संसारी प्राणी जन्म को अच्छा मानता है और मरण को बुरा। इसलिए हम पहले मरण को समझ लें, जन्म के बारे में मध्याह्न में समझना अच्छा होगा, अभी का जो समय है उसमें पहले मरण को समझ लेते हैं फिर उसके उपरान्त स्वाध्याय और दान के विषय में भी कुछ समझने का प्रयास करेंगे।
पहले तो, मरण किसका होता है ? मरण क्या वस्तु है ? मरण क्यों अनिवार्य है और मरण का जीवन के साथ क्या सम्बन्ध है ? इसको समझ लें, संसार में ऐसा कोई भी प्राणी नहीं है जो मरण से न डरता हो, जबकि मरण एक अनिवार्य घटना है। फिर डरना क्यों ? जहाँ जीवन भी एक अनिवार्य घटना और मरण भी तो एक पहलू से प्रेम और एक पहलू को देख करके क्षोभ क्यों ? इसमें क्या रहस्य है ? अज्ञान! अज्ञान के कारण ही संसारी प्राणी मृत्यु को नहीं चाहता और मृत्यु से बच भी नहीं पाता, अभी-अभी यहाँ जन्म महोत्सव मनाया जा रहा था। लेकिन जहाँ से निकल करके आ रहा है, वहाँ पर मरणकृत शोक छाया होगा, यह मात्र अज्ञान के खेल हैं। तो मरण क्या है? मरण, जीवन के अभाव का नाम है, जैसे दीपक जल रहा है। वायु का एक झोका आ जाता है तो दीपक बुझने लगता है, भले ही उसमें तेल और बाती भी अभी जमाई हो, तब भी वह बुझ जाता है, इसी प्रकार आयुकर्म का क्षय होना अनिवार्य है, जब आयुकर्म का क्षय होना अनिवार्य है तो हम इसे समझ लें कि आयु क्या ? आयु एक प्राण है। दश प्राण होते हैं उनमें से एक आयु भी है "दशप्राणौजीवति इति जीव:" दश प्राण इसलिए कह रहा हूँ कि यहाँ पर मनुष्य की विवक्षा रखी गई है। अर्थात् जो दश प्राणों से जीता था वह जीव है, जो अब भी जी रहा है वह जीव है तथा जो आगे भी जियेगा, वह जीव है। "अजीवत् जीवति जीविष्यति इति वा जीवा: प्राणिन:।" इन प्राणों का अभाव होना ही मरण है, आयु का अभाव होना ही मरण है। आयुकर्म का क्षय होना ही मृत्यु है। संसारी प्राणी मरण से भयभीत है, अत: समझ सके कि वह घटना क्या है ? आयु का क्षय -अभाव क्यों आता है ? जिस अभाव को वह नहीं चाहता तो वह क्यों होता है ? जो हम चाहते हैं वह क्यों नहीं होता ? अनचाहा होता है तो उसके ऊपर हमारा अधिकार क्यों नहीं ?
सन्तों का कहना है, हमें उस ओर नहीं देखना है जहाँ सूर्य का प्रवास चलता है, यात्रा चलती है अविरल रूप से १२ घण्टे, वह चलती ही रहती है, कभी रुकती नहीं यह नियम है, कभी किसी को पीछे मुड़कर देखता नहीं और ना ही किसी की प्रतीक्षा करता है सूर्य, उसका यह कार्य है। लोग इसे पसंद करें, ठीक, नहीं करे, तो भी ठीक। वह चलता ही रहता है। इसी प्रकार आयुकर्म का खेल है, वह निरन्तर क्षय को प्राप्त होता रहता है। आयुकर्म क्या है ? आयु, आठ कर्मों में एक कर्म है, जिसका सम्बन्ध काल के साथ है लेकिन वह काल नहीं है। हमारा सम्बन्ध कर्म के साथ हुआ, न कि काल के साथ। हाँ! कर्म का सम्बन्ध कितने काल तक रहेगा, उसमें कितनी शक्ति है, कितने-किस प्रकार के उसमें परिवर्तन हो सकते हैं और कब, यह सब काल के माध्यम से जानते हैं।
"आयु" कहते ही हमारी दृष्टि काल की ओर चली जाती है, लेकिन यह ठीक नहीं, क्योंकि दृष्टि से ही सृष्टि का निर्माण हुआ करता है। जिसके साथ आपका सम्बन्ध है उसी को देखिये। काल कोई वस्तु नहीं है। मैंने कल कहा भी था कि चेतनाएँ तीन होती हैं, कर्मचेतना, कर्मफलचेतना और ज्ञानचेतना। जीव का सम्बन्ध इन चेतनाओं के साथ हुआ करता है, अनुभव के साथ हुआ करता है, अन्य कोई चौथी काल चेतना नहीं है, अत: काल के साथ जीव का कोई भी सीधा सम्बन्ध नहीं है। यह बात अलग है कि काल, कर्म को नापने का माध्यम है। जैसे-ज्वर को थर्मामीटर के माध्यम से नापा जाता है, ज्वर आते ही थर्मामीटर की याद आती है और उसको भिन्न-भिन्न अंगों पर लगाकर देख लिया जाता है, ज्वर थर्मामीटर को नहीं आता अर्थात् थर्मामीटर ज्वरग्रस्त नहीं होता, मात्र वह बता देता है। ज्वर तो हमारे अंदर ही है, ज्वर, थर्मामीटर के अनुरूप भी नहीं आता, क्योंकि एक तो बुखार आने के उपरान्त ही उसका प्रयोग किया जाता है, आवश्यकता पड़ती है। दूसरी, पहले तो थर्मामीटर नहीं थे, मात्र नाड़ी के माध्यम से जान लेते थे। आज थर्मामीटर भी ९४ के नीचे काम नहीं करता और १०७-१०८ के ऊपर भी नहीं, कितनी गर्मी है, पता नहीं चलता। एक हड़ी का बुखार हुआ करता है, वह थर्मामीटर में आता ही नहीं, फिर भी ज्ञान का विषय तो बनता ही है। अर्थ यह हुआ थर्मामीटर होने से बुखार नहीं आता, वह तो मात्रा नापने में एक यंत्र का काम करता है। उस यंत्र में हम नहीं घुसें और न उसके बारे में ज्यादा सोचें, सिर्फ इतना कि बुखार कितना आया? कब तक रहेगा ? जायेगा कि नहीं ? इसके उपरान्त इलाज प्रारम्भ हो जाना चाहिए।
इसी तरह आयु कहते ही हमारे दिमाग में काल की चिन्ता नहीं होनी चाहिए ? कि अब कितना काल रह गया, क्या पता ? काल रहता नहीं, काल टिकता नहीं, काल जाता नहीं, काल तो अपने-आप में है, फिर क्या वस्तु है काल ? इसको हम आगम के माध्यम से या अनुमान के माध्यम से जान सकते हैं। भगवान की वाणी द्वारा जो उपदिष्ट हुआ है उस पर श्रद्धान कर समझ सकते हैं। काल कोई जानकार वस्तु नहीं है, जो हमें जान सके, हम ही उसे जानने की क्षमता रखते हैं लेकिन वर्तमान में नहीं है, यह बात अलग है। वह केवल श्रद्धान का विषय है। भगवान ने जो कहा, उसको हम मानते चले जाते हैं। काल के माध्यम से अपने-आपको आँक सकते हैं। काल हमारे परिणमन का ज्ञापक है और इन परिणमनों के लिए सहायक काल है, काल निष्क्रिय है, उसके पास पैर नहीं, हाथ नहीं, ज्ञान नहीं। उसके पास अपना अस्तित्व है, अपना गुण-धर्म और अपना स्वभाव है। इस काल के बिना आयुकर्म क्या करता है ? नियम से अपने परिणामों के अनुरूप परिणमन करता चला जाता है। उसकी कई अवस्थाएँ हुआ करती हैं, जिनका उल्लेख श्रीधवल, श्रीजयधवल एवं महाबन्ध में किया है।
'आयुक्खयेण मरणं'
(समयसार-२४८)
जैसे दीपक के तेल और बाती का समाप्त होना उसकी मृत्यु है, अवसान है। उसी प्रकार संसारी प्राणी के घट में भरा हुआ आयुकर्म समाप्त हो जाना, फिर चाहे वह मोटा-ताजा हो, हृष्टपुष्ट हो या पहलवान भी क्यों न हो, बाहर से बिल्कुल लाल-सुख टमाटर के समान दिखने वाला हो, उसका भी अवसान बहुत जल्दी हो जाता है, क्योंकि भीतर आयुकर्म समाप्त हो गया।
एक व्यक्ति ने कहा था-महाराज जी ! आजकल तो जमाना पलट रहा है। वैज्ञानिक, वस्तु की स्थायी सुरक्षा का प्रबन्ध करने जा रहे हैं, बस चन्द दिनों में उस पर कन्ट्रोल कर लेंगे, कोई भी वस्तु को मिटने नहीं देंगे, यदि मिटती भी है तो समय-पूर्व नहीं मिट सकती। जैसे शास्त्रों में जहाँ कहीं भी मर्यादा सम्बन्धी व्यवस्था की गई है कि आटे की सीमा गर्मी में पाँच दिन, ठण्ड में सात दिन और वर्षा में तीन दिन, लेकिन अब एक ऐसा यंत्र विकसित हो गया है, (बन गया है) कि उसमें आटा रखने से उम्र ज्यादा पाता है, उसकी सीमा अधिक दिन तक की हो जाती है तथा आज जो वेमौसमी फल वगैरह मिल रहे हैं, वह सभी उसी की देन है। अब दीपावली में भी आम खा सकते हैं, आमतौर पर दीपावली में आम नहीं आ सकते, लेकिन फ्रिज में रख करके बे-मौसम के खाने के काम आते हैं, बात बिल्कुल ठीक है कि आप एक फल जो कि पेड़ से तोड़ा गया है, रेफ्रिजरेटर में रख दीजिए, लेकिन उसके अन्दर भी काल विद्यमान रहता है और वह परिणमन करने में सहायक होता है, क्योंकि परिणमन करना वस्तु का स्वभाव है।
'वर्तनापरिणामक्रियापरत्वापरत्वे च कालस्य'
(तत्त्वार्थसूत्र–५/२२)
कालद्रव्य का माध्यम बना करके प्रत्येक वस्तु का परिणमन निरन्तर चलता रहता है। यदि उस आम को ८-१० दिन के बाद, जब निकाल कर खायेंगे, तब रूप में, गन्ध में, रस में, वर्ण में और स्पर्श में नियम से अन्तर मिलेगा। यह बात अलग है कि इन्द्रियों के 'अण्डर' में हुआ व्यक्ति उस रस के, रूप के और गन्ध के बारे में पहचान न कर पाये, लेकिन उनमें परिवर्तन तो प्रति समय होता जा रहा है, यही आम का मरण है। रूप का, रस का, गन्ध का, स्पर्श का और वर्ण का मरण है। प्रत्येक का मरण है। ध्यान रखिए! मात्र मरण का कभी भी मरण नहीं होता। कोई अजर-अमर है तो वह मरण ही है। कोई नश्वर है तो वह जीवन है। आयुही जीवन है और उसका क्षय होना नश्वरता है, मरण है।
कर्मों का क्षय करना है लेकिन, सुनिये! आयुकर्म को छोड़कर शेष सात कर्मों की निर्जरा बताई गयी है आगम में। कर्म मात्र हमारे लिए बैरी नहीं। 'आठ कमाँ की निर्जरा करो', ऐसा व्याख्यान करने वाला अभी भूल में है। जिनवाणी में आठ कर्मों की निर्जरा के लिए नहीं, किन्तु सात कर्मों की निर्जरा को लिखा है, आयुकर्म की निर्जरा नहीं की जाती है, जो आयुकर्म की निर्जरा में उद्यमशील है उसे हिंसक यह संज्ञा दी गई है।
जो आयुकर्म को नष्ट करने के लिये उद्यत है, कि "किसी भी प्रकार से जल्दी-जल्दी जीवन समाप्त हो जाए" इस प्रकार की धारणा वाला व्यक्ति, ना जीवन का रहस्य समझ पा रहा है, ना मृत्यु का। कर्म-सिद्धान्त के रहस्य को समझने के लिए, अध्ययन करने के लिए, यदि एक प्रतिभासम्पन्न व्यक्ति भी जीवन खपा दे, तो भी मैं समझता हूँ अधूरा ही रहेगा, फिर १० दिन के शिविरों में कर्म के सम्बन्ध में कुछ भी नहीं समझ पायेंगे। कर्म के भेद-प्रभेद, उनके गुण-धर्म आदि-आदि बहुत विस्तार है, कहने को मात्र १४८ कर्म है, लेकिन उनके भी असंख्यात लोकप्रमाण भेद हैं, इनका सम्बन्ध हमारी आत्मा के साथ है, इनका फल भी आत्मा को भोगना होता है और इनके करने का श्रेय भी आत्मा को है, अत: कर्ता-भोक्ता दोनों आत्मा ही है। अपने भावों का कर्ता होते हुए भी, कर्मों का कर्ता कैसे बना ? अपना परिणमन करता हुआ अन्य भावों को पैदा करने में योगदान कैसे देता है? इस सबका हिसाब-किताब बहुत गूढ़ है अत: इनके रहस्य को समझे।
आयुकर्म हमारे लिए प्राण है, प्राण-मतलब जिसके माध्यम से हमारा वर्तमान जीवन चल रहा है। वह पेट्रोलियम का काम करता है। आपको सम्मेदशिखरजी की यात्रा करनी है, आपने एक मोटर की, उसमें एक पेट्रोल टैंक भी रहता है, वह क्या करता है ? वह मोटर को चलाता है और यात्री ऐशोआराम के साथ यात्रा सम्पन्न कर लेता है, अब यदि पेट्रोल टैंक फट जाय तो क्या होगा? गाड़ी तो बहुत बढ़िया है, ब्रेक भी ठीक है, ड्राइवर भी ठीक है-शराब भी पीकर के नहीं बैठा, आराम के साथ-यंत्र देख-देखकर वह गाड़ी को चला रहा है, फिर भी पेट्रोल समाप्त हो जाने से आगे नहीं चलेगी वह, आप भी नहीं जा सकेंगे, मतलब पेट्रोल समाप्त गाड़ी बन्द, यात्रा समाप्त। पेट्रोल क्या है ? यही तो उस गाड़ी का आयुकर्म है।
आयुकर्म के बारे में बहुत समझना है, बहुत शान्ति से समझना है। उसकी उदीरणा अपकर्षण-उत्कर्षण आदि-आदि जो भंग/करण हैं वह बहुत कुछ सोचने के विषय हैं, चिन्तनीय हैं। जीवन तो आप चाहते हैं, लेकिन जीवन की सामग्री के बारे में आप सोचते ही नहीं है, इसी से आपका पतन हो रहा है, मंजिल तक नहीं पहुँच पा रहे हैं, कामना पूर्ण नहीं हो पा रही है, आयुकर्म आत्मा के साथ बन्ध को प्राप्त होता है तो भावों के द्वारा ही स्थितियाँ और अनुभाग के साथ वर्गणाएँ कर्म के रूप में परिणत होकर आ जाती है, ऐसा पेट्रोलियम आपके साथ विद्यमान है तो जो काल के ऊपर आधारित नहीं, किन्तु अपना परिणमन वह पृथक् रखता है। जैसे दो कैरोसिन की गैसबती हैं, वे तेल के माध्यम से जलती हैं, रात में आपको कुछ काम करना था। अत: दुकान से किराये पर ले आये, दुकानदार से पूछा-यह कब तक काम देंगी ? १२ घण्टे तक। अच्छी बात है। अब उन्हें लाकर काम चालू कर दिया, दिन डूबते ही आपने बत्तियाँ जला दीं, लेकिन चार घण्टे के उपरान्त एक बन्द हो गयी, बुझ गई, तो वह दूसरी के सहारे काम करता रहा, रात के बारह बजे तक, सुबह जाकर दुकानदार को कहा-मैं तो एक गैसबत्ती का किराया दूँगा एक का नहीं। क्यों भैय्या क्या बात है ? एक बत्ती ने काम नहीं दिया, हो सकता है आपने इस गैसबती में कैरोसिन कम डाला हो। मालिक ने कहा-नहीं जी, ऐसी बात नहीं है, मैंने नापतौल कर तेल और हवा भर दी थी, फिर इसने काम नहीं किया तो उसमें कुछ गड़बड़ी होनी चाहिए। उसने देखा कि एक सुराख हो गया है तेल टैंक में, यानि बर्नर के माध्यम से जो तेल जाता था, वह तो प्रकाश के लिए कारण बनता है किन्तु जो एक छिद्र हो गया है वह बिना प्रकाश दिये कैरोसिन को निकाल देता है, इसलिए वह चार घण्टे में समाप्त हो गया, जिसे ८ घण्टे और चलना तो वह पहले ही समाप्त हो गया। हम पूछना चाहते हैं कि क्या तेल १२ घण्टे के लिए डाला गया था या चार घण्टे के लिये ? तेल तो १२ घण्टे का डाला, किन्तु छिद्र होने से बीच में ही समाप्त हो गया, अपनी सीमा तक नहीं पहुँच सका। इसी प्रकार आयुकर्म है, वह अपनी स्थिति को ले करके बँधता है लेकिन बीच में उदीरणा से स्थिति पूर्ण किए बिना ही समाप्त हो जाता है, इसमें कर्मों का कोई दोष नहीं, कर्मों का आधारभूत जो नोकर्म शरीर रूपी गैसबत्ती उसकी खराबी है, इसकी खराबी का कारण भीतरी कर्मों को दोष नहीं देना चाहिए, कर्म जिस समय बंध को प्राप्त होता है तो चार प्रकार से बंध हुआ करता है-प्रकृति, प्रदेश, स्थिति और अनुभाग।
प्रकृतिबन्ध-स्वभाव को इंगित करता है। प्रदेशबन्ध-कर्मवर्गणाओं की गणना करता है। स्थिति बंध काल को बताता है कि इतने समय तक यहाँ रहूँगा जबकि काल द्रव्य से उसका कोई सम्बन्ध नहीं, मात्र अपनी क्षमता को काल के माध्यम से घोषित कर रहा है और अनुभाग बंध अपने परिणामों को बताने वाला होता है। यह चार प्रकार के बंध एक ही समय में हुआ करते हैं, ऐसा नहीं है कि पहले प्रकृति बंध हो फिर प्रदेश बंध या पहले स्थिति बंध फिर अनुभाग बंध। पहले कुछ प्रदेश आ जाएँ, फिर शेष तीन प्रकार का बंध हो, ऐसा भी नहीं। जिस समय लेश्या कृत मध्यम परिणाम होते हैं, वह समय आयुकर्म के बंध के योग्य माना गया है, ना कि अन्य परिणामों का। अब समझ लीजिए-किसी ने ८० साल की आयु की स्थिति प्राप्त की अर्थात् ८० वर्ष तक, वह कर्म टिकेगा, इससे आगे नहीं, लेकिन यदि बंध के बाद परिणामों में विशुद्धि आ गई तो स्थिति बढ़ जाने को उत्कर्षण कहते हैं और यदि परिणामों में अध:पतन (अवपतन/संक्लेश) हो गया तो स्थिति और घट गई, वह अपकर्षण है। ये दोनों ही करण अगली आयुकर्म की अपेक्षा से इस जीवन में बन सकते हैं, जिसका उदय चल रहा है। जैसे-मनुष्यायु, तो इसमें ना उत्कर्षण संभव है ना अपकर्षण। इसमें तो उदीरणा संभव है, जितने भी निषेक, कर्मवर्गणाएँ हमें प्राप्त हो गई हैं, उनका समय से पूर्व अभाव अर्थात् उदीरणा संभव है, इसी का नाम आचार्यों ने श्री धवल में कदलीघातमरण कहा है। कदलीघातमरण यानि केले का पेड़ जो बिना मौत के मार दिया जाता है, क्योंकि वह ज्यों ही फल दे देता है, त्यों ही किसान लोग उसे काट देते हैं, कारण कि उसमें दुबारा फल नहीं आता, इसलिए ताजा रहते हुए भी उसको समाप्त कर देते हैं। इसी प्रकार बाहरी निमित्त को लेकर आयुकर्म की उदीरणा होती है।
आयुकर्म की स्थिति और मरण का काल, ये दोनों ही समान अधिकरण में नहीं होते हैं। अर्थ यह हुआ कि स्थिति को पूरा किए बिना ही वे सारे के सारे कर्म बिखर जाते हैं। कर्म-कार्मण शरीर का आधार होता है और कार्मण शरीर-नोकर्म का। ज्यों ही नोकर्म समाप्त हो गया, त्यों ही कार्मण शरीर की गति प्रारम्भ हो जाती है। एक आयुकर्म का अवसान हो जाता है पूरी स्थिति किये बिना ही। वीरसेन स्वामी का कहना है यदि जिसकी २५ वर्ष की उम्र में मृत्यु हो गई तो उसकी उम्र २५ वर्ष की ही थी, ऐसा जो कहता है वह एक प्रकार से कर्म-सिद्धान्त का ज्ञान नहीं रखता। उन्होंने कहा है कि आयुकर्म का क्षय और उसकी स्थिति का पूर्ण होना एक समयवर्ती नहीं है। अर्थात् उस व्यक्ति की उम्र अभी भी ५५ वर्ष शेष थी, जिसको पूर्ण किये बिना ही उदीरणा के द्वारा अकालमरण को प्राप्त कर लेता है।
अकालमरण का मतलब यह कदापि नहीं है, कि वहाँ पर कोई काल नहीं था। अकालमरण का अर्थ वही है, जो कदलीघातमरण का और जो स्थिति को पूर्ण कर मरता है वह सकालमरण का अर्थ है। इस अकालमरण की अपेक्षा या उदीरणा मरण की अपेक्षा से भी भगवान के ज्ञान में विशेषता झलकती है। वह क्या विशेषता है ? भगवान ने मृत्यु को देखा और साथ-साथ उसको अकालमरण के द्वारा देखा।
अकालमरण का अर्थ ऐसा नहीं लेना चाहिए, जैसा कि कुछ लोग लेते हैं, वे डर की वजह से अकालमरण को ही अमान्य कर देना चाहते हैं, लेकिन ऐसा संभव नहीं है। दुनिया में एक ऐसी भी मान्यता है कि आयुकर्म तो रहा आवे और शरीर छूट जावे, तो उसे प्रेत योनि में जाना पड़ता है और जब तक आयु पूर्ण नहीं हो जाती तब तक उसे वहीं भटकना पड़ता है। (जैसे कि आप लोग राकेट को पेट्रोल भरकर भेज देते हैं ऊपर, तो भटकता रहता है-घूमता रहता है वह)। अत: उसका श्राद्ध करो, उसकी शान्ति करो, आदि-आदि कार्य करते हैं, नहीं तो सिर पर आ जाएगा। जैसे स्काइलेव के द्वारा आप लोग डर रहे थे। उसी प्रकार वे भी डरते रहते हैं कि हमारे ऊपर वह भूत सवार न हो जाये। लेकिन कुन्दकुन्द भगवान ने कहा है 'आयुक्खयेण मरण' अर्थात् आयुकर्म के निषेक रहे आवें और मृत्यु हो जाए, यह संभव ही नहीं तथा आयुकर्म समाप्त हो जावे और जीवन रहा आवे, यह भी संभव नहीं। इसका अर्थ यह भी नहीं है, जितना समय निकल गया, उतने ही निषेक थे, लेकिन ऐसा संभव कदापि नहीं कि स्थितिबन्ध तो ८० वर्ष का था और २५ साल में ही जिसका अभाव हो गया-कदलीघातमरण हो गया और भी कम में हो सकता है तो उतनी ही उम्र थी, ऐसा नहीं समझना चाहिए, उसकी क्षमता अधिक होती है। इसको एक अन्य उदाहरण से समझ लीजिए -
किसी एक व्यक्ति को नौकरी मिल गयी, कोई भी विभाग में, इस विभाग में नौकरी तो मिल गई-बहुत अच्छा काम मिला, लेकिन कब तक रह सकता हूँ ? ५० वर्ष तक तुम रह सकते हो, अच्छी बात है इसके बाद कुछ और भी बातें लिखाई गई और कह दिया गया कि इन शर्तों के अनुसार आप ५० वर्ष तक नौकरी कर सकते हैं, वेतन भी इतना-इतना मिलेगा, सब तय हो गया। एक दिन उसी कर्मचारी ने बदमाशी की, तो उन्होंने निकाल दिया, सस्पेण्ड कर दिया, अब वह कहता है कि हम तो हाईकोर्ट में नालिश करेंगे, आपने कहा था कि ५० वर्ष तक काम कर सकते हैं, फिर बीच में क्यों निकाला ? यह कहाँ का न्याय है ? उन्होंने कहा-हमने यह कहा था कि, हमारे जो कानून हैं उनके अनुसार चलोगे तो ५० वर्ष तक काम देंगे, इसका मतलब यह नहीं कि तुम यद्वा तद्वा करो, ‘कुर्सी' के ऊपर बैठ जाओ और ऊँघते रहो, काम कुछ भी न करो, मात्र वेतन के लिए हाजिरी लगा दो यह कैसे चलेगा, कानून भंग होते ही बीच में काम से हाथ धोना पड़ सकता है। यदि सज्जन है तो बात ही अलग है। इसी प्रकार आयुकर्म बंधने के उपरान्त कुछ ऐसी स्थितियाँ भी आती हैं, जिनमें स्थिति को पूर्ण किए बिना ही मृत्यु को प्राप्त कर सकते हैं और नहीं भी।
इस रहस्य को समझना है कि क्या मृत्यु को हम बचा सकते हैं ? प्रश्न बहुत ही विचारणीय है, तेज है, समस्याप्रद है, क्योंकि हम जानते हैं कि आयुकर्म को टाला नहीं जा सकता, रोका नहीं जा सकता, परिणाम कितना है? गिना नहीं जा सकता, फिर कैसे इसकी रक्षा करें, मृत्यु से बचें ? इसी के द्वारा जीवन चल रहा है। आचार्यों ने इसके विषय में उलझन न करके सुलझी-सी बात कही है कि कर्म के ऊपर तुम्हारा कोई अधिकार नहीं, स्वयं का भी अधिकार नहीं है, तब अन्य का क्या? कौन-सा कर्म कब और किस रूप में उदय में आ रहा है, आ जाए, इसको हम नहीं जान सकते। कोई भी रसायन ऐसा नहीं है कि जो कर्मों को रोक सके, दबा सके, वे तो अपने आप अबाधित गति से निकल रहे हैं। तब आचार्यों ने कहा कि-आयुकर्म की रक्षा तो कर नहीं सकते, लेकिन आयुकर्म की जो उदीरणा हो रही है, उसे रोक सकते हैं, उस उदीरणा के स्रोत कौन-कौन से हैं तो कहा है-भयानक रोग के माध्यम से, भुखमरी से, श्वांस के सैंध जाने से, शस्त्र के प्रहार से, अति संक्लेश-परिणामों से तथा विषादिक के भक्षण से, ऐसे अनेक कारण हो सकते हैं। आचार्य कुन्दकुन्ददेव ने अष्टपाहुड में अकालमरण के निमित्तों को लेकर एक तालिका ही दे दी है। उन जैसा विश्लेषण अन्यत्र नहीं मिलता। उन्होंने एक बात बहुत मार्के की कही है कि अनीति नाम के हेतु से भी यह संसारी प्राणी अतीतकाल में अनन्तबार अकालमरण का कवल (ग्रास) बन चुका है।
आज के इस जमाने को देखने से ऐसा लगता है कि अनीति पर कोई भी रोक-टोक नहीं है। 'अन्धेर नगरी चौपट राजा, टके सेर भाजी टके सेर खाजा' आज कोई व्यक्ति कन्ट्रोल में नहीं है। लोकतन्त्र का जमाना और उसमें भी अनीति का बोलबाला है। अनीति राज्य कर रही है हमारे जीवन पर, फिर भी हम सम्यक दर्शन की चर्चा कर रहे हैं। आचार्य समन्तभद्र स्वामी ने कहा है कि - जिस व्यक्ति के जीवन में बहुत आरम्भ और बहुत परिग्रह के प्रति भीतर से पीड़ा नहीं, उस व्यक्ति को सम्यक दर्शन की भूमिका का सवाल भी नहीं उठता। आचार्य समन्तभद्र ही नहीं और भी कई आचार्य हुए हैं, जिन्होंने अनीति का खुलकर निषेध किया है। आज जो यद्वा-तद्वा व्यापार कर रहा है, घूसखोरी दे करके या और भी कुछ देकर, देने को तैयार है, नेता बनने का प्रयास कर रहा है, उसका सर्वप्रथम निषेध जैनाचार्यों ने किया है। उन्होंने कहा है- 'न्यायोपान्तधन'। न्याय के साथ जो धन कमाया जाता है वही आगे जा करके धर्म-साधन में सहायक होगा। अन्याय के साथ जो धन कमाता है वह तीनकाल में भी मुमुक्षु नहीं बन सकता। उसकी बुभुक्षु-पिपासा इतनी कि वह तीनकाल में भी अपने जीवन को सम्हाल सके, असंभव है। फिर सम्यक दर्शन कोई आसान चीज नहीं है, सम्यग्ज्ञान कोई आसान नहीं है, सम्यक्रचारित्र तो और भी लम्बी-चौड़ी बात है। सम्यक दृष्टि का भी चारित्र होता है। आचार्य कुन्दकुन्ददेव ने सम्यक्त्वाचरण चारित्र की परिभाषा बताते हुए अष्टपाहुड में कहा है-जिस व्यक्ति के जीवन में शासन के प्रति प्रेम नहीं अर्थात् जिनशासन के प्रति गौरव नहीं, उसके जीवन में प्रभावना होना तीनकाल में संभव नहीं।
आज हम देख रहे हैं, जैनियों के यहाँ भी ऐसे-ऐसे कार्य होते चले जा रहे हैं, जिनसे कि जैनशासन को नीचा देखना पड़ता है। आप भले ही यहाँ टीनोपाल के कपड़े पहनकर आयें, अच्छे से अच्छे साफ सुथरे पहनकर आयें लेकिन वहाँ पर तो लोग कहेंगे कि ये जैन हैं।
एक जमाना था कि जब टोडरमल जी थे, सदासुखदासजी थे, जयचन्दजी थे और दौलतराम जी थे। ये सभी ऋषि-मुनि नहीं थे, पण्डित थे। परन्तु उनके जीवन में सदा सुख-सादगी थी। गाँधीजी ने विश्व में तहलका मचा दिया और स्वतंत्रता दिला दी। क्या पहनते थे वह, क्या रहनसहन था उनका मालूम है। हर तरह से सादगी थी उनके जीवन में। जबकि, अब व्यक्ति ऐशोआराम में डूब रहा है। विलासता का अनुभव करने के लिए यह मनुष्य जीवन नहीं है। बन्धुओ! इसमें योग और साधना की सुगन्ध आनी चाहिए। एक बार गाँधीजी को पूछा गया-आप इस प्रकार से कपड़े पहनते हैं। ऐसा जीवन बिताने से क्या होगा? अरे! शरीर की रक्षा के लिए तो सभी कुछ आवश्यक है ? तब उन्होंने कहा-हमने मात्र अपने विचारों को स्वतंत्रता देने के लिए यह संग्राम छेड़ा, यहाँ जीवन के नाम पर ऐशोआराम नहीं करना है। आज देश में सबसे बड़ा संकट/सबसे बड़ी समस्या, भूख की नहीं, प्यास की नहीं बल्कि भीतरी विचारों के परिमार्जन करने की है। इसी से विश्व में त्राहि-त्राहि हो रही है। यह समस्या धर्म के अभाव से, दया के अभाव से ही है। एक-दूसरे की रक्षा करने के लिए कोई तैयार नहीं। जो रक्षा के लिए नियुक्त किये गये, वही भक्षक बनते चले जा रहे हैं। एक-दूसरे के ऊपर जो विश्वास था, प्रेम था, वात्सल्य था, वह सब समाप्त होता चला जा रहा है। अपनी मान-प्रतिष्ठा के लिए आज ऐसे-ऐसे घृणित कार्य किये जा रहे हैं, जिनसे कि जिनशासन और देश को अपार क्षति हो रही है।
मेरे पास, आज से २ साल पूर्व एक बन्द लिफाफा आया था, जिसमें एक कार्टून रखा था, उसमें कहा गया था कि महाराज! वनस्पति घी के नाम पर उसमें अशुद्ध पदार्थ डाले जा रहे हैं वह भी जैनियों के द्वारा। क्या आप ऐसा न करने के लिए उन्हें उपदेश नहीं दे सकते ? इस शताब्दी में ऐसे-ऐसे जघन्यतम कार्य हो रहे हैं और उसमें भी जैन सम्मिलित हैं। विश्व में वित्त की होड़ लग रही है। इसीलिए क्या हम भी वित्त कमा रहे हैं ? आप अवश्य ही उपदेश दीजिए। मैंने कहा-भैय्या ! मैं उपदेश देने के लिए मुनि नहीं बना हूँ, फिर भी यदि आप उपदेश चाहते हैं तो सामूहिक रूप में उपदेश दे सकते हैं। किसी एक व्यक्ति को नहीं, कारण कि वह उपदेश नहीं माना जाएगा। मुझे भी देख करके खेद होता है कि आज जो काण्ड हो रहे हैं उनकी चाहे व्यापार में, बहुत आरम्भ के बारे में और चाहे बहुत परिग्रह के बारे में, कोई सीमा नहीं रही है। धन का इतना अधिक लोभ करने वाले व्यक्ति के धर्म, दया, प्रेम सुरक्षित नहीं रह सकते।
जैनशासन में जो पंथ चलते हैं, वे सागार और अनगार के हैं, अविरत सम्यक दृष्टि का कोई पंथ नहीं होता। अविरत सम्यक दृष्टि तो मात्र उन दोनों पंथों का उपासक हुआ करता है। जिसे जिनशासन के प्रति गौरव नहीं, आस्था नहीं, उसके पास चारित्र नहीं। आचार्य कुन्दकुन्ददेव कहते हैं कि-जिसके पास सम्यक्त्वाचरण चारित्र नहीं है उसके पास सम्यक दर्शन भी नहीं है। जिस व्यक्ति में साधर्मी भाइयों के प्रति करुणा नहीं, वात्सल्य नहीं, कोई विनय नहीं वह मात्र सम्यक दृष्टि होने का दम्भ कर सकता है, सम्यक दृष्टि नहीं बन सकता। आज अनीति के माध्यम से कई लोग मृत्यु के शिकार बनते चले जा रहे हैं। ‘हार्ट-अटेक' क्यों होता है ? इसीलिए तो, कि अन्दर डर रहता है और ऊपर से शासन के करों का/टेक्सों का अपहरण करते हैं। लेकिन यह भगवान महावीर का दरबार है। इसमें अनीति-अन्याय के लिए कोई स्थान नहीं मिलता। यहाँ तो नीति-न्याय के अनुसार, सादगीमय जीवन से काम लेना होगा।
सदासुखदासजी के बारे में मुझे पंक्तियाँ याद आ रही हैं। सदासुखदास जी जयपुर में रहते थे। किसी शासनाधीन विभाग में कार्य करते थे वहाँ, वर्षों काम करते रहे। एक बार सभी लोगों ने हड़ताल कर दी कि हमारे वेतन का विकास होना चाहिए। माँग पूरी भी कर दी गई। लेकिन सदासुखदासजी ने माँग ही नहीं की थी, तो माँग के अनुसार जब इनके पास ज्यादा वेतन आया तब उन्होंने कहा-ज्यादा क्यों दे दिया, कोई भूल तो नहीं हो गई ? इतने ही हमारे होते हैं ? इतने आपके हैं। वही नहीं, सभी के वेतन में वृद्धि हो गई है। तब सदासुखदासजी ने कहा-सबके लिए हो सकती है लेकिन मुझे आवश्यकता नहीं। क्यों, क्या बात हो गई ? सभी ने लिया है तो आपको भी लेना चाहिए। उन्होंने कहा-मालिक को बता देना, मैं आठ घण्टे की ड्यूटी कर उतना ही काम कर रहा हूँ, कोई १६ घण्टे तो नहीं करने लग गया, जितना काम करता हूँ, उतना वेतन लेता हूँ, अत: उनसे कह दीजिए कि मुझे ज्यादा नहीं चाहिए। मालिक कहता है-ऐसा कौन-सा व्यक्ति है जो हड़ताल में शामिल नहीं हुआ। जाकर मेरा कह देना तो वह ले लेगा। सेवक ने कहा-भैय्या ले लीजिए, मालिक ने कहा है। नहीं, मैं नहीं ले सकता। अब मालिक ने उन्हें ही बुलाया और कहा मेरे कहने से ले लो। तब भी सदासुखदासजी ने कहा-मुझे नहीं चाहिए। फिर क्या चाहते हैं आप ? मालिक ने पूछा। मुझे यही चाहिए कि अब शेष जीवन का अधिक से अधिक समय जिनवाणी की सेवा में लगा सकूं, अत: मुझे आठ घण्टे की जगह चार घण्टे का काम रहे और वेतन भी आधा कर दिया जाय। इसको बोलते हैं, मुमुक्षु और उसकी जिनवाणी के प्रति साधना-सेवा। जैसा नाम था वैसा ही काम सदासुख। उन्होंने कहा-हम धन्य हैं, हमारे राज्य में इस प्रकार के व्यक्ति का रहना, बहुत ही शोभास्पद है, सदासुखदासजी का जीवन कितना सादगीपूर्ण था। एक बार टीकमचन्द, भागचन्दजी सोनी (जिन्होंने अजमेर के अन्दर नसियांजी का निर्माण कराया) के पास उनके द्वारा लिखे हुए पत्र मैंने स्वयं अपनी आँखों से पढ़े हैं, जब टीकमचन्दजी अपने परिवार सहित सम्मेदशिखरजी की यात्रा के लिए जाने वाले थे, उस समय सदासुखदासजी जयपुर में रहते थे, अत: कहा गया कि आपको भी सम्मेदशिखरजी की यात्रा के लिए साथ चलने के लिए आना है, मैं सारा प्रबन्ध कर लंगा, आपको कोई चिन्ता नहीं करना है, सारी चिन्ताएँ छोड़कर चलना है, लेकिन जवाब में पण्डितजी ने लिखा-मैं नहीं आ सकता हूँ, क्योंकि मैंने देशावकाशिक व्रत ले लिया है, इससे हम सीमा को छोड़कर नहीं जायेंगे, साथ ही मैं सल्लेखना के लिए भी प्रयास कर रहा हूँ, इसीलिए मैंने ड्यूटी भी कम कर दी है, अब मुझे आत्मकल्याण करना है। अब तो -
अन्त: क्रियाधिकरणं, तपःफलं सकलदर्शिनः स्तुवते।
तस्माद् यावद् विभवं, समाधिमरणे प्रयतितव्यम् ॥
रत्न. श्राव. ६/२
समाधिमरण प्राप्त करने के लिए आचार्य समन्तभद्रस्वामी ने कहा-यदि वृद्धावस्था आ रही है तो जल्दी-जल्दी कीजिए, जब तक वैभव अर्थात् शक्ति है शरीर में, तब तक इस ओर सारी शक्ति लगा दीजिए, जिससे यह जीवन शान्त-निराकुलतामय बन जाए और आगे भी शान्ति का लाभ हो सके।
आचार्य समन्तभद्रस्वामी के रत्नकरण्डक श्रावकाचार पर जो कि मूलतः श्रावकों के लिए लिखा गया है, सदासुखदासजी ने टीका की, उसे आज भी आबाल-वृद्ध सभी पढ़ते हैं। मैं तो रत्नकरण्डक को 'रत्नत्रय स्तुति' ग्रन्थ मानता हूँ, उसमें रत्नत्रय की स्तुति के माध्यम से सच्चे देव, शास्त्र, गुरु की उपासना करता हुआ व्यक्ति, अन्त में सल्लेखना ले करके बहुत आरम्भ, बहुत परिग्रह क्या ? वह तो बहुत दूर की बात होगी, अब तो थोड़ा-सा भी परिग्रह शनि के रूप में मानकर दूर फेक देगा, उनकी कृतियाँ आज भी धरोहर हैं, हम उनका मूल्यांकन करने चलते हैं तो पाते हैं कि कितना अपार अनुभवमय जीवन था उनका, कितनी सादगी थी, मुनि बन जाते तो, कितना उपकार कर जाते, पता नहीं, भजनों में लिखते हैं कि ‘वे मुनिवर कब मिल हैं उपकारी' यानि उनके जीवन में ऐसे मुनि महाराजों के दर्शन भी सुलभ नहीं थे, लेकिन आज उनके भजन से ऐसा लगता है कि ये भी मुनिराजों से कम नहीं थे, उनके भीतर-मन में मरण से किंचित् भी डर नहीं था, वे मरण के ऊपर महोत्सव मनाने में लगे रहे, अन्तिम समाधि, सदासुखदासजी की कैसी हुई, मालूम है ? उन्होंने पहले से तिथि लिख दी, कि फलां तारीख को इस समय, इस प्रकार की घटना होने वाली है, मैं कुछ भी नहीं कर सकूंगा, वही घटना, वही तिथि और वही समय, भागचन्द सोनी को आँखों में पानी आ रहा था सुनाते-सुनाते कि इस प्रकार का उच्च आदर्शमय जीवन था सदासुखदास जी का, उन पत्रों को उन्हीं ने बताया था, जो कि एकत्रित कर रखे हैं।
एक जीवन ऊपर कहा जा चुका और एक आज का जीवन है, आज यद्वा-तद्वा आचरण कर असमय में ही मृत्यु की गोद में पहुँच रहे हैं लोग, इस आयुकर्म को अच्छी तरह से रखना है, जीवन में डर नहीं होना चाहिए, लोभ नहीं होना चाहिए।
'क्रोधलोभभीरुत्वहास्यप्रत्याख्यानान्यनुवीचिभाषण च पञ्च'
(तत्त्वार्थसूत्र–७/५)
जिसके जीवन में क्रोध है वह सत्य का उद्घाटन नहीं कर सकता। जो व्यक्ति पाई-पाई के लिए लोभी बन रहा है वह जिनवाणी का, सत्य का प्रचार-प्रसार नहीं कर सकता। भीरुत्व, ये क्या कहेंगे ? क्या पता, इसलिए पलट दो, आज कुछ, कल कुछ। अभी कुछ, रात को कुछ और सुबह कुछ, मन में कुछ, लिखना कुछ और कहना कुछ और ही, यह कुछ का कुछ, क्यों होता है, यह भीतरी दृढ़ता नहीं होने के कारण होता है। आचार्य कुन्दकुन्द, समन्तभद्रस्वामी आदि के उपासक जैनियों को आज क्या हो गया ? उनके साहित्य को ले करके हम क्या कर रहे हैं, जिनवाणी माँ के ऊपर आज कीमत लिखी जा रही है। भगवान के ऊपर भी कहीं कीमत लिखी क्या ? नहीं लिखी। गुरुओं के ऊपर कीमत है क्या ? नहीं है। फिर जिनवाणी के ऊपर कैसे-क्यों लिखी जाती है-जा रही है ? जिनवाणी का भी क्या कोई मूल्य है? आज ५० साल भी नहीं हुए गुजरात में श्रीमद् रायचन्दजी हुए जिन्होंने अगास में आश्रम खोला है, उन्होंने कहा था-जिनवाणी का कोई मूल्य नहीं होता है। अनमोल वस्तु है जिनवाणी, इसके लिए जितना भी देना पड़े कम है, वह जवाहरात की थाली लिए बैठे थे, जो भी व्यक्ति समयसार भेंट करता, उसको सारे जवाहरात दे देते थे, पर आज ५ रुपये, १० रुपये, २५ रुपये, होड़ लगी है, स्पर्धा हो रही है, क्या हो रहा है साहित्य का-जिनवाणी माँ का। बिल्कुल गलत है यह तरीका, यह विधि, जैसा-तैसा प्रकाशन करना, यद्वा-तद्वा प्रचार करना। शादियों में समयसार बाँटा जा रहा है, जैसे कि पूड़ी बाँटी जाती है, ऐसा नहीं होना चाहिए, यह अनमोल है, तब क्या प्रत्येक व्यक्ति इसको पढ़ सकता है ? यद्वा-तद्वा ही पढ़ेगा, जिनवाणी की सेवा यही है कि जो सुपात्र है, उसको आप दीजिए। जो क कह रा भी नहीं जानता, उसके सामने जा करके अपना साहित्य देंगे तो वह उसकी कीमत ही नहीं करेगा, रद्दी में बेच देगा, आज मौलिक साहित्य रद्दी में बेचा जा रहा है, हमने अपनी आँखों से देखा है कि बड़े-बड़े ग्रन्थों को बिस्तर में बाँध दिया गया और कहाँ पर पटक दिया, यह आप भी जानते हैं, यह आज की स्थिति है, आज जैनियों को क्या हो गया समझ में नहीं आता ? यह सादगीपूर्ण जीवन के अभाव के कारण ही हो रहा है, अनाप-शनाप व्यवसाय करके वित्त आने से रात-दिन चैन नहीं, आज विश्व में वित्त ज्यादा होने से विद्यानि ज्ञान का अवमूल्यन होता चला जा रहा है, उसी कारण से आज जिनवाणी के प्रति आदर नहीं है, सत्य की पहचान नहीं है, पापों से भय नहीं है और सारी दुनियाँ भर में भय बढ़ता जा रहा है।
मैं श्री जयधवल का अध्ययन कर रहा था तब एक प्रसंग आया कि -जिस व्यक्ति को भयकर्म की उत्कृष्ट उदीरणा हो रही हो उस व्यक्ति के पास नियम से मिथ्यात्व रहेगा। जिस व्यक्ति को विशेष रूप से लोभ रहेगा, बहुत आरम्भ, बहुत परिग्रह होगा, उसके नियम से मिथ्यात्व कर्म की उदीरणा होगी। लोभ के साथ दर्शनमोहनीय का विशेष सम्बन्ध है। श्री धवल- श्री जयधवल, महाबन्ध पढ़ने का प्रयास करिए, तब मालूम पड़ेगा कि हमारे परिणाम कब कैसे होते हैं ? उन परिणामों के साथ कौन-सा परिणाम होना आवश्यक है, लोभ का यद्यपि चारित्रमोहनीय से सम्बन्ध है, लेकिन वह कहते हैं कि जब अति लोभ होगा तब मिथ्यात्व कर्म की उदीरणा हुए बिना नहीं रहेगी, इसलिए आप यदि स्वयं को तथा दूसरों को-दुनियाँ को सम्यक दर्शन से सहित देखना चाहते हैं तो सर्वप्रथम बहुत आरम्भ, बहुत परिग्रह छोड़ दीजिए, वैसे स्वाध्याय ज्यादा आवश्यक नहीं जितना आरम्भ-परिग्रह का त्याग। बहुत से आचार्यों ने स्वाध्याय के लिए जोर दिया पर ध्यान रखिए यह मुनियों को भी आवश्यक रूप में नहीं है, स्वाध्याय २८ मूलगुणों में नहीं है, स्वाध्याय को तप के अन्तर्गत गिना गया है, आज केवल स्वाध्याय का, स्वाध्याय के द्वारा अनेक प्रकार की भीतरी वासनाओं को पूर्ण करने के लिए प्रचार-प्रसार किया जा रहा है, जो कि बिल्कुल आगम विरुद्ध है, श्रावकों को भी आवश्यक नहीं बताया गया स्वाध्याय, न श्री धवल में, न श्री जयधवल में, न महाबन्ध में, न रत्नकरण्डकादि श्रावकाचारों में आवश्यक बताया है, फिर यह प्रवाह कैसे आ गया? मुझे मालूम नहीं, लेकिन इसके उपरान्त भी कह सकता हूँ कि मान लीजिए, श्रावकों के षट्कर्मों में लिखा गया, तो पहले यह ध्यान रखिए कि षट्कर्म किसके होते हैं ? आचार्यों ने कहा है-अहिंसा आदि व्रत, चाहे अणुव्रत हो या महाव्रत उसकी सुरक्षा के लिए, उन श्रावकों-मुनियों के लिए जीवन में छह आवश्यक कर्म बताये गये हैं, जैसे खेती की रक्षा बाडी के माध्यम से होती है उसी प्रकार आवश्यकों को जानना।
अब केवल स्वाध्याय-स्वाध्याय को करने-कहने की बजाय, अपने जीवन से तामसी प्रवृत्तियों को कम करो, सत्य रखो, समता रखो, वात्सल्य रखो, प्रेम रखो। और जीवन के प्रति गौरव रखो। हमारी कौन-सी संस्कृति है इस बात का ध्यान रखो, हम जैन हैं, जैन होने के नाते अपनी वृत्तियों को संयमित रखो।
जैन कहते ही पहले अदालतों से छुट्टी मिल जाती थी, लेकिन आज जैन कहने की हिम्मत नहीं हो रही है, अखबारों में छपे समाचारों को देखकर बहुत ही दु:ख होता है कि आखिर हम भी तो उसी कोटि में माने जायेंगे/आ जायेंगे, वैसे साधु किसी सम्प्रदाय के नहीं होते, साधु तो विश्व का होता है, फिर भी हमारे साथ 'जिन' एक ऐसा शब्द लगा है, वह उन भगवान को इंगित करता है, जो रागद्वेष नहीं करते, विषय-कषाय से रहित होते हैं, आरम्भ-परिग्रह से रहित होते हैं, ऐसे जिन भगवान हुआ करते हैं, जिन भगवान की उपासना करने वाले जैन माने जाते हैं, तब जैन का कार्य भी इन जैसा होना चाहिए, उनके कदमों पर चलना चाहिए, चलने की स्पर्धा होनी चाहिए, होड़ होनी चाहिए, जबकि आज हम विपरीत दिशा में जाकर अपने को जैन सिद्ध करना चाहें तो दुनियाँ बावली नहीं, भोली नहीं, अंधी नहीं, आँखें लगाकर देखती है, आजकल आँखें तो क्या, आँखों के ऊपर आँखें (सूक्ष्मदर्शी इत्यादि) लगाई जा रही हैं! आँखें (निगाहें) रखी जा रही हैं! कौन क्या-क्या कर रहा है, कौन क्या बोल रहा है, कौन कैसा पलट रहा है, कैसा उलट रहा है? कोई भी उसकी निगाहों से बच नहीं सकता।
सदासुखदासजी के जीवन से हमें ज्ञात होता है कि जीवन बहुत सादगीपूर्ण होना चाहिए। यह बुन्देलखण्ड है और मैं मानता हूँकि यहाँ पर अभी यह हवा नहीं है या नहीं के बराबर है लेकिन आने में देर नहीं, कहीं चक्रवात आ जायें तो इसे भी अपने चक्कर में ना ले ले, बस यही मैं चाहता हूँ, कामना करता हूँ, इसको शुद्ध रखने की अधिक से अधिक कोशिश की जाए। हम भले ही शुद्ध-शुद्ध की चर्चा करते जायें कि आत्मा शुद्ध है, हम शुद्ध आम्नाय वाले हैं किन्तु भगवान कहते हैं कि जिसका आचरण शुद्ध नहीं उसकी आम्नाय शुद्ध नहीं, आम्नाय (परम्परा) आचार और विचार की एकता से ही चलती है। सही शुद्ध आम्नाय तो वही है, जिसमें महान् चरित्रनिष्ठ आचार्य कुन्दकुन्ददेव हुए, समन्तभद्रस्वामी हुए और भी आचार्य हुए और हो रहे हैं, जिन्होंने श्रावकों के लिए, अल्पबुद्धिशालियों के लिए ग्रन्थ रचना की और जिनशासन की प्रभावना की, अपनी भावना के द्वारा, अन्त में अपने जीवन का कल्याण किया तथा हजारों-लाखों जीवों का कल्याण किया, उनका मार्ग प्रशस्त किया, अब आप वह मार्ग अक्षुण्ण बनाये रखें, यही हमारा निवेदन है।
बन्धुओ! नीति-न्याय को नहीं भूलिये, आज की पीढ़ी, जो कि २५ से ४० वर्ष के बीच की है, यह ऐसी पीढ़ी है जो सम्पन्न है और उसमें करने की, कुछ पाने की सामथ्र्य है, साथ ही कुछ जिज्ञासाएँ व संभावनाएँ भी हैं, ऐसी पीढ़ी के सामने यदि आपने अपने अनीतिमय जीवन को रखा तो उनके जीवन को पाला लग जायेगा। आप यदि करुणा कर, उनके भविष्य, जीवन के बारे में करुणा करते हैं तो इस घृणित जीवन को आज से ही छोड़ दीजिए और संकल्प कीजिए कि अब हम अपने जीवन में अनीति को कोई स्थान नहीं देंगे। तब समझा जाएगा कि प्रतिष्ठा-महोत्सव बहुत अच्छी बात है। अनीति से धनोपार्जन नहीं होना चाहिए और अनीति के द्रव्य का (धन का) दान नहीं देना चाहिए।
दान देने का अर्थ, यह नहीं है कि हम यद्वा-तद्वा दान दें, यदि एक व्यक्ति चोरी करके दान दे तो क्या वो दान कहलायेगा? नहीं! नहीं!! वह तो पाप का ही कारण बन जाएगा, जो आरम्भपरिग्रह किया था उसके द्वारा पाप का ही आस्रव हुआ और पाप का ही उपभोग हुआ करता है, अत: इसको छोड़ दो!.बिना देखे छोड़ दो, जिस प्रकार मल को छोड़ते हैं उसी प्रकार इसको भी छोड़ने के लिए कहा है, किन्तु आज तो यह नाटक जैसा होता जा रहा है, जबकि सभी बातें सारी-दुनियाँ जान रही है, इसलिए अब किसी भी प्रकार के साहित्य के माध्यम से प्रचार-प्रसार नहीं किया जा सकता |
आज तो हमारी नीति, हमारा न्याय, हमारा आचरण, हमारे विचार, हमारा व्यवहार जो कि समाज के सामने है, उसे देखकर ही मूल्यांकन किया जावेगा। आज की पीढ़ी इस प्रकार से अन्धानुकरण कर चलने वाली नहीं है, अनीतिपूर्वक 'गवर्मेन्ट' के 'टैक्स' को डुबोकर, दान देना, दान नहीं माना जाता, आचार्य उमास्वामीजी ने कहा है -
"स्तेनप्रयोगातदाहतादानविरुद्ध -राज्यातिक्रम-हीनाधिकमानोन्मानप्रतिरूपक व्यवहारा:''
(तत्त्वार्थसूत्र-७/२७)
राज्यातिक्रम बहुत बड़ा दोष है और संभव है वह जैनियों के ऊपर कोई आपत्ति ला दे, इसीलिए सत्ता के विपरीत चलना धर्म नहीं, अधर्म माना जायेगा, जो सत्ता के विपरीत चलेगा, वह महावीर भगवान के शासन को भी कलंकित करेगा, दूषित करेगा, बात यद्यपि कटु है लेकिन, कटु भी सत्य हुआ करता है। जैसे-माँ को गुस्सा आ गया। क्यों आया ? क्योंकि उसका लड़का उत्पथ, उन्मार्ग पर आरूढ़ हो जाता है तो उसका सब कुछ कहना-करना आवश्यक हो जाता है, इसलिए आप समझिए कि जब तक भीतर आत्मा के परिणाम उज्ज्वल नहीं होंगे, हमारा आचार-विचार उज्ज्वल नहीं रहेगा, तब तक हमारा सम्बन्ध महावीर भगवान से नहीं होगा, कुन्दकुन्द के साथ नहीं होगा, समन्तभद्र के साथ नहीं होगा, इतना ही क्या ? आप लोग सुनते ही हैं - जब पिताजी अवसान के निकट होते हैं, तब बेटा को बुलाते हैं, क्या आज्ञा है बाबूजी और कोई आज्ञा नहीं, बस यही कि जब तक आज्ञा का उल्लंघन नहीं करेगा तब तक ही मेरा बेटा है, देख! तेरे लिए ही सब कुछ किया-दुकान बना दी, मकान बना दिया, खेती-बाड़ी कर दी, सब कुछ तो कर दिया, अब कोई आवश्यकता नहीं, लेकिन यह ध्यान रखना कि इस परम्परा में दूषण न लगे, नहीं तो उसी दिन से हमारा-तुम्हारा कोई सम्बन्ध नहीं, अब फर्म मेरी नहीं, तुम्हारी है अत: फर्म की परम्परा देखकर काम करना, आप इन सब बातों को तो करने जल्दी कटिबद्ध हो जाते हैं, लेकिन यहाँ पर आप सोचते हैं कि-ऐसा करने से कहीं हमारा जीवन ही न मिट जाये, लेकिन हमारा जीवन वस्तुत: धार्मिक जीवन है और इस दृश्य को देखकर भगवान महावीर क्या कहते होगे, कुन्दकुन्द भगवान क्या कहते होंगे और समन्तभद्र महाराज क्या कहते होंगे ? जरा सोची, विचार तो करो ?
हमारा साहित्य तो बहुत ही उज्ज्वल है। विश्व-भर में भी इस प्रकार का साहित्य नहीं मिल सकता, लेकिन हमारे इस आचरण को देखकर लोग व्यंग में कहते हैं कि क्या यह इस साहित्य की देन है, जो व्यक्ति इस प्रकार के साहित्य के साथ होने पर भी अनीति के साथ चलता है, झूठ बोलता है, चोरी करता है, कुशील करता है, परिग्रह की होड़ लगाता है तो उसके मुख से जो शब्द निकलेगा वह विनाशकारी होगा, कार्यकारी शब्द तीनकाल में भी संभव नहीं है।
धन्य हैं वे समन्तभद्र! धन्य हैं वे कुन्दकुन्द, जिन्होंने हमारे लिए मृत्यु की भीति से दूर हटा दिया। मृत्यु क्या है ? दिखा दिया। जन्म क्या है ? सब कुछ बता दिया।
जीव अरू पुद्गल नाचै। यामें कर्म उपाधि है।
(बारह भावना, मंगतराय कृत २२)
अर्थात् जीव और पुद्गल कर्म ये दोनों मिलकर यहाँ पर नाच रहे हैं, यहाँ प्रत्येक व्यक्ति नट (नाच दिखाने वाले) हैं, तो फिर देखने वाला कौन है? सारे सारे नट ही हैं! देखने वाला कोई नहीं! अत: खुद ही अपनी आत्मा को सजग-जागृत बनायें और हम अपने नाटक को देखें, सोचें, लेकिन इसमें टिके नहीं, भटके नहीं! हम भटकते चले जा रहे हैं! राग-द्वेष-मोह-माया-मत्सर इत्यादि का स्वरूप समझे और इनको तिलांजलि दे दें! अपने एकमात्र शुद्ध स्वरूप का, निरंजनस्वरूप अखण्डज्ञान का चिन्तन करें! कितना आनन्द, शक्ति और वैभव पड़ा है हमारे पास, एक महान् सेठ होकर भी संसारी-प्राणी अज्ञान और कषाय के वशीभूत होकर भिखारी के समान दर-दर, एक-एक दाने के लिए मुहताज हो रहा है, भगवान कुन्दकुन्द को हमारे ऐसे जीवन पर दया, करुणा आती है, रोना आता है कि कैसे समझायें ? माँ का रोना स्वाभाविक है, क्योंकि आखिर उसकी वह संतान उसके जीवन के ऊपर ही तो निर्धारित है, मैं उसको दिशा-बोध नहीं दूँगी तो कौन देगा ? इस प्रकार वह सोचती रहती है, विचार करती रहती है।
बन्धुओ! अनीति के व्यसन से बचिये, वित्त की होड़ को छोड़ दीजिए और वीतरागता प्राप्त करने का एक बार प्रयत्न कीजिए, जीवन में एक घड़ी भी वीतरागता के साथ जीना बहुत मायना रखता है और हजारों वर्ष तक राग-असंयम के साथ जीना कोई मायना नहीं रखता, सिंह बनकर एक दिन जीना भी श्रेष्ठ है किन्तु १०० साल तक चूहे बनकर जीने की कोई कीमत नहीं, सब कुछ छोड़ दीजिए-ख्याति, पूजा, लाभ, वित्त, वैभव, अपने आत्मवैभव की बात करिये अब।
इन पाँच दिनों में २ दिन आपके थे और ३ दिन अब हमारे होंगे। अब भगवान हमारे हो जायेंगे, अभी तक तो वह मोह के पालना में झूले, लेकिन कल मोह को छोड़ेंगे तब कैसा माहौल होगा ? क्या वैराग्य, क्या आत्मा का स्वभाव होता है ? ज्ञात होने लग जायेगा। जितना भी वैभव है। सब कुछ छोड़कर निकलेंगे वे, आप लोगों के पास क्या है ? षट्खण्ड का आधिपत्य भी छोड़कर चले जाते हैं, आपके पास तो छहखण्ड का मकान भी नहीं है, एक खण्ड का है, वह भी चूंता है (रिसता है) बरसात के दिनों में यदि तूफान आ जाए तो छप्पर भी उड़ जाए, इस प्रकार आप तो एक खण्ड के भी अधिपति-स्वामी नहीं हैं, एक मकान के भी स्वामी नहीं हैं और फिर भी क्या समझ रहे हैं अपने आपको यह सब पर्याय-बुद्धि है, इसमें कुछ भी नहीं है।
ऐसे अनमोल क्षण चले जा रहे हैं आप लोगों के, इसलिए, यदि साधु नहीं बन सकते, मुनि नहीं बन सकते तो ना सही, परन्तु श्रावकाचार के अनुरूप सदासुखदासजी का तो साथ आप सबको देना ही चाहिए, यानि श्रावक के व्रतों को तो अंगीकार करना ही चाहिए जो कि परम्परा से मोक्षसुख के साधन हैं।