Jump to content
नव आचार्य श्री समय सागर जी को करें भावंजली अर्पित ×
मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज
  • प्रवचनिका 7 - सत्य की छाँव में

       (1 review)

    यदि कोई सिद्धान्त का गलत अर्थ निकालता है, तो उस समय बिना पूछे ही उसका निराकरण करना चाहिए। यदि उस समय वह समन्तभद्राचार्य जैसी गर्जना नहीं करता है तो उसका सम्यकज्ञान मिथ्याज्ञान में परिणत हो जाएगा। जिस प्रकार माहौल के वातावरण से प्रभावित होकर के गिरगिट अपना रंग बदलता रहता है, उसी प्रकार आजकल के वक्ता भी स्वार्थ सिद्धि की वजह से आगम के अर्थ को बदलते रहते हैं। लोभ के वशीभूत हुआ प्राणी सत्य धर्म को सही-सही उद्घाटित नहीं कर सकता, सत्य का अर्थ है अहिंसा, असत्य का अर्थ है हिंसा, सत्य का पक्ष कभी फालतू नहीं जाता।


    ...लौकिक क्षेत्र में यह प्रसिद्ध है, कि जिस रोग के आवागमन से शरीर का एक पक्ष विकल हो जाता है; शरीर का एक भाग काम नहीं करता, उसे वैद्य लोग पक्षाघात कहते हैं। मैं समझता हूँ कि पक्षाघात स्वयं पक्षाघात से युक्त है, क्योंकि वह शरीर के मात्र आधे हिस्से को ही निष्क्रिय करता है, पूरे को नहीं। किन्तु! सही पक्षाघात में पक्षपात को मानता हूँ, पक्षपात के आने से उसकी चाल में, उसकी दृष्टि में, उसकी प्रत्येक क्रिया में अन्तर आ जाता है, जहाँ पक्षपात आ जाता है वहाँ भीतर की बात भीतर ही रह जाती है।


    किसी व्यक्ति से पूछा जाए कि तुमने चोरी की है तो उसका मन पहले कहता है कि 'हूँ' फिर बाद में जब उसे बाध्य किया जाता है तो यह“परावाक्र"पश्यन्ति के रूप में परिवर्तित हो जाती है। उस समय भी परावाक् बिल्कुल शुद्ध रहती है, पश्यन्ति भी बिल्कुल ठीक रहती है, किन्तु! मध्यमा के ऊपर ज्यों ही चढ़ना प्रारम्भ कर देता है त्यों ही उसके लिए एक आशा आ जाती है और जिह्वा बोलना भी चाहती है, लेकिन! उसका गला घुटकर-सा रह जाता है, वह कहती है कि-जैसा हुआ वैसा नहीं, जो मैं कह रहा हूँ वह बोलना है, क्यों तुमने चोरी की है तो वह कहता है कि हूँ. हूँ. नहीं, यह निकल गया, इसका अर्थ है ' है" हाँ फिर उसके उपरांत ‘नहीं' करता है, आप कितनी भी पिटाई कीजिए, कड़ा से कड़ा दण्ड दीजिए वह सत्य को असत्य की ओट में छुपा देता है। यही विचार की बात है, आचार की बात है; कौन नहीं जानता कि, चोरी करना गलत है, लेकिन! वह चोर भी जानता हुआ डरता है, पीछे मुड़कर देखता है कि पुलिस आ रही है और मेरे लिए पकड़ेगी, इस प्रकार वह भयभीत होता हुआ, चोरी को अच्छा नहीं समझता, फिर भी लत पड़ गई है, इसलिए वह चोरी को छोड़ नहीं पा रहा है, विषयों की चपेट में आया हुआ प्राणी, विषयों को छोड़ नहीं पाता, यह अज्ञान है, अज्ञान का अर्थ यह नहीं कि वहाँ पर ज्ञान का अभाव है, ज्ञान तो है लेकिन पूरा नहीं है और सही नहीं है, इसलिए येन केन प्रकारेण विषयों की पूर्ति के लिए कदम उठाता है।
     

    पक्षपात !

    यह एक ऐसा

    जल प्रपात है

    जहाँ पर

    सत्य की सजीव माटी

    टिक नहीं सकती

    ...बहे जाती

    पता नहीं कहाँ ?

    वह जाती 

    असत्य के अनगढ़  

    विशाल पाषाण खण्ड

    अधगड़े टेड मेढे 
    अपने धुन पर अड़े शोभित होते

    (डूबो मत लगाओ डुबकी)

    पक्षपात एक ऐसा जल प्रपात है जो सत्य की माटी को टिकने नहीं देता। सिद्धक्षेत्र मुतागिरजी में हमने देखा था, तो वहाँ टेड़े/मेड़े विशाल पाखण्ड खण्ड ही मात्र मिले, माटी के दर्शन तो वहाँ पर हुए ही नहीं। असत्य जीवन के पास जाते ही घबराहट होने लगती है, कहीं ऐसा न हो कि सत्य, असत्य के रूप में परिणत हो जाए आज सुबह ही एक सूत्र में आया था |

     

    'बन्धेऽधिकौ पारिणामिकौ च' 

    (तत्त्वार्थसूत्र, अध्याय ५, सूत्र ३७)

    परिणमन कराने की शक्ति असत्य के पास बहुत है। सत्य के पैरों को भी वह हिला देता है, क्योंकि सत्य आदि है, और असत्य अनन्तकाल से चला आ रहा है। सत्य की सुरक्षा आज अनिवार्य है और सत्य की सुरक्षा वहीं पर हो सकती है, जहाँ पर पक्षपात नहीं है। जहाँ शुद्ध आचार/विचार है, और यदि यह सब नहीं है तो वहाँ सत्य धीरे-धीरे फिसलता हुआ असत्य के रूप में बदलता जाता है। आज मुझे सत्य की बात कहना है असत्य की नहीं, असत्य से तो आप सभी लोग परिचित हैं।
     


    सुदपरिचिदाणुभूदा, सव्वस्सवि कामभोगबंधकहा।
    एयक्तस्सुवलम्भो, णवरि ण सुलहो विहत्तस्स॥

    (समयसार/पीठाधिकार/गाथा ४)

    आचार्य कुन्दकुन्ददेव समयसार में कहते हैं कि इस आत्मा ने भोग/काम/बन्ध की कथायें खूब सुनी हैं, यदि नहीं सुनी है तो, एकत्व की कथा नहीं सुनी। विषयों का इसे खूब अनुभव है। विषय भोग के बारे में कोई भी बालक नहीं है, सभी अनंतकाल के आसामी हैं और अनंत का कोई ओर-छोर नहीं होता, आत्मा का क्या इतिहास है? पहले ही हमने बताया था, कि आज मुझे सत्य की बात कहना है, सत्य क्या है? सत्य, अजर/अमर है। सत्य, अनादिकाल से चला आ रहा है। आज तक हमने सत्य का मूल्यांकन नहीं किया, आज तक हमने सत्य को संवेदन नहीं किया और मात्र असत्य का संवेदना, मनन/चिन्तन/किया है, स्वप्न में भी सत्य का संवेदन नहीं किया। जिसने सत्य का संवेदन किया उसे मार्ग मिला, मंजिल मिली और अनंतकाल के लिए वह अनंत/अव्याबाध सुख का भोक्ता बन गया। सत्य की महिमा कहने योग्य नहीं है, उसे हम शब्दों में बाँध नहीं सकते। वह लिखने की वस्तु नहीं लखने की वस्तु है, लिखनहारे तो बहुत हैं, लेकिन लखनहारा तो विरला ही पाओगे, वस्तुतत्व का निरीक्षण करने वाला हृदय आज कहाँ है? इसलिए आचार्य कुन्दकुन्ददेव ने लेखनी उठाते ही कह दिया 'सुदपरिचिदाणुभूदा' सभी कार्य संसारी प्राणी ने अनंतों बार किए हैं।

     

    पूर्व वत्ता ने अभी-अभी कहा था कि जिनवाणी को अपने जीवन में उतारना है। 'धम्मं भोगणिमित' यह गाथा जब मैं आगे जाकर उसी, समयसार में देखता हूँ तो एक विचित्र सत्य के दर्शन होते हैं। एक मिथ्यादृष्टि जीव है, वह सच्चे देव/शास्त्र/गुरु पर श्रद्धा रखता है, लेकिन फिर भी उसके अन्दर कहाँ पर कमी रहती है? तो आचार्य कहते हैं कि भाव-भासन का अभाव है। भोगों की चपेट से वह अपने को ढूँढ़ नहीं पा रहा है। ज्ञान का समार्जन करने वाला व्यक्ति, यह सोचता है कि-मेरे भीतर भोग की लिप्सा कितनी मात्रा में घटी है। चाहे वह स्वाध्याय करने वाला हो या पूजन करने वाला, अन्दर ही अन्दर वे घड़ियाँ चलती रहती हैं, जिस प्रकार ब्लड-प्रेशर नापते समय काँटा यूँ-यूँ करता है उसी प्रकार मन की प्रणाली बार-बार विषयों की ओर आती जाती है। सत्य क्या है? असत्य क्या है वह सोचता रहता है।


    एक दोस्त था। उसके घर के लोग तन्त्र/मन्त्र को बहुत मान्यता देते थे। और वह मात्र देव/ शास्त्र/गुरु को मानता था। एक दिन वह कहता है कि मुझे एक ताबीज लेना है। मैंने कहा कि कहाँ से लाओगे? सुनार के यहाँ से लायेंगे। मैंने कहा कि चलो हम भी देखते हैं कैसे ताबीज बनती है। तब वह सुनार के पास जाकर कहता है कि फलाने व्यक्ति ने इस प्रकार की ताबीज लाने के लिए कहा था, जो कुछ भी पैसा लेना है ले लो, लेकिन! ताबीज अच्छी बनाना है, ताबीज बनाते समय ताँबे के ऊपर हथौड़े की सही चोट पड़ना चाहिए, झूठ नहीं पड़ना चाहिए। झूठ का मतलब मैं समझता रहा, देखता रहा, झूठ कौन-सी होती है जो कोई भी आभरण बनते हैं, उन पर हथौड़े की चोट करके यूँ यूँ करते हैं, उसको बोलते हैं झूठा प्रहार, उसका कोई मतलब नहीं होता, इसका अर्थ होता है, कि ताबीज झूठा प्रहार सहन नहीं कर सकता, बाँधने वाला झूठ बोले यह बात अलग है, लेकिन! ताबीज कहता है कि मेरा निर्माण बिना झूठ के हुआ है, हमने सोचा क्या मामला है? तो मामला यह है कि सुनार की सावधानी वहाँ पर होगी।


    आज तो ‘धर्मयुग' है। हाँ बात तो बिल्कुल ठीक है भैय्या आज तो धर्मयुग पत्रिका निकल रही है, और ‘युगधर्म' भी निकलता है। कभी धर्म आगे बढ़ जाता है, तो कभी युग आगे बढ़ जाता है तो हम धर्म-युग की बात करें, आज युग इतने आगे बढ़ गया है, और धर्म इतने पीछे रह गया है कि क्या बताऊँ? इसलिए तो धर्म युग कहा गया, धर्म की बातें करने से धर्म नहीं आ सकता, धर्म तो तब आएगा जब युग धर्ममय बन जाए। पंक्तियाँ-प्रस्तुत हैं--


    यह युग
    अप्रत्याशित
    आगे बढ़ चुका है बहुत दूर
    और!
    धर्मं वह 

    बहुत... दूर 
    पीछे रह चुका है
    अन्यथा
    पत्रिका का नाम
    धर्म युग क्यों पड़ा यह ?

    ('चेतना के गहराव में' से)

    सत्य का अर्थ है अहिंसा, और असत्य का अर्थ है हिंसा। हमारे उपास्य देवता सत्य और अहिंसा हैं, इन्हीं दो मन्त्रों को लेकर गाँधीजी ने ब्रिटिश गवर्नमेंट को प्रभावित किया था, इस शताब्दी में भी इस प्रकार के परिवर्तन हुए हैं, सत्य-अहिंसा कोई शाब्दिक व्याख्या नहीं है, यह एक प्रकार से भीतर की बात है, आज सत्य के कदम कहाँ तक उठ रहे हैं, अपने जीवन में सत्य का मूल्यांकन कहाँ तक हो रहा है? छोटी-छोटी बातों को लेकर झूठ बोलते हैं, लेकिन! यह विश्वास के साथ सोचना चाहिए, जो काम झूठ के द्वारा हो रहा है, क्या वह सत्य के द्वारा नहीं होगा? उससे बढ़कर ही होगा लेकिन! असत्य के ऊपर हमारा विश्वास जमा हुआ है, असत्य की ही ओर हमारी दृष्टि है।


    सत्य का पक्ष वह है जो कभी फालतू नहीं होता, असत्य का पक्ष हमेशा फालतू ही हुआ करता है, उसकी कीमत तब तक ही रहती है जब तक हम समझते नहीं हैं, हमें असत्य/हिंसा का पक्ष नहीं लेना है, सत्य/अहिंसा का पक्ष ही लेना है, लेकिन! सत्य का पक्ष लेने वाला व्यक्ति, क्रोध/ लोभ/भीरुता/हास्य का आलम्बन नहीं लेगा। लोभ के वशीभूत हुआ प्राणी सत्य धर्म को सही-सही उद्घाटित नहीं कर सकता, सत्य की सुरक्षा के लिए क्रोध/लोभ/भीरुता/हास्य को छोड़ना होगा आचार्य शुभचन्द्र जी ने ज्ञानार्णव में एक बात कही है, जो मुझे बहुत अच्छी लगी, कि विद्वान् को अपनी गंभीरता नहीं छोड़ना चाहिए, यद्वा/तद्वा नहीं बोलना चाहिए अपनी सीमा में रहना चाहिए, यह बिल्कुल ठीक है, बार-बार पूछने के उपरान्त भी नहीं बोलना चाहिए, लेकिन! यदि धर्म का नाश हो रहा हो तो?


    धर्मनाशे क्रियाध्वंसे सुसिद्धान्तार्थविप्लवे।
    अपृष्टैरपि वक्तव्यं तत्स्वरूप-प्रकाशने॥

    (ज्ञानार्णव सर्ग ९।। श्लोक १५)

    जब धर्म का नाश होने लगता है, धार्मिक क्रियाओं की विध्वंस होने लगता है और यदि कोई व्यक्ति सिद्धान्त का गलत अर्थ निकालता है तो, उस समय बिना पूछे ही उसका निराकरण करना चाहिए, उस समय वह समन्तभद्राचार्य जैसी गर्जना नहीं करता है तो उसका सम्यकज्ञान मिथ्याज्ञान के रूप में परिणत हो जाएगा, क्योंकि उस समय उसने सत्य को ढँक दिया, यह बात मुमुक्षु को हमेशा ध्यान में रखना चाहिए, आज महावीर भगवान् के सिद्धान्त के अनुसार चलने वाले विरले ही रह गए हैं, मात्र साहित्य के माध्यम से ही महावीर भगवान् का धर्म जीवित नहीं है, बल्कि! उस साहित्य के अनुरूप चर्या भी देखने मिल रही है, भले ही उसका पालन करने वाले अल्प संख्या में हैं।

     

    साहित्य के अनुरूप आचरण करने वालों की कमी होने के कारण आज बौद्ध धर्म विश्व में रहते हुए भी किस रूप में है? हम जान नहीं सकते, वह मात्र पेटियों में बन्द हो गया है, बौद्ध धर्म के उपासक आज भारत में नहीं हैं, जबकि बौद्धधर्म भारत में ही स्थापित हुआ था, प्रचार-प्रसार हुआ था, किन्तु उनके उपासक यहाँ पर नहीं टिक सके, फिर बाद में वह धर्म तिब्बत, लंका आदि में चला गया, यहाँ पर भगवान् आदिनाथ से लेकर महावीर भगवान् तक जैनधर्म अबाधगति से चला आ रहा है, इसमें कारण क्या है?


    एक विदेशी लेखक ने एक पुस्तक में लिखा है कि बौद्ध धर्म का उद्गम भारत में हुआ और भारत में ही उसका वर्चस्व कायम नहीं रह पाया, जैन धर्म का उद्गम भी भारत में हुआ और जीवित रह गया। बौद्धधर्म जीवित क्यों नहीं रह पाया? इसमें कारण यही है कि उसके उपासकों की संख्या घटती गई इसलिए बौद्ध धर्म यहाँ से उठ गया, उपासकों के अभाव में वह धर्म लुप्त हो गया और उपासकों के सद्भाव में जैन धर्म आज भी जीवित है और आगे भी रहेगा।


    यह बात अलग है कि धीरे-धीरे शिथिलता आ रही है, चलने वाला शिथिल भले हो, लेकिन! धर्म जीवित रखने का श्रेय उपासकों को ही है, धर्मरूपी रथ के दो पहिए हैं, एक मुनि, दूसरा श्रावक, यह सत्य है कि यदि एक पहिया निकाल दिया जाए तो रथ नहीं चल सकता, इसी प्रकार श्रुतज्ञान को निकाल दिया जाए तो केवलज्ञान गूंगा हो जाएगा, केवलज्ञान और सर्वज्ञ को समाप्त कर दिया जाए तो श्रुतज्ञान नहीं रहेगा, इसलिए दोनों के सद्भाव में यह धर्म रहने वाला है।

     

    अक्षर के पास ज्ञान भी नहीं है, पर अर्थ को व्यक्त करने की योग्यता उसके पास है, योग्यता का अधिकरण उसकी विवक्षा करने वाले वक्ता के ऊपर निर्धारित है, सो आज उन लोगों के पास वह भी नहीं है, आज साहित्य क्या है? वस्तुत: जो वाच्यभूत पदार्थ है, उसको हम शब्दों में व्यक्त करते हैं, शब्द वस्तुत: ज्ञान नहीं हैं, शब्द कोई वस्तु नहीं है, किन्तु! वस्तु के लिए मात्र संकेत है। भाषा (लेंग्वेज) यह नॉलेज नहीं है, किन्तु मात्र साइनबोर्ड है। नॉलेज का अर्थ जानने की शक्ति और लेंगवेज को जानने के लिए भी नॉलेज चाहिए, यदि वह विषयों में, कषायों में घुला हुआ है तो ध्यान रखना उसका कोई मूल्य नहीं है।


    आज कई विदेशी आ जाते हैं, दिगम्बरत्व के दर्शन करते हैं, श्रावकों को देखते हैं तो ताज्जुब करते हैं कि इस प्रकार धर्म रह सकता है, गाँधीजी जब यहाँ से विदेश गए थे, वहाँ पर उनके स्वागत के लिए बहुत भीड़ एकत्रित थी, यह कैसी खोपड़ी है? यह कैसी विचारधारा है? जिसके माध्यम से हमारा साम्राज्य पलट गया, उस व्यक्ति को हम देखना चाहते हैं, जब वो निकल गए तो लोग इधरउधर देखने लगे, कहाँ हैं गाँधीजी किसी ने कहा कि गाँधीजी यही हैं। भैया! तो वे कहने लगे किअरे ये तो साधु जैसे हैं, तब गाँधीजी ने कहा कि ये तो साधु की पृष्ठभूमि है, साधु तो बहुत पहुँचे हुए लोग होते हैं, तब लोगों ने कहा कि जब आपका इतना प्रभाव है तो उनका कितना होगा? गाँधीजी बोले-वे अपना प्रभाव दिखाते नहीं हैं, क्योंकि वे दुनियाँ से ऊपर उठे हुए हैं।


    आचार्य उमास्वामी ने सप्तम अध्याय में कहा है कि चोरी से, झूठ से काम लेना यह असत्य है, सत्य बोलना सत्य नहीं है। असत्य का विमोचन करना सत्य है, अभी पूर्व वत्ता ने आपके सामने कहा कि महाराज तो विमोचन करने में माहिर हो चुके हैं। (पं. पन्नालालजी साहित्याचार्य द्वारा लिखित सज्ज्ञानचन्द्रिका का विमोचन करते समय) हाँ.परिग्रह का तो मैं विमोचन करता हूँ पर श्रुत का विमोचन नहीं करता, श्रुत का विमोचन तब तक नहीं होगा जब तक मुझे मुक्ति नहीं मिलेगी, श्रुत का विमोचन यह लौकिक पद्धति है, लेकिन! आज स्वाध्याय का मूल्यांकन घटता चला जा रहा है।


    एक वक्ता ने अभी कहा कि आज बड़ी-बड़ी संस्थायें हैं, संस्थाओं से शास्त्र भी प्रकाशित हुए हैं, लेकिन! उनको कोई पढ़ने वाले नहीं हैं, यह कथचित् ठीक है लेकिन! मैं भी यह बात उनसे कहता हूँकि ग्रन्थ प्रकाशित करने वालों का क्या कर्तव्य है? जरा इस पर भी ध्यान दें। देखो! सुबह से लेकर मध्याह्न तक रसोई मन लगाकर बनाई जाती है। भीतर से यह मन कहता है कि मैं किसी भूखे-प्यासे की क्षुधा दूर करूं, मेरी रसोई का मूल्यांकन पूर्ण रूप से हो और वह सार्थक हो जाए, जिस किसी व्यक्ति को आप श्रुत देकर अपने आपको कृत-कृत्य नहीं मानोगे, जिस प्रकार जिसको भूख है, उसी को आप खाना खिलायेंगे, जिसके लिए अध्ययन की रुचि है, उसे ही आप श्रुत दान दीजिए, यदि आप सही दाता हैं, श्रुत का सही-सही प्रचारप्रसार करना चाहते हैं तो।


    बहुत सारे छात्र मेरे पास आ जाते हैं, बहुत सारे व्यक्ति मेरे पास आ जाते हैं और कहते हैं कि महाराज मुझे कुछ दिशा बोध दीजिए, जो व्यक्ति खरीद करके दिशा बोध देता है, उसका सामने वाला सही-सही मूल्यांकन नहीं करता। जिनवाणी की विनय ही हमारा परम धर्म है, यदि सम्यकदर्शन के आठ अंग हैं, तो सम्यकज्ञान के भी आठ अंग हैं, लेकिन! सम्यकज्ञान के आठ अंगों से बहुत कम लोग परिचित हैं, जिनवाणी का दान जिस किसी व्यक्ति को नहीं दिया जाता, जिनवाणी सुनने का पात्र वही है जिसने मद्य/मांस/मधु और सप्तव्यसनों का त्याग कर दिया है। मद्य/मांस/मधु का सेवन आज समाज में बहुत हो रहा है। केवल स्वाध्याय करने मात्र से ही सम्यकदर्शन नहीं होने वाला। बाह्याचरण का भी अन्तरंग परिणामों पर प्रभाव पड़ता है, विषय वासनाओं में लिप्त यह आपकी प्रवृत्ति अन्दर के सम्यकदर्शन को भी धक्का लगा सकती है, दुश्चरित्र के माध्यम से सम्यकदर्शन का टिकना भी मुश्किल हो जाएगा, आजकल प्रत्येक क्षेत्र में प्रवृत्तियाँ बदलती जा रही हैं, पहले जैन ग्रन्थों पर मूल्य नहीं डाले जाते थे।


    क्योंकि जिनवाणी का कोई मूल्य नहीं है वह अमूल्य है, लेकिन! आज ग्रन्थों पर मूल्य डाले जा रहे हैं जो कि ठीक नहीं हैं, मोक्ष सुख दिलाने वाली इस जिनवाणी माँ को आप व्यवसाय का साधन मत बनाइये, सभा में बैठे हुए विद्वानों को यह कथन रुचिकर नहीं लग रहा होगा लेकिन! यह एक कटु सत्य है, सत्य चाहे कड़वा हो या मीठा, उसको उद्घाटित करना हमारा परम कर्तव्य है, एक बात ध्यान रखना दवा कड़वी ही हुआ करती है और कड़वी दवा के माध्यम से ही रोग का निष्कासन हुआ करता है।

    पुरुषार्थसिद्धयुपाय संहारिका मेरे पास आई थी, मैंने उसे देखा तो, उसमें एक स्थान पर आया जिनवाणी सुनने का वही पात्र है-जिसने सप्त व्यसन और मद का त्याग कर दिया हो। आज दिनों दिन सदाचरण मिटते चले जा रहे हैं। मद्य/मांस/मधु से हमारा परहेज प्राय: समाप्त होता चला जा रहा है। केवल समयसार मात्र पढ़ने से हमें सम्यकदर्शन प्राप्त नहीं होने वाला, आचार्य अमृतचन्द्रजी कहते हैं, वही व्यक्ति पात्र है जो सदाचार का पालन करता हो, इसके उपरान्त ही सम्यकदर्शन सम्भव है। इसलिए उन्होंने पहले सुनने की पात्रता बताई। हमें इसी प्रकार सीखना है तो उत्तमपात्र के लिए बहुत खर्च करना पड़ता है, इसके उपरान्त आपका वित्त सार्थक होगा पहले सुनने की पात्रता बताई, इसके उपरान्त आपका वित्त सार्थक होगा पहले के लोग भी स्वाध्याय करते थे, मैंने पहले के कुछ ग्रन्थ देखे हैं, जिन पर कीमत के रूप में स्वाध्याय लिखा जाता था, उन ग्रन्थों के ऊपर कीमत नहीं लिखी जाती थी, मैंने कई बार इस बात को कहा है, मैं स्वाध्याय का निषेध नहीं करता स्वाध्याय आप खूब करिये! लेकिन विनय के साथ करिये, पहले स्वाध्याय करने की पात्रता/योग्यता अपने आप में लाइये, तभी आप सम्यकदर्शन सम्यकज्ञान को प्राप्त कर सकेंगे, उसकी विनय के अभाव में वह सम्यकज्ञान तीनकाल में संभव नहीं है, श्रुत का दान आप उसे दीजिए जिसने उसका महत्व समझा हो, वह पवित्र जिनवाणी, उसी के लिए भेंट कीजिए जो उसका सदुपयोग कर सके, जिस किसी के लिए आप दे देते हैं वह उसकी विनय नहीं रखता कहीं भी ले जाकर रख देता है और यदि वह शास्त्र किसी बच्चे के हाथ में पड़ जाए तो वह उसे फाड़ देता है, ग्रन्थालयों में ग्रन्थ तो मिल जाते हैं, लेकिन खोलते ही ऊपर पद्मपुराण लिखा रहता है और बीच में हरिवंश पुराण के भी पृष्ठ मिल जाते हैं और अंत में उत्तरपुराण के भी दर्शन हो जाते हैं, किसी भी ग्रन्थालय में ग्रन्थ व्यवस्थित नहीं रखे मिलते, सारों की बात तो अलग ही है, समयसार में गोम्मटसार के दर्शन होते हैं और प्रवचनसार में धवला के दर्शन होते हैं, उन महान् सिद्धान्त ग्रन्थों के पने भी, अस्त व्यस्त रहते हैं। स्वाध्याय शील व्यक्ति भी उन्हें पढ़कर यथायोग्य नहीं रखते, जल्दी-जल्दी जैसे भी पढ़ लिया और अलमारी के किसी कोने में पटक दिया, यह कोई स्वाध्याय करने का तरीका नहीं है, महिलायें भी स्वाध्याय करने में कई कदम आगे हैं, शास्त्र स्वाध्याय के साथ-साथ उनकी पूजा भी चलती रहती है और यदि कोई बीच में पुरुष आ गया तो, अभिषेक का अनुरोध भी कर लेती हैं, क्या मतलब है? पढ़ भी रहे हैं, पूजा भी कर रहे हैं, अभिषेक भी चल रहा है, यह तो हुई पढ़ी-लिखी महिलाओं की बात, पर जो पढ़ी-लिखी नहीं हैं, वे वृद्धा, किसी से भी कह देती हैं। भैया सूत्रजी सुनाओ और बीच में शांतिधारा दिखा दो, हमारा अभिषेक देखने का नियम है, उसी समय किसी तीसरे व्यक्ति से कह देती भैया! सहस्रनाम सुना दो, चौथे व्यक्ति से कहती भैया पद्मपुराण सुना दो, यह तो हमारी स्थिति है। (श्रोता समुदाय में भारी हँसी) यह क्या है? यह कोई स्वाध्याय करने का तरीका हुआ? यह क्या स्वाध्याय का मूल्यांकन हुआ? जिनवाणी की तो आज यह स्थिति हो रही है कि कहते हुए हृदय फटता है, आप यदि किसी सप्त व्यसनी को समयसार पकड़ा दोगे तो वह उसकी क्या विनय करेगा, उसके द्वारा जिनवाणी की अवहेलना ही होगी।


    एक बात और मैं पुनः जोर देकर कहूँगा कि ग्रन्थ प्रकाशन समितियों को ग्रन्थों पर मूल्य नहीं रखना चाहिए, दानदाताओं से अभी यह धरती खाली नहीं हुई है, ध्यान रखना! श्रावक धनोपार्जन करता है तो कुछ ना कुछ दानादि कार्यों के लिए बचा कर अवश्य रखता है, दान दिया हुआ पैसा पुन: उपयोग में नहीं लाना चाहिए, उसको अच्छे कामों में लगाइये, सदुपयोग कीजिए।

     

    मुझे अष्टसहस्त्री पढ़नी थी, प्रति उपलब्ध नहीं थी, मुझे बहुत चिंता थी, कहीं से भी खोजने पर एक प्रति आ गई जब उसको खोलकर देखा तो उसमें कहीं पर मूल्य नहीं पड़ा था, महाराज श्री (आचार्य गुरुवर ज्ञानसागरजी) बोले कि भैया! पहले पुस्तक के देने उपरान्त भी कोई नहीं लेता था। इसका अर्थ है कि पढ़ने की रुचि नहीं है, इसलिए प्रतियों का अकाल पड़ गया, पढ़ने की रुचि पहले जागृत कर दी जाए इसके उपरान्त ग्रन्थ भेंट किया जाए, भोजन आप उसको दीजिए जिसे भूख लगी है, प्रकाशन करके यद्वा-तद्वा बाँटने से उसका दुरुपयोग होता है, आज कल तो शादी/विवाह में समयसार बाँटे जाते हैं, क्या समयसार का मूल्य इतना निम्न-स्तर पर पहुँच गया, जब समयसार ग्रंथ श्रीमद् राजचंद्र को मिला तो वे इतने खुश हुए कि ग्रन्थ भेंट करने वाले को उन्होंने थाली भरकर हीरा-मोती भेंट स्वरूप दिए थे, इतने सारे, हाँ इतने सारे। वह अमूल्य है, उसकी कोई कीमत नहीं, ले जाओ जितना चाहो उतना ले जाओ और आज हम उस समयसार की कीमत चाँदी के चंद सिक्कों में आक रहे हैं।


    जो लेखक हैं, उनके लिए क्या आवश्यक है? उनके लिए कोई कीमत मत दीजिए, महापुराण पढ़ रहा था, उस समय उन्होंने यह व्यवस्था की है। जैन ब्राह्मण भी होते हैं जो अध्ययन कराने में अपना जीवन व्यतीत करते हैं और उनकी आजीविका कैसे चलती है तो आप जो खा रहे हैं, पी रहे हैं, उसी के अनुसार आप कर दीजिए, यही उनके प्रति बहुमान है तो पंडितजी के लिए हम वेतन दें, यह अच्छा नहीं लगता । वे.तन (आत्मा) का काम करने वालों को आप वेतन जड़ देते हैं, भेंट अलग वस्तु है, उसका मूल्य आँकना अलग होता है, सम्यकज्ञान, सम्यक्रचारित्र का कोई मूल्य नहीं है, जिनसे अनंत सुख मिलता है, उन रत्नों की कीमत क्या हम जड़ पदार्थों के माध्यम से आँक सकते हैं? नहीं, तीनकाल में भी यह संभव नहीं है।


    इसी प्रकार गुरु महाराज की भी कोई कीमत नहीं होती, वे अनमोल वस्तु हैं और भगवान् की भी कोई कीमत नहीं होती, एक बार एक बात आई थी, रजिस्ट्री कराने की, जितनी आपके यहाँ मूर्तियाँ हैं उन सब मूर्तियों को गवर्मेन्ट को बताना होगा और उनका वेट (वजन) कितना है, यह भी बताना होगा समस्या आ गई, जैनियों ने कह दिया हम सब कुछ बता सकते हैं, आपको खर्चा करने की आवश्यकता नहीं है, लेकिन! हम भगवान् को तौल नहीं सकते, ये भी कितने आदर की बात, किन्तु! जिनवाणी की बात है जैसा अभी (मूलचन्द्रजी लुहाड़िया, किशनगढ़) पूर्व वत्ता ने कहा, ज्ञान की पिटाई ऐसी हो रही है, मैं तो यह कह रहा हूँ जिनवाणी की पिटाई भी होती चली जा रही है। किसी ने कहा है


    जिनवाणी जिनदेव से रो-रो करत पुकार।

    हमें छोड़ तुम शिव गए, कर कुपात्र आधार॥

    आज वह जिनवाणी रो रही है, जिसे आप माता बोलते हैं, जिसे आप अपने सिर पर धारण करते हैं, किन्तु वही जिनवाणी कहती है कि मुझे कुपात्रों के रहने के स्थान पर क्यों छोड़े जा रहे हो, हे भगवन् आप कहाँ पर चले गए ? जिनकी पूजा होती है, उनकी सही-सही विनय होना चाहिए। आजकल इसमें बहुत कुछ शिथिलता आती जा रही है, मात्र स्वाध्याय करने से कोई प्रयोजन सिद्ध नहीं होने वाला, सत्य वह है, जो अर्थ को भाव को सही-सही बताने वाला होता है, अभी किसी वक्ता ने कहा था कि जो व्यक्ति लिख रहा है, पढ़ रहा है, उसका, जहाँ कहीं से पढ़ना/लिखना प्रारम्भ हो गया। अभी वाचना चल रही थी धवला इत्यादि की तो धवला की आठवीं पुस्तक में यह बात लिखी है कि


    घरत्थेसु णत्थि चारित्तं

    गृहस्थाश्रम में चरित्र नहीं है, इसलिए वह रत्नत्रय का दाता नहीं हो सकता, जिसके पास जो चीज नहीं है, वह देगा क्या? एक हेतु भी है कि जिसके पास सम्यकदर्शन, सम्यकज्ञान, सम्यक्रचारित्र नहीं है, उसे रत्नत्रय दान करने का अधिकार नहीं है।


    कम से कम उसे रत्नत्रय का उपदेश तो देना ही नहीं चाहिए। उपदेश देने का उसको अधिकार भी नहीं है, फिर क्या उपदेश छोड़ दें? नहीं.नहीं वहाँ पर भाव यह है कि चारित्र को लेकर जब हम आगे बढ़ेंगे तब यह बात हो सकती है, बार-बार वर्णी जी की चर्चा आती है। वणजी कौन थे? वर्णीजी क्या गृहस्थ थे? नहीं वर्णी का अर्थ मुनि/यति/अनगार/तपस्वी/त्यागी होता है, वे गृहस्थ नहीं ग्यारहवीं प्रतिमा धारक क्षुल्लक जी थे, इसलिए उनका प्रभाव जन मानस के ऊपर पड़ा, आप लोगों का प्रभाव क्यों नहीं पड़ रहा? इसका अर्थ है जो व्यक्ति विषय कषायों का विमोचन नहीं करता उस व्यक्ति को सत्य का उद्घाटन करने का अधिकार नहीं है और वह कर भी नहीं सकता, किसी ने कहा था निभाँक के साथ-साथ निरीह भी होना चाहिए, मोक्षमार्ग प्रकाशक में पं. टोडरमलजी ने लिखा है कि जिस वक्ता की आजीविका श्रोताओं पर निर्धारित है, वह वक्ता तीन काल में सत्य का उद्घाटन नहीं कर सकेगा।
     

    वक्ता के भी कुछ विशेषण होते हैं, दानदाताओं के भी कुछ विशेषण होते हैं। मुनि महाराज की परीक्षा की जाती है, उसी प्रकार जिनवाणी की भी आज परीक्षा हो रही है।


    जो कोई भी व्यक्ति आज स्वाध्याय/प्रवचन यद्वा तद्वा करते जा रहे हैं और उसके फलस्वरूप अर्थ का अनर्थ भी खूब हो रहा है, कई समस्यायें आज समाज के समक्ष चली आ रही हैं। भाषा का बोध हो, उस विषय संबंधी जानकारी हो, गुरुओं के सान्निध्य में अध्ययन अनुभव प्राप्त किया हो तो बात अलग है। ज्ञानार्णवकार ने एक स्थान पर लिखा है


    न हि भवति निर्विगोपक्रमनुपासितगुरुकुलस्य विज्ञानम् | 

    प्रकटितपश्चिमभागं पश्यनृत्यं मयूरस्य || 

    (ज्ञानार्णव सर्ग १५, श्लोक ३४)

    देख लीजिए आज गुरुकुल की पद्धति समाप्त हो गई, स्वाध्याय का भी कोई क्रम नहीं रहा, दो दिन ही पढ़ा नहीं और वह लेख लिखना प्रारम्भ कर देता है, यह सब गलत है। स्वाध्याय अपने आप नहीं हो सकता, मयूर का नृत्य बहुत अच्छा लगता है, लेकिन! वह श्रृंगार रस के साथ-साथ वीभत्स रस को भी प्रदर्शित कर देता है, यह नहीं होना चाहिए। वीरसेन स्वामी ने एक स्थान पर लिखा है कि सम्यकदर्शन की उत्पति के लिए उपदेश देना या श्रवण करना आवश्यक होता है। नरकों में भी सम्यकदर्शन होता है और वहाँ भी देव आकर सम्यकद्रष्टि बनाते हैं। हाँ.बिल्कुल ठीक है। तीसरे नरक तक जाकर उपदेश देते हैं, फिर इसके उपरांत क्यों नहीं देते? इसके उपरान्त देव नहीं जाते तो नहीं सही लेकिन! सातों पृथ्वियों में सम्यकद्रष्टि जीव पहले से ही भरे हुए हैं, वे सब मिलकर जो मिथ्यादृष्टि नारकी हैं, उन्हें सम्यकद्रष्टि बना देते?


    तत्थतणसम्माइट्टि धम्मसवणादो पढमसम्मत्तस्स उप्पत्ति किण्ण होदि त्ति वुत्ते, ण होदि, तेसि भवसंबंधेण पुव्वबैरसंबंधेण वा परोप्पर विरुद्धाण अणुगेज्झणुग्गाहयभावाणमसं-भवादो।

    वहाँ के सम्यकद्रष्टि नारकी मिथ्यादृष्टि नारकियों को सम्यकदर्शन उपलब्ध क्यों नहीं करा सकते? इसमें क्या कारण है?


    पूर्ववैरसम्बन्धात्

    पूर्व वैर का संबंध होने से, सर्वप्रथम नारकी यही सोचेगा कि यह जो नवागन्तुक नारकी है, कहाँ से आया है? इस प्रकार सोचने के उपरान्त वह उससे लड़ना प्रारम्भ कर देगा, पूर्व वैर होने के कारण उसका उपदेश वहाँ पर कुछ काम नहीं करेगा, पूर्व वैर होने के कारण आपके वचनों से उसका क्रोध और भड़क उठेगा।


    "परस्पर अनुगृह्य अनुग्राहक भावाभावात्" 

    आपस में नारकियों में अनुग्राह्य और अनुग्राहकभाव तीनकाल में नहीं बन सकता, क्योंकि वहाँ अनुकम्पा/दया का अभाव है। दया कब आ सकती है? जब सत्य धर्म का अनुपालन हो, हम स्वयं संयम का अनुपालन करें तब कहीं दूसरे के ऊपर हमारा प्रभाव पड़ सकता है। यदि आपका पुत्र स्मोकिंग कर रहा है, और आप उसे रोकना चाहते हैं, तो सर्वप्रथम आपको यह देखना होगा कि मेरे पास तो यह दुर्गुण नहीं है, तब आप उसे कहेंगे तो वह मान जाएगा। सत्य का केवल व्याख्यान करने मात्र से समाज का कल्याण तीनकाल में संभव नहीं है, किन्तु! सत्य पर चलने से ही होगा ज्ञानार्णवकार आचार्य शुभचन्द्र जी कहते हैं


    ‘‘अपृष्टैरपिवक्तव्यं''

    बिना पूछे कहना आवश्यक है, यदि सत्य का लोप हो रहा हो क्रियाओं में कमी आ रही हो तो बिना पूछे ही सत्य/तथ्य को रखना चाहिए। आज जो साहित्य, हमारी समाज के सामने आ रहा है, वह देखकर लगता है कि इनके माध्यम से यह समाज किस ओर जाएगी, जैनधर्म में भगवान् की मूर्ति का अभिषेक करना कोई आवश्यक नहीं है, ‘इस प्रकार की पुस्तकें आज लिखी जा रही हैं और उनमें कई मूर्धन्य विद्वानों की सम्मतियाँ भी छपी हुई हैं।' आप आज की नई पीढ़ी को धर्म की ओर आकृष्ट भी करना चाहें तो कैसे करें? इस प्रकार का साहित्य उन्हें भ्रम में डाल देता है।


    आज के स्वाध्याय का यही प्रतिफल है, सत्य को जानते हुए भी लोभ, भीरुता और विषयों के वशीभूत होकर स्वाध्यायप्रेमी उसे उद्घाटित नहीं कर पाते। जिनेन्द्र भगवान्, सच्चे देव/शास्त्र/ गुरु यह व्यवहार से हैं, ये हमारे लिए कार्यकारी नहीं हैं। यह आज के विद्वानों के मुख से सुनने मिल रहा है, पूजन/अभिषेक/दान/उपवास/शीलाचार इत्यादि क्रियायें मात्र पुण्य बंध के लिए कारण हैं, इसके माध्यम से जिनवाणी विकृत नहीं होगी। जो सत्य पथ पर चल रहे हैं वे उससे भ्रमित नहीं होंगे क्या? अवश्य होंगे, आज यह कोई नहीं कहता कि भक्ति करना कितना आवश्यक है।


    मैं यह बात एक बार नहीं बार-बार कहूँगा कि स्वाध्याय को मात्र धनोपार्जन का साधन न बनायें और जो अच्छे विद्वान् हैं, उन्हें वेतन नहीं देना चाहिए, उनको पुरस्कृत करके, उनके माध्यम से, अपने ज्ञानादि को विकसित करना चाहिए। हमने उन विद्वानों को एक हजार, दो हजार रुपया मासिक वेतन दे दिया, यह कोई उनका मूल्य नहीं है, हजारों व्यक्ति जिसका वाचन करते/सुनते हैं, स्वाध्याय करते हैं। मात्र इतने में ही उसका काम हो जाएगा? नहीं वह अनमोल निधि है। आज ऐसे भी ग्रन्थ देखने को मिलते हैं जिनमें लिखा रहता है 'सर्वाधिकार सुरक्षित" अब आचार्य वीरसेन आचार्य गुणभद्र के धवला, जयधवला, महाधवला, आचार्य कुन्दकुन्द के समयसार आदि और उमास्वामी महाराज का तत्त्वार्थसूत्र आदि जितने भी ग्रन्थ हैं वे सब सर्वाधिकार सुरक्षित हैं, यह कर्तृत्व बुद्धि का महान् मोह है, यह स्वामित्व का व्यामोह है। जब एक वस्तु का अधिकार दूसरी वस्तु पर नहीं रहता है, तो हम उनकी कृतियों पर अधिकार कैसे कर सकते हैं। दूसरा व्यक्ति यदि प्रकाशित करना चाहें तो वह कर नहीं सकता, यह बात तो बिल्कुल गलत है ही उस ग्रन्थ का सम्पादन/संशोधन कोई दूसरा व्यक्ति न करे, यह तो फिर भी ठीक है, लेकिन! अधिकार वाली बात तो होना ही नहीं चाहिए, जब बड़े-बड़े आचार्यों ने उसके ऊपर अधिकार नहीं चलाया, तो आप "सर्वाधिकार सुरक्षित" लिखने वाले कौन होते हैं। कुन्दकुन्द देव ने अनेक बड़े-बड़े ग्रन्थ लिखे उनमें कहीं भी अपने नाम तक का उल्लेख नहीं किया।

     

    दान का महत्व वर्तमान में कम होता जा रहा है, पहले किसी दाता ने दान दिया, तो उसका उपयोग दूसरी बार नहीं होता था, दूसरी बार के लिए कोई अन्य दाता दान देता था। और आजकल ट्रस्ट पर ट्रस्ट खुलते चले जा रहे हैं और दाताओं का पैसा न्याय और न्यायालयों में जा रहा है।


    कुण्डलपुर में जब हमारा चातुर्मास चल रहा था, उस समय वर्णी ग्रन्थमाला के बारे में झगड़ा चल रहा था, मैंने कहा कि वणजी तो क्षुल्लकजी थे, उनको इससे कोई मतलब नहीं था, लेकिन! उनके माध्यम से आज झगड़ा क्यों हो रहा है। तो जहाँ पर पैसा रहेगा वहाँ पर झगड़ा नियम से होगा तो स्वाध्याय कहाँ हुआ?


    दक्षिण में बहुत अच्छी प्रथा है, किसी मंदिर में पैसा नहीं मिलेगा, इसका क्या मतलब है? मतलब यह है कि वे आवश्यक कार्य कर लेते हैं, इसके उपरान्त समाप्त, मंदिरों के पीछे कोई धन सम्पत्ति की बात नहीं होना चाहिए, निष्परिग्रही भगवान् बैठे हैं। उस मंदिर के पीछे इतना वेतन, इतना किराया, इसी में झगड़ा होने लगता है, एक-एक मंदिर के पीछे आज लाखों का किराया आता है, भैया! यह सब किसके माध्यम से होता है? मंदिर के माध्यम से, फिर ट्रस्टी/मंत्री/अध्यक्ष/कोषाध्यक्ष आदि बनते हैं, इसलिए आचार्यों को लिखना पड़ा कि जो धर्म का खाता है वह सीधा नरक जाता है। जो दान का दिया हुआ द्रव्य है, उसके प्रति तो निष्पृहवृत्ति होना चाहिए, दान में दिया हुआ धन अपने उपयोग में नहीं लेना चाहिए, किन्तु! आज बहुत सी इस प्रकार की बातें जैन समाज में भी आ चुकी हैं, यह महान् रूढ़िवाद है, यह कोई छोटी-मोटी रुढ़ि नहीं है, इसको पहले निकालना चाहिए।

     

    आज संस्थाओं को लेकर जितने झगड़े हो रहे हैं, उतने इतिहास में कभी नहीं मिलते। आज डेकोरेशन रहता है और विद्यार्थियों की संख्या केवल ५-६ है, मास्टरों की संख्या कितनी है? यह सुनकर आपको हँसी आएगी। ५-६ विद्यार्थी और १० मास्टर, यूनिवर्सिटी में जैनधर्म के विषय रखे जा रहे हैं, वहाँ जैनधर्म पढ़ाया जाएगा, बहुत अच्छी बात है, लेकिन जैनधर्म पढ़ने वाले विद्यार्थी हैं या नहीं, यह पहले देखना अनिवार्य है।
     

    मूल कार्य जो आवश्यक था, वह तो नहीं होता और संस्थायें खुलती चली जा रहीं हैं। सत्य का प्रदर्शन आचरण से होता है मात्र बातों से नहीं। सत्य को उद्घाटित करने वाला कौन होता है ? असत्य का उद्घाटन करने वाला कौन होता है? बस! एक उदाहरण देकर मैं समाप्त कर रहा हूँ।


    एक विद्वान् का पुत्र, उच्च शिक्षा प्राप्त करने कहीं गया था, इसके पिता किसी मंदिर में प्रवचन/पूजन आदि करते थे, एक दिन आवश्यक कार्य के आने वे से बाहर चले गए और उनका जो लड़का था, उससे कह गए कि ४-५ दिन के लिए मैं बाहर जा रहा हूँ और जब तक मैं वापस न आऊँ तब तक तुम प्रवचन आदि करते रहना, कोई बुलाने आए तभी जाना, अपने आप नहीं जाना, गाँव में लोग कहने लगे पंडित जी चले गए कोई बात नहीं, उनका लड़का भी बहुत होशियार है अभी-अभी पढ़कर आया है, यह विचार कर कुछ लोग उसके पास गए और उससे कहने लगे, कोई बात नहीं, आपके पिताजी तो बाहर गए हैं और आपको आज नहीं तो कल यह कार्य करना ही है, आप ही प्रवचन करने चलिए, इस प्रकार लोगों की अनुनय/विनय देख वे प्रवचन करने चल दिए, शास्त्र में जहाँ से पढ़ना था, वहाँ से पढ़ना शुरू कर दिया, चार-पाँच पंक्तियाँ पढ़ने के उपरांत कहा कि देखो कण भर जो मांस खाता है वह सीधा नरक चला जाता है, सभा में हलचल मच गई। सब लोगों ने कहा-ये क्या पढ़ रहे हो? उसने पुन: दुहराया कण भर जो मांस खाता है, वह इतना कह ही नहीं पाता कि लोगों ने कहा कि गलत पढ़ रहे हो। उसने कहा गलत नहीं बिल्कुल सही पढ़ रहा हूँ, कण भर जो मांस खाता है वह सीधा नरक जाता है। तुम यहाँ से चले जाओ, तुम्हारा यहाँ कोई कार्य नहीं, तुम्हारे पिताजी को आने दो तभी दण्ड मिलेगा-समाज के प्रमुख व्यक्ति ने कहा और सबने उसे निकाल दिया।


    पिताजी के आते ही सब लोग उनके ऊपर टूट पड़े, तुमने कैसे लड़के को तैयार किया, आपका लड़का था इसलिए हमने कुछ नहीं कहा, इतना पढ़कर आया फिर शास्त्र की छोटी सी बात नहीं समझा पाया, आपके संकोच से हमने कुछ नहीं कहा, नहीं तो सीधा जेल भेज देते, आज से आप ही शास्त्र बाँचिये, वे आगे का प्रसंग पढ़ते हैं कि कणभर जो मांस खाता है वह सीधा नरक जाता है। पं. जी क्या बात हो गई, आज आप चश्मा बदलकर आये हैं क्या? नहीं नहीं यह ठीक लिखा है लेकिन! इसका अर्थ क्या है? जो कण भर भी मांस खाता है वह नरक चला जाता है, किन्तु! जो मनभर खाता है वह स्वर्ग जाता है। आज इस प्रकार अर्थ का अनर्थ किया जा रहा है, इस प्रकार की व्याख्या सुनकर समन्तभद्र स्वामी की वह कारिका मेरे सामने तैरकर आ जाती है |


    कालः कलिर्वा कलुषाशयो वा श्रोतुः प्रवक्तुर्वचनाशयो वा ।
    त्वच्छासनै काधिपतित्वलक्ष्मी-प्रभुत्वशक्ते रोपवादहेतुः॥

    (युक्त्यनुशासन) 

    समन्तभद्र स्वामी ने बिल्कुल सही लिखा है कि हे भगवन्! आपका अद्वितीय धर्म है। इसकी शरण में आने वाला आज तक ऐसा कोई भी नहीं है, जिसका उद्धार न हुआ हो। लेकिन! बात ऐसी है अपवाद किसका हुआ है? अपवाद उस बात का है कि कलि काल का एक मात्र अपराध है जो महान् कलुष आशय वाला है। धर्म को भी जो अपने अनुरूप चलाना चाहता है। हंस की उपमा श्रोता को दी है। इस प्रकार की कलुषता होने के कारण ही वक्ता अर्थ बदलता है-


    जिस वक्ता में
    धन कञ्चन की अास
    और पाद-पूजन की प्यास
    जीवित है,
    वह
    जनता का जमघट देख
    अवसरवादी बनता है
    आगम के भाल पर
    कथन का डंग
    बदल देता है

    जैसे
    झट से
    अपना रंग
    बदल लेता है
    गिरगिट ।

    (तोता क्यों रोता ?)

    जिस वक्ता में धन, कंचन, ऐश्वर्य, ख्याति, पूजा, लाभ की चाह लिप्सा रहती है वह आगम के यथार्थ अर्थ को परिवर्तित कर देता है। जिस प्रकार मौसम से प्रभावित होकर के गिरगिट अपना रंग बदलता रहता है। उसी प्रकार आजकल के वक्ता भी (असंयमी व्यक्ति) माहौल को देखकर आगम के अर्थ को बदलते रहते हैं। वह व्यक्ति तीनकाल में सत्य का उद्घाटन नहीं कर सकता है। वह जल्दी-जल्दी आगम के अर्थ को पलट देता है। इस प्रकार की वृत्ति देखकर मन ही मन जिनवाणी रोती रहती है। मेरे ऊपर तुमने घूंघट लाया है, मैं घूंघट में जीने वाली नहीं हूँ। मैं तो जनजन तक पहुँचकर अपना संदेश देने वाली हूँ, लेकिन! आजकल कुछ पंक्तियाँ तो अण्डर लाइन की जाती हैं, और कुछ पंक्तियाँ अण्डर ग्राउन्ड की जाती हैं, यह क्या सत्य है? यह क्या सत्य का प्रदर्शन है? नहीं, यह इसलिए हो रहा है कि आज परमार्थ के स्थान पर अर्थ ने अपनी सत्ता जमा ली है। लोगों में राजनीति, अर्थनीति आ गई है, धर्मनीति के लिए स्थान नहीं बचा, नौजवानो! उठो!! जागो !!! यदि अपना हित चाहते हो, अपनी संस्कृति को जीवित रखना चाहते हो, अपने बाप दादाओं के आदशों को सुरक्षित रखना चाहते हो तो अर्थ के लोभ में आकर कोई कार्य नहीं करना यहाँ पर लोभ का सकलीकरण है, यहाँ पर त्याग का अंगीकरण है, यहाँ पर केवल आत्मबल की चर्चा है, परमार्थ की चर्चा है, अर्थ की चर्चा यहाँ पर नहीं है, आप लोग कहते हैं अर्थ तो हाथ का मेल है यूँ-यूँ करने से वह निकल जाता है (हाथ मलते हुए) पुण्य की वह छाया है, पुण्य का उदय हुआ तो वह आ जाता है और पाप का उदय हुआ तो वह चला जाता है। आप धार्मिक अनुष्ठान कीजिए, लेकिन! पुण्य ही हमारे जीवन का लक्ष्य नहीं है, हमें पुण्य पाप से अतीत होकर उस सत्य को प्राप्त करना है, जिसे प्राप्त करने के लिए महापुरुष अहर्निश प्रयास करते रहते हैं। उस सत्य की झलक पाने के लिए वे अपनी आँखें बिल्कुल खोले रखते हैं। आचार्य कुन्दकुन्द देव प्रवचनसार में कहते हैं-

     

    आगमचक्खू होंति साहूणं

    आगम ही साधु की आँख है, साधुओं की आँख न तो धन-दौलत है और न ही ख्याति/पूजा/ लाभ मंजिल तक पहुँचाने वाली आगम की आँख ही है, उस ऑख को बहुत अच्छे ढंग से सम्भालकर रखना चाहिए, उस दृष्टि में जब विकार या पक्षपात आ जाएगा तो जिनवाणी उस समय पिट जाएगी, जिनवाणी का मूल्यांकन समाप्त हो जाएगा, बंधुओ! यह वो रत्न है जिसको हम कहाँ रख सकते हैं, देखो! समन्तभद्र स्वामी ने जो कि महान् दार्शनिक थे, अध्यात्मवेत्ता थे, उन्होंने रत्नकण्डक श्रावकाचार के अंत में लिखा है


    येन स्वयं वीतकलङ्क-विद्या-दृष्टि-क्रिया-रत्नकरण्डभावं।

    नीतस्तमायाति पतीच्छयेव, सर्वार्थसिद्धिस्त्रिषु विष्टपेषु ॥१४९॥

    यह कारिका कितनी अच्छी लगती है, रत्न कहाँ पर रखते हैं? ट्रेजरी में ही रखते हैं न, हाँ.हाँ...। तो उसमें बहुत से खाने होते हैं, उसके अन्दर एक ऐसी डिब्बी होती है, जिस डिब्बी को देखकर मुँह में पानी आ जाता है, उसके उपरांत उस डिब्बी के भीतर एक और डिबिया रहती है। उसकी बनावट ही अलग प्रकार की रहती है और उसके भीतर मखमल बिछा हुआ रहता है। लाल या हरा, उस हीरे के विपरीत रंग वाला ही होता है, वह मखमल का कपड़ा और उस मखमल पर चमकता हुआ वह रत्न, हीरे का नग रहता है।


    यह हुई रत्नों की बात, लेकिन! श्रावकाचार किसमें रखा गया है, रत्नकरण्डक में। एक बात और ध्यान देने योग्य है कि रत्नकरण्डक का कई भाषाओं में अनुवाद हुआ लेकिन! रत्नकरण्डक इस शब्द का अनुवाद नहीं हुआ, क्या मतलब? मतलब यह है कि हिन्दी में इसका अर्थ यह है ‘रयण मज्जूषा” रयण का अर्थ है रत्न मन्दता यानि पेटी/सन्दूकची रत्न जैसे सन्दूकची में रखे रहते हैं उसी प्रकार सम्यकदर्शन, सम्यकज्ञान, सम्यक्चारित्र रूपी तीन रत्नों को उन्होंने 'रत्नकरण्डक' में रखा है। आचार्य कहते, हैं, ये बड़ी अनमोल निधि है, जो कि बड़ी दुर्लभता से प्राप्त हुई है। छहढालाकार ने छहढाला की चतुर्थ ढाल ५ में कहा है कि


    इह विधि गये न मिले सुमणि ज्यों उदधि-समानी।

    जिस प्रकार समुद्र में मणि गिर गई तो पुन: मिलने वाली नहीं है, ऐसे ही मनुष्य जीवन की कीमत है, इने गिने लोग ही इस श्रावकाचार को अपनाते हैं, तीन कम नौ करोड़ ही मुनिराज हैं, जो मूलाचार के अनुसार चलने वाले हैं और श्रावकों की संख्या तो असंख्यात है, लेकिन! मनुष्यों में नहीं, अब सोचिये बहुत कम संख्या है, अनंतानंत जीवों में श्रावक बनने का सौभाग्य कुछ ही जीवों को होता है, जो कि आप लोगों को उपलब्ध है, ऐसे श्रावकाचार को अपनाओ, दृश्यमान पदार्थों की कोई कीमत नहीं है तो हमें दृश्यमान पदार्थों की कीमत नहीं करना, दृष्टा की कीमत करना है। आज हम दृश्य के ऊपर, ज्ञेय के ऊपर लेबिल लगाते जा रहे हैं, यह अध्यात्म नहीं है, यह सिद्धान्त नहीं है, यह सिद्धान्त का सही-सही उपयोग नहीं है। केवल हम ज्ञाता-दृष्टा उस आत्म-तत्व की चर्चा उसका मूल्यांकन करते हैं, इसका मूल्यांकन क्या करें? जो स्वाध्याय करके असंख्यातगुणी निर्जरा कर रहा है, स्व और पर के लिए, एकस्थान पर चर्चा आई है कि जो व्यक्ति आचरण करने वाला है वह सब कुछ कर रहा है, हमारे लिए धरोहर के रूप में, क्योंकि वह चलकर दिखा रहा है। इसका बड़ा महत्व है। मात्र श्रावक पंडित जी (पं० पन्नालाल साहित्याचार्य, सागर) सप्तम प्रतिमाधारी श्रावक हैं और आप लोग कहते हैं कि पं० इसी रूप में रहे और कोई नया ग्रन्थ लिखें । मैं तो कहता हूँकि पंडित जी को इधर-उधर के काम छोड़ देना चाहिए, बिल्कुल पन्नालाल के आगे सागर लगना चाहिए 'पन्नालाल सागरजी' और ग्रन्थ को लिखकर समय का सदुपयोग कर आत्म कल्याण कर लेना चाहिए, इसके द्वारा पंडित जी, समय ज्यादा मिलेगा और आपके लिए एक पंथ दो काज, दो ही नहीं दो सौ काज हो जाऐंगे, क्या कमी है? और बहुत काम होंगे, बहुत से लोग आकर्षित होंगे। क्योंकि वणी जी की परम्परा को आप निभाना चाहते हैं।
     

    वर्णी जी टोपी में नहीं थे, धोती/कमीज में नहीं थे, हमने कुण्डलपुर में आपको यही कहा था। आपने कहा था, सम्यकदर्शन की चर्चा हमने लिख दी है, आगे लिखने का कोई विचार नहीं है। तो हमने कहा नहीं पण्डित जी आगे और लिखना, पर चारित्र के बारे में आप क्या लिखेंगे? हालांकि! पंडित जी का विकास अन्य विद्वानों की अपेक्षा चारित्र के क्षेत्र में बहुत हुआ है और आज समाज के लिए यह सौभाग्य की बात है, लेकिन! पंडित जी को मात्र सागर में ही रहने के कारण गड़बड़ हो जाता है, जहाँ पर रत्न, हीरा आदि निकलते हैं, वहीं पर उन्हें नहीं रखना चाहिए। उसको तो जौहरी बाजार में भेजना चाहिए और प्रत्येक व्यक्ति उसको देखे और सही-सही मूल्यांकन करे और सागर वालों को मान मिलेगा ऐसी बात नहीं, सागर ने कई रत्न दिए हैं, उनमें एक रत्न पंडित जी भी हैं। सागर वालों को कृतकृत्य मान लेना चाहिये कि पंडित जी इस बात को अपना रहे हैं। आपके लिए यह बात-बिल्कुल नहीं सोचना है कि आगे बढ़कर हम क्या करेंगे, आपका नियम से शरीर साथ देगा और वातावरण भी साथ देगा और समाज तो साथ है ही। ज्यों ही वणी जी सप्तम प्रतिमा की ओर बड़े त्यों ही समाज की दृष्टि उनकी ओर चली गई। तब उन्होंने सवारी का त्याग किया, तब तहलका मच गया, सवारी में अब वणीं जी नहीं बैठेगे तो क्या करेंगे? हम तो उन्हें पालकी में ले जाएंगे, ऐसे लोग कहने लगे, यह त्याग का परिणाम है, अंत में जब तक घट में प्राण रहे, तब तक वे सवारी में नहीं बैठे और क्षुल्लकजी बनकर उन्होंने जो कुछ किया वह सराहनीय है।


    समन्तभद्रस्वामी ने यह ग्रन्थ बनाया है, और उसका अनुकरण करना हमारा परम कर्तव्य है। पूर्वाचार्यों के ऊपर यदि हमारा उपकार होता है, तो मात्र उसके अनुसार चलने से ही होता है, मात्र कागजी घोड़े दौड़ाने से नहीं। बात ऐसी है कि जब सम्यकदर्शन, सम्यकज्ञान है, तो ऐसी स्थिति में चारित्र की कोई बात ही नहीं उठती, वह तो अपने आप ही हो जाता है। सन्निपात का लक्षण उथलपुथल ही रहता है। उसी प्रकार सम्यकदर्शन, सम्यकज्ञान हो और वह चारित्र की ओर न बढ़े, यह तीन काल में सम्भव ही नहीं, शक्ति बहुत आ जाती है सन्निपात के समय, उसी प्रकार भीतर सम्यकदर्शन, सम्यकज्ञान होने से और देश का चारित्र अंगीकार करने के उपरांत, मुनि कब बनूँ, इस प्रकार मन में लगा रहता है, भीतर की बात कह रहा हूँ, अब आगे और हम बढ़े, लेकिन! हमारा मार्ग, अवरुद्ध हो चुका है, सप्तम गुणस्थान से ऊपर चढ़ नहीं सकते, ऐसी सीमा खींच दी, अब हम क्या करें? हम और आगे बढ़ना चाहते हैं, कहाँ गए महावीर स्वामी, कहाँ गए वे महाश्रमण, जिनके पास जाकर हम अपनी बात कहें। आप लोगों को मात्र ज्ञान से ही मतलब नहीं रखना चाहिए, हमारी कितनी रुचि हो गई है, हेय के प्रति और उपादेय के प्रति हमारी घृणा बढ़ती चली जा रही है और कितना उत्साह हमारे भीतर जाग्रत होना और आपेक्षित है, क्षेत्र के अनुसार सारी बातें ध्यान रखना चाहिए, इसलिए सत्य वह है, जैसा वह कहता है कि इसमें लिखा है, कण मात्र खाने वाला नरक जाता है और मन भर खाने वाला स्वर्ग जाता है, इस प्रकार की वृत्ति, इस प्रकार का वक्तव्य, अपने को नहीं करना है।


    चन्द दिनों के इस जीवन को चलाने के लिए इस प्रकार अर्थ, हमें नहीं निकालना है। सत्य का जयघोष कोई सुने या नहीं सुने, किन्तु सत्य का अनुकरण करते चले जाओ। सूर्य आगे-आगे बढ़ता चला जाता है और नीचे प्रकाश मिलता चला जाता है, इससे कोई मतलब नहीं। कोई अपनी खिड़की या कुटिया बन्द करके सो जाता है।


    उसके लिए सूर्य कुछ कहता नहीं है कि तुम खिड़की खोलो। इसी प्रकार तीर्थ का संचालन करने वाले भी ऐसे ही चले गए। उनके पीछे-पीछे, जो हो गये वो भी उनके साथ चले गये और रुकने वाले हम जैसे यहीं पर हैं। यह मात्र सत्य की बात है, उसको अपनाने के लिए कोई आता है तो ठीक, नहीं आता तो भी ठीक है, हमें सदा सत्य की छाँव में ही रहना है, सत्य वह है जो अजर/ हैं। जिस शाश्वत सत्य के अभाव में आज सारी दुनियाँ विकल त्रस्त है उस सत्य की प्राप्ति करके उस सत्य की शीतल छाँव में बैठकर ही महावीर ने कैवल्य ज्योति प्रकट की थी, उसी सत्य की छाँव में बैठकर गाँधीजी ने भारत को परतन्त्रता रूपी जंजीरों से मुक्त किया था। उस सत्य को हमें जीवन में अपनाना है उस सत्य की छाँव को हमें कभी नहीं छोड़ना है, चाहे हमारा सर्वस्व लुट जाए हमें कोई चिन्ता नहीं है, पर सत्य की छाँव सत्य का आलम्बन, ना छूटे।


    सत्य रूपी वरदान को आप छोड़िए मत और इस असत्य के ऊपर अपने जीवन का बलिदान करिये मत। सत्य के सामने अपना जीवन अर्पण हो जाये, तो वह मात्र अर्पण ही नहीं, एक दिन दर्पण बन जायेगा। आज तक संसारी प्राणी की दशा यही हुई है, अन्त में यही कहूँगा कि जो श्लोक पहले कहा गया है


    अवाक् विसर्गः वपुषैव मोक्षः मार्गप्रशस्तं विनयेव नित्यं ।
    ध्यानप्रधाना समतानिधाना अाचार्यवर्यं सततं जयन्ति॥

    आचार्य महोदय सतत् जयवंत रहे अर्थात् इस कामना के साथ अपने उन आचार्य को नमस्कार किया। केवल मोक्षमार्ग की प्ररूपणा शरीर के द्वारा इस दिगम्बर मुद्रा के द्वारा ही की है, बोलने के द्वारा मोक्षमार्ग का प्ररूपण नहीं होता, बिना बोले ही उस स्वर्ण या अनमोल हीरे की कीमत हो जाती है, बोलने से उसकी कीमत सही नहीं मानी जाती, यह हीरा ऐसा है जिसकी कीमत आज तक सही-सही नहीं लगाई गई, क्योंकि उसको जो खरीदने वाला व्यक्ति मुँह मांगा दाम देकर खरीदता है, जब खान में से वह निकलता है तब उसकी कीमत हजार रुपये भी नहीं होती और बाजार में जाते ही उसकी कीमत लाखों की हो जाती है। बेचने वाला और खरीदने वाला दोनों
    माला-माल हो जाते हैं।

     

    इस पवित्र जिनवाणी की बात है। इसकी छाया में जो कोई भी आया उसका जीवन निहाल हो गया। हम भी यही चाहते हैं, कि उस सत्य की छाँव में आकर के हमारा जीवन जो अनादिकाल से अतृप्त है उसे तृप्त करें, सुखमय बनायें।


    महावीर भगवान की जय


    User Feedback

    Create an account or sign in to leave a review

    You need to be a member in order to leave a review

    Create an account

    Sign up for a new account in our community. It's easy!

    Register a new account

    Sign in

    Already have an account? Sign in here.

    Sign In Now

    रतन लाल

      

    सत्य रूपी वरदान को आप छोड़िए मत और इस असत्य के ऊपर अपने जीवन का बलिदान करिये मत। सत्य के सामने अपना जीवन अर्पण हो जाये, तो वह मात्र अर्पण ही नहीं, एक दिन दर्पण बन जायेगा। 

    • Like 1
    Link to review
    Share on other sites


×
×
  • Create New...