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नव आचार्य श्री समय सागर जी को करें भावंजली अर्पित ×
मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज
  • तेरा सो एक 6 - देव दर्शन

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    "जो व्यक्ति अरहंत भगवान् को जानता है, उनके द्रव्य, गुण और पर्याय-समूह को जानता है, वही व्यक्ति अपने आत्म-तत्व को जान सकता है।" देव की आराधना मानव को भी देव बना देती है, लोक में कहावत प्रसिद्ध है कि दीप से दीप जलता है। एक माँ ने अपने बालक से कहा 'बेटा! यह दियासलाई है, इससे दीपक जला लो।” बालक ने एक के बाद एक कड़ी को जलाते हुए दियासलाई खाली कर दी। पर, दीपक नहीं जला। अन्त में माँ से कहता है-माँ दीपक जला नहीं, पूरी दियासलाई समाप्त हो गयी! माँ ने दीपक हिलाकर कहा-बेटा! इसमें तेल तो है नहीं, कैसे जलता, तेल ही तो दीपक का उपादान कारण है। वही दीप-रूप परिणत होता है, उसके बिना दीपक कैसे जलेगा? तेल और बत्ती होने के साथ-साथ बत्ती की मुख-शुद्धि भी होना आवश्यक है, यदि उसके ऊपर काली-काली कीट लगी हुई है तो भी दीपक का जलना कठिन है।


    कहने का तात्पर्य यह है कि यदि आप लोग देव बनना चाहते हैं तो उसके लिए आत्मा-रूपी उपादान की सम्भाल करो, हृदय की शुद्धि करो। इसके बाद अन्य निमित्त बनेंगे । कुन्दकुन्दस्वामी ने प्रवचनसार में लिखा है-


    जो जाणदि अरहंतं दव्वतगुणतपज्जयतेहिं।

    सो जाणादि अप्पाणं मोहो खलु जादि तस्स लयं॥

    जो द्रव्य, गुण और पर्याय के माध्यम से अरहन्त को जानता है वह आत्मा को जानता है। जो आत्मा को जानता है, उसका मोह नियम से विनाश को प्राप्त होता है। संसार का प्रत्येक पदार्थ त्रिरूप है अर्थात् द्रव्य, गुण, पर्याय रूप है, अन्य पदार्थों के समान अरहन्त परमेष्ठी भी त्रिकालात्मक हैं। उनके ज्ञाता, दृष्टा स्वभाव वाले जीव-द्रव्य चराचर को जानने वाले केवलज्ञानादि गुण और अन्तिम विभाव-व्यंजन-पर्याय को जो जानता है और साथ में अपने द्रव्य-गुण-पर्याय की तुलना करता है वह अवश्य ही आत्मा को जानता है तथा जिसने शुद्ध-बुद्ध अर्थात् वीतराग, सर्वज्ञ स्वभाव वाले आत्मा को जान लिया वह रागादि विकारों को भी स्वीकृत नहीं कर सकता।


    साक्षात् अहरन्त तो आज उपलब्ध नहीं हैं, पर, स्थापना-निक्षेप के द्वारा जिनकी स्थापना की जाती है, वे अरहन्त विद्यमान हैं, अरहन्त की प्रतिमा एक दर्पण है, उस दर्पण में अपने आपको देखकर लगी हुई कालिमा को दूर करने का प्रयत्न करो, कोई भी व्यक्ति दर्पण देखने के लिए, दर्पण नहीं देखता, किन्तु दर्पण में अपना मुख देखता है, उसमें लगी हुई कालिमा को छुड़ाता है। बिना दर्पण देखे घर से बाहर नहीं निकलता, उसे भय लगता है कि मुख की कालिमा देखकर बाजार में कोई हँसी करके अनादर न कर दे।


    एक आदमी कुएँ पर पानी पीने गया, आते समय वहाँ अपनी तौलिया भूल आया। रास्ते में वह एक व्यक्ति को कन्धे पर तौलिया डाले देखता है, कहाँ गयी मेरी तौलिया? उसे याद आ गयी कि मैं कुएँ पर भूल आया हूँ, अब वह बड़ी तेजी से कुएँ की ओर दौड़ता है कि कोई उसे पार न कर दे, तो जिस प्रकार तौलिया के देखने से तौलिया का स्मरण हो जाता है, उसी प्रकार अरहन्त भगवान् की वीतराग-मुद्रा देखने से अपनी वीतराग-दशा का स्मरण हो आता है, मैं तो राग-द्वेष से रहित ज्ञाताद्रष्टा-स्वभाव वाला हूँ, इससे मुझे मुक्ति पाना है, देखो ये अरहन्त परमेष्ठी राग-द्वेष से मुक्ति पा चुके। क्या मैं नहीं पा सकूंगा? अवश्य पा सकूंगा।


    णमो अरहंताण, णमो सिद्धाण यहाँ अरहन्त परमेष्ठी को पहले नमस्कार किया है और सिद्ध परमेष्ठी को बाद में, जबकि अरहन्त चार अघातिया कर्मों से सहित होने के कारण संसारी (जीवनमुक्त) हैं और सिद्ध परमेष्ठी अष्टकर्म से रहित होने के कारण मुक्त हैं। इतना स्पष्ट अन्तर होते हुए भी अरहन्त को पहले नमस्कार करने का प्रयोजन है कि उनसे हमें मंगल की प्राप्ति होती है, सिद्ध परमेष्ठी के अस्तित्व का पता भी हमें अरहन्त से मिलता है, इसीलिए 'अरहन्त मंगल' के पश्चात् 'सिद्ध मंगल' कहा जाता है, अरहन्त उस काँच के समान हैं जिसके पीछे लाल-लाल मसाला लगा हुआ है, उस मसाले के कारण ही दर्पण में हमें हमारा मुख दिखता है, सिद्ध परमेष्ठी उस काँच के समान हैं जिस पर कोई मसाला नहीं लगा, सब कुछ आर-पार हो जाता है।


    दूसरा उदाहरण लीजिये-सुवर्ण यदि शुद्ध है तो कोमलता के कारण उससे आभूषण नहीं बनते। पर, जिस सुवर्ण में थोड़ी अशुद्धता है किंचित् मात्र ताँबा आदि जिसमें मिला हुआ है, उससे आभूषण बनते हैं और ये टिकाऊ रहते हैं, सिद्ध परमेष्ठी शुद्ध सुवर्ण के समान हैं, अत: उनसे किसी को उपदेशादि नहीं मिलता। पर, अरहन्त अशुद्ध सुवर्ण के समान हैं उनसे सबको उपदेशादि मिलता है, यहाँ अशुद्धता का सम्बन्ध अपूज्यता के साथ नहीं लगाना, इतनी अशुद्धता के रहने पर भी अरहन्त प्रभु शत-इन्द्रों के द्वारा पूज्य होते हैं।


    अरहन्त भगवान् की विशेषता वीतरागता और सर्वज्ञता से है। सम्यग्दर्शन की प्राप्ति वीतरागी और सर्वज्ञ की उपासना से ही हो सकती है, रागी और अल्पज्ञानी जीवों की उपासना से नहीं। अरहन्त की प्रतिमा को प्रतिष्ठा-शास्त्र के अनुसार अरहन्त माना जाता है तथा उसके दर्शन करने से सम्यक्त्व की प्राप्ति होती है, शास्त्र के द्वारा उसी जीव का आत्मा जागृत हो सकता है जो बहरा नहीं है तथा पढ़-लिख सकता है परन्तु अरहन्त की प्रतिमा का दर्शन तो प्रत्येक मनुष्य के लिए सम्यक्त्व की प्राप्ति में सहायक हो सकता है। दृश्य-काव्य अर्थात् नाटक-सिनेमा आदि का जो प्रभाव होता है वह श्रव्य-काव्य का नहीं। अरहन्त का दर्शन दृश्य-काव्य के समान तत्काल आनन्द देने वाला होता है, यह तो रही उपशम और क्षयोपशम सम्यक्त्व की बात, किन्तु क्षायिक सम्यग्दर्शन तो साक्षात् जिनेन्द्र के पादमूल का आश्रय लिये बिना ही नहीं सकता। पूज्यपादस्वामी ने सर्वार्थसिद्धि के प्रारम्भ में निग्रन्थाचार्य का वर्णन करते हुए लिखा है


    "अवाग् विसर्ग वपुषा मोक्षमार्ग निरूपयन्तं" अर्थात् वचन बोले बिना ही जो शरीरमात्र से मोक्ष-मार्ग का निरूपण कर रहे थे। वन्दना अर्थात् देव-दर्शन मुनि के छह आवश्यकों में शामिल है, उसे मुनि अवश्य ही करते हैं, समन्तभद्र स्वामी ने कहा है


    स्तुतिः स्तोतुः साधो कुशलपरिणामाय स तदा।

    भवेन्मा वा स्तुत्यः फलमपि ततस्तस्य च सतः॥

    अर्थात् जिसकी स्तुति करना है वह सामने हो और नहीं भी हो परन्तु स्तुति करने वाले साधु को उसके फल की प्राप्ति अवश्य ही होती है, इस तरह जब स्तुति करना स्वाधीन है, तब उसके करने में उपेक्षा क्यों? आलस्य क्यों?


    वन्दना या दर्शन करते समय इतना ध्यान अवश्य रखना चाहिये, वन्दना का प्रयोजन भोग की प्राप्ति न हो, अपितु कर्मों का क्षय हो, अभव्य-जीव भोग के निमित्त धर्म करता है। पर, भव्य-प्राणी कर्म-क्षय के लिए धर्म करता है, कितना अन्तर है दोनों में, एक का लक्ष्य संसार है और दूसरे का लक्ष्य मुक्ति।


    ज्ञानी जीव भगवान् के दर्शन करते समय कहता है-गुणवन्त प्रभो, ‘तुम हम सम, परन्तु तुम से हम भिन्नतम'। अर्थात् हे प्रभो! द्रव्य-दृष्टि से हम और आप समान हैं। पर, पर्याय-दृष्टि से हम आप से सर्वथा भिन्न हैं, आपका आलम्बन लेकर हम आपके समान बनना चाहते हैं, निकट-भव्यजीव के ज्ञान का प्रवाह अपना रास्ता स्वयं बनाता चलता है, किस प्रकार? जिस प्रकार कि नदी का प्रवाह अपने उद्गम-स्थान से निकलकर समुद्र तक अपना रास्ता स्वयं बनाता चलता है। अरहंत तो निमित्त मात्र हैं, कार्य की सिद्धि के लिए उपादान आप स्वयं हैं, अपनी शक्ति की ओर दृष्टिपात करो, उसी से कल्याण होने वाला है।


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    रतन लाल

      

    वन्दना या दर्शन करते समय इतना ध्यान अवश्य रखना चाहिये, वन्दना का प्रयोजन भोग की प्राप्ति न हो, अपितु कर्मों का क्षय हो, अभव्य-जीव भोग के निमित्त धर्म करता है। पर, भव्य-प्राणी कर्म-क्षय के लिए धर्म करता है, कितना अन्तर है दोनों में, एक का लक्ष्य संसार है और दूसरे का लक्ष्य मुक्ति।

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