'जब तक उपासक स्वयं उपास्य नहीं बन जाता, तब तक उसे उपास्य की उपासना करना अनिवार्य है।' माता-पिता जिस तरह बच्चे को धीमी चाल से चलकर उसे चलना सिखाते हैं, उसी प्रकार गुरु, शिष्यजनों को मोक्ष-मार्ग में चलना सिखाते हैं। यद्यपि बच्चा चलता अपने पैरों से है, तथापि माता-पिता की अंगुली उसे सहायक होती है, शिष्य मोक्ष-मार्ग में प्रवृत्ति स्वयं करता है परन्तु गुरु की अंगुलि-गुरु का इंगन उसे आगे बढ़ने में सहायक होता है।
गुरु का स्थान महत्वपूर्ण है, क्योंकि सिद्ध तो बोलते नहीं हैं, साक्षात् अरहन्त जो बोलते हैं उनका इस समय अभाव है, यहाँ पर स्थापना-निक्षेप से अरहन्त हैं परन्तु अचेतन होने के कारण उनसे शब्द निकलते नहीं हैं, अत: मोक्ष-मार्ग में गुरु ही सहायक सिद्ध होते हैं, मार्ग पर चलते समय यदि कोई बोलने वाला साथी मिल जाता है तो मार्ग तय करना सरल हो जाता है, गुरु-निग्रन्थ साधु, हमारे मोक्ष-मार्ग के बोलने वाले साथी हैं,इनके साथ चलने से हमारा मोक्ष-मार्ग सरल हो जाता है।
अरहन्त भगवान् के समवसरण में गणधर होते हैं, वे गुरु ही तो कहलाते हैं, नय-विवक्षा से कहा जाये तो गुरु और देव में अन्तर नहीं है, चार और पाँच में क्या अन्तर है? आप कहेंगे, एक का अन्तर है, पर एक का अन्तर तो तीन और पाँच के बीच में होता है। चार और पाँच के बीच में नहीं।
अज्ञानतिमिरान्धानां ज्ञानाञ्जनशलाकया ।
चक्षुरुन्मीलितं येन तस्मै श्रीगुरवे नमः॥
जिन्होंने अज्ञानरूपी तिमिर से अन्धे मनुष्यों के चक्षु ज्ञान-रूपी अंजन की सलाई से उन्मीलित कर दिये हैं, उन गुरु के लिए नमस्कार हो। नेत्रदान महादान कहलाता है, जिन गुरु ने अन्तर के नेत्र खोल दिए हैं उनकी महिमा कौन कहे सकता है |
जिस प्रकार दिशासूचक-यन्त्र सही-सही दिशा का बोध कराता है, उसी प्रकार वीतरागी सच्चे गुरु भी सही-सही दिशा का बोध कराते हैं, विषय-भोग की दिशा सही दिशा नहीं है, उसका बोध कराने वाला कुगुरु कहलाता है, जो सिद्धगति का मार्ग दिखलाता है वह सुगुरु है, हमें भावना रखनी चाहिए कि ऐसे सुगुरु सदा हमारे हृदय में निवास करें, वीतरागी गुरु ही शरणभूत है, रागी द्वेषी गुरु स्वयं संसार के गर्त में पड़े हुए हैं, वे दूसरे का उद्धार क्या करेंगे? संसार के प्राणी भेड़ के समान होते हैं, वे विचार किये बिना ही दूसरे का अनुकरण करने लगते हैं। पर, गुरु विवेक-मार्ग का, सम्यक्र पथ का प्रदर्शन करते हैं, गुरु कुटुम्ब-परिवार की मोह, ममतामयी महागर्त से भव्य प्राणी को हाथ का सहारा देकर बाहर निकालते हैं। समन्तभद्र आचार्य ने रत्नकरण्डकश्रावकाचार में गुरु का लक्षण बताया है-
विषयाशावशातीतो निरारम्भोऽपरिग्रहः ।
ज्ञान-ध्यान-तपोरक्तस्तपस्वी स प्रशस्यते॥
विषयों की आशा से रहित, आरम्भ से रहित, परिग्रह से रहित तथा ज्ञान, ध्यान और तप में अनुरत, तपस्वी साधक गुरु कहलाते हैं। अथवा 'ज्ञानं च ध्यानं च इति ज्ञान-ध्याने त एव तपसी ज्ञान-ध्यान-तपसी तत्र अनुरक्त इति ज्ञानध्यानतपो रत:” इस समास के अनुसार जो ज्ञान अर्थात् स्वाध्याय और ध्यानरूपी तप में अनुरत रहते हैं, स्वाध्याय और ध्यान ये दोनों उत्कृष्ट तप हैं, अत: इनमें अनुरत रखने की बात कही गयी है, देखा आपने, यह जीव तपस्वी कब बन सकता है? जब ज्ञान, और ध्यान में रंग गया हो, ज्ञान-ध्यान में कब रंगता है प्राणी? जब वह परिग्रह को छोड़ देता है, परिग्रह कब छूटता है? जब आरम्भ छूट जाता है, आरम्भ कब छूटता है? जब विषयों की आशा छूट जाती है, तात्पर्य यह है कि तपस्वी या निग्रन्थ गुरु बनने के लिए पंचेन्द्रियों के विषयों की आशा को सबसे पहले छोड़ना पड़ता है।
पेट्रोल जाम हो जाने से जब गाड़ी स्टार्ट नहीं होती है तब ड्रायवर उसे धक्का लगवाकर स्टार्ट कर लेता है, गुरु भी तो शिष्य को धक्का देकर आगे बढ़ाते हैं, स्वयंबुद्ध मुनि थोड़े होते है, बोधितबुद्ध ज्यादा होते हैं, बोधित-बुद्ध वही कहलाते हैं, जिन्हें गुरु समझाकर चारित्र के मार्ग में आगे बढ़ाते हैं। 'मातेव बालस्य हितानुशास्ता', गुरु माता के समान बालक का हितकारी है, बालक पिता से भयभीत रहता है, वह डरते-डरते उनके पास जाता है। पर, माता के पास वह निर्भय होकर जाता है, उससे अपनी आवश्यकता पूरी कराता है, इसी प्रकार, भव्य-प्राणी देव के पास पहुँचने में संकोच करता है, साक्षात् अरहन्त-देव के दर्शन तो कर सकता है—पर उन्हें छू नहीं सकता, परन्तु गुरु के पास जाने में एवं उनसे बात करने में कोई संकोच नहीं लगता, जिस प्रकार कोई कारीगर मकान ईटें-चूना लगाकर बनाते हैं और कोई उसे सुसज्जित करते हैं, इसी प्रकार, माता-पिता मनुष्य को जन्म देते हैं, पर; गुरु उसे सुसज्जित कर सब प्रकार की सुविधाओं से पूर्ण करते हैं, गुरु शिष्य की योग्यता देखकर उसे उतनी देशना देते हैं जितनी कि वह ग्रहण कर सकता है, माँ ने लड्डू बनाये, बच्चा कहता है मैं तो पाँच लड्डू लूँगा, माँ कहती है कि लड्डू तो तेरे लिए ही बनाये हैं पर तुझे एक लड्डू मिलेगा, क्योंकि तू पाँच लडू खा नहीं सकता, बच्चा कहता है तुम तो पाँच-पाँच खाती हो-मुझे क्यों नहीं देती? क्या मेरे पेट नहीं है? माँ कहती है-पेट तो है पर मेरे जैसा बड़ा नहीं है, तात्पर्य यह है कि माँ बच्चे को उसके ग्रहण योग्य लडू देती है, अधिक नहीं, आप लोग जितना ग्रहण करते है उतना हजम कहाँ करते हैं, हजम कर सको, उसे जीवन में उतार सको तो एक दिन की देशना से ही काम हो सकता है।