाया गया, यह जन्म महोत्सव हमारे लिये श्रेयस्कर भी होगा, क्या हम भी अपना जन्म महोत्सव मनायें इस पर भी कुछ कहना चाहूँगा। अन्य विषयों पर भी कुछ कहूँगा। तो सबसे पहले जन्म को समझें। आचार्य समन्तभद्रस्वामीजी ने रत्नकरण्डक श्रावकाचार में एक कारिका के द्वारा अठारह दोष गिनाये हैं - क्षुत्पिपासाजरातंकजन्मान्तकभयस्मयाः । न रागद्वेषमोहाश्च यस्याप्तः स प्रकीत्र्यते॥ (एनकरण्डक श्रावकाचार-६) इन दोषों से रहित होना ही भगवान का सही-सही स्वरूप है। जिन्हें हम पूज्य मानते हैं, चरणों में माथा झुकाते हैं, आदर्श मानते हैं, उनके सामने घुटने स्वत: ही अवनत हो जाते हैं। यहाँ अठारह दोषों में एक जन्म भी आता है और मरण भी, किन्तु वह मरण महान् पूज्य हो जाता है, जिसमें फिर जन्म नहीं मिलता। प्रात:काल बात यह कही थी कि प्रत्येक वस्तु का परिणमन करना स्वभाव है, चाहे वह जीव हो या अजीव, कोई भी हो, इतना अवश्य है कि जीव-जीव के रूप में परिणमन करता है और अजीव-अजीव के रूप में, कभी भी अजीव, जीव के रूप में तथा जीव अजीव के रूप में परिणमन नहीं करता, तब भी हमारी दृष्टि में जीव का परिणमन, जीव के रूप में न आकर अजीव के रूप में आता है, जो हमारी ही दृष्टि का दोष है। आचार्यों ने तो आप्त, सच्चे देव की परीक्षा करके, लक्षण बता दिया, इसके माध्यम से क्या होने वाला है ? हमारे साध्य की सिद्धि होने वाली है, वे तो आदर्श रहेंगे और उनके माध्यम से हमारा भाव, हमारे भीतर उद्भूत होगा, स्वरूप की पहचान होगी। क्या कभी आपने दर्पण देखा है ? दर्पण कहो, प्रतिमा कही बात एक ही है, दर्पण देखा है ऐसा कह तो देंगे, परन्तु वस्तुत: दर्पण देखने में आता ही नहीं, ज्यों ही दर्पण हम हाथ में लेते हैं त्यों ही उसमें अपना मुख दिखाई देने लगता है, दर्पण नहीं दिखता और दर्पण के बिना अपना मुख भी नहीं दिखता। भगवान भी दर्पण के समान हैं, क्योंकि वे अठारह दोषों से रहित हैं, स्वच्छ-निर्मल हैं। उनको देखकर ज्ञान हो जाता है कि हमारे सारे के सारे दोष अभी विद्यमान हैं, इसलिए हमारा स्वरूप यह नहीं है। स्वरूप की पहचान दो प्रकार से होती है एवं सुख की प्राप्ति भी दो प्रकार से होती है। इसी तरह ज्ञान भी दो प्रकार का होता है। एक विधि रूप और दूसरा निषेधरूप। जैसा आपने बेटे से कहा-तुम्हें यहाँ पर नहीं बैठना है तो उसे अपने आप यह ज्ञान हो जाता है कि मुझे यहाँ न बैठकर वहाँ बैठना है। यदि वहाँ के लिए भी निषेध किया जाता है तो वह अन्यत्र प्रवृत्ति करता है। इस प्रकार से निषेध से ही विधि का ज्ञान हो जाता है मात्र कहने का ढंग अलग-अलग है, बात तो एक ही है। इसी तरह मोक्षमार्ग में कहा जाता है कि पकड़िए अपने आपको, तब आप कहते हैं क्या पकड़े महाराज! कुछ भी दिखने में नहीं आता। कोई बात नहीं, यदि पकड़ में नहीं आता तो न पकड़िए, किन्तु जो पकड़ रखा है उसको छोड़िए-यह निषेध रूप कथन है, इससे निषेध करतेकरते अपने आप ज्ञात हो जाता है कि यह हमारा स्वरूप है। आचार्य कुन्दकुन्ददेव ने एक स्थान पर लिखा है कि-आत्मा का स्वरूप क्या है? आत्मा का स्वभाव क्या है? आत्मा के लक्षण से हम स्वरूप को पहचान सकते हैं, स्वभाव को जान सकते हैं तो मतलब यह हुआ कि लक्षण अलग है और स्वरूप-स्वभाव अलग, दोनों में बहुत अन्तर होता है। वर्तमान में लक्षण का संवेदन हो सकता है, होता है किन्तु स्वरूप का संवेदन नहीं होगा, उपयोग, आत्मा का लक्षण है। इससे ही आत्मा को पकड़ सकते हैं, स्वरूप का श्रद्धान भी इस लक्षण के माध्यम से ही होगा, जिसकी प्राप्ति के लिए श्रद्धान किया जाता है तो उसकी प्राप्ति में साधना की भी आवश्यकता होती है, जैसे कि भगवान बनने के लिए प्रक्रिया कल से प्रारम्भ होने वाली है। साधना के लिए 'समयसार" में आचार्य कुन्दकुन्दस्वामीजी ने लिखा है - जीव रूपवान नहीं है, जीव गंधवान नहीं है, जीव रसवान नहीं है, जीव स्पर्शवाद नहीं है, जीव उपयोग वाला है, अब सोचिए - यह नहीं, यह नहीं, फिर स्वभाव क्या है आत्मा का? अनिर्दिष्ट संस्थान, संस्थान आत्मा का स्वभाव नहीं है, फिर संस्थान क्यों मिला, क्या कारण है ? जब संस्थानातीत है तो संस्थान क्यों मिला, जो आकार-प्रकार से रहित है, उसमें आकार-प्रकार क्यों ? जो रूप, रस, गन्ध, वर्ण वाला नहीं है, फिर भी उसे रस, रूप, गन्ध के माध्यम से पहचान सकेंगे। जैसे पण्डितजी ने अभी कहा-क्या कहा था अपने आपको ? हुकुमचन्द ही तो कहा था। कहने में भी यही आयेगा अन्यथा अपना परिचय देना कैसे संभव है? तब मैं सोच रहा था कि पण्डितजी अपनी आत्मा के बारे में क्या परिचय देते हैं? आखिर हुकुमचन्द यही तो कहना पड़ा। शब्द के माध्यम से ही अपनी आत्मा का बोध कराया, जो कि शब्दातीत है। अर्थ यह हुआ कि पण्डितजी ने विधिपरक अर्थ कभी भी नहीं बताया, बता भी नहीं सकेंगे, क्योंकि कुन्दकुन्दस्वामी खुद कह रहे हैं 'अरस', अर्थात् रस नहीं है, तो क्या है? भगवान ही जानें! अरस, अरूप, अगन्ध, अस्पर्श, अनिर्दिष्टसंस्थान-कोई आकार-प्रकार नहीं है, अलिंगग्रहण रूप है, किसी बिम्ब के द्वारा, किसी साधन के द्वारा उसे पकड़ा नहीं जा सकता, फिर भी आँखों के द्वारा देखने में आ रहा है, छूने में आ रहा है, संवेदन भी हो रहा है, सब कुछ हो रहा है। हाँ ठीक ही तो है, संवेदन, आत्मा के साथ बना रहने वाला है, चाहे गलत हो या सही। संवेदन, आत्मा का लक्षण है, महसूस करना, अनुभव करना आत्मा का लक्षण है। केवलज्ञान आत्मा का लक्षण नहीं है, वह आत्मा का स्वभाव है, स्वभाव की प्राप्ति उपयोग के ऊपर श्रद्धान करने से ही हुआ करती है, अन्यथा तीन काल में भी कोई रास्ता नहीं है, स्वभाव का श्रद्धान करो, जब ऐसा कहते हैं तो आप कहते हैं कि कुछ दीख ही नहीं रहा है महाराज! लेकिन श्रद्धान तो उसी का किया जाता है जो दिखता नहीं है, तभी सम्यक दर्शन होता है। लक्षण अन्यत्र नहीं मिलना चाहिए, उसका नाम विलक्षण है। विलक्षण होना चाहिए, भिन्न, पदार्थों से। घुले-मिले हुए बहुत सारे पदार्थों को पृथक् करने की विधि का नाम ही लक्षण है। लक्ष्य तक पहुँचने के लिए लक्षण ही दिखता है, लक्ष्य नहीं। यदि लक्षण भी नहीं दिखता तो हम नियम से भटक रहे हैं ऐसा समझ लीजिए। आत्मा दिखेगा नहीं, आत्मा का स्वरूप भी नहीं दिखेगा। घबराना नहीं, आचार्य कहते हैं-जो दिखेगा वह हमेशा बना रहेगा उसका लक्षण अलग है, चाहे सो रहे हों या खा रहे हों, पी रहे हों या सोच रहे हों, चाहे पागल भी क्यों न बन जायें, पागल भी अपना संवेदन करता रहता है। महाराज! पागल का कैसा संवेदन होता है? होता तो है लेकिन वह संवेदन पागल होकर के ही देखा जा सकता है, किया जा सकता है, कहा नहीं जा सकता, संवेदन कहने की वस्तु नहीं है। इस प्रकार उपयोग रूप लक्षण को पकड़कर घने अन्धकार में भी कूद सकते हैं, इसमें घबराने की कोई आवश्यकता नहीं, लेकिन जिस समय लक्षण हाथ से छूट जाएगा, उस समय अन्धकार में नियम से भटकन है, हमें इसलिए नहीं घबराना है कि कुछ भी अनुभव नहीं हो रहा,फिर कैसे प्राप्त करें उसे ? किसके ऊपर विश्वास करें ? विश्वास उसके ऊपर करना है जो हमें प्राप्त करना है और वर्तमान में क्या करना है ? वर्तमान जो अवस्था है उसी को देखकर विश्वास को दृढ़ बनाते चले जाना है, आत्मा को वर्तमान में तो मात्र प्रत्यक्षज्ञानी ही देखते हैं और हम 'आगमप्रामाण्यात् अभ्युपगम्य-मानात्' से जानते हैं। दूसरी बात, जितनी भी अर्थपर्याय होती हैं वे सारी की सारी आगम प्रमाण के द्वारा ही जानी जाती हैं। ये स्वभावभूत पर्यायें जो हैं। लक्षण पर विश्वास करिये, जो त्रैकालिक बना रहता है। स्वभाव त्रैकालिक नहीं होता। आप कहेंगे महाराज! आचार्यों ने तो कहीं-कहीं पर स्वभाव को भी त्रैकालिक होता है ऐसा कहा है।.........हाँ, कहा तो है लेकिन, जिस स्वभाव की बात यहाँ पर कह रहा हूँ, उस स्वभाव को त्रैकालिक नहीं कहा। उन्होंने कहा है - ‘‘ अभूदपुव्वो हवदि।'' (पञ्चास्तिकाय) ज्ञान को, सामान्य बनाने पर, उपयोग सामान्य बनाने पर, यह स्वभाव त्रैकालिक रहेगा। चाहे निगोद अवस्था हो या सिद्धावस्था या और भी शेष अवस्थाएँ। परन्तु केवलज्ञान रूप जो स्वभाव है, वह ब्रैकालिक नहीं होता, तात्कालिक हुआ करता है। यह बात अलग है कि उत्पन्न होने के उपरान्त, वह अनन्तकाल तक अक्षय रहेगा, तब भी पर्याय की अपेक्षा तो क्षणिक रहेगा। अर्थ पर्याय तो और भी क्षणिक होती है। क्षणिक होना भी तो बता रहा है कि क्षय से उत्पन्न होता हैहो रहा है। हाँ! गुण जो हैं वे त्रैकालिक हैं। द्रव्य भी त्रैकालिक हुआ करता है। गुण की अपेक्षा से लक्षण होता है, पर्याय की अपेक्षा नहीं। केवलज्ञान को आत्मा का लक्षण माना जाए तो 'अव्याप्तिदोष' आ जाएगा। इसलिए वह लक्षण नहीं स्वभाव है। उस स्वभाव की प्राप्ति कैसे होती है ? जब साधना करेंगे तब, साधना कैसी करें महाराज! आचार्य कहते हैं-इसको (आत्मा को) अरस मान ले, अगन्ध मान ले और अरूपी मान ले। जब अगन्ध है तो सूंघने के द्वारा हमें सुख नहीं आयेगा, जब अरस है तो चखने से पकड़ में नहीं आयेगा, अत: चखना छोड़ दे, देखने में तो रूप ग्रहण होगा और आत्मा का स्वभाव अरूप है। अत: देखने का कोई मतलब नहीं, फिर उतार दीजिए चश्मा, आँख भी बंद कर लीजिए जब देखने की कोई आवश्यकता नहीं, इसलिए जो केवल भगवान बनने वाले है, वह नासादृष्टि करेंगे। क्यों करेंगे ? कल ही समझ में आयेगा कि मेरा अस्तित्व होते हुए भी, वह मुझे तब तक नहीं मिलेगा जब तक सब ओर से दृष्टि नहीं हटेगी। आँख बंद करूंगा, कान बंद करूंगा-कानों को बंद करने का अर्थ, अब रेडियो की आवश्यकता नहीं, ना सिलोन, ना विविधभारती और ना ही बी.बी.सी. लंदन। किसी से कोई मतलब नहीं। मतलब यही हुआ कि भीतर, अपने में उतारना है। भीतर की आवाज को सुनो, जो आवाज शब्द नहीं, अशब्द है। अगन्ध है, सूंघने के द्वारा पकड़ में नहीं आयेगी। किससे पकड़े ? जिन-जिन साधनों के माध्यम से यह संसारी प्राणी पकड़ने की चेष्टा कर चुका है, कर रहा है और आगे करने वाला है, उन सभी को मिटाने का प्रयास ही साधन हो सकता है। तू अरूपी है, तो छोड़ दे रूप को और उसके पकड़ने के साधनों को। करण और आलोक प्रमाण की उत्पत्ति में कारण नहीं। जैसा कि परीक्षामुख में कहा है- 'नार्थालोकी कारण' (परीक्षामुख-१/६) अर्थ और आलोक के द्वारा ज्ञान की उत्पति नहीं होती। इसी तरह इन्द्रियों के द्वारा भी ज्ञान की प्राप्ति नहीं होती। इनके द्वारा मात्र पुद्गल पदार्थ ही पकड़ में आते हैं और कुछ भी नहीं। मतिज्ञान के द्वारा आप क्या पकड़ेंगे? पञ्चेन्द्रियों के विषय ही तो पकड़ेंगे। इसके अलावा मतिज्ञान का क्षेत्र-विषय, और है ही नहीं। मतिज्ञान के द्वारा पञ्चेन्द्रिय के विषयों का ग्रहण होता है, पञ्चेन्द्रिय के विषय तो आत्मा नहीं, मात्र जड़। फिर अपने आपको जानने के लिए-मैं कौन हूँ, तो आचार्य कहते हैं-वह नहीं, जो आज तक तुम समझते थे। यह नहीं, नेति-नेति, एक ऐसी मान्यता, नीति है। इतना ही नहीं, 'यह नहीं,” के साथ ‘इतना भी नहीं' मानना होगा। फिर कितना ? जितना पूछोगे, उतना नहीं। क्योंकि पूछना बाहरी दृष्टिकोण से हो रहा है और बात चल रही है अन्तरंग की। इसलिए 'यह नहीं' कहते ही समझने वाला अपने आप समझ लेता है कि, यह ठीक नहीं अत: दूसरी प्रक्रिया अपनानी होगी। आत्मा के लिए दुनिया की किसी भी वस्तु की उपमा नहीं दी जा सकती। आत्मा अनिर्दिष्टसंस्थान रूप और अलिंगग्रहण है और वस्तुएँ इससे विपरीत। ऐसे विचित्र स्वरूप वाली आत्मा को हमें प्राप्त करना है। इसमें बहुत देर तो नहीं लगेगी, मात्र पाँच इन्द्रियों के विषयों को गौण करना आवश्यक होगा। दुनिया को गौण मत करो, दुनियाँ को समाप्त करने का प्रयास मत करो। अपनी दृष्टि को, अपने भावों को, अपने दृष्टिकोण को पलटने का प्रयास करो। राजस्थान की बात है। एक सज्जन ने कहा-महाराज! आपकी चर्या बहुत अच्छी है, बहुत प्रभावित भी हुआ हूँ आपसे। लेकिन एक बात है, यदि आप नाराज न हों तो। नाराज होने की क्या बात ? आपको जहाँ सन्देह हो, बताओ ? देखिए, बात ऐसी है नाराज नहीं होइये। हाँ-हाँ, कह रहा हूँ, नाराज होना ही क्यों ? नाराज हैं तो महाराज नहीं, महाराज हैं तो नाराज नहीं। तो महाराज ऐसा है, आप एक लंगोटी लगा लो तो अच्छा रहेगा। हमने सोचा-इन्होंने कुछ सोचा तो है। सामाजिक प्राणि हैं, संभव है। इनके लिए विकार नजर में आ रहा हो। मैंने कहा-अच्छा ठीक है। बात ऐसी है कि एक लंगोट तो आप खरीदकर ला देंगे लेकिन फिर दूसरी भी तो चाहिए। एक दिन एक पहनूँगा, एक दिन दूसरी। दूसरी भी आ जाए तो उसके धोने आदि का प्रबन्ध करना होगा तथा फटने पर सीने या नयी लाने की पुन: व्यवस्था करनी होगी। हाँ, जीवन बहुत लम्बा चौड़ा है।, इससे आप जैसे लोग भी बहुत मिलेंगे। अत: सर्वप्रथम आपसे ही मेरा सुझाव है कि आपको जब कभी भी यह रूप देखने में आ जाए तो उस समय आप अपनी ही आँखों पर एक हरी पट्टी लगा लीजिए, उसको लगाना आँखों को लाभदायक भी होगा और रोशनी से शान्ति-छुटकारा भी मिलेगा। इतना कहते ही उनकी समझ में आ गया कि कमी कहाँ है। वस्तुत: विकार हमारी दृष्टि में है। विकार दुनिया में नहीं है, वस्तु में नहीं है, केवल दृष्टि में विकार को हटाना है, दृष्टि को मोड़ना है, दुनिया पर हर चीज थोपना नहीं चाहिए। ध्यान रखिये! सामने वाले के ऊपर जितना थोपा जाएगा, उतना ही वह अधिक विकसित-अधिक दिमाग वाला होता जाएगा, वह विचार करेगा कि यह क्यों थोपा जा रहा है ? जैसा किसी के पीछे जितनी जासूसी लगाई जाती है वह उतना ही उससे ऊपर निकलने का प्रयास करता है क्योंकि उसके पास माइन्ड है, ज्ञान है, वह काम करता रहता है। रक्षा का प्रावधान करता रहता है, इसलिए सबसे बढ़िया यही है कि बाहर की ओर न देखें। मार्ग सरल है, स्वाश्रित है-पराश्रित नहीं है, आनन्द वाला है, कष्ट-दायक नहीं है, आँख मींच लो, १०-१५ मिनिट उपरान्त, माथा का दर्द भी ठीक हो जाएगा, क्योंकि इन्द्रियों के माध्यम से जो मिल रहा है, हम उसकी खोज में नहीं हैं, हमारी खोज उस रूप के लिए है जो सबसे अच्छा हो, उस गन्ध के लिए है जो तृप्ति दे, उस शब्द के लिए है जो बहुत ही प्रिय लगे-कर्णप्रिय हो, यह सब इन्द्रियों के माध्यम से "ण भूदो ण भविस्सदि।" पञ्चेन्द्रिय के विषय मिलते रहते हैं और उनमें इष्ट-अनिष्ट कल्पना होती है, यह कल्पना आत्मा में, उपयोग में होती है वह भी मतिज्ञान के द्वारा नहीं श्रुतज्ञान के द्वारा होती है, मतिज्ञान के द्वारा इष्ट-अनष्ट कल्पना, तीन काल में संभव नहीं है। मतिज्ञान एक प्रकार से निर्विकल्प-निराकुल होता है, उसमें वस्तुएँ दर्पणवत् झलकती हैं, झलक जाने के उपरान्त यह किसकी है ? यह विचारधारा बनना श्रुतज्ञान की देन है, मतिज्ञान की नहीं श्रुतज्ञान के माध्यम से ही उसे चाहा जाता है, इससे वस्तु पर श्रुतज्ञान का आयाम होता जाता है या यूँ कहें, यह मेरे लिए बुरा है, यह मेरे लिए अच्छा है, इस प्रकार की तरंगें उठती रहती हैं। '' मतिज्ञानं यद्गृह्यते तदालम्ब्य वस्त्वनन्तरं ज्ञानं'' (धवला पुस्तक-१/९३) अर्थात् मतिज्ञान के द्वारा ग्रहण की गई वस्तु का अवलम्बन करके प्रकारान्तर से वस्तु का जानना श्रुतज्ञान है, श्रुतज्ञान बहुत जल्दी काम करता है, क्योंकि वह सुख का इच्छुक है, हमें मतिज्ञान का कन्ट्रोल करके श्रुतज्ञान को कन्ट्रोल करने का प्रयास करना चाहिए, यही मोक्षमार्ग में पुरुषार्थ माना जाता है। सुख क्या है ? दु:ख का अभाव होना ही सुख है, जिस प्रकार यह कहा गया उसी प्रकार से आत्मा के विषय में भी जानना चाहिए। कारण कि नास्ति और अस्ति दोनों कथन एक साथ संभव नहीं हैं, यह वस्तुस्थिति है। जिस समय वस्तु उल्टी होती है उस समय सुल्टी नहीं हो सकती, जिस समय सुल्टी है उस समय उल्टी नहीं, जिस समय आरोग्य रहता है उस समय रोग नहीं रहता किन्तु जिस समय रोग आ जाता है, उस समय आरोग्य का अनुभव भले ही ना हो, लेकिन आरोग्य का श्रद्धान तो रह सकता है अर्थात् रोग का अनुभव करना मेरा स्वभाव नहीं है अत: इसे मिटा देना होगा, जब तक रोग रहेगा, तब तक स्वभाव का, निरोगता का अनुभव सम्भव नहीं। महाराज! अनुभव रहित स्वभाव को कैसे मानें ? आचार्य कहते हैं-मानो ! आगम के द्वारा कहे तत्व पर श्रद्धान रखो, छद्मस्थावस्था में स्वभाव का अनुभव तीन काल में भी संभव नहीं, केवलज्ञान के द्वारा वह साक्षात् हो सकता है। आचार्य कहते है कि अर्थपर्याय विशिष्ट द्रव्य को धारणा का विषय बनाना अलग है और उसका संवेदन-साक्षात्कार करना अलग बात है, वह केवलज्ञान के द्वारा ही संभव है। '' केवलज्ञानापेक्षया तु तत् मानसिकप्रत्यक्षं परोक्षमेव किन्तु इन्द्रियज्ञानापेक्षया तत्कथंचित्प्रत्यक्षमपि'' (समयसार ) आचार्य कहते हैं कि-केवलज्ञान की अपेक्षा से वह मानसिक-प्रत्यक्ष या छद्मस्थज्ञान परोक्ष ही है। मानसिक प्रत्यक्ष को प्रत्यक्ष की संज्ञा इन्द्रिय ज्ञान के अभाव को लेकर दी गई है, वह भी श्रद्धान के अनुरूप चलती है अत: पराश्रित है, स्वभाव को हमें प्राप्त करना है अत: उसी का विश्वास-श्रद्धान आवश्यक है। कैसा है वह ? अभूदपुव्वो हवदि सिद्धो, ऐसा पञ्चास्तिकाय में कुन्दकुन्द स्वामी ने कहा है कि सिद्धत्वरूप जो स्वभाव है वह अभूतपूर्व है, अभूतपूर्व का मतलब क्या है ? अभूतपूर्व का अर्थ बढ़िया-अपश्चिम है, अपूर्व वस्तु है, अर्थात् ऐसी अवस्था कभी हुई नहीं थी। इसी तरह का अर्थ करणों में भी आपेक्षित होता है। जब गुणस्थान के क्रम बढ़ते जाते हैं उस समय विशुद्धि बढ़ती जाती है-भावों में वृद्धि होती है, उन करणों में एक अपूर्वकरण और एक अनिवृत्तिकरण भी है, जिनमें परिणामों की अपूर्वता होती है, तुलना नहीं होती एक दूसरे से। इस प्रकार की व्यवस्था चलती रहती है उस समय। अर्थ यह हुआ कि स्वभावभूत वस्तुतत्व आज तक उपलब्ध नहीं हुआ हमें, उसका रूप, उसका स्वरूप प्रतिकारात्मक है, यह नहीं है, यह नहीं है-ऐसा प्रतिकार करते आइये, पलटते जाइये और बिल्कुल मौन हो जाइये, जिसको पलट दिया उसके बारे में कुछ भी नहीं सोचिये, आपके पास वस्तुओं की संख्या बहुत कम है, लेकिन दिमाग में-सोचने में, उससे कई गुनी हो सकती हैं, दिमाग की यह कसरत तब अपने आप रुक जाएगी जब यह विश्वास हो जाएगा कि इसमें मेरा 'बल' नहीं है। कम्मे एोकम्महिी य अहमिदि अहक च कम्मणोकम्म। जा एसा खलु बुद्धी अप्पडिबुद्धो हवदि तावा॥ (समयसार-२२) तब तक अप्रतिबुद्ध होता है जब तक कि कर्म में, नोकर्म में, मेरा-तेरा करता रहता है तब तक वह ज्ञानी नहीं, अज्ञानी माना जाता है। यह मैं हूँ, यह मैं हूँ-ऐसा चौबीसों घण्टे इन्द्रियों के व्यापार के माध्यम से सचित-अचित-मिश्र पदार्थों से जो कि भिन्न है, सम्बन्ध जोड़कर चलना और उसके साथ जो पोषक द्रव्य है उनके संयोग से हर्ष और वियोग से विषाद का अनुभव करना, अज्ञानी का काम है। इसी के माध्यम से संसार की यात्रा बहुत लम्बी-चौड़ी होती जाती है। जैसेअमेरिका में आपकी एक शाखा चलती हो, अब यदि अमेरिका पर बंबारडिंग होने लगे तो, आपके हृदय में भी वह शुरु हो जाएगी, तत्सम्बन्धी सुख-दुख होने लगता है, आप से पूछते हैं कि भैय्या ! आपका देश तो भारत है अमेरिका नहीं, वह तो विदेश है। बात तो ठीक है, लेकिन हमारा व्यापार सम्बन्ध तो अमेरिका से भी है। इसी प्रकार हमारा व्यापार भी वहाँ चलता है जहाँ इन्द्रियाँ हैं। उन्हीं से हित-अहित, सुख-दु:ख, हर्ष-विषाद का अनुभव करते हैं। पण्डितजी ने अभी सात प्रकार की ‘टेबलेट' के विषय में बताया, लेकिन मैं तो यह सोच रहा था कि संसार में सात प्रकार के भय होते हैं और सभी प्राणी उन भयों से घिरे हुए हैं, इसलिए उन्होंने सात प्रकार की गोलियाँ निकाली होगी, परन्तु सम्यक दृष्टि सात प्रकार के भयों से रहित होता है, इसलिए नि:शंक हुआ करता है, जैसा कि समयसार में आचार्य कुन्दकुन्ददेव ने कहा - सम्मादिट्टि जीवाणिस्संका होंतिणिब्भया। तेण। सत्तभयविण्पमुक्का जम्हा तम्हा दुणिस्संका॥ (समयसार-२४३) सातों भयों से मुक्त हो गये तो फिर गोली की कोई आवश्यकता नहीं रहेगी, और न कोई शस्त्रों की, क्योंकि उसके द्वारा न आत्मा मरता है, न मरा है और न मरेगा। महाराज! फिर जन्म किसका हो रहा है आज ? इसी को तो समझना है, पाँच दिन रखे हैं, जिनमें एक दिन जन्म के लिए भी है। बहुत दिनों की प्रतीक्षा के उपरान्त एक के घर में सन्तान की प्राप्ति हुई, जिस समय जन्म हुआ, उसी समय उधर ज्योतिर्विद् को बुलाकर कह दिया-भैय्या! इसकी कुण्डली बनाकर ले आना और इधर साज-सज्जा के लिए कहा और मिठाई भी बँटने लगी, सब कुछ हो गया। लेकिन दूसरी घड़ी में ही ज्योतिषी कुण्डली बनाकर ले आया, कहता है-संतान की प्राप्ति बहुत प्रतीक्षा के बाद हुई, लेकिन, लेकिन क्यों कह रहे हो? महान् पुण्य के उदय से हुई, फिर लेकिन क्यों ? हाँ-हाँ पुण्य के उदय से हुई थी और लम्बी प्रतीक्षा के बाद हुई, बिल्कुल ठीक है, लेकिन.। लेकिन क्यों लगा रहे हैं?........बात ऐसी है कि पाप और पुण्य दोनों का जोड़ा है, इसलिए हुई थी। भूतकाल है। अब वर्तमान में वह नहीं है, वह मर जाएगी, इतने में ही वहाँ से खबर आ गई कि मृत्यु हो गई। सुनते ही विचार में पड़ गया, बहुत दिनों के उपरान्त एक फल मिला था, वह भी किसी से नहीं देखा गया, उसके ऊपर भी पाला पड़ गया। सुना है कि एक महाराज आए हैं जो बहुत पहुँचे हुए हैं, कहाँ पहुँचे हैं ? पता नहीं, लेकिन उनकी दृष्टि में तो बहुत कुछ हैं, होंगे। वह भागता-भागता गया, उस पुत्र को लेकर कहा-जिस प्रकार इसको दिया, उसी प्रकार दीया (दीपक) के रूप में रखी तो ठीक है, नहीं तो क्या होगा? नहीं-नहीं आप ऐसा नहीं कहिए, आप करुणावान् हैं, दयावान् हैं, मेरे ऊपर कृपादृष्टि रखिये और इसे किसी भी प्रकार बचा दीजिए, क्योंकि आपके माध्यम से बच सकता है-ऐसा सुना है, महाराज बोले मेरी बात मानोगे ? हाँ-हाँ, नियम से मानूँगा, जरूर मानूँगा, उसने सोचा अपने को क्या ? यदि काम करना है तो बात माननी ही पडेगी, महाराज बोले-अच्छा! तो तू कुछ सरसों के दाने ले आ, तेरा बेटा उठ जाएगा, इतना सुनना था कि वह तत्परता से भागने लगा, तभी महाराज ने कहा-इधर आओ, इधर आओ, तुम्हें सरसों के दाने तो लाना है लेकिन साथ में यह भी पूछ लेना कि उसके घर में कभी किसी की मौत तो नहीं हुई ? जिसके यहाँ मौत हुई हो, उसके यहाँ से मत लाना, क्योंकि वह सरसों दवाई का काम नहीं करते।.ठीक है, कहकर वह चला गया, एक जगह जाकर कहता है-भैय्या! मुझे कुछ सरसों के दाने दे दो, जिससे हमारा पुत्र पुन: उठ (जी) जाये, अच्छी बात है, ले लो, ये सरसों के दाने, उसने दे दिए और देते ही वह भागने लगा कि याद आया और पूछा-अरे! यह तो बताओ आपके यहाँ कोई मरा तो नहीं, अभी तो नहीं पर एक साल पहले हमारे काकाजी मरे थे.अच्छा, तब तो ये सरसों नहीं चलेंगे, दूसरे के यहाँ गया, वहाँ पर भी सरसों मांगे और पूछा-सरसों मिल गये और उन्होंने कहा-इन दिनों तो कोई नहीं मरा पर कुछ दिनों पहले हमारे दद्दा (दादा) जी मरे थे, इस प्रकार सुनते ही उसने सरसों लौटा दी, ऐसा करते-करते वह प्रत्येक घर गया, लेकिन एक भी घर ऐसा नहीं मिला जिसमें किसी न किसी का मरण न हुआ हो, जो जन्में थे, वही तो मरे होंगे। इस प्रकार मरण की परम्परा चल रही है, एक और घर में गया और देखा किएक जवान मरा पड़ा है, अभी ही मरा होगा, क्यों उसका शव अभी तक उठाया नहीं गया। उसके घर के लोग, अभी भी हाथ-पैर पटक रहे हैं, रो रहे हैं, चिल्ला रहे हैं। दृश्य देखकर मौन हो गया, भागते-भागते थक चुका था, अत: वहीं खड़े-खड़े कुछ सोचने लगा-किसी का घर ऐसा नहीं मिला जहाँ मरण न हुआ हो, सबके यहाँ कोई न कोई मरण को प्राप्त हुआ है। अर्थात् जिसने भी जन्म लिया है वह अवश्य मरेगा, इससे बचाना किसी के वश की बात नहीं है। उसे औषध मिल गयी, मंत्र मिल गया, सोचा-महाराज वास्तव में पहुँचे हुए हैं।.भागता-भागता उनकी शरण में गया और कहने लगा-महाराज! गलती हो गई ? भैय्या! लाओ सरसों के दाने, मैं अभी उठाये देता हूँ तुम्हारे पुत्र को, .नहीं, महाराज, अब वह नहीं उठ सकता, मुझे बोध हो गया। यह जीवन की लीला है बन्धुओं! मालूम है आपको ? व्याकरण में एक ज्या धातु आती है। उसका अर्थ वयोहानी, होता है। प्रात:काल कहा था कि मरण की क्या परिभाषा है, मरण क्या है ? आयुक्खयेण मरण और जीवन की परिभाषा क्या, जीवन क्या ? उम्र की समाप्ति होना या उम्र की हानि होती चली जाना जीवन है, मतलब यह हुआ कि मरण और जीवन में कोई अन्तर नहीं है मात्र इसके कि मरण में पूर्णत: अभाव हो जाता है और जीवन में क्रमश: प्रत्येक समय हानि होती चली जाती है, हानि किसकी और क्यों ? वय की हानि, वय का अर्थ उम्र या आयुकर्म अर्थात् आयुकर्म की हानि का नाम जीवन है और उसके पूर्णत: अभाव का-क्षय का नाम मरण। हमारे जीवन में मृत्यु के अलावा और किसी का कुछ भी संवेदन, अभाव नहीं हो रहा है। भगवतीआराधना में एक गाथा आयी है, वह मूलाचार, समयसार आदि ग्रन्थों में भी आयी है, जिसमें आवीचिमरण का वर्णन किया है, आवीचिमरण का अर्थ यह है कि पल-पल प्रतिपल पलटन चल रहा है, कोई भी व्यक्ति ज्यों का त्यों बना नहीं रह सकता, कोई अमर नहीं। महाराज! देवों को तो अमर कहते हैं ? वहाँ अमर का मतलब है बहुत दिनों के बाद मरना, इसलिए अमर है, हम लोगों के सामने उनका मरण नहीं होता, इसलिए भी अमर है, किन्तु उन लोगों की दृष्टि में हम मरते रहते हैं अत: मत्र्य माने जाते हैं। रोज का मरना करते हैं हम लोग, रोज मर रहे हैं ? हाँ प्रतिपल मरण प्रारम्भ है, इसी का नाम आवीचिमरण है, मरण की ओर देखा तो मरण और जीवन की ओर देखा तो मरण। अंग्रेजी में एक बहुत अच्छी बात कही जाती है, वह यह है कि-एक दिन का पुराना हो या सौ सालों का, उसे पुराना ही कहते हैं। जैसे-‘हाउ ओल्ड आर यू।” हम ओल्ड का अर्थ पुराना तो लेते हैं परन्तु बहुत साल पुराना लेते हैं, लेकिन नहीं पुरा का अर्थ मतलब एक सेकेण्ड बीतने पर भी पुरा है, अब देखिये पुरा क्या है और अपर क्या है ? एक-एक समय को लेकर चलिये, चलतेचले एक ऐसे बिन्दु पर आ करके टिक जायेंगे आप, यहाँ पर जीवन और मरण, पुरा और अपर एक समय में घटित हो रहे हैं। मैं पूछता हूँ -सोमवार और रविवार के बीच में कितना अन्तर है, आप कहेंगे-महाराज! एक दिन का अन्तर है। लेकिन मैं कहता हूँ कि सोचकर बताइये? इसमें सोचने की क्या बात महाराज! स्पष्ट है कि एक दिन का अन्तर है, अरे! सोचिये तो सही, मैं कह रहा हूँ इसलिये सोचिये तो, फिर भी कहते हैं आप कि एक दिन का अन्तर है तो कितना अंतर है। महाराज! आप ही बताइये? लीजिये, सोमवार कब प्रारम्भ होता है और रविवार कब? रविवार कब समाप्त होता है और सोमवार कब, इस तथ्य को देखिये, तो पता चल जाएगा, आप घडी को ले करके रविवार के दिन बैठ जाइये, क्रमश: एक मिनिट-एक-एक घण्टा बीत रहा है, अब रात आ गयी, रात में भी एक-एक घण्टा बीत रहा है, घण्टों पर घण्टे निकलते चले गये तब कहीं रात्रि के ११ बजे, अब सवा ग्यारह, साढ़े ग्यारह और अभी बारह बजने को कुछ मिनट-कुछ सेकेण्ड ही शेष तब भी रविवार है। आप देख रहे हैं सुई घूम रही है, मात्र एक मिनिट रह गया फिर भी रविवार है, रविवार अभी नहीं छूट रहा है, अब सेकेण्ड के काँटों की ओर आपकी दृष्टि केन्द्रित है एक सेकेण्ड शेष है तब तक रविवार ही देखते रहे और देखते-देखते सोमवार आ गया, पता भी नहीं चला, देखा आपने कि कितने सेकेण्ड का अन्तर है, रविवार और सोमवार में ? यदि आप उस सेकेण्ड के भी आधुनिक आविष्कारों के माध्यम से १० लाख टुकड़े कर दें तो और स्पष्ट हो जाएगा, लेकिन सिद्धान्त कहता है वर्तमान सेकेण्ड में असंख्यात समय हुआ करते हैं, इन असंख्यात समयों में यदि एक समय भी बाकी रहेगा तो उस समय भी रविवार ही रहेगा, इस अन्तर को अन्दर की घड़ी से देखा जा सकता है अर्थात् एक समय ही रविवार और सोमवार को विभाजित करता है। इसी तरह जीवन और मरण का अन्तर है, आपकी दृष्टि में थोड़ा भी अन्तर आया कि देवगुरु-शास्त्रों के बारे में भी अन्तर आ गया, सम्यक दर्शन में भी अन्तर आ गया, इसको पकड़ने के लिए हमारे पास कोई घड़ी नहीं है पर आगम ही एक मात्र प्रमाण है। हे भगवान! मैं कैसा हूँ? मेरे गुणधर्म कैसे हैं ? भगवान् कहते हैं कि मेरे पास कोई शब्द नहीं हैं, जिनके द्वारा स्वरूप बोध करा सकूं, कुछ तो बताइये, आपके आदेश के बिना कैसे दिशा मिलेगी? तो वे कहते हैं कि -‘‘यह दशा तेरी नहीं है' इतना तो मैं कह सकता हूँ परन्तु 'तेरी दशा कैसी है", इसे ना मैं दिखा सकता हूँ और ना ही आपकी आँखों में उसे देखने की योग्यता है। नई आँखें आ नहीं सकती, सबको अपने-अपने चश्में का रंग बदलना होगा, भीतर का अभिप्राय-दृष्टिकोण बदलना होगा, इतना सूक्ष्म तत्व है कि विभाजन करना संभव नहीं, जैसे समय में भेद नहीं, रविवार और सोमवार के बीच में इतनी मेहनत के बाद भी अन्तर विभाजन करना संभव नहीं, पूरे के पूरे आविष्कार समाप्त हो गये, फिर भी कब रविवार समाप्त हुआ और कब सोमवार आ गया, यह बता नहीं सके, संभव है वह सन्धि आपकी घड़ी में स्पष्ट ना हो, लेकिन आचार्य कहते हैं कि-केवलज्ञान के द्वारा हम इसे साफ-साफ देख सकते हैं और श्रुतज्ञान के द्वारा इसे सहज ही प्रमाण मान सकते हैं। देव-गुरु-शास्त्र के ऊपर श्रद्धान करिये, ऐसा मजबूत श्रद्धान करिये, जिसमें थोड़ी भी कमी न रहे, ऐसा श्रद्धान ही कार्यकारी होगा, सिद्धान्त के अनुरूप श्रद्धान बनाओ, तत्व को उलट-पलट कर श्रद्धान नहीं करना है, हमें अपने भावों को सिद्धान्त/तत्व के अनुसार पलटकर लाना है। जैसे रेडियो में सुई के अनुसार स्टेशन नहीं लगती बल्कि स्टेशन के नम्बर के अनुसार सुई को घुमाने पर ही विविधभारती आदि स्टेशन लगती है, एक बाल मात्र का भी अन्तर हो गया-सुई इधर की उधर हो गयी तो सीलोन लग जाएगी, अब संगीत का मजा नहीं आयेगा, यही स्थिति भीतरी ज्ञानतत्वज्ञान की भी है। कभी-कभी हवा (परिणामों के तीव्र वेग) के द्वारा यहाँ की सुई इधर से उधर की ओर खिसक जाती है तो डबल स्टेशन चालू हो जाते हैं, किसको सुनोगे, किसको कैसे समझोगे? तत्व बहुत सूक्ष्म है, वस्तु का परिणमन बहुत सूक्ष्म है, उसे पकड़ नहीं सकते। जन्म-जरा-मृत्यु, ये सभी आत्मा की बाहरी दशायें हैं, अनन्तकाल से यह संसारी प्राणी आयुकर्म के पीछे लगा हुआ है, अन्य कर्म तो उलट-पलटकर अभाव को प्राप्त हो जाते हैं, परन्तु आयुकर्म का उदय एक सेकेण्ड के सहस्रांश के लिए भी अभाव को प्राप्त नहीं हुआ, यदि एक बार अभाव को प्राप्त हो जाए तो मुक्त हो जाये, दुबारा होने का फिर सवाल ही नहीं, आयुकर्म प्राण है, जो चौदहवें गुणस्थान तक माना जाता है, वह जब तक रहता है तब तक जीव संसारी माना जाता है, मुक्त नहीं माना जा सकता। जन्म क्या है, मृत्यु क्या है ? इसको समझने का प्रयास करिये, ये दोनों ही ऊपरी घटनाएँ हैं, जाने-आने की बात नयी नहीं है, बहुत पुरानी है, संसार में कोई भी नया प्रकरण नहीं है, अनेकों बार उलटन-पलटन हो गया। क्षेत्र, स्पर्शन के भंग लगाने पर तीन लोक में सर्वत्र उलटन-पलटन चल रहा है। अनन्तकाल से कस्सम-कस चल रहा है, जिस प्रकार से चूने में पानी डालने से रासायनिक प्रक्रिया होती है। उसी प्रकार जीव और पुद्गल, इन दोनों का नृत्य हो रहा है, इसे आँख बन्द कर देखिए, बहुत अच्छा लगेगा, परन्तु आँख खोलकर देखने से मोह पैदा होगा, राग पैदा होगा। जो व्यक्ति इस शरीर को, पर्याय को लेकर अपनी उत्पत्ति मान लेता है तो उसे आचार्य कुन्दकुन्ददेव सम्बोधित करते हैं कि-तू पर्याय बुद्धिवाला बनता जा रहा है, परिवर्तन-परिणमन तो आत्मा में निरन्तर हो रहा है। क्षेत्र में भी हो रहा है। इस क्षेत्र में लाया गया, वहाँ अपना डेरा जमाया, नोकर्म के माध्यम से इसे जन्म मिला, इसमें मात्र पर्याय का परिवर्तन है, वह भी कर्मकृत पर्याय का परिवर्तन, उपयोग का नहीं, आत्मा का जो लक्षण पहले था अब भी है, आगे भी रहेगा। जो व्यक्ति इस प्रकार के जन्म से, जन्म-जयन्ती से हर्ष का-उल्लास का अनुभव करता है, उसे जन्म से बहुत प्रेम है, जबकि भगवान ने कहा है कि जन्म से प्रेम नहीं करिये, यह दोष है, महादोष है, इससे मुक्त हुए बिना भगवत् पद की उपलब्धि नहीं होगी, यदि आप जन्म को अच्छा मानते हैं, चाहते हैं तो जन्म जयन्ती मनाइये। यदि ऐसा कहते हैं कि भगवान की क्यों मनाई जाती है? तो ध्यान रखिये-उनकी जन्म जयन्ती इसलिए मनाई जाती है कि वह तीर्थकर होने वाले हैं, असंख्यात जीवों के कल्याण का दायित्व इनके पास है, इसकी साक्षी के लिए - इसे स्पष्ट करने के लिए इन्द्र जो कि सम्यक दृष्टि होता है, आता है और जन्मोत्सव मनाता है। आज पंचमकाल में जो जन्म लेता है वह मिथ्यादर्शन के साथ जन्म लेता है, इससे जन्मोत्सव मनाना यानि मिथ्यादर्शन का समर्थन करना है, पर्यायबुद्धि का समर्थन है, इसलिए ऐसा न करें, सम्यक दृष्टि तो भरत और ऐरावत क्षेत्र में पंचमकाल में आते ही नहीं, वे वहाँ जाते हैं जहाँ से मोक्षमार्ग का-निर्वाण का मार्ग खुला है,पुण्यात्माओं का जन्म यहाँ नहीं होता, यहाँ जन्म लेने वाले मिथ्यादर्शन-मिथ्याज्ञान-मिथ्याचारित्र के साथ ही आते हैं और उनकी जन्म-जयन्ती मनाना मिथ्यादर्शन-मिथ्याज्ञान-मिथ्याचारित्र की ही जयन्ती है इसमें सम्यक दर्शन की कोई बात नहीं, सम्यक दर्शन के लिए कम से कम आठ वर्ष लगते हैं, इससे पूर्व सम्यक दर्शन होने की कोई गुंजाइश भी नहीं होती और उस समय मिथ्याचारित्र ही होता है, जबकि जैनागम में सम्यक्र चारित्र को ही पूज्य कहा गया है, इसके अभाव में तीन काल में भी पूज्यता नहीं आ सकती, ध्यान रखिये बन्धुओ! मिथ्यादृष्टि की जयन्ती मनाना, मिथ्यादर्शन एवं मिथ्याचारित्र का पूज्यत्व स्वीकार करना है, जो कि संसार परिभ्रमण का ही कारण है, यदि हमें संसार से मुत होना है तो कुछ प्रयास करना होगा और वह प्रयास आजकल की जन्म-जयन्तियों के मनाने में सफल नहीं होगा, बल्कि उनकी दीक्षा तिथि अथवा संयमग्रहण दिवस जैसे महान् कार्य के स्मरण से ही हमारी गति, उस ओर होगी जिस ओर हमारा लक्ष्य है। सभी प्राणी लक्ष्य को पाना चाहते हैं, अत: उन्हें यह ध्यान रखना होगा, यह प्रयास करना होगा कि वे मिथ्यादर्शन, मिथ्याज्ञान एवं मिथ्याचारित्र का पालन एवं समर्थन न कर सम्यक दर्शन, सम्यक ज्ञान एवं सम्यक्र चारित्र की ओर बढ़ें, जो कि आत्मा का धर्म है एवं शाश्वत सुख (मोक्षसुख) को देने वाला है।
  16. संसारी प्राणी जन्म को अच्छा मानता है और मरण को बुरा। इसलिए हम पहले मरण को समझ लें, जन्म के बारे में मध्याह्न में समझना अच्छा होगा, अभी का जो समय है उसमें पहले मरण को समझ लेते हैं फिर उसके उपरान्त स्वाध्याय और दान के विषय में भी कुछ समझने का प्रयास करेंगे। पहले तो, मरण किसका होता है ? मरण क्या वस्तु है ? मरण क्यों अनिवार्य है और मरण का जीवन के साथ क्या सम्बन्ध है ? इसको समझ लें, संसार में ऐसा कोई भी प्राणी नहीं है जो मरण से न डरता हो, जबकि मरण एक अनिवार्य घटना है। फिर डरना क्यों ? जहाँ जीवन भी एक अनिवार्य घटना और मरण भी तो एक पहलू से प्रेम और एक पहलू को देख करके क्षोभ क्यों ? इसमें क्या रहस्य है ? अज्ञान! अज्ञान के कारण ही संसारी प्राणी मृत्यु को नहीं चाहता और मृत्यु से बच भी नहीं पाता, अभी-अभी यहाँ जन्म महोत्सव मनाया जा रहा था। लेकिन जहाँ से निकल करके आ रहा है, वहाँ पर मरणकृत शोक छाया होगा, यह मात्र अज्ञान के खेल हैं। तो मरण क्या है? मरण, जीवन के अभाव का नाम है, जैसे दीपक जल रहा है। वायु का एक झोका आ जाता है तो दीपक बुझने लगता है, भले ही उसमें तेल और बाती भी अभी जमाई हो, तब भी वह बुझ जाता है, इसी प्रकार आयुकर्म का क्षय होना अनिवार्य है, जब आयुकर्म का क्षय होना अनिवार्य है तो हम इसे समझ लें कि आयु क्या ? आयु एक प्राण है। दश प्राण होते हैं उनमें से एक आयु भी है "दशप्राणौजीवति इति जीव:" दश प्राण इसलिए कह रहा हूँ कि यहाँ पर मनुष्य की विवक्षा रखी गई है। अर्थात् जो दश प्राणों से जीता था वह जीव है, जो अब भी जी रहा है वह जीव है तथा जो आगे भी जियेगा, वह जीव है। "अजीवत् जीवति जीविष्यति इति वा जीवा: प्राणिन:।" इन प्राणों का अभाव होना ही मरण है, आयु का अभाव होना ही मरण है। आयुकर्म का क्षय होना ही मृत्यु है। संसारी प्राणी मरण से भयभीत है, अत: समझ सके कि वह घटना क्या है ? आयु का क्षय -अभाव क्यों आता है ? जिस अभाव को वह नहीं चाहता तो वह क्यों होता है ? जो हम चाहते हैं वह क्यों नहीं होता ? अनचाहा होता है तो उसके ऊपर हमारा अधिकार क्यों नहीं ? सन्तों का कहना है, हमें उस ओर नहीं देखना है जहाँ सूर्य का प्रवास चलता है, यात्रा चलती है अविरल रूप से १२ घण्टे, वह चलती ही रहती है, कभी रुकती नहीं यह नियम है, कभी किसी को पीछे मुड़कर देखता नहीं और ना ही किसी की प्रतीक्षा करता है सूर्य, उसका यह कार्य है। लोग इसे पसंद करें, ठीक, नहीं करे, तो भी ठीक। वह चलता ही रहता है। इसी प्रकार आयुकर्म का खेल है, वह निरन्तर क्षय को प्राप्त होता रहता है। आयुकर्म क्या है ? आयु, आठ कर्मों में एक कर्म है, जिसका सम्बन्ध काल के साथ है लेकिन वह काल नहीं है। हमारा सम्बन्ध कर्म के साथ हुआ, न कि काल के साथ। हाँ! कर्म का सम्बन्ध कितने काल तक रहेगा, उसमें कितनी शक्ति है, कितने-किस प्रकार के उसमें परिवर्तन हो सकते हैं और कब, यह सब काल के माध्यम से जानते हैं। "आयु" कहते ही हमारी दृष्टि काल की ओर चली जाती है, लेकिन यह ठीक नहीं, क्योंकि दृष्टि से ही सृष्टि का निर्माण हुआ करता है। जिसके साथ आपका सम्बन्ध है उसी को देखिये। काल कोई वस्तु नहीं है। मैंने कल कहा भी था कि चेतनाएँ तीन होती हैं, कर्मचेतना, कर्मफलचेतना और ज्ञानचेतना। जीव का सम्बन्ध इन चेतनाओं के साथ हुआ करता है, अनुभव के साथ हुआ करता है, अन्य कोई चौथी काल चेतना नहीं है, अत: काल के साथ जीव का कोई भी सीधा सम्बन्ध नहीं है। यह बात अलग है कि काल, कर्म को नापने का माध्यम है। जैसे-ज्वर को थर्मामीटर के माध्यम से नापा जाता है, ज्वर आते ही थर्मामीटर की याद आती है और उसको भिन्न-भिन्न अंगों पर लगाकर देख लिया जाता है, ज्वर थर्मामीटर को नहीं आता अर्थात् थर्मामीटर ज्वरग्रस्त नहीं होता, मात्र वह बता देता है। ज्वर तो हमारे अंदर ही है, ज्वर, थर्मामीटर के अनुरूप भी नहीं आता, क्योंकि एक तो बुखार आने के उपरान्त ही उसका प्रयोग किया जाता है, आवश्यकता पड़ती है। दूसरी, पहले तो थर्मामीटर नहीं थे, मात्र नाड़ी के माध्यम से जान लेते थे। आज थर्मामीटर भी ९४ के नीचे काम नहीं करता और १०७-१०८ के ऊपर भी नहीं, कितनी गर्मी है, पता नहीं चलता। एक हड़ी का बुखार हुआ करता है, वह थर्मामीटर में आता ही नहीं, फिर भी ज्ञान का विषय तो बनता ही है। अर्थ यह हुआ थर्मामीटर होने से बुखार नहीं आता, वह तो मात्रा नापने में एक यंत्र का काम करता है। उस यंत्र में हम नहीं घुसें और न उसके बारे में ज्यादा सोचें, सिर्फ इतना कि बुखार कितना आया? कब तक रहेगा ? जायेगा कि नहीं ? इसके उपरान्त इलाज प्रारम्भ हो जाना चाहिए। इसी तरह आयु कहते ही हमारे दिमाग में काल की चिन्ता नहीं होनी चाहिए ? कि अब कितना काल रह गया, क्या पता ? काल रहता नहीं, काल टिकता नहीं, काल जाता नहीं, काल तो अपने-आप में है, फिर क्या वस्तु है काल ? इसको हम आगम के माध्यम से या अनुमान के माध्यम से जान सकते हैं। भगवान की वाणी द्वारा जो उपदिष्ट हुआ है उस पर श्रद्धान कर समझ सकते हैं। काल कोई जानकार वस्तु नहीं है, जो हमें जान सके, हम ही उसे जानने की क्षमता रखते हैं लेकिन वर्तमान में नहीं है, यह बात अलग है। वह केवल श्रद्धान का विषय है। भगवान ने जो कहा, उसको हम मानते चले जाते हैं। काल के माध्यम से अपने-आपको आँक सकते हैं। काल हमारे परिणमन का ज्ञापक है और इन परिणमनों के लिए सहायक काल है, काल निष्क्रिय है, उसके पास पैर नहीं, हाथ नहीं, ज्ञान नहीं। उसके पास अपना अस्तित्व है, अपना गुण-धर्म और अपना स्वभाव है। इस काल के बिना आयुकर्म क्या करता है ? नियम से अपने परिणामों के अनुरूप परिणमन करता चला जाता है। उसकी कई अवस्थाएँ हुआ करती हैं, जिनका उल्लेख श्रीधवल, श्रीजयधवल एवं महाबन्ध में किया है। 'आयुक्खयेण मरणं' (समयसार-२४८) जैसे दीपक के तेल और बाती का समाप्त होना उसकी मृत्यु है, अवसान है। उसी प्रकार संसारी प्राणी के घट में भरा हुआ आयुकर्म समाप्त हो जाना, फिर चाहे वह मोटा-ताजा हो, हृष्टपुष्ट हो या पहलवान भी क्यों न हो, बाहर से बिल्कुल लाल-सुख टमाटर के समान दिखने वाला हो, उसका भी अवसान बहुत जल्दी हो जाता है, क्योंकि भीतर आयुकर्म समाप्त हो गया। एक व्यक्ति ने कहा था-महाराज जी ! आजकल तो जमाना पलट रहा है। वैज्ञानिक, वस्तु की स्थायी सुरक्षा का प्रबन्ध करने जा रहे हैं, बस चन्द दिनों में उस पर कन्ट्रोल कर लेंगे, कोई भी वस्तु को मिटने नहीं देंगे, यदि मिटती भी है तो समय-पूर्व नहीं मिट सकती। जैसे शास्त्रों में जहाँ कहीं भी मर्यादा सम्बन्धी व्यवस्था की गई है कि आटे की सीमा गर्मी में पाँच दिन, ठण्ड में सात दिन और वर्षा में तीन दिन, लेकिन अब एक ऐसा यंत्र विकसित हो गया है, (बन गया है) कि उसमें आटा रखने से उम्र ज्यादा पाता है, उसकी सीमा अधिक दिन तक की हो जाती है तथा आज जो वेमौसमी फल वगैरह मिल रहे हैं, वह सभी उसी की देन है। अब दीपावली में भी आम खा सकते हैं, आमतौर पर दीपावली में आम नहीं आ सकते, लेकिन फ्रिज में रख करके बे-मौसम के खाने के काम आते हैं, बात बिल्कुल ठीक है कि आप एक फल जो कि पेड़ से तोड़ा गया है, रेफ्रिजरेटर में रख दीजिए, लेकिन उसके अन्दर भी काल विद्यमान रहता है और वह परिणमन करने में सहायक होता है, क्योंकि परिणमन करना वस्तु का स्वभाव है। 'वर्तनापरिणामक्रियापरत्वापरत्वे च कालस्य' (तत्त्वार्थसूत्र–५/२२) कालद्रव्य का माध्यम बना करके प्रत्येक वस्तु का परिणमन निरन्तर चलता रहता है। यदि उस आम को ८-१० दिन के बाद, जब निकाल कर खायेंगे, तब रूप में, गन्ध में, रस में, वर्ण में और स्पर्श में नियम से अन्तर मिलेगा। यह बात अलग है कि इन्द्रियों के 'अण्डर' में हुआ व्यक्ति उस रस के, रूप के और गन्ध के बारे में पहचान न कर पाये, लेकिन उनमें परिवर्तन तो प्रति समय होता जा रहा है, यही आम का मरण है। रूप का, रस का, गन्ध का, स्पर्श का और वर्ण का मरण है। प्रत्येक का मरण है। ध्यान रखिए! मात्र मरण का कभी भी मरण नहीं होता। कोई अजर-अमर है तो वह मरण ही है। कोई नश्वर है तो वह जीवन है। आयुही जीवन है और उसका क्षय होना नश्वरता है, मरण है। कर्मों का क्षय करना है लेकिन, सुनिये! आयुकर्म को छोड़कर शेष सात कर्मों की निर्जरा बताई गयी है आगम में। कर्म मात्र हमारे लिए बैरी नहीं। 'आठ कमाँ की निर्जरा करो', ऐसा व्याख्यान करने वाला अभी भूल में है। जिनवाणी में आठ कर्मों की निर्जरा के लिए नहीं, किन्तु सात कर्मों की निर्जरा को लिखा है, आयुकर्म की निर्जरा नहीं की जाती है, जो आयुकर्म की निर्जरा में उद्यमशील है उसे हिंसक यह संज्ञा दी गई है। जो आयुकर्म को नष्ट करने के लिये उद्यत है, कि "किसी भी प्रकार से जल्दी-जल्दी जीवन समाप्त हो जाए" इस प्रकार की धारणा वाला व्यक्ति, ना जीवन का रहस्य समझ पा रहा है, ना मृत्यु का। कर्म-सिद्धान्त के रहस्य को समझने के लिए, अध्ययन करने के लिए, यदि एक प्रतिभासम्पन्न व्यक्ति भी जीवन खपा दे, तो भी मैं समझता हूँ अधूरा ही रहेगा, फिर १० दिन के शिविरों में कर्म के सम्बन्ध में कुछ भी नहीं समझ पायेंगे। कर्म के भेद-प्रभेद, उनके गुण-धर्म आदि-आदि बहुत विस्तार है, कहने को मात्र १४८ कर्म है, लेकिन उनके भी असंख्यात लोकप्रमाण भेद हैं, इनका सम्बन्ध हमारी आत्मा के साथ है, इनका फल भी आत्मा को भोगना होता है और इनके करने का श्रेय भी आत्मा को है, अत: कर्ता-भोक्ता दोनों आत्मा ही है। अपने भावों का कर्ता होते हुए भी, कर्मों का कर्ता कैसे बना ? अपना परिणमन करता हुआ अन्य भावों को पैदा करने में योगदान कैसे देता है? इस सबका हिसाब-किताब बहुत गूढ़ है अत: इनके रहस्य को समझे। आयुकर्म हमारे लिए प्राण है, प्राण-मतलब जिसके माध्यम से हमारा वर्तमान जीवन चल रहा है। वह पेट्रोलियम का काम करता है। आपको सम्मेदशिखरजी की यात्रा करनी है, आपने एक मोटर की, उसमें एक पेट्रोल टैंक भी रहता है, वह क्या करता है ? वह मोटर को चलाता है और यात्री ऐशोआराम के साथ यात्रा सम्पन्न कर लेता है, अब यदि पेट्रोल टैंक फट जाय तो क्या होगा? गाड़ी तो बहुत बढ़िया है, ब्रेक भी ठीक है, ड्राइवर भी ठीक है-शराब भी पीकर के नहीं बैठा, आराम के साथ-यंत्र देख-देखकर वह गाड़ी को चला रहा है, फिर भी पेट्रोल समाप्त हो जाने से आगे नहीं चलेगी वह, आप भी नहीं जा सकेंगे, मतलब पेट्रोल समाप्त गाड़ी बन्द, यात्रा समाप्त। पेट्रोल क्या है ? यही तो उस गाड़ी का आयुकर्म है। आयुकर्म के बारे में बहुत समझना है, बहुत शान्ति से समझना है। उसकी उदीरणा अपकर्षण-उत्कर्षण आदि-आदि जो भंग/करण हैं वह बहुत कुछ सोचने के विषय हैं, चिन्तनीय हैं। जीवन तो आप चाहते हैं, लेकिन जीवन की सामग्री के बारे में आप सोचते ही नहीं है, इसी से आपका पतन हो रहा है, मंजिल तक नहीं पहुँच पा रहे हैं, कामना पूर्ण नहीं हो पा रही है, आयुकर्म आत्मा के साथ बन्ध को प्राप्त होता है तो भावों के द्वारा ही स्थितियाँ और अनुभाग के साथ वर्गणाएँ कर्म के रूप में परिणत होकर आ जाती है, ऐसा पेट्रोलियम आपके साथ विद्यमान है तो जो काल के ऊपर आधारित नहीं, किन्तु अपना परिणमन वह पृथक् रखता है। जैसे दो कैरोसिन की गैसबती हैं, वे तेल के माध्यम से जलती हैं, रात में आपको कुछ काम करना था। अत: दुकान से किराये पर ले आये, दुकानदार से पूछा-यह कब तक काम देंगी ? १२ घण्टे तक। अच्छी बात है। अब उन्हें लाकर काम चालू कर दिया, दिन डूबते ही आपने बत्तियाँ जला दीं, लेकिन चार घण्टे के उपरान्त एक बन्द हो गयी, बुझ गई, तो वह दूसरी के सहारे काम करता रहा, रात के बारह बजे तक, सुबह जाकर दुकानदार को कहा-मैं तो एक गैसबत्ती का किराया दूँगा एक का नहीं। क्यों भैय्या क्या बात है ? एक बत्ती ने काम नहीं दिया, हो सकता है आपने इस गैसबती में कैरोसिन कम डाला हो। मालिक ने कहा-नहीं जी, ऐसी बात नहीं है, मैंने नापतौल कर तेल और हवा भर दी थी, फिर इसने काम नहीं किया तो उसमें कुछ गड़बड़ी होनी चाहिए। उसने देखा कि एक सुराख हो गया है तेल टैंक में, यानि बर्नर के माध्यम से जो तेल जाता था, वह तो प्रकाश के लिए कारण बनता है किन्तु जो एक छिद्र हो गया है वह बिना प्रकाश दिये कैरोसिन को निकाल देता है, इसलिए वह चार घण्टे में समाप्त हो गया, जिसे ८ घण्टे और चलना तो वह पहले ही समाप्त हो गया। हम पूछना चाहते हैं कि क्या तेल १२ घण्टे के लिए डाला गया था या चार घण्टे के लिये ? तेल तो १२ घण्टे का डाला, किन्तु छिद्र होने से बीच में ही समाप्त हो गया, अपनी सीमा तक नहीं पहुँच सका। इसी प्रकार आयुकर्म है, वह अपनी स्थिति को ले करके बँधता है लेकिन बीच में उदीरणा से स्थिति पूर्ण किए बिना ही समाप्त हो जाता है, इसमें कर्मों का कोई दोष नहीं, कर्मों का आधारभूत जो नोकर्म शरीर रूपी गैसबत्ती उसकी खराबी है, इसकी खराबी का कारण भीतरी कर्मों को दोष नहीं देना चाहिए, कर्म जिस समय बंध को प्राप्त होता है तो चार प्रकार से बंध हुआ करता है-प्रकृति, प्रदेश, स्थिति और अनुभाग। प्रकृतिबन्ध-स्वभाव को इंगित करता है। प्रदेशबन्ध-कर्मवर्गणाओं की गणना करता है। स्थिति बंध काल को बताता है कि इतने समय तक यहाँ रहूँगा जबकि काल द्रव्य से उसका कोई सम्बन्ध नहीं, मात्र अपनी क्षमता को काल के माध्यम से घोषित कर रहा है और अनुभाग बंध अपने परिणामों को बताने वाला होता है। यह चार प्रकार के बंध एक ही समय में हुआ करते हैं, ऐसा नहीं है कि पहले प्रकृति बंध हो फिर प्रदेश बंध या पहले स्थिति बंध फिर अनुभाग बंध। पहले कुछ प्रदेश आ जाएँ, फिर शेष तीन प्रकार का बंध हो, ऐसा भी नहीं। जिस समय लेश्या कृत मध्यम परिणाम होते हैं, वह समय आयुकर्म के बंध के योग्य माना गया है, ना कि अन्य परिणामों का। अब समझ लीजिए-किसी ने ८० साल की आयु की स्थिति प्राप्त की अर्थात् ८० वर्ष तक, वह कर्म टिकेगा, इससे आगे नहीं, लेकिन यदि बंध के बाद परिणामों में विशुद्धि आ गई तो स्थिति बढ़ जाने को उत्कर्षण कहते हैं और यदि परिणामों में अध:पतन (अवपतन/संक्लेश) हो गया तो स्थिति और घट गई, वह अपकर्षण है। ये दोनों ही करण अगली आयुकर्म की अपेक्षा से इस जीवन में बन सकते हैं, जिसका उदय चल रहा है। जैसे-मनुष्यायु, तो इसमें ना उत्कर्षण संभव है ना अपकर्षण। इसमें तो उदीरणा संभव है, जितने भी निषेक, कर्मवर्गणाएँ हमें प्राप्त हो गई हैं, उनका समय से पूर्व अभाव अर्थात् उदीरणा संभव है, इसी का नाम आचार्यों ने श्री धवल में कदलीघातमरण कहा है। कदलीघातमरण यानि केले का पेड़ जो बिना मौत के मार दिया जाता है, क्योंकि वह ज्यों ही फल दे देता है, त्यों ही किसान लोग उसे काट देते हैं, कारण कि उसमें दुबारा फल नहीं आता, इसलिए ताजा रहते हुए भी उसको समाप्त कर देते हैं। इसी प्रकार बाहरी निमित्त को लेकर आयुकर्म की उदीरणा होती है। आयुकर्म की स्थिति और मरण का काल, ये दोनों ही समान अधिकरण में नहीं होते हैं। अर्थ यह हुआ कि स्थिति को पूरा किए बिना ही वे सारे के सारे कर्म बिखर जाते हैं। कर्म-कार्मण शरीर का आधार होता है और कार्मण शरीर-नोकर्म का। ज्यों ही नोकर्म समाप्त हो गया, त्यों ही कार्मण शरीर की गति प्रारम्भ हो जाती है। एक आयुकर्म का अवसान हो जाता है पूरी स्थिति किये बिना ही। वीरसेन स्वामी का कहना है यदि जिसकी २५ वर्ष की उम्र में मृत्यु हो गई तो उसकी उम्र २५ वर्ष की ही थी, ऐसा जो कहता है वह एक प्रकार से कर्म-सिद्धान्त का ज्ञान नहीं रखता। उन्होंने कहा है कि आयुकर्म का क्षय और उसकी स्थिति का पूर्ण होना एक समयवर्ती नहीं है। अर्थात् उस व्यक्ति की उम्र अभी भी ५५ वर्ष शेष थी, जिसको पूर्ण किये बिना ही उदीरणा के द्वारा अकालमरण को प्राप्त कर लेता है। अकालमरण का मतलब यह कदापि नहीं है, कि वहाँ पर कोई काल नहीं था। अकालमरण का अर्थ वही है, जो कदलीघातमरण का और जो स्थिति को पूर्ण कर मरता है वह सकालमरण का अर्थ है। इस अकालमरण की अपेक्षा या उदीरणा मरण की अपेक्षा से भी भगवान के ज्ञान में विशेषता झलकती है। वह क्या विशेषता है ? भगवान ने मृत्यु को देखा और साथ-साथ उसको अकालमरण के द्वारा देखा। अकालमरण का अर्थ ऐसा नहीं लेना चाहिए, जैसा कि कुछ लोग लेते हैं, वे डर की वजह से अकालमरण को ही अमान्य कर देना चाहते हैं, लेकिन ऐसा संभव नहीं है। दुनिया में एक ऐसी भी मान्यता है कि आयुकर्म तो रहा आवे और शरीर छूट जावे, तो उसे प्रेत योनि में जाना पड़ता है और जब तक आयु पूर्ण नहीं हो जाती तब तक उसे वहीं भटकना पड़ता है। (जैसे कि आप लोग राकेट को पेट्रोल भरकर भेज देते हैं ऊपर, तो भटकता रहता है-घूमता रहता है वह)। अत: उसका श्राद्ध करो, उसकी शान्ति करो, आदि-आदि कार्य करते हैं, नहीं तो सिर पर आ जाएगा। जैसे स्काइलेव के द्वारा आप लोग डर रहे थे। उसी प्रकार वे भी डरते रहते हैं कि हमारे ऊपर वह भूत सवार न हो जाये। लेकिन कुन्दकुन्द भगवान ने कहा है 'आयुक्खयेण मरण' अर्थात् आयुकर्म के निषेक रहे आवें और मृत्यु हो जाए, यह संभव ही नहीं तथा आयुकर्म समाप्त हो जावे और जीवन रहा आवे, यह भी संभव नहीं। इसका अर्थ यह भी नहीं है, जितना समय निकल गया, उतने ही निषेक थे, लेकिन ऐसा संभव कदापि नहीं कि स्थितिबन्ध तो ८० वर्ष का था और २५ साल में ही जिसका अभाव हो गया-कदलीघातमरण हो गया और भी कम में हो सकता है तो उतनी ही उम्र थी, ऐसा नहीं समझना चाहिए, उसकी क्षमता अधिक होती है। इसको एक अन्य उदाहरण से समझ लीजिए - किसी एक व्यक्ति को नौकरी मिल गयी, कोई भी विभाग में, इस विभाग में नौकरी तो मिल गई-बहुत अच्छा काम मिला, लेकिन कब तक रह सकता हूँ ? ५० वर्ष तक तुम रह सकते हो, अच्छी बात है इसके बाद कुछ और भी बातें लिखाई गई और कह दिया गया कि इन शर्तों के अनुसार आप ५० वर्ष तक नौकरी कर सकते हैं, वेतन भी इतना-इतना मिलेगा, सब तय हो गया। एक दिन उसी कर्मचारी ने बदमाशी की, तो उन्होंने निकाल दिया, सस्पेण्ड कर दिया, अब वह कहता है कि हम तो हाईकोर्ट में नालिश करेंगे, आपने कहा था कि ५० वर्ष तक काम कर सकते हैं, फिर बीच में क्यों निकाला ? यह कहाँ का न्याय है ? उन्होंने कहा-हमने यह कहा था कि, हमारे जो कानून हैं उनके अनुसार चलोगे तो ५० वर्ष तक काम देंगे, इसका मतलब यह नहीं कि तुम यद्वा तद्वा करो, ‘कुर्सी' के ऊपर बैठ जाओ और ऊँघते रहो, काम कुछ भी न करो, मात्र वेतन के लिए हाजिरी लगा दो यह कैसे चलेगा, कानून भंग होते ही बीच में काम से हाथ धोना पड़ सकता है। यदि सज्जन है तो बात ही अलग है। इसी प्रकार आयुकर्म बंधने के उपरान्त कुछ ऐसी स्थितियाँ भी आती हैं, जिनमें स्थिति को पूर्ण किए बिना ही मृत्यु को प्राप्त कर सकते हैं और नहीं भी। इस रहस्य को समझना है कि क्या मृत्यु को हम बचा सकते हैं ? प्रश्न बहुत ही विचारणीय है, तेज है, समस्याप्रद है, क्योंकि हम जानते हैं कि आयुकर्म को टाला नहीं जा सकता, रोका नहीं जा सकता, परिणाम कितना है? गिना नहीं जा सकता, फिर कैसे इसकी रक्षा करें, मृत्यु से बचें ? इसी के द्वारा जीवन चल रहा है। आचार्यों ने इसके विषय में उलझन न करके सुलझी-सी बात कही है कि कर्म के ऊपर तुम्हारा कोई अधिकार नहीं, स्वयं का भी अधिकार नहीं है, तब अन्य का क्या? कौन-सा कर्म कब और किस रूप में उदय में आ रहा है, आ जाए, इसको हम नहीं जान सकते। कोई भी रसायन ऐसा नहीं है कि जो कर्मों को रोक सके, दबा सके, वे तो अपने आप अबाधित गति से निकल रहे हैं। तब आचार्यों ने कहा कि-आयुकर्म की रक्षा तो कर नहीं सकते, लेकिन आयुकर्म की जो उदीरणा हो रही है, उसे रोक सकते हैं, उस उदीरणा के स्रोत कौन-कौन से हैं तो कहा है-भयानक रोग के माध्यम से, भुखमरी से, श्वांस के सैंध जाने से, शस्त्र के प्रहार से, अति संक्लेश-परिणामों से तथा विषादिक के भक्षण से, ऐसे अनेक कारण हो सकते हैं। आचार्य कुन्दकुन्ददेव ने अष्टपाहुड में अकालमरण के निमित्तों को लेकर एक तालिका ही दे दी है। उन जैसा विश्लेषण अन्यत्र नहीं मिलता। उन्होंने एक बात बहुत मार्के की कही है कि अनीति नाम के हेतु से भी यह संसारी प्राणी अतीतकाल में अनन्तबार अकालमरण का कवल (ग्रास) बन चुका है। आज के इस जमाने को देखने से ऐसा लगता है कि अनीति पर कोई भी रोक-टोक नहीं है। 'अन्धेर नगरी चौपट राजा, टके सेर भाजी टके सेर खाजा' आज कोई व्यक्ति कन्ट्रोल में नहीं है। लोकतन्त्र का जमाना और उसमें भी अनीति का बोलबाला है। अनीति राज्य कर रही है हमारे जीवन पर, फिर भी हम सम्यक दर्शन की चर्चा कर रहे हैं। आचार्य समन्तभद्र स्वामी ने कहा है कि - जिस व्यक्ति के जीवन में बहुत आरम्भ और बहुत परिग्रह के प्रति भीतर से पीड़ा नहीं, उस व्यक्ति को सम्यक दर्शन की भूमिका का सवाल भी नहीं उठता। आचार्य समन्तभद्र ही नहीं और भी कई आचार्य हुए हैं, जिन्होंने अनीति का खुलकर निषेध किया है। आज जो यद्वा-तद्वा व्यापार कर रहा है, घूसखोरी दे करके या और भी कुछ देकर, देने को तैयार है, नेता बनने का प्रयास कर रहा है, उसका सर्वप्रथम निषेध जैनाचार्यों ने किया है। उन्होंने कहा है- 'न्यायोपान्तधन'। न्याय के साथ जो धन कमाया जाता है वही आगे जा करके धर्म-साधन में सहायक होगा। अन्याय के साथ जो धन कमाता है वह तीनकाल में भी मुमुक्षु नहीं बन सकता। उसकी बुभुक्षु-पिपासा इतनी कि वह तीनकाल में भी अपने जीवन को सम्हाल सके, असंभव है। फिर सम्यक दर्शन कोई आसान चीज नहीं है, सम्यग्ज्ञान कोई आसान नहीं है, सम्यक्रचारित्र तो और भी लम्बी-चौड़ी बात है। सम्यक दृष्टि का भी चारित्र होता है। आचार्य कुन्दकुन्ददेव ने सम्यक्त्वाचरण चारित्र की परिभाषा बताते हुए अष्टपाहुड में कहा है-जिस व्यक्ति के जीवन में शासन के प्रति प्रेम नहीं अर्थात् जिनशासन के प्रति गौरव नहीं, उसके जीवन में प्रभावना होना तीनकाल में संभव नहीं। आज हम देख रहे हैं, जैनियों के यहाँ भी ऐसे-ऐसे कार्य होते चले जा रहे हैं, जिनसे कि जैनशासन को नीचा देखना पड़ता है। आप भले ही यहाँ टीनोपाल के कपड़े पहनकर आयें, अच्छे से अच्छे साफ सुथरे पहनकर आयें लेकिन वहाँ पर तो लोग कहेंगे कि ये जैन हैं। एक जमाना था कि जब टोडरमल जी थे, सदासुखदासजी थे, जयचन्दजी थे और दौलतराम जी थे। ये सभी ऋषि-मुनि नहीं थे, पण्डित थे। परन्तु उनके जीवन में सदा सुख-सादगी थी। गाँधीजी ने विश्व में तहलका मचा दिया और स्वतंत्रता दिला दी। क्या पहनते थे वह, क्या रहनसहन था उनका मालूम है। हर तरह से सादगी थी उनके जीवन में। जबकि, अब व्यक्ति ऐशोआराम में डूब रहा है। विलासता का अनुभव करने के लिए यह मनुष्य जीवन नहीं है। बन्धुओ! इसमें योग और साधना की सुगन्ध आनी चाहिए। एक बार गाँधीजी को पूछा गया-आप इस प्रकार से कपड़े पहनते हैं। ऐसा जीवन बिताने से क्या होगा? अरे! शरीर की रक्षा के लिए तो सभी कुछ आवश्यक है ? तब उन्होंने कहा-हमने मात्र अपने विचारों को स्वतंत्रता देने के लिए यह संग्राम छेड़ा, यहाँ जीवन के नाम पर ऐशोआराम नहीं करना है। आज देश में सबसे बड़ा संकट/सबसे बड़ी समस्या, भूख की नहीं, प्यास की नहीं बल्कि भीतरी विचारों के परिमार्जन करने की है। इसी से विश्व में त्राहि-त्राहि हो रही है। यह समस्या धर्म के अभाव से, दया के अभाव से ही है। एक-दूसरे की रक्षा करने के लिए कोई तैयार नहीं। जो रक्षा के लिए नियुक्त किये गये, वही भक्षक बनते चले जा रहे हैं। एक-दूसरे के ऊपर जो विश्वास था, प्रेम था, वात्सल्य था, वह सब समाप्त होता चला जा रहा है। अपनी मान-प्रतिष्ठा के लिए आज ऐसे-ऐसे घृणित कार्य किये जा रहे हैं, जिनसे कि जिनशासन और देश को अपार क्षति हो रही है। मेरे पास, आज से २ साल पूर्व एक बन्द लिफाफा आया था, जिसमें एक कार्टून रखा था, उसमें कहा गया था कि महाराज! वनस्पति घी के नाम पर उसमें अशुद्ध पदार्थ डाले जा रहे हैं वह भी जैनियों के द्वारा। क्या आप ऐसा न करने के लिए उन्हें उपदेश नहीं दे सकते ? इस शताब्दी में ऐसे-ऐसे जघन्यतम कार्य हो रहे हैं और उसमें भी जैन सम्मिलित हैं। विश्व में वित्त की होड़ लग रही है। इसीलिए क्या हम भी वित्त कमा रहे हैं ? आप अवश्य ही उपदेश दीजिए। मैंने कहा-भैय्या ! मैं उपदेश देने के लिए मुनि नहीं बना हूँ, फिर भी यदि आप उपदेश चाहते हैं तो सामूहिक रूप में उपदेश दे सकते हैं। किसी एक व्यक्ति को नहीं, कारण कि वह उपदेश नहीं माना जाएगा। मुझे भी देख करके खेद होता है कि आज जो काण्ड हो रहे हैं उनकी चाहे व्यापार में, बहुत आरम्भ के बारे में और चाहे बहुत परिग्रह के बारे में, कोई सीमा नहीं रही है। धन का इतना अधिक लोभ करने वाले व्यक्ति के धर्म, दया, प्रेम सुरक्षित नहीं रह सकते। जैनशासन में जो पंथ चलते हैं, वे सागार और अनगार के हैं, अविरत सम्यक दृष्टि का कोई पंथ नहीं होता। अविरत सम्यक दृष्टि तो मात्र उन दोनों पंथों का उपासक हुआ करता है। जिसे जिनशासन के प्रति गौरव नहीं, आस्था नहीं, उसके पास चारित्र नहीं। आचार्य कुन्दकुन्ददेव कहते हैं कि-जिसके पास सम्यक्त्वाचरण चारित्र नहीं है उसके पास सम्यक दर्शन भी नहीं है। जिस व्यक्ति में साधर्मी भाइयों के प्रति करुणा नहीं, वात्सल्य नहीं, कोई विनय नहीं वह मात्र सम्यक दृष्टि होने का दम्भ कर सकता है, सम्यक दृष्टि नहीं बन सकता। आज अनीति के माध्यम से कई लोग मृत्यु के शिकार बनते चले जा रहे हैं। ‘हार्ट-अटेक' क्यों होता है ? इसीलिए तो, कि अन्दर डर रहता है और ऊपर से शासन के करों का/टेक्सों का अपहरण करते हैं। लेकिन यह भगवान महावीर का दरबार है। इसमें अनीति-अन्याय के लिए कोई स्थान नहीं मिलता। यहाँ तो नीति-न्याय के अनुसार, सादगीमय जीवन से काम लेना होगा। सदासुखदासजी के बारे में मुझे पंक्तियाँ याद आ रही हैं। सदासुखदास जी जयपुर में रहते थे। किसी शासनाधीन विभाग में कार्य करते थे वहाँ, वर्षों काम करते रहे। एक बार सभी लोगों ने हड़ताल कर दी कि हमारे वेतन का विकास होना चाहिए। माँग पूरी भी कर दी गई। लेकिन सदासुखदासजी ने माँग ही नहीं की थी, तो माँग के अनुसार जब इनके पास ज्यादा वेतन आया तब उन्होंने कहा-ज्यादा क्यों दे दिया, कोई भूल तो नहीं हो गई ? इतने ही हमारे होते हैं ? इतने आपके हैं। वही नहीं, सभी के वेतन में वृद्धि हो गई है। तब सदासुखदासजी ने कहा-सबके लिए हो सकती है लेकिन मुझे आवश्यकता नहीं। क्यों, क्या बात हो गई ? सभी ने लिया है तो आपको भी लेना चाहिए। उन्होंने कहा-मालिक को बता देना, मैं आठ घण्टे की ड्यूटी कर उतना ही काम कर रहा हूँ, कोई १६ घण्टे तो नहीं करने लग गया, जितना काम करता हूँ, उतना वेतन लेता हूँ, अत: उनसे कह दीजिए कि मुझे ज्यादा नहीं चाहिए। मालिक कहता है-ऐसा कौन-सा व्यक्ति है जो हड़ताल में शामिल नहीं हुआ। जाकर मेरा कह देना तो वह ले लेगा। सेवक ने कहा-भैय्या ले लीजिए, मालिक ने कहा है। नहीं, मैं नहीं ले सकता। अब मालिक ने उन्हें ही बुलाया और कहा मेरे कहने से ले लो। तब भी सदासुखदासजी ने कहा-मुझे नहीं चाहिए। फिर क्या चाहते हैं आप ? मालिक ने पूछा। मुझे यही चाहिए कि अब शेष जीवन का अधिक से अधिक समय जिनवाणी की सेवा में लगा सकूं, अत: मुझे आठ घण्टे की जगह चार घण्टे का काम रहे और वेतन भी आधा कर दिया जाय। इसको बोलते हैं, मुमुक्षु और उसकी जिनवाणी के प्रति साधना-सेवा। जैसा नाम था वैसा ही काम सदासुख। उन्होंने कहा-हम धन्य हैं, हमारे राज्य में इस प्रकार के व्यक्ति का रहना, बहुत ही शोभास्पद है, सदासुखदासजी का जीवन कितना सादगीपूर्ण था। एक बार टीकमचन्द, भागचन्दजी सोनी (जिन्होंने अजमेर के अन्दर नसियांजी का निर्माण कराया) के पास उनके द्वारा लिखे हुए पत्र मैंने स्वयं अपनी आँखों से पढ़े हैं, जब टीकमचन्दजी अपने परिवार सहित सम्मेदशिखरजी की यात्रा के लिए जाने वाले थे, उस समय सदासुखदासजी जयपुर में रहते थे, अत: कहा गया कि आपको भी सम्मेदशिखरजी की यात्रा के लिए साथ चलने के लिए आना है, मैं सारा प्रबन्ध कर लंगा, आपको कोई चिन्ता नहीं करना है, सारी चिन्ताएँ छोड़कर चलना है, लेकिन जवाब में पण्डितजी ने लिखा-मैं नहीं आ सकता हूँ, क्योंकि मैंने देशावकाशिक व्रत ले लिया है, इससे हम सीमा को छोड़कर नहीं जायेंगे, साथ ही मैं सल्लेखना के लिए भी प्रयास कर रहा हूँ, इसीलिए मैंने ड्यूटी भी कम कर दी है, अब मुझे आत्मकल्याण करना है। अब तो - अन्त: क्रियाधिकरणं, तपःफलं सकलदर्शिनः स्तुवते। तस्माद् यावद् विभवं, समाधिमरणे प्रयतितव्यम् ॥ रत्न. श्राव. ६/२ समाधिमरण प्राप्त करने के लिए आचार्य समन्तभद्रस्वामी ने कहा-यदि वृद्धावस्था आ रही है तो जल्दी-जल्दी कीजिए, जब तक वैभव अर्थात् शक्ति है शरीर में, तब तक इस ओर सारी शक्ति लगा दीजिए, जिससे यह जीवन शान्त-निराकुलतामय बन जाए और आगे भी शान्ति का लाभ हो सके। आचार्य समन्तभद्रस्वामी के रत्नकरण्डक श्रावकाचार पर जो कि मूलतः श्रावकों के लिए लिखा गया है, सदासुखदासजी ने टीका की, उसे आज भी आबाल-वृद्ध सभी पढ़ते हैं। मैं तो रत्नकरण्डक को 'रत्नत्रय स्तुति' ग्रन्थ मानता हूँ, उसमें रत्नत्रय की स्तुति के माध्यम से सच्चे देव, शास्त्र, गुरु की उपासना करता हुआ व्यक्ति, अन्त में सल्लेखना ले करके बहुत आरम्भ, बहुत परिग्रह क्या ? वह तो बहुत दूर की बात होगी, अब तो थोड़ा-सा भी परिग्रह शनि के रूप में मानकर दूर फेक देगा, उनकी कृतियाँ आज भी धरोहर हैं, हम उनका मूल्यांकन करने चलते हैं तो पाते हैं कि कितना अपार अनुभवमय जीवन था उनका, कितनी सादगी थी, मुनि बन जाते तो, कितना उपकार कर जाते, पता नहीं, भजनों में लिखते हैं कि ‘वे मुनिवर कब मिल हैं उपकारी' यानि उनके जीवन में ऐसे मुनि महाराजों के दर्शन भी सुलभ नहीं थे, लेकिन आज उनके भजन से ऐसा लगता है कि ये भी मुनिराजों से कम नहीं थे, उनके भीतर-मन में मरण से किंचित् भी डर नहीं था, वे मरण के ऊपर महोत्सव मनाने में लगे रहे, अन्तिम समाधि, सदासुखदासजी की कैसी हुई, मालूम है ? उन्होंने पहले से तिथि लिख दी, कि फलां तारीख को इस समय, इस प्रकार की घटना होने वाली है, मैं कुछ भी नहीं कर सकूंगा, वही घटना, वही तिथि और वही समय, भागचन्द सोनी को आँखों में पानी आ रहा था सुनाते-सुनाते कि इस प्रकार का उच्च आदर्शमय जीवन था सदासुखदास जी का, उन पत्रों को उन्हीं ने बताया था, जो कि एकत्रित कर रखे हैं। एक जीवन ऊपर कहा जा चुका और एक आज का जीवन है, आज यद्वा-तद्वा आचरण कर असमय में ही मृत्यु की गोद में पहुँच रहे हैं लोग, इस आयुकर्म को अच्छी तरह से रखना है, जीवन में डर नहीं होना चाहिए, लोभ नहीं होना चाहिए। 'क्रोधलोभभीरुत्वहास्यप्रत्याख्यानान्यनुवीचिभाषण च पञ्च' (तत्त्वार्थसूत्र–७/५) जिसके जीवन में क्रोध है वह सत्य का उद्घाटन नहीं कर सकता। जो व्यक्ति पाई-पाई के लिए लोभी बन रहा है वह जिनवाणी का, सत्य का प्रचार-प्रसार नहीं कर सकता। भीरुत्व, ये क्या कहेंगे ? क्या पता, इसलिए पलट दो, आज कुछ, कल कुछ। अभी कुछ, रात को कुछ और सुबह कुछ, मन में कुछ, लिखना कुछ और कहना कुछ और ही, यह कुछ का कुछ, क्यों होता है, यह भीतरी दृढ़ता नहीं होने के कारण होता है। आचार्य कुन्दकुन्द, समन्तभद्रस्वामी आदि के उपासक जैनियों को आज क्या हो गया ? उनके साहित्य को ले करके हम क्या कर रहे हैं, जिनवाणी माँ के ऊपर आज कीमत लिखी जा रही है। भगवान के ऊपर भी कहीं कीमत लिखी क्या ? नहीं लिखी। गुरुओं के ऊपर कीमत है क्या ? नहीं है। फिर जिनवाणी के ऊपर कैसे-क्यों लिखी जाती है-जा रही है ? जिनवाणी का भी क्या कोई मूल्य है? आज ५० साल भी नहीं हुए गुजरात में श्रीमद् रायचन्दजी हुए जिन्होंने अगास में आश्रम खोला है, उन्होंने कहा था-जिनवाणी का कोई मूल्य नहीं होता है। अनमोल वस्तु है जिनवाणी, इसके लिए जितना भी देना पड़े कम है, वह जवाहरात की थाली लिए बैठे थे, जो भी व्यक्ति समयसार भेंट करता, उसको सारे जवाहरात दे देते थे, पर आज ५ रुपये, १० रुपये, २५ रुपये, होड़ लगी है, स्पर्धा हो रही है, क्या हो रहा है साहित्य का-जिनवाणी माँ का। बिल्कुल गलत है यह तरीका, यह विधि, जैसा-तैसा प्रकाशन करना, यद्वा-तद्वा प्रचार करना। शादियों में समयसार बाँटा जा रहा है, जैसे कि पूड़ी बाँटी जाती है, ऐसा नहीं होना चाहिए, यह अनमोल है, तब क्या प्रत्येक व्यक्ति इसको पढ़ सकता है ? यद्वा-तद्वा ही पढ़ेगा, जिनवाणी की सेवा यही है कि जो सुपात्र है, उसको आप दीजिए। जो क कह रा भी नहीं जानता, उसके सामने जा करके अपना साहित्य देंगे तो वह उसकी कीमत ही नहीं करेगा, रद्दी में बेच देगा, आज मौलिक साहित्य रद्दी में बेचा जा रहा है, हमने अपनी आँखों से देखा है कि बड़े-बड़े ग्रन्थों को बिस्तर में बाँध दिया गया और कहाँ पर पटक दिया, यह आप भी जानते हैं, यह आज की स्थिति है, आज जैनियों को क्या हो गया समझ में नहीं आता ? यह सादगीपूर्ण जीवन के अभाव के कारण ही हो रहा है, अनाप-शनाप व्यवसाय करके वित्त आने से रात-दिन चैन नहीं, आज विश्व में वित्त ज्यादा होने से विद्यानि ज्ञान का अवमूल्यन होता चला जा रहा है, उसी कारण से आज जिनवाणी के प्रति आदर नहीं है, सत्य की पहचान नहीं है, पापों से भय नहीं है और सारी दुनियाँ भर में भय बढ़ता जा रहा है। मैं श्री जयधवल का अध्ययन कर रहा था तब एक प्रसंग आया कि -जिस व्यक्ति को भयकर्म की उत्कृष्ट उदीरणा हो रही हो उस व्यक्ति के पास नियम से मिथ्यात्व रहेगा। जिस व्यक्ति को विशेष रूप से लोभ रहेगा, बहुत आरम्भ, बहुत परिग्रह होगा, उसके नियम से मिथ्यात्व कर्म की उदीरणा होगी। लोभ के साथ दर्शनमोहनीय का विशेष सम्बन्ध है। श्री धवल- श्री जयधवल, महाबन्ध पढ़ने का प्रयास करिए, तब मालूम पड़ेगा कि हमारे परिणाम कब कैसे होते हैं ? उन परिणामों के साथ कौन-सा परिणाम होना आवश्यक है, लोभ का यद्यपि चारित्रमोहनीय से सम्बन्ध है, लेकिन वह कहते हैं कि जब अति लोभ होगा तब मिथ्यात्व कर्म की उदीरणा हुए बिना नहीं रहेगी, इसलिए आप यदि स्वयं को तथा दूसरों को-दुनियाँ को सम्यक दर्शन से सहित देखना चाहते हैं तो सर्वप्रथम बहुत आरम्भ, बहुत परिग्रह छोड़ दीजिए, वैसे स्वाध्याय ज्यादा आवश्यक नहीं जितना आरम्भ-परिग्रह का त्याग। बहुत से आचार्यों ने स्वाध्याय के लिए जोर दिया पर ध्यान रखिए यह मुनियों को भी आवश्यक रूप में नहीं है, स्वाध्याय २८ मूलगुणों में नहीं है, स्वाध्याय को तप के अन्तर्गत गिना गया है, आज केवल स्वाध्याय का, स्वाध्याय के द्वारा अनेक प्रकार की भीतरी वासनाओं को पूर्ण करने के लिए प्रचार-प्रसार किया जा रहा है, जो कि बिल्कुल आगम विरुद्ध है, श्रावकों को भी आवश्यक नहीं बताया गया स्वाध्याय, न श्री धवल में, न श्री जयधवल में, न महाबन्ध में, न रत्नकरण्डकादि श्रावकाचारों में आवश्यक बताया है, फिर यह प्रवाह कैसे आ गया? मुझे मालूम नहीं, लेकिन इसके उपरान्त भी कह सकता हूँ कि मान लीजिए, श्रावकों के षट्कर्मों में लिखा गया, तो पहले यह ध्यान रखिए कि षट्कर्म किसके होते हैं ? आचार्यों ने कहा है-अहिंसा आदि व्रत, चाहे अणुव्रत हो या महाव्रत उसकी सुरक्षा के लिए, उन श्रावकों-मुनियों के लिए जीवन में छह आवश्यक कर्म बताये गये हैं, जैसे खेती की रक्षा बाडी के माध्यम से होती है उसी प्रकार आवश्यकों को जानना। अब केवल स्वाध्याय-स्वाध्याय को करने-कहने की बजाय, अपने जीवन से तामसी प्रवृत्तियों को कम करो, सत्य रखो, समता रखो, वात्सल्य रखो, प्रेम रखो। और जीवन के प्रति गौरव रखो। हमारी कौन-सी संस्कृति है इस बात का ध्यान रखो, हम जैन हैं, जैन होने के नाते अपनी वृत्तियों को संयमित रखो। जैन कहते ही पहले अदालतों से छुट्टी मिल जाती थी, लेकिन आज जैन कहने की हिम्मत नहीं हो रही है, अखबारों में छपे समाचारों को देखकर बहुत ही दु:ख होता है कि आखिर हम भी तो उसी कोटि में माने जायेंगे/आ जायेंगे, वैसे साधु किसी सम्प्रदाय के नहीं होते, साधु तो विश्व का होता है, फिर भी हमारे साथ 'जिन' एक ऐसा शब्द लगा है, वह उन भगवान को इंगित करता है, जो रागद्वेष नहीं करते, विषय-कषाय से रहित होते हैं, आरम्भ-परिग्रह से रहित होते हैं, ऐसे जिन भगवान हुआ करते हैं, जिन भगवान की उपासना करने वाले जैन माने जाते हैं, तब जैन का कार्य भी इन जैसा होना चाहिए, उनके कदमों पर चलना चाहिए, चलने की स्पर्धा होनी चाहिए, होड़ होनी चाहिए, जबकि आज हम विपरीत दिशा में जाकर अपने को जैन सिद्ध करना चाहें तो दुनियाँ बावली नहीं, भोली नहीं, अंधी नहीं, आँखें लगाकर देखती है, आजकल आँखें तो क्या, आँखों के ऊपर आँखें (सूक्ष्मदर्शी इत्यादि) लगाई जा रही हैं! आँखें (निगाहें) रखी जा रही हैं! कौन क्या-क्या कर रहा है, कौन क्या बोल रहा है, कौन कैसा पलट रहा है, कैसा उलट रहा है? कोई भी उसकी निगाहों से बच नहीं सकता। सदासुखदासजी के जीवन से हमें ज्ञात होता है कि जीवन बहुत सादगीपूर्ण होना चाहिए। यह बुन्देलखण्ड है और मैं मानता हूँकि यहाँ पर अभी यह हवा नहीं है या नहीं के बराबर है लेकिन आने में देर नहीं, कहीं चक्रवात आ जायें तो इसे भी अपने चक्कर में ना ले ले, बस यही मैं चाहता हूँ, कामना करता हूँ, इसको शुद्ध रखने की अधिक से अधिक कोशिश की जाए। हम भले ही शुद्ध-शुद्ध की चर्चा करते जायें कि आत्मा शुद्ध है, हम शुद्ध आम्नाय वाले हैं किन्तु भगवान कहते हैं कि जिसका आचरण शुद्ध नहीं उसकी आम्नाय शुद्ध नहीं, आम्नाय (परम्परा) आचार और विचार की एकता से ही चलती है। सही शुद्ध आम्नाय तो वही है, जिसमें महान् चरित्रनिष्ठ आचार्य कुन्दकुन्ददेव हुए, समन्तभद्रस्वामी हुए और भी आचार्य हुए और हो रहे हैं, जिन्होंने श्रावकों के लिए, अल्पबुद्धिशालियों के लिए ग्रन्थ रचना की और जिनशासन की प्रभावना की, अपनी भावना के द्वारा, अन्त में अपने जीवन का कल्याण किया तथा हजारों-लाखों जीवों का कल्याण किया, उनका मार्ग प्रशस्त किया, अब आप वह मार्ग अक्षुण्ण बनाये रखें, यही हमारा निवेदन है। बन्धुओ! नीति-न्याय को नहीं भूलिये, आज की पीढ़ी, जो कि २५ से ४० वर्ष के बीच की है, यह ऐसी पीढ़ी है जो सम्पन्न है और उसमें करने की, कुछ पाने की सामथ्र्य है, साथ ही कुछ जिज्ञासाएँ व संभावनाएँ भी हैं, ऐसी पीढ़ी के सामने यदि आपने अपने अनीतिमय जीवन को रखा तो उनके जीवन को पाला लग जायेगा। आप यदि करुणा कर, उनके भविष्य, जीवन के बारे में करुणा करते हैं तो इस घृणित जीवन को आज से ही छोड़ दीजिए और संकल्प कीजिए कि अब हम अपने जीवन में अनीति को कोई स्थान नहीं देंगे। तब समझा जाएगा कि प्रतिष्ठा-महोत्सव बहुत अच्छी बात है। अनीति से धनोपार्जन नहीं होना चाहिए और अनीति के द्रव्य का (धन का) दान नहीं देना चाहिए। दान देने का अर्थ, यह नहीं है कि हम यद्वा-तद्वा दान दें, यदि एक व्यक्ति चोरी करके दान दे तो क्या वो दान कहलायेगा? नहीं! नहीं!! वह तो पाप का ही कारण बन जाएगा, जो आरम्भपरिग्रह किया था उसके द्वारा पाप का ही आस्रव हुआ और पाप का ही उपभोग हुआ करता है, अत: इसको छोड़ दो!.बिना देखे छोड़ दो, जिस प्रकार मल को छोड़ते हैं उसी प्रकार इसको भी छोड़ने के लिए कहा है, किन्तु आज तो यह नाटक जैसा होता जा रहा है, जबकि सभी बातें सारी-दुनियाँ जान रही है, इसलिए अब किसी भी प्रकार के साहित्य के माध्यम से प्रचार-प्रसार नहीं किया जा सकता | आज तो हमारी नीति, हमारा न्याय, हमारा आचरण, हमारे विचार, हमारा व्यवहार जो कि समाज के सामने है, उसे देखकर ही मूल्यांकन किया जावेगा। आज की पीढ़ी इस प्रकार से अन्धानुकरण कर चलने वाली नहीं है, अनीतिपूर्वक 'गवर्मेन्ट' के 'टैक्स' को डुबोकर, दान देना, दान नहीं माना जाता, आचार्य उमास्वामीजी ने कहा है - "स्तेनप्रयोगातदाहतादानविरुद्ध -राज्यातिक्रम-हीनाधिकमानोन्मानप्रतिरूपक व्यवहारा:'' (तत्त्वार्थसूत्र-७/२७) राज्यातिक्रम बहुत बड़ा दोष है और संभव है वह जैनियों के ऊपर कोई आपत्ति ला दे, इसीलिए सत्ता के विपरीत चलना धर्म नहीं, अधर्म माना जायेगा, जो सत्ता के विपरीत चलेगा, वह महावीर भगवान के शासन को भी कलंकित करेगा, दूषित करेगा, बात यद्यपि कटु है लेकिन, कटु भी सत्य हुआ करता है। जैसे-माँ को गुस्सा आ गया। क्यों आया ? क्योंकि उसका लड़का उत्पथ, उन्मार्ग पर आरूढ़ हो जाता है तो उसका सब कुछ कहना-करना आवश्यक हो जाता है, इसलिए आप समझिए कि जब तक भीतर आत्मा के परिणाम उज्ज्वल नहीं होंगे, हमारा आचार-विचार उज्ज्वल नहीं रहेगा, तब तक हमारा सम्बन्ध महावीर भगवान से नहीं होगा, कुन्दकुन्द के साथ नहीं होगा, समन्तभद्र के साथ नहीं होगा, इतना ही क्या ? आप लोग सुनते ही हैं - जब पिताजी अवसान के निकट होते हैं, तब बेटा को बुलाते हैं, क्या आज्ञा है बाबूजी और कोई आज्ञा नहीं, बस यही कि जब तक आज्ञा का उल्लंघन नहीं करेगा तब तक ही मेरा बेटा है, देख! तेरे लिए ही सब कुछ किया-दुकान बना दी, मकान बना दिया, खेती-बाड़ी कर दी, सब कुछ तो कर दिया, अब कोई आवश्यकता नहीं, लेकिन यह ध्यान रखना कि इस परम्परा में दूषण न लगे, नहीं तो उसी दिन से हमारा-तुम्हारा कोई सम्बन्ध नहीं, अब फर्म मेरी नहीं, तुम्हारी है अत: फर्म की परम्परा देखकर काम करना, आप इन सब बातों को तो करने जल्दी कटिबद्ध हो जाते हैं, लेकिन यहाँ पर आप सोचते हैं कि-ऐसा करने से कहीं हमारा जीवन ही न मिट जाये, लेकिन हमारा जीवन वस्तुत: धार्मिक जीवन है और इस दृश्य को देखकर भगवान महावीर क्या कहते होगे, कुन्दकुन्द भगवान क्या कहते होंगे और समन्तभद्र महाराज क्या कहते होंगे ? जरा सोची, विचार तो करो ? हमारा साहित्य तो बहुत ही उज्ज्वल है। विश्व-भर में भी इस प्रकार का साहित्य नहीं मिल सकता, लेकिन हमारे इस आचरण को देखकर लोग व्यंग में कहते हैं कि क्या यह इस साहित्य की देन है, जो व्यक्ति इस प्रकार के साहित्य के साथ होने पर भी अनीति के साथ चलता है, झूठ बोलता है, चोरी करता है, कुशील करता है, परिग्रह की होड़ लगाता है तो उसके मुख से जो शब्द निकलेगा वह विनाशकारी होगा, कार्यकारी शब्द तीनकाल में भी संभव नहीं है। धन्य हैं वे समन्तभद्र! धन्य हैं वे कुन्दकुन्द, जिन्होंने हमारे लिए मृत्यु की भीति से दूर हटा दिया। मृत्यु क्या है ? दिखा दिया। जन्म क्या है ? सब कुछ बता दिया। जीव अरू पुद्गल नाचै। यामें कर्म उपाधि है। (बारह भावना, मंगतराय कृत २२) अर्थात् जीव और पुद्गल कर्म ये दोनों मिलकर यहाँ पर नाच रहे हैं, यहाँ प्रत्येक व्यक्ति नट (नाच दिखाने वाले) हैं, तो फिर देखने वाला कौन है? सारे सारे नट ही हैं! देखने वाला कोई नहीं! अत: खुद ही अपनी आत्मा को सजग-जागृत बनायें और हम अपने नाटक को देखें, सोचें, लेकिन इसमें टिके नहीं, भटके नहीं! हम भटकते चले जा रहे हैं! राग-द्वेष-मोह-माया-मत्सर इत्यादि का स्वरूप समझे और इनको तिलांजलि दे दें! अपने एकमात्र शुद्ध स्वरूप का, निरंजनस्वरूप अखण्डज्ञान का चिन्तन करें! कितना आनन्द, शक्ति और वैभव पड़ा है हमारे पास, एक महान् सेठ होकर भी संसारी-प्राणी अज्ञान और कषाय के वशीभूत होकर भिखारी के समान दर-दर, एक-एक दाने के लिए मुहताज हो रहा है, भगवान कुन्दकुन्द को हमारे ऐसे जीवन पर दया, करुणा आती है, रोना आता है कि कैसे समझायें ? माँ का रोना स्वाभाविक है, क्योंकि आखिर उसकी वह संतान उसके जीवन के ऊपर ही तो निर्धारित है, मैं उसको दिशा-बोध नहीं दूँगी तो कौन देगा ? इस प्रकार वह सोचती रहती है, विचार करती रहती है। बन्धुओ! अनीति के व्यसन से बचिये, वित्त की होड़ को छोड़ दीजिए और वीतरागता प्राप्त करने का एक बार प्रयत्न कीजिए, जीवन में एक घड़ी भी वीतरागता के साथ जीना बहुत मायना रखता है और हजारों वर्ष तक राग-असंयम के साथ जीना कोई मायना नहीं रखता, सिंह बनकर एक दिन जीना भी श्रेष्ठ है किन्तु १०० साल तक चूहे बनकर जीने की कोई कीमत नहीं, सब कुछ छोड़ दीजिए-ख्याति, पूजा, लाभ, वित्त, वैभव, अपने आत्मवैभव की बात करिये अब। इन पाँच दिनों में २ दिन आपके थे और ३ दिन अब हमारे होंगे। अब भगवान हमारे हो जायेंगे, अभी तक तो वह मोह के पालना में झूले, लेकिन कल मोह को छोड़ेंगे तब कैसा माहौल होगा ? क्या वैराग्य, क्या आत्मा का स्वभाव होता है ? ज्ञात होने लग जायेगा। जितना भी वैभव है। सब कुछ छोड़कर निकलेंगे वे, आप लोगों के पास क्या है ? षट्खण्ड का आधिपत्य भी छोड़कर चले जाते हैं, आपके पास तो छहखण्ड का मकान भी नहीं है, एक खण्ड का है, वह भी चूंता है (रिसता है) बरसात के दिनों में यदि तूफान आ जाए तो छप्पर भी उड़ जाए, इस प्रकार आप तो एक खण्ड के भी अधिपति-स्वामी नहीं हैं, एक मकान के भी स्वामी नहीं हैं और फिर भी क्या समझ रहे हैं अपने आपको यह सब पर्याय-बुद्धि है, इसमें कुछ भी नहीं है। ऐसे अनमोल क्षण चले जा रहे हैं आप लोगों के, इसलिए, यदि साधु नहीं बन सकते, मुनि नहीं बन सकते तो ना सही, परन्तु श्रावकाचार के अनुरूप सदासुखदासजी का तो साथ आप सबको देना ही चाहिए, यानि श्रावक के व्रतों को तो अंगीकार करना ही चाहिए जो कि परम्परा से मोक्षसुख के साधन हैं।
  17. वस्तु है और उसके ऊपर आवरण है। वस्तु और उसके ऊपर दूसरे पदार्थों का दबाव है। जब वस्तुएँ स्वतंत्र हैं, अपना-अपना परिणमन करती हैं फिर इन बाहरी वातावरणों से प्रभावित होने का बंधन, आखिर क्यों ? इस प्रकार की जिज्ञासा लेकर प्रात:काल कोई भव्य आया था, आचार्यश्री के चरणों में। वह भावुक है, साथ में विवेकवान् भी। उसका लक्षण बहुत अच्छा है कि ‘अपना हित चाहता है।” बिल्कुल ठीक, उपदेश जो होता है वह न देवों को होता है, न ही तिर्यचों को, न भोगभूमि के जीवों के लिए होता है और न नारकियों के लिए। उपदेश मात्र मनुष्यों के लिए है, वह भी जो समवसरण की शरण में गये हैं। वहाँ पर जितना क्षेत्र लांघना आवश्यक था, लाँघकर गये हैं। उन्हीं को देशना मिलती है। देशना देना भगवान् का लक्षण नहीं है। उनका कर्तव्य नहीं है। उनके लिए अब कोई भी कर्तव्य शेष नहीं, कोई लौकिकता भी नहीं रही। वे बाध्य हो करके भी नहीं कहते हैं। मात्र जो पुण्य ले करके गया है-सुनने का भाव ले करके गया है प्रभु के चरणों में, वह उसे पा लेता है। जहाँ तक मुझे स्मरण है श्वेताम्बर साहित्य में देशना के बारे में कहा है कि-‘प्रभु की देशना सर्वप्रथम देवों के लिए हुई" परन्तु इसमें कोई तुक-तथ्य नहीं बैठता। जो भोगी होते हैं उनके लिए योग का व्याख्यान उपदेश हो, यह संभव-सा नहीं लगता, क्योंकि रुचि के बिना- 'इन्ट्रेस्ट' के बिना Enter (प्रवेश) संभव नहीं है। उसके बिना भीतरी बात, जो यहाँ चल रही है उतरेगी नहीं। प्रभु की देशना में बाहरी बात भले ही चलती रहे लेकिन वे सभी भीतर के लिए चलती हैं और वे भीतर ही भीतर गूंजती भी रहती हैं। उस भव्य ने हित तो चाहा है और वह हित किसमें है ? ऐसा पूछा है। हित मोक्ष में है 'स आह मोक्ष: इति' ऐसा आचार्य परमेष्ठी ने कहा, फिर उसे प्राप्त करने के साधनों के बारे में कहा - बात ऐसी है कि साध्य के बारे में दुनियाँ में कभी विसंवाद नहीं होते, होते हैं तो मात्र साधन को लेकर और उसको लेकर हुए बिना रहते भी नहीं हैं। मंजिल में विसंवाद नहीं होता, मंजिल से पथ की ओर नहीं चलते, बल्कि मंजिल को सामने कर जब चलना चाहते हैं तो पथ का निर्माण होता है। सबसे पहले पथ-विचारों में बनते हैं और विचारों में बने पथों का निवारण कैसे हो ? बाह्य पथों में तो मंजिल की पहुँच से, आसानी से निवारण संभव है लेकिन विचारों में कैसे ? प्रभु कहते हैं कि -उस समय हमारा ज्ञान पंगु ही रहेगा। अनन्तशतियों का पिण्ड जो आत्मा है, उसमें अन्तरायकर्म के क्षय से होने वाला जो बल, वह भी घुटने टेक देगा; इसमें कोई संदेह नहीं। उसका बल इतना होकर भी, कितना होकर? तीन लोक की सर्वाधिक शक्ति होकर भी क्यों एक व्यक्ति को भी झुका नहीं सकती। विचारों की पावर (शक्ति) बहुत हुआ करती है। विचारों की शक्ति एक कील के समान है। एक भैंसा था। बहुत शक्तिशाली होता है भैंसा। एक छोटी-सी कील के सहारे उसे बाँध दिया जाता है। वह पूरी शक्ति लगाता है, फिर भी वह कील उखड़ती नहीं। क्यों नहीं उखड़ती ? ऐसी क्या बात है। बात ऐसी है, उसके निकालने के लिए पहले हिलाना आवश्यक होता है। बिना हिलाये वह पूरी शक्ति भी लगा दे, तो भी उखड़ नहीं सकती। कुछ ठीक-ठीक मेहनत करने पर उस कील को तो उखाड़ सकता है। परन्तु तीन लोक के नाथ, जो अनन्तशति से सम्पन्न हैं, वे भी एक वस्तु का दूसरी वस्तु के ऊपर पड़ते प्रभाव को, भीतरी वस्तु के परिणमन में बाल-मात्र भी अन्तर नहीं करा सकते। वे निरावरण अपने लिए हुए हैं, दूसरों (हम लोगों) के लिए नहीं। मोक्ष एक मंजिल है। वहाँ तक पहुँचने के लिए मार्ग की नितान्त आवश्यकता है। क्या है वह मार्ग। तीन बातें हैं-दर्शन, ज्ञान और चारित्र जो कि 'सम्यक्र' उपाधि से युक्त हैं। ‘‘सम्यकदर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्गः''। (तत्त्वार्थसूत्र – १/१, २) सम्यकदर्शन का अर्थ क्या है ? 'तत्वार्थश्रद्धानं सम्यकदर्शन' कहा है। आप सोचते होंगे कि हम काँच ले लें, चश्मा लगा लें, उपनयन खरीद लें ताकि तत्वों को देख सकें और उनके ऊपर श्रद्धान कर सकें। लेकिन नहीं, तत्व क्या है? इसकी चर्चा तो बहुत हो सकती है परन्तु समझ में आ जाए, समझ में बैठ जाए, यह समझ से परे है। यहाँ पर तत्व और अर्थ के ऊपर श्रद्धान करने की बात कही गयी है न कि देखने की। ध्यान रखिये, तत्व कभी दिख नहीं सकता। जो दिखता है वह तत्व नहीं। जो दिखाने की कोशिश कर रहे हैं, वे भी दिखा नहीं सकते। कोविदिदच्छो साहू संपडिकाले भणिज्ज रूवमिण। पच्चक्खमेव दिटुं परोक्खणाणे पवडुंतं॥ (समयसार-१९९) ऐसा कौन-सा विद्वान् है, कौन-सा साधु-सजन है, जो यह कहे कि आज भी मैं वस्तु तत्व को यूँ हाथ पर, हथेली के ऊपर रखकर देख रहा हूँ। अपनी आँखों से ? अर्थात् कोई नहीं। यदि कोई कहता भी है तो वह कहने वाला विद्वान् नहीं हो सकता। चाहे गणधरपरमेष्ठी प्रवचन दें या स्वयं वीरप्रभु। या कोई और भी क्यों न हो, उनके प्रवचन में जो तत्व आयेगा वह परोक्ष ही होगा। कोशिश करके अनन्तशक्ति लगा करके भी किसी प्रकार से, किसी की आँखों से वस्तुतत्व को दिखा दे ताकि उसका भला हो जाए-यह संभव नहीं। देखने का नाम सम्यकदर्शन कतई है ही नहीं। किसी भी अनुयोग में देख लीजिए, देखने का नाम सम्यकदर्शन नहीं। लेकिन पश्यति-जानाति, इस प्रकार कहा तो है। हाँ कहा है, टीकाकार ने इसे खोला भी है कि देखने का नाम सम्यकदर्शन न लेकर यहाँ पर देखने का अर्थ श्रद्धान लेना चाहिए। प्रात:काल एक बात चली थी कि सम्यकदर्शन का अर्थ अपनी आत्मा में लीन होना है तथा अभी कहा-तत्वों के ऊपर श्रद्धान करना सम्यकदर्शन है बात उलझन जैसी लगती है।‘समयसार" में भूतार्थ का नाम सम्यकदर्शन है और तत्वार्थसूत्र में-तत्वार्थश्रद्धान का नाम सम्यकदर्शन। जो तत्वों के ऊपर श्रद्धान करता है वह चूँकि अभूतार्थ माना जाता है। लेकिन इन दोनों में कोई विपरीतता नहीं है मात्र सोचने-समझने की बात जरूर है। श्रद्धान जो होता है, वह परोक्ष पदार्थ का होता है। सामने आने के उपरान्त हमें उन चीजों पर श्रद्धान करने की कोई आवश्यकता नहीं होती। उसमें लीन होने के बाद का नाम तो संवेदन है, जो कि अध्यात्म ग्रन्थों में बार-बार सम्यकदर्शन के लिए कहा जाता है। आगम ग्रन्थों में भी सम्यकदर्शन की बात कही है पर उसमें विभाजन कर दिया गया है। वह विभाजन यह है कि सम्यकदर्शन श्रद्धान का ही नाम है लेकिन केवल श्रद्धान के द्वारा तीन काल में भी मुक्ति नहीं होगी। ज्ञान का नाम सम्यग्ज्ञान है लेकिन उससे भी मुक्ति नहीं होगी। इसी प्रकार चारित्र के द्वारा भी मुक्ति नहीं होगी। फिर मुक्ति किससे होगी ? मुक्ति होगी, जब भूतार्थता का अनुभव करेंगे तब। अर्थ यह हुआ कि सम्यकदर्शन, ज्ञान और चरित्र ये तीनों एक उपयोग की धाराएँ हैं। जिस उपयोग की धारा के द्वारा तत्वों पर श्रद्धान किया जाता है, उसे सम्यकदर्शन कहते हैं। जब वही उपयोग की धारा चिन्तन में लग जाती है, तब सम्यग्ज्ञान कहलाती है। जब कषायों का विमोचन, राग-द्वेष का परिहार करने लग जाती है तो उपयोग की धारा को सम्यक्रचारित्र संज्ञा मिल जाती है। ‘"तत्र सम्यकदर्शन तू जीवादिश्रद्धानस्वभावेन ज्ञानस्य भवनम्। जीवादिज्ञानस्वभावेन ज्ञानस्य भवनं ज्ञानम्। रागादिपरिहरणस्वभावेन ज्ञानस्य भवनं चारित्रम्। तदेव सम्यकदर्शनज्ञानचारित्राण्येकमेव ज्ञानस्य भवनम्। ततो ज्ञानमेव परमार्थमोक्षहेतुः ।।" समयसार आत्मख्याति टीका-१५५ अमृतचन्द्राचार्य की आत्मख्याति की ये पंक्तियाँ हैं। बहुत कठिन लिखते हैं वे, लेकिन भाव तो समझ में आ ही जाता है-ज्ञान का श्रद्धान के रूप में परिणत होना सम्यकदर्शन, ज्ञान का चिन्तन के रूप में परिणत होना सम्यग्ज्ञान और ज्ञान का रागद्वेष परिहार करने में उद्यत होना सम्यक्रचारित्र है। इन तीनों की एकता से ही मुक्ति संभव है, अन्यथा कभी नहीं। सम्यकदर्शन, ज्ञान, चरित्र-ये तीन नहीं हैं किन्तु उपयोग की धारा में जब तक भेद प्रणाली चलती है, तब तक के लिए भिन्न-भिन्न माने जाते हैं। आचार्यों ने अध्यात्म ग्रन्थों में इसे खोला है। इसी का नाम सराग सम्यकदर्शन, भेदसम्यकदर्शन, व्यवहार सम्यकदर्शन और शुभोपयोगात्मक परिणति आदि-आदि कहा है। इसी का नाम श्रद्धान भी है। जब तक आत्मा अपने गुणों को प्रत्यक्ष नहीं देख लेता, तब तक उसे समझाना पड़ता है, उपदेश दिया गया है, कि तुम सर्वप्रथम इसको समझो। समझो का अर्थ-श्रद्धान करो, उतारो। एक बार श्रद्धान मजबूत हो गया तब ही श्रद्धेय, पदार्थ की ओर यात्रा/गति होगी अन्यथा तीन काल में भी संभव नहीं? इसे आचार्यों ने वीतराग सम्यकदर्शन का साधक सम्यकदर्शन माना है। उन्होंने कहा है | "हेतु नियत को होई" जैसे प्रात:काल भी छहढाला की पंक्ति कही गयी थी कि निश्चय सम्यकदर्शन के लिए हेतुभूत यह व्यवहार सम्यकदर्शन होता है। व्यवहार सम्यकदर्शन फालतू नहीं है, किन्तु पालतू है। अभूत नहीं है, वह बाह्य भी नहीं है। अभूतार्थ की व्याख्या जयसेनाचार्यजी ने इतनी बढ़िया लिखी है, अमृतचन्द्राचार्यजी ने भी अपनी आत्मख्याति में अभूतार्थ क्या वस्तु है, इसे लिखा है। उन्होंने कहा है-भेदपरक जो कुछ भी है वह अभूतार्थ है और अभेदपरक ‘भूतार्थ'। इसको निश्चय सम्यकदर्शन भी कहते हैं। इसी के साथ रत्नत्रय की एकता मानी गई है, लीनता मानी गई है, स्थिरता मानी गई है। जिसके द्वारा हमें साक्षात् केवलज्ञान की उपलब्धि अन्तर्मुहूर्त के अन्दर हो जाती है। यह विभाजन हमें आगम अर्थात् श्री धवल, श्री जयधवल, महाबन्ध, गोम्मटसार आदि ग्रन्थों में नहीं मिल सकेगा। यह मात्र अध्यात्म ग्रन्थों में ही मिलता है। इसके द्वारा यात्रा पूर्णता को प्राप्त होती है, अन्यथा जो व्यक्ति अपनी यात्रा इस जीवन में नहीं कर पाता तो उसे मुकाम करने की आवश्यकता पड़ेगी। उसका मुकाम बीच में ही होगा, मंजिल पर नहीं। जो सीधे मंजिल जाना चाहते हैं। उनकी प्रमुखता के साथ यह बात-अभेद रत्नत्रय की कही गई है। सरागसम्यकदर्शन परोक्ष-पदार्थ का हुआ करता है और श्रद्धान तब तक ही होता है जब तक पदार्थ परोक्ष है। वीतराग सम्यकदर्शन का विषय आत्मतत्व, शुद्धपदार्थ, शुद्ध अस्तिकाय और शुद्ध समयसार है-ऐसा आचार्यों ने कहा है। इसको और भी बारीकी से खोलने का प्रयास किया है, उन्होंने कहा है कि-जिस प्रकार केवली भगवान अपनी दृष्टि के द्वारा शुद्ध तत्व का अवलोकन करते हैं, वैसा अवलोकन छद्मस्थावस्था में ‘न भूतो न भविष्यति', क्योंकि बात यह है कि चाहे शुद्धोपयोग हो या शुभोपयोग या अशुभोपयोग, कोई भी उपयोग हो, जब तक कर्मों के द्वारा उपयोग प्रभावित होता है तब तक उसमें वस्तुतत्व का यथार्थावलोकन नहीं हो सकता। अत: बारहवें गुणस्थान तक निश्चयसम्यकदर्शन की संज्ञा दी जाती है। इसके बाद शुद्धोपयोग की परिणति, केवलज्ञान के उपरान्त नहीं रहती। इसका मतलब यह हो गया कि-शुद्धोपयोग भी आत्मा का स्वभाव नहीं है। शुभोपयोग और अशुभोपयोग तो है ही नहीं। इसमें उन्होंने हेतु दिया, ध्यान का नाम शुद्धोपयोग है और ध्यान आत्मा का स्वभाव नहीं, अत: शुद्धोपयोग भी आत्मा का स्वभाव नहीं। "इन्द्रियज्ञानं यद्यपि व्यवहारेण प्रत्यक्ष भण्यते तथापि निश्चयेन केवलज्ञानापेक्षया परोक्षमेव'' (प्रवचनसार ५५-७३) जब इन्द्रियज्ञान की अपेक्षा, मन की अपेक्षा, श्रुत की अपेक्षा और कोई बाहरी साधनों की अपेक्षा से तत्वों का निरीक्षण करते हैं तब शुद्धोपयोग भी प्रत्यक्ष संज्ञा को प्राप्त हो जाता है। लेकिन शुद्धोपयोग और केवलज्ञान में उतना ही अन्तर है, जितना सर्वज्ञता और छद्मस्थावस्था में। अध्यात्म ग्रन्थों में इस सबका खुलासा किया गया है। जो व्यक्ति इस परम्परा का सही ढंग से अध्ययन करता है उसके लिए कहीं पर भी विसंवाद का कोई सवाल ही नहीं। सर्वप्रथम हमें जो सम्यकदर्शन उत्पन्न होगा वह व्यवहार सम्यकदर्शन- सराग-सम्यकदर्शन ही होगा। इसकी उत्पत्ति में दर्शनमोहनीय का और चारित्रमोहनीय की अनन्तानुबन्धी का उपशम-क्षयक्षयोपशम होना अनिवार्य है। इसी का नाम व्यवहार सम्यकदर्शन है। इसके बल पर ही आगे कदम उटेंगे। यदि व्यवहार सम्यकदर्शन नहीं है तो मोक्षमार्ग में आगे कदम उठा सकने का कोई सवाल ही नहीं रह जाता है। महाराज! एक प्रश्न बार-बार आता है कि व्यवहार पहले होता है या निश्चय ? कैसे क्या होता है, कुछ यह भी बता दीजिए? भैय्या! निश्चय, व्यवहार के बिना नहीं होता और व्यवहार जो होता वह निश्चय के लिए होता है। अब निर्णय करना है कि कौन पहले होता है, कौन बाद में। मैं तो आपसे यही कहूँगा कि यदि आपको समझना है तो दो की जगह तीन रखिये, अब क्रम स्पष्ट हो जायेगा। लौकिक दृष्टि में निश्चय और निर्णय का भेद समाप्त कर रखा है, इसलिए यह विवाद है। लेकिन बन्धुओ! निर्णय अलग है और निश्चय अलग। सर्वप्रथम निर्णय होता है, क्योंकि निर्णय के बिना, अवाय के बिना कदम ही आगे नहीं उठा सकते और निश्चय संज्ञा जिसकी दी गई है उसका अर्थ- ‘‘पर्याप्त मात्रा में सब कुछ प्राप्त कर लेना है”। निश्चय का नाम साध्य है। व्यवहार साधन होता है। इस प्रकार जिस साध्य को सिद्ध करना-प्राप्त करना है उसका लक्ष्य बनाना निर्णय है और जिसके माध्यम से, साधन से साध्य सिद्ध होता है वह व्यवहार है तथा साध्य की उपलब्धि होना निश्चय। इस तरह पहले निर्णय होता है फिर व्यवहार और अन्त में निश्चय है। निर्णय के बिना जो मार्ग में आगे चलते हैं वह गुमराह हो जाते हैं और व्यवहार के बिना जो व्यक्ति निश्चय को हाथ लगाना चाहते हैं उनकी क्या स्थिति होती है ? तो आचार्य कहते हैं - ज्ञान बिना रट निश्चय-निश्चय निश्चयवादी भी डूबे | क्रियाकलापी भी ये डूबे, डूबे संयम से ऊबे || प्रमत्त बनकर कर्म न करते अकम्प निश्चल शैल रहे | आत्मध्यान में लीन किन्तु मुनि, तीन लोक पर तैर रहे || समयसार कलश-१११ का पद्यानुवाद (निजामृतपान से) अमृतचन्द्रसूरि ने आत्मख्याति के कलश में एक कारिका लिखी, जिसका यह भावानुवाद किया गया है-निश्चय-निश्चय, कहने मात्र से निश्चय कभी हाथ नहीं लग सकता और मात्र व्यवहार करते-करते भी कभी निश्चय की प्राप्ति नहीं हो सकती। निर्णय करने से भी मतलब सिद्ध होने वाला नहीं। निर्णय भी आगमानुकूल ही होना चाहिए। व्यवहार भी ऐसा हो जो निर्णय के अनुरूप आगे पग बढ़ा रहा हो और निश्चय की भूख खोल रहा हो। अन्यथा तीनों व्यर्थ हैं। अर्थात् वह निर्णय सही नहीं है जो व्यवहार की ओर कदम नहीं बढ़ाता और वह व्यवहार भी सही नहीं माना जाता जो निश्चय तक नहीं पहुँच पाता-मात्र व्यवहाराभास है। 'हेतु नियत को होई"- व्यवहार वास्तविक वही है जो निश्चय को देकर ही रहता है। कारण वही माना जाता है जो कार्य का मुख दिखा ही देता है। ऐसा संभव नहीं कि, प्रभात के ५-६ तो बज जायें और पौ न फटे। प्रात: सूर्योदय से पूर्व ही यह श्रद्धान हो जाता है कि ललामी आ चुकी है, अब प्राची दिशा में नियम से सूर्योदय होगा। यही बात यहाँ कही गई है कि श्रद्धान रखो, किसके ऊपर श्रद्धान रखें ? तो सच्चे देव-गुरु-शास्त्र के ऊपर श्रद्धान रखो, यही व्यवहारसम्यकदर्शन है। श्री धवल का वाचन हो रहा था। उस समय यह बात आई थी कि दर्शनमोहनीय क्या काम करता है ? आचार्यों ने लिखा-जो सात तत्वों को विषय बनाने की क्षमता अथवा उनके ऊपर श्रद्धान करने की क्षमता को Fail विफल कर देता है वह दर्शनमोहनीय है। मतलब यह हुआ कि मात्र शुद्धात्मा की बात ही नहीं कही गई श्री धवल में। इसीलिए आचार्य कहते हैं कि-दर्शनमोहनीय की वजह से जीव की दृष्टि Wrong (गलत) हो रही है। दृष्टि अर्थात् श्रद्धान ही गलत है। शुद्ध आत्मतत्व विद्यमान है और उसको प्राप्त करने की क्षमता भी। लेकिन क्षमता होते हुए भी आज तक हम प्राप्त नहीं कर सके। इसमें क्या गड़बड़ी हो रही है ? आचार्य कहते हैं कि-हमारा आत्मतत्व-द्रव्य उलट गया है, पलट गया है। हमारे द्रव्य का परिणाम कैसा हो रहा है? परिणमन जो हो रहा है वह पदार्थों-गुणों और द्रव्यों का हो रहा है। पर्याय का कभी भी परिणमन नहीं हुआ करता। पर्याय अपने-आप में परिणाम ही है। उसकी कोई परिणति नहीं होती। कर्ता जो होता है वही परिणमन करता है- परिणमन शील हुआ करता है। फिर द्रव्य शुद्ध कैसे माना जा सकता है,जैसा कि कहा जाता है। जिस द्रव्य से अशुद्ध पर्यायें उत्पन्न हो रही हैं वह द्रव्य अशुद्ध ही है। ऐसा कभी नहीं हो सकता कि द्रव्य का परिणामन तो शुद्ध हो और उसके 'परिणाम'अर्थात्पर्यायें अशुद्ध निकलें। मैं गुण को ले करके कुछ बात और कहना चाहूँगा कि शुद्धोपयोग गुण अपने आप में शुद्ध नहीं है, किन्तु शुद्ध होने का कारण होने से शुद्धोपयोग कहा जाता है। शुद्धोपयोग आत्मा का स्वभाव तीन काल में नहीं हो सकता। इसलिए शुद्धोपयोग पैदा करने वाला जो आत्मा है वह शुद्धात्मा नहीं है। अत: स्पष्ट है कि ज्ञानगुण को शुद्ध बनाना होगा। आत्मद्रव्य को शुद्ध बनाना होगा। पर्याय को कोई कभी भी शुद्ध नहीं बना सकता। पर्याय तो पकड़ में भी नहीं आ सकती। ध्यान रखिये, हमें पर्याय को नहीं मांजना। पर्याय को मांजने में लग जायेंगे तो गड़बड़ हो जाएगा। महाराज! फिर द्रव्य को शुद्ध कैसे कहा गया है ? आचार्य कहते हैं कि द्रव्य को शुद्ध इसलिए कहा गया कि उसमें शुद्ध होने की क्षमता है। शुद्ध भी दो प्रकार से अभिव्यक्त होने योग्य है-एक तो अनन्तकाल से एक द्रव्य में कोई अन्य द्रव्य के प्रदेश आकर चिपके नहीं। मिले नहीं। इसका उसमें और उसका इसमें कुछ भी संकर नहीं हुआ, व्यतिकर नहीं हुआ। इस अपेक्षा से द्रव्य को शुद्ध कहा गया है। यह भिन्न द्रव्यों की अपेक्षा से कहा गया है। दूसरी, परिणमन की अपेक्षा से शुद्धि कही जाती है। यानि 'स्वभावात् अन्यथा भवनं विभाव:।' यह अशुद्धि है। ज्ञान गुण का स्वभाव से अतिरिक्त जो परिणमन है वह विभाव है। मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, मन:पर्ययज्ञान, शुभोपयोग, अशुभोपयोग, शुद्धोपयोग आदि जो कोई परिणमन है, केवलज्ञान के पूर्व की जितनी भी अवस्थाएँ हैं, वे सभी अशुद्ध गुण की परिणतियाँ हैं। इस प्रकार की श्रद्धा सम्यग्दृष्टि जीव गुरुदेव के मुख से सुनकर अथवा जिनवाणी माँ के इशारे से बना लेता है, भले ही वह तत्व देखने में नहीं आ रहा हो । इसलिए कहा — कोविदिदच्छी साहू संपडिकाले भणिज्ज रूवमिण। पच्चक्खमेव दिटुं परोक्खणाणे पवट्टंतं॥ (समयसार–१९९) आत्मतत्व का ऐसा ही स्वरूप है। इसलिए इसके ऊपर श्रद्धान नहीं रहने के कारण संसारी प्राणी दर-दर भटकता चला जा रहा है। अपनी शक्ति को एक बार भी उघाड़ने का प्रयास नहीं किया, अनन्तकाल व्यतीत हो गया इस जीव का। अनन्तों बार माँ के उदर में जा-जाकर कम से कम भी नौ-नौ महीनों तक शीर्षासन लगाया। ध्यान रखिये, कोई भी हो, उसे नौ महीने तक माँ के उदर में शीर्षासन लगाना ही पड़ता है - जननी उदर वस्यो नव मास अंग सकुचते पाई त्रास | निकसत जे दुख पाये घोर, तिनको कहत न आवे ओर || (छहढाला-१/१३) कहाँ तक कही जाए उस वेदना की कथा। वेदना होना वहाँ स्वाभाविक है, लेकिन इतनी वेदना-पिटाई होने के बावजूद जीव कभी मिट नहीं सका। पिटना बात अलग है और मिटना अलग। द्रव्य पिट सकता है, मिट नहीं सकता। उसके ऊपर अमिट छाप है। वस्तु, द्रव्य का यह स्वभाव है कि वह कभी मिट नहीं सकता। वह तो 'था', 'है' और 'रहेगा'। ऐसा होने मात्र से उसे सुख नहीं, सुख का अनुभव नहीं हो सका आज तक। इसे जब तक अटूट श्रद्धान नहीं होगा कि जन्म, जरा, मृत्यु जैसे महान् रोग नष्ट कर मैं भी शुद्ध बन सकता हूँ, मेरे गुण, द्रव्य और मेरी जो कुछ भी स्थितियाँ हैं, उन सबको शुद्ध बना सकता हूँ। तब तक ये राग-द्वेष नष्ट होने वाले नहीं। ऐसा श्रद्धान कौन बना सकता है? जिसका दर्शनमोहनीय कर्म का उपशम-क्षय-क्षयोपशम होगा, वही कर सकेगा। इसके बिना श्रद्धान होना तीन काल में भी संभव नहीं, भले ही वह श्रद्धान को शब्दों में कह सकता है लेकिन श्रद्धान जैसी शुभ घड़ी उसे प्राप्त नहीं है। धन्य हैं वे जो भगवान् बनने चले हैं। वह व्यक्ति महान् भाग्यशाली है। जिसको इसके ऊपर यथार्थ श्रद्धान हो गया कि मैं भी इसी प्रकार का तत्व हूँ, ऐसा बन सकता हूँ, जो यद्वा-तद्वा जिस किसी भी व्यक्ति की कही बातों का श्रद्धान नहीं करता, सच्चे देव-गुरु-शास्त्र पर श्रद्धान करता है, उसे ही व्यवहार सम्यग्दृष्टि कहते हैं। वह कर्म के क्षय को उद्देश्य बनाकर तत्व श्रद्धान, सम्यग्ज्ञान के साथ-साथ आगे कदम बढ़ायेगा और क्रमश: महावीर तक जाएगा। विषय पुन: दुहरा दूँ। वीतराग सम्यकदर्शन अभेदरत्नत्रय की प्राप्ति के साथ ही हुआ करता है। उपयोग की धारा जिस समय शुद्ध में ढल जाती है उस उपयोग को शुद्धोपयोग कहते हैं। शुद्धोपयोग वह वस्तु है, जो सम्यकदर्शन के द्वारा आगे बढ़कर, अपनी आत्मा में लीन हो जाता है। इसी को निश्चय सम्यकदर्शन भी कहते हैं। आचार्यों ने, अमृतचन्द्राचार्य ने और जयसेनाचार्य ने भी खोला है इसे। उन्होंने कहा-'अत्र तु वीतरागसम्यग्दृष्टिनां कथनम्' यहाँ पर वीतराग सम्यग्दृष्टियों का ही कथन है। नीचे वाले की विवक्षा नहीं है। फिर महाराज क्या नीचे वाला असफल माना जाएगा? नहीं, अपने आप में-अपनी कक्षा में तो सफल है, ऊपरी कक्षा में उसकी बात नहीं कही जाएगी, क्योंकि यहाँ पर अभेदरत्नत्रय की बात कही जा रही है। जबकि श्री धवल, श्री जयधवल, महाबन्ध इत्यादि में सम्यकदर्शन को चतुर्थ गुणस्थान से बारहवें गुणस्थान तक घटाते चले जाते हैं, परन्तु आचार्य कुन्दकुन्ददेव कहते हैं कि हम यहाँ पर जो बात कह रहे हैं, वह श्रद्धान वाली बात नहीं है, किन्तु ध्यान वाली बात है। ध्यान से सुनिये आप। ध्यान की बात करना अलग है और ध्यान से बात करना अलग। इन दोनों में बहुत अन्तर है। ध्यान के केन्द्र खोलने मात्र से कोई ध्यान में केन्द्रित नहीं होता। आज हम मात्र उपदेश देने में-ध्यान के केन्द्र खोलते जा रहे हैं, इससे अध्यात्म का प्रचार-प्रसार नहीं होगा किन्तु प्रचाल होगा। चार और चाल में क्या अन्तर है ? बहुत अन्तर है। चार का अर्थ स्वयं में चलने में आता है चरति एवं चार और प्रचार में वह बाहर की ओर भाग रहा है। इतना अन्तर है दोनों में। वीतराग-सम्यकदर्शन अभेदपरक होता है और सराग-सम्यकदर्शन भेदपरक। मोक्षमार्ग में दोनों आवश्यक हैं। एक उदाहरण दे देता हूँ-बहुत दिन पहले, गृहस्थावस्था की बात है। कार में बैठकर जा रहे थे। गाड़ी तेज रफ्तार से चल रही थी। उस समय ड्राइवर को सामने से एक गाड़ी आती हुई देखने में आ गई—कानों में ‘हार्न' की आवाज भी आ गई। ड्राइवर ने ऊपर वाली लाइट जला दी, जिसका प्रकाश सामने आती गाड़ी पर पड़ा, गाड़ी देख लेने पर लाइट पुन: नीची कर दी। निश्चय और व्यवहार, यहाँ दोनों घटित हो जाते हैं। निश्चय अपने लिए है और व्यवहार पर के लिए ऐसा नहीं, किन्तु व्यवहार भी पर के साथ-साथ स्व के लिए होता है। जैसे कि गाड़ी की लाइट चूँकि दूसरी गाड़ी देखने के काम आती है। इसका अर्थ-वह लाइट मात्र दूसरों के लिए ही है, ऐसा नहीं है, किन्तु हम स्वयं 'एक्सीडेन्ट' से बचें इसलिए भी उसका प्रयोग होता है। नीचे की लाइट यदि गुम कर दी जाए तो आगे चलना ही मुश्किल हो जाएगा। इसके साथ-साथ एक और स्थिति है कि बीच में एक गाड़ी जा रही थी उसने ज्यों ही अपना ब्रेक लगाया त्यों ही गाड़ी के पीछे जो 'नम्बरप्लेट" थी उस पर लगी लाइट जल गयी। वह कैसी होती है भैय्या ! लाल होती है। लाल नहीं होती। लाइट तो जैसी होती है वैसी ही है। लेकिन उसका काँच लाल होता है। वह सही-सही व्यवहार चलाने के लिए लगाया जाता है जिसके माध्यम से मार्ग बाधक-तत्वों से रहित होता है और गाड़ी की यात्रा आगे निर्बाध होती है। व्यवहार और निश्चय, दोनों को समझने की आवश्यकता है। व्यवहार कोई खेल नहीं है। व्यवहार, निश्चय के लिए है। जब तक निश्चय नहीं है तब तक व्यवहार का पालन-पोषण करना आवश्यक है, क्योंकि व्यवहार के द्वारा ही हम निश्चय की ओर ढलेंगे-बढ़ेंगे। निश्चय की भूमिका बहुत लम्बी-चौड़ी नहीं है, किन्तु केवलज्ञान होने के उपरान्त निश्चय की-शुद्धोपयोग की वही स्थिति होती है जो शुद्धोपयोग होने के पूर्व शुभोपयोग और अशुभोपयोग की होती है। कार्य हो जाने पर कारण की कोई कीमत नहीं रह जाती, लेकिन कार्य से पूर्व कारण की उतनी ही कीमत है जितनी कार्य की। सराग दशा में, व्यवहार दशा में हमें किस रूप में चलना है। इसको जानने की बडी आवश्यकता है। व्यवहार को व्यवहार के रूप में बनाए रखिए। व्यवहार को व्यवहाराभास मत बनाइए। व्यवहार जब व्यवहाराभास बन जाता है तो न वह निश्चय को पैदा करता है और न लौकिक व्यवहार को, उसका कोई भी फल नहीं होता। आभास मात्र रह जाता है। आभास में सुख नहीं, शान्ति नहीं मात्र वह आभास है इसीलिए-'प्रमत्त बनकर कर्म न करते अकम्प निश्चल शैल रहे' आत्मा में अकम्प रहने का मतलब है आत्मा का अप्रमत्त होना। 'प्रमत्त बनकर कर्म करते"यह अवस्था बावलेपन की अवस्था है जो भीतरी दृष्टि को Fail (असफल) कर देती है। उसके द्वारा केवलज्ञान तीनकाल में नहीं हो सकता। प्रमत्त बनने का अर्थ मिथ्यादृष्टि होना नहीं है, बल्कि सराग अवस्था में जाना। यह काम इस कक्षा का नहीं। यहाँ अप्रमत्त अवस्था का, अभेद अवस्था का प्रसंग है। अमृतचन्द्राचार्य ने प्रवचनसार की टीका में कहा है कि-मात्र सम्यकदर्शन के द्वारा मुक्ति नहीं और उसके बिना भी मुक्ति नहीं। चारित्र के द्वारा भी मुक्ति नहीं और उसके बिना भी मुक्ति नहीं। अन्त में उन्होंने कहा-रत्नत्रय के द्वारा भी मुक्ति नहीं होगी, नहीं होगी, नहीं होगी। तब आप कहेंगे-हमें रत्नत्रय का अभाव कर लेना चाहिए। आपके पास जब रत्नत्रय है ही नहीं तो अभाव क्या करेंगे ? वस्तुत: मोक्षमार्ग ध्यान के अलावा और कुछ भी नहीं है। वह भी उपयोग की एकाग्रदशा का नाम है। हलुआ में न हम शक्कर पाते हैं, ना घी और ना आटा, किन्तु शक्कर, घी और आटा के बिना हलुवा कुछ नहीं है। हाँ! तीनों को तीन कोनों में रख दीजिए तब हलुआ नहीं बनेगा, मिला दे तो भी नहीं बनेगा, फिर कब बनेगा? जब तक अग्नि का योग नहीं दिया जाएगा-तीनों मिलकर एकमेक नहीं होंगे तब तक हलुआ नहीं बन सकेगा। इसी प्रकार उपयोग में, जो बाहरी-वृत्ति को देखकर उथल-पुथल मच रही है, उसे भीतर कर लेने को ही अभेद कहते हैं। समयसार में एक गाथा आती है, जिसमें एक नामावली दी गई है बुद्धी ववसाओवि य अज्झवसाणं मदी य विणणाणं । एकट्टमेव सव्वं चित्तं भावो य परिणामो॥ (समयसार-२९०) विज्ञान कहो, परिणाम कहो, अध्यवसान कहो, ये नामावली एक ही बात की गठरी में बँध जाती है। मतलब इन सबसे ज्ञान का चिन्तन-उपयोग को भिन्न रखना है। सराग सम्यकदर्शन के साथ चिन्तन का जन्म होता, किन्तु वीतराग सम्यकदर्शन में चिन्तन मौन-शून्य हो जाता है। सराग सम्यकदर्शन में ज्ञान को सम्यक् माना जाता है, जबकि वीतराग सम्यकदर्शन में ज्ञान को स्थिर माना जाता है। ज्ञान कम्पायमान है, उसकी व्यग्रता को मिटाने के लिए ध्यान है। ध्यान ही मुक्ति है। हाँ! पहले श्रद्धान होता है, ध्यान नहीं। वह श्रद्धान भी, जब तक वस्तु परोक्षभूत है तब तक ही अनिवार्य है, बाद में श्रद्धान नहीं। वीतराग सम्यकदर्शन को श्री धवल, श्री जयधवल आदि में ग्यारहवें-बारहवें गुणस्थान में घटाते हैं, जिसको छद्मस्थ वीतराग संज्ञा देते हैं। आचार्य कुन्दकुन्ददेव भी कहते हैं कि वीतराग बनने के उपरान्त करना-धरना सब कुछ टूट जाता है। वस्तुत: यह एक सम्यक्र प्रणाली है। इसके ऊपर प्रगाढ़ श्रद्धान करना ही जिनवाणी की सेवा है। श्रद्धान करना मात्र सेवा नहीं है, किन्तु उसके अनुसार अपने जीवन में उन सिद्धान्तों को ढालते चले जाना ही सच्ची सेवा है। तब कहीं जिनवाणी का आशय-अभिप्राय क्या है ? इसे ज्ञात कर सकेंगे। लेकिन हम तो ऐसा निर्णय ले लेते हैं कि सर्वप्रथम तो सारा का सारा सुना जाए, बाद में हम करना प्रारम्भ करेंगे, जो होना असंभव है। आचार्य एक-एक कदम आगे बढ़ने पर एक-एक सूत्र देते चले जाते हैं। यदि वह कदम उठाता है तो उसे आगे का सूत्र बताया जाता है। यदि नहीं उठाता तो, ज्यों का त्यों रहने देते हैं। उसे पीछे भी नहीं भगाते। कहते हैं-‘‘यहीं पर रह जाओ, कोई बात नहीं। पीछे वाले आएँ तो उनके साथ आ जाना' ऐसा कहकर उसे छोड़ देते हैं। साथ-साथ यह भी कह देते हैं कि तुम आगे बढ़ोगे तो तुम्हें भी नियम से सूत्र मिलेंगे। भगवान का, आचार्यों का हमारे ऊपर बड़ा उपकार है, जिन्होंने ऐसे-ऐसे गूढ़ तत्वों की, सामान्य से सामान्य व्यक्ति समझ सकें, ऐसी प्ररूपणा की। उन्होंने इसे मुड़कर भी नहीं देखा। मुड़कर देखना उनका स्वभाव भी नहीं है। कहाँ तक मुड़कर देख सकेंगे ? अनन्तकेवली हमारे सामने-सामने से निकल गए हैं और हम इसी स्टेशन पर खड़े हैं। जैसे-गाड़ियाँ आती हैं-जाती हैं। आती हैं, चली जाती हैं। बहुत सारे लोग चले जाते हैं। जाते-जाते मुड़कर के देखते तक नहीं। हमें बुलाते नहीं। कदाचित् देख भी लें, आवाज भी दे दें, तब भी आते नहीं है। ऐसी कैसी बात है? कैसी करुणा है इनकी ? भैय्या! उनका स्वभाव ही ऐसा है। क्या करें ! कहाँ गये वे कुन्दकुन्द भगवान, उमास्वामी, समन्तभद्राचार्य, अकलंकस्वामी और सारे के सारे अनन्त तीर्थकर कहाँ गये ? वर्तमान में हम केवल उनका परोक्ष रूप में स्मरण करते हैं। ऐसा समवसरण होता है, ऐसा गर्भकल्याणक, ऐसा जन्मकल्याणक, तपकल्याणक पाँचों कल्याणक होते हैं। उनके तो कल्याणक हो गए-हो जाते हैं। यहाँ पर तो पंचों का कल्याण नहीं होता, दूसरी जनता की बात ही अलग है। क्यों नहीं होता? आचार्य कहते हैं - 'धम्म भोगणिमित्त' (समयसार–२७५) धर्म को हम भोग-ऐशो-आराम के लिए, ख्याति-पूजा-लाभ के लिए, नाम बढ़ाई के लिए करते हैं। परन्तु ऐसा नहीं होना चाहिए। हम जो करते हैं, वह हमारे लिए ही है, हमारी उन्नति के लिए है, यह विश्वास पहले दृढ़ बनाना चाहिए, फिर भी यदि होता है तो क्या करें ? अनन्तकाल से इस प्रकार का कार्य ही नहीं किया। इसलिए जो भावुकता में आकर कर लेते हैं, उनको भी समझना, समझाना होगा कि-देखो भैय्या ! इसका परिणाम अच्छा निकलना चाहिए। यह काम तो बहुत अच्छा किया। आपने। जैसे-आप सुन रहे हैं, तब मैं यह थोड़े ही कहूँगा कि आपका सुनना ठीक नहीं। बल्कि मैं तो यहीं कहूँगा कि पंचों का कल्याण इस प्रकार से कभी नहीं हो सकता, जब तक ये शब्द नहीं कहे जायेंगे तब तक कल्याण होने वाला नहीं। आचार्य कहते हैं-ख्याति, पूजा, लाभ के लिए नहीं किन्तु कर्मक्षय के हेतु धर्म होना चाहिए। आदहिदं कादव्वं, जं सक्कइ तं परहिदं च कादव्वं | आदहिद-परहिदादो आदहिदं सुडु काद्व्वं || (भगवती आराधना-१५४/३६१) आचार्य कुन्दकुन्ददेव की वाणी कितनी मीठी है और कितनी पहुँची हुई है तथा कितनी तीखी भी है। क्या कहती है ? आत्मा का हित पहले स्वयं करें। आप तो सोचते हैं, अपना कल देखा जाएगा, आज तो दूसरों का करा दूँ। दूसरों का तू नहीं कर सकेगा। पहले तू खुद भोजन करने बैठ जा, तुझे देखकर दूसरों को भी रुचि उत्पन्न हो सकती है। भोजन की माँग हो सकती है। लेकिन स्वयं के बिना दूसरों को समझ में नहीं आयेगा। जो कुछ करना है कर लो। उपकार भी करना है तो लोगों से कह दो-तुम भी बैठ जाओ, भाई, तुम भी बैठ जाओ। लेकिन जिस व्यक्ति को भोजन करना ही नहीं, तो उसकी ओर पीठ कर दे और एक बार जल्दी-जल्दी भोजन कर लें। संसार में कोई स्थायी रहने वाला नहीं। 'संसार' शब्द ही कह रहा है कि जल्दी-जल्दी काम कर लें, नहीं तो सूर्य अस्ताचल की ओर जा रहा है, वह कभी भी रुकने वाला नहीं। उसको मैं क्या कहूँ, स्वयं आचार्य कहते हैं कि-भगवान भी उसे रोकना चाहे तो नहीं रोक सकते और भगवान किसी को रोकना नहीं चाहते। काल रुकता नहीं और किसी को रोकता भी नहीं। इतना तो अवश्य है कि-चल-चल, मेरे साथ चल। तेरे भीतर ही भीतर परिवर्तन होता चला जाएगा, बस! तू अपने स्वभाव की ओर देख ले। मैंने तो अपने स्वभाव को न छोड़ा है, न कभी छोड़ेंगा। क्यों नहीं छोड़ता? आचार्य कहते हैं कि - कालद्रव्य, धर्मद्रव्य, अधर्मद्रव्य और आकाशद्रव्य, शुद्धद्रव्य-शुद्धतत्व हैं। इनके लिए शुद्धि की कोई आवश्यकता नहीं होती, किन्तु जीव और पुद्गल, ये दो तत्व ऐसे हैं, जो शुद्ध भी हो जाते हैं और अशुद्ध भी। पुद्गल द्रव्य ऐसा ही है कि वह शुद्ध होने के उपरान्त भी कालान्तर में अशुद्ध हो सकता है, परन्तु जीव तत्व ऐसा नहीं है, वह एक बार शुद्ध हुआ कि पुन: कभी भी अशुद्ध नहीं होता। उसके शुद्ध करने के लिए क्या करें, वह तो आज तक शुद्ध नहीं हो पा रहा है ? उसे शुद्ध करने के लिए सारे के सारे साबुन बेकार हैं, फिर उसके लिए कौन-सा रसायन है, जिसके द्वारा उसकी अशुद्धि मिट सकती है ? आचार्य कहते हैं कि एकमात्र ही रसायन है उसके लिए, वह भी यह - रतो बंधदि कम्मं मुंचदि जीवो विरागसंपणणो। एसो जिणोवदेसो तम्हा कम्मेसु मा रज्ज॥ (समयसार–१५०) चार-चरणों में, चार बातें कही गयी हैं-बन्ध की व्यवस्था-राग करोगे तो बन्ध होगा, मुक्ति की व्यवस्था-वीतरागता को अपनाओगे तो मुक्ति मिलेगी, उपदेश-यह जिनेन्द्र भगवान का उपदेश है। इसलिए ‘जो कुछ होना है सो होगा। ”ऐसा नहीं कह रहे कुन्दकुन्द भगवान। क्या कहते हैं-‘तम्हा कम्मेसुमा रज' यह राग की बात छोड़ दे।” "यह राग आग दहे सदा ताते समामृत सेईए" छहढाला - ६/१५ अरे! ममता, मोह, मत्सर की इस देह को धारण करते-करते, अनन्तकाल व्यतीत हो गया। एक बार भी आँख मीचकर अपने आपको देख ले कि ‘मैं कौन हूँ', ‘यहाँ पर क्यों आया हूँ', 'कब तक चलना है”, इसके बीच में कोई रास्ता है कि नहीं ? आज अफसोस की बात तो यह है कि, इस संसारी प्राणी को ज्ञान मिलने के उपरान्त भी, 'धम्मं भोगणिमितं' है। सोचता है, बहुत सोचता है, 'सद्वहदि'-श्रद्धान करता है, 'पत्तेदिय' प्रतीति, ‘रोचेदि' रुचि करता है, 'फासेदि' स्पर्श भी करता है। तत्व का ऐसा स्पर्श करता है। जैसे-दो मेगनेट मिल गए हों, फिर भी भीतर का भोग परिणाम समाप्त नहीं हो पा रहा है। कल या परसों के दिन हम सब देखेंगे कि-भोगों को किस प्रकार से उड़ा देते हैं-लात मार देते हैं भगवान, इस सबकी आयोजना आप सुनेंगे, देखेंगे भी। गद्गद् हो जाएगा हृदय। आज हमारे पास एक कोड़ी बराबर भी भोग नहीं है, फिर भी उसको छोड़ने की हिम्मत नहीं होती। लेकिन तीन लोक की सम्पदा, उसको भी लात मारते हैं। यह कमाल की बात है, भीतरी बात है। भीतर से ही यह काम होता है, उसके बिना सम्भव नहीं है। सही दृष्टि यही है, जिसको यह श्रद्धान हो गया है-तीन लोक की सम्पदा मेरे काम आने वाली नहीं, यह सम्पदा वस्तुत: सम्पदा ही नहीं। सम्पदा किसको कहते हैं ? आचार्य समन्तभद्र स्वामी ने स्वयंभूस्तोत्र में अरनाथ भगवान की स्तुति करते हुए कहा है - मोहरूपो रिपुः पापः कषायभटसाधनः । दृष्टिसम्पदुपेक्षास्त्रैस्त्वया धीर! पराजितः॥ (स्वयंभू स्तोत्र-१८/५) हे भगवन्! सम्पदा वही होती है, जो वीतराग-विज्ञान रत्नत्रय है। इसके माध्यम से उसी को प्राप्त कर सकते हैं, जो अनन्तकाल तक अक्षय-अनन्त मानी जाती है। वही मेरे लिए प्राप्तव्य हैप्रयोजनीय है, इस प्रयोजन को बना करके जो व्यक्ति सात तत्वों के ऊपर श्रद्धान करता है, नौ पदार्थों, छह द्रव्यों के ऊपर श्रद्धान करता है, उसका श्रद्धान ही वीतराग-विज्ञान के लिए कारण बन जाएगा और अन्यथा प्रयोजन के साथ वही ख्याति-पूजा-लाभ या सांसारिक वैभव के लिए भी कारण बन जाएगा, जिनवाणी तो आपने पढ़ी, लेकिन भोगों के लिए पढ़ी तो प्रयोजन सही-सही नहीं माना जाएगा। वर्णीजी की 'मेरी जीवन गाथा' में एक घटना है। उसमें उन्होंने लिखा है-देखो बन्धुओ! ध्यान रखिये, 'कभी भी जिनवाणी माता के माध्यम से अपना व्यवसाय नहीं चलाना' क्योंकि, जिसके द्वारा रत्नत्रय का लाभ होता है उसको तुम क्षणिक व्यवसाय का हेतु बना रहे हो। चार पुरुषार्थ हैं- अर्थ, काम, धर्म और मोक्ष पुरुषार्थ। तो अर्थ पुरुषार्थ करो और वित्त का अर्जन करो। जिनवाणी के माध्यम से तो रत्नत्रय की सेवा करो, रत्नत्रय की प्राप्त करने का व्यवसाय करो, इसी का नाम सम्यकज्ञान है। बड़ी अच्छी बात कह दी। छोटी जैसी लगती है, लेकिन है बहुत बड़ी। ठीक है! जिनवाणी का क्या गौरव होना चाहिए? उसे कैसे रखें, कैसे उठायें ? इसका ख्याल होना चाहिए। जैसे-आप लोग जब धुले हुए-साफ सुथरे अच्छे-अच्छे कपड़े पहनकर आ जाते हैं तो कैसे बैठते हैं ? मालूम है आपको! आपके बैठने में आदाननिक्षेपण समिति आ जाती है। भीतर जेब में रखी रूमाल, एक प्रकार से पिच्छिका का काम करने लग जाती है। उस समय हम सोचते हैं कि भैय्या! यह कौन-से मुनि महाराज आ गए। कैसी आदान-निक्षेपण समिति चल रही है, यदि रूमाल नहीं है आपके पास तो फ्रैंक ही मारते हैं और ऐसे बैठ जाते हैं, जैसे बिल्कुल ठीक-ठीक आसन लगाकर प्राणायाम होने वाला है। ऐसे कैसे बैठ गये ? कौन-सा आसन है वह! आसन-वासन कुछ नहीं है वह, किन्तु वसन (वस्त्र) गन्दा न हो इसलिए ऐसा बैठते हैं आप लोग। इस प्रकार की प्रवृत्ति करते समय जरा सोचो तो बन्धुओ! इससे किसकी रक्षा हो रही है? वस्त्र की या जीवों की, जब वस्त्रों की रक्षा आप इतने अच्छे ढंग से करते हैं तब जिनवाणी की रक्षा किस प्रकार करना चाहिए। आचार्यों ने कहा है-उसको नीचे मत रखो। जहाँ कहीं उसे ऊँचे आसन पर रखो, उसके प्रति आदर से खड़े होओ। जब कभी मुझे समय मिलेगा, तब सम्यग्ज्ञान के बारे में कहूँगा। जिस प्रकार सम्यकदर्शन के आठ अंग हैं, उसी प्रकार से सम्यग्ज्ञान के भी आठ अंग हैं, इन आठ अंगों को देखकर ऐसा लगता है कि हमारा ज्ञान अभी बहुत कुछ संकुचित दायरे में है। हम वस्तुत: इन अंगों का पालन नहीं कर पा रहे हैं, फिर भी सम्यग्ज्ञान होने का दम्भ रखते हैं। ऐसा सम्भव नहीं है कि 'अंग के बिना अंगी की रक्षा हो जाए।' यदि सम्यग्ज्ञान की रक्षा चाहते हो तो उस जिनवाणी माँ की रक्षा करो। ध्यान रखिये-जब तक इस धरती तल पर सच्चे देव-गुरु-शास्त्र रहेंगे, तब तक ही हमारी भीतरी आँखें खुल सकेंगी। भीतरी आँख जितनी पवित्रता के साथ खुलेगी, उतना पवित्र-पथ देखने में आयेगा। ज्यों ही इसमें दूषण आने लग जाएंगे तो पथ की पवित्रता नष्ट/समाप्त हो जाएगी। दृष्टि-दूषण के कारण कौन-कौन हैं ? अज्ञान, राग, लोभ और भय, इन चारों के द्वारा दृष्टि में दूषण आता है/आ सकता है। पवित्र वस्तुओं में दूषण लगने के ये चार मार्ग हैं। यदि हमारा राग जागृत हो जाए या लोभ जागृत हो जाए तो लोभ के कारण हम तत्व को इधर-उधर करने लग जाएंगे, जो हमारे लिए अभिशाप सिद्ध होगा। वह घड़ी वरदान नहीं हो सकती, अभिशाप ही सिद्ध होगी क्योंकि जिनवाणी में परिवर्तन करना महान् दोष का काम है साथ ही महान् मिथ्यात्व का भी। दर्शनमोहनीय का जो बन्ध होता है, उसके लिए तत्वार्थसूत्र में उमास्वामी महाराज ने कहा है ‘‘केवलि-श्रुतसंघधर्मदेवा-वर्णवादो दर्शनमोहस्य ।।'' तत्त्वार्थसूत्र – ६/१३ जिनवाणी का एक अक्षर भी यहाँ का वहाँ न हो, निह्नव न हो। इस प्रसंग पर मैं पुन: कहूँगा कि सरागसम्यकदर्शन के साथ तत्व का श्रद्धान किया जाता है और वीतराग सम्यकदर्शन के साथ ध्येय वस्तु को प्राप्त करने के लिए उपयोग को एकाग्र किया जाता है। ये दोनों सम्यकदर्शन प्राप्त हो जाते हैं तो केवलज्ञान भी बहुत जल्दी प्राप्त हो जाता है। यही एक मात्र क्रम है। जिसे बृहद्द्रव्यसंग्रह की टीका में स्पष्ट किया गया है। द्रव्यसंग्रह टीका गृहस्थावस्था में जो भरतादि थे उनके सम्यकदर्शन की बात है तो उन्हें क्षायिकसम्यकदर्शन था उसे भी उन्होंने ‘व्यवहार सम्यकदर्शन' यह संज्ञा दी है। वीतराग सम्यकदर्शन के लिए वे कहते हैं कि जिस समय मुनि महाराज अभेद रत्नत्रय में लीन हो जाते हैं तब ही वीतराग सम्यग्दृष्टि हैं। वे मुनि महाराज ही वीतराग ज्ञानी हैं और वे ही वीतराग चारित्री भी हैं। इसीलिए उनको आदर्श बनाकर उनके पदचिह्नों पर चलें तो नियम से एक दिन हमें भी वह घड़ी प्राप्त होगी, जिसकी प्रतीक्षा में हम अनादिकाल से हैं। मैं भगवान् से बार-बार प्रार्थना करता हूँ कि आप लोगों की मति भी इसी ओर हो और मेरी मति इससे आगे बढ़ती हुई हो। जल्दी-जल्दी आगे पहुँच गए हैं जो उनको आदर्श बनाकर वहाँ पर जाने के लिए याद रखें। जब तक हमारे सामने आदर्श नहीं रहेगा तब तक हमारे कदम ठीक-ठीक नहीं उठ सकेंगे। इस पंचमकाल में, वह भी हुण्डावसर्पिणीकाल में यदि कोई शरण है तो सच्चे देवगुरु-शास्त्र ही हैं। देव का तो आज अभाव है, लेकिन अभाव होते हुए भी स्थापना-निक्षेप के माध्यम से आज भी हम उन वीतराग भगवान् को सामने ला रहे हैं, जिन भगवान् के बिम्ब-दर्शन मात्र से, भीतर बैठा हुआ अनन्तकालीन मिथ्यात्व छिन्न-छिन्न हो जाता है, सारी की सारी कषाय छिन्न-भिन्न हो जाती है, ऐसी प्रतिमा की स्थापना के लिए ही आप लोगों ने पाँच-छह दिन की यह आयोजना की है, अपने वित्त का सदुपयोग और अपने समय का, जो कुछ भी था, न्यौछावर किया। आप लोग भी इस आयोजना को देखने के लिए आए। भावना की थी, आज यही आपके लिए धर्म-प्रभावना का कारण है और ध्यान के लिए भी, लेकिन यह ध्यान रखिये-'धम्मं भोगणिमित' रूप भावना नहीं होना चाहिए, आप लोगों ने बहुत कुछ किया जो फालतू नहीं, बहुत आवश्यक है, लेकिन इतना और कर लेना कि भीतर कभी भी भोगों की वांछा न हो, भीतर कभी भी ख्याति-पूजा-लाभ की वासना न हो, क्योंकि यह भावना जागृत हुई कि सारा का सारा काम समाप्त, अन्दर रहने वाली बारूद में एक बार भी अगर, अगरबत्ती लग गई तो विस्फोट होने से कोई नहीं बचा सकता। वह विस्फोट ऐसा भी हो सकता है, जिसका जीवन में कभी अनुमान न किया हो। इसलिए अन्दर बारूद रहते हुए भी उसे अन्दर ही सुरक्षित रखो और अगरबत्ती लगने से पहले ही उसकी बाती (बत्ती) को ऐसा तोड़ दो ताकि तीनकाल में भी विस्फोट न हो, फिर चाहे उसे जेब में भी रख लें तो कोई डर नहीं। अतः सच्चे देव–गुरु–शास्त्र को आदर्श बनाकर चलना चाहिए, क्योंकि कुन्दकुन्द भगवान भी जब उनको आदर्श मानकर चले हैं तो हम किस खेत की मूली हैं। क्या ज्ञान है हमारे पास ? क्या चारित्र है हमारे पास ? निश्चय से तो कुछ भी नहीं है। हम तो उनकी पग-रज होने के लिए जीवित हैं। नहीं तो इस संसार में हमारा कोई अस्तित्व नहीं। यदि वे नहीं होते तो हम अपनी आत्मा की आराधना कैसे करते ? आत्मा की बात भी स्वप्न में नहीं आ सकती थी, हमें इस जिनवाणी की, ऐसे गुरुओं की और सच्चे देव की शरण मिली हैं इसलिए हमारे जेसा बडभागी और कोण हो सकता है, किन्तु बड़भागी कहकर रुकना नहीं चाहिए। रुकना वस्तु का स्वभाव नहीं और न ही पीछे मुड़कर देखना। इसलिए इस बड़भागीपन को याद रखते हुए सच्चे देव-गुरु-शास्त्र की शरण में जाकर रत्नत्रय का लाभ प्राप्त कर भगवान कुन्दकुन्ददेव ने जिनको आदर्श बनाकर जो ज्ञान और चारित्र अंगीकार किया, वह हम कर सकें और सभी संसारी प्राणी उसे अंगीकार करने की चेष्टा करें, ऐसी भावना भाता हूँ।
  18. यह पंचकल्याणक महोत्सव का अवसर आप लोगों को उपलब्ध हुआ है। जनता ने आग्रह किया था, प्रार्थना की, कि आप भी यहाँ पर आयें-पधारें। हमने कहा-देखो! जैसा अभी पण्डितजी ने कहा-महाराजजी कुछ कहते नहीं। मैं तो वह कहता हूँ जो आत्मा की बात होती है। आत्मा का स्वभाव देखना जानना है। इसलिए-क्या होता है ? आपको भी देखना है। लेकिन आप कुछ होने से पहले ही देख लेना चाहते हैं, जो सम्भव नहीं है। वस्तु का परिणमन जिस समय, जिस रूप में होता है, उसी को देखा जा सकता है और उसी का अनुभव किया जा सकता है। रागी, द्वेषी, कषायी, व्यसनी व्यक्ति परिणमन तो कर रहा है किन्तु वह उसका जानना-देखना छोड़कर भविष्य की लालसा में पड़ जाता है। संसार की यही रीति है। यही रीति आप लोगों को पसंद आती है इसलिए संसार में हैं। जिस दिन वस्तु का वर्तमान परिणमन हमारा ध्येय बन जाये-पेय बन जाये-ज्ञेय बन जाए, उस दिन संसार में हमारे लिए कोई भी वस्तु अभीष्ट नहीं रह जायेगी। हमने यही कहा, अभी यही कहूँगा और आगे के लिए क्या कह सकता हूँ-पता नहीं ? जब कभी भी पूछा जाए यही कहता हूँ, नहीं भी पूछे तो भी मैं यही कहना चाहता हूँ कि देखना-जानना अपना स्वभाव है तो उसे हम भूलें ना। मंगलाचरण में आचार्य कुन्दकुन्ददेव को नमोऽस्तु किया गया और प्रार्थना की कि हे भगवन्! जिस प्रकार आपका जीवन निष्पन्न-सम्पन्न हुआ, उसी प्रकार हमारा भी जीवन सम्पन्न हो। हमारा भी जीवन प्रतिपन्न हो। हम अभ्युत्पन्न-मति वाले हों। हमारे पास मति तो है, लेकिन वह मति चौरासी लाख योनियों में भटकने-भटकाने वाली है। उसको हम भूल जायें और आप जैसे बन जायें, बस और कोई इच्छा नहीं। मोक्षमार्ग इतना बड़ा नहीं है, जितना हमने समझ रखा है। हम सोचते हैं कि अनन्तकाल से परिचय में आने पर भी वह अधूरा-सा ही लगता है, कभी भी पूर्ण होता नहीं अत: मोक्षमार्ग बहुत बड़ा है, लेकिन मोक्षमार्ग बहुत अल्प-स्वल्प है। कल्पकाल से आ रहे दु:ख को, शान्ति में परिवर्तित कराने की क्षमता इसमें है। मोक्षमार्ग बहुत प्रयास करने पर प्राप्त होता है, ऐसा भी नहीं है। यह तो बहुत शान्ति का मार्ग है। जैसे-एक भवन निर्माण कराना था। देश-विदेशों से इंजीनियरों को बुलवाया गया। उन्होंने नक्शा आदि तैयार कर दस साल तक परिश्रम किया और दस-बीस लाख रुपये खर्च कर उसे तैयार भी कर दिया। लेकिन वह पसंद नहीं आया। अब तो यही समझ में आता है कि जिस प्रकार तैयार होने में दस साल और लाखों रुपये लगे हैं, वैसे इसे साफ करने में और लगेंगे। इंजीनियरों से पूछा गया-हमें यह पसंद नहीं है। इसके निर्माण में तो दस साल लग गये तो क्या इसको गिराने में भी इतना ही समय लगेगा ? उन्होंने कहा-नहीं। निर्माण के लिए बहुत समय लगता, नाश के लिए नहीं। इसी प्रकार "कर्मक्षय के लिए इतने प्रयास, जंजाल और उलझनों की कोई आवश्यकता नहीं।"आपने जीवन में बहुत कुछ कमाया है, जमाया है, अर्जित किया है व उसको बांध बूंधकर रखा है, लेकिन अब उसे छोड़ने के लिए लम्बे समय की आवश्यकता नहीं है। इतना ही आवश्यक है कि अपनी खुली आँखों को इन पदार्थों की तरफ से मोड़ लें। "दृष्टि नाशा पै धरें" बन्द भी नहीं करना है। मात्र अपनी आँखों के बीच में एक ‘एंगिल' बन जाए-कोण बन जाए तो हमारा दृष्टिकोण भीतर की ओर आ जाएगा, यही पर्याप्त है। वहीं के वहीं परिवर्तन हो जायेगा। सब वस्तुएँ वहीं धरी रहेगी। सागर, सागर में है जयपुर, जयपुर में है। जयपुर वाले वहाँ पर तभी तक हैं, जब तक कि उनका दृष्टिकोण उधर है-सम्बन्ध जोड़ रखा है। लेकिन न जयपुर आपका है ना हमारा। न सागर आपका है, ना किसी अन्य का। सागर, सागर में है। भवसागर, भवसागर में है। हम तो उसे तैर रहे हैं। बस! आप सागर में रहते हैं और हम सागर पर रहते हैं। इतना ही अन्तर है। बन्धुओ! सागर पर रहने वाला, भवसागर में रहने वाला नहीं होता। यह संसारी प्राणी नहीं हुआ करता। वह तो मुमुक्षु हुआ करता है। चाहने वाले मोही का नाम मुमुक्षु नहीं हुआ करता। "मोतुमिच्छु मुमुक्षु" मुमुक्षु, शब्द की व्युत्पति ही कहती है कि वह जोड़ता नहीं, छोड़ने की इच्छा करता है। लेकिन संसारी प्राणी जोड़ने की इच्छा करता है। भैया! आप क्या चाहते हैं। जोड़ना या छोड़ना ? जोड़ना चाहते हैं, इसीलिए मैं कहता हूँ-भैय्या! मुमुक्षु की कोटि में नहीं आ सकते। पण्डितजी अभी बोल रहे थे कि क्या छोड़े ? जो जोड़ा है, उसे ही छोड़ना है। जिसके साथ हमारी लगन है, प्यार है, जिसको हमने अपनी तरफ से इंगित किया, प्रयास के साथ अर्जित किया, उसे ही छोड़ना है। लेकिन लगता है यदि भगवान् भी कह दें तो छोड़ना आप लोगों को संभव नहीं हो सकेगा। भगवान् कह भी तो रहे हैं-‘कि तुम्हें वही छोड़ना है, जो जोड़ा है, मैंने जो जोड़ा है, वह नहीं। पूर्वावस्था से मैंने भी जो जोड़ा था उसे छोड़ दिया, लेकिन अब जो यह जुड़ गया है, वह अब जीवन का अंग/हिस्सा बन गया है।” जीवन का स्वभाव धर्म है, धर्म को कभी नहीं छोड़ना है। फिर क्या छोड़ना है ? छोड़ना वही है, जो आपने जोड़ा है, मुझे यह नहीं पता कि आपने क्या-क्या जोड़ रखा है। भगवान् का कहना तो इतना ही है कि, जो जोड़ रखा है, जोड़ते जा रहे हो और जो जोड़ने का संकल्प ले लिया है, भविष्य का, जीवन जीने के लिए जो तैयारी करने का प्रयास चल रहा है, बस! उसको ही छोड़ना है, फिर आपका भविष्य अन्धकारमय नहीं होगा। यह जो 'आर्टीफिशयल लाईट' है उससे आँखों पर चमक आ रही है, इसको फेंक दीजिए। वर्तमान में जितना भी प्रकाश है, वह आँखों को खराब करता है, अत: इस प्रकाश को छोड़ दीजिए। यह प्रकाश, प्रकाश नहीं। प्रकाश तो वह है, जिसमें कोई भी वस्तु अन्धकारमय नहीं रहे, कोई भी पदार्थ ज्ञातव्य नहीं रहे। वह प्रकाश लाइए, बाहर से ‘स्टोर' किया गया प्रकाश हमारे काम का नहीं। वह अन्धकार के सामने शोर करता है और उसे भगा देता है, लेकिन भगाने वाला प्रकाश, प्रकाश नहीं हो सकता। "प्रकाश तो अपने-आप में सबको लीन कर लेता है, चाहे वह अन्धकार ही क्यों न हो।” समन्तभद्र स्वामी ने स्वयंभूस्तोत्र में कहा - दीपस्तमः पुद्गलभावतोऽस्ति । स्वयंभू स्तोत्र – ५/४ दीपक का प्रकाश तम को कभी भगाता नहीं, किन्तु तम को ही प्रकाशमय बना देता है। वस्तु का एक स्वभाव, गुण, प्रकाशमय होना भी है तो दूसरा विभाव अन्धकारमय होना। हमारा ज्ञान एक नहीं, वहीं के वहीं सब कुछ हो जाएगा। कहीं भागना नहीं, कहीं जाना नहीं, किन्तु जो जोड़ने का भाव है, जिसके साथ जुड़न चल रहा, उसको जानना है, पहचानना है। यह कोई उलझन की बात नहीं है, बहुत सीधी-सादी बात है। मुमुक्षु जुड़ नहीं रहा, जोड़ नहीं रहा, उसे छोड़ने की इच्छा कर रहा है। छोड़ने की इच्छा, इच्छा नहीं है, वह छोड़ेगा और ऐसे छोड़ेगा कि बस यूँ आँख फेर लेगा। अरे! ऑख क्या फेरेगा ? उसमें भी तो गर्दन को व्यायाम करने की आवश्यकता है, लेकिन वह तो वहीं के वहीं, वैसा का वैसे ही स्वस्थ हो जायेगा। अब आप भले ही पूछने लग जायें कि -क्या बात हो गई, ऐसी कौन-सी उपेक्षा आ गयी। उसके लिए तो अब उपेक्षा नहीं, मात्र किसी से भी अपेक्षा नहीं है, इतना ही है। दुनियाँ की दृष्टि में वह नटखट-सा लगने लगता है। जब हमारा पेट भरा हो, तब किसी की आवश्यकता नहीं, अपेक्षा नहीं। आप मेहमान के यहाँ गये हैं। आपके सामने बहुत से व्यञ्जनों से शोभित थाली परोस दी गई और पूछा जाता है कि आपको क्या दें दे ? क्या चाहिए? .बस! इतना ही चाहिए कि अब अधिक मत पूछिए, क्योंकि हमारा पेट भरा है। आपने जो अनेक प्रकार के व्यञ्जन बना रखे हैं, इन्हें इसमें डालें, ऐसा नहीं हो सकता। भरपेट होने पर कोई इच्छा नहीं। इच्छा बताने की आवश्यकता ही नहीं। जहाँ पर अपेक्षा है, वहाँ पूछताछ होती है। जहाँ पर अपेक्षा नहीं वहाँ पर उपेक्षा हो गई। इन शब्दों की व्युत्पत्ति यूँ कहना चाहूँगा- "अपगतं ईक्षण यस्य सा इति अपेक्षा" अर्थात् जिसके जानने-देखने की समीचीन दृष्टि ही समाप्तप्राय: है -हो चुकी है उसका नाम अपेक्षा है और "ईक्षणस्य समीपं इति उपेक्षा" अर्थात् बिल्कुल निकट से देख रहा/रहे हैं। बहुत निकट आ चुका है, इसलिए दूसरे पदार्थों की अपेक्षा नहीं, उसी का नाम उपेक्षा है। समन्तभद्राचार्य ने स्वयंभूस्तोत्र १८/५ में अरनाथ भगवान की स्तुति करते हुए कहा है - ‘‘ दृष्टिसम्पदुपेक्षास्त्रैस्त्वया धीर! पराजितः '' स्वयंभू स्तोत्र - १८/५ सम्यक दर्शन-देखना, सम्पत्-आत्मा की सम्पदा ज्ञान धन। आचार्य समन्तभद्र स्वामी ने रत्नत्रय की विभिन्न स्थानों पर भिन्न-भिन्न शब्दों से बात कही है, सम्पत्-वीतराग विज्ञान। ज्ञान नहीं, किन्तु वीतराग विज्ञान। चारित्र के लिए भी उन्होंने ऐसा शब्द चुना जिसे दुनिया 'उपेक्षा' की दृष्टि से देखती है, रागद्वेष की दृष्टि से देखती है। चारित्र के लिए उपेक्षा भी बोलते हैं। जिसके पास आना किसी को इष्ट नहीं। दूर जाना तो बहुत इष्ट-सरल है। समझने के लिए, कोई व्यक्ति निर्धन था, अब उसे कुछ धन मिल गया तो उसमें गति आ गई। पहले गति तो थी लेकिन पैरों में थी। पैरों से पैदल चलता था। अब भी पैरों में गति है, लेकिन अब पैडल चला रहा है। साइकिल पर बैठ गया है। गति हो गई, प्रगति हो गई, किन्तु अभी रास्ते पर चल रहा है। जब विशेष रूप से धन कमाता है तो मोटरसाईकिल ले आता है। पहले 'बाइसिकल' थी अब 'मोटरसाईकिल' आ गई। यदि और धन आ जाता है तो उसमें गति और तेज हो जाती है। गति तो तेज होती है, पर आत्मा को छोड़कर, केन्द्र को छोड़कर, बाहर की ओर होती है। आत्मा को बहिरात्मा बना देता है धन जिससे भागने लगता है, तेज चलने से 'एक्सीडेन्ट' हो सकता है। धन की वृद्धि से वह अब मोटरसाईकिल से कार पर आ जाता है। इससे आगे कार से भी उठने लगता है। कार भी बेकार लगने लगती है तो प्लेन की बात आ जाती है। जैसे-जैसे धन बढ़ता गया, वैसे-वैसे विकास तो होता गया, लेकिन धर्म को नहीं समझ पाया, जो इसकी निजी सम्पदा है। इस प्रकार धन के विकास में संसारी प्राणी अपनी सम्पदा ज्ञान का दुरुपयोग भी करता जा रहा है। कल्पना करिए, जो पैदल यात्रा करता है, यदि वह गिर जाता है तो क्या होता है? थोड़ी बहुत चोट लग जाती है, फिर उठ जाएगा और चलने लग जायेगा। यदि साईकिल से गिर जाए तो? थोडी ज्यादा चोट लग सकती है। यदि मोटरसाईकिल से गिरे तो ? उसे उठाकर अस्पताल लाना होगा। यदि कार से दुर्घटना हो जाये तो ? गंभीर समस्या हो जाती है और यदि प्लेन से यात्रा करते हुए 'एक्सीडेन्ट' हो जाता है तो ? वह तो देवलोक ही चला जाता है। दिवंगत हो जाता है। उसके मृत शरीर का दाह संस्कार करने की भी कोई आवश्यकता नहीं पड़ती। बन्धुओ! धन असुरक्षित करता है और धर्म सुरक्षित। समन्तभद्रस्वामी ने कहा-भगवान, कामवासना को आपने कौन-से शस्त्रों के द्वारा जीता ? कामदेव को आपने अण्डर में कैसे रखा ? दृष्टि-सम्यक दर्शन, सम्पद-सम्यक ज्ञान और उपेक्षा-सम्यक्र चारित्र वीतराग विज्ञान इन तीनों शस्त्रों के द्वारा ही आपने उस वासना को, जो उपयोग में ही लीन-एकमेक हो रही थी जीत लिया। अपने अण्डर में कर संयमित बना लिया, नियमित बना लिया। यह रास्ता बहुत सरल है। इसको समझने की ही देर है कि वह सारा का सारा काम समाप्त हो जायेगा जो अनन्तकाल से चला आ रहा है। ऐसी ही भावनाओं को लेकर कोई भव्य- कश्चिद्भव्य: प्रत्यासन्न-निष्ठ प्रज्ञावान् स्वहितमुपलिप्सुर्विवित्त परमरम्ये भव्यसत्त्व-विश्रामास्पदे क्वचिदा-श्रमपदे मुनिपरिषणमध्ये संन्निषण्णं मूर्त्तमिव मोक्षमार्ग-मवाग्विसर्गं वपुषा निरूपयन्तं युक्त्यागमकुशलं परहितप्रतिपादनैक-कार्यमार्यनिषेव्यं निर्ग्रन्थाचार्यवर्यमुपसद्य सविनयं परिपृच्छति स्म । (सर्वार्थसिद्धि, पृ. १) प्रत्यासन्न भव्य, प्रज्ञावान्-बुद्धिमान-ज्ञानवान इन उपाधियों के साथ एक उपाधि है, "स्वहितमुपलिप्सु:" यह मुमुक्षु का सबसे पैनी दृष्टि वाला लक्षण है। मुमुक्षु वही है, जैसा पहले कहा था -"मोक्तुमिच्छुः मुमुक्षुः" । भोक्तुमिच्छुः। बुभुक्षुः हो जाता है। बुभुक्षु की चाह असमाप्त है और मुमुक्षु अपनी चाह को ही मेटना चाहता है। मुमुक्षु की दृष्टि, धन के विकास में नहीं, जैसे-जैसे धन का विकास चाहेगा, वैसे-वैसे वह बुभुक्षु बनता चला जायेगा। भोग के पथ पर संसारी प्राणी अनन्तकाल से चलता आया है। यह ऐसा पथ है - 'कापथे पथि दुःखानाम्' रत्नकरण्डक श्रावकाचार-१४ जिस पर राउंड लगाते हुए भी लगता है कि मैं बिल्कुल नये पथ पर चल रहा हूँ। वह पथ, जनपथ की ओर ले जाता है, जिनपथ की ओर नहीं, जनपथ, जिस पथ पर वासना से युक्त लोग चलते रहते हैं। जिनपथ से विपरीत दिशा की ओर ले जाता है। जनपथ, जिनपथ कदापि नहीं बन सकता | आज की यह आयोजना, जिनपथ पर चलने के लिए ही है। राग के समर्थन के लिए नहीं, वीतरागता एवं वीतरागी के समर्थन के लिए है। हमें धन का समर्थन-परिवर्धन नहीं करना किन्तु उसका परिवर्जन/विसर्जन करने का काम, इस अवसर पर करना है। धन के द्वारा नशा, वासना का ऐसा रंग चढ़ जाता है, जिससे लगता है कि हम बहुत सुख का अनुभव कर रहे हैं, लेकिन ध्यान रखिए! जैसे-जैसे धन बढ़ता जायेगा, वैसे-वैसे धर्म ओझल होता जायेगा एवं उसका पथ भी। पथ पर चलने के लिए बोझिलपना भी आता जाता है। जहाँ से उपासना प्रारम्भ होती है वहाँ बढ़ने के लिए इन पदों में शक्ति क्यों नहीं आ रही, कहाँ जा रही है? जबकि वासना की ओर बढ़ने के लिए स्वप्रेरित है। आत्मा को/जीव को उस ओर बढ़ने के लिए धन का विसर्जन आवश्यक होता है। इस प्रकार सारी इच्छाओं को विसर्जित कर अपने हित को चाहने वाला यह भव्य कहा जा रहा है। "क्वचिदाश्रमपदे मुनिपरिषण्मध्ये" एकान्त स्थल में जहाँ मुनि-महाराजों की मण्डली के बीचों बीच बैठे हैं आचार्य महाराज! वह रागी नहीं, वासनाग्रस्त नहीं, मोही नहीं, परम वीतरागी हैं। युक्ति और आगम में कुशल हैं। कुछ बोलते नहीं, वह तो अपनी मुद्रा के द्वारा, वीतराग छवि के द्वारा, नग्न काया के द्वारा मोक्षमार्ग का, बिना मुख खोले उपदेश दे रहे हैं। जैसा कि पण्डितजी ने कहा था ‘चलते फिरते सिद्धों से गुरु' ऐसे सन्त जो अरहन्त के उपासक हैं, धनपति के नहीं, धन की चाह नहीं, जो चाह की दाह में झुलसा हुआ अपना आत्मतत्व है उस आत्मतत्व को बाहर निकाल कर,जलन शान्ति रूप परिवर्तित हो जाय । इसी प्रकार शान्ति की तलाश में निकला, वह भव्य सोचता है कि- वर्तमान में जो चीजें अच्छी लग रही हैं वे चीजें जहाँ तक अच्छी लगती चली जायेगी, वहाँ तक उनके सम्पादन में लगा रहूँगा और यह सब जनपथ का ही माहौल है। इससे मेरा उद्धार होने वाला नहीं। वह इस पथ से हटकर अपने हृदय में एक अद्भुत किरण की उद्भूति चाहता है। अत: जनपथ को छोड़कर जिनपथ की ओर आया है। वह ऐसे मुनि महाराज आचार्य महाराज को देखकर कहता है-आज मैं कृतकृत्य हो गया। मुझे आज समझ में आ गया। मैंने जो अन्यत्र देखा वह यहाँ पर देखने को नहीं मिला और जो यहाँ पर देखा वह अन्यत्र देखने के लिए नहीं मिला। सुख की मुद्रा देखने का अवसर आज मिला। सुख की मुद्रा यही है। अन्यत्र तो मात्र उसका अभिनय है। नग्नकाया में रहने वाली आत्मा के अंग-अंग से वीतरागता फूट रही है। यही एक मात्र आत्मतत्व का दिग्दर्शन है, यही हितकारी मुद्रा है, हितैषी है, हितैषी का मतलब लोक हितैषी या स्वहितैषी ? किसका हित ? क्या संसार का हित करने की आप सोच रहे हैं तो संसार का हित करने के लिए स्वयं अपने आपका हित करना आवश्यक है। जो व्यक्ति हित के पथ पर नहीं चलता वह दूसरों का हित नहीं कर सकता। मात्र हित की बात कर सकता है, लेकिन हित से मुलाकात नहीं कर सकता। हित की बात करना अलग है और हित से मुलाकात अलग। मुलाकात में उसका साक्षात्कार है, बात में नहीं। ऐसे हितकारी आत्मतत्व को दिखा नहीं सकते क्योंकि वह देखने में आता भी नहीं। पण्डितजी अभी-अभी कह रहे थे कि-जीवतत्व को पहचानना आवश्यक है। ठीक है! लेकिन उसके साथ यह भी कह गये कि अध्यात्म ग्रन्थ, आत्म तत्व का साक्षात्कार करा देते हैं। बात प्रासंगिक है, इसलिए मैं उठाना आवश्यक समझता हूँ, ताकि चार-पाँच दिनों तक उस पर विचारविमर्श हो जाए। सन्तों ने, धर्मात्माओं ने, लेखकों ने और विद्वानों ने जिनवाणी को माँ की कोटि में रखा। उन्होंने कहा - अरहंत भासियत्थ गणहरदेवेहिं गंथियं सम्म। पणमामि भक्तिजुक्तो, सुदणाणमहोवहिं सिरसा॥ श्रुतभक्ति पाक्षिकप्रति. २ उस श्रुतसागर को मेरा नमस्कार हो, जिस श्रुतसागर का उद्भव सर्वप्रथम वीरप्रभु (जिन्होंने अहन्त पद प्राप्त किया, उसके उपरान्त-उसका विश्लेषण किया) से हुआ है। वीर प्रभु ने हमें साक्षात् शाब्दिक वाणी नहीं दी, क्योंकि शब्दों का एक जाल होता है, सीमा होती है, शक्ति होती है और अपना सामथ्र्य भी। जबकि वस्तु तत्व विश्लेषण अनन्त होता है, शब्दों में अनन्त को बाँध सकने की सामथ्र्य नहीं। वस्तु तत्व उन शब्दों की पकड में आने वाला नहीं। अत: भगवान ने (वीरप्रभु ने) जो बखान किया वह अर्थश्रुत है, अर्थश्रुत को ही विश्व के सामने रखा। अब आप समझ लीजिए अर्थश्रुत अलग है और शब्दश्रुत अलग। दोनों में बहुत अन्तर है। शब्दश्रुत वह वस्तु है, जो हम लोगों तक ' डायरेक्ट लाइन' से मिलती है, सीधे अर्थ बोध कराता है। जबकि अर्थश्रुत - 'इनडायरेक्ट लाइन' माध्यम बनाकर अर्थ बोध कराता है। जैसे विद्युत लाइन दो प्रकार की होती है, एक पावर वाली और एक घर की। पावर वाली लाइन 'डायरेक्ट" होती है और घर वाली 'इनडायरेक्ट' मिलती है। वह स्टोररूम से शाखा-उपशाखाओं में विभक्त होकर घर तक दी जाती है, तभी वह जीरो वॉट से सौ वॉट तक के लिए पर्याप्त होती है। इसी प्रकार भगवान ने जो अर्थश्रुत दिया वह अनन्तात्मक है, वह साक्षात् रूप में हमारे काम का नहीं। उसको सुनकर ही गणधर परमेष्ठी ने भी उनका अनन्तवां भाग समझ पाया। अर्थात् भगवान ने जो कहा वह अनन्त और जो गणधर परमेष्ठी के पल्ले पड़ा वह उसका भी अनन्तवां भाग। छद्मस्थ के पास ऐसी कोई भी शक्ति नहीं, जो अनन्त को झेल सके। गणधर परमेष्ठी हमारे पूजनीय, हमसे बड़े हैं लेकिन वह भी छद्मस्थ ही है। इसलिए अनन्त को झेलने की क्षमता उनके पास भी नहीं। इसके बाद, उन्होंने जितना झेला, उसे पूरा का पूरा द्वादशांग के रूप में नहीं दे सके। कोई भी ‘माइण्ड" ऐसा नहीं है जो जितना विचार करे और उतने को-पूरे को ही शब्द का रूप दे सके। शब्द में उतना आ नहीं सकता, क्योंकि विचार, जानना वह तो बहुत प्रवाह के साथ होता है, लेकिन शब्द उसको बाँधता है, जो आसान नहीं। जिस प्रकार नदी प्रवाहक बहुत होती है, परन्तु बीच-बीच में ४०-५० मील पर बाँध बाँधकर काम लेते हैं, उसी प्रकार अनन्तप्रवाह रूप श्रुत को एक मात्र बाँध के रूप में संग्रह किया, जिसका ही नाम जिनवाणी है। गणधर परमेष्ठी ने उन तत्वों को जो कि सांसारिक उलझनों में काम आने की गुंजाइश रखते हैं, समीचीन रूप से पिरोया है। अनन्त तत्वों को कभी गूंथा नहीं जा सकता। उनको मात्र जाना जा सकता है। गणधर परमेष्ठी ने अनन्त को अभी नहीं जाना, कैवल्य के उपरान्त जानेंगे, यह बात अलग है। भगवान् ने जो जाना वह अनन्त, जो कहा वह अनन्तवाँ हिस्सा। इसके बाद गणधर प्रभु ने जो समझा-झेला वह उसका भी अनन्तवाँ हिस्सा तथा जिसको शब्द का रूप दिया, वह उसका भी अनन्तवाँ हिस्सा, इसके उपरान्त, जो द्वादशांग के रूप में कहा गया वह भी उसका अनन्तवाँ हिस्सा, जिसको ग्यारह अंग और चौदह पूर्वो के नामों से जाना जाता है। इसके बाद 'भरतैरावतयोर्बुद्धिह्रासौं षट्समयाभ्यामुत्सर्पिण्यवसर्पिणीभ्याम्' तत्त्वार्थसूत्र – ३/२७ इसके अनुसार क्षीण होता गया। जैसा हम लोगों का पुण्य उसी के अनुरूप यहाँ आ करके खड़ा हुआ है। आज एक अंश का भी ज्ञान नहीं है। जिन कुन्दकुन्द भगवान को हम मंगलाचरण में याद करते हैं, उनको भी एक अंग का ज्ञान नहीं था। ऐसा जिनवाणी ही उचरती है। जितना था, उतना तो था, लेकिन इतना नहीं था जितना कि हम समझ लेते हैं। उनको अनन्त ज्ञान नहीं था। एक अंग का भी ज्ञान नहीं था, क्योंकि अंग का पूर्ण ज्ञान होना अलग है और उसके कुछ-कुछ अंशों का ज्ञान होना अलग। इसी कालक्रम में जिनवाणी की यह स्थिति आ गई कि उसे चार अनुयोगों के रूप में बाँटा गया। चार अनुयोगों की जो परिभाषा वर्तमान में हम लोग समझते हैं, वह प्राय: सम्यक्र नहीं है। हमें जिनवाणी माँ की सेवा करना है तो उसके स्वरूप को भी समझना होगा। तभी नियम से उसका फल मिलेगा, इसमें कोई सन्देह नहीं। माँ हमें मीठा-मीठा दूध पिलाती है, नीचे का, जिसमें कि मिश्री अधिक होती है क्योंकि उसे ही खिलाने-पिलाने का ज्ञान होता है। इसके साथ-साथ अच्छी-अच्छी बातें समझाने वाली माँ ही होती है। जिनवाणी-प्रथमानुयोग, करणानुयोग, चरणानुयोग और द्रव्यानुयोग के भेद से चार भागों में बाँटी गई। लेकिन प्रथमानुयोग क्या है ? करणानुयोग क्या है? चरणानुयोग क्या है? द्रव्यानुयोग क्या है? यह जानना बहुत ही आवश्यक है। इसके समझे बिना, जिनवाणी को सही-सही जाने बिना भटक जायेंगे। जिनवाणी ऐसे-ऐसे प्वाइंट दे देती है, जिससे हमारा कल्याण बहुत जल्दी हो सकता है/हो जाता है। वह हमें शार्टकट भी बता देती है। हमारा जीवन बहुत कम/छोटा है, उसमें भी काल का सदुपयोग हो तभी जिनवाणी का सही-सही ज्ञान एवं जिनवाणी के सहारे से चारों अनुयोगों का सही-सही ज्ञान हो सकता है। आचार्य समन्तभद्रस्वामी हुए हैं, जो पहले भगवान की स्तुति न कर परीक्षा लेते थे और बाद में ऐसे 'सरेण्डर' हो जाते थे कि उन जैसे शायद ही कोई अन्य मिले। इतनी योग्यता थी उनमें। उन्होंने कहा - प्रथमानुयोगमर्थाख्यानं, चरितं पुराणमपि पुण्यम्। बोधिसमाधिनिधानं बोधति बोध: समीचीन:॥ (रत्नकरण्डक श्रावकाचार-४३) भगवन्! आपका प्रथमानुयोग बोधि और समाधि को देने वाला है। बोधि-रत्नत्रय की प्राप्ति। समाधि–अन्तिम समय सल्लेखना के साथ समता के परिणाम अर्थात् रत्नत्रय को देने और उसमें सफलता प्राप्त कराने की क्षमता इस प्रथमानुयोग में है। प्रथमानुयोग बहुत 'राउण्ड' खा करके तत्व पर भले ही आता है, लेकिन प्रथमानुयोग पढ़ने के उपरान्त समन्तभद्र स्वामी जैसे कहते हैं कि यह बोधि और समाधि का निधान अर्थात् भण्डार है। यह तो प्रथमानुयोग की बात हुई। अब चरणानुयोग क्या है ? इसे कहते हैं - गृहमेध्यनगाराणा चारित्रोत्पत्तिवृद्धिरक्षाङ्गम्। चरणानुयोगसमयं, सम्यग्ज्ञानं विजानाति॥ (रत्नकरण्डक श्रावकाचार-४३) चरणानुयोग हमें चलना-फिरना सिखाता है। कैसे चलें और किस ओर चलें ? इसका निर्णय तो हमने कर लिया, किन्तु चाहे सागार हो या अनगार, दोनों के लिए उस ओर जाने के साथ पाथेय होना अनिवार्य है। वह पाथेय इस चरणानुयोग से मिलता है। इसके बारे में कोई विशेष चर्चा की आवश्यकता नहीं है। मात्र करणानुयोग और द्रव्यानुयोग को ही सही-सही समझना है कि करणानुयोग क्या है ? और द्रव्यानुयोग क्या है ? इन दोनों के बारे में ही बहुत-सी भ्रान्तियाँ हुई हैं। समन्तभद्राचार्य ने करणानुयोग के लिए कहा है - लोकालोकविभतेर्मुगपरिवृत्तेश्चतुर्गतीनां चत्र । आदर्शमिव तथामति-रवैति करणानुयोगं च || (रत्नकरण्डक श्रावकाचार-४४) जहाँ पर लोक और अलोक का, चारों गतियों का, नरक-स्वर्गादिक का विभाजन हो अथवा कम शब्दों में कहे तो भौगोलिक-स्थितियों का वर्णन करने वाला करणानुयोग है। करणानुयोग का अर्थ हुआ-भौगोलिक जानकारी देने वाला। जैनाचार्यों का भूगोल किस प्रकार का है, यह बताता है और खगोल किस प्रकार का यह भी। गोल, होने की बात को गोल कर दीजिए क्योंकि यह तो आज विसंवादित विषय है। मैं तो यहाँ पर करणानुयोग का विषय बताना चाहता हूँ-नरक, स्वर्ग, नदी, पहाड़, समुद्र, अकृत्रिम चैत्यालय और ऊध्र्व-मध्य-अधोलोकों के विस्तार को आदर्शमिवदर्पण के समान करणानुयोग सब कुछ, स्पष्ट करता है-सामने रख देता है। ये चराचर जीव - चौदह राजु उत्तंग नभ, लोक पुरुष संठान। तामें जीव अनादितै भरमत हैं बिन ज्ञान। (बारह भावना) इस लोक में-संसार में भ्रमण कर रहे हैं ? यह सब ज्ञान करणानुयोग से होता है। संस्थान विचय धर्मध्यान के लिए यह सब जानना आवश्यक है। यह जानना अनिवार्य है कि कौन-कौन जीव, कहाँ-कहाँ भटक रहे हैं ? हम कहाँ पर भटक रहे हैं, हमारा कहाँ उद्धार होगा। किन कारणों के द्वारा उद्धार हो सकता है। क्षेत्र की अपेक्षा भी ज्ञान होना चाहिए। हम कहाँ पर रह रहे हैं ? निराधार तो नहीं हैं ? कौन-सा आधार है ? यह सब ज्ञान होना आवश्यक है। अब द्रव्यानुयोग आ गया। द्रव्यानुयोग का रहस्य समझना बहुत कठिन है, बहुत गहरा है। अत: पहले उसे परिभाषित करना चाहूँगा। आचार्य समन्तभद्र स्वामी के शब्दों में - जीवाजीवसुतत्त्वे पुण्यापुण्ये च बन्धमोक्षी च। द्रव्यानुयोगदीप: श्रुतविद्यालोकमातनुते॥ (रत्नकरण्डक श्रावकाचार-४६) समन्तभद्राचार्य ही एक ऐसे आचार्य हुए जिन्होंने चारों अनुयोगों को बहुत स्पष्ट किन्तु अल्प शब्दों में बहुत गहरे अर्थ के साथ परिभाषित किया। संसार में छोड़ने योग्य मात्र पाप और पुण्य, ये दो ही हैं, तीसरी कोई वस्तु नहीं। इन दोनों बन्धनों में ही सभी बंधे हुए हैं। उनको हम छोड़ना चाहते हैं लेकिन छूटे कैसे ? कब और किस विधि से ? इसका वर्णन करने के लिए आचार्यों ने द्रव्यानुयोग की रचना की। बन्ध क्या है और मोक्ष क्या? आस्रव क्या और संवर क्या ? किस गुणस्थान में कौन-कौन से कर्मों का आस्रव होता है और किस-किस का बन्ध ? आस्रव और बन्ध ही तो संसार के कारणभूत हैं। इनके द्वारा हमारा कभी भी कल्याण होने वाला नहीं। संवर और निर्जरा, मोक्ष तत्व के लिए कारण हैं-मोक्षमार्ग हैं। मोक्ष तत्व इनसे भिन्न है। इस प्रकार का विभाजन द्रव्यानुयोग में किया गया है। इन सातों तत्वों, नव पदार्थों और छह द्रव्यों का जानना द्रव्यानुयोग से होगा। आप पूछ सकते हैं कि द्रव्यानुयोग में कौन-कौन से ग्रन्थ लेना चाहिए? कारण कि कुछ लोगों कि धारणा यह हो सकती है कि द्रव्यानुयोग में केवल समयसार, नियमसार, पंचास्तिकाय, प्रवचनसार आदि कुन्दकुन्द स्वामी के ग्रन्थ ही आते हैं, लेकिन ऐसा नहीं है। इसके दो भेद करने चाहिए। जैसा कि अभी पण्डितजी ने भी कहा था कि आगम और परमागम दो नाम आते हैं। जैनाचार्यों ने इसे आगम और अध्यात्म नाम दिये हैं।' अध्यात्म' यह शब्द हमारा नहीं है बल्कि आचार्य वीरसेनस्वामी ने उपयोग किया है। कहने का मतलब, दो भेद हो गये-आगम और अध्यात्म। अब आगम के भी दो भेद करने चाहिए-दर्शन और सिद्धान्त। दर्शन-जो षट्दर्शनों का बोध देने वाला है अर्थात् न्याय की पद्धति को लेकर जैसा आचार्य समन्तभद्र, अकलंकदेव, पूज्यपादस्वामी आदि कई आचार्यों ने न्याय की पताका फहरायी, न्याय का बोध कराया उसे दर्शन कहते हैं। उन्होंने जैनतत्व क्या है ? इसको दर्शन के माध्यम से ही विश्व के कोनेकोने तक पहुँचाने का प्रयास किया। इसी के माध्यम से हम विश्व को समझा सकते हैं, सिद्धान्त और अध्यात्म के माध्यम से नहीं। अध्यात्म के माध्यम से समझाया नहीं जाता, किन्तु वह तो, हमारे पास क्या है ? हमारी स्थिति क्या है ? इसकी जानकारी करा देता है। वह आत्मतत्व को स्पष्टरूपेण बता देता है। वैसे तो आत्मतत्व को सब लोग मानते हैं। परन्तु वे सभी अध्यात्मनिष्ठ नहीं है। इस प्रकार दर्शन और सिद्धान्त में भेद है। दर्शन के ग्रन्थों में भी न्याय-ग्रन्थों को संग्रहित करना चाहिए। सिद्धान्त के दो प्रकार 'जीवसिद्धान्त' और ‘कर्मसिद्धान्त' जानना चाहिए। कर्मसिद्धान्त में बन्ध क्या, मोक्ष क्या, संवर क्या और आस्रव क्या ? यह सभी कुछ बताया जाता है। और जीव सिद्धान्त में जीव के भेद, योनिस्थान और जीव कहाँ-कहाँ पर रहता है ? उसको जानने के लिए, ढूँढ़ने के लिए, मार्गणा के अनुसार ढूँढ़ना होगा-इस प्रकार का वर्णन होता है। षट्खण्डागम में मार्गणा के ईहा, ऊहा, अपोहा, मार्गणा, मीमांसा आदि नाम बताये हैं। यानि जीवसिद्धान्त के बारे में और कर्मसिद्धान्त के बारे में ऊहापोह करो, छानबीन करो। इस प्रकार आगम के भेद, दर्शन और सिद्धान्त को समझा। अब अध्यात्म की ओर आते हैं। अध्यात्म को भी दो प्रकार से, एक भावना और दूसरा ध्यान, जानना चाहिए। भावनाओं में बारह भावना, सोलहकारणभावना, मेरीभावना और तपभावनाएँ आदि-आदि लेना चाहिए। जिन भावनाओं के माध्यम से 'डीप' (गहरे में) उतर सकते हैं, उन्हें लेना चाहिए। 'वैराग्य उपावन माई चिन्तै अनुप्रेक्षा भाई' छहढाला की पंक्ति है यह। छहढालाकार दौलतरामजी ने तो गागर में सागर को समाहित कर दिया। अर्थात् भावना के साथ ही लक्ष्य में विशेष लगाव होता है। एक आंग्ल कवि ने कहा-भोजन करने से पहले भोजन की भावना आवश्यक है। इससे भूख अच्छी लगती है, कड़ाके की लगती है, जिसे उदीरणा कहते हैं ? भोजन के समय एक आमंत्रण और एक निमंत्रण ये दो चीजें होती हैं। समझे की नहीं समझे। आमंत्रण करके जल्दी से नहीं बुलायेंगे। एक बार कहकर चले जायेंगे, ताकि आप लोग अन्य भावनाओं से निवृत्त होकर केवल भोजन की ही भावना करें। २-३ घण्टे होने पर कड़ाके की भूख आ जाएगी तब आप भोजन को बैठेगे। अर्थात् भूख अच्छी खुल जानी चाहिए। इसे अपने शब्दों में कहें यदि भोजन करना है तो अच्छे ढंग से करो इसीलिए आपको ९ बजे बता देंगे कि भोजन अच्छा होगा, स्वादिष्ट होगा अमुक-अमुक चीजें बनेंगी, पर्याप्त मात्रा में मिलेंगी, लेकिन १२ बजे मिलेंगी-कहा जाता है। यहि बात भवन की है, वैराग्य की है | आप लोग ऊपर छत्र अर्थात पंखा लटका रहे है |चला रहे हैं और कहें- 'पल रुधिर राध मल थेली कीकस वसादिते मैली' तो कभी भी शरीर के प्रति वैराग्य होने वाला नहीं। फिर कैसे हो ? यह बहुत गन्दा है, ऊपर गंध न लगाकर गन्दगी की अनुभूति करिए, अपने आप ही इसके प्रति घृणा हो जाएगी। आज तो आप लाइफबाय लगा लेते हैं, क्रीम लगा लेते हैं। आप हमाम का प्रयोग कर, टिनोपाल के कपड़े पहनकर, स्नो पाऊडर लगाकर बारह भावनाओं का चिन्तन करना चाहते हैं। लेकिन इस विधि से तो बारह भावनाओं में न उतरकर,वैराग्य में न डूबकर, निद्रा देवी से घिर जाते हैं। यह वासना की स्थिति है, जिसका वर्णन हम नहीं कर सकते। इसलिए भावनाओं का सही रूप रखें, तब ही अध्यात्म में ज्ञान की गति होगी। अब ध्यान की बात आती है। ध्यान कैसे करें और कौन करें ? ध्यान की चर्चा तो समयसार, प्रवचनसार, पञ्चास्तिकाय आदि कुन्दकुन्ददेव का जितना भी साहित्य है, वह करता ही है, लेकिन उस साहित्य के अनुरूप लीन होने की क्षमता किसमें है? स्वसमय में ही वह क्षमता है। आचार्य कुन्दकुन्ददेव कहते हैं कि मैंने तो एक ही गाथा में सब कुछ कह दिया जो कहना था वह यह- सम्यक दर्शन, सम्यक ज्ञान और सम्यक चरित्र से युक्त स्वसमय है तथा पर में स्थित वह परसमय है। यह स्वसमय एवं परसमय की चाकलेट जैसी परिभाषा है। मैं कुन्दकुन्ददेव की एक-एक गाथा को चाकलेट समझता हूँ। चाकलेट कौन खाता है और कैसे खायी जाती है? चाकलेट खायी नहीं जाती, चूसी जाती है। कौन चूसता है खाली पेट वाला? नहीं। खाली पेट वाला तो तीन काल में नहीं चूस सकता। उसको तो भूख लग रही है। जल्दी-जल्दी खा लेना चाहता है, स्वाद भी नहीं ले सकता। वह यदि चाकलेट खाता है तो उसको कोई फल नहीं, कारण चाकलेट खाने की चीज ही नहीं। मैं यही सोच रहा हूँ कि एक ही गाथा के द्वारा, स्वाद ऐसा आ जाता है। फिर चार सौ उनतालीस की क्या आवश्यकता। कोई भी एक गाथा ले लीजिए उसमें भी वही है। जिसको संसार के भोगों की भूख है वह इन गाथाओं को चाकलेट के रूप में काम न लेकर सीधा खा जाएगा और कुन्दकुन्द स्वामी के द्वारा निहित स्वाद को नहीं ले सकेगा। आज प्राय: यही हो रहा है। सारा समयसार मुखाग्र है। अरे! समयसार को मुखाग्र करने की जरूरत नहीं हृदयंगम करने की आवश्यकता है। आज समयसार, पञ्चास्तिकाय, प्रवचनसार आदि का जो असर पड़ा है मात्र सिर तक ही पड़ा है। यदि भीतर उतर जाएंगे तो आपको ज्ञात होगा कि यह समयसार ग्रन्थ भी, जो बाहर दिख रहा है, भार हो जाएगा। यह ग्रन्थ भी ग्रन्थि का रूप धारण कर लेगा। किसके लिये ? जो पेट भर खा लेता है। पेट भरने के बाद उसे कोई भी अच्छी से अच्छी वस्तु दिखा दीजिए तब यही कहा जाएगा - 'उहूँ!" भैया! ऐसा क्यों कह रहे हो? मान नहीं रहे हो आप तो मैं क्या करूं? नहीं एक और ले लीजिए। भैय्या ! लेने को तो ले लंगा परन्तु उल्टी हो जाएगी। उसी तरह समयसार पढ़ने के उपरान्त उल्टा-रागद्वेष की बात समझ में नहीं आती। चमकदमक की ओर दृष्टि हो, स्व से बाहर आना खतरनाक न लगे, यह सब समझ में नहीं आता। पण्डितजी अभी कह रहे थे, मुनि महाराज बाहर आ जाए तो पंचपरमेष्ठी-परमात्मा और भीतर रहेंचले जाएँ तो आत्मा। आत्मा और परमात्मा को छोड़कर कुछ नहीं। बिल्कुल ठीक। लेकिन अन्दर बाहर यह क्यों हो रहा है ? जब तक सोलहवीं कक्षा पार नहीं कर ले तब तक यह होगा, कारण उसके भिन्न-भिन्न प्रकार के 'सब्जेक्ट" होते हैं। परन्तु एम.ए. में एक ही रहेगा। एम.ए. के आगे वह विद्यार्थी नहीं रहता, परीक्षा नहीं होती। अब आया समयसार में। समयसार अर्थात् शोध, सोलह कक्षाओं में पार होने के उपरान्त ही किया जाता है। लेकिन ध्यान रखिए - 'शब्द सो बोध नहीं, बोध सो शोध नहीं' (मूकमाटी) शब्द कहते ही बहुत आगे की ओर चले जाते हैं, परन्तु उसका नाम बोध नहीं। शब्द अलग है और बोध अलग। इसी तरह बोध ही शोध नहीं है। बोध अलग है और अनुभव (शोध) अलग। पहले तो शब्द के माध्यम से बोध दिया जाता है कि संसार में क्या-क्या है, फिर उसके बाद एक विषय की ध्यान का विषय बनाते हैं। आजकल की बात बिल्कुल अलग है कि बिना निर्देशक के भी शोध हो रहे हैं। पण्डितजी! आपने भी तो शोध किया है। अजमेर की बात है। जब पहली-पहली बार टोडरमल स्मारक से आये थे आप। उस समय मैं महाराज श्री के पास में ही बैठा था। धोती-कुतें पर नहीं आये थे, शायद आप पायजामा पहनते थे। उस समय किसी ने कहा था-आप शोध कर रहे हैं। क्या विषय है? टोडरमलजी के व्यक्तित्व एवं कर्तृत्व पर। बहुत अच्छी बात है। हमने पूछा- निर्देशक कौन है ? सम्भव है ‘सागर यूनिवर्सिटी' से था। कोई प्रसंगवश ये भी बताया कि आजकल शोध की 'थ्योरी' भी कुछ अलग है। आजकल ऐसे भी निर्देशक होते हैं, जिनके ‘अण्डर' में शोध किया जा रहा है, परन्तु उन्हें उस विषय का ना तो आगे का, ना पीछे का और ना बीच का ही ज्ञान है। वे उन्हें उपाधियाँ दिला रहे हैं। पण्डितजी ! जिन्हें क क ह भी नहीं आता उनसे आप उपाधि ले रहे हैं। उनसे कोई उपाधि नहीं लेना चाहिए। यदि उपाधि लेना ही है तो कुन्दकुन्दाचार्य, समन्तभद्राचार्य, अमृतचन्द्रजी और जयसेन आदि हैं, इनसे लीजिए तो वह वस्तुत: उपाधि कहलायेगी। अध्ययन करना तो वस्तुत: अपने से ही होता है, निर्देशक तो मात्र व्यवहार चलाने के लिए है। आज निश्चय को कोई प्राप्त नहीं करना चाहता । अध्ययन अलग है और मनन-चिन्तन अलग Iपठना-पाठन और भी अलग है। भिन्न-भिन्न शब्द हैं, भिन्न-भिन्न वस्तुएँ । समभिरूढ़ नय की अपेक्षा इनका वाच्यभूत विषय भी बहुत भिन्न-भिन्न है। इसलिए 'शब्द सो बोध नहीं, बोध सो शोध नहीं।” हमें आत्मा का शोध-अनुभव करना है, इसलिए सर्वप्रथम ध्यान करना होगा और ध्यान के लिए भावना की आवश्यकता पड़ेगी। भावना, बिना भूमिका के नहीं होती। देख लीजिए संवर के प्रकरण को, आचार्य उमास्वामी आदि आचार्यों ने कहा - ‘‘ स गुप्तिसमितिधर्मानुप्रेक्षापरिषहजयचारित्रैः ?" तत्त्वार्थसूत्र – ९/२ ये जितने भी हैं, वह एक-दूसरे के लिए निमित-नैमितिक या कार्य-कारणपने को लेकर हैं। अर्थात् संवर करने के लिए गुप्ति की आवश्यकता, गुप्ति के लिए समिति की, समिति के लिए धर्म की, धर्म के लिए अनुप्रेक्षा की, अनुप्रेक्षा के लिए परीषहजय की और परीषहजय के लिए चारित्र की आवश्यकता है और चारित्र प्राप्ति करने के लिए सबसे पहले बाधक तत्वों को छोड़ना पडेगा। वत्थुपडुच्च जंपुण, अज्झवसाणं तु होदि जीवाणं। ण ह वत्थुदो दु बंधो, अज्झवसाणेण बंधोक्ति॥ समयसार - २६५ आचार्य कुन्दकुन्द भगवान् ने एक जगह बन्ध की व्याख्या करते हुए कहा-वस्तु मात्र से बन्ध नहीं होता। बन्ध तो अध्यवसान के कारण होता है। अध्यवसान स्वयं बन्ध तत्व है। एक शिष्य ने महाराज से कहा-आपने बहुत अच्छी बात कही कि अध्यवसान से बन्ध होता है तो हम अध्यवसान नहीं करें। वस्तुओं को छोड़ने की बात अब छोड़ देना चाहिए। आचार्य ने कहा- मैं आपके ही मुख से यह बात सुनना चाहता था। बहुत अच्छी बात कही। मैं वस्तु के लिए कहाँ छुड़वा रहा हूँ? और यदि छोड़ने की कोशिश भी करोगे तो क्या-क्या छोड़ सकोंगे ? लेकिन मैं पूछता हूँ - वस्तु के प्रति जो राग है, मोह है उसे भी छोड़ना चाहोगे, कि नहीं ? हाँ! उसको तो छोड़ना चाहूँगा। हमारे अन्दर जो राग, मोह, द्वेष हो रहे हैं, वह वस्तु को बुद्धि में पकड़ रखने के कारण ही हो रहे हैं। इसीलिए हमने पहले वस्तु को छोड़ने की बात कही। समझने के लिए-आपके सामने एक थाली परोस दी गई, भले ही आप भोजन नहीं करना चाहते हैं। आप यह भी कह रहे हैं कि मुझे भोजन की इच्छा बिल्कुल नहीं। फिर भी कहा जा रहा है कि आप अपनी रुचि के अनुसार कुछ भी खा लीजिए। अब आपका हाथ किस ओर जायेगा? बिना अभिप्राय आपका हाथ रसगुल्ला की ओर ही जाये, यह सम्भव नहीं। यह कोई 'कंप्यूटर-सिस्टम' करके हाथ में ज्ञान भर दिया गया है क्या ? इसलिए रसगुल्ला की ओर जाता है और वहीं पर रखी है रुखी-सूखी बाजरे की रोटी, उसे नाक सिकोड़कर उपेक्षा की दृष्टि से देख रहा है। आखिर ऐसा क्यों ? हमने हाथ को पूछा, क्योंकि आपसे तो कुछ पूछ नहीं सकते, कारण आपने कह दिया-मेरे पास कोई राग नहीं, द्वेष नहीं, इच्छा नहीं। इसलिए हाथ को पूछा। लेकिन हाथ का कहना है-मुझे क्या पूछ रहे हो ? हम तो केवल काम करने वाले हैं। फिर करा कौन रहा है? भीतर पूछो, भीतर। भीतर कौन पूछे, कौन जाए भीतर? न जाइए, कोई बात नहीं, लेकिन मुखमुद्रा ही हृदय की सूचना है। हृदय में जो बात होगी, वहीं अंग और उपांग की चेष्टाओं से बाहर आयेगी। इसलिए राग भीतर है तभी वस्तुओं का संकलन हुआ-'यह बात अमृतचन्द्रजी ने स्पष्ट रूप से कही आत्मख्याति में" इसीलिए हम अध्यवसान से पहले वस्तु को छुड़ा रहे हैं। यदि वस्तुओं को नहीं छोड़ा तो तीन काल में भी अध्यवसान छूटने वाला नहीं। "बिन जाने तै दोष गुनन को कैसे तजिये गहिये" छहढाला – ३/११ वस्तुओं को छोड़िये और यह भी जानिये कि क्या छोड़ना है। यह ज्ञान जिसको नहीं होता वह तीन काल में भी वस्तु तत्व को प्राप्त नहीं कर सकता। हमें गुणों को तो प्राप्त करना है और दोषों को निकालना है। ध्यान रखिये, मात्र बातों के जमा खर्च से कुछ भी होने वाला नहीं, चाहे जीवन भी क्यों न चला जाये, कुछ करना होगा। सर्वप्रथम जो ग्राह्य है, उसे जानना-पहचानना आवश्यक है और इसके साथ उसके 'अगेन्स्ट" को भी जानना आवश्यक है। उपाय के साथ-साथ अपाय भी जानिए। उस उपाय को प्राप्त करने में किससे बाधा आ रही है, दुख क्यों हो रहा है? दु:ख को समझना ही सुख को प्राप्त करने का सही रास्ता है। आचार्य पूज्यपादस्वामी ने एक जगह कहा-हे भगवन्! हम आपके पास इसलिए नहीं आये कि आप बुला रहे हैं। इसलिए भी नहीं कि आपकी पहचान पहले से है या आप सुख को जानते-देखते हैं। बल्कि हमें तो ऐसी पीड़ा हुई कि उससे हम भागने लगे और भागते-भागते हर जगह गये लेकिन शान्ति नहीं हुई, परन्तु आपके चरणों में आते ही मन को बहुत शान्ति हो गई, इसलिए आए हैं। दु:ख को हम छोड़कर आये, पुरुषार्थ हमारा है और भगवान् के सान्निध्य में आये। इधर रास्ते तो बहुत हैं-पथ बहुत हैं, जहाँ-जहाँ भटकने से च्युत होता गया, उनको छोड़ता गया और यहाँ तक आ गया। यही सच्चा पुरुषार्थ है-स्व की ओर मुड़ना ही पुरुषार्थ है। इस प्रकार द्रव्यानुयोग के द्वारा कर्मसिद्धान्त जीवसिद्धान्त के द्वारा जीव, अजीव, बन्ध और आस्त्रवादि तत्वों को जानिए। इनके १४८ प्रकार के कर्मों के बारे में जानिए। किस द्रव्य का कैसाकैसा परिणमन होता है, इसको समझने का प्रयत्न करिए। जैनागम में तीन चेतनाएँ- कर्मफलचेतना, कर्मचेतना और ज्ञानचेतना ही कहीं गई हैं। कोई चौथी-कालचेतना नहीं। आदि की दो चेतनाओं के द्वारा ही जीव संसार से बँधा हुआ है। एक कर्म करने वाली चेतना, एक कर्म को भोगने वाली चेतना और एक केवलज्ञान का संवेदन करने वाली चेतना। इन चेतनाओं को भी द्रव्यानुयोग से ही समझा जा सकता है। सव्वे खलुकम्मफलं थावरकाया तसाहिकजजुर्द। पाणिन्तमदिक्कता णाणां विदंति ते जीवा॥ जिसमें कर्मफलचेतना तो समस्त एकेन्द्रिय जीवों को हुआ करती है, कर्म के फल को बिना प्रतिकार किए सहन करते रहते हैं। दूसरी कर्मचेतना कर्म करने रूप में प्रवृत्ति है, जिसमें त्रसादिक जीव इष्टानिष्ट के संयोग-वियोग से प्रतिकारादिक की क्रिया, भाव करते रहते हैं और तीसरी ज्ञानचेतना है, जिसके संवेदन के लिए आचार्य कुन्दकुन्ददेव कहते हैं कि उस ज्ञानचेतना की बात क्या बताऊँ, जिसका संवेदन (अनुभव) मात्र सिद्धों को ही हुआ करता है। आचार्य कुन्दकुन्ददेव ने पञ्चास्तिकाय में ‘पाणितमदिक्कता' शब्द लिखा है। जिसकी टीका करते हुए आचार्य जयसेनस्वामी लिखते हैं कि जो प्राणों से अतिक्रांत अर्थात् रहित हो चुके हैं। यानि दस प्रकार के प्राणों से रहित, तो मात्र सिद्ध परमेष्ठी हुआ करते हैं, उन्हीं सिद्ध परमेष्ठियों के लिए इस ज्ञानचेतना का संवेदन हुआ करता है। धन्य है ज्ञानचेतना जिसकी अनुभूति संसार में रहते हुए केवली अहन्त परमेष्ठी को भी नहीं हुआ करती है। इस प्रकार चारों अनुयोगों के विभाजन को, जो निराधार नहीं, आधार के अनुसार कहा गया। एक बार पुन: द्रव्यानुयोग में आने वाले ग्रन्थों को गिन लें- जीवकाण्ड, कर्मकाण्ड, श्रीधवला, श्री जयधवला, महाबन्ध आदि ये सभी सिद्धान्त एवं समयसार, पञ्चास्तिकाय, प्रवचनसार, द्रव्यसंग्रह आदि अध्यात्म में। इसके साथ-साथ भावना ग्रन्थ भी गिनना चाहिए। ज्ञानार्णवकार आचार्य शुभचन्द्र ने कहा-भावना ही एकमात्र अध्यात्म का प्रवाह है। अत: अध्यात्म तक पहुँचने के लिए अनुप्रेक्षा जरूरी है। भावना 'आर्टिफिशयल' नहीं होना चाहिए। भावना, भावना के अनुरूप होती है तब - "भावना भवनाशिनी" भावना ही भव का, संसार का उच्छेद करा देती है। आप लोगों का यह जिज्ञासु-भाव सराहनीय है। आपकी भावना ऐसी ही होती रहे, ऐसी भगवान से प्रार्थना करता हूँ। आप प्रभावना की ओर न देखकर भावना की ओर देखें और समझे कि हमारी भावना किस ओर बढ़ रही है। यदि विषयों की ओर नहीं है तो मैं समझुंगा कि आज का यह प्रवचन सार्थक है, नहीं तो काल अपनी गति से चल ही रहा है और हम अपनी चाल से। इससे कुछ होने वाला नहीं। हमारे द्रव्य का परिणमन, गुण का परिणमन और आत्म-परिणति, तीनों अशुद्ध हैं, इस अशुद्धता का अनुभव करना हमें इष्ट नहीं। अत: शुद्धि के अनुभव की ओर बढ़ें।
  19. विशेष वाक्य विषय पर संत शिरोमणि आचार्य विद्यासागर जी के विचार ऋद्धि के द्वारा इस पूरे लोक को व्याप्त करने का अधिकार केवल पुरुष को ही होता है इसलिए इस लोक को नृलोक कहते हैं। ऋद्धि भी पुरुषवेद वालों को ही होगी। बिना आधार के युक्ति नहीं चलती है। पहले बच्चों को कहा जाता था कि बेटा अनाप-शनाप नहीं खाना। अमृत भी हो तो नहीं खाना, क्योंकि खानपान से खानदान बिगड़ता है। लेकिन आज तो बड़े भी इससे नहीं बच पा रहे हैं। पंच कल्याणक महोत्सव मनोरंजन का नहीं निरंजन बनने का प्रतीक है। चेतन की कीमत करो। जीने के लिए अर्थ (पैसा) है, अर्थ के लिए जीवन नहीं। तीन चीजें हैं- १. अर्थ, २. व्यर्थ, ३. अनर्थ। १. अर्थ का अर्थ है जो प्रयोजनभूत है। २. व्यर्थ का अर्थ है जो प्रयोजनभूत न हो। जिसको करने के बाद भी कुछ हासिल नहीं होता। जैसे नीर का मंथन करने से हमें घृत की प्राप्ति नहीं होती तो हमारा परिश्रम व्यर्थ हो जाता है। ३. अनर्थ का अर्थ विषय-कषायों के पीछे लगने वाला व्यक्ति अनर्थ करता है। अर्थ की लिप्सा ही हमसे अनर्थ करा देती है। कोई कितनी ही सम्पति एकत्रित क्यों न कर ले, अपने वारिसों/संतानों के लिए पर वे उसका उपयोग तभी पर पायेंगे जब उनके पल्ले में पुण्य होगा। हमारी सारी जिन्दगी की भाग दौड़ बस जमीन और जायदाद की खातिर होती है। आज तक हम जमीन दोस्त रहे हैं जहाँ दो का अस्त होता है वह दोस्त होता है। जमीन दोस्त का अर्थ है मिट्टी से उत्पन्न हुआ और मिट्टी में मिल जाना। एक धीवर ने प्राण छोड़ दिये पर प्रण नहीं छोड़ा। परन्तु आज आप लोग प्राण और प्रण दोनों छोड़ने को तैयार हैं। एक सियार भी अपनी स्मृति के माध्यम से अपने भाव ताजा बनाये रख सकता है। उस मूक प्राणी ने प्रण नहीं तोड़ा भले ही प्राण छोड़ दिये लेकिन यह मनुष्य प्रण को नहीं, प्राणों को देखता है। उस मूक प्राणी ने हमें दिखाया कि सच्ची आस्था और निष्ठा ये है। पशु पक्षी मर्यादा में रहते हैं, परन्तु मनुष्य की आज कोई मर्यादा नहीं रही। तत्व की बात करने से वैरी का पारा भी ठण्डा हो जावेगा। तत्व चर्चा से कलह मिट जाती है, वातावरण शान्त हो जाता है। आपके घर में महाराज जावें तो महाराज बालक हैं आप पालक हैं। और हमारे यहाँ आप आओगे तो हम पालक हैं आप बालक हैं। हमारे चौके में अन्तराय का काम नहीं। दानादि देना कर्तव्य है उसमें प्रदर्शन का सवाल नहीं होता। संतुष्टि एवं धैर्य के बिना कार्य पूर्ण सिद्ध नहीं होते। हम किसी को सन्तुष्ट नहीं कर सकते। केवलज्ञानी भी मिथ्यादृष्टि को सन्तुष्ट नहीं कर पाते। कुल, जाति, धन, ख्याति, ऐश्वर्य, रूप आदि स्वभाव नहीं है। उनके प्रति लगाव होने से अभिमान आता है और स्वाभिमान समाप्त हो जाता है। स्वाभिमान रखने से याचना परीषह सहन हो जाता है। मोह की नदी बहुत गहरी है तैराक भी डूब जाते हैं। आहारदान तब तक काम करता है जब भूख दुबारा न लगे पर जिनायतन में दिया दान अनन्त कालीन मिथ्यात्व का धो देता है। परिग्रह की जड़ों को निर्दयता के साथ उखाड़ना चाहिए, आलस्य नहीं करना। ज्ञान की भावना एवं आलस्य का त्याग स्वाध्याय है। अप्रमत्त हो जाना स्वाध्याय का फल है। जो आचरण से रहित है वह चरण तक ही रह सकता है। देवी-देवता भी ऐसे ही हैं वे आराध्य नहीं हो सकते। अनर्थों को याद करने से अनर्थों से बच सकते हैं। दूसरा हमारी निन्दा करे तो टेंशन नहीं करें, अपनी निन्दा स्वयं करें विशुद्धि बढ़ती है इससे। अपनी निन्दा तो आसानी से कर सकते हैं। पर निन्दा से असंख्यात गुणा बंध और अपनी निन्दा से असंख्यात गुणी कर्म निर्जरा होगी। उत्साह का अर्थ ये नहीं कि अंधाधुंध करते चले जाओ। विवेक सावधानी भी आवश्यक है। शुद्धाशुद्धि का ध्यान रखना चाहिए। प्रकृति को बदलने का प्रयास नहीं करो बल्कि उससे लड़ना सीखो। यह संसार बहुत बड़ा है, यहाँ पर सब कुछ है लेकिन हमें क्या करना है और कैसे रहना है? यदि इतना याद रख लिया जाये तो अपना कल्याण हो सकता है। अवशेष के माध्यम से ही विशेष बात समझ में आती है। जो अपने लिए कहा गया है उसमें रहना यह स्वस्थ मन है और अपनी भूमिका से ऊपर उठकर रहना यह अस्वस्थ मन है। मन की दृढ़ता के बिना काय और वचन की दृढ़ता नहीं आ सकती। संसारी प्राणी का दिमाग और दिल ही संसार में ज्यादा उत्पाद मचाते है। कर्म बंध और कर्म आस्त्रव के समय यदि हम सोच लेते हैं तो कर्म उदय के समय नहीं सोचना पडता । सर्वघाती प्रकृति का उदय हो और केवलज्ञान का अनुभव हो यह तीन काल में सम्भव नहीं है। आत्म विश्वास रखो अति विश्वास नहीं होना चाहिए। साधर्मी के साथ विसंवाद करने से महाव्रत सुरक्षित नहीं रह सकते हैं। जहाँ विसंवाद नहीं होता है वहाँ पर संवाद का प्रवाह अपने आप होने लगता है। श्रमण के लिए भीतर जाये तो समयसार और बाहर आये तो मूलाचार होना चाहिए। निषेध परख वस्तु का निषेध न करके विधान परख वस्तु को सामने रखें तो निषेध परख वस्तु अपने आप पीछे छूट जायेगी। माता-पिता जैसे अपने बच्चों का संरक्षण करते हैं वैसे ही आप मुनियों के उचित एवं शुद्ध आहार देकर उनका संरक्षण कर सकते हैं। ऐसा कोई कार्य करो जिससे अपने कल्याण करने वाला कोई प्रसाद मिल जाये। मन अपनी कीर्ति को तो तीन लोक में चाहता है पर अन्य की कीर्ति नहीं देखना चाहता है। मन को समझाने का काम जिसने कर लिया उसका बेड़ा पार हो जाता है। यह मन बहुत गड़बड़ कर सकता है। भिक्षावृत्ति में दयनीयता नहीं रहती है, भीख माँगने में दयनीयता रहती है। भिक्षावृत्ति में स्वाभिमान रहता है भीख मांगने में स्वाभिमान और मर्यादा नहीं रहती है। आदिनाथ भगवान् कितने वर्षों तक विषयों में रहे पर वे व्यसनी नहीं बने। तीर्थंकर-पद इन्द्रिय सुख की अभिलाषा को लिए हुए नहीं होता है। आस्तिक जो होगा वह नि:शंक होगा, नास्तिक जो होगा वह बलवान तो हो सकता है पर डरपोक होगा। जो व्यक्ति न्याय का पक्ष लेता है, उसके पक्ष में सारा विश्व हो जाता है। पर से परे होने पर पार हो जाते हैं। चर्चाओं में समय की पाबंदी नहीं रखते और सामयिक घड़ी देखकर करते हैं ४८ मिनट हो गये कि नहीं। दुर्लभ क्षणों को अनर्थ में मत गवाओ माला फेरो, स्तुति पाठ करो। अनर्थ से बचना भी बहुत ही प्रयोजनभूत है। पहले चक्की चलाते रहते थे स्तुति पढ़ते रहते थे, मन को भटकने नहीं देते थे। समय का सदुपयोग, ज्ञान का सदुपयोग करना बहुत कठिन है। धर्मामृत स्वयं पीवें दूसरे को पिलावे ऐसा कहा है। विकथाओं से बचें। प्रयोजनभूत को याद करने से मन की बीमारी दूर हो जाती हैं। पेट की आग इतनी गड़बड़ी पैदा नहीं करती, जितनी कि तृष्णा की आग करती है। दाम बिना निर्धन दुःखी, तृष्णा बस धनवान। बुढ़ापा उस झाडू के समान है जिससे सारे दिन काम लेकर एक कौन में कचरे के पास रख दिया जाता है। धर्मध्यान में आवश्यकों में कमी न आवे, अच्छे से स्वाध्याय हो सके ऐसा भोजन ग्रहण करना चाहिए। आलोचना, प्रशंसा इन दोनों को सुनकर छोड़ दो हमेशा निर्विकल्पता रहेगी। किसी से आँख से ऑख नहीं मिलाना यह भी निर्विकल्प होने का अच्छा साधन है। त्याग के साथ निर्विकल्पता भी आनी चाहिए। बुद्धि को बिगाड़ने वाले सारे पदार्थों के दान हिंसादान में आवेंगे। पहले अमृत दूध का दान होता था, आज चाय का दान देते हैं। पानी के पाऊच, चाय पैकेटयह संस्कृति ये सब दरिद्रता के प्रतीक हैं। मन और परवस्तु अपना विषय नहीं है, उसकी पूर्ति में समय मत गवाओ। मनरूपी बन्दर को श्रुत स्कंध पर चढ़ा दो। आज फोन से काम चलता है इसलिए संतोष का अभाव है। पहले संतोषी रहते थे सम्प्रेषण से काम हो जाता था। व्रती होने के बाद संतोष में और घनत्व आ जाता है। तत्व ज्ञान होने के बाद वह स्थिर हो जाता है। मन पापों की ओर नहीं जाता तो मन हमेशा पवित्र बना रहता है। यहाँ आते हो तो छोटा सा व्रत मांगते हो और बाजार में जाते हो तो सबसे महंगी चीज चाहते हो । त्याग संसारी प्राणी को रुचता नही। बन्धन से मुक्त होना चाहते हो तो अपने से परिचय कर लो। अभ्यास और वैराग्य के बल पर मन को कंट्रोल में रखा जा सकता है। परस्पर प्रतिस्पर्धा नहीं, पूरक बने। प्राकृतिक जो चीज होती है वह टिकाऊ होती है। श्रावक को प्रवृत्ति सुधारना है और साधु को प्रवृत्ति रोकना है। आरंभ और परिग्रह को नियंत्रण में रखने से श्रावक के साता का बंध होता रहता है और असाता रूपी बीमारी को श्रावक सामयिक के समय तीन बार बाहर निकालता है। शरीर को पुष्ट करने का प्रयास संसारी प्राणी हमेशा करता रहता है। अशुभता का भंडार है शरीर। बड़े-बड़े विद्वान् भी इसकी सेवा में लगे हुए हैं। शरीर की सेवा में सूख जाते हैं पर सुख नहीं मिल पाता। शरीर से जितना ममत्व रखोगे वह उतनी अधिक सेवा करवायेगा। भेद विज्ञान के बिना वैराग्य दृढ़ नहीं हो सकता। चक्रवर्ती का उदाहरण देते हो पर उन के जैसा भेद विज्ञान भी किया करो। कायशुद्धि को लेकर आप लोग मन अशुद्ध कर लेते हैं यह ठीक नहीं। खाने पीने से शरीर नहीं चमकता, नहीं तो पशु आदि तो हमेशा खाते पीते ही रहते हैं उनका भी शरीर चमकना चाहिए। शरीर स्वयं बड़ा कूटनीतिज्ञ है इसके सामने अच्छे-अच्छे कूटनीतिज्ञ भी फैल हो जाते हैं। अभ्यास एक ऐसी वस्तु है जिसके माध्यम से हम शरीररूपी मशीन को नियंत्रित कर सकते हैं। शरीर ऐसी फैक्टरी है जिसमें हमेशा मल का उत्पादन होता है इसलिए इस पर क्या अभिमान करना। ब्रह्मचारी को रूप का अभिमान नहीं करना चाहिए, शरीर से काम लेना चाहिए। शरीर में अपनत्व बुद्धि अपनाने से ही अभिमान जागृत होता है। हमारा शरीर खुली पुस्तक है हमेशा भावों का खेल चलता रहता है। श्रावक संसाररूपी गाडी को पूर्ण नहीं रोक पाता लेकिन थोडी स्पीड कम अवश्य कर लेता है। स्पीड कम करने से वह एक्सीडेण्ट से बच जाता है दुर्गति रूप दुर्घटना से बच जाता है। संसार में ऐसा व्यक्ति नहीं है जिसके मीत ही मीत हों। और ऐसा खेल नहीं है, जिसमें जीत ही जीत हो । रागी वीतरागता में भी राग का अनुभव करता है। और वीतरागी राग में भी वीतरागता का अनुभव करता है। संसारी प्राणी का जानना देखना नहीं छूट सकता परन्तु भला बुरा छूट सकता है। आपके पास जोश है, रोष है, दोष है, कोष है पर होश नहीं है। दूसरों को मत देखो, अपने आपको देखो। जिसके बिना जो न रह सके उसका नाम आसक्ति है। विवेक के बिना त्याग के क्षेत्र में काम नहीं चलता। त्याग के क्षेत्र में दूसरे के भरोसे काम नहीं होता। दक्षिण में कहा जाता है- अपने हाथ किया गया कार्य नेक है। धर्म के, त्याग के क्षेत्र में, नौकरों से, बच्चों से काम नहीं लेना चाहिए तभी अणुव्रती महाव्रत की ओर बढ़ सकता है। मन यदि गाफिल हो गया तो कोई भी चर्या समीचीन नहीं कर सकते। मूर्च्छा से जीवन हठीला हो जाता है, मुझे तो वही चाहिए। मूर्च्छा मानसिकता को कुण्ठित कर देती है। मूर्च्छा से तनाव बढ़ता है, खून जलता है। मनोबल को शांत रखो ज्यादा खून खर्च तनाव से होता है। मूर्च्छा मन की मूर्च्छा है जिसके कारण विवेक गायब हो जाता है। मूर्च्छा में आयुकर्म की उदीरणा तीव्र गति से होती है। दुनिया असत्य की सेवा करती है सत्य की सेवा सम्यग्दृष्टि करता है असत्य बोलने से मैं बच जाऊँगा ऐसा सोचने वाली सत्य तो यह है कि आप मर नहीं सकते। संसारी प्राणी को संसार की गुलामी इसलिए करनी पड़ रही है क्योंकि वह दूसरे पर अधिकार जमाना चाहता है। दूसरे पर अधिकार जमाने का काम निम्न कोटि का काम है। पर को आधीन करने वाला संसार में पराधीन ही बना हुआ है। संसारी प्राणी को मन को दबाने की नहीं बल्कि दूसरे को दबाने की इच्छा होती है। ऐसा व्यापार करो जिससे मांसाहार का विरोध एवं शाकाहार का प्रचार हो । बुद्धि, संस्कृति समाज, राष्ट्र जिससे भ्रष्ट हों ऐसी वस्तुओं का व्यापार नहीं करना चाहिए। सात्विक व्यापार करना चाहिए लोभ नहीं करना चाहिए। आज व्यवसाय पैसे के लोभ के कारण गंदा हो गया है। वस्तु स्वरूप ज्ञात होते ही अटेन्शन में आ जाता है, टेन्शन छूट जाता है। मोह को काटने का अमोघ शस्त्र है संकल्प। संकल्प से विकल्प भी कम हो जाते हैं। संकल्प से पूर्व बंधे कर्म हिलने लगते हैं। दूसरे के बारे में सोचने में ही मन लगता है तो लगाओ पर उसका भला सोचो। पर का राग अपनी आत्मा का अनादर है। और अपने आत्मा का अनादर करना सबसे बड़ा अपराध है। नींव प्रथम मंगलाचरण है तो कलशारोहण अंतिम समापन है। आप लोग स्थान की बात करते हैं मैं गुणस्थान और लब्धिस्थान की बात करता हूँ। मेरे बारे में कौन क्या सोच रहा है यह सोचना सबसे बड़ी बीमारी है। इसमें शक्ति का प्रयोग नहीं करना चाहिए विकल्प ही होंगे। विवाह धर्म परम्परा चलाने के लिए होता है। संतान होगी तो परम्परा होगी, उसमें धर्म संस्कार हो तो धर्म परम्परा है। इसलिए स्वदार संतोष कहा, वासना का तो नाम ही नहीं ये है भारतीय परमपरा | अभी थोड़ा बचा खुचा है बचाये रखो, विदेश से प्रभावित नहीं होइये, आप अपने संस्कार से उन्हें प्रभावित करिये। जो मिला है उसका यथोचित उपयोग करो यही चतुराई है। अपव्यय से बचो ज्यादा कमाओं नहीं अपने आप प्रभावना होगी। अपने गुणों में कमी लाकर दूसरे को नीचे दिखाने में क्या मिलता है? क्या करें निंदा रस छूटता नहीं है। उदाहरण-अपने को जीवन भर काना बनाना ठीक है, लेकिन दूसरे का अमंगल होना चाहिए। रत्नत्रय और असंयम में अंतर एक बाह्य सम्पदा को अपने पैरों में रखता है और एक उसे अपने सर पर रखता है। निगोद से मनुष्य होना दुर्लभ है लेकिन मनुष्य से निगोद होना दुर्लभ नहीं है एकेन्द्रिय जीव देव तो नहीं हो सकता, लेकिन देव एकेन्द्रिय हो सकता है देखा यह जगत् का स्वभाव। द्रव्य, क्षेत्र, काल की अपेक्षा जो कुछ मिला है, उसमें संतुष्ट रहना चाहिए और आगे का मार्ग प्रशस्त करना चाहिए। परीषहों को पीठ मत दिखाओ नहीं तो पिटाई हो जावेगी। परीषहों का हृदय खोल दो इसी से मार्ग खुलना है। आठ माताएँ साधु की रक्षा करती रहती हैं। अष्टप्रवचन मातृकायें माँ समझाती हैं ऐसा करो, ऐसा करो। घर में एक ही माता मिलती है और वह अन्त तक नहीं रहती। संसारी प्राणी सब कुछ अच्छा चाहता है लेकिन जिनसे मिलता है उन साधनों को नहीं चाहता। दु:ख के कारणों को कभी छोड़ता नहीं। जिनेन्द्र भगवान् की भक्ति करने से बंध नहीं, बंध बंद होता है। ऐसी प्रकृतियों का बंध होता है जो सारे बंधनों को काटने में समर्थ होती हैं। आज मन लगाने के लिए सबसे सरल तरीका है भगवान् की भक्ति। आज धन्यता का पाना दुर्लभ है, धन का पाना नहीं धन सहज प्राप्त हो जाता है किन्तु धन्यता का पाना अत्यधिक दुर्लभ है।
  20. ज्ञानी-अज्ञानी विषय पर संत शिरोमणि आचार्य विद्यासागर जी के विचार अज्ञ विज्ञ बने, विज्ञ बनकर अनभिज्ञ होकर आत्मज्ञ हो तभी सर्वज्ञ बनता है। गलती करने के बाद पश्चाताप करना अज्ञानता है और करते समय सम्हलना ज्ञानी का काम है। ज्ञानी जीव स्वाध्याय नहीं कर रहा है लेकिन प्रतिपल सजग रहता है, उसका श्रद्धान है कि निज अर्जित कर्म है। दुनिया के बीच में, भीड़ के बीच में रहते हुए भी वह प्रसन्न रहता है। ज्ञानी व अज्ञानी दोनों का विपाक(कर्म का उदय) चल रहा है। अज्ञानी की निमित्ताधीन दृष्टि हो जाती है तो कर्म का उदय भोगते हुए और पाप कर लेता है। लेकिन ज्ञानी स्वयं के कर्मविपाक का चिंतन करता है, विपाक-विचय का चिन्तन करता है और कर्म के उदय में भी प्रशस्त पुण्य का बंध कर लेता है। ज्ञानी को इसलिए प्रोत्साहित किया जाता है कि उतने समय में वह दस और व्यक्तियों को तैयार कर लेगा। पर के बारे में अनभिज्ञ हो जाओ, विज्ञ हुए नहीं कि फँस गये। सबसे अज्ञात होंगे तभी आत्मा ज्ञात होगी। ज्ञानी के लिए बादलों का एक टुकड़ा संसार को असार जानने के लिए पर्याप्त है। ज्ञानी वह है जो अपने ऊपर विश्वास रखने वाला हो। रागद्वेष करना मेरा स्वभाव नहीं, इस प्रकार संसार जानने-देखने वाला हो। जो कभी रागद्वेष नहीं करता वहीं ज्ञानी है। जिसका मन मान कषाय से खाली है वही वास्तविक ज्ञानी है। सारी दुनिया एक तरफ चलती है तो ज्ञानी की वृत्ति एक तरफ चलती है। जिस ओर दुनिया आकृष्ट हो जाती है उस ओर ज्ञानी आकृष्ट नहीं होता है। पाँचों इन्द्रियों के विषयों से मन को हटाकर अपने आत्म-ध्यान में लगना ही ज्ञानीपने का लक्षण है। ज्ञानी का अर्थ चिंतन से भी नहीं और चिंता से भी नहीं, बल्कि चिंता से और चिंतन से दोनों से ही मुक्त होकर के ज्ञानी, ज्ञेय-ज्ञायक भावों को अपने सामने रख करके चलता है। शांति की जो धारा होती है वह ज्ञानी के सामने हमेशा होती है। दुर्वचनों को सुनने से यदि कर्म की निर्जण हो रही है। किन्तु अज्ञानी को यह सहन नहीं होता है। और ज्ञानी कहता है कि इससे हमारा माथा दु:खता नहीं है बल्कि माथा उठता है, कि कितनी क्षमता है मुझमें। ज्ञानी के लिए संवर निर्जरा के स्थानों को बढ़ाना चाहिए। यदि इस ओर दृष्टि नहीं रहती है तो स्वाध्याय करना किस काम का है। शरीर को आपा (अपना) मानना तो सबको आता है लेकिन शरीर से अपने आपको भिन्न जो मानता है वो परम ज्ञानी माना जाता है। हम रूढ़िवादी भले बनें पर मूढ़ी (मूढ़ता) नहीं बनें। श्रुत को सुरक्षित रखने के लिए उसका शुद्ध उच्चारण करना चाहिए। शुद्धघोष करना चाहिए किन्तु आज यह नहीं हो रहा है। जो कषाय नहीं करता है जो विकथा में नहीं पड़ता है उसको ज्ञानी कहा है।
  21. ज्ञान विषय पर संत शिरोमणि आचार्य विद्यासागर जी के विचार अंधकार दो तरह का होता है एक अंधेरा बाहर और दूसरा अंधेरा आंतरिक होता है। बाहरी अंधेरा तो कृत्रिम संसाधनों से दूर हो जाता है, लेकिन आंतरिक अंधकार को दूर करने के लिए अज्ञानता को दूर करना आवश्यक है। अभिमान के वशीभूत मनुष्य अज्ञानी बना है, अभिमान पर नियंत्रण ही ज्ञान का मार्ग है। जो लोग स्वाध्याय तो करते हैं, पर उस ज्ञान का उपयोग संयम, विवेक आचरण के लिए नहीं करते तो ऐसा ज्ञान भी प्रशंसा के योग्य नहीं है। यदि जीवन में स्पर्धा भी करें तो स्पर्धा संयमित होना चाहिए। ज्ञान का यही सदुपयोग है इससे हम अकारण होने वाले विवादों से बच सकते हैं। हम शरीर को धोकर पुष्ट बनाना चाहते हैं लेकिन ज्ञान को पुष्ट नहीं बनाना चाहते जबकि ज्ञान आत्मा का गुण है। ज्ञानी का वही ज्ञान मान जाता है जो विषयों से एवं कषायों से बच जाता है। लेकिन जो विषय कषायों में लगा है वह ज्ञान किसी काम का नहीं। वह ज्ञान बेकार है जो क्रिया से रहित है। पापों से यदि मुक्ति नहीं मिलती है तो वह ज्ञान किस काम का है। आत्मज्ञान नहीं होता, जिस ज्ञान से वो ज्ञान नहीं है। यदि मन निरोध नहीं होता है तो वो तत्व ज्ञान नहीं है। अपने ज्ञान की धारा को ख्याति, पूजा, लाभ आदि की ओर मत लगाओ उसका उपयोग अपने आपके उपयोग में लगाओ यह सबसे बड़ा काम है। ज्ञान थोड़ा सा भी होता तो उसको अभिमान बहुत जल्दी होता है। जैसे कहा जाता है- अध जल गगरी झलकत जाये। भरी विचारी चुपकी जाये | जो व्यक्ति ज्ञान रखता है, प्रमाद नहीं रखता, आवश्यकों में सतर्क रहता है, अनुकंपा भाव रखता है वह मुक्ति को प्राप्त होते हैं। जिस ज्ञान के माध्यम से वैरी से वैरी भी क्यों न हो उसे भी मित्र के रूप में स्थापित कर देता है, उसका नाम सम्यक ज्ञान है और जो हमेशा-हमेशा के लिए वैरी बना दे तो उस ज्ञान को हम स्वीकार नहीं कर सकते हैं। ज्ञेय चिपके, ज्ञान चिपकाता सो, स्मृति हो आई। ज्ञान को इतना संयत बनाओ, कि उससे कुछ ज्ञेय न चिपके। विस्मृति अपने आपमें महत्वपूर्ण है। दुनिया स्मृति चाहती है, साधक को तो विस्मृति चाहिए। इसी में विश्राम है उपयोग का। किसी का ज्ञान होना अलग वस्तु है जबकि उसके प्रति सावधानी रखना अलग वस्तु है। संयत ज्ञान का नाम ही सावधानी है। ज्ञान भाषात्मक नहीं होता ज्ञान तो भावात्मक होता है। बहुभावाविद् होना सरल है लेकिन बहु भावात्मक ज्ञान होना बहुत कठिन है। एक-एक पंक्ति में थीसिस करके लिख दिया लेकिन उसका कोई महत्व नहीं। सब थीसिस भी ऐसी सी रह जायेंगी। अनुभव करो, अर्थ ज्ञान की ओर बढ़ो। द्वादशांग अपार होने के बाद भी पार तब मिलता है जब हम उसमें अंदर उतर जायें अन्यथा नहीं। पढ़-पढ़ कर पंडित भया, ज्ञान हुआ अपार। निज वस्तु की खबर नहीं, सब नकटी का श्रृंगार। आचार्य ज्ञानसागरजी महाराज को यह दोहा बहुत अच्छा लगता था। जब वे यह दोहा प्रवचन में कहते थे तो सब हँस जाते थे। मैं तो हिन्दी ज्यादा नहीं जानता था तो नहीं समझने के कारण, भावभासना नहीं होने के कारण चुपचाप रह जाता था। मतलब शब्द ज्ञान का मूल्य तब है जब अर्थ का आभास हो। बड़े-बड़े कॉलेज तैयार हो रहे हैं, सम्यक ज्ञान का किसी को अनुभव नहीं। तात्विक ज्ञान बढ़ाना चाहिए। तात्विक ज्ञान बढ़ाने से समस्या अपने आप समाधान हो जाती है। तत्वज्ञान अच्छा रखना चाहिए। ज्ञान सूखा नहीं होना चाहिए, आचरण सहित होना चाहिए। ज्ञान का फल अज्ञान की हानि व उपेक्षावृत्ति होना चाहिए। हम मात्र अज्ञान की हानि ही ज्ञान का कार्य मानते है जबकि उससे भी बढ़कर है उपेक्षावृत्ति होना, क्योंकि ज्ञान का जो फल है वहाँ तक पहुँचना चाहिए। उपेक्षा के क्षणों को बटोरने का प्रयास करो। आत्मज्ञान की प्राप्ति के लिए मन में एकाग्रता लाना चाहते हो तो इष्ट-अनिष्ट पदार्थों में रागद्वेष मत करो। ज्ञान को चारित्र मांजता है। अर्थात् चारित्र के द्वारा ज्ञान शुद्ध होता है। श्रुतज्ञान गूंगा भी है और बोलता भी है लेकिन शेष ज्ञान सभी गूंगे के समान होते हैं। स्वस्थ ज्ञान ही आत्मा का स्वरूप है। विश्वासघात पहली चरित्र हीनता है। ज्ञान जब हृदयंगम होकर चरित्र में उतरता है तभी उपयोगी होता है, अन्यथा नहीं। अध्यात्म तो है ही किन्तु हमें सुख शान्ति प्राप्ति हेतु चरणानुयोग का ज्ञान भी आवश्यक है, क्योंकि उस अध्यात्म की प्राप्ति चरित्र के बिना तीन काल में संभव नहीं। वर्तमान पर्याय में हमें उस प्रकार जीना है, ताकि भविष्य उज्ज्वल हो। वर्तमान के ज्ञान से उत्तम कार्य करना है। जिनवाणी के माध्यम से अपना व्यवसाय नहीं चलाना क्योंकि जिसके द्वारा रत्नत्रय का लाभ होता है उसको तुम क्षणिक व्यवसाय हेतु बना रहे हो, यह ठीक नहीं। चार पुरुषार्थ हैं-धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष। तो अर्थ पुरुषार्थ करो और वित्त का अर्जन करो। जिनवाणी के माध्यम से तो रत्नत्रय की सेवा करो। रत्नत्रय की प्राप्त करने का व्यवसाय करो। इसी का नाम सम्यक ज्ञान है। उस ज्ञान से क्या लाभ जिससे दूसरों के दुख को जानकर भी यदि करुणा के भाव नहीं आते। समीचीन ज्ञान वहीं है जो करुणा से सहित हो। ज्ञान दीपक के समान है जो स्वयं प्रकाशित होता है और दूसरों को प्रकाशित करता है। जैसे-जैसे ज्ञान को विषयों की ओर ले जाते हैं, वैसे-वैसे ज्ञान फकीर होता चला जाता है, ज्ञान का हास होता चला जाता है। यदि ज्ञान का हास होता है तो आत्मा का हास होने लगता है। जिसे अपने और पराये का बोध नहीं है उसका वह बोध वास्तव में बोध नहीं बोझ ही है। पहले करने योग्य कार्य क्या है, बाद का कार्य क्या है, इसका ज्ञान होना भी जरूरी है। स्टेंडर्ड पहले चाहते हैं लेकिन स्टेंडिंग तो हो पहले। खड़े होने की हिम्मत नहीं, हमें स्टेंडर्ड चाहिए। काहे का स्टेंडर्ड हुआ भैया? ज्ञान का प्रयोजन तो मान की हानि करना है, पर अब तो मान की हानि होने पर मानहानि का कोर्ट में दावा होता है। श्रुतज्ञान आत्मा का स्वभाव नहीं है किन्तु आत्म स्वभाव पाने के लिए श्रुतज्ञान है। ज्ञानी मुनि ज्ञान में रमते हैं उलझते नहीं। ज्ञानी मुनि आत्मा में रमते है परन्तु एक स्थान पर जमते नहीं। तलस्पर्शी ज्ञान किसी ग्रन्थ को एकबार पढ़ने से नहीं किन्तु अनेक बार पढ़ने से होता है। ज्ञान कल्याण के लिए तब हो सकता है जब हम उस पथ पर चलने लगते हैं। श्रुतज्ञान छने का काम करता है उससे अपने आपको छानो। दुनिया को छानते-छानते छन्ने वर्कशाप के क्लीनर के वस्त्र के समान हो गये हैं किन्तु छान नहीं पाते। छने (ज्ञान) को हमेशा साफ रखना आवश्यक है। आपा -धापी में स्व-पर का ज्ञान समाप्त हो जाता है। आज पढ़-अनपढ़ दोनों आपा-धापी में लगे हैं यदि संन्यासी भी इसी में लग जायें तो आपा (आत्मा) को भूल जायेंगे। सम्यक ज्ञान के द्वारा जो वस्तुतत्व को जान रहा है वहीं सुखी है, बाकी सब दु:खी ही दु:खी हैं। तत्वज्ञान है तो सुख है अन्यथा आपके दुख को कोई मिटाने वाला नहीं है। यदि आप सुखी होना चाहते हैं तो तत्वज्ञान को अर्जित करिए। जीवों के कष्टों को देखने के उपरांत यदि दया नहीं आती है तो उस ज्ञान का कोई उपयोग नहीं वह एक प्रकार से कोरा/थोथा ज्ञान है। वह ज्ञान नहीं माना जाता है जिसके हृदय में थोड़ी सी उदारता नहीं है, अनुकम्पा नहीं है। ज्ञान की शोभा तो संयम है। ज्ञान की शोभा तो अहिंसा है। ज्ञान की शोभा तो क्षमा है। ज्ञान की शोभा तो कषाय का अभाव है। सही ज्ञान की प्रतिष्ठा वह है जिसके माध्यम से तत्वज्ञान से हीन व्यक्ति भी तत्वज्ञान की ओर आकृष्ट हो जाये। ज्ञान के माध्यम से तो स्व-पर प्रकाशन हो जाता है लेकिन ज्ञान का मद करने से स्व का भी ज्ञान और पर का भी ज्ञान दोनों ही पतित हो जाते हैं। सम्यक ज्ञान के साथ अक्षर का ज्ञान हो ये कोई नियम नहीं है। यदि कोई निरक्षर भी हो तो भी वह उस ज्ञान को प्राप्त कर सकता है। सम्यक ज्ञान के माध्यम से जिसके दुर्वचनों को सुनने की क्षमता आ गई, वो समझ लो औरों की अपेक्षा से उसकी असंख्यात गुणी निर्जरा ज्यादा होना प्रारम्भ हो जाती है। यदि किसी ने कुछ कह दिया तो क्या बात हो गई, यह सोचना चाहिए कि उसे भी चुकाना है और इसे भी चुकाना है। निंदा में भी शब्द है और स्तुति में भी शब्द है लेकिन व्यक्ति उल्टा करता है इसको सम्यक ज्ञान नहीं कहते हैं। सम्यक ज्ञान को कभी पसीना नहीं आता है सम्यक ज्ञान का सीना कभी धुक-धुक नहीं करता है कि अब क्या होगा। सम्यक ज्ञान के साथ सब विषय सरल होते हैं और अज्ञान के साथ सारे सारे सरल विषय भी डिफीकल्ट हो जाते हैं। ज्ञान-दर्शन चलते नहीं हैं, पर आदेश दे देते हैं। हेय की ओर गति न कर उपादेय की तरफ गति देते हैं। चारित्र (पैर) नहीं जानता कि उचित स्थान कौन सा? पैर गधे के समान हैं। ज्ञान और दर्शन के हाथ में उसकी लगाम है। ज्ञान दर्शन यात्री और चारित्र रेल (घोड़ा) इत्यादि वाहन है। आत्मा के पास श्रुत ही एक ऐसा साधन है जिसके माध्यम से यह धनी कहलाता है। जब यह श्रुतरूपी धन जघन्य अवस्था को प्राप्त हो जाता है तो वह आत्मा दरिद्र हो जाता है। यदि वास्तव में ज्ञान को धन मानकर हम उसका संरक्षण और संवर्द्धन करें तो आत्मा की ख्याति बढ़ती चली जायेगी। मात्र उपदेश देने या सुनने से ज्ञान नहीं बढ़ता। ज्ञान को ऊर्ध्वगमन संयम के द्वारा मिलता है। कषाय को अपने अंडर में लेना और चारित्र के प्रति बहुमान ये तत्वज्ञान को स्पष्ट करना है। जिससे प्रयोजन सिद्ध होता है वही ज्ञान है। ज्ञान को स्वस्थ करने की प्रक्रिया विकल्प नहीं करने से होती है। ये इसका फार्मूला है। श्रुतज्ञान का यदि विकास करना है तो भाव श्रुतज्ञान का विकास करिये। भावश्रुतज्ञान अक्षर श्रुतज्ञान के ऊपर डिपेंड है ही नहीं। जिसके पास एक अक्षर का भी ज्ञान नहीं है तो भी चल जायेगा मोक्षमार्ग में.शिवभूति महाराज का क्या हुआ? ‘निर्विकल्प होने में श्रुतज्ञान का विकास नहीं हो रहा।' ये फार्मूला हमेशा याद रखो और जोजो इसमें लगे हुए हैं, उनको कृपा करके, करुणा करके, अनुकंपा करके समझा दो। चारित्र के साथ में यदि सम्यक ज्ञान होता है तो वो भवांतर में भी काम में आ जाता है। ज्ञान रखने के लिए है ही नहीं, प्रवाह हो बाँध नहीं बाँधों। भावश्रुत का आप विकास करिये, अक्षर श्रुत का क्षयोपशम है उसका आप सदुपयोग करिये। भावश्रुत के माध्यम से अपना भला करिये और द्रव्यश्रुत के माध्यम से अपना व दूसरे का भी भला करिये । पहले कुरीतियाँ अज्ञान के कारण थीं, अब कुरीतियाँ ज्ञान के कारण चल रही हैं। कुरीतियाँ जितनी आ रही हैं, ये पढ़े-लिखे लोगों के समूह से आ रही हैं। व्यवस्थित ज्ञान का नाम विज्ञान है। ज्ञान जब संयत होता है तब ध्यान होता है। संयत ज्ञान का ही मूल्य है असंयत ज्ञान तो कहीं भी ले जा सकता है। ज्ञान के साथ संयतपना आवश्यक है। ध्यान में मन की एकाग्रता आवश्यक है ज्ञान में हम सुन तो लेते हैं लेकिन मन से नहीं सुनते हैं। यही ज्ञान और ध्यान में अंतर है। ज्ञान हमेशा गुरुकृपा से प्राप्त होता है, पढ़ने से नहीं। अनाकुलता रूप ज्ञान ही समीचीन ज्ञान है। जिसके पास ज्ञान कम है वह अधिक ज्ञानवानों की विनय करके पूंजी कमा लेता है। ये महान् है, इसके द्वारा भी प्रभावना हो रही है। अपने पास अध्ययन नहीं है तो विनय करने से कालांतर में आ जाता है। अज्ञानियों से प्रशंसा प्राप्त करने की अपेक्षा ज्ञानी से एक थप्पड़ खाना अच्छा है कम से कम गलती तो सुधरेगी। ज्ञान को हमेशा चारित्र की उन्नति में लगाना चाहिए यही उसका सदुपयोग है। पुण्य और पाप को एक मानने वाले ज्ञान का दुरुपयोग कर रहे हैं। ज्ञान को समय पर काम लेने वाला ही विवेकशील माना जाता है। जिससे मैत्री की स्थापना हो, विषयों से विराम प्राप्त हो जावे, श्रेयमार्ग पर लगा दे, रागद्वेष की निवृत्ति हो जावे उसे जिनशासन में ज्ञान कहा है। मद पैदा करने वाला ज्ञान नहीं हो सकता। जिस ज्ञान के कारण सामने गुणी दिखे ही नहीं वह ज्ञान किस काम का? ज्ञान का सदुपयोग न करने से मद उत्पन्न हो जाता है। ज्ञान का दुरुपयोग पापवर्धक होता है। अपने ज्ञान का उपयोग अपने विषय में ही करना चाहिए। दूसरे के अहित के बारे में सोचना अनर्थ है। उपयोग अंदर लगते ही सारी प्रतिकूलताएँ समाप्त हो जाती हैं। हमारे ज्ञान का सदुपयोग यही है कि हम रागद्वेष को कम करते चले जावें। ज्ञानामृत भोजन बनाओ और दूसरों को कराओ। ज्ञानामृत जो देता है उसका कभी कम नहीं पड़ता। इससे क्षयोपशम बढ़ता है एवं प्रभावना होती है। अस्थिर ज्ञान ही हमें हानिकारक है, इसलिए ज्ञान को स्थिर बनाओ। संयमी होकर असंयमी से क्या चाहोगे? अज्ञानी की प्रशंसा चाहने से अच्छा है ज्ञानी की डॉट चाहना। ज्ञानियों से बोध मिलता है प्रेरणा मिलती है। सम्यक ज्ञान वही है जो आत्मा की ओर ले जाता है आत्म सन्तुष्टि प्राप्त हो जाती है। विषयों से प्रभावित ज्ञान ईष्या तुलना पैदा करावेगा। ज्ञान होने पर अमल में न आये तो कोई पद नहीं मिल सकता । संवेग वैराग्य सहित ज्ञान ही आदर के योग्य होता है। उस ज्ञान को महत्व नहीं देना चाहिए जो पाप से न डरे।
  22. क्षमा विषय पर संत शिरोमणि आचार्य विद्यासागर जी के विचार अनंत कषाय जहाँ चली गई वहाँ अनंत क्षमा आ जाती है। क्षमा मांगने से दूसरों को नहीं, स्वयं को लाभ होता है। कषायवान व्यक्ति क्षमाभाव नहीं रखता है लेकिन क्षमावान व्यक्ति अपने जीवन में कषायों की आहुति कर देता है। जो क्षमाभाव धारण करता है वह अपने तन-मन को बड़ा कर लेता है। जो व्यक्ति निर्मल भाव से क्षमाभाव धारण करता है तो उसके जीवन के सारे दाग धुल सकते हैं। हम जीवन में कई गलतियां कर लेते हैं लेकिन गलती महसूस हो जाने पर हमें क्षमा मांगने में पीछे नहीं हटना चाहिए वर्तमान में कोई क्षमा नहीं करना चाहता है और न ही वह निर्विकल्प होना चाहता है। हमें तो क्षमा माँगकर निर्विकल्प हो जाना चाहिए। अपने आपको क्षमा मांगकर हल्का बना लेना चाहिए। क्षमा का भाव मोक्षमार्ग में एक तरफ ही होता है, वह क्षमा करे या न करे हमें तो क्षमा मांग लेना चाहिए। धरती को भी क्षमा कहा गया है क्योंकि वह अपनी छाती में निर्मल जल भी रखती है और गंदाजल भी रखती है लेकिन परिणामों में गंदापन नहीं लाती है। हम भी ऐसा कार्य करें। क्षमा से बढ़कर अन्य कोई धर्म नहीं है। जहाँ क्षमा है वहाँ मुक्तिरमा नृत्य करती हुई आती है और डाल देती है वरमाला गले में क्षमाधारी के। क्षमा माँगो नहीं, माँगना तो हमेशा खतरनाक है। क्षमा माँगने से बेड़ा पार होने वाला नहीं है। क्षमा करने से ही परमार्थ की सिद्धि हो सकती है। कहीं जाना नहीं क्षमा करने के लिए किसी जीव को। एक ही स्थान पर बैठ-बैठे क्षमा धारण करना है। माँगो मत क्षमा, क्षमा धारण करो, बहुत अंतर आ जायेगा जीवन में। पूर्ण क्षमा धारण करने के लिए घर छोड़ना पड़ेगा। घर में रहकर पूर्ण क्षमा का पालन बन नहीं सकता। आप तो पत्रों द्वारा क्षमा मांगते हैं। क्षमा भाव धारण करो, संसार के प्रासाद की नींव ढह जावेगी और मुक्ति मिल जायेगी। क्षमा नहीं है तो जीवन नहीं है याद रखो। प्रतिकूल वातावरण में भी अनुकूल वातावरण का अनुभव करना, क्षमा के बिना सम्भव नहीं है। क्षमा वह अलौकिक निधि है जो कभी समाप्त होती नहीं, जैसे भरत की निधि कभी समाप्त होती नहीं थी। क्षमा तो कुंए का जल है जो कभी सूख नहीं सकता क्योंकि वहाँ तो अक्षय स्तोत्र है जल का। श्रमण तो एक कुंआ है जिसमें क्षमा का अक्षय जल लबालब भरा रहता है। क्षमा छोड़ो नहीं कभी क्योंकि क्षमा अपनी वस्तु है। आनन्द तभी है जब राग-द्वेष का अभाव हो जाये। फिर तो आने वाला भी पिघल जाये नवनीत की भाँति। सारा क्रोध पिघल जायेगा क्षमा धारण कर लेने पर। क्षमा हमारा स्वाभाविक धर्म है। क्रोध तो विभाव है। जो व्यक्ति प्रतिदिन धीरे-धीरे अपने अंदर क्षमा धारण करने का प्रयास करता है उसी का जीवन अमृतमय है। अमृत वहीं है जहाँ क्रोध रूपी विष नहीं है। क्रोध कषाय को मिटाने के लिए कोई औषधि है तो क्षमा है। आप इसको पास रखेंगे तो तीन काल में घटना नहीं होगी। मैं उस साधक को नमस्कार करना चाहूँगा जिसके आश्रम में क्षमा झाडू लगाती हो। झाडू तो लगाना ही चाहिए नौकरानी के रूप में उत्तम क्षमा झाडू लगाती हो। अर्थात् वह हमेशा उस आत्मा के अन्दर किसी प्रकार के धूल-कण चिपके नहीं इसलिए क्षमा हमेशा झाडू लगाती रहती है। यदि क्षमा है तो क्रोध अपना काम करें लेकिन वह जला नहीं सकता है। अनंतकाल का तपा हुआ उपयोग शांत करना है तो क्षमा के द्वारा कर सकते हैं। क्षमा धर्म जीवन में आ जाये तो दुनिया की कोई सामग्री लाद दो गुस्सा नहीं आ सकता है। आप क्षमावाणी मनाते हैं पर उनके साथ क्षमा मनाओ जिनके साथ वैर (द्वेष) है, मन की गाँठों को खोलो । क्षमा वहीं है जहाँ वैरी भी आ जाये तो मध्यस्थ भाव रहे। अपने अस्तित्व के साथ साथ अनंत जीवों का अस्तित्व स्वीकार करना ही क्षमा है।
  23. क्षमा, अनुराग विषय पर संत शिरोमणि आचार्य विद्यासागर जी के विचार जिस प्रकार सर्कस में पैर नहीं टिकते डाँवाडोल स्थिति रहती है, उसी प्रकार दुख के प्रसंग आने पर भी पाँव नहीं टिकते, ऐसा दुख का प्रसंग किसी को न आवे ऐसी भावना करना, यह क्षमा की चरम सीमा है, यह अनुकम्पा है। विषय कषाय को दबाओ, मोहरूपी डाट को हटाओ और वास्तविक क्षमा को धारण करो। क्षमा करने से आत्मा सन्तुष्ट होगा, चाहने से नहीं, हमारा बिगाड़ तब है, जब हम क्षमा नहीं करें। वैरियों के प्रति वात्सल्य प्रादुभूत करने के लिए क्षमा करो। क्षमा करना गुणस्थान को बढ़ाना है और क्षमा मांगना गुणस्थान को सुरक्षित रखना है। लड़ाई करने के लिए तो पहले से अनेक तैयारियां करनी पड़ती हैं, लेकिन प्रेम से मिलने पर कुछ नहीं करना पड़ता। अनुराग से ही समाज का कल्याण हो सकता है। यदि सभी मिलकर रहेंगे प्रेमपूर्वक तो समाज आगे बढ़ेगा। जिससे सभी का भला होगा। अनुराग के साथ सदैव अच्छाई, प्रेम और परोपकार आता है, वहीं द्वेष समाज को नष्ट करता है। विद्वेष समाज में विघटन का कारण बनता है। द्वेष की मात्रा कितनी भी कम क्यों न हो, उसका परिणाम अनुराग नहीं हो सकता। द्वेष को हटाने के लिए क्रोध, मान, माया और लोभ को हटाना ही पड़ता है। राग छोडो प्रेम करो। तभी कल्याण होगा। वैर भाव जोड़ते समय पसीना नहीं आता पर छोड़ते समय आता है। राग-द्वेष कम करते समय लगता है, पुरानी बीमारी है जल्दी नहीं जायेगी।
  24. श्रुतज्ञान विषय पर संत शिरोमणि आचार्य विद्यासागर जी के विचार श्रुतपंचमी पर्व बहुत गर्मी में आता है लेकिन यह कूलर में रहने वालों के लिए नहीं जो कूलर और हीटर से ऊपर उठ जाता है, उसे श्रुतज्ञान होता है। जो अपने प्रयोजन को समझ लेता है वही तो श्रुतज्ञान है। पूरे भारतवर्ष से हिंसा का अभाव हो जाये, अहिंसा का वातावरण बन जाये बस वही श्रुतज्ञान है। जिसने पंचेन्द्रियों को वश में किया है उसे श्रुतज्ञान होता है। अपने आप पर नियंत्रण रखते ही ऋद्धि सिद्धि के माध्यम से अपने आप ऊपर उठ जाता है। प्रयोग नहीं करने के कारण हम धरती पर ही परिक्रमा करते रहते हैं धरती के आकर्षण के कारण । जिस किसी के लिए श्रुताराधना नहीं करानी चाहिए। उसकी पात्रता का भी अवश्य ध्यान रखें। यह व्यवसाय का साधन नहीं है, यह स्वाध्याय का साधन है। जिस प्रकार भारतीय संविधान की रक्षा की जाती है उसी के माध्यम से सारा देश चलने वाला होता है उसी प्रकार से हम आत्मतत्व को प्राप्त करने जा रहे हैं मोक्षमार्ग पर प्रवृत्त हो रहे हैं तो श्रुतदेवता के बारे में सोची, उसका सविनय बहुमान होना चाहिए।
  25. यदि कोई सिद्धान्त का गलत अर्थ निकालता है, तो उस समय बिना पूछे ही उसका निराकरण करना चाहिए। यदि उस समय वह समन्तभद्राचार्य जैसी गर्जना नहीं करता है तो उसका सम्यकज्ञान मिथ्याज्ञान में परिणत हो जाएगा। जिस प्रकार माहौल के वातावरण से प्रभावित होकर के गिरगिट अपना रंग बदलता रहता है, उसी प्रकार आजकल के वक्ता भी स्वार्थ सिद्धि की वजह से आगम के अर्थ को बदलते रहते हैं। लोभ के वशीभूत हुआ प्राणी सत्य धर्म को सही-सही उद्घाटित नहीं कर सकता, सत्य का अर्थ है अहिंसा, असत्य का अर्थ है हिंसा, सत्य का पक्ष कभी फालतू नहीं जाता। ...लौकिक क्षेत्र में यह प्रसिद्ध है, कि जिस रोग के आवागमन से शरीर का एक पक्ष विकल हो जाता है; शरीर का एक भाग काम नहीं करता, उसे वैद्य लोग पक्षाघात कहते हैं। मैं समझता हूँ कि पक्षाघात स्वयं पक्षाघात से युक्त है, क्योंकि वह शरीर के मात्र आधे हिस्से को ही निष्क्रिय करता है, पूरे को नहीं। किन्तु! सही पक्षाघात में पक्षपात को मानता हूँ, पक्षपात के आने से उसकी चाल में, उसकी दृष्टि में, उसकी प्रत्येक क्रिया में अन्तर आ जाता है, जहाँ पक्षपात आ जाता है वहाँ भीतर की बात भीतर ही रह जाती है। किसी व्यक्ति से पूछा जाए कि तुमने चोरी की है तो उसका मन पहले कहता है कि 'हूँ' फिर बाद में जब उसे बाध्य किया जाता है तो यह“परावाक्र"पश्यन्ति के रूप में परिवर्तित हो जाती है। उस समय भी परावाक् बिल्कुल शुद्ध रहती है, पश्यन्ति भी बिल्कुल ठीक रहती है, किन्तु! मध्यमा के ऊपर ज्यों ही चढ़ना प्रारम्भ कर देता है त्यों ही उसके लिए एक आशा आ जाती है और जिह्वा बोलना भी चाहती है, लेकिन! उसका गला घुटकर-सा रह जाता है, वह कहती है कि-जैसा हुआ वैसा नहीं, जो मैं कह रहा हूँ वह बोलना है, क्यों तुमने चोरी की है तो वह कहता है कि हूँ. हूँ. नहीं, यह निकल गया, इसका अर्थ है ' है" हाँ फिर उसके उपरांत ‘नहीं' करता है, आप कितनी भी पिटाई कीजिए, कड़ा से कड़ा दण्ड दीजिए वह सत्य को असत्य की ओट में छुपा देता है। यही विचार की बात है, आचार की बात है; कौन नहीं जानता कि, चोरी करना गलत है, लेकिन! वह चोर भी जानता हुआ डरता है, पीछे मुड़कर देखता है कि पुलिस आ रही है और मेरे लिए पकड़ेगी, इस प्रकार वह भयभीत होता हुआ, चोरी को अच्छा नहीं समझता, फिर भी लत पड़ गई है, इसलिए वह चोरी को छोड़ नहीं पा रहा है, विषयों की चपेट में आया हुआ प्राणी, विषयों को छोड़ नहीं पाता, यह अज्ञान है, अज्ञान का अर्थ यह नहीं कि वहाँ पर ज्ञान का अभाव है, ज्ञान तो है लेकिन पूरा नहीं है और सही नहीं है, इसलिए येन केन प्रकारेण विषयों की पूर्ति के लिए कदम उठाता है। पक्षपात ! यह एक ऐसा जल प्रपात है जहाँ पर सत्य की सजीव माटी टिक नहीं सकती ...बहे जाती पता नहीं कहाँ ? वह जाती असत्य के अनगढ़ विशाल पाषाण खण्ड अधगड़े टेड मेढे अपने धुन पर अड़े शोभित होते (डूबो मत लगाओ डुबकी) पक्षपात एक ऐसा जल प्रपात है जो सत्य की माटी को टिकने नहीं देता। सिद्धक्षेत्र मुतागिरजी में हमने देखा था, तो वहाँ टेड़े/मेड़े विशाल पाखण्ड खण्ड ही मात्र मिले, माटी के दर्शन तो वहाँ पर हुए ही नहीं। असत्य जीवन के पास जाते ही घबराहट होने लगती है, कहीं ऐसा न हो कि सत्य, असत्य के रूप में परिणत हो जाए आज सुबह ही एक सूत्र में आया था | 'बन्धेऽधिकौ पारिणामिकौ च' (तत्त्वार्थसूत्र, अध्याय ५, सूत्र ३७) परिणमन कराने की शक्ति असत्य के पास बहुत है। सत्य के पैरों को भी वह हिला देता है, क्योंकि सत्य आदि है, और असत्य अनन्तकाल से चला आ रहा है। सत्य की सुरक्षा आज अनिवार्य है और सत्य की सुरक्षा वहीं पर हो सकती है, जहाँ पर पक्षपात नहीं है। जहाँ शुद्ध आचार/विचार है, और यदि यह सब नहीं है तो वहाँ सत्य धीरे-धीरे फिसलता हुआ असत्य के रूप में बदलता जाता है। आज मुझे सत्य की बात कहना है असत्य की नहीं, असत्य से तो आप सभी लोग परिचित हैं। सुदपरिचिदाणुभूदा, सव्वस्सवि कामभोगबंधकहा। एयक्तस्सुवलम्भो, णवरि ण सुलहो विहत्तस्स॥ (समयसार/पीठाधिकार/गाथा ४) आचार्य कुन्दकुन्ददेव समयसार में कहते हैं कि इस आत्मा ने भोग/काम/बन्ध की कथायें खूब सुनी हैं, यदि नहीं सुनी है तो, एकत्व की कथा नहीं सुनी। विषयों का इसे खूब अनुभव है। विषय भोग के बारे में कोई भी बालक नहीं है, सभी अनंतकाल के आसामी हैं और अनंत का कोई ओर-छोर नहीं होता, आत्मा का क्या इतिहास है? पहले ही हमने बताया था, कि आज मुझे सत्य की बात कहना है, सत्य क्या है? सत्य, अजर/अमर है। सत्य, अनादिकाल से चला आ रहा है। आज तक हमने सत्य का मूल्यांकन नहीं किया, आज तक हमने सत्य को संवेदन नहीं किया और मात्र असत्य का संवेदना, मनन/चिन्तन/किया है, स्वप्न में भी सत्य का संवेदन नहीं किया। जिसने सत्य का संवेदन किया उसे मार्ग मिला, मंजिल मिली और अनंतकाल के लिए वह अनंत/अव्याबाध सुख का भोक्ता बन गया। सत्य की महिमा कहने योग्य नहीं है, उसे हम शब्दों में बाँध नहीं सकते। वह लिखने की वस्तु नहीं लखने की वस्तु है, लिखनहारे तो बहुत हैं, लेकिन लखनहारा तो विरला ही पाओगे, वस्तुतत्व का निरीक्षण करने वाला हृदय आज कहाँ है? इसलिए आचार्य कुन्दकुन्ददेव ने लेखनी उठाते ही कह दिया 'सुदपरिचिदाणुभूदा' सभी कार्य संसारी प्राणी ने अनंतों बार किए हैं। पूर्व वत्ता ने अभी-अभी कहा था कि जिनवाणी को अपने जीवन में उतारना है। 'धम्मं भोगणिमित' यह गाथा जब मैं आगे जाकर उसी, समयसार में देखता हूँ तो एक विचित्र सत्य के दर्शन होते हैं। एक मिथ्यादृष्टि जीव है, वह सच्चे देव/शास्त्र/गुरु पर श्रद्धा रखता है, लेकिन फिर भी उसके अन्दर कहाँ पर कमी रहती है? तो आचार्य कहते हैं कि भाव-भासन का अभाव है। भोगों की चपेट से वह अपने को ढूँढ़ नहीं पा रहा है। ज्ञान का समार्जन करने वाला व्यक्ति, यह सोचता है कि-मेरे भीतर भोग की लिप्सा कितनी मात्रा में घटी है। चाहे वह स्वाध्याय करने वाला हो या पूजन करने वाला, अन्दर ही अन्दर वे घड़ियाँ चलती रहती हैं, जिस प्रकार ब्लड-प्रेशर नापते समय काँटा यूँ-यूँ करता है उसी प्रकार मन की प्रणाली बार-बार विषयों की ओर आती जाती है। सत्य क्या है? असत्य क्या है वह सोचता रहता है। एक दोस्त था। उसके घर के लोग तन्त्र/मन्त्र को बहुत मान्यता देते थे। और वह मात्र देव/ शास्त्र/गुरु को मानता था। एक दिन वह कहता है कि मुझे एक ताबीज लेना है। मैंने कहा कि कहाँ से लाओगे? सुनार के यहाँ से लायेंगे। मैंने कहा कि चलो हम भी देखते हैं कैसे ताबीज बनती है। तब वह सुनार के पास जाकर कहता है कि फलाने व्यक्ति ने इस प्रकार की ताबीज लाने के लिए कहा था, जो कुछ भी पैसा लेना है ले लो, लेकिन! ताबीज अच्छी बनाना है, ताबीज बनाते समय ताँबे के ऊपर हथौड़े की सही चोट पड़ना चाहिए, झूठ नहीं पड़ना चाहिए। झूठ का मतलब मैं समझता रहा, देखता रहा, झूठ कौन-सी होती है जो कोई भी आभरण बनते हैं, उन पर हथौड़े की चोट करके यूँ यूँ करते हैं, उसको बोलते हैं झूठा प्रहार, उसका कोई मतलब नहीं होता, इसका अर्थ होता है, कि ताबीज झूठा प्रहार सहन नहीं कर सकता, बाँधने वाला झूठ बोले यह बात अलग है, लेकिन! ताबीज कहता है कि मेरा निर्माण बिना झूठ के हुआ है, हमने सोचा क्या मामला है? तो मामला यह है कि सुनार की सावधानी वहाँ पर होगी। आज तो ‘धर्मयुग' है। हाँ बात तो बिल्कुल ठीक है भैय्या आज तो धर्मयुग पत्रिका निकल रही है, और ‘युगधर्म' भी निकलता है। कभी धर्म आगे बढ़ जाता है, तो कभी युग आगे बढ़ जाता है तो हम धर्म-युग की बात करें, आज युग इतने आगे बढ़ गया है, और धर्म इतने पीछे रह गया है कि क्या बताऊँ? इसलिए तो धर्म युग कहा गया, धर्म की बातें करने से धर्म नहीं आ सकता, धर्म तो तब आएगा जब युग धर्ममय बन जाए। पंक्तियाँ-प्रस्तुत हैं-- यह युग अप्रत्याशित आगे बढ़ चुका है बहुत दूर और! धर्मं वह बहुत... दूर पीछे रह चुका है अन्यथा पत्रिका का नाम धर्म युग क्यों पड़ा यह ? ('चेतना के गहराव में' से) सत्य का अर्थ है अहिंसा, और असत्य का अर्थ है हिंसा। हमारे उपास्य देवता सत्य और अहिंसा हैं, इन्हीं दो मन्त्रों को लेकर गाँधीजी ने ब्रिटिश गवर्नमेंट को प्रभावित किया था, इस शताब्दी में भी इस प्रकार के परिवर्तन हुए हैं, सत्य-अहिंसा कोई शाब्दिक व्याख्या नहीं है, यह एक प्रकार से भीतर की बात है, आज सत्य के कदम कहाँ तक उठ रहे हैं, अपने जीवन में सत्य का मूल्यांकन कहाँ तक हो रहा है? छोटी-छोटी बातों को लेकर झूठ बोलते हैं, लेकिन! यह विश्वास के साथ सोचना चाहिए, जो काम झूठ के द्वारा हो रहा है, क्या वह सत्य के द्वारा नहीं होगा? उससे बढ़कर ही होगा लेकिन! असत्य के ऊपर हमारा विश्वास जमा हुआ है, असत्य की ही ओर हमारी दृष्टि है। सत्य का पक्ष वह है जो कभी फालतू नहीं होता, असत्य का पक्ष हमेशा फालतू ही हुआ करता है, उसकी कीमत तब तक ही रहती है जब तक हम समझते नहीं हैं, हमें असत्य/हिंसा का पक्ष नहीं लेना है, सत्य/अहिंसा का पक्ष ही लेना है, लेकिन! सत्य का पक्ष लेने वाला व्यक्ति, क्रोध/ लोभ/भीरुता/हास्य का आलम्बन नहीं लेगा। लोभ के वशीभूत हुआ प्राणी सत्य धर्म को सही-सही उद्घाटित नहीं कर सकता, सत्य की सुरक्षा के लिए क्रोध/लोभ/भीरुता/हास्य को छोड़ना होगा आचार्य शुभचन्द्र जी ने ज्ञानार्णव में एक बात कही है, जो मुझे बहुत अच्छी लगी, कि विद्वान् को अपनी गंभीरता नहीं छोड़ना चाहिए, यद्वा/तद्वा नहीं बोलना चाहिए अपनी सीमा में रहना चाहिए, यह बिल्कुल ठीक है, बार-बार पूछने के उपरान्त भी नहीं बोलना चाहिए, लेकिन! यदि धर्म का नाश हो रहा हो तो? धर्मनाशे क्रियाध्वंसे सुसिद्धान्तार्थविप्लवे। अपृष्टैरपि वक्तव्यं तत्स्वरूप-प्रकाशने॥ (ज्ञानार्णव सर्ग ९।। श्लोक १५) जब धर्म का नाश होने लगता है, धार्मिक क्रियाओं की विध्वंस होने लगता है और यदि कोई व्यक्ति सिद्धान्त का गलत अर्थ निकालता है तो, उस समय बिना पूछे ही उसका निराकरण करना चाहिए, उस समय वह समन्तभद्राचार्य जैसी गर्जना नहीं करता है तो उसका सम्यकज्ञान मिथ्याज्ञान के रूप में परिणत हो जाएगा, क्योंकि उस समय उसने सत्य को ढँक दिया, यह बात मुमुक्षु को हमेशा ध्यान में रखना चाहिए, आज महावीर भगवान् के सिद्धान्त के अनुसार चलने वाले विरले ही रह गए हैं, मात्र साहित्य के माध्यम से ही महावीर भगवान् का धर्म जीवित नहीं है, बल्कि! उस साहित्य के अनुरूप चर्या भी देखने मिल रही है, भले ही उसका पालन करने वाले अल्प संख्या में हैं। साहित्य के अनुरूप आचरण करने वालों की कमी होने के कारण आज बौद्ध धर्म विश्व में रहते हुए भी किस रूप में है? हम जान नहीं सकते, वह मात्र पेटियों में बन्द हो गया है, बौद्ध धर्म के उपासक आज भारत में नहीं हैं, जबकि बौद्धधर्म भारत में ही स्थापित हुआ था, प्रचार-प्रसार हुआ था, किन्तु उनके उपासक यहाँ पर नहीं टिक सके, फिर बाद में वह धर्म तिब्बत, लंका आदि में चला गया, यहाँ पर भगवान् आदिनाथ से लेकर महावीर भगवान् तक जैनधर्म अबाधगति से चला आ रहा है, इसमें कारण क्या है? एक विदेशी लेखक ने एक पुस्तक में लिखा है कि बौद्ध धर्म का उद्गम भारत में हुआ और भारत में ही उसका वर्चस्व कायम नहीं रह पाया, जैन धर्म का उद्गम भी भारत में हुआ और जीवित रह गया। बौद्धधर्म जीवित क्यों नहीं रह पाया? इसमें कारण यही है कि उसके उपासकों की संख्या घटती गई इसलिए बौद्ध धर्म यहाँ से उठ गया, उपासकों के अभाव में वह धर्म लुप्त हो गया और उपासकों के सद्भाव में जैन धर्म आज भी जीवित है और आगे भी रहेगा। यह बात अलग है कि धीरे-धीरे शिथिलता आ रही है, चलने वाला शिथिल भले हो, लेकिन! धर्म जीवित रखने का श्रेय उपासकों को ही है, धर्मरूपी रथ के दो पहिए हैं, एक मुनि, दूसरा श्रावक, यह सत्य है कि यदि एक पहिया निकाल दिया जाए तो रथ नहीं चल सकता, इसी प्रकार श्रुतज्ञान को निकाल दिया जाए तो केवलज्ञान गूंगा हो जाएगा, केवलज्ञान और सर्वज्ञ को समाप्त कर दिया जाए तो श्रुतज्ञान नहीं रहेगा, इसलिए दोनों के सद्भाव में यह धर्म रहने वाला है। अक्षर के पास ज्ञान भी नहीं है, पर अर्थ को व्यक्त करने की योग्यता उसके पास है, योग्यता का अधिकरण उसकी विवक्षा करने वाले वक्ता के ऊपर निर्धारित है, सो आज उन लोगों के पास वह भी नहीं है, आज साहित्य क्या है? वस्तुत: जो वाच्यभूत पदार्थ है, उसको हम शब्दों में व्यक्त करते हैं, शब्द वस्तुत: ज्ञान नहीं हैं, शब्द कोई वस्तु नहीं है, किन्तु! वस्तु के लिए मात्र संकेत है। भाषा (लेंग्वेज) यह नॉलेज नहीं है, किन्तु मात्र साइनबोर्ड है। नॉलेज का अर्थ जानने की शक्ति और लेंगवेज को जानने के लिए भी नॉलेज चाहिए, यदि वह विषयों में, कषायों में घुला हुआ है तो ध्यान रखना उसका कोई मूल्य नहीं है। आज कई विदेशी आ जाते हैं, दिगम्बरत्व के दर्शन करते हैं, श्रावकों को देखते हैं तो ताज्जुब करते हैं कि इस प्रकार धर्म रह सकता है, गाँधीजी जब यहाँ से विदेश गए थे, वहाँ पर उनके स्वागत के लिए बहुत भीड़ एकत्रित थी, यह कैसी खोपड़ी है? यह कैसी विचारधारा है? जिसके माध्यम से हमारा साम्राज्य पलट गया, उस व्यक्ति को हम देखना चाहते हैं, जब वो निकल गए तो लोग इधरउधर देखने लगे, कहाँ हैं गाँधीजी किसी ने कहा कि गाँधीजी यही हैं। भैया! तो वे कहने लगे किअरे ये तो साधु जैसे हैं, तब गाँधीजी ने कहा कि ये तो साधु की पृष्ठभूमि है, साधु तो बहुत पहुँचे हुए लोग होते हैं, तब लोगों ने कहा कि जब आपका इतना प्रभाव है तो उनका कितना होगा? गाँधीजी बोले-वे अपना प्रभाव दिखाते नहीं हैं, क्योंकि वे दुनियाँ से ऊपर उठे हुए हैं। आचार्य उमास्वामी ने सप्तम अध्याय में कहा है कि चोरी से, झूठ से काम लेना यह असत्य है, सत्य बोलना सत्य नहीं है। असत्य का विमोचन करना सत्य है, अभी पूर्व वत्ता ने आपके सामने कहा कि महाराज तो विमोचन करने में माहिर हो चुके हैं। (पं. पन्नालालजी साहित्याचार्य द्वारा लिखित सज्ज्ञानचन्द्रिका का विमोचन करते समय) हाँ.परिग्रह का तो मैं विमोचन करता हूँ पर श्रुत का विमोचन नहीं करता, श्रुत का विमोचन तब तक नहीं होगा जब तक मुझे मुक्ति नहीं मिलेगी, श्रुत का विमोचन यह लौकिक पद्धति है, लेकिन! आज स्वाध्याय का मूल्यांकन घटता चला जा रहा है। एक वक्ता ने अभी कहा कि आज बड़ी-बड़ी संस्थायें हैं, संस्थाओं से शास्त्र भी प्रकाशित हुए हैं, लेकिन! उनको कोई पढ़ने वाले नहीं हैं, यह कथचित् ठीक है लेकिन! मैं भी यह बात उनसे कहता हूँकि ग्रन्थ प्रकाशित करने वालों का क्या कर्तव्य है? जरा इस पर भी ध्यान दें। देखो! सुबह से लेकर मध्याह्न तक रसोई मन लगाकर बनाई जाती है। भीतर से यह मन कहता है कि मैं किसी भूखे-प्यासे की क्षुधा दूर करूं, मेरी रसोई का मूल्यांकन पूर्ण रूप से हो और वह सार्थक हो जाए, जिस किसी व्यक्ति को आप श्रुत देकर अपने आपको कृत-कृत्य नहीं मानोगे, जिस प्रकार जिसको भूख है, उसी को आप खाना खिलायेंगे, जिसके लिए अध्ययन की रुचि है, उसे ही आप श्रुत दान दीजिए, यदि आप सही दाता हैं, श्रुत का सही-सही प्रचारप्रसार करना चाहते हैं तो। बहुत सारे छात्र मेरे पास आ जाते हैं, बहुत सारे व्यक्ति मेरे पास आ जाते हैं और कहते हैं कि महाराज मुझे कुछ दिशा बोध दीजिए, जो व्यक्ति खरीद करके दिशा बोध देता है, उसका सामने वाला सही-सही मूल्यांकन नहीं करता। जिनवाणी की विनय ही हमारा परम धर्म है, यदि सम्यकदर्शन के आठ अंग हैं, तो सम्यकज्ञान के भी आठ अंग हैं, लेकिन! सम्यकज्ञान के आठ अंगों से बहुत कम लोग परिचित हैं, जिनवाणी का दान जिस किसी व्यक्ति को नहीं दिया जाता, जिनवाणी सुनने का पात्र वही है जिसने मद्य/मांस/मधु और सप्तव्यसनों का त्याग कर दिया है। मद्य/मांस/मधु का सेवन आज समाज में बहुत हो रहा है। केवल स्वाध्याय करने मात्र से ही सम्यकदर्शन नहीं होने वाला। बाह्याचरण का भी अन्तरंग परिणामों पर प्रभाव पड़ता है, विषय वासनाओं में लिप्त यह आपकी प्रवृत्ति अन्दर के सम्यकदर्शन को भी धक्का लगा सकती है, दुश्चरित्र के माध्यम से सम्यकदर्शन का टिकना भी मुश्किल हो जाएगा, आजकल प्रत्येक क्षेत्र में प्रवृत्तियाँ बदलती जा रही हैं, पहले जैन ग्रन्थों पर मूल्य नहीं डाले जाते थे। क्योंकि जिनवाणी का कोई मूल्य नहीं है वह अमूल्य है, लेकिन! आज ग्रन्थों पर मूल्य डाले जा रहे हैं जो कि ठीक नहीं हैं, मोक्ष सुख दिलाने वाली इस जिनवाणी माँ को आप व्यवसाय का साधन मत बनाइये, सभा में बैठे हुए विद्वानों को यह कथन रुचिकर नहीं लग रहा होगा लेकिन! यह एक कटु सत्य है, सत्य चाहे कड़वा हो या मीठा, उसको उद्घाटित करना हमारा परम कर्तव्य है, एक बात ध्यान रखना दवा कड़वी ही हुआ करती है और कड़वी दवा के माध्यम से ही रोग का निष्कासन हुआ करता है। पुरुषार्थसिद्धयुपाय संहारिका मेरे पास आई थी, मैंने उसे देखा तो, उसमें एक स्थान पर आया जिनवाणी सुनने का वही पात्र है-जिसने सप्त व्यसन और मद का त्याग कर दिया हो। आज दिनों दिन सदाचरण मिटते चले जा रहे हैं। मद्य/मांस/मधु से हमारा परहेज प्राय: समाप्त होता चला जा रहा है। केवल समयसार मात्र पढ़ने से हमें सम्यकदर्शन प्राप्त नहीं होने वाला, आचार्य अमृतचन्द्रजी कहते हैं, वही व्यक्ति पात्र है जो सदाचार का पालन करता हो, इसके उपरान्त ही सम्यकदर्शन सम्भव है। इसलिए उन्होंने पहले सुनने की पात्रता बताई। हमें इसी प्रकार सीखना है तो उत्तमपात्र के लिए बहुत खर्च करना पड़ता है, इसके उपरान्त आपका वित्त सार्थक होगा पहले सुनने की पात्रता बताई, इसके उपरान्त आपका वित्त सार्थक होगा पहले के लोग भी स्वाध्याय करते थे, मैंने पहले के कुछ ग्रन्थ देखे हैं, जिन पर कीमत के रूप में स्वाध्याय लिखा जाता था, उन ग्रन्थों के ऊपर कीमत नहीं लिखी जाती थी, मैंने कई बार इस बात को कहा है, मैं स्वाध्याय का निषेध नहीं करता स्वाध्याय आप खूब करिये! लेकिन विनय के साथ करिये, पहले स्वाध्याय करने की पात्रता/योग्यता अपने आप में लाइये, तभी आप सम्यकदर्शन सम्यकज्ञान को प्राप्त कर सकेंगे, उसकी विनय के अभाव में वह सम्यकज्ञान तीनकाल में संभव नहीं है, श्रुत का दान आप उसे दीजिए जिसने उसका महत्व समझा हो, वह पवित्र जिनवाणी, उसी के लिए भेंट कीजिए जो उसका सदुपयोग कर सके, जिस किसी के लिए आप दे देते हैं वह उसकी विनय नहीं रखता कहीं भी ले जाकर रख देता है और यदि वह शास्त्र किसी बच्चे के हाथ में पड़ जाए तो वह उसे फाड़ देता है, ग्रन्थालयों में ग्रन्थ तो मिल जाते हैं, लेकिन खोलते ही ऊपर पद्मपुराण लिखा रहता है और बीच में हरिवंश पुराण के भी पृष्ठ मिल जाते हैं और अंत में उत्तरपुराण के भी दर्शन हो जाते हैं, किसी भी ग्रन्थालय में ग्रन्थ व्यवस्थित नहीं रखे मिलते, सारों की बात तो अलग ही है, समयसार में गोम्मटसार के दर्शन होते हैं और प्रवचनसार में धवला के दर्शन होते हैं, उन महान् सिद्धान्त ग्रन्थों के पने भी, अस्त व्यस्त रहते हैं। स्वाध्याय शील व्यक्ति भी उन्हें पढ़कर यथायोग्य नहीं रखते, जल्दी-जल्दी जैसे भी पढ़ लिया और अलमारी के किसी कोने में पटक दिया, यह कोई स्वाध्याय करने का तरीका नहीं है, महिलायें भी स्वाध्याय करने में कई कदम आगे हैं, शास्त्र स्वाध्याय के साथ-साथ उनकी पूजा भी चलती रहती है और यदि कोई बीच में पुरुष आ गया तो, अभिषेक का अनुरोध भी कर लेती हैं, क्या मतलब है? पढ़ भी रहे हैं, पूजा भी कर रहे हैं, अभिषेक भी चल रहा है, यह तो हुई पढ़ी-लिखी महिलाओं की बात, पर जो पढ़ी-लिखी नहीं हैं, वे वृद्धा, किसी से भी कह देती हैं। भैया सूत्रजी सुनाओ और बीच में शांतिधारा दिखा दो, हमारा अभिषेक देखने का नियम है, उसी समय किसी तीसरे व्यक्ति से कह देती भैया! सहस्रनाम सुना दो, चौथे व्यक्ति से कहती भैया पद्मपुराण सुना दो, यह तो हमारी स्थिति है। (श्रोता समुदाय में भारी हँसी) यह क्या है? यह कोई स्वाध्याय करने का तरीका हुआ? यह क्या स्वाध्याय का मूल्यांकन हुआ? जिनवाणी की तो आज यह स्थिति हो रही है कि कहते हुए हृदय फटता है, आप यदि किसी सप्त व्यसनी को समयसार पकड़ा दोगे तो वह उसकी क्या विनय करेगा, उसके द्वारा जिनवाणी की अवहेलना ही होगी। एक बात और मैं पुनः जोर देकर कहूँगा कि ग्रन्थ प्रकाशन समितियों को ग्रन्थों पर मूल्य नहीं रखना चाहिए, दानदाताओं से अभी यह धरती खाली नहीं हुई है, ध्यान रखना! श्रावक धनोपार्जन करता है तो कुछ ना कुछ दानादि कार्यों के लिए बचा कर अवश्य रखता है, दान दिया हुआ पैसा पुन: उपयोग में नहीं लाना चाहिए, उसको अच्छे कामों में लगाइये, सदुपयोग कीजिए। मुझे अष्टसहस्त्री पढ़नी थी, प्रति उपलब्ध नहीं थी, मुझे बहुत चिंता थी, कहीं से भी खोजने पर एक प्रति आ गई जब उसको खोलकर देखा तो उसमें कहीं पर मूल्य नहीं पड़ा था, महाराज श्री (आचार्य गुरुवर ज्ञानसागरजी) बोले कि भैया! पहले पुस्तक के देने उपरान्त भी कोई नहीं लेता था। इसका अर्थ है कि पढ़ने की रुचि नहीं है, इसलिए प्रतियों का अकाल पड़ गया, पढ़ने की रुचि पहले जागृत कर दी जाए इसके उपरान्त ग्रन्थ भेंट किया जाए, भोजन आप उसको दीजिए जिसे भूख लगी है, प्रकाशन करके यद्वा-तद्वा बाँटने से उसका दुरुपयोग होता है, आज कल तो शादी/विवाह में समयसार बाँटे जाते हैं, क्या समयसार का मूल्य इतना निम्न-स्तर पर पहुँच गया, जब समयसार ग्रंथ श्रीमद् राजचंद्र को मिला तो वे इतने खुश हुए कि ग्रन्थ भेंट करने वाले को उन्होंने थाली भरकर हीरा-मोती भेंट स्वरूप दिए थे, इतने सारे, हाँ इतने सारे। वह अमूल्य है, उसकी कोई कीमत नहीं, ले जाओ जितना चाहो उतना ले जाओ और आज हम उस समयसार की कीमत चाँदी के चंद सिक्कों में आक रहे हैं। जो लेखक हैं, उनके लिए क्या आवश्यक है? उनके लिए कोई कीमत मत दीजिए, महापुराण पढ़ रहा था, उस समय उन्होंने यह व्यवस्था की है। जैन ब्राह्मण भी होते हैं जो अध्ययन कराने में अपना जीवन व्यतीत करते हैं और उनकी आजीविका कैसे चलती है तो आप जो खा रहे हैं, पी रहे हैं, उसी के अनुसार आप कर दीजिए, यही उनके प्रति बहुमान है तो पंडितजी के लिए हम वेतन दें, यह अच्छा नहीं लगता । वे.तन (आत्मा) का काम करने वालों को आप वेतन जड़ देते हैं, भेंट अलग वस्तु है, उसका मूल्य आँकना अलग होता है, सम्यकज्ञान, सम्यक्रचारित्र का कोई मूल्य नहीं है, जिनसे अनंत सुख मिलता है, उन रत्नों की कीमत क्या हम जड़ पदार्थों के माध्यम से आँक सकते हैं? नहीं, तीनकाल में भी यह संभव नहीं है। इसी प्रकार गुरु महाराज की भी कोई कीमत नहीं होती, वे अनमोल वस्तु हैं और भगवान् की भी कोई कीमत नहीं होती, एक बार एक बात आई थी, रजिस्ट्री कराने की, जितनी आपके यहाँ मूर्तियाँ हैं उन सब मूर्तियों को गवर्मेन्ट को बताना होगा और उनका वेट (वजन) कितना है, यह भी बताना होगा समस्या आ गई, जैनियों ने कह दिया हम सब कुछ बता सकते हैं, आपको खर्चा करने की आवश्यकता नहीं है, लेकिन! हम भगवान् को तौल नहीं सकते, ये भी कितने आदर की बात, किन्तु! जिनवाणी की बात है जैसा अभी (मूलचन्द्रजी लुहाड़िया, किशनगढ़) पूर्व वत्ता ने कहा, ज्ञान की पिटाई ऐसी हो रही है, मैं तो यह कह रहा हूँ जिनवाणी की पिटाई भी होती चली जा रही है। किसी ने कहा है जिनवाणी जिनदेव से रो-रो करत पुकार। हमें छोड़ तुम शिव गए, कर कुपात्र आधार॥ आज वह जिनवाणी रो रही है, जिसे आप माता बोलते हैं, जिसे आप अपने सिर पर धारण करते हैं, किन्तु वही जिनवाणी कहती है कि मुझे कुपात्रों के रहने के स्थान पर क्यों छोड़े जा रहे हो, हे भगवन् आप कहाँ पर चले गए ? जिनकी पूजा होती है, उनकी सही-सही विनय होना चाहिए। आजकल इसमें बहुत कुछ शिथिलता आती जा रही है, मात्र स्वाध्याय करने से कोई प्रयोजन सिद्ध नहीं होने वाला, सत्य वह है, जो अर्थ को भाव को सही-सही बताने वाला होता है, अभी किसी वक्ता ने कहा था कि जो व्यक्ति लिख रहा है, पढ़ रहा है, उसका, जहाँ कहीं से पढ़ना/लिखना प्रारम्भ हो गया। अभी वाचना चल रही थी धवला इत्यादि की तो धवला की आठवीं पुस्तक में यह बात लिखी है कि घरत्थेसु णत्थि चारित्तं गृहस्थाश्रम में चरित्र नहीं है, इसलिए वह रत्नत्रय का दाता नहीं हो सकता, जिसके पास जो चीज नहीं है, वह देगा क्या? एक हेतु भी है कि जिसके पास सम्यकदर्शन, सम्यकज्ञान, सम्यक्रचारित्र नहीं है, उसे रत्नत्रय दान करने का अधिकार नहीं है। कम से कम उसे रत्नत्रय का उपदेश तो देना ही नहीं चाहिए। उपदेश देने का उसको अधिकार भी नहीं है, फिर क्या उपदेश छोड़ दें? नहीं.नहीं वहाँ पर भाव यह है कि चारित्र को लेकर जब हम आगे बढ़ेंगे तब यह बात हो सकती है, बार-बार वर्णी जी की चर्चा आती है। वणजी कौन थे? वर्णीजी क्या गृहस्थ थे? नहीं वर्णी का अर्थ मुनि/यति/अनगार/तपस्वी/त्यागी होता है, वे गृहस्थ नहीं ग्यारहवीं प्रतिमा धारक क्षुल्लक जी थे, इसलिए उनका प्रभाव जन मानस के ऊपर पड़ा, आप लोगों का प्रभाव क्यों नहीं पड़ रहा? इसका अर्थ है जो व्यक्ति विषय कषायों का विमोचन नहीं करता उस व्यक्ति को सत्य का उद्घाटन करने का अधिकार नहीं है और वह कर भी नहीं सकता, किसी ने कहा था निभाँक के साथ-साथ निरीह भी होना चाहिए, मोक्षमार्ग प्रकाशक में पं. टोडरमलजी ने लिखा है कि जिस वक्ता की आजीविका श्रोताओं पर निर्धारित है, वह वक्ता तीन काल में सत्य का उद्घाटन नहीं कर सकेगा। वक्ता के भी कुछ विशेषण होते हैं, दानदाताओं के भी कुछ विशेषण होते हैं। मुनि महाराज की परीक्षा की जाती है, उसी प्रकार जिनवाणी की भी आज परीक्षा हो रही है। जो कोई भी व्यक्ति आज स्वाध्याय/प्रवचन यद्वा तद्वा करते जा रहे हैं और उसके फलस्वरूप अर्थ का अनर्थ भी खूब हो रहा है, कई समस्यायें आज समाज के समक्ष चली आ रही हैं। भाषा का बोध हो, उस विषय संबंधी जानकारी हो, गुरुओं के सान्निध्य में अध्ययन अनुभव प्राप्त किया हो तो बात अलग है। ज्ञानार्णवकार ने एक स्थान पर लिखा है न हि भवति निर्विगोपक्रमनुपासितगुरुकुलस्य विज्ञानम् | प्रकटितपश्चिमभागं पश्यनृत्यं मयूरस्य || (ज्ञानार्णव सर्ग १५, श्लोक ३४) देख लीजिए आज गुरुकुल की पद्धति समाप्त हो गई, स्वाध्याय का भी कोई क्रम नहीं रहा, दो दिन ही पढ़ा नहीं और वह लेख लिखना प्रारम्भ कर देता है, यह सब गलत है। स्वाध्याय अपने आप नहीं हो सकता, मयूर का नृत्य बहुत अच्छा लगता है, लेकिन! वह श्रृंगार रस के साथ-साथ वीभत्स रस को भी प्रदर्शित कर देता है, यह नहीं होना चाहिए। वीरसेन स्वामी ने एक स्थान पर लिखा है कि सम्यकदर्शन की उत्पति के लिए उपदेश देना या श्रवण करना आवश्यक होता है। नरकों में भी सम्यकदर्शन होता है और वहाँ भी देव आकर सम्यकद्रष्टि बनाते हैं। हाँ.बिल्कुल ठीक है। तीसरे नरक तक जाकर उपदेश देते हैं, फिर इसके उपरांत क्यों नहीं देते? इसके उपरान्त देव नहीं जाते तो नहीं सही लेकिन! सातों पृथ्वियों में सम्यकद्रष्टि जीव पहले से ही भरे हुए हैं, वे सब मिलकर जो मिथ्यादृष्टि नारकी हैं, उन्हें सम्यकद्रष्टि बना देते? तत्थतणसम्माइट्टि धम्मसवणादो पढमसम्मत्तस्स उप्पत्ति किण्ण होदि त्ति वुत्ते, ण होदि, तेसि भवसंबंधेण पुव्वबैरसंबंधेण वा परोप्पर विरुद्धाण अणुगेज्झणुग्गाहयभावाणमसं-भवादो। वहाँ के सम्यकद्रष्टि नारकी मिथ्यादृष्टि नारकियों को सम्यकदर्शन उपलब्ध क्यों नहीं करा सकते? इसमें क्या कारण है? पूर्ववैरसम्बन्धात् पूर्व वैर का संबंध होने से, सर्वप्रथम नारकी यही सोचेगा कि यह जो नवागन्तुक नारकी है, कहाँ से आया है? इस प्रकार सोचने के उपरान्त वह उससे लड़ना प्रारम्भ कर देगा, पूर्व वैर होने के कारण उसका उपदेश वहाँ पर कुछ काम नहीं करेगा, पूर्व वैर होने के कारण आपके वचनों से उसका क्रोध और भड़क उठेगा। "परस्पर अनुगृह्य अनुग्राहक भावाभावात्" आपस में नारकियों में अनुग्राह्य और अनुग्राहकभाव तीनकाल में नहीं बन सकता, क्योंकि वहाँ अनुकम्पा/दया का अभाव है। दया कब आ सकती है? जब सत्य धर्म का अनुपालन हो, हम स्वयं संयम का अनुपालन करें तब कहीं दूसरे के ऊपर हमारा प्रभाव पड़ सकता है। यदि आपका पुत्र स्मोकिंग कर रहा है, और आप उसे रोकना चाहते हैं, तो सर्वप्रथम आपको यह देखना होगा कि मेरे पास तो यह दुर्गुण नहीं है, तब आप उसे कहेंगे तो वह मान जाएगा। सत्य का केवल व्याख्यान करने मात्र से समाज का कल्याण तीनकाल में संभव नहीं है, किन्तु! सत्य पर चलने से ही होगा ज्ञानार्णवकार आचार्य शुभचन्द्र जी कहते हैं ‘‘अपृष्टैरपिवक्तव्यं'' बिना पूछे कहना आवश्यक है, यदि सत्य का लोप हो रहा हो क्रियाओं में कमी आ रही हो तो बिना पूछे ही सत्य/तथ्य को रखना चाहिए। आज जो साहित्य, हमारी समाज के सामने आ रहा है, वह देखकर लगता है कि इनके माध्यम से यह समाज किस ओर जाएगी, जैनधर्म में भगवान् की मूर्ति का अभिषेक करना कोई आवश्यक नहीं है, ‘इस प्रकार की पुस्तकें आज लिखी जा रही हैं और उनमें कई मूर्धन्य विद्वानों की सम्मतियाँ भी छपी हुई हैं।' आप आज की नई पीढ़ी को धर्म की ओर आकृष्ट भी करना चाहें तो कैसे करें? इस प्रकार का साहित्य उन्हें भ्रम में डाल देता है। आज के स्वाध्याय का यही प्रतिफल है, सत्य को जानते हुए भी लोभ, भीरुता और विषयों के वशीभूत होकर स्वाध्यायप्रेमी उसे उद्घाटित नहीं कर पाते। जिनेन्द्र भगवान्, सच्चे देव/शास्त्र/ गुरु यह व्यवहार से हैं, ये हमारे लिए कार्यकारी नहीं हैं। यह आज के विद्वानों के मुख से सुनने मिल रहा है, पूजन/अभिषेक/दान/उपवास/शीलाचार इत्यादि क्रियायें मात्र पुण्य बंध के लिए कारण हैं, इसके माध्यम से जिनवाणी विकृत नहीं होगी। जो सत्य पथ पर चल रहे हैं वे उससे भ्रमित नहीं होंगे क्या? अवश्य होंगे, आज यह कोई नहीं कहता कि भक्ति करना कितना आवश्यक है। मैं यह बात एक बार नहीं बार-बार कहूँगा कि स्वाध्याय को मात्र धनोपार्जन का साधन न बनायें और जो अच्छे विद्वान् हैं, उन्हें वेतन नहीं देना चाहिए, उनको पुरस्कृत करके, उनके माध्यम से, अपने ज्ञानादि को विकसित करना चाहिए। हमने उन विद्वानों को एक हजार, दो हजार रुपया मासिक वेतन दे दिया, यह कोई उनका मूल्य नहीं है, हजारों व्यक्ति जिसका वाचन करते/सुनते हैं, स्वाध्याय करते हैं। मात्र इतने में ही उसका काम हो जाएगा? नहीं वह अनमोल निधि है। आज ऐसे भी ग्रन्थ देखने को मिलते हैं जिनमें लिखा रहता है 'सर्वाधिकार सुरक्षित" अब आचार्य वीरसेन आचार्य गुणभद्र के धवला, जयधवला, महाधवला, आचार्य कुन्दकुन्द के समयसार आदि और उमास्वामी महाराज का तत्त्वार्थसूत्र आदि जितने भी ग्रन्थ हैं वे सब सर्वाधिकार सुरक्षित हैं, यह कर्तृत्व बुद्धि का महान् मोह है, यह स्वामित्व का व्यामोह है। जब एक वस्तु का अधिकार दूसरी वस्तु पर नहीं रहता है, तो हम उनकी कृतियों पर अधिकार कैसे कर सकते हैं। दूसरा व्यक्ति यदि प्रकाशित करना चाहें तो वह कर नहीं सकता, यह बात तो बिल्कुल गलत है ही उस ग्रन्थ का सम्पादन/संशोधन कोई दूसरा व्यक्ति न करे, यह तो फिर भी ठीक है, लेकिन! अधिकार वाली बात तो होना ही नहीं चाहिए, जब बड़े-बड़े आचार्यों ने उसके ऊपर अधिकार नहीं चलाया, तो आप "सर्वाधिकार सुरक्षित" लिखने वाले कौन होते हैं। कुन्दकुन्द देव ने अनेक बड़े-बड़े ग्रन्थ लिखे उनमें कहीं भी अपने नाम तक का उल्लेख नहीं किया। दान का महत्व वर्तमान में कम होता जा रहा है, पहले किसी दाता ने दान दिया, तो उसका उपयोग दूसरी बार नहीं होता था, दूसरी बार के लिए कोई अन्य दाता दान देता था। और आजकल ट्रस्ट पर ट्रस्ट खुलते चले जा रहे हैं और दाताओं का पैसा न्याय और न्यायालयों में जा रहा है। कुण्डलपुर में जब हमारा चातुर्मास चल रहा था, उस समय वर्णी ग्रन्थमाला के बारे में झगड़ा चल रहा था, मैंने कहा कि वणजी तो क्षुल्लकजी थे, उनको इससे कोई मतलब नहीं था, लेकिन! उनके माध्यम से आज झगड़ा क्यों हो रहा है। तो जहाँ पर पैसा रहेगा वहाँ पर झगड़ा नियम से होगा तो स्वाध्याय कहाँ हुआ? दक्षिण में बहुत अच्छी प्रथा है, किसी मंदिर में पैसा नहीं मिलेगा, इसका क्या मतलब है? मतलब यह है कि वे आवश्यक कार्य कर लेते हैं, इसके उपरान्त समाप्त, मंदिरों के पीछे कोई धन सम्पत्ति की बात नहीं होना चाहिए, निष्परिग्रही भगवान् बैठे हैं। उस मंदिर के पीछे इतना वेतन, इतना किराया, इसी में झगड़ा होने लगता है, एक-एक मंदिर के पीछे आज लाखों का किराया आता है, भैया! यह सब किसके माध्यम से होता है? मंदिर के माध्यम से, फिर ट्रस्टी/मंत्री/अध्यक्ष/कोषाध्यक्ष आदि बनते हैं, इसलिए आचार्यों को लिखना पड़ा कि जो धर्म का खाता है वह सीधा नरक जाता है। जो दान का दिया हुआ द्रव्य है, उसके प्रति तो निष्पृहवृत्ति होना चाहिए, दान में दिया हुआ धन अपने उपयोग में नहीं लेना चाहिए, किन्तु! आज बहुत सी इस प्रकार की बातें जैन समाज में भी आ चुकी हैं, यह महान् रूढ़िवाद है, यह कोई छोटी-मोटी रुढ़ि नहीं है, इसको पहले निकालना चाहिए। आज संस्थाओं को लेकर जितने झगड़े हो रहे हैं, उतने इतिहास में कभी नहीं मिलते। आज डेकोरेशन रहता है और विद्यार्थियों की संख्या केवल ५-६ है, मास्टरों की संख्या कितनी है? यह सुनकर आपको हँसी आएगी। ५-६ विद्यार्थी और १० मास्टर, यूनिवर्सिटी में जैनधर्म के विषय रखे जा रहे हैं, वहाँ जैनधर्म पढ़ाया जाएगा, बहुत अच्छी बात है, लेकिन जैनधर्म पढ़ने वाले विद्यार्थी हैं या नहीं, यह पहले देखना अनिवार्य है। मूल कार्य जो आवश्यक था, वह तो नहीं होता और संस्थायें खुलती चली जा रहीं हैं। सत्य का प्रदर्शन आचरण से होता है मात्र बातों से नहीं। सत्य को उद्घाटित करने वाला कौन होता है ? असत्य का उद्घाटन करने वाला कौन होता है? बस! एक उदाहरण देकर मैं समाप्त कर रहा हूँ। एक विद्वान् का पुत्र, उच्च शिक्षा प्राप्त करने कहीं गया था, इसके पिता किसी मंदिर में प्रवचन/पूजन आदि करते थे, एक दिन आवश्यक कार्य के आने वे से बाहर चले गए और उनका जो लड़का था, उससे कह गए कि ४-५ दिन के लिए मैं बाहर जा रहा हूँ और जब तक मैं वापस न आऊँ तब तक तुम प्रवचन आदि करते रहना, कोई बुलाने आए तभी जाना, अपने आप नहीं जाना, गाँव में लोग कहने लगे पंडित जी चले गए कोई बात नहीं, उनका लड़का भी बहुत होशियार है अभी-अभी पढ़कर आया है, यह विचार कर कुछ लोग उसके पास गए और उससे कहने लगे, कोई बात नहीं, आपके पिताजी तो बाहर गए हैं और आपको आज नहीं तो कल यह कार्य करना ही है, आप ही प्रवचन करने चलिए, इस प्रकार लोगों की अनुनय/विनय देख वे प्रवचन करने चल दिए, शास्त्र में जहाँ से पढ़ना था, वहाँ से पढ़ना शुरू कर दिया, चार-पाँच पंक्तियाँ पढ़ने के उपरांत कहा कि देखो कण भर जो मांस खाता है वह सीधा नरक चला जाता है, सभा में हलचल मच गई। सब लोगों ने कहा-ये क्या पढ़ रहे हो? उसने पुन: दुहराया कण भर जो मांस खाता है, वह इतना कह ही नहीं पाता कि लोगों ने कहा कि गलत पढ़ रहे हो। उसने कहा गलत नहीं बिल्कुल सही पढ़ रहा हूँ, कण भर जो मांस खाता है वह सीधा नरक जाता है। तुम यहाँ से चले जाओ, तुम्हारा यहाँ कोई कार्य नहीं, तुम्हारे पिताजी को आने दो तभी दण्ड मिलेगा-समाज के प्रमुख व्यक्ति ने कहा और सबने उसे निकाल दिया। पिताजी के आते ही सब लोग उनके ऊपर टूट पड़े, तुमने कैसे लड़के को तैयार किया, आपका लड़का था इसलिए हमने कुछ नहीं कहा, इतना पढ़कर आया फिर शास्त्र की छोटी सी बात नहीं समझा पाया, आपके संकोच से हमने कुछ नहीं कहा, नहीं तो सीधा जेल भेज देते, आज से आप ही शास्त्र बाँचिये, वे आगे का प्रसंग पढ़ते हैं कि कणभर जो मांस खाता है वह सीधा नरक जाता है। पं. जी क्या बात हो गई, आज आप चश्मा बदलकर आये हैं क्या? नहीं नहीं यह ठीक लिखा है लेकिन! इसका अर्थ क्या है? जो कण भर भी मांस खाता है वह नरक चला जाता है, किन्तु! जो मनभर खाता है वह स्वर्ग जाता है। आज इस प्रकार अर्थ का अनर्थ किया जा रहा है, इस प्रकार की व्याख्या सुनकर समन्तभद्र स्वामी की वह कारिका मेरे सामने तैरकर आ जाती है | कालः कलिर्वा कलुषाशयो वा श्रोतुः प्रवक्तुर्वचनाशयो वा । त्वच्छासनै काधिपतित्वलक्ष्मी-प्रभुत्वशक्ते रोपवादहेतुः॥ (युक्त्यनुशासन) समन्तभद्र स्वामी ने बिल्कुल सही लिखा है कि हे भगवन्! आपका अद्वितीय धर्म है। इसकी शरण में आने वाला आज तक ऐसा कोई भी नहीं है, जिसका उद्धार न हुआ हो। लेकिन! बात ऐसी है अपवाद किसका हुआ है? अपवाद उस बात का है कि कलि काल का एक मात्र अपराध है जो महान् कलुष आशय वाला है। धर्म को भी जो अपने अनुरूप चलाना चाहता है। हंस की उपमा श्रोता को दी है। इस प्रकार की कलुषता होने के कारण ही वक्ता अर्थ बदलता है- जिस वक्ता में धन कञ्चन की अास और पाद-पूजन की प्यास जीवित है, वह जनता का जमघट देख अवसरवादी बनता है आगम के भाल पर कथन का डंग बदल देता है जैसे झट से अपना रंग बदल लेता है गिरगिट । (तोता क्यों रोता ?) जिस वक्ता में धन, कंचन, ऐश्वर्य, ख्याति, पूजा, लाभ की चाह लिप्सा रहती है वह आगम के यथार्थ अर्थ को परिवर्तित कर देता है। जिस प्रकार मौसम से प्रभावित होकर के गिरगिट अपना रंग बदलता रहता है। उसी प्रकार आजकल के वक्ता भी (असंयमी व्यक्ति) माहौल को देखकर आगम के अर्थ को बदलते रहते हैं। वह व्यक्ति तीनकाल में सत्य का उद्घाटन नहीं कर सकता है। वह जल्दी-जल्दी आगम के अर्थ को पलट देता है। इस प्रकार की वृत्ति देखकर मन ही मन जिनवाणी रोती रहती है। मेरे ऊपर तुमने घूंघट लाया है, मैं घूंघट में जीने वाली नहीं हूँ। मैं तो जनजन तक पहुँचकर अपना संदेश देने वाली हूँ, लेकिन! आजकल कुछ पंक्तियाँ तो अण्डर लाइन की जाती हैं, और कुछ पंक्तियाँ अण्डर ग्राउन्ड की जाती हैं, यह क्या सत्य है? यह क्या सत्य का प्रदर्शन है? नहीं, यह इसलिए हो रहा है कि आज परमार्थ के स्थान पर अर्थ ने अपनी सत्ता जमा ली है। लोगों में राजनीति, अर्थनीति आ गई है, धर्मनीति के लिए स्थान नहीं बचा, नौजवानो! उठो!! जागो !!! यदि अपना हित चाहते हो, अपनी संस्कृति को जीवित रखना चाहते हो, अपने बाप दादाओं के आदशों को सुरक्षित रखना चाहते हो तो अर्थ के लोभ में आकर कोई कार्य नहीं करना यहाँ पर लोभ का सकलीकरण है, यहाँ पर त्याग का अंगीकरण है, यहाँ पर केवल आत्मबल की चर्चा है, परमार्थ की चर्चा है, अर्थ की चर्चा यहाँ पर नहीं है, आप लोग कहते हैं अर्थ तो हाथ का मेल है यूँ-यूँ करने से वह निकल जाता है (हाथ मलते हुए) पुण्य की वह छाया है, पुण्य का उदय हुआ तो वह आ जाता है और पाप का उदय हुआ तो वह चला जाता है। आप धार्मिक अनुष्ठान कीजिए, लेकिन! पुण्य ही हमारे जीवन का लक्ष्य नहीं है, हमें पुण्य पाप से अतीत होकर उस सत्य को प्राप्त करना है, जिसे प्राप्त करने के लिए महापुरुष अहर्निश प्रयास करते रहते हैं। उस सत्य की झलक पाने के लिए वे अपनी आँखें बिल्कुल खोले रखते हैं। आचार्य कुन्दकुन्द देव प्रवचनसार में कहते हैं- आगमचक्खू होंति साहूणं आगम ही साधु की आँख है, साधुओं की आँख न तो धन-दौलत है और न ही ख्याति/पूजा/ लाभ मंजिल तक पहुँचाने वाली आगम की आँख ही है, उस ऑख को बहुत अच्छे ढंग से सम्भालकर रखना चाहिए, उस दृष्टि में जब विकार या पक्षपात आ जाएगा तो जिनवाणी उस समय पिट जाएगी, जिनवाणी का मूल्यांकन समाप्त हो जाएगा, बंधुओ! यह वो रत्न है जिसको हम कहाँ रख सकते हैं, देखो! समन्तभद्र स्वामी ने जो कि महान् दार्शनिक थे, अध्यात्मवेत्ता थे, उन्होंने रत्नकण्डक श्रावकाचार के अंत में लिखा है येन स्वयं वीतकलङ्क-विद्या-दृष्टि-क्रिया-रत्नकरण्डभावं। नीतस्तमायाति पतीच्छयेव, सर्वार्थसिद्धिस्त्रिषु विष्टपेषु ॥१४९॥ यह कारिका कितनी अच्छी लगती है, रत्न कहाँ पर रखते हैं? ट्रेजरी में ही रखते हैं न, हाँ.हाँ...। तो उसमें बहुत से खाने होते हैं, उसके अन्दर एक ऐसी डिब्बी होती है, जिस डिब्बी को देखकर मुँह में पानी आ जाता है, उसके उपरांत उस डिब्बी के भीतर एक और डिबिया रहती है। उसकी बनावट ही अलग प्रकार की रहती है और उसके भीतर मखमल बिछा हुआ रहता है। लाल या हरा, उस हीरे के विपरीत रंग वाला ही होता है, वह मखमल का कपड़ा और उस मखमल पर चमकता हुआ वह रत्न, हीरे का नग रहता है। यह हुई रत्नों की बात, लेकिन! श्रावकाचार किसमें रखा गया है, रत्नकरण्डक में। एक बात और ध्यान देने योग्य है कि रत्नकरण्डक का कई भाषाओं में अनुवाद हुआ लेकिन! रत्नकरण्डक इस शब्द का अनुवाद नहीं हुआ, क्या मतलब? मतलब यह है कि हिन्दी में इसका अर्थ यह है ‘रयण मज्जूषा” रयण का अर्थ है रत्न मन्दता यानि पेटी/सन्दूकची रत्न जैसे सन्दूकची में रखे रहते हैं उसी प्रकार सम्यकदर्शन, सम्यकज्ञान, सम्यक्चारित्र रूपी तीन रत्नों को उन्होंने 'रत्नकरण्डक' में रखा है। आचार्य कहते, हैं, ये बड़ी अनमोल निधि है, जो कि बड़ी दुर्लभता से प्राप्त हुई है। छहढालाकार ने छहढाला की चतुर्थ ढाल ५ में कहा है कि इह विधि गये न मिले सुमणि ज्यों उदधि-समानी। जिस प्रकार समुद्र में मणि गिर गई तो पुन: मिलने वाली नहीं है, ऐसे ही मनुष्य जीवन की कीमत है, इने गिने लोग ही इस श्रावकाचार को अपनाते हैं, तीन कम नौ करोड़ ही मुनिराज हैं, जो मूलाचार के अनुसार चलने वाले हैं और श्रावकों की संख्या तो असंख्यात है, लेकिन! मनुष्यों में नहीं, अब सोचिये बहुत कम संख्या है, अनंतानंत जीवों में श्रावक बनने का सौभाग्य कुछ ही जीवों को होता है, जो कि आप लोगों को उपलब्ध है, ऐसे श्रावकाचार को अपनाओ, दृश्यमान पदार्थों की कोई कीमत नहीं है तो हमें दृश्यमान पदार्थों की कीमत नहीं करना, दृष्टा की कीमत करना है। आज हम दृश्य के ऊपर, ज्ञेय के ऊपर लेबिल लगाते जा रहे हैं, यह अध्यात्म नहीं है, यह सिद्धान्त नहीं है, यह सिद्धान्त का सही-सही उपयोग नहीं है। केवल हम ज्ञाता-दृष्टा उस आत्म-तत्व की चर्चा उसका मूल्यांकन करते हैं, इसका मूल्यांकन क्या करें? जो स्वाध्याय करके असंख्यातगुणी निर्जरा कर रहा है, स्व और पर के लिए, एकस्थान पर चर्चा आई है कि जो व्यक्ति आचरण करने वाला है वह सब कुछ कर रहा है, हमारे लिए धरोहर के रूप में, क्योंकि वह चलकर दिखा रहा है। इसका बड़ा महत्व है। मात्र श्रावक पंडित जी (पं० पन्नालाल साहित्याचार्य, सागर) सप्तम प्रतिमाधारी श्रावक हैं और आप लोग कहते हैं कि पं० इसी रूप में रहे और कोई नया ग्रन्थ लिखें । मैं तो कहता हूँकि पंडित जी को इधर-उधर के काम छोड़ देना चाहिए, बिल्कुल पन्नालाल के आगे सागर लगना चाहिए 'पन्नालाल सागरजी' और ग्रन्थ को लिखकर समय का सदुपयोग कर आत्म कल्याण कर लेना चाहिए, इसके द्वारा पंडित जी, समय ज्यादा मिलेगा और आपके लिए एक पंथ दो काज, दो ही नहीं दो सौ काज हो जाऐंगे, क्या कमी है? और बहुत काम होंगे, बहुत से लोग आकर्षित होंगे। क्योंकि वणी जी की परम्परा को आप निभाना चाहते हैं। वर्णी जी टोपी में नहीं थे, धोती/कमीज में नहीं थे, हमने कुण्डलपुर में आपको यही कहा था। आपने कहा था, सम्यकदर्शन की चर्चा हमने लिख दी है, आगे लिखने का कोई विचार नहीं है। तो हमने कहा नहीं पण्डित जी आगे और लिखना, पर चारित्र के बारे में आप क्या लिखेंगे? हालांकि! पंडित जी का विकास अन्य विद्वानों की अपेक्षा चारित्र के क्षेत्र में बहुत हुआ है और आज समाज के लिए यह सौभाग्य की बात है, लेकिन! पंडित जी को मात्र सागर में ही रहने के कारण गड़बड़ हो जाता है, जहाँ पर रत्न, हीरा आदि निकलते हैं, वहीं पर उन्हें नहीं रखना चाहिए। उसको तो जौहरी बाजार में भेजना चाहिए और प्रत्येक व्यक्ति उसको देखे और सही-सही मूल्यांकन करे और सागर वालों को मान मिलेगा ऐसी बात नहीं, सागर ने कई रत्न दिए हैं, उनमें एक रत्न पंडित जी भी हैं। सागर वालों को कृतकृत्य मान लेना चाहिये कि पंडित जी इस बात को अपना रहे हैं। आपके लिए यह बात-बिल्कुल नहीं सोचना है कि आगे बढ़कर हम क्या करेंगे, आपका नियम से शरीर साथ देगा और वातावरण भी साथ देगा और समाज तो साथ है ही। ज्यों ही वणी जी सप्तम प्रतिमा की ओर बड़े त्यों ही समाज की दृष्टि उनकी ओर चली गई। तब उन्होंने सवारी का त्याग किया, तब तहलका मच गया, सवारी में अब वणीं जी नहीं बैठेगे तो क्या करेंगे? हम तो उन्हें पालकी में ले जाएंगे, ऐसे लोग कहने लगे, यह त्याग का परिणाम है, अंत में जब तक घट में प्राण रहे, तब तक वे सवारी में नहीं बैठे और क्षुल्लकजी बनकर उन्होंने जो कुछ किया वह सराहनीय है। समन्तभद्रस्वामी ने यह ग्रन्थ बनाया है, और उसका अनुकरण करना हमारा परम कर्तव्य है। पूर्वाचार्यों के ऊपर यदि हमारा उपकार होता है, तो मात्र उसके अनुसार चलने से ही होता है, मात्र कागजी घोड़े दौड़ाने से नहीं। बात ऐसी है कि जब सम्यकदर्शन, सम्यकज्ञान है, तो ऐसी स्थिति में चारित्र की कोई बात ही नहीं उठती, वह तो अपने आप ही हो जाता है। सन्निपात का लक्षण उथलपुथल ही रहता है। उसी प्रकार सम्यकदर्शन, सम्यकज्ञान हो और वह चारित्र की ओर न बढ़े, यह तीन काल में सम्भव ही नहीं, शक्ति बहुत आ जाती है सन्निपात के समय, उसी प्रकार भीतर सम्यकदर्शन, सम्यकज्ञान होने से और देश का चारित्र अंगीकार करने के उपरांत, मुनि कब बनूँ, इस प्रकार मन में लगा रहता है, भीतर की बात कह रहा हूँ, अब आगे और हम बढ़े, लेकिन! हमारा मार्ग, अवरुद्ध हो चुका है, सप्तम गुणस्थान से ऊपर चढ़ नहीं सकते, ऐसी सीमा खींच दी, अब हम क्या करें? हम और आगे बढ़ना चाहते हैं, कहाँ गए महावीर स्वामी, कहाँ गए वे महाश्रमण, जिनके पास जाकर हम अपनी बात कहें। आप लोगों को मात्र ज्ञान से ही मतलब नहीं रखना चाहिए, हमारी कितनी रुचि हो गई है, हेय के प्रति और उपादेय के प्रति हमारी घृणा बढ़ती चली जा रही है और कितना उत्साह हमारे भीतर जाग्रत होना और आपेक्षित है, क्षेत्र के अनुसार सारी बातें ध्यान रखना चाहिए, इसलिए सत्य वह है, जैसा वह कहता है कि इसमें लिखा है, कण मात्र खाने वाला नरक जाता है और मन भर खाने वाला स्वर्ग जाता है, इस प्रकार की वृत्ति, इस प्रकार का वक्तव्य, अपने को नहीं करना है। चन्द दिनों के इस जीवन को चलाने के लिए इस प्रकार अर्थ, हमें नहीं निकालना है। सत्य का जयघोष कोई सुने या नहीं सुने, किन्तु सत्य का अनुकरण करते चले जाओ। सूर्य आगे-आगे बढ़ता चला जाता है और नीचे प्रकाश मिलता चला जाता है, इससे कोई मतलब नहीं। कोई अपनी खिड़की या कुटिया बन्द करके सो जाता है। उसके लिए सूर्य कुछ कहता नहीं है कि तुम खिड़की खोलो। इसी प्रकार तीर्थ का संचालन करने वाले भी ऐसे ही चले गए। उनके पीछे-पीछे, जो हो गये वो भी उनके साथ चले गये और रुकने वाले हम जैसे यहीं पर हैं। यह मात्र सत्य की बात है, उसको अपनाने के लिए कोई आता है तो ठीक, नहीं आता तो भी ठीक है, हमें सदा सत्य की छाँव में ही रहना है, सत्य वह है जो अजर/ हैं। जिस शाश्वत सत्य के अभाव में आज सारी दुनियाँ विकल त्रस्त है उस सत्य की प्राप्ति करके उस सत्य की शीतल छाँव में बैठकर ही महावीर ने कैवल्य ज्योति प्रकट की थी, उसी सत्य की छाँव में बैठकर गाँधीजी ने भारत को परतन्त्रता रूपी जंजीरों से मुक्त किया था। उस सत्य को हमें जीवन में अपनाना है उस सत्य की छाँव को हमें कभी नहीं छोड़ना है, चाहे हमारा सर्वस्व लुट जाए हमें कोई चिन्ता नहीं है, पर सत्य की छाँव सत्य का आलम्बन, ना छूटे। सत्य रूपी वरदान को आप छोड़िए मत और इस असत्य के ऊपर अपने जीवन का बलिदान करिये मत। सत्य के सामने अपना जीवन अर्पण हो जाये, तो वह मात्र अर्पण ही नहीं, एक दिन दर्पण बन जायेगा। आज तक संसारी प्राणी की दशा यही हुई है, अन्त में यही कहूँगा कि जो श्लोक पहले कहा गया है अवाक् विसर्गः वपुषैव मोक्षः मार्गप्रशस्तं विनयेव नित्यं । ध्यानप्रधाना समतानिधाना अाचार्यवर्यं सततं जयन्ति॥ आचार्य महोदय सतत् जयवंत रहे अर्थात् इस कामना के साथ अपने उन आचार्य को नमस्कार किया। केवल मोक्षमार्ग की प्ररूपणा शरीर के द्वारा इस दिगम्बर मुद्रा के द्वारा ही की है, बोलने के द्वारा मोक्षमार्ग का प्ररूपण नहीं होता, बिना बोले ही उस स्वर्ण या अनमोल हीरे की कीमत हो जाती है, बोलने से उसकी कीमत सही नहीं मानी जाती, यह हीरा ऐसा है जिसकी कीमत आज तक सही-सही नहीं लगाई गई, क्योंकि उसको जो खरीदने वाला व्यक्ति मुँह मांगा दाम देकर खरीदता है, जब खान में से वह निकलता है तब उसकी कीमत हजार रुपये भी नहीं होती और बाजार में जाते ही उसकी कीमत लाखों की हो जाती है। बेचने वाला और खरीदने वाला दोनों माला-माल हो जाते हैं। इस पवित्र जिनवाणी की बात है। इसकी छाया में जो कोई भी आया उसका जीवन निहाल हो गया। हम भी यही चाहते हैं, कि उस सत्य की छाँव में आकर के हमारा जीवन जो अनादिकाल से अतृप्त है उसे तृप्त करें, सुखमय बनायें। महावीर भगवान की जय
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