"दुखी व्यक्ति को सुखी बनाना ही उपकार है, चाहे वह 'स्व' हो या 'पर'।” आचार्य गुरुवर ज्ञानसागरजी द्वारा रचित 'दयोदय' नामक काव्य में एक कारिका आयी है वह आपके सामने रखी जा रही है। इसी के माध्यम से मानव के कर्तव्य को स्पष्ट किया जायेगा।
परोपकाराय दुहन्ति गावः,
परोपकाराय वहन्ति नद्यः ।
परोपकाराय तरोः प्रसूतिः,
परोपकाराय सताम विभूतिः॥
तीन चरणों में प्रकृति की गोद में रहने वाले कुछ जीवों का मूल्यांकन किया गया और अन्तिम चरण में उपदेश का जो पात्र है उसके बारे में कुछ बताया गया है। संज्ञी पञ्चेन्द्रिय वे गायें तिर्यञ्च अवस्था में हैं। ‘वध-बन्धनादिक दुख घने।” इस दोहे को चरितार्थ करती हैं, वे परतन्त्र हैं और अपने भावों की अभिव्यक्ति शब्दों के माध्यम से नहीं कर सकतीं, मानव के समान अनेक उपलब्धियाँ भी प्राप्त नहीं कर पातीं, बहुत सारे दुखों को सहने के उपरान्त भी उस शरीर के पिंजरे में रहती हुई उनकी आत्मा पर-कल्याण के लिए आकुल-व्याकुल समर्पित रहती है, रूखी-सूखी घास-फूस खा करके भी वह मिठास भरा दूध प्रदान करती है, जिस गाय के मल-मूत्र के द्वारा यह धरा अपने माथे पर फसल को लेकर खड़ी हो जाती है, मरने के उपरान्त भी उसके एक-एक अंग मानव के काम में आते हैं, पर, ‘मानव उनका मूल्यांकन कहाँ तक करता है? यह वही जाने, वह उसके मूल्यांकन के अभाव में भी अपनी रीति-नीति छोड़ती नहीं, बदलती नहीं है, वह सब कुछ देती है, लेकिन लेती कुछ भी नहीं है, गायें दूध पीती नहीं, दूध पिलाती हैं, उसकी आत्मा कहती है जीवन जीने के लिए जो आवश्यक है, घास-फूस इतना ही पर्याप्त है। शेष जीवन अपने लिए नहीं, पर के लिए समर्पित है।'
परोपकार शब्द आया है, इसीलिये मैं विषय से विषयान्तर तो नहीं लेकिन अरुचिकर विषय की ओर जाना चाहता हूँ।'कृ' धातु है करने के अर्थ में, इसमें उपसर्ग लगाने पर अनेक प्रकार के शब्दों का उद्भव हो जाता है, 'अप' उपसर्ग लगाने पर अपकार, ‘उप’ उपसर्ग लगाने पर उपकार हो जाता है। हम लोगों ने करना तो सीखा और सीखा क्या, हुम तो सीनियर हैं करने में, लेकिन वही करते आये हैं जो हमारी अवनति के लिए कारण हैं। आचार्य कहते हैं यदि हम अपनी बुद्धि का प्रयोग करते हुए 'कृ' धातु में ‘उप’ उपसर्ग लगाते हैं तो बहुत अच्छा हो जाता है, उसका अर्थ उपकार करना है।
तो उपकार शब्द का वस्तुत: क्या अर्थ होता है? क्या करना होता है? उपकार का अर्थ दुखी व्यक्ति को सुखी बनाना है, इसका अर्थ यह नहीं लगाना चाहिये कि पर के ऊपर ही दुख हो रहा है, उसके ऊपर आपत्ति आयी है, उसे दूर करना है, जो भी व्यक्ति दुखी है उसको सुखी बनाना है। ये निश्चत है कि अपनी आत्मा भी दुखी है, सही उपकार तो वही है ‘उप’ मानें निकट के अर्थ में कुछ कार्य करना है, तो निकट क्या है? आत्म-तत्व, जो आत्म-तत्व के निकट पहुँचना चाह रहा है वह जीव-तत्व है, उसके ऊपर उपकार करना है, चाहे 'स्व' का हो या 'पर' का हो, बाकी किसी के ऊपर आप उपकार करेंगे तो वह उसे अपकार में परिवर्तित कर देगा, क्योंकि जीवन के ऊपर उपकार जो करने का प्रसंग है वह पतित से पावन बनाने की ओर इंगित करता है, उपकार का अर्थ दूर भगाना नहीं है बल्कि उसे अपने पास; निकट में लाना। आचार्यों ने छह द्रव्यों का वर्णन यत्र-तत्र ग्रन्थों में किया है, उसमें पाँच द्रव्य ( जीव-द्रव्य को छोड़कर) सारे के सारे उपकार करते हैं, जीव के ऊपर, उपकार हम जीव के ऊपर ही कर सकते हैं, पुद्गलों का उपकार जो हमारे ऊपर होता है वह बुद्धिपूर्वक नहीं, परस्परोपग्रहो जीवानाम् कहा है। उपग्रह और उपकार में कोई विशेष अन्तर नहीं है, निकट रूप से कुछ ग्रहण करना है। उपकार शब्द परोपकार के लिए कहा है, संसारी प्राणी अपने ऊपर उपकार कर भी नहीं सकता है। अपने ऊपर उपकार करने वाला व्यक्ति बहुत आगे पहुँच जाता है, आचार्य समन्तभद्र महाराज ने सुपाश्र्वनाथ भगवान् की स्तुति करते हुए कहा है अपने आपके ऊपर उपकार करने वाला व्यक्ति दूसरे की तरफ से उपकार नहीं चाहता है, दूसरे के माध्यम से अपने जीवन को जो चलायेगा, वह अपने ऊपर उपकार नहीं कर सकता है। परोपकार का अर्थ केवल पर का ही उपकार होता है, ऐसा नहीं, परोपकार का अर्थ होता है ‘परम उत्कृष्ट-रूपेण उपकार: परोपकार:'। उपकार 'स्व” के ऊपर करो या 'पर' के ऊपर, वह उपकार परोपकार ही माना जायेगा। हम जब तक सही मायने में इस अर्थ को नहीं समझ सकते; तब तक हम अपने आपको स्वस्थ तीन काल में नहीं बना सकते हैं। गाय यदि दूध का त्याग नहीं करेगी तो वह बीमार पड़ जायेगी, जीना चाहते हो तो उपकार करो, त्याग करो। एकेन्द्रिय जीव-पानी प्रवाह के रूप में बहता जा रहा है, उसी ओर जा रहा है, जहाँ पर जीव त्रस्त हैं, पीड़ित हैं आप नदी में जाकर अवगाहन कर लेते हैं, अपनी तपन को शान्त कर लेते हैं, अपने शरीर एवं कपड़ों की गन्दगी को उसमें विसर्जित कर देते हैं, इसके उपरान्त भी वह नदी आपसे प्रतिरोध नहीं करती है, उसे आप गाली भी देंगे तो भी वह मंजूर करके चली जायेगी, आप उसकी प्रशंसा भी करेंगे तो वह रुकेगी नहीं, कोई इसका उपकार स्वीकार कर लेता है तो ठीक है, नहीं कर लेता है तो भी ठीक है, जीवन-यात्रा रुकती नहीं। आप पेड़-पौधे-वनस्पतियों को खा लेते हैं, छिन्न-भिन्न कर देते हैं, इसके उपरान्त भी वह कुछ नहीं करती, किसी भी आम के पेड़ ने आज तक स्वयं आम नहीं खाये। यदि कोई व्यक्ति उसके सारे आम तोड़ लेता है तो भी ठीक, त्याग करना सीखी। हम किस ओर जा रहे हैं? संग्रह-वृत्ति मानव को छोड़कर के कोई भी अपनाता नहीं है, परिग्रही यदि कोई है तो वह मानव है। पेट तो सबके पास है लेकिन मनुष्य पेट के अलावा पेटी भी भरता है, यह मनुष्य अनेक प्रकार के पाप और अनर्थ करता चला आ रहा है, यदि मनुष्य अपनी शक्ति का सदुपयोग करता है-उपकार के रूप में, तो वह महात्मा बन जाता है और सब जीव, के लिए मुक्ति का मार्ग प्रशस्त करता है। आचार्यों की वाणी है कि जो व्यक्ति विषयों में ही अपने जीवन को समर्पित कर देता है वह कोई भी हो; नरक-निगोद का वासी बनेगा, ऊपर उठने के लिए कुछ न कुछ त्याग आवश्यक है। पहले बड़े-बड़े राजा महाराजा होते थे, वे अन्त में वैराग्य धारण कर घर का त्याग कर देते थे, जो संग्रह किया था उसे बाँट देते थे। 'खाली हाथ आये हैं खाली हाथ जाना है।” इस सिद्धान्त को वे भूलते नहीं थे। किन्तु आज का ये पंचमकालीन मानव सुख को चाहता हुआ भी त्याग-धर्म को भूलता जा रहा है, उसमें संग्रहणी बीमारी आ चुकी है। यदि कोई व्यक्ति परित्याग करता है संग्रह का तो उसकी यह खिल्ली उड़ाता है, उसे वह उपहास का पात्र बनाता जा रहा है। यह इस युग का परिणाम है और होना भी अनिवार्य है क्योंकि आगे जो कुछ भी होना है उसकी भूमिका तो बनाना आवश्यक है, बिना भूमिका, बिना नींव के वह महान् प्रासाद खड़ा नहीं हो सकता। पाप का कार्य करेगा तभी उसका फल भोगने नरकनिगोद में जायेगा।
आचार्य कहते हैं-इस प्रकार, वह अनन्त बार जा चुका है किन्तु उपकार न अपने ऊपर किया न पर के ऊपर, यदि किया है तो जो अज्ञानी है, जड़ है कुछ जानता नहीं, कुछ उपकार करता नहीं, उसके ऊपर उपकार किया-जिसका नाम शरीर है। ऐसा कौन-सा व्यक्ति यहाँ पर होगा जो शरीर का नौकर नहीं बना होगा, भूख लगती है खाने के लिए तैयार हो जाता है। यदि कोई व्यक्ति कहता है यहाँ पर क्यों बैठे हो? उठ जाओ, तो गुस्सा आ जायेगा। पर, अन्दर से आवाज आती है खिसक जाओ यहाँ से, तो वह खिसक जाता है। उस महाशय से हम पूछना चाहते हैं कि जिस बात से उसे गुस्सा आया था वह खिसक क्यों रहे हैं? अन्दर से ऐसी कौन-सी दिव्य-ध्वनि या आकाशवाणी हुई जो उसकी पूर्ति के लिए वे उठ खड़े हुए। वो कौन है काम बताने वाला जिसके कार्य को वह बिना सोचे-विचारे करता जा रहा है, ये कौन-सा दासत्व है और जड़ के ऊपर उपकार करने वाला तीन काल में सुफल नहीं भोग सकता। सुख-शान्ति नहीं भोग सकता, जड़ के द्वारा सुख मिलने वाला नहीं है। संसारी प्राणी न 'पर' के ऊपर उपकार कर रहा है और न ‘स्व' के ऊपर। स्व के ऊपर उपकार करने वाला व्यक्ति पर के ऊपर भी नियम से उपकार करता ही जाता है। गंगा नदी बहती हुई बंगाल की खाड़ी में गिर जाती है तो ध्यान रखना वह निकलने के स्थान गंगोत्री से बंगाल की खाड़ी तक अपनी शरण में आये लोगों को परितृप्त किये बिना नहीं गयी। इसी प्रकार; इस मानव की भी लम्बी-चौड़ी यात्रा जब यहाँ से ले करके सिद्धालय (महात्मा बनने) तक होती है, तो उसके बीच में अनेक जीव आ जाते हैं और उसकी शरण के माध्यम से दिशा-बोध पा लेते हैं, वह पाते ही चले
"सताम् विभूतिः परोपकाराय”। सज्जनों की विभूति मन-धन-वचन जो कुछ भी है, वह सारा का सारा 'पर' के उपकार के लिए है, उस धन का सदुपयोग इसके अलावा कुछ नहीं हो सकता। जड़ तत्व की सुरक्षा एवं विकास के लिए जो व्यक्ति मौलिक धन का प्रयोग करता है, तो समझ लीजिये उसको किसी चीज का क्या मूल्य है? ये ज्ञान नहीं है, वह पैर धोने के लिए अमृतकलश को ढोल रहा है, 'वह भस्म के लिए रत्न-राशि को जला रहा है।' ये ध्यान रखिये, आत्मा की उन्नति के लिए, चाहे 'स्व' आत्मा हो या 'पर' आत्मा हो, इस तन, मन, धन का प्रयोग जो नहीं करता और इनका प्रयोग यदि शरीर की सुरक्षा के लिए करता है तो पागल और इसमें कोई अन्तर नहीं है, वह यदि मूढ़ है तो संसारी प्राणी विषयों में फैंसा हुआ मूढ़शिरोमणि है। न ‘स्व' का काम किया जा रहा है न 'पर' का। जो कभी उपकार मानने वाला नहीं है, उस पर हमारा सर्वस्व समर्पित है, आत्म-तत्व के लिए कोई कार्य नहीं। आचार्य कहते हैं परोपकार के अलावा कोई महान् कार्य नहीं। मोक्ष-मार्ग में यदि किसी का हाथ है तो मन का सबसे ज्यादा, वचन का उससे कम, हाथ और तन का तो केवल मन और वचन के साथ लग जाना इतना ही काम है। धन मोक्ष-मार्ग में रोड़ा अटकाने वाला है, उससे मोक्ष-मार्ग की प्राप्ति सम्भव नहीं।