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नव आचार्य श्री समय सागर जी को करें भावंजली अर्पित ×
मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज
  • प्रवचन प्रमेय 10 - निर्वाणकल्याणक (उतरार्द्ध)

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     बन्धुओ! जैसी भावना की थी, आज उससे भी बढ़कर के फल मिल गया है, ऐसी स्थिति में किसे अपार आनन्द की अनुभूति नहीं होगी ? नियम से होगी। जब कोई एक छात्र ३६५ दिन अध्ययन करता है और अन्तिम चार-पाँच दिनों में उतीर्ण हो जाता है, उस समय उसे खाने-पीने की चिन्ता नहीं रहती, किन्तु अपनी मित्र मण्डली को खूब मिठाई बाँटने में लग जाता है, इसी में उसे आनन्द आता है। इसी प्रकार मुमुक्षु सम्यक दृष्टि की बात है, जब कोई धार्मिक अनुष्ठान करता है तो उसे दिल में (हृदय में) आनन्द की ऐसी बाढ़ आती है जिसका कथन संभव नहीं, ऐसे महान् विषम पंचमकाल में भी इस प्रकार का महान् सतयुग जैसा कार्य हो जाता है तो सहज ही आनन्द का अनुभव होता है।


    मैं आज आपके सामने यह बात कहना चाह रहा हूँ, जिसकी प्राय: करके जैनियों के यहाँ कमी रह गई, क्योंकि हम यदि पूरी की पूरी ‘शाबासी ” दे दें तो आप लोगों की गति के रुकने की पूर्ण सम्भावना हो सकती है, लेकिन यह बात हो ही नहीं सकती। इसीलिए जैनियों को यह नहीं समझना चाहिए कि केवल हम जैनियों की सीमा तक ही धर्म का प्रचार-प्रसार करें। आज मैं लगभग बीस साल से दक्षिण से उत्तर की ओर आया हूँ, दक्षिण में प्राय: करके जो धार्मिक आयोजन होते हैं, उनमें निमंत्रित जनता सभी आती है, उसमें इसका भी पता नहीं चलता कि कौन जैन है और कौन अजैन।


    आज यहाँ इस गाजरथ महोत्सव में भी मात्र जैन ही नहीं आये हैं- सभी आये हैं। इस सन्दर्भ में जैनाचार्यों ने यह बात कही है कि जब कोई भी धार्मिक आयोजन सम्पन्न होता है तो यह ध्यान रखना कि सर्वप्रथम द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव, सबकी नियुक्ति होना अनिवार्य है। हम जड़रूप काल की तो प्रशंसा कर लेते हैं, जैसे अभी पण्डितजी ने कहा कि-'क्रमबद्धपर्याय काल के अनुसार हो जाए' इत्यादि। हम अचेतन की प्रशंसा नहीं सुनना चाहते हैं। जो चेतन जीव हैं, जिसके द्वारा हमें संयोग प्राप्त हुआ है, उसके संयोग को भी विस्मृत नहीं किया जा सकता। आचार्यों ने अपनी मांगलिक लेखनी के माध्यम से शास्त्रों की रचना करके लिखा है कि एक आचार्य परमेष्ठी अपने जीवनकाल में तपस्या के माध्यम से, शिक्षा-दीक्षा के माध्यम से धर्म की जो प्रभावना करते हैं, उसका छठवाँ भाग उस क्षेत्र के नेता (राजा) को प्राप्त हो जाता है, सुना आप लोगों ने। मैं यह कह रहा हूँकि कोई भी धार्मिक अनुष्ठान करता है, धर्म कार्य करता है तो उस क्षेत्र के नेता को छठा भाग चला जाता है। उन लोगों का सहयोग यदि नहीं मिलेगा तो आज इस धर्म-निरपेक्ष देश में जो धार्मिक बातें मंच लगा करके कर रहे हैं, वह सब नहीं कर सकेंगे। क्योंकि देश के सामने विदेश का आक्रमण, विदेशी आक्रमण के लिए उन्हें क्या-क्या करना पड़ रहा है मालूम है आपको ? नहीं! जो व्यक्ति राजकीय सत्ता का अतिक्रमण करके कोई कार्य करता है तो वह अपनी तरफ से धार्मिक कार्य में बाधा उपस्थित करता है। शास्त्रों में आचार्यों के ऐसे कई उल्लेख हैं। इसलिए हमें यह सोचना चाहिए कि अहिंसा ही विश्व धर्म है।
     


    पुराण ग्रन्थों में, शास्त्रों में उल्लेख किया गया है कि जो धर्म से स्खलित हैं, पथ से दूर हैं, उन्हें धर्ममार्ग पर लाने का प्रयास करना चाहिए। बीस साल से मैं देख रहा हूँ कि सम्यक दृष्टि को ही उपदेश देना चाहा जा रहा है। लेकिन सम्यक दर्शन होने के उपरान्त उपदेश देने की कोई आवश्यकता नहीं होती। जहाँ पर अन्धकार हो, वहाँ पर प्रकाश की आवश्यकता होती है, प्रकाश में यदि आप लाइट जलाते हैं तो देश को/धर्म को खतरा है, सभी को खतरा है। मतलब यह हुआ कि जहाँ पर जिसकी उपयोगिता है वहाँ पर उसको करना चाहिए। दूसरी बात धर्म प्रभावना की है, तो जो पतित से पतित हैं आचार-विचारों में जाकर के गले लगाना चाहिए। आजकल तो ५-६ व्यक्ति बैठ जाते हैं। एक मीटिंग कर लेते हैं और कहते हैं कि हम अखिल भारतीय दिगम्बर समाज की कमेटी वाले हैं। ऐसी कमेटियाँ समाज में बहुत सारी हैं, किन्तु इन पार्टियों से कोई मतलब सिद्ध होने वाला नहीं है। जो धर्म करता है उसे सोचना चाहिए कि जो अधर्मात्मा है, जो मानव जन्म को प्राप्त करके भी भीतर की चीज को पहचान नहीं पा रहा है, उसके पास जा करके, उसकी कमियों को देख करके, उसकी आवश्यकता को पूर्ण करके उसे आकृष्ट किया जाना चाहिए।


    दान के बिना अहिंसाधर्म की रक्षा न आज तक हुई है और न आगे होगी। यदि पैसे वाला, पैसे वाले को दान दे तो कुछ नहीं होगा। जैनाचार्यों का कहना है कि जो सेठ है, साहूकार है, उन्हें गरीबों के पास जाकर के अपनी सम्पदा का उपयोग-प्रयोग करना चाहिए। भूदान, आवास दान, शैक्षणिक दान आदि-आदि जो अनेक प्रकार के दानों के विधान किये गये हैं, वे आज जैनियों के यहाँ से प्राय:कर निकल चुके हैं। चार दानों में, अभयदान भी हमारे यहाँ माना गया है, लेकिन आज तो जो दान के नाम से केवल अन्नदान या शास्त्रदान को ही समझते हैं, उन जैनी भाईयों से मेरा कहना है कि वह अभी दान की नामावली भी नहीं जानते हैं।


    दान कितने होते हैं-मालूम है आपको ? सर्वप्रथम कहेंगे शास्त्रदान। शास्त्रदान नाम का कोई दान नहीं है। उपकरण दान कहा गया है, शास्त्र भी एक प्रकार का उपकरण है। आज एक सज्जन ने अपने वित्त का उपयोग करके एक चैत्यालय का निर्माण किया, जिनबिम्ब का निर्माण कराया, हजारों-लाखों व्यक्तियों को जो दर्शन दिलाने में निमित्त हुआ, वह भी उपकरण दान है। कल या परसों हमने एक बात कही थी कि जो व्यक्ति अपने दर्शन-धर्म-विचारों से दूसरों को आकृष्ट करना चाहता है तो उसका कर्तव्य है कि उसकी कमियाँ क्या हैं यह जानें। यदि बच्चा रोता है तो उसे खिलाने की आवश्यकता है या पिलाने की या खेल खिलाने की आवश्यकता है, यह जानना जरूरी है। ऐसा नहीं है कि जब वह रोने लग जाए तो उसे केवल खाना खिलायें और दूध पिलायें किन्तु वह आपकी गोद में बैठना चाहता है और आप उसे नीचे रख दें तो उसका पेट भरा होने पर भी रोने लग जाएगा। यही स्थिति धार्मिक व्यक्तियों की हुआ करती है, इसलिए आज दिनों - दिन जैनियों की बहुत कमी होती जा रही है, आज तक कभी भी सुनने में नहीं आया कि जो व्यक्ति बिल्कुल अभक्ष्य-भक्षी है उसे भक्ष्य-भक्षी, शाकाहारी बनाने का भी कोई उपक्रम किया जा रहा है।


    भारतवर्ष शाकाहार प्रधान देश माना जाता है, विश्व में कई देश हैं, उन देशों में गणना करने पर ९०% जनता मांसाहारी सिद्ध हुई और केवल १०% ही शाकाहारी बच रही, उसमें से छुप-छुप कर मांसाहार करने वालों की बात शामिल नहीं है, आज डायरेक्ट खाने वाली वस्तुओं में शाकाहार जैसी कोई वस्तु नहीं रह गई है। इसलिए वर्तमान में अहिंसा को मुख्यता देकर अहिंसा ही हमारा धर्म है, अहिंसा ही हमारा उपास्य देव है, उसकी रक्षा करने के लिए सर्वप्रथम कदम बढ़ाना चाहिए।


    आज भारतवर्ष में कई स्थानों पर अनेक प्रकार की हत्याओं के माध्यमों से औषधियाँ और प्रसाधन सामग्री बनाई जा रही हैं और इनडायरेक्ट रूप से आप लोग ही उसका उपयोग करते हैं। अभी सर्वप्रथम पण्डितजी ने कहा था कि यह बुन्देलखण्ड है, लेकिन बुन्देलखण्ड में भी ऐसी हवा आने लगी है, जहाँ पर अनेक प्रकार की आचार-विचार विधान की व्यवस्थाएँ थीं, लेकिन वहाँ पर भी ऐसी सामग्री आने लगी है समझने के लिए साबुन को ले लीजिए। पहले साबुन को जैनी लोग नहीं बेचते थे, बीड़ियाँ बगैरह भी नहीं बेचते थे, तम्बाखू की बिक्री करते हैं, तो अष्टमी-चतुर्दशी को इसे भी बन्द कर दिया जाता था, सोड़ा-साबुन अष्टमी-चतुर्दशी और अन्य पर्वो के दिनों में उपयोग नहीं करते थे, आज के साबुन में तो अनेक प्रकार की चर्बियाँ आ गई हैं, साबुन में ही क्या? खाने-पीने की चीजों में भी चर्बियाँ आ चुकी हैं, भले ही आप लोगों को ज्ञात ना हो। पहले दिन ही मॅने कहा था कि 'मद्य-मांस का त्याग’इस त्याग का मतलब मात्र 'डायरेक्ट' सेवन त्याग से नहीं है, किन्तु ऐसी-ऐसी वस्तुएँ आपके खाने-पीने में आ चुकी जिनमें बहु मात्रा में मद्य का, मांस का, मधु का पुट रहता है, इन चीजों को त्यागकर ही अहिंसा धर्म की रक्षा कर सकते हैं, अन्यथा नहीं।


    दूसरी बात, शिक्षणप्रणाली भी ऐसी आ चुकी है कि आज का लड़का, जो पढ़ा-लिखा है वह हमारे सामने आकर के कहता है-महाराज! अण्डा तो शाकाहार है और दूध तो अभक्ष्य है। मांस के अन्तर्गत आता है। आप सोचिये! जीवन कितना परिवर्तित होता चला जा रहा है। अब केवल 'सम्यक दर्शन. सम्यक दर्शन' ऐसा चिल्लाने से कोई चीज प्राप्त होने वाली नहीं है। जो व्यक्ति इन बातों को नहीं समझ रहा है वह प्रभावना नहीं कर रहा है बल्कि अप्रभावना की ओर जनता को आकृष्ट कर रहा है। खाना-पीना, क्रियाकाण्ड की बात है ऐसा कह करके टालना, एक प्रकार से अहिंसा देवता को धक्का लगाना है।


    मै कह रहा था कि आचार्य जो कि जीवन पर्यन्त तपस्या करते हैं तो उसका छठवाँ हिस्सा एक राजा को मिला करता है। भले ही वह राजा धार्मिक कार्य कुछ भी न करता हो लेकिन रात - दिन उसकी दृष्टि में रहता है कि राजकीय सत्ता की सुरक्षा हो, अन्य देशों की सत्ता का आक्रमण न हो। यदि सत्ता पलट जाए और विदेशी आ जाए तो आपको एक घण्टे क्या, एक समय के लिए भी धर्मध्यान करने का अवसर न मिले।


    आज भारतीय सेना बार्डर पर खड़ी है अपने शस्त्रों को लेकर। आप सोचेंगे कि इन शस्त्रों को लेना हिंसा है ? लेकिन शस्त्रों को लेना हिंसा नहीं है किन्तु आप सभी के अहिंसाधर्म की रक्षा के लिए इन लोगों ने हाथों में शस्त्र ले रखे हैं। ध्यान रखो ? इनकी प्रशंसा, उनके गुणगान यदि करते हो तो आप अहिंसक माने जाएंगे। यह बात अलग है कि वे कैसी दृष्टि वाले हैं ? हमें यह कहने की आवश्यकता नहीं, लेकिन वस्तुस्थिति तो यही है कि जिस जीव की जीवों के ऊपर उपकार करने की दृष्टि है, जीवों की पीड़ा में सुख-दु:ख में पूरक बनने की दृष्टि है वह सम्यक दृष्टि है। उस सम्यक दृष्टि की देवता लोग भी आरती उतारते हैं। आप लोगों को इस बात का विशेष ध्यान रखना होगा कि सम्यक दर्शन कोई खिलौना नहीं है जो बाजार से खरीद सकें अथवा समयसारादि ग्रन्थों को पढ़कर प्राप्त हो जाए और यह भी नहीं है कि मन्दिर में बैठने से या मात्र संत-समागम से ही वह प्राप्त होता है, किन्तु सम्यक दर्शन की स्थिति बड़ी विचित्र है, वह कब किसे, कैसे प्राप्त हो जाए कुछ कह नहीं सकते, क्योंकि धर्म किसी की बपौती नहीं है। कुछ लोगों की धारणा होती है कि जैनधर्म, जैन जाति से सम्बन्धित है, लेकिन जाति जो होती है, वह शरीर से सम्बन्ध रखती है, जबकि धर्म का सम्बन्ध भीतरी आत्मा, भीतरी उपयोग से होता है, ऐसे ही धर्म का आदिनाथ स्वामी से लेकर महावीर भगवान के द्वारा तीर्थ का संचालन हुआ है, आज हम लोगों के पाप कर्म का उदय है, जो ऐसे साक्षात् तीर्थकरों का दर्शन नहीं हो पा रहा है, किन्तु आज भी उनका तीर्थ अवशिष्ट है, सच्चे देव-गुरु-शास्त्र के रूप में हमारे सामने उपस्थित है, यही सौभाग्य है।


    जड़ के प्रति तो राग सभी रखते हैं और जड की रक्षा के लिए अपने जीवन को बलिदान भी कर देते हैं, किन्तु जो व्यक्ति चेतन-आत्मा की बात देखकर, दु:खी जीवों को देखकर यदि आँखों में पानी नहीं लाता, उस पत्थर जैसे हृदय से हम कभी भी धर्म की अपेक्षा नहीं रख सकते। हमारा हृदय अंदर से तो कोमल होना चाहिए किन्तु बाह्य की विपरीत परिस्थितियों में इतना कठोर होना चाहिए कि जिसके ऊपर एटमबम भी फोड़ दिया जाये तो भी भीतर के रत्नत्रय धर्म को सुरक्षित रख सके। राम का जीवन देख लीजिए, पाण्डवों के जीवन को देख लीजिए, उसके साथ-साथ कौरवों और रावण के जीवन को देखिए। रागी-विषयी, कषायी, पुरुषों के जीवन का कैसा अवसान हुआ? किस रूप में जीवन का उपसंहार हुआ तथा वीतराग पुरुषों के जीवन का, धर्म की रक्षा करने वालों का क्या उपसंहार हुआ। वन में रहकर भी राम ने प्रजा की सुरक्षा की और भवन में रहकर के भी रावण प्रजा के लिए अभिशाप सिद्ध हुआ।


    आज हम केवल चर्चा वाला धर्मध्यान करना चाहते हैं, लेकिन ऐसा संभव नहीं है। ग्रन्थों में ऐसा उल्लेख है कि जब निग्रन्थ साधु यत्र-तत्र विचरण करते हैं तो वहाँ के जीव आपस में बैरभाव को छोड़कर, उनके चरणों में बैठ जाते हैं, यह किसकी महिमा है ? आचार्य कहते हैं -यह वीतरागता की महिमा है, प्रेम का, वात्सल्य का प्रभाव है, जीवों को देखकर के हमें आह्वाद पैदा होना चाहिए, लेकिन हम कैसे हैं ? हमारी दृष्टि कैसी है? जैसे कि नेवला और सर्प के बीच में हुआ करती है, बस वैसी ही है, ऐसे वातावरण में हम धर्मात्मा बनना चाहते हैं जो कि असम्भव है।


    जैनधर्म की विशालता यही है कि वह व्यक्ति को जन्म से जैन न होते हुए भी उसे कर्म से जैन बनाता है। आठ साल तक वह एक प्रकार से पशुओं जैसा आचरण कर सकता है, इसके बाद यदि वह धार्मिक संस्कार पा लेता है तो उसके जीवन में धर्म आ सकता है। चेतन की परीक्षा करने की चेष्टा करिये। कहाँ पर कौन दु:खी है, पीड़ित है, इसको देखने की आवश्यकता है। ऐसे फोन लगा लीजिए, कैसे फोन ? बिना तार (वायरलेस) के ही दु:खी प्राणियों तक आपका उपयोग पहुँच जाये और मालूम हो जाये कि कौन-सा जीव कहाँ पर पीड़ित है। कौन-से जीव को क्या आवश्यकता है। ऐसा भी कभी हो सकता है ? हाँ. हो सकता है, एक उदाहरण दूँ आपको।


    एक बार की बात, एकदम हिचकियाँ आने लग गई। एक व्यक्ति ने कहा कि पानी पीलो, पानी पियेंगे तो हिचकियाँ आना बन्द हो जाएगा। मैंने पूछा- वह हिचकियाँ आती क्यों हैं ? उसने कहा-तुम्हें इस समय किसी ने याद किया होगा, दूर स्थित व्यक्ति ने याद किया वहाँ और हिचकियों की प्रक्रिया यहाँ चालू हो गई, ऐसा सुनकर मैं सोचता रहा, विचार करता रहा। इसी प्रकार धार्मिक भाव को लेकर के अपने उपयोग को भेज दो, जहाँ कभी भी दु:खी जीव हों, नियम से उन पर प्रभाव पडेगा, उन विचारों के अनुरूप कल्याण का मार्ग मिलेगा। बस ऐसा करने की चेष्टा प्रारम्भ करिए फल अवश्य मिलेगा।


    आज करोड़ों रुपया बरसाया जा रहा है, लेकिन गरीब व्यक्तियों को, पतित विचार वालों को, धार्मिक बनाने का भाव किसी के मन में नहीं आ रहा है। इसलिए इस प्रकार (पंचकल्याणक महोत्सव) के आयोजनों के माध्यम से, उस प्रकार के कार्यक्रम आज से ही प्रारम्भ किये जायें। जो गरीब हैं, अशिक्षित हैं, अनाथ हैं, उसके लिए सनाथ बनाने का प्रयास किया जाए, बाद में उन्हें धार्मिक शिक्षण देने का प्रयास करो तो आज का यह आयोजन ठीक है, अन्यथा नाम मात्र के लिए ही आयोजन रह जायेगा। दस व्यक्ति बैठ कर इसकी प्रशंसा करने लगें, करें लेकिन मैं इस ‘सिंघई पदवी' का समर्थन-प्रशंसा नहीं कर सकूंगा। एक जमाना था जब इस प्रकार का आयोजन कर उपाधियाँ दीं जाती थीं पर आज यह जरूरी नहीं है।
     


    इन उपाधियों का मैं निषेध कर रहा हूँ किन्तु इनके माध्यम से अड़ोस-पड़ोस में तब तक सौहार्दमय व्यवहार नहीं बढ़ता तब तक इन उपाधियों का क्या प्रयोजन ? हमारे भगवानों ने कहा है कि-आधि, व्याधि और उपाधियाँ संसार में भटकाने वालीं हैं, अत: उपाधियों से दूर हो समाधि की साधना करें तो वृषभनाथ भगवान की जयजयकार करने में सार्थकता आ जायेगी, अन्यथा मात्र प्रशंसा से कुछ भी सार्थकता नहीं होने वाली।


    विश्व में क्या हो रहा है ? इसको देखने की चेष्टा करो, धर्म कहाँ नहीं है ? हमारे पास धर्म है, दूसरे के पास नहीं, हम सम्यक दृष्टि हैं दूसरे मिथ्यादृष्टि, हम जैनधर्म की ज्यादा प्रभावना कर रहे हैं, दूसरे नहीं, इस प्रकार के भाव जिसके मन में है वह अभी जैनधर्म की बात समझ ही नहीं रहा है, वह जैनधर्म से कोसों दूर है।

     

    "न धर्मों धार्मिकैबिना"


    दो हजार वर्ष लगभग हो चुके हैं आचार्य समन्तभद्रस्वामी ने डंका बजाया था। बन्धुओ! जो मद के आवेश में आकर धर्मात्माओं के प्रति यदि अनादर का भाव व्यक्त कर रहा है तो वह अपने शुद्ध अहिंसाधर्म की ही हत्या कर रहा है, क्योंकि "न धर्मों धार्मिकैबिना" कहा है, हमारे अन्दर संकीर्णता आ चुकी, आती जा रही है, सन्तों का कहना है कि "वसुधैव कुटुम्बकम्" आज जैनीजैनी, हिन्दू-हिन्दू भी एक प्रकार के दायरे/सीमाओं में बँधते चले जा रहे हैं, यह संकीर्णता धर्म का परिणाम नहीं है, इसे ध्यान रखिये, बातों से धर्म नहीं होता, कारण कि जो बहिरा है, वह भी धर्म कर रहा/सकता है, जो अन्धा है, लूला है वह भी धर्म को कर सकता है, परन्तु जो पञ्चेन्द्रिय होकर के हाथ-पैर अच्छे होकर भी, मात्र ऊपर-ऊपर बातें करता है तो वह कर्मसिद्धान्त से अभी भी कोसों दूर है, पास आने की चेष्टा करनी चाहिए उसे, एक बार तो कम से कम, गरीबों की ओर देखकर दया का अनुभव करो, धर्मात्मा यही सोचता रहता है, ऐसा सोचना ही अपायविचय धर्मध्यान है।


    अपायविचय धर्मध्यान का अर्थ क्या है व उसका क्या महत्व है ? आचार्य कहते हैं कि जितना आज्ञाविचय धर्मध्यान का महत्व है उतना ही अपायविचय धर्मध्यान का है। जिनेन्द्रदेव की आज्ञा का उल्लंघन नहीं करना, सर्वज्ञ की आज्ञानुसार चलना यह आज्ञाविचय धर्मध्यान है। इसकी सच्चाई से अपायविचय धर्मध्यान की महत्ता कहीं अधिक है। "संसारी प्राणी का कल्याण हो, इनका दु:ख दूर हो, सभी मार्ग का अनुसरण करें" ऐसा विचार करना अपायविचय धर्मध्यान है। इस प्रकार की ही भावना में जब वृषभनाथ भगवान की पूर्वावस्था की आत्मा तल्लीन हुई थी, उस समय तीर्थकर प्रकृति का बन्ध हुआ था, उसी का परिणाम दूसरे जीवन में असंख्यात जीवों का कल्याण, एक जीव के माध्यम से हुआ, सुभिक्ष हुआ, दिशाबोध दिया और सर्वेसर्वा बने। आज भी उनके नाम से असंख्यात जीवों का कल्याण हो रहा है, ऐसा कौन-सा कमाल का काम किया उन्होंने? यही किया जो उनके दिव्य-उपदेश से स्पष्ट है -

     

    दया धर्म का मूल है, पाप मूल अभिमान।

    तुलसी दया ना छाँड़िये, जब लौं घट में प्राण।

    क्या कहता है यह दोहा ? जब तक इस संसार में रहे, घट में प्राण रहे तब तक दया धर्म का पालन करो, तभी सबका, स्व-पर का कल्याण हो सकता है। यदि दया की जगह अभिमान घट में आया हुआ है तो तीनकाल में भी कल्याण होने वाला नहीं, पाप का मूल अभिमान है, लोभ के वशीभूत होकर व्यक्ति अन्याय-अत्याचार के साथ वित्त का संग्रह करता है और फिर मान के वशीभूत होकर यदि दान करता है तो वह कभी भी प्रभावना नहीं कर सकता, ना ही अपनी आत्मा का कल्याण कर सकता है। सबसे पहले नीति-न्याय से वित्त का अर्जन करें, फिर दानादि कार्य के माध्यम से अड़ोस-पड़ोस की सहायता करें, जैन आयतनों की रक्षा करने के लिए कदम बढ़ायें। इस प्रकार करना प्रत्येक सद्गृहस्थ का कर्तव्य है-ऐसी सन्तों की वाणी है। इस वाणी का जब तक अनुसरण होगा, धर्म का अभाव नहीं होगा, लेकिन जिस दिन जिनवाणी का अनुसरण बन्द हो जायेगा और अभिमान के वशीभूत हो जायेंगे उस दिन रावण-राज्य आने में देरी नहीं।


    एक उदाहरण दे रहा हूँ जिसमें धर्म क्या है ? कैसा है ? क्या तिर्यच धर्मशास्त्र का स्वाध्याय करते हैं ? क्या कभी तिर्यच आपके सामने आपके ऊपर उपकार करते हैं ? क्या वे कोई धार्मिक अनुष्ठान करते हैं ? कभी मन्दिर भी आते-जाते हैं? यदि आ जाते हैं तो उन्हें धर्मलाभ होता है क्या? आचार्यों ने कहा-धर्मलाभ हो यह कोई नियम नहीं। अभी पण्डितजी ने भी कहा था- आयोजन जितने भी हैं, सभी साधन के रूप में हैं, साध्य के रूप में तो धर्म रहेगा। ये साधन हैं। इनमें उलझे रहे, उपाधियों में उलझे रहे तो तिर्यच हमसे कहीं आगे बढ़े हुए होंगे, जो इनसे सर्वथा दूर हैं।

     

    रामायण आपने पढ़ी होगी, सुनी होगी। पद्मपुराण में भी यह कथा आती है, जटायु पक्षी की वह कथा जिसने रामायण की पृष्ठभूमि बना दी है, राम जब वनवास में थे। सीता और लक्ष्मण भी साथ-साथ है, जंगल में अपना काल व्यतीत कर रहे हैं, एक दिन की बात, आहार चर्या के समय सन्त आये। सभी ने आहार दान दिया। आहार दान के समय सन्त के पैर धोए गये थे। उस जल में एक जटायु पक्षी आकर बैठ गया और उसमें लोट-पोट करते ही, उसका सारा का सारा बदन व बाल स्वर्ण के हो गये। उसकी सभी ने प्रशंसा की, सन्त ने उसकी भावना को समझ लिया, सन्त ने उसके कल्याण का आशीर्वाद तो दिया ही, साथ ही साथ उसके पालन-पोषण एवं रक्षण की जिम्मेदारी भी श्रीराम को सौंप दी, सन्त चले गये और बात भी जाती रही।.एक दिन की बात, सीता को रावण हरणकर ले जाने वाला है तो जटायु पक्षी सोचता है.एक अबला, उसको हरण कर रहा है, उसके ऊपर प्रहार कर रहा है और मैं यहाँ बैठा देख रहा हूँ, जबकि मैं संकल्पित हूँ।

     

    "रघुकुल रीति सदा चली आई। प्राण जायें पर वचन न जाई।"

    राम ने मुझे प्रतिज्ञा दिलाई कि अनाथ के ऊपर यदि किसी का हाथ उठता है तो देखते न बैठना। हम लोग नश्वर जीवन को नहीं समझ रहे हैं, इसे अविनश्वर बनाने का प्रयास कर रहे हैं। जिस समय किसी धर्मात्मा के ऊपर संकट आ जाता है, उस समय दूसरा धर्मात्मा यदि छुपने का प्रयास करता है तो वह कायर है, उसे नश्वर जीवन के सदुपयोग के लिए सिंह के समान गर्जना करते हुए सामने आना चाहिए, मुझे कोई भय नहीं, जीवित रहने की कोई आवश्यकता नहीं, यही मेरा धर्म है, यही जीवन। धर्म सदा ही मेरे साथ रहेगा, मैं जीवित रहूँ या नहीं, यह सोच वह आक्रमण करने के लिए तैयार हो जाता है, वही सच्चा धर्मात्मा माना जाता है।


    धर्मात्मा के ऊपर आज पहाड़ टूट रहे हैं और हम देख रहे हैं, फिर भी अपनी आत्मा को धर्मात्मा मानते हैं, उसे मैं तो जीवित भी नहीं मानता, जड़ का धर्म मानना भले ही स्वीकार कर लूगा। आप लोग जिस प्रकार धन की रक्षा करते हैं, उससे भी बढ़कर धर्म की रक्षा करनी चाहिए। धर्म के द्वारा ही जीवन बन सकता है, यदि धर्मात्मा का अनादर मन से, वचन से, काय से, कृत-कारितअनुमोदन से स्वप्न में भी करते हैं तो उस धर्मात्मा को नहीं, वरन् स्वयं के अहिंसा धर्म को अनादृत करते हैं, ऐसी गर्जना इसयुग में आचार्य समन्तभद्रस्वामी जैसे महान् आचार्यों ने की है। मान बहुत बढ़ता जा रहा है, यह सब पंचमकाल की देन है, हमारा जीवन ऐसा बनना चाहिए, जैसी सिगड़ी के ऊपर भगौनी का। उसमें दूध तप रहा है दो, तीन किलो, लेकिन दूध तपने के उपरान्त ऊपर आने लग जाता है, तपन के कारण वह ऊपर आता रहता है, ज्यों ही ऊपर आता है, त्यों ही तपाने वाला, दूध समाप्त न हो जाए, इस भय से पास आ जाता है और क्या करता है उस समय ? उस समय वह जल्दी-जल्दी शान्तिधारा (कुछ जल) छोड़ देता है, दूध नहीं ढांकता, बल्कि थोड़ा जल डाल देता है, जल डालते ही दूध नीचे चला जाता है, इसका क्या मतलब हुआ ? मतलब तो ये हुआ कि जब अग्नि ने दूध में जो जल था उसे जलाया तो दूध ने भी सोचा कि जब मेरे मित्र, दोस्त, मेरे सहयोगी के ऊपर यदि अग्नि ने धावा बोला है तो मैं भी इसे समाप्त करूंगा। यही सोचकर वह उबलता हुआ, अग्नि की ओर आने लगा, लेकिन दूध तपाने वाले ने डर करके अग्नि के प्राण न निकल जाए इसलिए शान्तिधारा छोड़ दी, अरे भैया! तुम्हारे मित्र को हम दे देते हैं, तुम बैठ जाओ, तो दूध बैठ जाता है।


    ऐसी होनी चाहिए मित्रता, उसको ही मित्र, दोस्ती, साथी और सहयोगी कहते हैं, जो विपत्ति के समय पर, प्रसंग पर साथ दे, अन्यथा ना तो वह साथी माना जाएगा, ना धर्मात्मा ही। बन्धुओ! मान प्रतिष्ठा के लिए संसारी प्राणी सब कुछ त्याग कर देता है, लेकिन अपने आत्मोदय के लिए कुछ भी नहीं करता। मैं इन सभी कार्यक्रमों की प्रशंसा तभी करता हूँ, जब आप लोगों के कदम इस दिशा की ओर भी बढ़ते हैं। यह जीवित कार्य है, इस युग में यह कार्य हुआ ही नहीं है। हुआ भी है तो बहुत कम हुआ है। विनोबा जी, जिस समय दक्षिण की ओर भूदान को लेकर के आए थे, तभी मुझे महापुराण के भूदान की बात याद आ गई, वहाँ पर गृहस्थों के चार धर्मों में पूजा भी रखी है, पूजा का अर्थ भूदान लिखा गया है, जी हाँ! महापुराण का उल्लेख है। जो व्यक्ति खाने के लिए मोहताज हो रहा है, उसके लिए आश्रय दे दीजिए तो वह नियम से धर्म को अपनायेगा. अपनायेगा। आज हम तात्कालिक उपदेश तो दे देते हैं, जिसके द्वारा उसके कार्य की पूर्ति नहीं होने वाली है, इस कारण वह धर्म के प्रति जल्दी आकर्षित नहीं होता, युग बदल चुका है, विनोबाजी की बात को सुनकर मैंने सोचा-हाँ, आज भी भूदान यज्ञ की बात जीवित है जो कि जैनाचार्य के द्वारा घोषित की गई थी।


    आज कौन-कौन ऐसे व्यक्ति हैं जो आवासदान देने को तैयार हैं। कभी आपने सोचा जीवन में कि जो गर्मी-सर्दी से पीड़ित हैं, उसे आवास दान दें, एक मकान बनवा दें, आवास देने के उपरान्त उनको ऐसा ही नहीं छोड़ा जाये, किन्तु उन्हें कह दिया जाए कि देखो भैय्या! तुम्हारी आवास सम्बन्धी आवश्यकता की पूर्ति तो हो गई, अब कम से कम धर्म-कर्म करना चाहिए।


    राजस्थान की बात है, जहाँ पर सेठजी ने एक फैक्टरी (मिल) खोली थी, उसमें जो गरीबगरीब व्यक्ति थे, उनको काम पर लगाया और उनकी सारी की सारी, वेतनादि की भी व्यवस्था कर दी गई। फिर कहा गया-हमने इतना सारा प्रबन्ध आपका कर दिया है, अब प्रत्येक व्यक्ति को रात्रिभोजन, मद्य, मांस, मधु का त्याग और देवदर्शन के उपरान्त ही मिल में काम करना चाहिए। जब तक वे रहे, तब तक तो कार्यक्रम वैसा ही चलता रहा, बाद में वह समाप्त हो गया और मिल भी उनके हाथ से निकल गयी।


    बन्धुओ! जो कोई भी कार्य किया जाता है, धर्म के लिए किया जाता है, वह भी क्रम से, विधिपूर्वक करना चाहिए, मात्र जय-जयकार करने से कुछ नहीं होगा, अभी मैं देख रहा था कि, जुलूस प्रारम्भ हो गया, रथ भी प्रारम्भ हुआ, हम आगे-आगे चल रहे थे। इस आयोजन को देखने के लिए हजारों-लाखों की जनता आई पर चलने वाले लोग प्रशस्त चाल से नहीं चल रहे थे, साथ में लाठी वाले तो धूल भी उड़ा रहे थे, जिसमें दृश्य देखना ही बन्द हो गया था। यहाँ इन अवसरों पर ऐसी व्यवस्था होनी चाहिए कि जो दूर-दूर से व्यक्ति आये हैं, उन्हें भी पूरा-पूरा लाभ मिले। यही प्रेम है, वात्सल्य है। उन्हें पहले व आगे बैठाना चाहिए। लेकिन हम आगे बैठ जाते हैं। वे हमारे सर्वप्रथम अतिथि हैं, उनका सत्कार-सम्मान करना चाहिए। हम तो यहीं के हैं। इस प्रकार का वातावरण हो जाये तो इसी का नाम राम राज्य है।


    आज हम कहते तो हैं कि राम-राज्य आ जाये। भगवान महावीर स्वामी का राज्य आ जाये।महावीर भगवान का सन्देश मिल जाये, लेकिन कहने मात्र से तीन काल में भी मिलने वाला नहीं। बातों के जमा-खर्च से कभी कुछ नहीं होता। जिस प्रकार दूध में ज्यों ही पानी डाला, वह शान्त हो गया। उसी प्रकार हम भी यदि अपने साधर्मियों के प्रति वात्सल्य रखेंगे सद् व्यवहार करेंगे तो मैं कहता हूँकि स्वप्न में भी किसी के ऊपर कोई संकट आने वाला नहीं। अभी पण्डितजी ने कहा था-धर्मसंकट में है, धर्म गुरु संकट में है, जिनवाणी भी संकट में है, किन्तु मैं कहता हूँकि ये तीनों संकट मुक्त हैं तभी मुक्ति के साधन है। संकट तो हमारे ऊपर है। संकट तभी आते हैं जब हमारे भीतर ये तीनों जीवित नहीं रहते। धर्म-कर्म से हमारा कोई भी सम्बन्ध नहीं रहेगा तो जीवन बिना संकट के रह नहीं पायेगा। इनकी रक्षा की जाए तो कोई आपत्ति नहीं। इनकी रक्षा का अर्थ यही है कि हम धर्म को ही जीवन समझ लें। मात्र लिखना-पढ़ना धर्म नहीं है, धर्म तो जीवित वस्तु का नाम है।

     

    हम अंहिसा परमो धर्म की जय बोलते है, अंहिसा अमर हो ऐसा कहते है | लेकिन गाधीजी ने, जिनके पास मात्र दो सूत्र थे, अहिंसा और सत्य, इन दोनों सूत्रों के माध्यम से ढाई सौ वर्षों से आई हुई, ब्रिटिश सत्ता से, बिना शस्त्र, पिस्तोल, बिना रायफल, तलवार, ढाल, तोप और बिना एटमबम के ही स्वतन्त्रता दिलाई। उन्होंने सत्य, अहिंसा का ऐसा 'एटमबम' छोड़ दिया कि सभी देखते रह गये और सोचते रहे, ऐसी कैसी खोपड़ी है। हम लाखों रुपये भी दे दें तो भी नहीं मिलने वाली। लाख क्या ? कई लाखों में भी मिलने वाली नहीं। यह अहिंसा की उपासना है, उसी का यह प्रभाव है कि ब्रिटिश सरकार को यहाँ से भागना पड़ा। आज ३५-४० वर्ष हो गये स्वतन्त्रता मिले इस देश को लेकिन इसका सदुपयोग, सही-सही नहीं हो रहा है। आज हम आपस में लड़ रहे हैं कुर्सी के लिए। ऐसी-ऐसी भी लड़ाई हमने देखी-सुनी है कि एक कुर्सी के लिए दस व्यक्ति लड़ रहे हैं तो कुर्सी नियम से टूटेगी ही। पहले तो ऐसा नहीं था कि -कहते थे की कुर्सी पर आप बैठिये, आप ही इस पर बैठने के पात्र हैं, हम तो आपके निर्देशन के अनुसार चलेंगे, पर आज ? प्रत्येक व्यक्ति नेता बनना चाहता है, कोई पीछे चलना नहीं चाहता, पागल भी हमेशा आगे चलता है और उसके पीछे हँसने वाला, पागल कभी भी हँसता नहीं, क्या नेता बन जायेगा वह ? नहीं, ऐसा तीन काल में भी नहीं हो सकता। कुर्सी केवल एक निमित है, उस कुर्सी का प्रयोजन इतना ही है कि उस पर बैठकर अपनी आँखों से देख सकें कि-कहाँ पर, कैसे-कैसे रह रहे हैं, हम उनके दुख दर्द को समझ सकें और मिटाने का प्रयास रात-दिन करें। एक जगह लिखा है -

    "परिहर्तुमनागसि"

    जो निरपराध जीव हैं, उनके ऊपर प्रहार करने के लिए क्षत्रिय के हाथ में तलवार नहीं दिये गये, किन्तु अपराधियों को भयभीत करने के लिए शस्त्र दिये गये हैं, उपदेश भी इसलिए होता है कि दुःख दूर हो और शान्ति की स्थापना हो।


    आप लोगों का कार्य आगे होने वाला है, मैं भगवान से यही प्रार्थना करता हूँ कि आपकी भावना, धर्म के प्रति दिन दूनी रात चौगुनी निष्ठा के साथ बढ़ती रहे, तीन घण्टे हो गये किसी को भी ना खाने की चिन्ता है, ना पीने की, पीछे क्या हो रहा है इसका ख्याल भी नहीं रहा, गर्मी में भी सभी लोग पैदल चल रहे हैं, उस पर भी नग्न पैरों, फिर भी सभी के मुख पर आनन्द की लहरें दिखाई दे रही हैं। मुझे देखकर यही लगता है कि आज भी अटूट श्रद्धा है, ऐसी ही बनी रहे यही भगवान से प्रार्थना करते हैं। कैसा भी युग आ जाये, उसको भी शान्ति के साथ, वात्सल्य प्रेम के साथ निभायें। रूखी-सूखी रोटी हो, इसकी भी कोई परवाह नहीं, बस! प्रेम के साथ दो व्यक्ति मिलकर एक रोटी भी खाते हैं तो पहलवान बन जाते हैं, एक अकेला ही व्यक्ति दस रोटी भी ईष्या के साथ खाता है तो उसे अस्पताल जाने की आवश्यकता पड़ती है। बाजरे की रूखीसूखी खाओ, लेकिन धर्म की रक्षा के लिए धर्मात्मा बनकर खाओ। तीनकाल में भी आपको कष्ट नहीं होगा, देव आकर आपकी रक्षा करेंगे, दानव जब उपसर्ग करेंगे तो देव आकर हटायेंगे, खदेडेंगे और रक्षा होगी।


    अहिंसा धर्म एवं धर्मात्मा की रक्षा करना देवताओं का काम है, इसीलिए उन्हें शासनदेवता भी कहते हैं। जब हम धर्म करते हैं-उसमें दृढ़ रहते हैं तो वे ऊपर से आ जाते हैं, वे भी देखते रहते हैं कि कौन क्या कर रहा है। जैसे पुलिस लड़ते हुए व्यक्तियों के बीच नहीं आती और न ही आने की आज्ञा शासन की है, लड़-भिड़कर गिर जाते हैं, जब उठना भी मुश्किल हो जाता है, उस समय पुलिस पहुँचकर पकड़ती है, कॉलर पकड़कर कहती है क्या कर रहे हो! अपराधी कहते हैं-आप जो कहो मैं वह करने को अब तैयार हूँ। इसी प्रकार देवता लोग भी आकर सहायता करते हैं, यदि आपका कार्य ठीक-ठीक चल रहा है तो उनके सहयोग की आने-जाने की कोई आवश्यकता नहीं, उस समय तो वह अपनी प्रशंसा करके वंदना करेंगे और अपने आपको कृतकृत्य मानेंगे।

     

    नारायण, नारायण धन्य है नर साधना ।

    इन्द्र पद ने भी की, जिसकी आराधना।

    ऐसे इन्द्र भी, आप लोगों की प्रशंसा के लिए आयें। अत: धन्य हैं। अन्तिम मंगल भावना के रूप में यह दोहा आपके सामने है।

     

    यही प्रार्थना वीर से, अनुनय से कर जोड़।

    हरी-भरी दिखती रहे, धरती चारों ओर।


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