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नव आचार्य श्री समय सागर जी को करें भावंजली अर्पित ×
मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज
  • विशेष वाक्य

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    विशेष वाक्य विषय पर संत शिरोमणि आचार्य विद्यासागर जी  के विचार

     

    1. ऋद्धि के द्वारा इस पूरे लोक को व्याप्त करने का अधिकार केवल पुरुष को ही होता है इसलिए इस लोक को नृलोक कहते हैं। ऋद्धि भी पुरुषवेद वालों को ही होगी। बिना आधार के युक्ति नहीं चलती है।
    2. पहले बच्चों को कहा जाता था कि बेटा अनाप-शनाप नहीं खाना। अमृत भी हो तो नहीं खाना, क्योंकि खानपान से खानदान बिगड़ता है। लेकिन आज तो बड़े भी इससे नहीं बच पा रहे हैं।
    3. पंच कल्याणक महोत्सव मनोरंजन का नहीं निरंजन बनने का प्रतीक है।
    4. चेतन की कीमत करो। जीने के लिए अर्थ (पैसा) है, अर्थ के लिए जीवन नहीं। तीन चीजें हैं- १. अर्थ, २. व्यर्थ, ३. अनर्थ। १. अर्थ का अर्थ है जो प्रयोजनभूत है। २. व्यर्थ का अर्थ है जो प्रयोजनभूत न हो। जिसको करने के बाद भी कुछ हासिल नहीं होता। जैसे नीर का मंथन करने से हमें घृत की प्राप्ति नहीं होती तो हमारा परिश्रम व्यर्थ हो जाता है। ३. अनर्थ का अर्थ विषय-कषायों के पीछे लगने वाला व्यक्ति अनर्थ करता है।
    5. अर्थ की लिप्सा ही हमसे अनर्थ करा देती है। कोई कितनी ही सम्पति एकत्रित क्यों न कर ले, अपने वारिसों/संतानों के लिए पर वे उसका उपयोग तभी पर पायेंगे जब उनके पल्ले में पुण्य होगा।
    6. हमारी सारी जिन्दगी की भाग दौड़ बस जमीन और जायदाद की खातिर होती है।
    7. आज तक हम जमीन दोस्त रहे हैं जहाँ दो का अस्त होता है वह दोस्त होता है। जमीन दोस्त का अर्थ है मिट्टी से उत्पन्न हुआ और मिट्टी में मिल जाना।
    8. एक धीवर ने प्राण छोड़ दिये पर प्रण नहीं छोड़ा। परन्तु आज आप लोग प्राण और प्रण दोनों छोड़ने को तैयार हैं।
    9. एक सियार भी अपनी स्मृति के माध्यम से अपने भाव ताजा बनाये रख सकता है। उस मूक प्राणी ने प्रण नहीं तोड़ा भले ही प्राण छोड़ दिये लेकिन यह मनुष्य प्रण को नहीं, प्राणों को देखता है। उस मूक प्राणी ने हमें दिखाया कि सच्ची आस्था और निष्ठा ये है।
    10. पशु पक्षी मर्यादा में रहते हैं, परन्तु मनुष्य की आज कोई मर्यादा नहीं रही।
    11. तत्व की बात करने से वैरी का पारा भी ठण्डा हो जावेगा।
    12. तत्व चर्चा से कलह मिट जाती है, वातावरण शान्त हो जाता है।
    13. आपके घर में महाराज जावें तो महाराज बालक हैं आप पालक हैं। और हमारे यहाँ आप आओगे तो हम पालक हैं आप बालक हैं। हमारे चौके में अन्तराय का काम नहीं।
    14. दानादि देना कर्तव्य है उसमें प्रदर्शन का सवाल नहीं होता।
    15. संतुष्टि एवं धैर्य के बिना कार्य पूर्ण सिद्ध नहीं होते।
    16. हम किसी को सन्तुष्ट नहीं कर सकते। केवलज्ञानी भी मिथ्यादृष्टि को सन्तुष्ट नहीं कर पाते।
    17. कुल, जाति, धन, ख्याति, ऐश्वर्य, रूप आदि स्वभाव नहीं है। उनके प्रति लगाव होने से अभिमान आता है और स्वाभिमान समाप्त हो जाता है।
    18. स्वाभिमान रखने से याचना परीषह सहन हो जाता है।
    19. मोह की नदी बहुत गहरी है तैराक भी डूब जाते हैं।
    20. आहारदान तब तक काम करता है जब भूख दुबारा न लगे पर जिनायतन में दिया दान अनन्त कालीन मिथ्यात्व का धो देता है।
    21. परिग्रह की जड़ों को निर्दयता के साथ उखाड़ना चाहिए, आलस्य नहीं करना।
    22. ज्ञान की भावना एवं आलस्य का त्याग स्वाध्याय है। अप्रमत्त हो जाना स्वाध्याय का फल है।
    23. जो आचरण से रहित है वह चरण तक ही रह सकता है। देवी-देवता भी ऐसे ही हैं वे आराध्य नहीं हो सकते।
    24. अनर्थों को याद करने से अनर्थों से बच सकते हैं।
    25. दूसरा हमारी निन्दा करे तो टेंशन नहीं करें, अपनी निन्दा स्वयं करें विशुद्धि बढ़ती है इससे। अपनी निन्दा तो आसानी से कर सकते हैं।
    26. पर निन्दा से असंख्यात गुणा बंध और अपनी निन्दा से असंख्यात गुणी कर्म निर्जरा होगी।
    27. उत्साह का अर्थ ये नहीं कि अंधाधुंध करते चले जाओ। विवेक सावधानी भी आवश्यक है। शुद्धाशुद्धि का ध्यान रखना चाहिए।
    28. प्रकृति को बदलने का प्रयास नहीं करो बल्कि उससे लड़ना सीखो।
    29. यह संसार बहुत बड़ा है, यहाँ पर सब कुछ है लेकिन हमें क्या करना है और कैसे रहना है? यदि इतना याद रख लिया जाये तो अपना कल्याण हो सकता है।
    30. अवशेष के माध्यम से ही विशेष बात समझ में आती है।
    31. जो अपने लिए कहा गया है उसमें रहना यह स्वस्थ मन है और अपनी भूमिका से ऊपर उठकर रहना यह अस्वस्थ मन है।
    32. मन की दृढ़ता के बिना काय और वचन की दृढ़ता नहीं आ सकती।
    33. संसारी प्राणी का दिमाग और दिल ही संसार में ज्यादा उत्पाद मचाते है।
    34. कर्म बंध और कर्म आस्त्रव के समय यदि हम सोच लेते हैं तो कर्म उदय के समय नहीं सोचना पडता ।
    35. सर्वघाती प्रकृति का उदय हो और केवलज्ञान का अनुभव हो यह तीन काल में सम्भव नहीं है।
    36. आत्म विश्वास रखो अति विश्वास नहीं होना चाहिए।
    37. साधर्मी के साथ विसंवाद करने से महाव्रत सुरक्षित नहीं रह सकते हैं।
    38. जहाँ विसंवाद नहीं होता है वहाँ पर संवाद का प्रवाह अपने आप होने लगता है।
    39. श्रमण के लिए भीतर जाये तो समयसार और बाहर आये तो मूलाचार होना चाहिए।
    40. निषेध परख वस्तु का निषेध न करके विधान परख वस्तु को सामने रखें तो निषेध परख वस्तु अपने आप पीछे छूट जायेगी।
    41. माता-पिता जैसे अपने बच्चों का संरक्षण करते हैं वैसे ही आप मुनियों के उचित एवं शुद्ध आहार देकर उनका संरक्षण कर सकते हैं।
    42. ऐसा कोई कार्य करो जिससे अपने कल्याण करने वाला कोई प्रसाद मिल जाये।
    43. मन अपनी कीर्ति को तो तीन लोक में चाहता है पर अन्य की कीर्ति नहीं देखना चाहता है।
    44. मन को समझाने का काम जिसने कर लिया उसका बेड़ा पार हो जाता है। यह मन बहुत गड़बड़ कर सकता है।
    45. भिक्षावृत्ति में दयनीयता नहीं रहती है, भीख माँगने में दयनीयता रहती है। भिक्षावृत्ति में स्वाभिमान रहता है भीख मांगने में स्वाभिमान और मर्यादा नहीं रहती है।
    46. आदिनाथ भगवान् कितने वर्षों तक विषयों में रहे पर वे व्यसनी नहीं बने।
    47. तीर्थंकर-पद इन्द्रिय सुख की अभिलाषा को लिए हुए नहीं होता है।
    48. आस्तिक जो होगा वह नि:शंक होगा, नास्तिक जो होगा वह बलवान तो हो सकता है पर डरपोक होगा।
    49. जो व्यक्ति न्याय का पक्ष लेता है, उसके पक्ष में सारा विश्व हो जाता है।
    50. पर से परे होने पर पार हो जाते हैं।
    51. चर्चाओं में समय की पाबंदी नहीं रखते और सामयिक घड़ी देखकर करते हैं ४८ मिनट हो गये कि नहीं।
    52. दुर्लभ क्षणों को अनर्थ में मत गवाओ माला फेरो, स्तुति पाठ करो। अनर्थ से बचना भी बहुत ही प्रयोजनभूत है। पहले चक्की चलाते रहते थे स्तुति पढ़ते रहते थे, मन को भटकने नहीं देते थे।
    53. समय का सदुपयोग, ज्ञान का सदुपयोग करना बहुत कठिन है। धर्मामृत स्वयं पीवें दूसरे को पिलावे ऐसा कहा है। विकथाओं से बचें।
    54. प्रयोजनभूत को याद करने से मन की बीमारी दूर हो जाती हैं।
    55. पेट की आग इतनी गड़बड़ी पैदा नहीं करती, जितनी कि तृष्णा की आग करती है। दाम बिना निर्धन दुःखी, तृष्णा बस धनवान।
    56. बुढ़ापा उस झाडू के समान है जिससे सारे दिन काम लेकर एक कौन में कचरे के पास रख दिया जाता है।
    57. धर्मध्यान में आवश्यकों में कमी न आवे, अच्छे से स्वाध्याय हो सके ऐसा भोजन ग्रहण करना चाहिए।
    58. आलोचना, प्रशंसा इन दोनों को सुनकर छोड़ दो हमेशा निर्विकल्पता रहेगी। किसी से आँख से ऑख नहीं मिलाना यह भी निर्विकल्प होने का अच्छा साधन है। त्याग के साथ निर्विकल्पता भी आनी चाहिए।
    59. बुद्धि को बिगाड़ने वाले सारे पदार्थों के दान हिंसादान में आवेंगे। पहले अमृत दूध का दान होता था, आज चाय का दान देते हैं। पानी के पाऊच, चाय पैकेटयह संस्कृति ये सब दरिद्रता के प्रतीक हैं।
    60. मन और परवस्तु अपना विषय नहीं है, उसकी पूर्ति में समय मत गवाओ। मनरूपी बन्दर को श्रुत स्कंध पर चढ़ा दो।
    61. आज फोन से काम चलता है इसलिए संतोष का अभाव है। पहले संतोषी रहते थे सम्प्रेषण से काम हो जाता था।
    62. व्रती होने के बाद संतोष में और घनत्व आ जाता है। तत्व ज्ञान होने के बाद वह स्थिर हो जाता है।
    63. मन पापों की ओर नहीं जाता तो मन हमेशा पवित्र बना रहता है।
    64. यहाँ आते हो तो छोटा सा व्रत मांगते हो और बाजार में जाते हो तो सबसे महंगी चीज चाहते हो । त्याग संसारी प्राणी को रुचता नही।
    65. बन्धन से मुक्त होना चाहते हो तो अपने से परिचय कर लो।
    66. अभ्यास और वैराग्य के बल पर मन को कंट्रोल में रखा जा सकता है।
    67. परस्पर प्रतिस्पर्धा नहीं, पूरक बने।
    68. प्राकृतिक जो चीज होती है वह टिकाऊ होती है।
    69. श्रावक को प्रवृत्ति सुधारना है और साधु को प्रवृत्ति रोकना है।
    70. आरंभ और परिग्रह को नियंत्रण में रखने से श्रावक के साता का बंध होता रहता है और असाता रूपी बीमारी को श्रावक सामयिक के समय तीन बार बाहर निकालता है।
    71. शरीर को पुष्ट करने का प्रयास संसारी प्राणी हमेशा करता रहता है। अशुभता का भंडार है शरीर। बड़े-बड़े विद्वान् भी इसकी सेवा में लगे हुए हैं। शरीर की सेवा में सूख जाते हैं पर सुख नहीं मिल पाता।
    72. शरीर से जितना ममत्व रखोगे वह उतनी अधिक सेवा करवायेगा।
    73. भेद विज्ञान के बिना वैराग्य दृढ़ नहीं हो सकता। चक्रवर्ती का उदाहरण देते हो पर उन के जैसा भेद विज्ञान भी किया करो।
    74. कायशुद्धि को लेकर आप लोग मन अशुद्ध कर लेते हैं यह ठीक नहीं।
    75. खाने पीने से शरीर नहीं चमकता, नहीं तो पशु आदि तो हमेशा खाते पीते ही रहते हैं उनका भी शरीर चमकना चाहिए।
    76. शरीर स्वयं बड़ा कूटनीतिज्ञ है इसके सामने अच्छे-अच्छे कूटनीतिज्ञ भी फैल हो जाते हैं।
    77. अभ्यास एक ऐसी वस्तु है जिसके माध्यम से हम शरीररूपी मशीन को नियंत्रित कर सकते हैं।
    78. शरीर ऐसी फैक्टरी है जिसमें हमेशा मल का उत्पादन होता है इसलिए इस पर क्या अभिमान करना।
    79. ब्रह्मचारी को रूप का अभिमान नहीं करना चाहिए, शरीर से काम लेना चाहिए। शरीर में अपनत्व बुद्धि अपनाने से ही अभिमान जागृत होता है।
    80. हमारा शरीर खुली पुस्तक है हमेशा भावों का खेल चलता रहता है।
    81. श्रावक संसाररूपी गाडी को पूर्ण नहीं रोक पाता लेकिन थोडी स्पीड कम अवश्य कर लेता है। स्पीड कम करने से वह एक्सीडेण्ट से बच जाता है दुर्गति रूप दुर्घटना से बच जाता है।
    82. संसार में ऐसा व्यक्ति नहीं है जिसके मीत ही मीत हों। और ऐसा खेल नहीं है, जिसमें जीत ही जीत हो ।
    83. रागी वीतरागता में भी राग का अनुभव करता है। और वीतरागी राग में भी वीतरागता का अनुभव करता है।
    84. संसारी प्राणी का जानना देखना नहीं छूट सकता परन्तु भला बुरा छूट सकता है।
    85. आपके पास जोश है, रोष है, दोष है, कोष है पर होश नहीं है।
    86. दूसरों को मत देखो, अपने आपको देखो।
    87. जिसके बिना जो न रह सके उसका नाम आसक्ति है।
    88. विवेक के बिना त्याग के क्षेत्र में काम नहीं चलता। त्याग के क्षेत्र में दूसरे के भरोसे काम नहीं होता। दक्षिण में कहा जाता है- अपने हाथ किया गया कार्य नेक है।
    89. धर्म के, त्याग के क्षेत्र में, नौकरों से, बच्चों से काम नहीं लेना चाहिए तभी अणुव्रती महाव्रत की ओर बढ़ सकता है।
    90. मन यदि गाफिल हो गया तो कोई भी चर्या समीचीन नहीं कर सकते।
    91. मूर्च्छा से जीवन हठीला हो जाता है, मुझे तो वही चाहिए। मूर्च्छा मानसिकता को कुण्ठित कर देती है। मूर्च्छा से तनाव बढ़ता है, खून जलता है। मनोबल को शांत रखो ज्यादा खून खर्च तनाव से होता है।
    92. मूर्च्छा मन की मूर्च्छा है जिसके कारण विवेक गायब हो जाता है। मूर्च्छा में आयुकर्म की उदीरणा तीव्र गति से होती है।
    93. दुनिया असत्य की सेवा करती है सत्य की सेवा सम्यग्दृष्टि करता है असत्य बोलने से मैं बच जाऊँगा ऐसा सोचने वाली सत्य तो यह है कि आप मर नहीं सकते।
    94. संसारी प्राणी को संसार की गुलामी इसलिए करनी पड़ रही है क्योंकि वह दूसरे पर अधिकार जमाना चाहता है। दूसरे पर अधिकार जमाने का काम निम्न कोटि का काम है। पर को आधीन करने वाला संसार में पराधीन ही बना हुआ है।
    95. संसारी प्राणी को मन को दबाने की नहीं बल्कि दूसरे को दबाने की इच्छा होती है।
    96. ऐसा व्यापार करो जिससे मांसाहार का विरोध एवं शाकाहार का प्रचार हो ।
    97. बुद्धि, संस्कृति समाज, राष्ट्र जिससे भ्रष्ट हों ऐसी वस्तुओं का व्यापार नहीं करना चाहिए। सात्विक व्यापार करना चाहिए लोभ नहीं करना चाहिए। आज व्यवसाय पैसे के लोभ के कारण गंदा हो गया है।
    98. वस्तु स्वरूप ज्ञात होते ही अटेन्शन में आ जाता है, टेन्शन छूट जाता है।
    99. मोह को काटने का अमोघ शस्त्र है संकल्प। संकल्प से विकल्प भी कम हो जाते हैं। संकल्प से पूर्व बंधे कर्म हिलने लगते हैं।
    100. दूसरे के बारे में सोचने में ही मन लगता है तो लगाओ पर उसका भला सोचो।
    101. पर का राग अपनी आत्मा का अनादर है। और अपने आत्मा का अनादर करना सबसे बड़ा अपराध है।
    102. नींव प्रथम मंगलाचरण है तो कलशारोहण अंतिम समापन है।
    103. आप लोग स्थान की बात करते हैं मैं गुणस्थान और लब्धिस्थान की बात करता हूँ।
    104. मेरे बारे में कौन क्या सोच रहा है यह सोचना सबसे बड़ी बीमारी है। इसमें शक्ति का प्रयोग नहीं करना चाहिए विकल्प ही होंगे।
    105. विवाह धर्म परम्परा चलाने के लिए होता है। संतान होगी तो परम्परा होगी, उसमें धर्म संस्कार हो तो धर्म परम्परा है। इसलिए स्वदार संतोष कहा, वासना का तो नाम ही नहीं ये है भारतीय परमपरा |
    106. अभी थोड़ा बचा खुचा है बचाये रखो, विदेश से प्रभावित नहीं होइये, आप अपने संस्कार से उन्हें प्रभावित करिये।
    107. जो मिला है उसका यथोचित उपयोग करो यही चतुराई है।
    108. अपव्यय से बचो ज्यादा कमाओं नहीं अपने आप प्रभावना होगी।
    109. अपने गुणों में कमी लाकर दूसरे को नीचे दिखाने में क्या मिलता है? क्या करें निंदा रस छूटता नहीं है। उदाहरण-अपने को जीवन भर काना बनाना ठीक है, लेकिन दूसरे का अमंगल होना चाहिए।
    110. रत्नत्रय और असंयम में अंतर एक बाह्य सम्पदा को अपने पैरों में रखता है और एक उसे अपने सर पर रखता है।
    111. निगोद से मनुष्य होना दुर्लभ है लेकिन मनुष्य से निगोद होना दुर्लभ नहीं है एकेन्द्रिय जीव देव तो नहीं हो सकता, लेकिन देव एकेन्द्रिय हो सकता है देखा यह जगत् का स्वभाव।
    112. द्रव्य, क्षेत्र, काल की अपेक्षा जो कुछ मिला है, उसमें संतुष्ट रहना चाहिए और आगे का मार्ग प्रशस्त करना चाहिए।
    113. परीषहों को पीठ मत दिखाओ नहीं तो पिटाई हो जावेगी। परीषहों का हृदय खोल दो इसी से मार्ग खुलना है।
    114. आठ माताएँ साधु की रक्षा करती रहती हैं। अष्टप्रवचन मातृकायें माँ समझाती हैं ऐसा करो, ऐसा करो। घर में एक ही माता मिलती है और वह अन्त तक नहीं रहती।
    115. संसारी प्राणी सब कुछ अच्छा चाहता है लेकिन जिनसे मिलता है उन साधनों को नहीं चाहता। दु:ख के कारणों को कभी छोड़ता नहीं।
    116. जिनेन्द्र भगवान् की भक्ति करने से बंध नहीं, बंध बंद होता है। ऐसी प्रकृतियों का बंध होता है जो सारे बंधनों को काटने में समर्थ होती हैं।
    117. आज मन लगाने के लिए सबसे सरल तरीका है भगवान् की भक्ति।
    118. आज धन्यता का पाना दुर्लभ है, धन का पाना नहीं धन सहज प्राप्त हो जाता है किन्तु धन्यता का पाना अत्यधिक दुर्लभ है।

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