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मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज
  • प्रवचन प्रमेय 1 - गर्भकल्याणक (पूर्वाद्धि)

       (1 review)

    यह पंचकल्याणक महोत्सव का अवसर आप लोगों को उपलब्ध हुआ है। जनता ने आग्रह किया था, प्रार्थना की, कि आप भी यहाँ पर आयें-पधारें। हमने कहा-देखो! जैसा अभी पण्डितजी ने कहा-महाराजजी कुछ कहते नहीं। मैं तो वह कहता हूँ जो आत्मा की बात होती है। आत्मा का स्वभाव देखना जानना है। इसलिए-क्या होता है ? आपको भी देखना है। लेकिन आप कुछ होने से पहले ही देख लेना चाहते हैं, जो सम्भव नहीं है।

     

    वस्तु का परिणमन जिस समय, जिस रूप में होता है, उसी को देखा जा सकता है और उसी का अनुभव किया जा सकता है। रागी, द्वेषी, कषायी, व्यसनी व्यक्ति परिणमन तो कर रहा है किन्तु वह उसका जानना-देखना छोड़कर भविष्य की लालसा में पड़ जाता है। संसार की यही रीति है। यही रीति आप लोगों को पसंद आती है इसलिए संसार में हैं। जिस दिन वस्तु का वर्तमान परिणमन हमारा ध्येय बन जाये-पेय बन जाये-ज्ञेय बन जाए, उस दिन संसार में हमारे लिए कोई भी वस्तु अभीष्ट नहीं रह जायेगी। हमने यही कहा, अभी यही कहूँगा और आगे के लिए क्या कह सकता हूँ-पता नहीं ? जब कभी भी पूछा जाए यही कहता हूँ, नहीं भी पूछे तो भी मैं यही कहना चाहता हूँ कि देखना-जानना अपना स्वभाव है तो उसे हम भूलें ना।

     

    मंगलाचरण में आचार्य कुन्दकुन्ददेव को नमोऽस्तु किया गया और प्रार्थना की कि हे भगवन्! जिस प्रकार आपका जीवन निष्पन्न-सम्पन्न हुआ, उसी प्रकार हमारा भी जीवन सम्पन्न हो। हमारा भी जीवन प्रतिपन्न हो। हम अभ्युत्पन्न-मति वाले हों। हमारे पास मति तो है, लेकिन वह मति चौरासी लाख योनियों में भटकने-भटकाने वाली है। उसको हम भूल जायें और आप जैसे बन जायें, बस और कोई इच्छा नहीं।

     

    मोक्षमार्ग इतना बड़ा नहीं है, जितना हमने समझ रखा है। हम सोचते हैं कि अनन्तकाल से परिचय में आने पर भी वह अधूरा-सा ही लगता है, कभी भी पूर्ण होता नहीं अत: मोक्षमार्ग बहुत बड़ा है, लेकिन मोक्षमार्ग बहुत अल्प-स्वल्प है। कल्पकाल से आ रहे दु:ख को, शान्ति में परिवर्तित कराने की क्षमता इसमें है। मोक्षमार्ग बहुत प्रयास करने पर प्राप्त होता है, ऐसा भी नहीं है। यह तो बहुत शान्ति का मार्ग है। जैसे-एक भवन निर्माण कराना था। देश-विदेशों से इंजीनियरों को बुलवाया गया। उन्होंने नक्शा आदि तैयार कर दस साल तक परिश्रम किया और दस-बीस लाख रुपये खर्च कर उसे तैयार भी कर दिया। लेकिन वह पसंद नहीं आया। अब तो यही समझ में आता है कि जिस प्रकार तैयार होने में दस साल और लाखों रुपये लगे हैं, वैसे इसे साफ करने में और लगेंगे। इंजीनियरों से पूछा गया-हमें यह पसंद नहीं है। इसके निर्माण में तो दस साल लग गये तो क्या इसको गिराने में भी इतना ही समय लगेगा ? उन्होंने कहा-नहीं। निर्माण के लिए बहुत समय लगता, नाश के लिए नहीं। इसी प्रकार "कर्मक्षय के लिए इतने प्रयास, जंजाल और उलझनों की कोई आवश्यकता नहीं।"आपने जीवन में बहुत कुछ कमाया है, जमाया है, अर्जित किया है व उसको बांध बूंधकर रखा है, लेकिन अब उसे छोड़ने के लिए लम्बे समय की आवश्यकता नहीं है। इतना ही आवश्यक है कि अपनी खुली आँखों को इन पदार्थों की तरफ से मोड़ लें। "दृष्टि नाशा पै धरें" बन्द भी नहीं करना है। मात्र अपनी आँखों के बीच में एक ‘एंगिल' बन जाए-कोण बन जाए तो हमारा दृष्टिकोण भीतर की ओर आ जाएगा, यही पर्याप्त है। वहीं के वहीं परिवर्तन हो जायेगा। सब वस्तुएँ वहीं धरी रहेगी। सागर, सागर में है जयपुर, जयपुर में है। जयपुर वाले वहाँ पर तभी तक हैं, जब तक कि उनका दृष्टिकोण उधर है-सम्बन्ध जोड़ रखा है। लेकिन न जयपुर आपका है ना हमारा। न सागर आपका है, ना किसी अन्य का। सागर, सागर में है। भवसागर, भवसागर में है। हम तो उसे तैर रहे हैं। बस! आप सागर में रहते हैं और हम सागर पर रहते हैं। इतना ही अन्तर है।

     

    बन्धुओ! सागर पर रहने वाला, भवसागर में रहने वाला नहीं होता। यह संसारी प्राणी नहीं हुआ करता। वह तो मुमुक्षु हुआ करता है। चाहने वाले मोही का नाम मुमुक्षु नहीं हुआ करता। "मोतुमिच्छु मुमुक्षु" मुमुक्षु, शब्द की व्युत्पति ही कहती है कि वह जोड़ता नहीं, छोड़ने की इच्छा करता है। लेकिन संसारी प्राणी जोड़ने की इच्छा करता है। भैया! आप क्या चाहते हैं। जोड़ना या छोड़ना ? जोड़ना चाहते हैं, इसीलिए मैं कहता हूँ-भैय्या! मुमुक्षु की कोटि में नहीं आ सकते। पण्डितजी अभी बोल रहे थे कि क्या छोड़े ? जो जोड़ा है, उसे ही छोड़ना है। जिसके साथ हमारी लगन है, प्यार है, जिसको हमने अपनी तरफ से इंगित किया, प्रयास के साथ अर्जित किया, उसे ही छोड़ना है। लेकिन लगता है यदि भगवान् भी कह दें तो छोड़ना आप लोगों को संभव नहीं हो सकेगा। भगवान् कह भी तो रहे हैं-‘कि तुम्हें वही छोड़ना है, जो जोड़ा है, मैंने जो जोड़ा है, वह नहीं। पूर्वावस्था से मैंने भी जो जोड़ा था उसे छोड़ दिया, लेकिन अब जो यह जुड़ गया है, वह अब जीवन का अंग/हिस्सा बन गया है।” जीवन का स्वभाव धर्म है, धर्म को कभी नहीं छोड़ना है। फिर क्या छोड़ना है ? छोड़ना वही है, जो आपने जोड़ा है, मुझे यह नहीं पता कि आपने क्या-क्या जोड़ रखा है। भगवान् का कहना तो इतना ही है कि, जो जोड़ रखा है, जोड़ते जा रहे हो और जो जोड़ने का संकल्प ले लिया है, भविष्य का, जीवन जीने के लिए जो तैयारी करने का प्रयास चल रहा है, बस! उसको ही छोड़ना है, फिर आपका भविष्य अन्धकारमय नहीं होगा। यह जो 'आर्टीफिशयल लाईट' है उससे आँखों पर चमक आ रही है, इसको फेंक दीजिए।

     

    वर्तमान में जितना भी प्रकाश है, वह आँखों को खराब करता है, अत: इस प्रकाश को छोड़ दीजिए। यह प्रकाश, प्रकाश नहीं। प्रकाश तो वह है, जिसमें कोई भी वस्तु अन्धकारमय नहीं रहे, कोई भी पदार्थ ज्ञातव्य नहीं रहे। वह प्रकाश लाइए, बाहर से ‘स्टोर' किया गया प्रकाश हमारे काम का नहीं। वह अन्धकार के सामने शोर करता है और उसे भगा देता है, लेकिन भगाने वाला प्रकाश, प्रकाश नहीं हो सकता। "प्रकाश तो अपने-आप में सबको लीन कर लेता है, चाहे वह अन्धकार ही क्यों न हो।” समन्तभद्र स्वामी ने स्वयंभूस्तोत्र में कहा -

     

    दीपस्तमः पुद्गलभावतोऽस्ति ।

    स्वयंभू स्तोत्र – ५/४

    दीपक का प्रकाश तम को कभी भगाता नहीं, किन्तु तम को ही प्रकाशमय बना देता है। वस्तु का एक स्वभाव, गुण, प्रकाशमय होना भी है तो दूसरा विभाव अन्धकारमय होना। हमारा ज्ञान एक नहीं, वहीं के वहीं सब कुछ हो जाएगा। कहीं भागना नहीं, कहीं जाना नहीं, किन्तु जो जोड़ने का भाव है, जिसके साथ जुड़न चल रहा, उसको जानना है, पहचानना है। यह कोई उलझन की बात नहीं है, बहुत सीधी-सादी बात है। मुमुक्षु जुड़ नहीं रहा, जोड़ नहीं रहा, उसे छोड़ने की इच्छा कर रहा है। छोड़ने की इच्छा, इच्छा नहीं है, वह छोड़ेगा और ऐसे छोड़ेगा कि बस यूँ आँख फेर लेगा। अरे! ऑख क्या फेरेगा ? उसमें भी तो गर्दन को व्यायाम करने की आवश्यकता है, लेकिन वह तो वहीं के वहीं, वैसा का वैसे ही स्वस्थ हो जायेगा। अब आप भले ही पूछने लग जायें कि -क्या बात हो गई, ऐसी कौन-सी उपेक्षा आ गयी। उसके लिए तो अब उपेक्षा नहीं, मात्र किसी से भी अपेक्षा नहीं है, इतना ही है। दुनियाँ की दृष्टि में वह नटखट-सा लगने लगता है। जब हमारा पेट भरा हो, तब किसी की आवश्यकता नहीं, अपेक्षा नहीं। आप मेहमान के यहाँ गये हैं। आपके सामने बहुत से व्यञ्जनों से शोभित थाली परोस दी गई और पूछा जाता है कि आपको क्या दें दे ? क्या चाहिए? .बस! इतना ही चाहिए कि अब अधिक मत पूछिए, क्योंकि हमारा पेट भरा है। आपने जो अनेक प्रकार के व्यञ्जन बना रखे हैं, इन्हें इसमें डालें, ऐसा नहीं हो सकता। भरपेट होने पर कोई इच्छा नहीं। इच्छा बताने की आवश्यकता ही नहीं। जहाँ पर अपेक्षा है, वहाँ पूछताछ होती है। जहाँ पर अपेक्षा नहीं वहाँ पर उपेक्षा हो गई। इन शब्दों की व्युत्पत्ति यूँ कहना चाहूँगा-

    "अपगतं ईक्षण यस्य सा इति अपेक्षा" 

    अर्थात् जिसके जानने-देखने की समीचीन दृष्टि ही समाप्तप्राय: है -हो चुकी है उसका नाम अपेक्षा है और "ईक्षणस्य समीपं इति उपेक्षा" अर्थात् बिल्कुल निकट से देख रहा/रहे हैं। बहुत निकट आ चुका है, इसलिए दूसरे पदार्थों की अपेक्षा नहीं, उसी का नाम उपेक्षा है। समन्तभद्राचार्य ने स्वयंभूस्तोत्र १८/५ में अरनाथ भगवान की स्तुति करते हुए कहा है -

     

    ‘‘ दृष्टिसम्पदुपेक्षास्त्रैस्त्वया धीर! पराजितः ''

    स्वयंभू स्तोत्र - १८/५

    सम्यक दर्शन-देखना, सम्पत्-आत्मा की सम्पदा ज्ञान धन। आचार्य समन्तभद्र स्वामी ने रत्नत्रय की विभिन्न स्थानों पर भिन्न-भिन्न शब्दों से बात कही है, सम्पत्-वीतराग विज्ञान। ज्ञान नहीं, किन्तु वीतराग विज्ञान। चारित्र के लिए भी उन्होंने ऐसा शब्द चुना जिसे दुनिया 'उपेक्षा' की दृष्टि से देखती है, रागद्वेष की दृष्टि से देखती है। चारित्र के लिए उपेक्षा भी बोलते हैं। जिसके पास आना किसी को इष्ट नहीं। दूर जाना तो बहुत इष्ट-सरल है। समझने के लिए, कोई व्यक्ति निर्धन था, अब उसे कुछ धन मिल गया तो उसमें गति आ गई। पहले गति तो थी लेकिन पैरों में थी। पैरों से पैदल चलता था। अब भी पैरों में गति है, लेकिन अब पैडल चला रहा है। साइकिल पर बैठ गया है। गति हो गई, प्रगति हो गई, किन्तु अभी रास्ते पर चल रहा है। जब विशेष रूप से धन कमाता है तो मोटरसाईकिल ले आता है। पहले 'बाइसिकल' थी अब 'मोटरसाईकिल' आ गई। यदि और धन आ जाता है तो उसमें गति और तेज हो जाती है। गति तो तेज होती है, पर आत्मा को छोड़कर, केन्द्र को छोड़कर, बाहर की ओर होती है। आत्मा को बहिरात्मा बना देता है धन जिससे भागने लगता है, तेज चलने से 'एक्सीडेन्ट' हो सकता है। धन की वृद्धि से वह अब मोटरसाईकिल से कार पर आ जाता है। इससे आगे कार से भी उठने लगता है। कार भी बेकार लगने लगती है तो प्लेन की बात आ जाती है। जैसे-जैसे धन बढ़ता गया, वैसे-वैसे विकास तो होता गया, लेकिन धर्म को नहीं समझ पाया, जो इसकी निजी सम्पदा है। इस प्रकार धन के विकास में संसारी प्राणी अपनी सम्पदा ज्ञान का दुरुपयोग भी करता जा रहा है।

     

    कल्पना करिए, जो पैदल यात्रा करता है, यदि वह गिर जाता है तो क्या होता है? थोड़ी बहुत चोट लग जाती है, फिर उठ जाएगा और चलने लग जायेगा। यदि साईकिल से गिर जाए तो? थोडी ज्यादा चोट लग सकती है। यदि मोटरसाईकिल से गिरे तो ? उसे उठाकर अस्पताल लाना होगा। यदि कार से दुर्घटना हो जाये तो ? गंभीर समस्या हो जाती है और यदि प्लेन से यात्रा करते हुए 'एक्सीडेन्ट' हो जाता है तो ? वह तो देवलोक ही चला जाता है। दिवंगत हो जाता है। उसके मृत शरीर का दाह संस्कार करने की भी कोई आवश्यकता नहीं पड़ती।

     

    बन्धुओ! धन असुरक्षित करता है और धर्म सुरक्षित। समन्तभद्रस्वामी ने कहा-भगवान, कामवासना को आपने कौन-से शस्त्रों के द्वारा जीता ? कामदेव को आपने अण्डर में कैसे रखा ? दृष्टि-सम्यक दर्शन, सम्पद-सम्यक ज्ञान और उपेक्षा-सम्यक्र चारित्र वीतराग विज्ञान इन तीनों शस्त्रों के द्वारा ही आपने उस वासना को, जो उपयोग में ही लीन-एकमेक हो रही थी जीत लिया। अपने अण्डर में कर संयमित बना लिया, नियमित बना लिया। यह रास्ता बहुत सरल है। इसको समझने की ही देर है कि वह सारा का सारा काम समाप्त हो जायेगा जो अनन्तकाल से चला आ रहा है।

     

    ऐसी ही भावनाओं को लेकर कोई भव्य- कश्चिद्भव्य: प्रत्यासन्न-निष्ठ प्रज्ञावान् स्वहितमुपलिप्सुर्विवित्त परमरम्ये भव्यसत्त्व-विश्रामास्पदे क्वचिदा-श्रमपदे मुनिपरिषणमध्ये संन्निषण्णं मूर्त्तमिव मोक्षमार्ग-मवाग्विसर्गं वपुषा निरूपयन्तं युक्त्यागमकुशलं परहितप्रतिपादनैक-कार्यमार्यनिषेव्यं निर्ग्रन्थाचार्यवर्यमुपसद्य सविनयं परिपृच्छति स्म । (सर्वार्थसिद्धि, पृ. १)

     

    प्रत्यासन्न भव्य, प्रज्ञावान्-बुद्धिमान-ज्ञानवान इन उपाधियों के साथ एक उपाधि है, "स्वहितमुपलिप्सु:" यह मुमुक्षु का सबसे पैनी दृष्टि वाला लक्षण है। मुमुक्षु वही है, जैसा पहले कहा था -"मोक्तुमिच्छुः मुमुक्षुः" । भोक्तुमिच्छुः। बुभुक्षुः हो जाता है। बुभुक्षु की चाह असमाप्त है और मुमुक्षु अपनी चाह को ही मेटना चाहता है। मुमुक्षु की दृष्टि, धन के विकास में नहीं, जैसे-जैसे धन का विकास चाहेगा, वैसे-वैसे वह बुभुक्षु बनता चला जायेगा। भोग के पथ पर संसारी प्राणी अनन्तकाल से चलता आया है। यह ऐसा पथ है -

     

    'कापथे पथि दुःखानाम्'

    रत्नकरण्डक श्रावकाचार-१४

    जिस पर राउंड लगाते हुए भी लगता है कि मैं बिल्कुल नये पथ पर चल रहा हूँ। वह पथ, जनपथ की ओर ले जाता है, जिनपथ की ओर नहीं, जनपथ, जिस पथ पर वासना से युक्त लोग चलते रहते हैं। जिनपथ से विपरीत दिशा की ओर ले जाता है। जनपथ, जिनपथ कदापि नहीं बन सकता |

     

    आज की यह आयोजना, जिनपथ पर चलने के लिए ही है। राग के समर्थन के लिए नहीं, वीतरागता एवं वीतरागी के समर्थन के लिए है। हमें धन का समर्थन-परिवर्धन नहीं करना किन्तु उसका परिवर्जन/विसर्जन करने का काम, इस अवसर पर करना है। धन के द्वारा नशा, वासना का ऐसा रंग चढ़ जाता है, जिससे लगता है कि हम बहुत सुख का अनुभव कर रहे हैं, लेकिन ध्यान रखिए! जैसे-जैसे धन बढ़ता जायेगा, वैसे-वैसे धर्म ओझल होता जायेगा एवं उसका पथ भी। पथ पर चलने के लिए बोझिलपना भी आता जाता है। जहाँ से उपासना प्रारम्भ होती है वहाँ बढ़ने के लिए इन पदों में शक्ति क्यों नहीं आ रही, कहाँ जा रही है? जबकि वासना की ओर बढ़ने के लिए स्वप्रेरित है। आत्मा को/जीव को उस ओर बढ़ने के लिए धन का विसर्जन आवश्यक होता है। इस प्रकार सारी इच्छाओं को विसर्जित कर अपने हित को चाहने वाला यह भव्य कहा जा रहा है। "क्वचिदाश्रमपदे मुनिपरिषण्मध्ये" एकान्त स्थल में जहाँ मुनि-महाराजों की मण्डली के बीचों बीच बैठे हैं आचार्य महाराज! वह रागी नहीं, वासनाग्रस्त नहीं, मोही नहीं, परम वीतरागी हैं। युक्ति और आगम में कुशल हैं। कुछ बोलते नहीं, वह तो अपनी मुद्रा के द्वारा, वीतराग छवि के द्वारा, नग्न काया के द्वारा मोक्षमार्ग का, बिना मुख खोले उपदेश दे रहे हैं। जैसा कि पण्डितजी ने कहा था ‘चलते फिरते सिद्धों से गुरु' ऐसे सन्त जो अरहन्त के उपासक हैं, धनपति के नहीं, धन की चाह नहीं, जो चाह की दाह में झुलसा हुआ अपना आत्मतत्व है उस आत्मतत्व को बाहर निकाल कर,जलन शान्ति रूप परिवर्तित हो जाय ।

     

    इसी प्रकार शान्ति की तलाश में निकला, वह भव्य सोचता है कि- वर्तमान में जो चीजें अच्छी लग रही हैं वे चीजें जहाँ तक अच्छी लगती चली जायेगी, वहाँ तक उनके सम्पादन में लगा रहूँगा और यह सब जनपथ का ही माहौल है। इससे मेरा उद्धार होने वाला नहीं। वह इस पथ से हटकर अपने हृदय में एक अद्भुत किरण की उद्भूति चाहता है। अत: जनपथ को छोड़कर जिनपथ की ओर आया है। वह ऐसे मुनि महाराज आचार्य महाराज को देखकर कहता है-आज मैं कृतकृत्य हो गया। मुझे आज समझ में आ गया। मैंने जो अन्यत्र देखा वह यहाँ पर देखने को नहीं मिला और जो यहाँ पर देखा वह अन्यत्र देखने के लिए नहीं मिला। सुख की मुद्रा देखने का अवसर आज मिला। सुख की मुद्रा यही है। अन्यत्र तो मात्र उसका अभिनय है।

     

    नग्नकाया में रहने वाली आत्मा के अंग-अंग से वीतरागता फूट रही है। यही एक मात्र आत्मतत्व का दिग्दर्शन है, यही हितकारी मुद्रा है, हितैषी है, हितैषी का मतलब लोक हितैषी या स्वहितैषी ? किसका हित ? क्या संसार का हित करने की आप सोच रहे हैं तो संसार का हित करने के लिए स्वयं अपने आपका हित करना आवश्यक है। जो व्यक्ति हित के पथ पर नहीं चलता वह दूसरों का हित नहीं कर सकता। मात्र हित की बात कर सकता है, लेकिन हित से मुलाकात नहीं कर सकता। हित की बात करना अलग है और हित से मुलाकात अलग। मुलाकात में उसका साक्षात्कार है, बात में नहीं। ऐसे हितकारी आत्मतत्व को दिखा नहीं सकते क्योंकि वह देखने में आता भी नहीं। पण्डितजी अभी-अभी कह रहे थे कि-जीवतत्व को पहचानना आवश्यक है। ठीक है! लेकिन उसके साथ यह भी कह गये कि अध्यात्म ग्रन्थ, आत्म तत्व का साक्षात्कार करा देते हैं। बात प्रासंगिक है, इसलिए मैं उठाना आवश्यक समझता हूँ, ताकि चार-पाँच दिनों तक उस पर विचारविमर्श हो जाए। सन्तों ने, धर्मात्माओं ने, लेखकों ने और विद्वानों ने जिनवाणी को माँ की कोटि में रखा। उन्होंने कहा -

     

    अरहंत भासियत्थ गणहरदेवेहिं गंथियं सम्म।

    पणमामि भक्तिजुक्तो, सुदणाणमहोवहिं सिरसा॥

    श्रुतभक्ति पाक्षिकप्रति. २

    उस श्रुतसागर को मेरा नमस्कार हो, जिस श्रुतसागर का उद्भव सर्वप्रथम वीरप्रभु (जिन्होंने अहन्त पद प्राप्त किया, उसके उपरान्त-उसका विश्लेषण किया) से हुआ है। वीर प्रभु ने हमें साक्षात् शाब्दिक वाणी नहीं दी, क्योंकि शब्दों का एक जाल होता है, सीमा होती है, शक्ति होती है और अपना सामथ्र्य भी। जबकि वस्तु तत्व विश्लेषण अनन्त होता है, शब्दों में अनन्त को बाँध सकने की सामथ्र्य नहीं। वस्तु तत्व उन शब्दों की पकड में आने वाला नहीं। अत: भगवान ने (वीरप्रभु ने) जो बखान किया वह अर्थश्रुत है, अर्थश्रुत को ही विश्व के सामने रखा। अब आप समझ लीजिए अर्थश्रुत अलग है और शब्दश्रुत अलग। दोनों में बहुत अन्तर है। शब्दश्रुत वह वस्तु है, जो हम लोगों तक ' डायरेक्ट लाइन' से मिलती है, सीधे अर्थ बोध कराता है। जबकि अर्थश्रुत - 'इनडायरेक्ट लाइन' माध्यम बनाकर अर्थ बोध कराता है। जैसे विद्युत लाइन दो प्रकार की होती है, एक पावर वाली और एक घर की। पावर वाली लाइन 'डायरेक्ट" होती है और घर वाली 'इनडायरेक्ट' मिलती है। वह स्टोररूम से शाखा-उपशाखाओं में विभक्त होकर घर तक दी जाती है, तभी वह जीरो वॉट से सौ वॉट तक के लिए पर्याप्त होती है। इसी प्रकार भगवान ने जो अर्थश्रुत दिया वह अनन्तात्मक है, वह साक्षात् रूप में हमारे काम का नहीं। उसको सुनकर ही गणधर परमेष्ठी ने भी उनका अनन्तवां भाग समझ पाया। अर्थात् भगवान ने जो कहा वह अनन्त और जो गणधर परमेष्ठी के पल्ले पड़ा वह उसका भी अनन्तवां भाग। छद्मस्थ के पास ऐसी कोई भी शक्ति नहीं, जो अनन्त को झेल सके। गणधर परमेष्ठी हमारे पूजनीय, हमसे बड़े हैं लेकिन वह भी छद्मस्थ ही है। इसलिए अनन्त को झेलने की क्षमता उनके पास भी नहीं। इसके बाद, उन्होंने जितना झेला, उसे पूरा का पूरा द्वादशांग के रूप में नहीं दे सके। कोई भी ‘माइण्ड" ऐसा नहीं है जो जितना विचार करे और उतने को-पूरे को ही शब्द का रूप दे सके। शब्द में उतना आ नहीं सकता, क्योंकि विचार, जानना वह तो बहुत प्रवाह के साथ होता है, लेकिन शब्द उसको बाँधता है, जो आसान नहीं।

     

    जिस प्रकार नदी प्रवाहक बहुत होती है, परन्तु बीच-बीच में ४०-५० मील पर बाँध बाँधकर काम लेते हैं, उसी प्रकार अनन्तप्रवाह रूप श्रुत को एक मात्र बाँध के रूप में संग्रह किया, जिसका ही नाम जिनवाणी है। गणधर परमेष्ठी ने उन तत्वों को जो कि सांसारिक उलझनों में काम आने की गुंजाइश रखते हैं, समीचीन रूप से पिरोया है। अनन्त तत्वों को कभी गूंथा नहीं जा सकता। उनको मात्र जाना जा सकता है। गणधर परमेष्ठी ने अनन्त को अभी नहीं जाना, कैवल्य के उपरान्त जानेंगे, यह बात अलग है।

     

    भगवान् ने जो जाना वह अनन्त, जो कहा वह अनन्तवाँ हिस्सा। इसके बाद गणधर प्रभु ने जो समझा-झेला वह उसका भी अनन्तवाँ हिस्सा तथा जिसको शब्द का रूप दिया, वह उसका भी अनन्तवाँ हिस्सा, इसके उपरान्त, जो द्वादशांग के रूप में कहा गया वह भी उसका अनन्तवाँ हिस्सा, जिसको ग्यारह अंग और चौदह पूर्वो के नामों से जाना जाता है। इसके बाद

     

    'भरतैरावतयोर्बुद्धिह्रासौं षट्समयाभ्यामुत्सर्पिण्यवसर्पिणीभ्याम्'

    तत्त्वार्थसूत्र – ३/२७

    इसके अनुसार क्षीण होता गया। जैसा हम लोगों का पुण्य उसी के अनुरूप यहाँ आ करके खड़ा हुआ है। आज एक अंश का भी ज्ञान नहीं है। जिन कुन्दकुन्द भगवान को हम मंगलाचरण में याद करते हैं, उनको भी एक अंग का ज्ञान नहीं था। ऐसा जिनवाणी ही उचरती है। जितना था, उतना तो था, लेकिन इतना नहीं था जितना कि हम समझ लेते हैं। उनको अनन्त ज्ञान नहीं था। एक अंग का भी ज्ञान नहीं था, क्योंकि अंग का पूर्ण ज्ञान होना अलग है और उसके कुछ-कुछ अंशों का ज्ञान होना अलग। इसी कालक्रम में जिनवाणी की यह स्थिति आ गई कि उसे चार अनुयोगों के रूप में बाँटा गया। चार अनुयोगों की जो परिभाषा वर्तमान में हम लोग समझते हैं, वह प्राय: सम्यक्र नहीं है। हमें जिनवाणी माँ की सेवा करना है तो उसके स्वरूप को भी समझना होगा। तभी नियम से उसका फल मिलेगा, इसमें कोई सन्देह नहीं। माँ हमें मीठा-मीठा दूध पिलाती है, नीचे का, जिसमें कि मिश्री अधिक होती है क्योंकि उसे ही खिलाने-पिलाने का ज्ञान होता है। इसके साथ-साथ अच्छी-अच्छी बातें समझाने वाली माँ ही होती है।

     

    जिनवाणी-प्रथमानुयोग, करणानुयोग, चरणानुयोग और द्रव्यानुयोग के भेद से चार भागों में बाँटी गई। लेकिन प्रथमानुयोग क्या है ? करणानुयोग क्या है? चरणानुयोग क्या है? द्रव्यानुयोग क्या है? यह जानना बहुत ही आवश्यक है। इसके समझे बिना, जिनवाणी को सही-सही जाने बिना भटक जायेंगे। जिनवाणी ऐसे-ऐसे प्वाइंट दे देती है, जिससे हमारा कल्याण बहुत जल्दी हो सकता है/हो जाता है। वह हमें शार्टकट भी बता देती है। हमारा जीवन बहुत कम/छोटा है, उसमें भी काल का सदुपयोग हो तभी जिनवाणी का सही-सही ज्ञान एवं जिनवाणी के सहारे से चारों अनुयोगों का सही-सही ज्ञान हो सकता है। आचार्य समन्तभद्रस्वामी हुए हैं, जो पहले भगवान की स्तुति न कर परीक्षा लेते थे और बाद में ऐसे 'सरेण्डर' हो जाते थे कि उन जैसे शायद ही कोई अन्य मिले। इतनी योग्यता थी उनमें। उन्होंने कहा -

     

    प्रथमानुयोगमर्थाख्यानं, चरितं पुराणमपि पुण्यम्।

    बोधिसमाधिनिधानं बोधति बोध: समीचीन:॥

    (रत्नकरण्डक श्रावकाचार-४३)

    भगवन्! आपका प्रथमानुयोग बोधि और समाधि को देने वाला है। बोधि-रत्नत्रय की प्राप्ति। समाधि–अन्तिम समय सल्लेखना के साथ समता के परिणाम अर्थात् रत्नत्रय को देने और उसमें सफलता प्राप्त कराने की क्षमता इस प्रथमानुयोग में है। प्रथमानुयोग बहुत 'राउण्ड' खा करके तत्व पर भले ही आता है, लेकिन प्रथमानुयोग पढ़ने के उपरान्त समन्तभद्र स्वामी जैसे कहते हैं कि यह बोधि और समाधि का निधान अर्थात् भण्डार है। यह तो प्रथमानुयोग की बात हुई। अब चरणानुयोग क्या है ? इसे कहते हैं -

     

    गृहमेध्यनगाराणा चारित्रोत्पत्तिवृद्धिरक्षाङ्गम्।

    चरणानुयोगसमयं, सम्यग्ज्ञानं विजानाति॥

    (रत्नकरण्डक श्रावकाचार-४३)

    चरणानुयोग हमें चलना-फिरना सिखाता है। कैसे चलें और किस ओर चलें ? इसका निर्णय तो हमने कर लिया, किन्तु चाहे सागार हो या अनगार, दोनों के लिए उस ओर जाने के साथ पाथेय होना अनिवार्य है। वह पाथेय इस चरणानुयोग से मिलता है। इसके बारे में कोई विशेष चर्चा की आवश्यकता नहीं है। मात्र करणानुयोग और द्रव्यानुयोग को ही सही-सही समझना है कि करणानुयोग क्या है ? और द्रव्यानुयोग क्या है ? इन दोनों के बारे में ही बहुत-सी भ्रान्तियाँ हुई हैं। समन्तभद्राचार्य ने करणानुयोग के लिए कहा है -

     

    लोकालोकविभतेर्मुगपरिवृत्तेश्चतुर्गतीनां चत्र ।

    आदर्शमिव तथामति-रवैति करणानुयोगं च ||

    (रत्नकरण्डक श्रावकाचार-४४)

    जहाँ पर लोक और अलोक का, चारों गतियों का, नरक-स्वर्गादिक का विभाजन हो अथवा कम शब्दों में कहे तो भौगोलिक-स्थितियों का वर्णन करने वाला करणानुयोग है। करणानुयोग का अर्थ हुआ-भौगोलिक जानकारी देने वाला। जैनाचार्यों का भूगोल किस प्रकार का है, यह बताता है और खगोल किस प्रकार का यह भी। गोल, होने की बात को गोल कर दीजिए क्योंकि यह तो आज विसंवादित विषय है। मैं तो यहाँ पर करणानुयोग का विषय बताना चाहता हूँ-नरक, स्वर्ग, नदी, पहाड़, समुद्र, अकृत्रिम चैत्यालय और ऊध्र्व-मध्य-अधोलोकों के विस्तार को आदर्शमिवदर्पण के समान करणानुयोग सब कुछ, स्पष्ट करता है-सामने रख देता है। ये चराचर जीव -

     

    चौदह राजु उत्तंग नभ, लोक पुरुष संठान।

    तामें जीव अनादितै भरमत हैं बिन ज्ञान।

    (बारह भावना)

    इस लोक में-संसार में भ्रमण कर रहे हैं ? यह सब ज्ञान करणानुयोग से होता है। संस्थान विचय धर्मध्यान के लिए यह सब जानना आवश्यक है। यह जानना अनिवार्य है कि कौन-कौन जीव, कहाँ-कहाँ भटक रहे हैं ? हम कहाँ पर भटक रहे हैं, हमारा कहाँ उद्धार होगा। किन कारणों के द्वारा उद्धार हो सकता है। क्षेत्र की अपेक्षा भी ज्ञान होना चाहिए। हम कहाँ पर रह रहे हैं ? निराधार तो नहीं हैं ? कौन-सा आधार है ? यह सब ज्ञान होना आवश्यक है।

     

    अब द्रव्यानुयोग आ गया। द्रव्यानुयोग का रहस्य समझना बहुत कठिन है, बहुत गहरा है। अत: पहले उसे परिभाषित करना चाहूँगा। आचार्य समन्तभद्र स्वामी के शब्दों में -

     

    जीवाजीवसुतत्त्वे पुण्यापुण्ये च बन्धमोक्षी च।

    द्रव्यानुयोगदीप: श्रुतविद्यालोकमातनुते॥

    (रत्नकरण्डक श्रावकाचार-४६)

    समन्तभद्राचार्य ही एक ऐसे आचार्य हुए जिन्होंने चारों अनुयोगों को बहुत स्पष्ट किन्तु अल्प शब्दों में बहुत गहरे अर्थ के साथ परिभाषित किया। संसार में छोड़ने योग्य मात्र पाप और पुण्य, ये दो ही हैं, तीसरी कोई वस्तु नहीं। इन दोनों बन्धनों में ही सभी बंधे हुए हैं। उनको हम छोड़ना चाहते हैं लेकिन छूटे कैसे ? कब और किस विधि से ? इसका वर्णन करने के लिए आचार्यों ने द्रव्यानुयोग की रचना की। बन्ध क्या है और मोक्ष क्या? आस्रव क्या और संवर क्या ? किस गुणस्थान में कौन-कौन से कर्मों का आस्रव होता है और किस-किस का बन्ध ? आस्रव और बन्ध ही तो संसार के कारणभूत हैं। इनके द्वारा हमारा कभी भी कल्याण होने वाला नहीं। संवर और निर्जरा, मोक्ष तत्व के लिए कारण हैं-मोक्षमार्ग हैं। मोक्ष तत्व इनसे भिन्न है। इस प्रकार का विभाजन द्रव्यानुयोग में किया गया है। इन सातों तत्वों, नव पदार्थों और छह द्रव्यों का जानना द्रव्यानुयोग से होगा। आप पूछ सकते हैं कि द्रव्यानुयोग में कौन-कौन से ग्रन्थ लेना चाहिए? कारण कि कुछ लोगों कि धारणा यह हो सकती है कि द्रव्यानुयोग में केवल समयसार, नियमसार, पंचास्तिकाय, प्रवचनसार आदि कुन्दकुन्द स्वामी के ग्रन्थ ही आते हैं, लेकिन ऐसा नहीं है।

     

    इसके दो भेद करने चाहिए। जैसा कि अभी पण्डितजी ने भी कहा था कि आगम और परमागम दो नाम आते हैं। जैनाचार्यों ने इसे आगम और अध्यात्म नाम दिये हैं।' अध्यात्म' यह शब्द हमारा नहीं है बल्कि आचार्य वीरसेनस्वामी ने उपयोग किया है। कहने का मतलब, दो भेद हो गये-आगम और अध्यात्म। अब आगम के भी दो भेद करने चाहिए-दर्शन और सिद्धान्त। दर्शन-जो षट्दर्शनों का बोध देने वाला है अर्थात् न्याय की पद्धति को लेकर जैसा आचार्य समन्तभद्र, अकलंकदेव, पूज्यपादस्वामी आदि कई आचार्यों ने न्याय की पताका फहरायी, न्याय का बोध कराया उसे दर्शन कहते हैं। उन्होंने जैनतत्व क्या है ? इसको दर्शन के माध्यम से ही विश्व के कोनेकोने तक पहुँचाने का प्रयास किया। इसी के माध्यम से हम विश्व को समझा सकते हैं, सिद्धान्त और अध्यात्म के माध्यम से नहीं। अध्यात्म के माध्यम से समझाया नहीं जाता, किन्तु वह तो, हमारे पास क्या है ? हमारी स्थिति क्या है ? इसकी जानकारी करा देता है। वह आत्मतत्व को स्पष्टरूपेण बता देता है। वैसे तो आत्मतत्व को सब लोग मानते हैं। परन्तु वे सभी अध्यात्मनिष्ठ नहीं है। इस प्रकार दर्शन और सिद्धान्त में भेद है। दर्शन के ग्रन्थों में भी न्याय-ग्रन्थों को संग्रहित करना चाहिए।

     

    सिद्धान्त के दो प्रकार 'जीवसिद्धान्त' और ‘कर्मसिद्धान्त' जानना चाहिए। कर्मसिद्धान्त में बन्ध क्या, मोक्ष क्या, संवर क्या और आस्रव क्या ? यह सभी कुछ बताया जाता है। और जीव सिद्धान्त में जीव के भेद, योनिस्थान और जीव कहाँ-कहाँ पर रहता है ? उसको जानने के लिए, ढूँढ़ने के लिए, मार्गणा के अनुसार ढूँढ़ना होगा-इस प्रकार का वर्णन होता है। षट्खण्डागम में मार्गणा के ईहा, ऊहा, अपोहा, मार्गणा, मीमांसा आदि नाम बताये हैं। यानि जीवसिद्धान्त के बारे में और कर्मसिद्धान्त के बारे में ऊहापोह करो, छानबीन करो। इस प्रकार आगम के भेद, दर्शन और सिद्धान्त को समझा। अब अध्यात्म की ओर आते हैं।

     

    अध्यात्म को भी दो प्रकार से, एक भावना और दूसरा ध्यान, जानना चाहिए। भावनाओं में बारह भावना, सोलहकारणभावना, मेरीभावना और तपभावनाएँ आदि-आदि लेना चाहिए। जिन भावनाओं के माध्यम से 'डीप' (गहरे में) उतर सकते हैं, उन्हें लेना चाहिए।

     

    'वैराग्य उपावन माई चिन्तै अनुप्रेक्षा भाई'

    छहढाला की पंक्ति है यह। छहढालाकार दौलतरामजी ने तो गागर में सागर को समाहित कर दिया। अर्थात् भावना के साथ ही लक्ष्य में विशेष लगाव होता है। एक आंग्ल कवि ने कहा-भोजन करने से पहले भोजन की भावना आवश्यक है। इससे भूख अच्छी लगती है, कड़ाके की लगती है, जिसे उदीरणा कहते हैं ? भोजन के समय एक आमंत्रण और एक निमंत्रण ये दो चीजें होती हैं। समझे की नहीं समझे। आमंत्रण करके जल्दी से नहीं बुलायेंगे। एक बार कहकर चले जायेंगे, ताकि आप लोग अन्य भावनाओं से निवृत्त होकर केवल भोजन की ही भावना करें। २-३ घण्टे होने पर कड़ाके की भूख आ जाएगी तब आप भोजन को बैठेगे। अर्थात् भूख अच्छी खुल जानी चाहिए। इसे अपने शब्दों में कहें यदि भोजन करना है तो अच्छे ढंग से करो इसीलिए आपको ९ बजे बता देंगे कि भोजन अच्छा होगा, स्वादिष्ट होगा अमुक-अमुक चीजें बनेंगी, पर्याप्त मात्रा में मिलेंगी, लेकिन १२ बजे मिलेंगी-कहा जाता है।

     

    यहि बात भवन की है, वैराग्य की है | आप लोग ऊपर छत्र अर्थात पंखा लटका रहे है |चला रहे हैं और कहें- 'पल रुधिर राध मल थेली कीकस वसादिते मैली' तो कभी भी शरीर के प्रति वैराग्य होने वाला नहीं। फिर कैसे हो ? यह बहुत गन्दा है, ऊपर गंध न लगाकर गन्दगी की अनुभूति करिए, अपने आप ही इसके प्रति घृणा हो जाएगी। आज तो आप लाइफबाय लगा लेते हैं, क्रीम लगा लेते हैं। आप हमाम का प्रयोग कर, टिनोपाल के कपड़े पहनकर, स्नो पाऊडर लगाकर बारह भावनाओं का चिन्तन करना चाहते हैं। लेकिन इस विधि से तो बारह भावनाओं में न उतरकर,वैराग्य में न डूबकर, निद्रा देवी से घिर जाते हैं। यह वासना की स्थिति है, जिसका वर्णन हम नहीं कर सकते। इसलिए भावनाओं का सही रूप रखें, तब ही अध्यात्म में ज्ञान की गति होगी।

     

    अब ध्यान की बात आती है। ध्यान कैसे करें और कौन करें ? ध्यान की चर्चा तो समयसार, प्रवचनसार, पञ्चास्तिकाय आदि कुन्दकुन्ददेव का जितना भी साहित्य है, वह करता ही है, लेकिन उस साहित्य के अनुरूप लीन होने की क्षमता किसमें है? स्वसमय में ही वह क्षमता है। आचार्य कुन्दकुन्ददेव कहते हैं कि मैंने तो एक ही गाथा में सब कुछ कह दिया जो कहना था वह यह- सम्यक दर्शन, सम्यक ज्ञान और सम्यक चरित्र से युक्त स्वसमय है तथा पर में स्थित वह परसमय है। यह स्वसमय एवं परसमय की चाकलेट जैसी परिभाषा है। मैं कुन्दकुन्ददेव की एक-एक गाथा को चाकलेट समझता हूँ। चाकलेट कौन खाता है और कैसे खायी जाती है? चाकलेट खायी नहीं जाती, चूसी जाती है। कौन चूसता है खाली पेट वाला? नहीं। खाली पेट वाला तो तीन काल में नहीं चूस सकता। उसको तो भूख लग रही है। जल्दी-जल्दी खा लेना चाहता है, स्वाद भी नहीं ले सकता। वह यदि चाकलेट खाता है तो उसको कोई फल नहीं, कारण चाकलेट खाने की चीज ही नहीं। मैं यही सोच रहा हूँ कि एक ही गाथा के द्वारा, स्वाद ऐसा आ जाता है। फिर चार सौ उनतालीस की क्या आवश्यकता। कोई भी एक गाथा ले लीजिए उसमें भी वही है। जिसको संसार के भोगों की भूख है वह इन गाथाओं को चाकलेट के रूप में काम न लेकर सीधा खा जाएगा और कुन्दकुन्द स्वामी के द्वारा निहित स्वाद को नहीं ले सकेगा। आज प्राय: यही हो रहा है। सारा समयसार मुखाग्र है। अरे! समयसार को मुखाग्र करने की जरूरत नहीं हृदयंगम करने की आवश्यकता है। आज समयसार, पञ्चास्तिकाय, प्रवचनसार आदि का जो असर पड़ा है मात्र सिर तक ही पड़ा है। यदि भीतर उतर जाएंगे तो आपको ज्ञात होगा कि यह समयसार ग्रन्थ भी, जो बाहर दिख रहा है, भार हो जाएगा। यह ग्रन्थ भी ग्रन्थि का रूप धारण कर लेगा। किसके लिये ? जो पेट भर खा लेता है। पेट भरने के बाद उसे कोई भी अच्छी से अच्छी वस्तु दिखा दीजिए तब यही कहा जाएगा - 'उहूँ!" भैया! ऐसा क्यों कह रहे हो? मान नहीं रहे हो आप तो मैं क्या करूं? नहीं एक और ले लीजिए। भैय्या ! लेने को तो ले लंगा परन्तु उल्टी हो जाएगी।

     

    उसी तरह समयसार पढ़ने के उपरान्त उल्टा-रागद्वेष की बात समझ में नहीं आती। चमकदमक की ओर दृष्टि हो, स्व से बाहर आना खतरनाक न लगे, यह सब समझ में नहीं आता। पण्डितजी अभी कह रहे थे, मुनि महाराज बाहर आ जाए तो पंचपरमेष्ठी-परमात्मा और भीतर रहेंचले जाएँ तो आत्मा। आत्मा और परमात्मा को छोड़कर कुछ नहीं। बिल्कुल ठीक। लेकिन अन्दर बाहर यह क्यों हो रहा है ? जब तक सोलहवीं कक्षा पार नहीं कर ले तब तक यह होगा, कारण उसके भिन्न-भिन्न प्रकार के 'सब्जेक्ट" होते हैं। परन्तु एम.ए. में एक ही रहेगा। एम.ए. के आगे वह विद्यार्थी नहीं रहता, परीक्षा नहीं होती। अब आया समयसार में। समयसार अर्थात् शोध, सोलह कक्षाओं में पार होने के उपरान्त ही किया जाता है। लेकिन ध्यान रखिए -

     

    'शब्द सो बोध नहीं,

    बोध सो शोध नहीं'

    (मूकमाटी)

    शब्द कहते ही बहुत आगे की ओर चले जाते हैं, परन्तु उसका नाम बोध नहीं। शब्द अलग है और बोध अलग। इसी तरह बोध ही शोध नहीं है। बोध अलग है और अनुभव (शोध) अलग। पहले तो शब्द के माध्यम से बोध दिया जाता है कि संसार में क्या-क्या है, फिर उसके बाद एक विषय की ध्यान का विषय बनाते हैं।

     

    आजकल की बात बिल्कुल अलग है कि बिना निर्देशक के भी शोध हो रहे हैं। पण्डितजी! आपने भी तो शोध किया है। अजमेर की बात है। जब पहली-पहली बार टोडरमल स्मारक से आये थे आप। उस समय मैं महाराज श्री के पास में ही बैठा था। धोती-कुतें पर नहीं आये थे, शायद आप पायजामा पहनते थे। उस समय किसी ने कहा था-आप शोध कर रहे हैं। क्या विषय है? टोडरमलजी के व्यक्तित्व एवं कर्तृत्व पर। बहुत अच्छी बात है। हमने पूछा- निर्देशक कौन है ? सम्भव है ‘सागर यूनिवर्सिटी' से था। कोई प्रसंगवश ये भी बताया कि आजकल शोध की 'थ्योरी' भी कुछ अलग है। आजकल ऐसे भी निर्देशक होते हैं, जिनके ‘अण्डर' में शोध किया जा रहा है, परन्तु उन्हें उस विषय का ना तो आगे का, ना पीछे का और ना बीच का ही ज्ञान है। वे उन्हें उपाधियाँ दिला रहे हैं। पण्डितजी ! जिन्हें क क ह भी नहीं आता उनसे आप उपाधि ले रहे हैं। उनसे कोई उपाधि नहीं लेना चाहिए। यदि उपाधि लेना ही है तो कुन्दकुन्दाचार्य, समन्तभद्राचार्य, अमृतचन्द्रजी और जयसेन आदि हैं, इनसे लीजिए तो वह वस्तुत: उपाधि कहलायेगी। अध्ययन करना तो वस्तुत: अपने से ही होता है, निर्देशक तो मात्र व्यवहार चलाने के लिए है। आज निश्चय को कोई प्राप्त नहीं करना चाहता । अध्ययन अलग है और मनन-चिन्तन अलग Iपठना-पाठन और भी अलग है। भिन्न-भिन्न शब्द हैं, भिन्न-भिन्न वस्तुएँ । समभिरूढ़ नय की अपेक्षा इनका वाच्यभूत विषय भी बहुत भिन्न-भिन्न है। इसलिए 'शब्द सो बोध नहीं, बोध सो शोध नहीं।”

     

    हमें आत्मा का शोध-अनुभव करना है, इसलिए सर्वप्रथम ध्यान करना होगा और ध्यान के लिए भावना की आवश्यकता पड़ेगी। भावना, बिना भूमिका के नहीं होती। देख लीजिए संवर के प्रकरण को, आचार्य उमास्वामी आदि आचार्यों ने कहा -

     

    ‘‘ स गुप्तिसमितिधर्मानुप्रेक्षापरिषहजयचारित्रैः ?" 

    तत्त्वार्थसूत्र – ९/२

    ये जितने भी हैं, वह एक-दूसरे के लिए निमित-नैमितिक या कार्य-कारणपने को लेकर हैं। अर्थात् संवर करने के लिए गुप्ति की आवश्यकता, गुप्ति के लिए समिति की, समिति के लिए धर्म की, धर्म के लिए अनुप्रेक्षा की, अनुप्रेक्षा के लिए परीषहजय की और परीषहजय के लिए चारित्र की आवश्यकता है और चारित्र प्राप्ति करने के लिए सबसे पहले बाधक तत्वों को छोड़ना पडेगा।

     

    वत्थुपडुच्च जंपुण, अज्झवसाणं तु होदि जीवाणं।

    ण ह वत्थुदो दु बंधो, अज्झवसाणेण बंधोक्ति॥

    समयसार - २६५

    आचार्य कुन्दकुन्द भगवान् ने एक जगह बन्ध की व्याख्या करते हुए कहा-वस्तु मात्र से बन्ध नहीं होता। बन्ध तो अध्यवसान के कारण होता है। अध्यवसान स्वयं बन्ध तत्व है। एक शिष्य ने महाराज से कहा-आपने बहुत अच्छी बात कही कि अध्यवसान से बन्ध होता है तो हम अध्यवसान नहीं करें। वस्तुओं को छोड़ने की बात अब छोड़ देना चाहिए। आचार्य ने कहा- मैं आपके ही मुख से यह बात सुनना चाहता था। बहुत अच्छी बात कही। मैं वस्तु के लिए कहाँ छुड़वा रहा हूँ? और यदि छोड़ने की कोशिश भी करोगे तो क्या-क्या छोड़ सकोंगे ? लेकिन मैं पूछता हूँ - वस्तु के प्रति जो राग है, मोह है उसे भी छोड़ना चाहोगे, कि नहीं ? हाँ! उसको तो छोड़ना चाहूँगा। हमारे अन्दर जो राग, मोह, द्वेष हो रहे हैं, वह वस्तु को बुद्धि में पकड़ रखने के कारण ही हो रहे हैं। इसीलिए हमने पहले वस्तु को छोड़ने की बात कही। समझने के लिए-आपके सामने एक थाली परोस दी गई, भले ही आप भोजन नहीं करना चाहते हैं। आप यह भी कह रहे हैं कि मुझे भोजन की इच्छा बिल्कुल नहीं। फिर भी कहा जा रहा है कि आप अपनी रुचि के अनुसार कुछ भी खा लीजिए। अब आपका हाथ किस ओर जायेगा? बिना अभिप्राय आपका हाथ रसगुल्ला की ओर ही जाये, यह सम्भव नहीं। यह कोई 'कंप्यूटर-सिस्टम' करके हाथ में ज्ञान भर दिया गया है क्या ? इसलिए रसगुल्ला की ओर जाता है और वहीं पर रखी है रुखी-सूखी बाजरे की रोटी, उसे नाक सिकोड़कर उपेक्षा की दृष्टि से देख रहा है। आखिर ऐसा क्यों ? हमने हाथ को पूछा, क्योंकि आपसे तो कुछ पूछ नहीं सकते, कारण आपने कह दिया-मेरे पास कोई राग नहीं, द्वेष नहीं, इच्छा नहीं। इसलिए हाथ को पूछा। लेकिन हाथ का कहना है-मुझे क्या पूछ रहे हो ? हम तो केवल काम करने वाले हैं। फिर करा कौन रहा है? भीतर पूछो, भीतर। भीतर कौन पूछे, कौन जाए भीतर? न जाइए, कोई बात नहीं, लेकिन मुखमुद्रा ही हृदय की सूचना है। हृदय में जो बात होगी, वहीं अंग और उपांग की चेष्टाओं से बाहर आयेगी। इसलिए राग भीतर है तभी वस्तुओं का संकलन हुआ-'यह बात अमृतचन्द्रजी ने स्पष्ट रूप से कही आत्मख्याति में" इसीलिए हम अध्यवसान से पहले वस्तु को छुड़ा रहे हैं। यदि वस्तुओं को नहीं छोड़ा तो तीन काल में भी अध्यवसान छूटने वाला नहीं।

     

    "बिन जाने तै दोष गुनन को कैसे तजिये गहिये"

    छहढाला – ३/११

    वस्तुओं को छोड़िये और यह भी जानिये कि क्या छोड़ना है। यह ज्ञान जिसको नहीं होता वह तीन काल में भी वस्तु तत्व को प्राप्त नहीं कर सकता। हमें गुणों को तो प्राप्त करना है और दोषों को निकालना है। ध्यान रखिये, मात्र बातों के जमा खर्च से कुछ भी होने वाला नहीं, चाहे जीवन भी क्यों न चला जाये, कुछ करना होगा। सर्वप्रथम जो ग्राह्य है, उसे जानना-पहचानना आवश्यक है और इसके साथ उसके 'अगेन्स्ट" को भी जानना आवश्यक है। उपाय के साथ-साथ अपाय भी जानिए। उस उपाय को प्राप्त करने में किससे बाधा आ रही है, दुख क्यों हो रहा है? दु:ख को समझना ही सुख को प्राप्त करने का सही रास्ता है। आचार्य पूज्यपादस्वामी ने एक जगह कहा-हे भगवन्! हम आपके पास इसलिए नहीं आये कि आप बुला रहे हैं। इसलिए भी नहीं कि आपकी पहचान पहले से है या आप सुख को जानते-देखते हैं। बल्कि हमें तो ऐसी पीड़ा हुई कि उससे हम भागने लगे और भागते-भागते हर जगह गये लेकिन शान्ति नहीं हुई, परन्तु आपके चरणों में आते ही मन को बहुत शान्ति हो गई, इसलिए आए हैं।

     

    दु:ख को हम छोड़कर आये, पुरुषार्थ हमारा है और भगवान् के सान्निध्य में आये। इधर रास्ते तो बहुत हैं-पथ बहुत हैं, जहाँ-जहाँ भटकने से च्युत होता गया, उनको छोड़ता गया और यहाँ तक आ गया। यही सच्चा पुरुषार्थ है-स्व की ओर मुड़ना ही पुरुषार्थ है।

     

    इस प्रकार द्रव्यानुयोग के द्वारा कर्मसिद्धान्त जीवसिद्धान्त के द्वारा जीव, अजीव, बन्ध और आस्त्रवादि तत्वों को जानिए। इनके १४८ प्रकार के कर्मों के बारे में जानिए। किस द्रव्य का कैसाकैसा परिणमन होता है, इसको समझने का प्रयत्न करिए। जैनागम में तीन चेतनाएँ- कर्मफलचेतना, कर्मचेतना और ज्ञानचेतना ही कहीं गई हैं। कोई चौथी-कालचेतना नहीं। आदि की दो चेतनाओं के द्वारा ही जीव संसार से बँधा हुआ है। एक कर्म करने वाली चेतना, एक कर्म को भोगने वाली चेतना और एक केवलज्ञान का संवेदन करने वाली चेतना। इन चेतनाओं को भी द्रव्यानुयोग से ही समझा जा सकता है।

     

    सव्वे खलुकम्मफलं थावरकाया तसाहिकजजुर्द।

    पाणिन्तमदिक्कता णाणां विदंति ते जीवा॥

    जिसमें कर्मफलचेतना तो समस्त एकेन्द्रिय जीवों को हुआ करती है, कर्म के फल को बिना प्रतिकार किए सहन करते रहते हैं। दूसरी कर्मचेतना कर्म करने रूप में प्रवृत्ति है, जिसमें त्रसादिक जीव इष्टानिष्ट के संयोग-वियोग से प्रतिकारादिक की क्रिया, भाव करते रहते हैं और तीसरी ज्ञानचेतना है, जिसके संवेदन के लिए आचार्य कुन्दकुन्ददेव कहते हैं कि उस ज्ञानचेतना की बात क्या बताऊँ, जिसका संवेदन (अनुभव) मात्र सिद्धों को ही हुआ करता है। आचार्य कुन्दकुन्ददेव ने पञ्चास्तिकाय में ‘पाणितमदिक्कता' शब्द लिखा है। जिसकी टीका करते हुए आचार्य जयसेनस्वामी लिखते हैं कि जो प्राणों से अतिक्रांत अर्थात् रहित हो चुके हैं। यानि दस प्रकार के प्राणों से रहित, तो मात्र सिद्ध परमेष्ठी हुआ करते हैं, उन्हीं सिद्ध परमेष्ठियों के लिए इस ज्ञानचेतना का संवेदन हुआ करता है। धन्य है ज्ञानचेतना जिसकी अनुभूति संसार में रहते हुए केवली अहन्त परमेष्ठी को भी नहीं हुआ करती है।

     

    इस प्रकार चारों अनुयोगों के विभाजन को, जो निराधार नहीं, आधार के अनुसार कहा गया। एक बार पुन: द्रव्यानुयोग में आने वाले ग्रन्थों को गिन लें- जीवकाण्ड, कर्मकाण्ड, श्रीधवला, श्री जयधवला, महाबन्ध आदि ये सभी सिद्धान्त एवं समयसार, पञ्चास्तिकाय, प्रवचनसार, द्रव्यसंग्रह आदि अध्यात्म में। इसके साथ-साथ भावना ग्रन्थ भी गिनना चाहिए। ज्ञानार्णवकार आचार्य शुभचन्द्र ने कहा-भावना ही एकमात्र अध्यात्म का प्रवाह है। अत: अध्यात्म तक पहुँचने के लिए अनुप्रेक्षा जरूरी है। भावना 'आर्टिफिशयल' नहीं होना चाहिए। भावना, भावना के अनुरूप होती है तब -

     

    "भावना भवनाशिनी"

    भावना ही भव का, संसार का उच्छेद करा देती है। आप लोगों का यह जिज्ञासु-भाव सराहनीय है। आपकी भावना ऐसी ही होती रहे, ऐसी भगवान से प्रार्थना करता हूँ। आप प्रभावना की ओर न देखकर भावना की ओर देखें और समझे कि हमारी भावना किस ओर बढ़ रही है। यदि विषयों की ओर नहीं है तो मैं समझुंगा कि आज का यह प्रवचन सार्थक है, नहीं तो काल अपनी गति से चल ही रहा है और हम अपनी चाल से। इससे कुछ होने वाला नहीं। हमारे द्रव्य का परिणमन, गुण का परिणमन और आत्म-परिणति, तीनों अशुद्ध हैं, इस अशुद्धता का अनुभव करना हमें इष्ट नहीं। अत: शुद्धि के अनुभव की ओर बढ़ें।


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