दो दिन आपके थे अब तीन दिन हमारे हैं, हमारा यह प्रथम दिन है, आज ज्यों ही वृषभकुमार ने दीक्षा अंगीकार की, त्यों ही परिग्रह और उपसर्गों का कार्यक्रम प्रारम्भ हो गया, इधरऊपर से बूंदाबाँदी भी प्रारम्भ हो गई, आप लोग भीतर ही भीतर प्रार्थना कर रहे होंगे कि पानी रुक जाए भगवान लेकिन एक प्राणी (दीक्षितसंयमी) कहता है-जो भी परीक्षा लेनी हो, ले लो, उसके लिए ही खड़ा हुआ हूँ, यह जीवन संघर्षमय है, इसे बहुत हर्ष के साथ अपनाया है।
तपकल्याणक-अभिनिष्क्रमण में, घर से निकाला नहीं गया किन्तु निकालने से पूर्व ही निकल गये, जो निकलते नहीं, उनकी फजीती इस प्रकार की होगी कि एक दिन चार व्यक्ति मिलकर कन्धे पर रख चौखट से बाहर निकाल देंगे, इसमें किसी भी प्रकार के संदेह की गुंजाइश नहीं, जो हमारा घर नहीं, उसमें हम छिपे बैंठे और उसमें किसी भी प्रकार से रहने का प्रयास करें, तो भी उसमें रह पाना संभव नहीं। इसीलिए -
विहाय यः सागरवारिवाससं . वधूमिवेमां वसुधावधूं सतीम्।
मुमुक्षुरिक्ष्वाकु-कुलादिरात्मवान् प्रभुः प्रवव्राज सहिष्णुरच्युतः॥
(स्वयम्भूस्तोत्र -१/३)
आचार्य समन्तभद्र ने स्वयंभूस्तोत्र की रचना करते हुए आदिनाथ की स्तुति में कहा-भगवन्! आपने सागर तक फैली धरती को ही नहीं छोड़ा किन्तु जो प्यारी-प्यारी सुनन्दा-नन्दा थी, उनको भी छोड़ दिया, जिसके साथ गांठ पडी थी, उस गांठ को उन्होंने खोलने का प्रयास किया, जब नहीं खुली तो कैंची से काट दिया, अब कोई मतलब नहीं, जिसके साथ बड़े प्यार से सम्बन्ध हो गया, उसको तोड़ दिया, आज अब किसी और के साथ सम्बन्ध हो गया, यह क्यों हुआ ? अभी तक शान्त सरोवर था, उसमें किसी ने एक ककर पटक दिया, ककर नीचे चला गया, उधर तल तक पहुँचा, इधर तट तक लहर आ गई, नीचे से ककर ने संकेत भेजना शुरु कर दिये, बुलबुले के माध्यम से, यानि भीतर क्रान्ति हो गई, भीतर जल क्रान्ति होती है तब इस प्रकार के बुलबुले निकलते हैं, जब बुलबुला निकलता है तो वह आपको बुला-बुला कर कहता है-जीवन बहुत थोड़ा है, प्रतिसमय नष्ट हो रहा है ऐसी स्थिति में आपके भीतर उसके प्रति जो अमरत्व की भावना है, वह अयथार्थ है।
राजा राणा छत्रपति, हाथिन के असवार |
मरना सबको एक दिन अपनी-अपनी बार ||
बारहभावना - १
जब मरने का, जीवन के अवसान का समय आयेगा, तब हम कुछ भी नहीं कर पायेंगे। मरण-मृत्यु आने से पहले हमें जागृत होना है, छत्र, चंवर और सम्पदा कुछ भी कार्यकारी नहीं होगी, ये तो इन्द्रधनुष, आकाश की लाली और तृण-बिन्दु की भाँति क्षणभंगुर है, बहुत जल्दी मिटने वाले हैं और बहुत जल्दी पैदा भी होते हैं, जो अनन्तकाल तक रहे, ऐसा उत्पाद हो, जो उत्पात को ही, समाप्त को ही समाप्त कर दे, ऐसा कौन-सा उत्पाद है? वह एक ही उत्पाद है, जिसे भीतर जाकर देख सकते हैं, जान सकते हैं। ऊपर बहुत खलबली मच रही हो और यदि भीतर में शान्ति हो तो ऊपर की खलबली भीतर की शान्ति में कोई बाधक के रूप में कार्यकारी नहीं, अन्दर की शान्ति बारह भावनाओं का फल है, यह समझ वह (मुनि ऋषभनाथ) ध्यान में बैठ गए।
सोलहकारण भावनाओं के द्वारा जगत् का कल्याण करने का एक संकल्प हुआ, एक बहुत बड़ी इच्छा शक्ति, जो संसार की और नहीं, किन्तु कल्याण की और खीच रही थी उत्पन्न हुई, उस दौरान भावना भायी और फल यह निकला कि तीर्थकर प्रकृति का बन्ध हुआ, कब हो गया, उन्हें ज्ञात नहीं, किस रूप में है ? ज्ञात नहीं, फिर भी समय पर काम करने वाला है। अभी भी सत्ता में है, लेकिन सत्ता में होकर भी, जिस प्रकार वह ककर बुलबुले के द्वारा संकेत भेज देता है उसी प्रकार उसने संकेत दिया कि अब घर-बार छोड़ दीजिए, वन की ओर रवाना हो जाइये, इन्द्र, जो कि अभी तक चरणों में रहा, कहता है कि आपने नन्दा-सुनन्दा को छोड़ा, राज्य-पाट छोड़ा और सब कुछ छोड़ दो, लेकिन, कम से कम मुझे तो मत छोड़ो, मैंने आपको पाला है, दूध पिलाया है, ऐशोआराम की चीजें दी हैं, अत: जब तक रहो तब तक मुझे सेवा का अवसर प्रदान करते रहना चाहिए, तब जवाब मिलता है-मैं अकेला हूँ! मैं अब कुमार के रूप में, राजा के रूप में अथवा किसी अन्य रूप में भी नहीं हूँ, मुझे अब वन जाना है, अकेले ही जाना है, साथ में लेकर जाने वाला अब नहीं, यदि आप स्वयं आ जाए तो कोई आवश्यकता अथवा विरोध भी नहीं, मतलब यह हुआ कि अभी तक अनेक व्यक्तियों के बीच में बैठा और अब अकेला होने का भाव क्यों हुआ ? हाँ! इसी को कहते हैं मुमुक्षुपना
लक्ष्मीविभवसर्वस्वं, मुमुक्षोश्चक्रलांछनम्।
साम्राज्यं सार्वभौमं ते, जरत्तृणमिवाभवत्॥
(स्वम्भूस्तोत्र-१८/३)
मुमुक्षुपन की किरण जब फूट जाती है हृदय में, तब बुभुक्षुपन की सारी की सारी ज्वाला शान्त हो जाती है, अन्धकार छिन्न-भिन्न हो जाता है, सूर्य के आने से पूर्व ही प्रभात बेला आ जाती है, इसी को कहते हैं मुमुक्षुपन, तब लक्ष्मी, विभव, साम्राज्य, सार्वभौमपना ये जितने भी हैं सब ‘जरतृणवत्'- जीर्ण-शीर्ण एक तृण के समान देखने में आते हैं।
आपको यदि रास्ते पर पीली मिट्टी देखने में आ जाती है तो आपको यही नजर आता है कि पीली है तो सोना होना चाहिए? अब भीतर ही भीतर लहर आ जाती है कि झुककर देखने में क्या बात है? झुक लो, भले ही कमर में दर्द हो, झुककर जब हाथ में लेता है तो लगता है कि कुछ ऐसावैसा ही है, सोना नहीं है, तो पटक देता है और यदि सोना हुआ तो उस मिट्टी के मिलने से ऐसा समझता है कि आज मेरा अहोभाग्य है, भगवान का दर्शन किया था इसलिए ऐसा हुआ, लेकिन यहाँ भगवान ने तो आत्मसर्वस्व प्राप्ति के लिए सब कुछ छोड़ दिया, जीर्ण-शीर्ण तृण समझकर, उसे छोड़ दिया, उसकी तरफ से मुख को मोड लिया, प्रत्युत्पन्नमति इसी को कहते हैं। आचार्य कुन्दकुन्ददेव ने प्रवचनसार में कहा है
एवं पणमिय सिद्धे जिणवरवसहे पुणो-पुणो समणे |
पडिवज्जदु सामण्णां, जदि इच्छदि दुक्खपरिमोक्ख ||
(प्रवचनसार-२०१)
यदि तुम दु:ख से मुक्ति चाहते हो तो श्रामण्य को अंगीकार करो, श्रामण्य के बिना कोई मतलब सिद्ध नहीं होने वाला, दु:ख से मुक्ति तीन काल में भी संभव नहीं, 'you should adopt equinimity where by NIRVANA is attend. इसके द्वारा तो मुक्ति का लाभ मिलता है भुक्ति का नहीं, भुक्ति तो अनन्तकाल से मिलती आ रही है, सुबह खा लिया तो शाम को फिर भूख आ गई, अन्थी (सन्ध्या भोजन) कर ली तो नाश्ते की चिन्ता, कब नींद खुले और कब नाश्ता करें ? अरे! नाश्ता में आस्था रखने वालो, थोड़ा विचारो-सोचो तो कि मुक्ति का कौन-सा रास्ता है, मुक्ति की बात तो तब चलती है जबकि भुति की कोई भी वस्तु नहीं रहती है।
जब श्रमण बनने चले जाते हैं श्रमण परिषद् के पास, तब कहते हैं कि मुझे दु:ख से मुक्ति दिलाकर अनुग्रहीत करो स्वामिन्! मैं महाभटका हुआ, अनाथ-सा व्यक्ति हूँ, अब आपके बिना कोई रास्ता नहीं, कोई जगह नहीं है, उन्होंने कहा-तुम दु:ख से मुक्ति चाहते हो तो तुम्हें श्रमण बनना होगा, श्रमणता क्या है स्वामिन्! अब बताते हैं कि श्रमणता क्या है और श्रमण बनने के पूर्व किस-किसको पूछता है, प्रवचनसार में इसका बहुत अच्छा वर्णन दिया गया है, वह श्रमणार्थी सर्वप्रथम माँ के पास जाकर कहता है-माँ! तू मेरी सही माँ नहीं है, मेरी माँ तो शुद्धचैतन्य आत्मा है। अब उसी के द्वारा पालन-पोषण होगा, आप तो इस जड़मय शरीर की माँ है, फिर भी मैं व्यवहार से आपको कहने आया हूँ कि यदि आपके अन्दर बैठी हुई चेतन आत्मा जाग जाये तो बहुत अच्छा होगा, फिर तो आप भी माँ बन जायेंगी, नहीं तो मैं जा रहा हूँ, अब नकली माँ के पास रहना अच्छा नहीं लगता, अब आप रोयें या धोयें, कुछ भी करें, पर मैं जा रहा हूँ, अब पिता के पास चला जाता है और कहता है-पिताजी! आपने बहुत बड़ा उपकार किया, लेकिन एक बात है, वह सभी जड़मय शरीर का किया, किन्तु आज मुझे ज्ञान उत्पन्न हुआ कि मेरे पिता तो शुद्ध चैतन्य-आत्मतत्व हैं अन्य कोई नहीं, उसी के द्वारा ही मेरी रक्षा होती आ रही है, इसलिए मेरा चेतन आत्मा ही पिता है और चेतना माँ, इतना कह उन्हें भी छोड़कर चल देता है, इसके बाद सबको कहता-कहता, बीच में ही जिसके साथ सम्बन्ध हो गया था, उसके पास जाकर कहता है-प्रिये! आज तक मुझे यही ज्ञात था कि तुम ही मेरी प्रिया हो, लेकिन नहीं, अब मुझे ज्ञात हो गया कि चेतना ही मेरी एकमात्र सही प्रिया है, पत्नी है, वह ऐसी पत्नी नहीं है जो बीच में ही छोड़कर चली जायें, वह तो मेरे साथ सदा रहने वाली है, वही तो शुद्ध चेतना मेरी पत्नी है, बस, एक के द्वारा ही सारे सम्बन्ध हैं, वही पिता है, वही माँ, वही पति है, वही पत्नी, वही बहिन भी है और भाई भी। जो कुछ है उसी एकमात्र से मेरा नाता है, इसके अलावा किसी से नहीं इससे यह नहीं समझ लेना चाहिए कि सबसे पूछना आवश्यक है, घबराओ नहीं, आप लोगों के जितने भी सम्बन्धी हैं वे कभी भी आपकी आज्ञा नहीं दे सकते। हाँ! आपको ही इस प्रकार का कार्यक्रम बनाना होगा, ऐसी उपेक्षा दृष्टि रखनी होगी, भीतर ही भीतर देखना आरम्भ करना होगा कि सभी अपने-अपने काम में जुट जाएँ और आप उपेक्षा कर चल दें।
भगवान को आपने कभी देखा है, क्या कर रहे हैं ? कौन आता है, कौन जाता है यह देख रहे हैं? नहीं, लाखों, करोड़ों ही नहीं, जितनी भी जनता आ जाये और सारी की सारी जनता उनको देखने का प्रयास करती है किन्तु वह जनता को कभी नहीं देखते, उनकी दृष्टि नासा पर है, उसमें किसी प्रकार का अन्तर आने वाला नहीं। नासादृष्टि का मतलब क्या ? न आशा, नासा। किसी भी प्रकार की आशा नहीं रही, इसी का नाम नासा है। यदि उनकी दृष्टि अन्यत्र चली गई तो समझिये नियम से आशा है, वह आशा, हमेशा निराशा में ही घुलती गई यह अतीतकाल का इतिहास है।
न भूत की स्मृति अनागत की अपेक्षा,
भोगोपभोग मिलने पर भी उपेक्षा |
ज्ञानी जिन्हें विषय तो विष दीखते हैं ?
वैराग्य-पाठ उनसे हम सीखते हैं ||
समयसार–२२९ (पद्यानुवाद-कुन्दकुन्द का कुन्दन)
वे ज्ञानी हैं, वे ध्यानी हैं, वे महान् तपस्वी हैं, वे स्वरूपनिष्ठ आत्माएँ हैं, जिन्हें भूत-भविष्य के भोगों की इच्छा-स्मृति नहीं है, मैंने खाया था इसकी कोई स्मृति नहीं है, बहुत अच्छी बात सुनी थी, एक बार और सुना दो तो अच्छा है, अनागत की कोई इच्छा नहीं, जब अनागत की कोई इच्छा नहीं और अतीत की स्मृति नहीं तो वर्तमान में भोगों की फजीती हो जाती है, वह उन्हें लात मार देती है, इसी को कहते हैं समयसार में हेय-बुद्धि। किसके प्रति हेय-बुद्धि ? भोगोपभोग के प्रति, भोगोपभोग को लात मारना, खेल नहीं है, यहाँ भोगोपभोग सामग्री हमें लात मार देती है, फिर भी हम उसके पीछे चले जाते हैं, लेकिन ज्ञानी की यह दशा, यह परिभाषा अद्वितीय है।
आचार्य कुन्दकुन्ददेव, जिनके दर्शनमात्र से वैराग्यभाव सामने आ जाता है, जिनके स्वरूप को देखते ही अपना रूप देखने में आ जाता है।
सो धर्म मुनिन करि धरिये, तिनकी करतूति उचरिये |
ताको सुनिये भवि प्राणि अपनी अनुभूति पिछानी ||
(छहढाला-५/१५)
वह मुद्रा, जिसके दर्शन करने से हमारा स्वरूप सामने आ जाए, आत्मा का क्या भाव है, वह ज्ञात हो जावे, अनन्तकाल व्यतीत हो गया, आज तक स्वरूप का ज्ञान क्यों नहीं हुआ ? वैराग्य को वैराग्य से ही देखा जाता है, विरागी की दृष्टि रागी को देखकर भी, राग में विरागता का अनुभव करती है और रागी की दृष्टि विरागता को देख, विरागता में भी राग का अनुभव करती है, यह किसका दोष है ? यह किसका फल है, इसको कोई क्या कर सकता है, जिसके पेट में जो है वही तो डकार में आयेगा ।
दो टैंक थे तैरने के, एक में दूध था और एक में मट्ठा-मही था, उन टैंकों में दो व्यक्ति तैर रहे थे, दोनों को डकारें आई, ज्यों ही डकार आई, एक ने कहा-वाह-वाह, बहुत अच्छा-बहुत अच्छा, क्या सुवास और सुरस है ? भगवन्! अम्लपित जैसी डकार आ रही है, दूसरे ने कहा, अरे क्या बात हो गई, तुम तो दूध के टैंक में हो और अम्लपित की बात कर रहे हो ? बात ही समझ में नहीं आती, दूसरा कहता है-तुम तो मट्टे के टैंक में हो और फिर भी वाह-वाह कर रहे हो ? ऐसी कौन-सी बात है ? बात ऐसी है कि आपके टैंक में दूध परन्तु पेट रूपी टैंक में महेरी खा रखी है, इसलिए उसी की डकारें आ रहीं हैं और हम यद्यपि मट्टे के टैंक में है लेकिन मैंने क्या खा रखा है मालूम है? जिसमें बादाम-पिस्ता मिलाई गई ऐसी खीर उड़ाकर आया हूँ तब डकार कौन-सी, किस प्रकार की आयेगी ?
बात ऐसी ही है कि समयसार की चर्चा करते-करते भी अभी डकार खट्टी आ रही है। इसका मतलब यही है, भीतर कुछ और ही खाया है, मैं तो यही सोचता हूँ कि इसको (समयसार) तो पी लेना चाहिए, जिससे भीतर जाने के उपरान्त जब कभी डकार आयेगी तो उसकी गन्ध से, जहाँ तक पहुंचेगी जिस तक पहुंचेगी, वह संतुष्ट हो जायेगा, उसका स्पर्श मिलते ही संतुष्ट हो जायेगा उसकी मुख-मुद्रा देखने से भी सन्तुष्टि होगी, लोग पूछते फिरेंगे कि क्या-क्या खा रखा है, कुछ तो बता दो ?
सफेद मात्र देखकर सन्तुष्ट मत होइये, परीक्षा भी करो कम से कम, कारण दोनों सफेद द्रव्य हैं, मट्ठा भी और दूध भी। लेकिन दोनों के गुण धर्म अलग-अलग हैं, स्वाद लीजिए, उसे चखने की आवश्यकता है आज लखने की आवश्यकता है, लिखने की नहीं लिखनहारा बहुत पाओगे, 'लखनहारा' तो विरला ही मिलेगा। लखनहारा जो भीतर उतरता है, लिखनहारा तो बाहर ही बाहर घूमता है, शब्दों को चुनने में लगा रहता है। बाहर आने पर भीतर का नाता टूट जाता है जो भीतर की ओर दृष्टि रखता है वह धन्य है।
आज वृषभकुमार को वैराग्य हुआ, उनकी दृष्टि, जो कि पर की ओर थी, अपनी ओर आ गई, अपनी ओर क्या, अपने में ही स्थिर होने को है, अपने में स्थिर होने के लिए बाहरी पदार्थों का सम्बन्ध तोड़ना आवश्यक होता है, जब तक बाहरी द्रव्यों के साथ सम्बन्ध रहेगा, वह भी मोह सम्बन्धी तो दु:ख और परेशानी ही पैदा करेगा, किन्तु स्वस्थ होने पर दु:ख और परेशानी का बिल्कुल अभाव हो जाएगा, स्वस्थ होने के लिए बाहरी चकाचौंध से दूर होना अनिवार्य है, इसलिए समयसार में यह गाथा अद्वितीय ही लिखी गई है
उप्पण्णोदयभोगे वियोगबुद्धीय तस्स सो णिच्चं।
कंखामणागदस्स य उदयस्स ण कुव्वदे णाणी॥
(समयसार–२२८)
वह ज्ञानी उदय में आई हुई भोगोपभोग सामग्री को त्याग कर देता है, हेय बुद्धि से देखता है, उन भोगों की स्मृति तो बहुत दूर की बात, आकांक्षा की बात भी बहुत दूर की होगी, अब तो अनाप-सनाप-सम्पदा जो मिली है उसे कहता है-यह सम्पदा कहाँ, आपदा का मूल है, यह अर्थ अनर्थ का मूल है, परमार्थ अलग वस्तु है और अर्थ अलग वस्तु, मेरा अर्थ, मेरा पदार्थ मेरे पास है, उसके अलावा मेरा कुछ भी नहीं, तिल-तुषमात्र भी मेरा नहीं है, मैं तो एकाकी यात्री हूँ, कहाँ जाऊँगा ? कोई इच्छा भी नहीं, किससे मिलना? किसी से कोई मतलब नहीं, अब मुक्ति की इच्छा भी नहीं, इच्छा मात्र से भी कोई मतलब नहीं, बस, अपने आप में रम जाने के लिए तत्पर हूँ।
मुमुक्षु को अकेला होना अनिवार्य है, आचार्य समन्तभद्र स्वामी ने दो स्थानों पर 'मुमुक्षु' संज्ञा दी। एक-वृषभनाथ के दीक्षा के समय और दूसरी अरनाथ भगवान जब चक्रवर्तित्व पद छोड़कर चले गये तब, उस समय अरनाथ भगवान को सब कुछ क्षणभंगुर प्रतीत हुआ, दु:ख का मूल कारण प्रतीत हुआ, इसीलिए उन्होंने उसको छोड़ दिया, ऐसा मुमुक्षु ही ज्ञानी-वैरागी होता है। उसी का दर्शन करना चाहिए, रागी का दर्शन करने से कभी भी सुख शान्ति का, वैभव-आनन्द का अनुभव होने वाला नहीं।
वृषभनाथ भगवान के जमाने की बात। चक्रवर्ती भरत के कुछ पुत्र थे, जो कि निगोद से निकलकर आये थे, (बीच में एक-आध त्रस पर्याय सम्भव है) सभी के सभी बोलते नहीं थे, चक्रवर्ती को बहुत चिन्ता हुई, उन्होंने एक दिन आदिनाथ भगवान से समवसरण में जाकर पूछाप्रभो! तीर्थकरों की वंशपरम्परा में ऐसे कोई पंगु, लूला, बहरे और अपंग नहीं होते, लेकिन कुछ पुत्र तो ऐसे हैं जो बोलते ही नहीं, हमें तो दिमाग में खराबी नजर आती है, मुझे जब अड़ोसी-पड़ोसी उलाहना देते हैं कि-तुम्हारे बच्चे गूंगे हैं, बहरे हैं, तब बहुत पीड़ा होती है, मैं क्या करूं? भगवान वृषभनाथ ने कहा-वे गूंगे और बहरे नहीं हैं, बल्कि तुम ही बहरे हो, भगवन् कैसे बहरे हैं हम ? बहरे इसलिए कि उनकी भाषा तुम्हें ज्ञात नहीं, देखो तुम्हारे सामने ही वे हमसे बोलेंगे, उन्होंने कहा-सब लोग राजपाट में घुसते चले जा रहे हैं, झगड़ा तुम्हारे सामने है, कलह हो रहा है, भाईभाई में लड़ाई हो रही है, इससे इनको वैराग्य हुआ, अत: सब कुछ छोड़कर सभी पुत्र भगवान के पास चल दिये और कहा-हे प्रभो! जो आपका रूप सो हमारा रूप, जो आपकी जाति सो हमारी जाति, बस हम, आपकी जाति में मिल जाना चाहते हैं और 'नम: सिद्धदेभ्य:' कह पंचमुष्ठी केशलौंच कर बैठ गये। तब चक्रवर्ती भरत ने कहा-वे गूंगे नहीं थे क्या ? नहीं! इन्हें जातिस्मरण हो गया था, इसलिए नहीं बोलते थे।
बन्धुओ! मैं जातिस्मरण की बात इसलिए कह रहा हूँ कि कुछ आपको भी स्मरण आ जाए जातिस्मरण की बात जिससे नारकियों के लिए सम्यकदर्शन होता है, उन्हें वहाँ पर वेदना के अतिरेक से भी सम्यकदर्शन होता है, परन्तु मनुष्यों को ना जातिस्मरण से और ना ही दु:ख का अतिरेक होने से होता है। मनुष्य भव में तो जिनबिम्ब के दर्शन से, जिनवाणी सुनने/पढ़ने आदि से ही होता है। मनुष्य को जातिस्मरण और वेदनानुभव से सम्यकदर्शन क्यों नहीं होता? तो आचार्यों ने कहा वह जाति की ओर देखता है, लेकिन जो भव्य है, सम्यकद्रष्टि है वह उससे दूर रहता है, देखो भरत! तुम्हारे पुत्रों को बोलने की शक्ति होते हुए मात्र पर्याय को देखकर तुम्हारे साथ बोलना पसन्द नहीं, बोलने की इच्छा नहीं उनकी, क्योंकि कामदेव के ऊपर चक्र चलाने वाले हैं आप, भाई के ऊपर चक्र चलाने वाले हैं। सर्वार्थसिद्धि से तो उतरे हुए हो और धार्मिक सीमा का भी उल्लंघन करते हो। दोनों तद्भव मोक्षमागी हो अत: कामदेव एवं चक्रवर्ती दोनों ही अन्त में फकीरी (मुनि पद) अपना कर मोक्ष को चले जाओगे, इसीलिए मन्त्रियों ने कहा-तुम दोनों ही लडो, हम देख लेते हैं, कौन पास होता है, चक्रवर्ती भरत तीनों में फेल हो गये और चौथे में भी, युद्ध तो तीन ही थे चौथा कौनसा था ? चौथा यह था कि सीमा का उल्लंघन नहीं करना, धर्म युद्ध करना। उन्होंने उसका भी उल्लंघन कर चक्र का प्रयोग कर दिया, छोड़ा नहीं, कसर बाकी नहीं रही।
सर्वार्थसिद्धि से उतरे थे, तीनों के साथ अनुगामी अवधिज्ञान आया था, तीनों में वृषभनाथ तो दीक्षित हो गये, लेकिन इन दोनों को अवधिज्ञान की कुछ याद भी नहीं, फिर जातिस्मरण तो बहुत दूर की बात रही, अपना धन, अपना ज्ञान, वर्तमान में हम कहाँ से आये हैं ? यह तक पता नहीं है। यह ज्ञान होना चाहिए कि अपने परिवार पर चक्र का कोई प्रभाव नहीं होता, लेकिन बुद्धि भ्रष्ट हो गई, धन के, मान-प्रतिष्ठा के पीछे, किन्तु बाहुबली का पुण्य बहुत जोरदार था, इसलिए उसने परिक्रमा लगाई और रुक गया, इस प्रकार बाहुबली ने तीनों युद्धों में तो हरा ही दिया और चौथे में भी सबके सामने नीचा दिखा दिया।
इस सब रहस्य को देख, अविनश्वर आत्मा का ज्ञान उन सब बच्चों को हो गया, इसलिए बोले नहीं किसी के साथ, जब तक उम्र पूर्ण नहीं हो जाती, योग्यता नहीं आती तब तक के लिए मौन और बाद में दीक्षा ले ली, वृषभनाथ भगवान ने ऐसा जब कहा तब कहीं चक्रवर्ती को ज्ञात हुआ कि यह भी सम्भव है, मैं तो यह सोचता हूँ कि पिताजी सम्यकद्रष्टि और चक्रवर्ती भी थे तो कम से कम पिताजी के चरण छू लेने चाहिए थे, लेकिन नहीं, अभी बहुत छोटे हैं, दूध के दाँत भी नहीं टूटे, पर उन्होंने एक बात समझने योग्य कही-रागी के साथ हम बोलने वाले नहीं, हम तो वैरागी-वीतरागी सन्तों के साथ बोलेंगे, यह बहुत अद्भुत परिणाम जातिस्मरण का है, इस कथा को सुनकर ऐसा लगने लग जाता है कि दूसरे को देखना बंद कर केवल अपनी आत्मा की ओर ही लगना चाहिए। भीतर जो बात रहेगी वही तो फूटती हुई बाहर आयेगी।
एक बच्चा था, वह काफी बदमाश था, स्कूल नहीं जाता था, ऐसे ही घूम-फिरकर आ जाता था, एक दिन माता-पिता को पता चला कि यह दिन खराब करता रहता है, अत: फेल हो जायेगा, तो मास्टर को कहा-इसे प्रतिदिन उपस्थित रखो और अच्छी शिक्षा दो, वह बालक होशियार भी था और बदमाश भी, एक दिन मास्टर ने पूछा-५ और ५ कितने होते हैं ? उसने कहा १० रोटी।। ४-४ कितने होते हैं ? ८ रोटी।। ३-३ कितने होते हैं ? ६ रोटी। तब मास्टर ने सोचा यह रोटी क्यों बोल रहा है ? क्या खाना खाकर नहीं आया ? या मम्मी ने रोटी नहीं खिलाई? मास्टर ने पूछा-क्या रोटी नहीं खाई ? उसने कहा जी, नहीं खाई, मम्मी ने कहा है, तब तक खाना नहीं मिलेगा जब तक स्कूल से पढ़कर नहीं आते, इससे ज्ञात होता है कि वह ८ बोल रहा है, किन्तु रोटी नहीं भूल रहा है, हम समयसार की कितनी ही गाथाएँ याद कर लें, लेकिन हमारे भीतर जो अभिप्राय है वह याद आता जाता है। हमारे अभिप्राय के अनुसार ही कदम बढ़ते हैं, दृष्टि भले ही कहीं हो बन्धुओ! आप लोग रिवर्स में गाड़ी चलाते हैं, अब भले ही ड्राइवर सामने देख रहा हो, लेकिन सामने के दर्पण में जो पीछे का बिम्ब है उसे देखता है, देखने को तो लगता है कि दृष्टि सामने हैं परन्तु दृष्टि नियम से रिवर्स की ओर ही रहती है, इसी तरह हम दृष्टि भी इन विषयों से रिवर्स कर लें, कैसे हो, रिवर्स होना ही बडी बात है।
जब ऋषभनाथ के जीवन में घटना घटी तो उन्होंने अपनी दृष्टि को मोड़ लिया, अपने-आप में समेट लिया, सबको उन्होंने समाप्त नहीं किया, किन्तु अपने को समेट लिया यह अद्भुत कार्य है, हम दुनिया को समेटकर कार्य करना चाहते हैं जो "ण भूदो ण भविस्सदि।"
विहाय यः सागरवारिवाससं वधूमिवेमां वसुधावधूं सतीम।
मुमुक्षुरिक्ष्वाकु-कुलादिरात्मवान प्रभुः प्रवव्राज सहिष्णुरच्युतः॥
(स्वयम्भूस्तोत्र-१/३)
भगवन्! आप अपने पद से च्युत नहीं हुए, ज्ञानी जीव अपने पद से च्युत नहीं होते यही उनका ज्ञानीपना है,” मात्र जानने वाले को ज्ञानी नहीं कहते, ज्ञानी का अर्थ अच्छा खोल दिया, जो राग नहीं करे, द्वेष नहीं करे, मोह नहीं करे, मद-मत्सर नहीं करे, समता का अभाव न हो, उन्हीं का नाम श्रमण है, वे श्रमण बन चुके, इसलिए अपने पद को कभी छोड़ेंगे नहीं, ऐसे अच्युत और सहिष्णु हैं कि कितने भी उपसर्ग आ जाएं तो भी चलायमान नहीं होंगे, मोक्षमार्ग परिषह और उपसर्गों के रास्तों से गुजरता है -
मार्गाच्यवननिर्जरार्थं परिषोढव्याः परिषहाः॥
तत्त्वार्थसूत्र- ९/८
मार्ग अर्थात् संवर मार्ग से च्युति–स्खलन न हो, गिरावट न हो। इसलिए उपसर्ग और परिषह सहन करने की आदत/अभ्यास करना चाहिए, अब यह नहीं चलेगा कि उष्णता आ गई तो पंखा खोल लिया या कूलर चला दिया, यहाँ पर न कूलर ही होगा और न ही हीटर, यहाँ पर तो सभी वातानुकूल है और बातानुकूल भी, दोनों अनुकूल हैं, गर्मी पड़े तो निर्जरा, नहीं पड़े तो निर्जरा, उपसर्ग हो तो ज्यादा निर्जरा, नहीं हो तो भी निर्जरा, कोई प्रशंसा करे तो भी निर्जरा। निन्दा करते तो भी निर्जरा, कोई आवे तो भी निर्जरा, नहीं आवे तो भी निर्जरा, बड़ी अद्भुत बात हो गई, लोग आयें तो अच्छा लगता है, नहीं आयें तो अकेले कैसे बैठे ? जो व्यक्ति भीड़ में रहने का आदि हो उसको यदि मीसा में बन्द कर दिया जाये तो उसकी स्थिति एकदम बिगड़ जायेगी, कहीं 'वेट' कम हो जायगा या कुछ और ही हो जाएगा, लेकिन जिसे मीसा में ही रहने की आदत हो गई है वह तो पहलवान होकर निकलेगा।
हमारे ऋषभनाथ का हाल भी इसी तरह का है कि उन्हें अब मीसा में बन्द करो या किसी अन्य में, उन्हें तो भीतर 'पीस' है, आनन्द-सुख, शान्ति-चैन, सब कुछ अन्दर है, मैं अकेला हूँ तब बन्द करो या कुछ और, मुझे चैन ही मिलेगी ऐसा सोचते हैं, बड़ी अद्भुत बात है, कहीं भी चले जायें, कैसी भी अवस्था आ जाए, कैसा भी कर्म का उदय आ जाय, अब अनुकूल हो या प्रतिकूल। बल्कि विश्वास तो यह है कि अब नियम से कूल-किनारा मिलेगा, इसी को कहते हैं श्रामण्य। श्रमणता पाने के उपरान्त किसी भी प्रकार की कमी अनुभूत नहीं होना चाहिए, मात्र ज्ञान से पूर्ति करता रहता है। समयसार के संवराधिकार में कहा है -
जह कणायमग्गितवियं पि कणयसहावं णा तं परिच्चयदि ।
तह कम्मोदयतविदो ण जहदि णाणी दु णाणित्तं ॥
(समयसार- १९१)
ज्ञानी अपने ज्ञानपने को नहीं छोड़ता, भले कितने कर्म के उदय कठोर से कठोरतम क्यों न आयें। जिस प्रकार कनक को आप कैसे भी तपाते जाएं, तपाते जाएं, वह सोना और भी दमकता चला जाता है, वह अपने कनकत्व को, स्वर्णत्व को नहीं छोड़ता। जयसेनस्वामी ने तो इसकी व्याख्या करते हुए कहा है कि -'पाण्डवादिवत्' कौन पाण्डव ? जो पाण्डव वनवास में भेजे गये थे, वे क्या ? नहीं, नहीं। वे जो स्वयं अपनी तरफ से वनवास में आये थे, अर्थात् मुनि बनकर आये और उनके शरीर पर तपे हुए लोहे की जंजीरें डाल दी गई, फिर भी शान्त हैं ऐसे 'पाण्डवादिवत्।' रत्नत्रय में भी तप के बिना चमक नहीं आती, रत्नत्रय को तपाना आवश्यक है, उसी से मुक्ति मिलती है, तपाराधना से ही मुक्ति मिलती है, रत्नत्रय से नहीं। जैसे-हम हलुवा बनाते हैं तो मिश्री हो, आटा हो और घी हो, उन्हें अनुपात में मिला दो, उसमें और कुछ भी मिलाना हो तो मिला दो, लेकिन अभी हलुवा नहीं बनेगा, कब तक नहीं बनेगा ? जब तक की नीचे से अग्नि का उसे पाक नहीं मिलेगा, ज्यों ही अग्नि की तपन पैदा होगी त्यों ही तीनों चीजें मिलने लगेंगी और मुलायम हलुवा तैयार हो जायेगा, इसी तरह रत्नत्रय रूप में तीनों जब तक भिन्न-भिन्न रहेंगे और तप का सहारा नहीं लेंगे तो ध्यान रखिये! कोटिपूर्व वर्ष तक भी चले जाए तब भी मुक्ति नहीं होगी, होगी तो तप से ही।
अभी एक बात पण्डितजी ने कही थी कि अन्तर्मुहूर्त में भरत चक्रवर्ती को केवलज्ञान पैदा हो गया, बात बिल्कुल ठीक है, परन्तु मुक्ति क्यों नहीं मिली अन्तर्मुहूर्त में उन्हें ? एक लाख वर्ष तक उन्हें तप करना पड़ा, जितनी तपस्या ऋषभनाथ ने की उतनी ही तपस्या भरतचक्रवर्ती ने की। अभीअभी वाचना (खुरई में) चल रही थी, उसमें भंग आया था कि 'अन्तर्मुहूर्त में केवलज्ञान भले ही हो जाए परन्तु मुक्ति नहीं मिलती," इसका अर्थ है कि केवलज्ञान अन्तिम स्टेज नहीं है, अन्तिम मंजिल नहीं है, वह तो एक प्रकार से बीच स्टेशन है जिसके उपरान्त मंजिल है, केवलज्ञान यदि उपाधि नहीं तो वह बीच में अवश्य मिलेगा, केवलज्ञान होने के उपरान्त भी तो मोक्षमार्ग पूर्ण नहीं होता, इसलिए मुक्ति देने की क्षमता केवलज्ञान में नहीं। जिसके द्वारा मुक्ति मिलती है, उसे उपादेय मानिये। मात्र तपाराधना के द्वारा मुक्ति होती है वह अन्तर्मुहूर्त में मंजिल तक पहुँचा देती है, देखिये! भरत रह गये, ऋषभनाथ भी रह गये, परन्तु बाहुबली केवलज्ञान को प्राप्त कर सर्वप्रथम मुक्ति के उद्घाटक बने इस युग के आदि में पिताजी और भाई से पहले, आगे जाकर दरवाजा खोलकर बैठ गये, बाद में पिताजी आये और भरत भी।
एक मजे की बात तो यह रही कि ऋषभनाथ भगवान को भी बाहुबली के सिद्ध स्वरूप का चिन्तन करना पड़ा, भरत को भी करना पड़ा, जिसका जैसा पुरुषार्थ होता है उसको वैसा ही फल मिलता है, इसलिए हमारा लक्ष्य मंजिल का है, स्टेशन का नहीं, जैसे दिल्ली जाने के लिए तो आगरा भी एक स्टेशन आयेगा जो मंजिल नहीं है, मंजिल के निकट अवश्य है पर उससे भी आगे जाना है, दिल्ली अंतिम स्टेशन एवं मंजिल के रूप में होगा, दिल्ली पहुँचते ही उतर जाइये और मस्त हो जाओ, साथ ही यह देखते रहे कि पीछे क्या-क्या हो रहा है। गजकुमार स्वामी जैसों के उदाहरण हमारे सामने हैं, वह बाल्यावस्था में जब मात्र बारह वर्ष के थे, गोद में बैठने की क्षमता रखते थे, उस समय मात्र अन्तर्मुहूर्त में मुक्ति पा गये, वह भी केवलज्ञान प्राप्त कर लेते हैं, हाँ! अन्तर्मुहूर्त में सब कुछ काम हो जाता है। एक और बड़ी बात कही गयी है कि जिसने आज तक त्रस पर्याय प्राप्त नहीं की, जिसे वेद की वेदनाओं का अनुभव नहीं, अभी निगोद से निकलकर आ रहा है और आठ साल का होते ही मुनिवर के व्रत ले अन्तर्मुहूर्त में मुक्ति प्राप्त कर लेता है-ऐसा आगम का उल्लेख है। ऐसे उल्लेख अनन्त की संख्या में हैं, कोई भी अन्त वाला नहीं अर्थात् ऐसे पुरुषार्थशील प्राणी अनन्त हो गये और होंगे। बस, अब हमारे नम्बर की बात है, इसी की प्रतीक्षा में हम हैं, हमें भीतरी पुरुषार्थ जागृत करना है, भीतर कितनी ऊर्जा-शक्ति है ? इसका कोई भी मूल्यांकन हम इन छद्मस्थ ऑखों से नहीं कर सकते, इसे प्रकट करने में भगवान ऋषभनाथ लगे हुए हैं, वे सोच रहे हैं कि-कोई भी प्रतिकूल अथवा अनुकूल अवस्था आ जाये, मेरे लिये सभी कुछ समान है, उनका चिन्तन चल रहा है।
बाहर यह
जो कुछ दिख रहा है
सो मैं नहीं हूँ
और वह मेरा भी नहीं है
ये आँखें
मुझे देख नहीं सकती
मुझमें देखने की शक्ति है
उसी का में स्रष्टा हूँ
सभी का मैं दृष्टा हूँ!! (चेतना के गहराव में)
बहुत सरल-सी पंक्तियाँ हैं, लेकिन इन पंक्तियों में बहुत सार है- यह जो कुछ भी ठाट-बाट दिख रहा है वह ‘मैं नहीं हूँ” और वह ‘मेरा भी नहीं", ऐसा हो जाए तो अपने को ऋषभनाथ बनने में देर न लगे, लेकिन बन नहीं पा रहा है, क्यों नहीं बन पा रहा है ? भीतर से पूछो, भीतर की बात पूछो, क्यों नहीं हो पा रहा है, ऋषभनाथ कहते हैं-तू तटस्थ होकर देख, देखना स्वभाव है, जानना स्वभाव है लेकिन चलाकर नहीं, चलाकर देखना राग का प्रतीक है, जो हो रहा है उसे होते हुए देखिये-जानिये।
एक व्यक्ति जिसको वैराग्य का अंकुर पैदा हुआ है, पर अतीत में बहुत कुछ घटनाएँ उसके जीवन में घटी थी, उन सबको गौण कर वह दीक्षित हो गया, दीक्षा लेने के उपरान्त एक दिन का उपवास रहा, अगले दिन चर्या को निकलने वाला था तो गुरुदेव ने कहा-चर्या के लिए जाना चाहते हो ? जाओ ठीक है। पर ध्यान रखना ! हॉ.हाँ आपकी आज्ञा शिरोधार्य है, आपकी जो आज्ञा, वह जो सेठ हैं, उन्हीं के यहाँ जाना है, उनका नाम भी बता दिया गया, पर!. वहाँ महाराज! हाँ, मैं कह रहा हूँ वहीं जाना है, अन्यत्र नहीं जाना, पसीना आने लगा नवदीक्षित साधु को, लेकिन महाराज की आज्ञा, अब क्या करें, वह चल दिया, एक-एक कदम उठाते-उठाते चला गया, उसके घर की ओर। वह सोच रहा है-जिसके लिए मैं जा रहा हूँ। वह सम्भव नहीं, अभी भी कुछ बदला भोगना होगा, यह बात उसके दिमाग में गहरे घर करती जा रही है, फिर भी वह उसके सामने तक पहुँच गया, उस सेठ ने दूर से ही मुनि महाराज को देखकर सोचा धन्य है हमारा भाग्य!.नमोऽस्तु. नमोऽस्तु महाराज! आवाज तो उसी सेठ की है, बात क्या है, क्या उसके स्थान पर कोई अन्य तो नहीं, दिखता तो वही है, उसी के आकार-प्रकार, रंग-ढंग जैसा है। जैसे-जैसे महाराज पास गये वैसे-वैसे वह सेठ और भी विनीत होकर गद्गद् हो गया, उसके हाथ काँपने लगे, सोच रहा हैविधि में कहीं चूक न हो जाये, गलती न हो जाये,उधर सेठ नमोऽस्तु .नमोऽस्तु .नमोऽस्तु बोल, तीन प्रदक्षिणा लगाता है, इधर महाराज सोचते हैं कि-यह सब नाटक तो नहीं हो रहा है, क्योंकि इसके जीवन में यह संभव नहीं। मैं तभी गुरु-आज्ञा से यहाँ आया हूँ, अन्यत्र जाना नहीं है। झूठ बोल सकने की अब बात ही नहीं, विधि तो मिल गई और पड़गाहन (प्रतिग्रहण) भी हो गया अब..... । महाराज! मनःशुद्धि, वचनशुद्धि और कायशुद्धि, आहार जलशुद्ध है, महाराज गृह-प्रवेश कीजिए, भोजनशाला में प्रवेश कीजिए, काँपते-काँपते सेठ ने कहा। मुनिराज सोच रहे थे कि यह कैसा परिवर्तन हुआ, जीवन के आदि से लेकर अभी तक के इतिहास में ३६ का आँकड़ा था। लेकिन यहाँ तो ३६ का उल्टा ६३ हो गया, यह कैसे, अभी तक वह ३६ का काम करता था, पर अब, यह ६३ शलाका पुरुषों का ही चमत्कार है, उसने अपने को ६३ शलाका पुरुषों के चरणों में जाकर के अर्थात् तीर्थकर आदि के मार्ग पर चलने के लिए संकल्प कर लिंग परिवर्तन कर लिया। और लिंग बदलते ही उसका जो बैर जन्मतः था, भव-भव से वह टूट गया, किन्तु मुनिराज को अभी इस बात का ज्ञान नहीं था। वह सोच रहे थे कि सम्भव हो अभी वह बैर भाव, मेरे साथ बदला ले ले। लेकिन नहीं! सेठ ने नवधाभक्ति के साथ आहार करवाया और आहार के बाद पैर पकड़कर फूट-फूटकर रोने लगा व कहा-मैंने गलती की, माफ करिये, माफ करिये, मैं भीतरी आत्मा की छवि को नहीं देख पाया था, भीतर ही भीतर ऐसा एक परिवर्तन अब हुआ, मैं बिल्कुल पर्याय बुद्धि अपनाता चला गया, आत्मा की ओर मेरी दृष्टि ही नहीं गई, अब मुनि महाराज कहते हैं कि - यह दृष्टि मेरी नहीं है भैय्या! मैं तो भगवान के पास गया, उनकी शरण में जाने की ही कृपा है कि मुझे इस प्रकार की दिव्य-दृष्टि मिली, माफी तो हम दोनों मिलकर वहीं पर मागेंगे! चलो तुम भी चलो साथ उनके चरणों में, वहाँ पहुँचने पर महाराज बोलते हैं क्यों भैया! मुलाकात हो गई ? मुलाकात क्या, अब यह मुलाकात कभी मिटने वाली नहीं है, कारण, बैर भाव जो चलता है वह केवल पर्याय-बुद्धि को लेकर चलता है, यह समझ में आ गया।
आप लोग तो रामायण की बात करते होंगे, लेकिन मैं तो रावणयात्रा की बात करता हूँ। रावण, राम से भी दस कदम आगे काम करने वाला है, ये हलधर थे, तो वे तीर्थकर बनेंगे, ऐसे तीर्थकर होंगे जिनके सीतारानी का जीव स्वयं गणधर बनेगा, जितना विप्लव दोनों ने मिलकर किया था, उससे कहीं अधिक शान्ति धरती पर करके मोक्ष चले जायेंगे, लक्ष्मण का जीव भी तीर्थकर बनेगा, सीता का जीव बीच में कुछ पर्याय धारण कर गणधर परमेष्ठी बनेगा। रावण की ब्राडकास्टिंग करने गणधर बनकर बैठेगा, अब सोचिये, भव-भव का वह बैर कहाँ चला गया। संसारी प्राणी अतीत की ओर और अनागत की ओर नहीं देखता है इसके सामने तो एक वर्तमान पर्याय ही रह जाती है, प्रागभाव को भी देखा करो, प्रध्वंसाभाव को भी देखा करो और तद्भाव को भी देखा करो, तभी भव-भव का नाता टूट जाएगा, ऐसा भव प्रादुभूत हो जायेगा कि जिसका दर्शन करते ही अनन्तकालीन कषाय की श्रृंखला टूटकर छिन्न-भिन्न हो जायेगी, कितना सुन्दर दृश्य होगा, रावण के भविष्य का उस समय, जब रामायण अतीत का दृश्य हो जाएगा। एक बार चित्र देखा हुआ, यदि दुबारा देखते हैं तो रास नहीं आता, जो नहीं देखा उसके बारे में बहुत भावना उठती है।
आश्चर्य की बात यह है कि भव-भव में बैर पकड़ने वाले ये जीव एक स्थान पर ऐसे बैठकर सब लोगों को हित के मार्ग का दर्शन देकर आदर्श प्रस्तुत करके मोक्ष चले जायेंगे।
इस प्रकार की घटनायें (रावण-सीता-राम जैसी घटनाएँ) पुराणों में अनन्तों हो गई, भविष्यत् काल में अनन्तानन्त होंगी। जब अतीतकाल की विवक्षा को लेते हैं तो अनन्त की कोटि में कहते हैं और अनागत की अपेक्षा से अनन्त नहीं, बल्कि अनन्तानन्त कहा जाता है। राम-रावण-सीता जैसी घटनाओं में कभी आप भी राम हो सकते हैं, कभी रावण और भी कुछ हो सकते हैं, नाम तो पुन:
पुन: वहीं आते जाते हैं, क्योंकि शब्द संख्यात हैं और पदार्थ अनन्त। फलाचंद नाम के कई व्यक्ति हो सकते हैं, इसी सभा में १०-२० मिल सकते हैं, सागर सिटी में ५०-१०० मिल सकते हैं, उस समय यदि किसी की दानराशि, उसी नाम वाले से मांगे तो घोटाला हो जाएगा, अब क्या करें ? बोली किसने ली थी क्या पता? इसलिये सागर में भी मुहल्ला एवं अपने पालक का भी नाम बताओ? अर्थात् शब्द बहुत कमजोर है, शब्द के पास शक्ति नहीं और ना ही अनन्त है, इसलिए इन सब बातों को भूल जाओ, अभावों में प्रागभाव और प्रध्वंसाभाव क्या था यह ज्ञात हो गया।
महाराज सोचते हैं कि-वह बैर भाव अभी रह सकता है क्या ? नहीं! लेकिन लिंग (भेष) न बदलता तो संभव भी था। क्योंकि सजातीयता थी, लेकिन ज्यों ही मुनिलिंग धारण किया और मुद्रा लेकर चले, त्यों ही उस व्यक्ति के साथ जो बैर चल रहा था, जाता रहा, उसने सोचा-अब यह वह व्यक्ति नहीं, किन्तु इसका सम्बन्ध तो अब महावीर प्रभु से हो चुका, यह लिंग घर का नहीं है। इसलिए जिनलिंग देखने के उपरान्त समता आ जाती है, किसी व्यक्ति विशेष का लिंग नहीं है यह। किसी व्यक्तिविशेष की पूजा नहीं है जैनशासन में, किसी एक व्यक्ति का शासन नहीं चल सकता, किसी की धरोहर नहीं, यह तो अनादिकाल से चली आ रही परम्परा है और अनन्तानन्तकाल तक चलती रहेगी, मात्र नाम की पूजा नहीं, नाम के साथ गुणों का होना आवश्यक है, स्थापना निक्षेप में यही बात होती है।' यह वही है' इस प्रकार का ऐक्य हो जाता है, अर्थात् यह वृषभनाथ ही हैं, इसमें और उसमें कोई फर्क नहीं, इस तरह का ‘बुद्धया ऐक्यं स्थाप्य" बुद्धि के द्वारा एकता का आरोपण करना, जैसा कि कल ही पण्डितजी कह रहे थे-‘‘यह प्रतिमा नहीं भगवान हैं, ऐसी ताकत होती है,” तब कहीं वह बिम्ब सम्यकदर्शन के लिए निमित्त बन सकता है, नहीं तो वह अभिमान का भी कारण है, इसलिए किसी व्यक्ति को स्मरण में न लाकर उसे प्रागभाव की कोटि में यदि चला गया तो उसका क्षय हो चुका, इसीलिए अब उस व्यक्तित्व का भी सम्बन्ध था, पर अब वीतरागता से सम्बन्ध। जो व्यक्ति इस प्रकार के लिंग को देख करके, उनकी पूजा-अर्चा नहीं करता, उनके लिए आहारदान नहीं देता तो उसके लिए आचार्य कुन्दकुन्द अष्टपाहुड में कहते हैं
सहजुष्पण्ण रूवं दट्टुं जो मण्णएण मच्छरिओ।
सो संजमपडिवण्णो, मिच्छाइट्ठी हवदि एसो॥
(दर्शनपाहुड-२४)
कितनी गजब की बात कही है आचार्य कुन्दकुन्ददेव ने - सम्यकदर्शन और मिथ्यादर्शन को एक दर्पण के सामने लाकर के रख दिया हैं | “Face is the index Of the heart” ह्रदय की अनुक्रमणिका मुख-मुद्रा है, हृदय में क्या बात है यह मुख के द्वारा समझ लेते हैं। आचार्य कुन्दकुन्द कहते हैं कि अभी भी तुम्हारी दृष्टि में बैर भाव है, अभी भी वह सेठ है, पर्याय बुद्धि है तेरी, तेरी दृष्टि में वीतरागता नहीं आ रही है, वीतरागता किसी की अथवा घर की नहीं होती, न इसे चुराया जा सकता है और न किसी की बपौती है। नग्नत्व ही उसका साधन है, भगवान महावीर या वृषभनाथ भगवान और भी जिनको पूजते हैं उनका लिंग है। कुन्दकुन्द भगवान ने कहा-यथाजातरूप भगवान महावीर और इस लिंग में कोई अंतर नहीं है, इसको देखकर जो व्यक्ति मात्सर्यादिक भावों के साथ वंदना आदि नहीं करता है वह मिथ्यादृष्टि है, यह ध्यान रखिये, यथाजातरूप होना चाहिए, क्योंकि वे ही जो छठे- सातवें गुणस्थानवर्ती हैं वे ही आपके घर तक आहार के लिए आ सकते हैं, अन्य नहीं, जिसके हृदय में सम्यकदर्शन है, वह जिनेन्द्र भगवान के रूप को देखते ही सब पर्यायों को भूल जाता है, यह मेरा बैरी था, मित्र था, पिताजी थे, मेरे भाई थे या और कोई अन्य सम्बन्धी, अब कोई सम्बन्ध नहीं, सब छूट गया, इस नग्नावस्था के साथ तो मात्र पूज्य-पूजक सम्बन्ध रह गया है। इसके उपरान्त भी अतीत की ओर दृष्टि चली जाती है, रागद्वेष हो जाते हैं, परिचर्या में नहीं लगता है तो कुन्दकुन्दस्वामी ने उसे मिथ्यादृष्टि कहा, आगे दूसरी गाथा में कहते हैं -
अमराण वंदियाणं रूवं दट्टण सीलसहियाणं ।
ये गारवं करंति य सम्मतविवज्जीया होंति॥
(दर्शनपाहुड-२५)
अमरों के द्वारा जो वन्दित है, उस पद को तथा शील सहित व्यक्ति को देखकर भी जो गर्व करता है, उसका तिरस्कार करता है तो वह सम्यकदर्शन से कोसों दूर है। ऐसा नहीं है कि एक बार सम्यकदर्शन मिल गया फिर पेटी में बन्दकर, अलीगढ़ का ताला लगाकर ट्रेजरी में बन्द कर दे, कहीं हिल न जाए, आचार्य कहते हैं कि-ऐसा नहीं है, अन्तर्मुहूर्त में ही कई बार उलट-पलट हो सकता है, भीतर के भीतर माल ‘पास’ हो सकता है। ताला ऊपर रह जाये और माल भीतर से 'सप्लाई' हो जाये। भीतर परिणामों में उथल-पुथल होता रहता है, यह सब पुण्य और पाप की बात है, इसी अष्टपाहुड में आचार्य कुन्दकुन्ददेव ने एक जगह लिखा-‘‘बाहुबली, सर्वप्रथम द्रव्यलिंगी की कोटि में हैं, बड़ी अद्भुत बात है, सर्वार्थसिद्धि से तो आये हैं और मुनि भी बने, फिर भी द्रव्यलिंगी की कोटि में उनको रखा, यह मात्र दृष्टि की बात है, बात ऐसी है कि वर्द्धमान चारित्र वाला छठे-सातवें गुणस्थान में तो परिवर्तन कर सकता है, लेकिन जिसका वर्द्धमान चारित्र नहीं है, वह व्यक्ति नीचे गिरकर छठे से पाँचवें में भी आ सकता है, चौथे में आ सकता है और क्षायिक सम्यकद्रष्टि नहीं है तो प्रथम गुणस्थान तक आ सकता है, ऐसे भी भंग आगम में बनाये गये हैं, उन्होंने कहा-एक व्यक्ति क्षायिक सम्यकदर्शन के साथ मुनिपद को अपनाता है और सातवें गुणस्थान को छू लेता है और अन्तर्मुहूर्त में छठवें में आ जाता है, फिर चतुर्थ गुणस्थान में आकर ८ वर्ष और कुछ कम पूर्वकोटि वर्ष व्यतीत कर सकता है।
श्री धवल पढ़िए। उसका अध्ययन करिए तब ज्ञान होगा, क्षायिक सम्यकद्रष्टि तो है पर असंयमी हो गया, अब कैसे आहारदान दें ? परिचर्या कैसे करें ? हो सकता है देने वाला पंचमगुणस्थानवर्ती हो और लेने वाले मुनि महाराज चौथे गुणस्थानवर्ती, यहाँ ध्यान रखिये मुनिलिंग की पूजा की जाती है, भीतर रत्नत्रय है या नहीं, यह आपकी आँखों का विषय नहीं, अब हम पूछते हैं कि क्षायिक सम्यकदर्शन होते हुए भी उसे ऊपर क्यों नहीं उठाया, जबकि अभी भी दिगम्बरावस्था है, जब सम्यकदर्शन है तो चरित्र भी सम्यक्र होना चाहिए, छठवें-सातवें गुणस्थान को छूना चाहिए, पर नहीं होता है। इसका कारण, भिन्न-भिन्न शक्तियों की सीमाएँ, लक्षणों और गुणों की सीमाएँ ही हैं। भिन्न-भिन्न प्रयोजनों के कारण भी आगे नहीं बढ़ पाता, उसकी विशुद्धि इतनी घट गई कि ऊपर से तो मुनिलिंग की चर्या का अनुपालन करता हुआ पूर्वकोटि वर्षों तक सम्यकद्रष्टि बना रह सकता है। ऐसा भी सम्भव है कि जो क्षायिक सम्यकद्रष्टि नहीं है वह दीक्षा लेते समय छठे-सातवें गुणस्थान में था और अन्तर्मुहूर्त में ही मिथ्यात्व गुणस्थान में आ गया, अब क्या करें ? क्या आप आहार देना बंद कर देंगे ? उसे कपड़े पहनना चाहिए क्या ? अरे! यदि कपड़ा नहीं पहनता तो धोकाधड़ी कर नहीं। सम्यकदर्शन कोई ऐसी वस्तु नहीं कि बाँध के रख लिया जाये। क्षायिक सम्यकदर्शन होते हुए भी छठे-सातवें गुणस्थान से नीचे उतरना पड़े। हाँ! यह तो अवश्य है कि चारित्र बाँधा जा सकता है किन्तु भीतरी परिणामरूप चारित्र को नहीं बाँधा जाता, इसका अर्थ यह हुआ कि कर्म की भी अपनी शक्ति है, उसकी शक्ति के सामने किसी का पुरुषार्थ कुछ नहीं कर सकता।
द्रव्यलिंगी कहने से मिथ्यादृष्टि को ही नहीं लेना चाहिए, कारण, बाहुबली मिथ्यादृष्टि होने वाले नहीं, सर्वार्थसिद्धि से क्षायिक सम्यकदर्शन के साथ आये थे, इसी प्रकार की कई बातें राम के जीवन में आती हैं, भूमिका के अनुसार जब-जब कर्मों का उदय आता है, तब-तब उसकी चपेट से आत्मा के कैसे परिणाम होते हैं। उसे कहा है
"कोउ-कोउ समै आत्मा ने कर्म दाबे छे, कोउ-कोउ समै कर्म ने आत्मा दाबे छे।"
समणसुक्तं-६१
अर्थात् कभी-कभी आत्मा कर्मों को दबाता है और कभी-कभी कर्म, आत्मा को दबाते हैं। यह कस्समकस्सा चलता रहता है, अन्त में जीत आत्मा की ही होगी। यह चलना भी चाहिए। मानलो, मैदान में दो कुश्ती खेलने वाले आ गये, एक मिनट में ही एक गिर गया (चित हो गया) तो लोग कहते हैं कि मजा नहीं आया, कुछ दाँव-पेंच होना चाहिए था। जब सारा का सारा बदन लाल हो जाए, २-३ बार गिर-उठकर एक बार चित्त करें तो-वाह.वाह ! कमाल कर दिया, कहेंगे, क्योंकि हमें आनंद तभी आता है। उसी प्रकार जब जाना ही है इस लोक से तो करामात कर दिखाने से नहीं चूकना चाहिए, कर्मों ने अनन्तकाल से इसको दबाये रखा, अब एक बार ऐसी सन्धि आयी है, एक बार में ही न दबा दें बल्कि दबाते रहे-दबाते रहे, जब बिल्कुल लतफत हो जाये, कहे-मैं भाग जाऊँगा, चला जाऊँगा-ऐसा कर दो अपने आत्मा के बल से, जब सम्पूर्ण बल खुलकर सामने आयेगा तो सभी कर्म भागते फिरेंगे, तभी वीतरागता प्राप्त होगी।
वीतराग और अराग में क्या अंतर है ? यह जो पृष्ठ कागज का है यह अरागी है और भी जितनी भी वस्तुएँ देखने में आ रही हैं, वे सभी अरागी हैं, जड़ हैं, किन्तु चेतना वाले जीव ही कुछ रागी और कुछ वीतराग होते हैं, जिसके पास राग था, उसका अभाव करने से वीतरागता आती है। हमें अरागी नहीं वीतरागी बनना है।
आप लोग भी तो वीतराग हैं लेकिन कैसा ? 'आत्मानं प्रति रागो यस्य न वर्तते इति वीतराग:' आत्मा के प्रति जिसका राग नहीं है वह भी वीतराग है और जिसकी आत्मा में राग नहीं वह भी वीतराग है। आपको आत्मा के प्रति राग न होते हुए भी आप सरागी माने जाते हैं, क्योंकि भिन्न-भिन्न जो अन्य वस्तुएँ हैं, उन सबके प्रति आपको राग है। आप कहते तो हैं- यह भिन्न है, यह भिन्न है, लेकिन थोड़ी भी प्रतिकूल दशा आ जाये तो खेद-खिन्न है। यह पर है, यह पर है-फिर भी उसी में तत्पर है यह सब नाटक क्या है ?
जब नये दीक्षित श्रमण ने महाराज के चरणों में नम्न किया तो महाराज ने कहा-क्यों क्या बात, निकल गया पूरा का पूरा काँटा ? महाराज! आपने तो अच्छी संधि पकड़ी, हृदय की बात जान ली। भैय्या! हम हृदय की बात जानते हैं बाद की बात नहीं, किसी और के पास नहीं पहुँचना था, क्योंकि सबके प्रति तुम्हारे क्षमा भाव हैं, जहाँ बैर नहीं वहाँ क्षमा भाव है, अब तुमने दीक्षा ले ली, लेकिन जिसके साथ तुम्हारा बैर-भाव था, वह निकला कि नहीं ? भीतर रहना नहीं चाहिए, उसको तुम्हीं टटोलो और कहाँ पर ? वहीं पर जाकर, उसमें अवश्य ही परिवर्तन होना चाहिए, उस श्रावक के, इस लिंग (जिनलिंग) को देखने मात्र से निष्ठा पैदा हो गयी कि इस प्रकार का बैर रखने वाले भी मेरे आंगन तक आ सकते हैं, मान का पूरा का पूरा हनन, जो राजा था, दूसरों पर सत्ता रखता था, सब कुछ करता था, वही आज यूँ हाथ पसारकर आया है, यह भीतर की अग्नि-परीक्षा है, जो दिया जाय वह लेना बहुत ही कठिन व्रत है, उसमें अपनी माँग नहीं होना, बहुत कठिन है।
एक बार, सागर में वाचना चल रही थी, तब आचार्य गुणभद्र का संदर्भ देते हुए कहा था कि-श्रावक का पद कभी भी बड़ा नहीं होता, मात्र दान के अलावा। जिस समय उसके सामने तीन लोक के नाथ भी हाथ करते हैं, उस समय श्रावक को अपूर्व आनंद होता है और उसी आनंद के साथ अपना हाथ यूँ करता है (दान देता है)। तब हमने कहा-बात तो बिल्कुल ठीक है, परन्तु हाथ कांपते किसके हैं ? देने वालों के ही हाथ कांपते हैं, लेने वालों के नहीं, क्यों कांपते हैं ? क्योंकि देने वाला दे तो रहा है परन्तु क्या पता, कैसे हो जाए, इसीलिए कांपते हैं, लेकिन महाराज निभीकता के साथ लेते हैं।
बंधुओ ! राजा हो या महाराज, जब तक राजकीय मान सम्मान है तब तक तीन लोक का नाथ नहीं बन सकता, चाहे कितनी भी कठिन तपस्या क्यों न कर लें। इसीलिए वृषभनाथ ने दीक्षा ली, इसका अर्थ यही है कि उसके पास भीतर बैठी हुई, क्रोध, मान, माया, लोभ भले ही अनन्तानुबन्धी न हो पर शेष सभी कषाय तो विद्यमान होगी, इनका जब तक क्षय होगा। तब तक उदयावली से उदय में आकर इनका कार्य देखा जा सकता है। वर्धमानचारित्र वालों को भी हो सकता है परन्तु वह संज्वलन होगा, अत: उसको भी जीतने के लिए बार-बार प्रयास करना और जो कर रहे हैं वे धन्य हैं। समयसारकलश में एक स्थान पर लिखा है
बहती रहती कषाय नाली, शान्ति-सुधा भी झरती है,
भव पीड़ा भी, वहीं प्यार कर, मुक्ति-रमा मन हरती है।
तीन लोक भी आलोकित है, अतिशय चिन्मय लीला है,
अद्भभूत से अद्भभूत तम महिमा, आतम की जय शीला है।
– (समयसार कलश -२७४)
वहीं पर कषाय नाली है, वहीं अमृत का झरना, वहीं तीन लोक, वहीं मुक्तिरमा, वहीं पर तीनों लोकों को आलोकित करने वाला अद्भुत-दिव्यज्ञान, लेकिन यह अतिशय लीला चेतना की ही है। धन्य हैं वे मुनिराज और उनकी चेतना, जो दीक्षा लेने के उपरान्त कषाय रहते हुए भी, कषाय नहीं करते हैं, कषाय चले जाने के बाद हमने कषाय जीत ली, ऐसा नहीं, जैसे-रणांगन में शत्रु के सामने कूदना ही कार्यकारी है, जब बैरी भाग जाए, उस समय कूदें तो क्या मतलब, शत्रु के सामने हाथ में तलवार हो और ढाल तथा छाती यूँ करके रणांगन में कूदकर किये गये प्रहार से बच, संधि पा अपनी तलवार चलाने से काम होता है, उसी प्रकार वैराग्यरूपी ढाल को अपने हाथ में लेकर, ज्ञान की तलवार चलाने से अनन्तकालीन कर्म की फौज जो की भीतर बैठी है, छिन्न-भिन्न हो जाती है, बस अन्तर्मुहूर्त का समय लगता है, हमें जितना भी पुरुषार्थ करना है वह मात्र मोह को जीतने के लिए ही करना है, मोह को जीतने पर ही विजय मानी जायेगी अन्यथा कोई मतलब नहीं, कुछ भी सिद्ध होने वाला नहीं।
उस श्रावक को भी ऐसा ज्ञान हो गया कि भगवन्! इनके साथ जो बैर था, जो गांठ पड़ गई थी, वह कभी खुलेगी यह संभव नहीं लगता था, कम से कम इस भव में तो कतई संभव नहीं लगता था, उस पर्याय का प्रध्वंसाभाव हो गया जिससे कि हमारी गांठ बँधी थी, अब मुनिलिंग आ गया, मुनिलिंग प्राप्त होते ही मेरे भीतर किसी भी प्रकार का राग-द्वेष भाव नहीं आये, कारण कि वे वीतराग होकर आये थे, रागी-द्वेषी होकर नहीं। यदि हमारे सामने कोई वीतराग के साथ आते हैं तो हमें भी वीतराग भाव की उपलब्धि होगी और यदि मान दिखाते हैं तो हमारे भीतर भी मान की उदीरणा हो जाती है। सामने वाला व्यक्ति मान नहीं दिखाता तो हमारा भी मान उपशान्त हो जाए। जैसे-सिंह देखता है कि सामने वाला व्यक्ति मेरी ओर किस दृष्टि से देख रहा है, यदि लाल कटाक्षों से देखता है तो सिंह भी इसी प्रकार से कर लेता है, यदि वह शान्त रूप से चलता है तो सिंह भी शान्त मुद्रा से चला जाता है।
एक बार की बात, दो संत जंगल से चले जा रहे हैं, उधर से एक सिंह भी आ गया, सिंह को देखकर दोनों को थोड़ा-सा क्षोभ हो गया, क्या पता? आजू-बाजू खिसकने के लिए कोई स्थान नहीं था, अब क्या करें ? अब तो वह जैसा आ रहा है, वैसे ही हम चले, रुकने से क्या मतलब ? जो करना हो कर लेगा, इसलिए चलने में कोई बाधा नहीं, बस उस तरफ नहीं देखना है, ईयपिथ से चलना है, नीचे देखते हुए दोनों चले गये। बीच में से वह भी क्रास कर चला गया, सिंह इधर चला गया और वे उधर, कुछ दूर जाकर इन लोगों ने मुड़कर देखा तो उसने भी देखा कि कहीं कोई प्रहार तो नहीं। दोनों शांत चले गये और सिंह भी चला गया।
बंधुओ! कषाय-भाव की उदीरणा दूसरों को देखकर भी होती है। इसलिए बहुत सम्हल कर चलने की बात है, कषायवान् के सामने जाने से कषाय की उदौरणा बहुत जल्दी हो जाया करती है, जिस प्रकार अग्नि को ईंधन के द्वारा बल मिल जाता है उसी प्रकार कषायवान् व्यक्ति के सामने कोई कषाय करता है तो उसको बहुत जल्दी कषाय आती है।
एक छोटा-सा लड़का माँ की गोद में बैठा है, माँ दूध पिलाती-पिलाती आँखें लाल कर ले तो वह दूध पीना छोड़कर देखने लग जाता है, कि क्या मामला है ? गड़बड़-सा लगता है, तो मुँह का भी दूध वहीं छोड़ देता, ज्यादा विशेष हो गया तो वह वहाँ से खिसकने लगेगा, लेकिन ज्यों ही चुटकी बजाकर प्यार दिखाया तो फिर पीने लगेगा। इसका मतलब यही हुआ कि दूसरों की कषाय समाप्त करना चाहते हो तो हमें भी उपशान्त होते चले जाना चाहिए।
अतृणे पतिता वह्निः स्वयमेवोपशाम्यति ।
सुभाषित शतक-३९
जहाँ पर तृण नहीं, घास-पूस नहीं है वहाँ पर धधकती एक अग्नि की लकड़ी भी रख दो तो वह भी पाँच मिनिट में समाप्त हो जाती है, ईधन का अभाव होते ही शान्त हो जाएगी, इसी तरह हमारे पास कषाय है वह शान्त होते ही अपने आप शान्ति आ जाएगी, जब तक ईधन का सहयोग मिलेगा ईंधन पटकते रहेंगे वह बढ़ती जायेगी। उपशम भाव ही हमारे लिए अजेय और अमोघ अस्त्र है, इस अमोघ अस्त्र के द्वारा दुनियाँ को नहीं, अपनी आत्मा को जीतकर चलना है।
जैसे आदिनाथ ने आज दीक्षा अंगीकार कर ली, ऐसे श्रमणत्व को मैं बार-बार नमस्कार करता हूँ, ऐसा श्रमणत्व हम लोगों को भी मिले ऐसी भावना करनी चाहिए, अतीत में कितनी भी कषाय हो गई हो, उसकी याद नहीं करनी चाहिए, अनागत की 'प्लानिंग' भी नहीं करनी चाहिए। यह सब पर्याय बुद्धि है। आप तो प्रागभाव और प्रध्वंसाभाव को घटाकर देख लीजिए सारा माहौल शान्त हो जायेगा। एक वीरत्व की बात याद आ गई, वह और आपके सामने रख देता हूँ ताकि आप भी उसका उपयोग कर सकें -
कौन कहता है कि आसमां में सुराख नहीं हो सकता।
एक पत्थर तो दिल से उछालकर देखो यारो।
याद रखिये! आत्मा के पास अनन्तशति है, इस शक्ति का उपयोग कषायों के प्रहार करने के लिए कीजिए, हमारी यह शक्ति अब दबी नहीं रहनी चाहिए, सोई नहीं रहनी चाहिए, नहीं तो चोरों का साम्राज्य हो जायेगा। क्या आप अपनी सम्पदा को चोरों के हाथ में देना चाहेंगे ? नहीं ना। इसलिए दहाड़ मारकर उठो, जैसे सिंह के सामने कोई नहीं आता, वैसे ही उठो, सिंहवृत्ति को अपनाओ, चूहों से बनकर हजार वर्ष जीने की अपेक्षा सिंह जैसा बनकर एक दिन जीना श्रेष्ठ है। मुनि महाराजों की वृत्ति ही सिंहवृत्ति कहलाती है, वह सिंह जैसे क्रूर तो नहीं होते किन्तु सिंह जैसे निभौंक जरूर होते हैं, निरीह होते हैं, पीठ-पीछे से धावा नहीं बोलते, छुपकर जीवन-यापन नहीं करते, उनका जीवन खुल्लमखुल्ला रहता है, वनराजों के पास जाकर महाराज रहते हैं, भवनों में रहने वाले वनराजों के पास नहीं ठहर सकते।
आज भगवान ने दीक्षा ली तो इन्द्र चाकर बनना चाहता था लेकिन उन्होंने स्वीकार नहीं किया, उसे कह दिया-तुम पालकी भी नहीं उठा सकते हो, पहले मनुष्य उठा लें, क्योंकि ये संयम धारण कर सकते हैं, अब मुझे किसी से कुछ लेना देना नहीं, ना ये, ना तुम, मैं मात्र अकेला हूँ, था और रहूँगा, इस एकत्व के माध्यम से आज तक हजारों आत्माएँ अपना कल्याण कर गई, कर रही हैं, आगामीकाल में भी करेंगी। अपूर्णता से अपने जीवन को पूर्णता की ओर ले जायेंगी। मैं उन वृषभनाथ भगवान को, जो आज मुनि बने हैं, यह पंक्ति बोलते हुए स्मरण में लाता हूँ -
बल में बालक हूँ किस लायक, बोध कहाँ मुझमें स्वामी।
तव गुण-गण की स्तुति करने से, पूर्ण बनूँ तुम-सा नामी॥
गिरि से गिरती सरिता पहले पतली-सी ही चलती है।
किन्तु अन्त में रूप बदलती सागर में जा ढलती है ||