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नव आचार्य श्री समय सागर जी को करें भावंजली अर्पित ×
मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज
  • प्रवचन प्रमेय 9 - निर्वाणकल्याणक (पूर्वार्द्ध)

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    अभी-अभी बोलियाँ हो रही थीं। मैं सोच रहा था कि बोली लेने वाले यह जानते हैं और करने वाले भी जानते हैं कि पैसा अपने से बिल्कुल भिन्न है। तब भी मुझे समझ में यह नहीं आ रहा था कि २-२, ३-३ बार बोलने के उपरान्त जैसे क्रेन के द्वारा कोई बड़ी वस्तु उठती है धीरे-धीरे, ऐसी ही बोलियाँ उठ रही थीं, ऐसा क्यों ? जबकि धन विभिन्न पदार्थ है, उसके साथ हमारा कोई सम्बन्ध नहीं फिर भी ऐसा लग रहा था कि जैसे गोंद से आपका और उन नोटों का गठबन्धन हो गया है, नोट ट्रेझरी में हैं और आप यहाँ आकर बैठे हैं, फिर भी नहीं निकल रहे हैं, बोली लेने वाले के तो नहीं निकल रहे हैं क्योंकि उन्हें मोह है, लेकिन यहाँ जो बोली करा रहे थे वह भी दो के साथ - साथ ढाई बोल रहे थे यानि उनका भी मोह और बढ़ रहा था।

     

    आज मोह को छोड़कर ही शरीरातीत अवस्था प्राप्त हुई, कितना घनिष्ठ सम्बन्ध है आत्मा के साथ, देख लीजिए! आज द्रव्य कर्म से, भाव कर्म से और नोकर्म से, इन तीन कर्मों से अतीत हो करके उस आत्मा का जन्म हुआ है, सिद्धपरमेष्ठी की ही सही जन्मजयंती है आज के दिन। अनन्तकाल के लिए यह जन्म, ज्यों का त्यों रहेगा, अनन्तकाल के लिए मरण का-मरण हो चुका अब, ऐसा उत्पाद हुआ और ऐसा उत्पात (हलचल) हुआ कि कहना संभव नहीं। यह तो ऋषभनाथ ही जान सकते हैं, हम नहीं जान सकते।

     

    आज इस बात को देखने (निर्वाणकल्याणक) में इतना आनन्द आता है कि जितना कि अन्य में नहीं आता, निर्वाणकल्याणक में मुझे विशेष ही आनन्द आता है, हालांकि दीक्षाकल्याणक, केवलज्ञानकल्याणक भी कल्याणक हैं, लेकिन निर्वाण कल्याणक को देख अपूर्व ही आनन्द उमड़ता है। कल तक तो समवसरण की रचना थी, अब समवसरण बिखर गया। वृषभनाथ भगवान का समवसरण १४ दिन पहले ही बिखर गया, मुक्ति पाने से पहले, याने १४ दिन तक समवसरण के बिना रहे थे, समवसरण में विराजमान होते हैं तो अहन्त परमेष्ठी माने जाते हैं, छत्र, चंवर, सिंहासन और कमल के चार अंगुल ऊपर अधर में बैठे रहते हैं। अहन्त परमेष्ठी एक प्रतिमा जैसे हो जाते हैं। समवसरण में जब तक विराजमान रहेंगे तो उन्हें केवलज्ञान तो भले ही रहा आवे, लेकिन मुक्ति तीनकाल में मिलने वाली नहीं, किसी को भी आज तक कुर्सी पर बैठे-बैठे, किसी संस्था के संचालक को मुक्ति नहीं मिली, केवलज्ञान होने में तथा मुक्ति में उतना ही अन्तर है, जितना कि १५ अगस्त और २६ जनवरी में। केवलज्ञान हुआ यह स्वतन्त्रता दिवस है और मुक्ति गणतन्त्र दिवस। यह बिल्कुल नियम है कि स्वतन्त्रता के लिए पहले बात होती है और कह दिया जाता है कि तुम्हें स्वतन्त्रता मिलेगी-दी जायेगी, लेकिन सत्ता जो है, वह गणतन्त्र दिवस के दिन आती है। आज भगवान को अपनी निजी सत्ता हाथ लगी, जो कि पर के हाथ चली गई थी, उसके लिए उन्होंने बहुत कोशिश की, अनशन भी प्रारम्भ किये, तब कहीं जाकर के सत्ता मिली है। आप सोचते हैं सत्ता को ले लेना आसान है, लेकिन नहीं दूसरों की सत्ता पर अधिकार नहीं करना है। अपनी सत्ता को प्राप्त करने के लिए आचार्यों ने कहा है कि अन्तर्मुहूर्त पर्याप्त है, पर यह सब व्यायाम करना आवश्यक है तभी जो ग्रन्थियाँ हैं, छूट सकेंगी, जो कि आपकी नहीं हैं, उसी साधना में कठिनाई है, इसलिए साधु की यह विशेषता होती है कि वह केवल आत्मसाधना करता है। वही साधु हुआ करता है। कुछ इससे आगे के होते हैं, जो अपनी साधना को करते हुए भी दूसरों को उपदेश दे देते हैं, वे उपाध्याय परमेष्ठी कहलाते हैं। यदि कोई उपदेश ग्रहण कर मार्ग को, पंथ को अपनाना चाहता है तो उसे शिक्षा-दीक्षा देकर के पथ के ऊपर आरूढ़ करा देते हैं। 'चरति आचारयति वा इति आचार्य:'  वह आचार्य परमेष्ठी  कहलाते है 

    और 

     

    मोक्षमार्गस्य नेतारं भेत्तारं कर्मभूभृताम्।

    ज्ञातारं विश्वतत्वानां वन्दे तदगुणलब्धये॥

    अरहन्त परमेष्ठी वे माने जाते हैं, जो कि हितोपदेशी होते हैं, सर्वज्ञ होते हैं और मोक्षमार्ग के नेता होते हैं। अरहन्तों में तीर्थकर भी होते हैं, जो कि सिद्ध परमेष्ठी को नमोऽस्तु करते हैं। ऐसा क्यों ? सभी के आराध्य देवता तो सिद्ध ही हुआ करते हैं। शेष सारे के सारे आराधक हैं, अरहन्त परमेष्ठी को मुनि माना जाता है, सिद्ध परमेष्ठी मुनियों की कोटि में नहीं आते, वे तो मुनियों से पूज्य हैं, शाश्वत सत्य हैं। अहन्त परमेष्ठी को भी साधु जीवन की उपासना करनी पड़ती है। तब यह पद लिया ही क्यों उन्होंने? पूर्व जीवन में उन्होंने भावना भायी थी कि 'क्षेमं सर्वप्रजानां।' दर्शनविशुद्धि आदि षोडशभावनाएँ, जिनमें सबका कल्याण हो, संसार में तिलतुष मात्र भी सुख नहीं, सभी को सही-सही दिशाबोध मिले, इन्हीं का तो फल है। प्रत्येक सम्यक दृष्टि को भी ऐसी भावना नहीं हुआ करती, यदि होने लग जाए तो सभी को तीर्थकर पद के साथ मुक्ति मिले। पर ऐसा असम्भव है। असंख्यातों में एक-आध ही सम्यक दृष्टि ऐसी भावना वाले होते हैं।

     

    अरहन्त परमेष्ठी की अवस्था कोई भगवद् अवस्था नहीं है, उन्हें उपचार से भगवान कह देते हैं। उनके चार घातियाँ कर्मों के नाश हो जाने पर, अब जन्म से छुट्टी मिल गई, इसी अपेक्षा से या उपचार से कह देते हैं। दूसरी बात और कहूँ-उनको (अरहन्त) मुक्ति कब मिलती है ? अरहन्त परमेष्ठी को मुक्ति तीनकाल में नहीं मिल सकती। आचार्य परमेष्ठी को भी नहीं मिल सकती, उपाध्याय परमेष्ठी को भी नहीं मिल सकती। मुक्ति के पात्र साधु परमेष्ठी हैं। मोक्षमार्ग के नेतृत्व को अपनाये रहेंगे जब तक, तब तक मुक्ति नहीं। उनके समवसरण में बैठे-बैठे कोई उपदेश सुनकर के भावलिंगी मुनि को मुक्ति हो सकती है, पर समवसरण के संचालक (तीर्थकर) को मुक्ति नहीं होती। कितनी बड़ी बात है। हम लोग कम से कम कुर्सी का तो मोह छोड़ दें, कुर्सी मिल भी नहीं रही है सबको, लेकिन सभी झगड़ा करते हैं कुर्सी के लिए मात्र उस मोह के कारण, चुनाव भी लड़ते हैं। आज तो तीर्थकर प्रभु की भी कुर्सी (सिंहासन) छूट गयी। तीन लोक में कहीं भी ऐसी सम्पदा नहीं मिलती है। इन्द्र की आज्ञा से कुबेर के द्वारा समवसरण की रचना होती है, सारे भण्डार को खाली करके, समवसरण की रचना केवलज्ञान उत्पन्न होने के उपरान्त क्यों हुई ? सारी की सारी सम्पदा पहले भी कुबेर के भण्डार में थी, वह अपने लिए अथवा इन्द्र के लिए समवसरण की रचना क्यों नहीं कर सकता ? नहीं! यह तो मात्र तीर्थकर प्रकृति के उत्कृष्ट पुण्य का विपाक है उन्हीं के लिए यह सब कुछ सम्पदा मिलती है।

     

    आचार्य परमेष्ठी भी जब तक आचार्य परमेष्ठी बने रहेंगे तब तक श्रेणी में आरोहण नहीं हो सकता। उपाध्याय परमेष्ठी को भी श्रेणी नहीं मिलेगी। और यहाँ तक की तीर्थकर को भी, जब तक अहन्त परमेष्ठी के रूप में रहेंगे तब तक मुक्ति नहीं, सब कुछ यहाँ पर छोड़ना पड़ता है, सारा का सारा ठाठ-बाट यहीं पर धरा रह जायेगा, आठ कर्मों को भी यहीं छोड़ जायेंगे और जाकर ऊध्र्वलोक में विराजमान हो जाएंगे, अनन्तकाल के लिये।

     

    इससे सिद्ध हो गया कि साधु की साधना छठवें गुणस्थान से प्रारम्भ होकर चौदहवें गुणस्थान तक चलती है। आप लोगों के यहाँ भी चौदह कक्षाएँ होती हैं, उनमें एक स्नातक और एक स्नातकोत्तर। ये चौदह गुणस्थान संसारी जीव की चौदह कक्षाएँ हैं। एक-एक गुणस्थान चढ़ते-चढ़ते अहन्त परमेष्ठी स्नातक हुए हैं और तेरहवें गुणस्थान में प्रवेश हुआ और वहाँ पर अन्तर्मुहूर्त रह करके स्नातकोत्तर हुए, ज्यों ही स्नातकोत्तर हुए तो निरुपाधि अवस्था उपलब्धि हो गई उन्हें, जब तक कक्षाएँ शेष रहती हैं तब तक छात्र ही माना जाता है, इसी प्रकार चौदहवें गुणस्थान तक तो सभी मुनि महाराज माने जाते हैं, किन्तु चौदहवें गुणस्थान के ऊपर चले जाते हैं तो वे नियम से सिद्ध परमेष्ठी होते हैं, शाश्वत सिद्धि प्राप्त हो जाती है उन्हें। धन्य है यह दिन, इस प्रकार से आत्मा का विकास करते-करते अन्त में उन्हें इस पद की उपलब्धि हुई जो कि आत्मोपलब्धि कही जाती है, उन्होंने अपना कुछ भी नहीं छोड़ा। जो पराया था वह सारा का सारा यहीं पर रह गया। जो निजी था वह शाश्वत सत्य बन गया। एक उदाहरण देता हूँ कि अरहन्त और सिद्ध परमेष्ठी में कितना अन्तर है।

     

    दूध है और घृत है। दोनों एक दूध में विद्यमान रहते हैं, पर जब आप दूध पीते हैं तब घृत का स्वाद नहीं आता आपको, घी, दूध में ही है परन्तु घी का स्वाद नहीं आता, घी का स्वाद अलग है और दूध का अलग, इसी तरह दूध की गन्ध और घी की गन्ध की बात है, दूध की गन्ध दूर से नहीं आती जबकि घी की महक तो कहीं रखो अर्थात् दूर से भी आती है, दूसरी, दूध के द्वारा अर्थात् दूध से भरे बर्तन में आप अपनी मुखाकृति को नहीं देख सकते जबकि घी में आपकी मुखाकृति स्पष्ट दिखाई दे जाएगी, दूध में कभी भी मुख नहीं झलकेगा, यह बात अलग है कि मुख का मात्र बाहरी आकार ही दिखे, किन्तु दूध में आपका अवतरण नहीं हो सकता। तीसरी बात, दूध हमेशा कच्चा होता है अर्थात् कभी पर्यायान्तर (दही, तक्र) को प्राप्त हो जाता है, लेकिन घी में अवस्थानन्तर अब संभव नहीं, क्योंकि वह पूर्ण शुद्ध हो गया है। चौथी बात, दूध से कभी भी प्रकाश नहीं किया जा सकता अर्थात् दीपक में भरने पर प्रकाश नहीं देता जबकि घी सदा ही प्रकाश देता है जब आप चाहें। इसीलिए घी से आरती भी उतारी जाती है, दूध से नहीं। पाँचवीं बात, दूध में देखें तो उसकी पूर्णता (गहराई) नजर नहीं आती, जबकि घी में देखने पर उसकी सतह तक स्पष्ट दिखाई देता है। उससे पता चल जाता है कि कितना घी है। ऐसा ही अन्तर सिद्ध और अहन्त में होता है क्योंकि सिद्ध परमेष्ठी शुद्ध तत्व रूप से परिणमन करने लगे, एक काँच होता है और एक दर्पण, दोनों में जितना अन्तर है उतना ही सिद्ध और अहन्त में है। सिद्ध परमेष्ठी काँच होते हैं, अहन्त परमेष्ठी दर्पण। काँच तो शुद्ध साफ होने से जो कुछ आर-पार है स्पष्ट दिखा देता है परन्तु दर्पण हमारी दृष्टि को पकड़ लेता है, हम उस पार नहीं देख सकते दर्पण से।

     

    इस प्रकार होने पर, णमो 'अरहंताण' ऐसा क्यों हो जाता है पहले ? कारण यही है कि सिद्ध परमेष्ठी हमें दिखते नहीं और अहन्त परमेष्ठी हमें दिखते हैं, उपदेश देते हैं। सिद्ध प्रभु हितोपदेशी नहीं, सर्वज्ञ तो हैं, कर्मों से मुक्ति भी है पर हितोपदेशी नहीं। हम तो स्वार्थी हैं, जिसके द्वारा हमारा काम निकले उन्हीं को हम पहले याद कर लेते हैं, अहन्त परमेष्ठी के द्वारा हमें स्वरूप का उद्बोधन मिलता है, एक प्रकार से नेतृत्व भी करते हैं और चल भी रहे हैं, इसलिए अहन्त परमेष्ठी को इन मूर्त आँखों से देख सकते हैं, सर्वज्ञत्व को हम देख नहीं सकते, यह भीतरी भाव है। हम भगवान के दर्शन करते हैं, लेकिन उनके अनन्तगुणों में से एक के अलावा शेष गुणों को देख नहीं सकते हैं। मात्र वीतरागता वह गुण है जो दिखे बिना रह भी नहीं सकता। वीतरागता हमारी आँखों में आ जाती है। भगवान को देखने से उनके कोई भी ज्ञान का पता नहीं चलता कि उनके पास केवलज्ञान है कि नहीं अथवा श्रुतज्ञान या मतिज्ञान। कुछ भी नजर नहीं आता मात्र नासादृष्टि पर बैठे वीतरागमुद्रा में। केवलज्ञान हमारी दृष्टि का विषय भी नहीं बन सकता, वह मात्र श्रद्धान का विषय है, लेकिन मुद्रा के देखने से ज्ञान हो जाता है कि हमारे प्रभु कैसे हैं ? हमारे प्रभु वीतरागी हैं। वीतरागता आत्मा का स्वभावभूत गुण है। वीतरागता के बिना हमारा कल्याण नहीं हो सकता। इसलिए सम्यक दृष्टि की दृष्टि में केवलज्ञान नहीं झलकता, सर्वज्ञत्व नहीं झलकता, किन्तु मिथ्या दृष्टि की दृष्टि में भी भगवान की वीतरागता झलकती है। इसलिए वह भी बिना विरोध के वीतराग के चरणों में नतमस्तक हो जाता है। यदि अरहन्त भगवान हमारे लिए पूज्य हैं तो वीतरागता की अपेक्षा से ही, सारा का सारा संसार आकर उनकी पूजा करता है। कौन से भगवान सही हैं ? तो हर कोई कहेगा-जो रागी हैं, वह सही नहीं, जो द्वेषी हैं वह भी नहीं, जो परिग्रही वह भी नहीं, लेकिन जो वीतराग हो बैठे हैं, इनके पास कितना ज्ञान है, इससे किसी को कोई मतलब नहीं। वीतरागता जहाँ कहीं नहीं मिल सकती है, इसलिए धन्य है वह घड़ी आदिनाथ के लिए, जब उन्होंने अपने आपको इस संसार से पार कर लिया तथा हमारे लिये एक आदर्श प्रस्तुत किया, युग-युग व्यतीत हो गये, इस प्रकार का कार्यक्रम किये। यद्यपि संसार अनादिकाल से चल रहा है तो सिद्ध होने का क्रम भी अनादि ही है, फिर भी हम लोगों का नम्बर सिद्धों में नहीं आ पाया। अत: हमें अब इसके लिये पुरुषार्थ करना होगा, एक ही पुरुषार्थ है, मोक्ष पुरुषार्थ जो आज तक नहीं किया।

     

    जानने के लिये तो तीन लोक है, परन्तु छद्मस्थ के ज्ञान से यह कार्य नहीं बनने वाला और छोड़ने को मात्र राग-द्वेष और मोह, ये तीन हैं। इन राग, द्वेष और मोह को छोड़े बिना हमारा ज्ञान सही नहीं कहलायेगा, इसलिए संघर्ष करो और जो कुछ भी करना पड़े करो, मात्र राग-द्वेष-मोह छोड़ने के लिये, जिसने संघर्ष किया, वह अपनी आत्मसत्ता को लेकर के बैठ गया, उसका साम्राज्य चल गया, आज तक जो नौकर था, वह सेठ बन गया, जो सेठ था वह नौकर की चाकरी कर रहा है, गुलामी कर रहा है, इस शरीर के पीछे क्या-क्या अनर्थ करना पड़ता है इस आत्मा को, कैसे-कैसे परिणाम करता रहता है। आप्तपरीक्षा में विद्यानन्दजी महाराज ने लिखा है कि -

     

    ततो नेशस्य देहोऽस्ति प्रोक्तदोषानुषङ्गतः।

    नापि धर्मविशेषोऽस्य देहाभावे विरोधता:॥

    (आप्तपरीक्षा-२५)

    उन्होंने इसको (शरीर को) जेल बताया है। इसीलिये कल तक भगवान को अनन्तसुख था लेकिन अव्याबाध नहीं था। कुछ लोग पूछते हैं मुझसे, महाराज! अनन्तसुख और अव्याबाधसुख में क्या अन्तर है? बहुत अन्तर है, मैं कहता हूँ-जैसे जेल में किसी को कह दिया ‘कल तुझे जेल से छुटकारा मिल जाएगा,” अभी नहीं मिला है, जब तक जेल से बाहर नहीं जायेगा तब तक वस्तुत: सुख नहीं है, सुखानुभव के लिये तो जेल से बाहर आना होगा। जिस प्रकार जेल से बाहर आते समय, जेल का जो ड्रेस होता है, एड्रेस होता है, सबका सब उतार दिया जाता है। उसी प्रकार यह संसार का ड्रेस है, इसको छोड़ने पर ही सही सुख, अव्याबाध-सुख मिलता है। यही अन्तर है अनन्तसुख और अव्याबाधसुख में। लेकिन हम हैं कि एक ड्रेस के ऊपर और ड्रेस पहनते जा रहे हैं और यूँ सोचते हैं कि तुम्हारे पास तो ऐसा ड्रेस ही नहीं, ऐसा मुझे अभी तक मिला ही नहीं था। उन सबको छोड़कर आज ऋषभनाथ सिद्ध हो गये और क्या-क्या छोड़ दिया उन्होंने? तीनों कर्मों को छोड़ दिया और साथ-साथ...... 'औपशमिकादि भव्यत्वानां च' (त.सू १०/३) औपशमिक भाव, क्षयोपशामक भाव आदि भी छोड़ दिया, इतना ही नहीं जो परिणामिक भाव में भव्यत्व भाव था उसको भी छोड़ दिया। क्या मतलब है महाराज ? मतलब समझाते हैं जैसे-आप स्टेशन पर चले गये, आपको देहली जाना है, रेल का टिकट ले लिया, जितने पैसे माँगे उतने दे दिये, टिकट लेकर रख लेते हैं, कहाँ रखते हैं! वहाँ रखते हैं महाराज! जहाँ गुम न हो सके, सब कुछ सामान गुम जाए संभव है लेकिन टिकट गुम जाए तो क्या होगा ? कम से कम दोनों कान पकडो और उट्ठक-बैठक करो स्टेशन पर, (आजकल यह नहीं होता) तलाशी होगी, कहाँ से आये, क्यों आये, कहाँ जा रहे हो, ये सभी प्रश्न और उसके साथ सजा या जुर्माना। अत: अच्छे ढंग से रख लेते हैं, ज्यों ही स्टेशन आ गया, प्लेटफार्म आ गया, गाड़ी रुकी और उतर जाते हैं, उस समय वह टिकट, टिकट-चेकर के हाथ में थमा देते हैं और गेट के पार हो जाते हैं, टिकट नहीं देते हैं तो बाहर नहीं जाने देगा, क्योंकि टिकट यहीं तक के लिये था, बाहर चले जाने पर टिकट का कोई काम नहीं। चेकर टिकट को लेकर फाड़ देता है, वह जब फाड़ता है तब आप रोते नहीं, दुखी नहीं होते। कारण, अब फाडो या अपने पास रखो, यह सभी कुछ तुम जानो, हम तो अपने स्थान पर आ गये।

     

    इसी प्रकार सम्यक दर्शन-ज्ञान-चारित्र की अभिव्यक्ति का कारणभूत जो भव्यत्व परिणाम उत्पन्न हो गया था वह इनके साथ ही समाप्त हो गया, हो जाता है, जिस तरह टिकट स्टेशन पर।चौदहवें गुणस्थान की बार्डर आते ही यह रत्नत्रय की टिकट को कोई भी ले लें, क्योंकि संसार की अपेक्षा से है, मेरा ज्ञायक तत्व तो कोई भी ले नहीं सकता, ऐसे में एक समय में सात राजु पार करके फिर वहाँ लोक के शिखर पर जाकर विराजमान हो जाते हैं।

     

    यहाँ पर शंका हो सकती है कि ऊध्र्वगमन आत्मा का स्वभाव है, जो स्वभाव होता है वह अमिट होता है, अनन्त होता है फिर वहीं तक जाकर क्यों रुक गये सिद्ध भगवान ? भगवान कुन्दकुन्ददेव ने नियमसार में कहा है-धर्मास्तिकाय के अभाव के कारण, लोक के शिखर पर जाकर के वे सिद्ध प्रभु विराजमान हो जाते हैं। उनकी मात्र वह सात राजु की योग्यता नहीं, किन्तु उनकी योग्यता तो अनन्त है, लेकिन धर्मास्तिकाय के अभाव के कारण आगे गमन नहीं होता।

     

    इस प्रकार तो उन्होंने अपनी गति को प्राप्त कर लिया। अब आप भी फेरी के बाद अपनीअपनी गति पकड़ेंगे। किसी की मोटर पर, किसी की मोटरसाईकल पर तो किसी की साईकल पर। आप पूछ सकते हैं कि महाराज! आप भी तो गति करेंगे, कौन-सी और किस ओर करेंगे? भैय्या! हमारी सदागति रहती है, कहीं टिकती ही नहीं, ना हमारे पास ड्रेस है और ना ही एड्रेस, भगवान का कहना है कि ड्रेस रखोगे तो पकड़ में आ जाओगे, एड्रेस रखोगे तो पुलिस आ जायेगी, अतः बिना ड्रेस, एड्रेस के रहो, इसलिए तो अनियत विहार करता हूँ, पता नहीं पड़ता.सदागति तभी तो होती है, ऐसा होना भी आवश्यक है।


    आप सभी ने पाँच-छह दिनों में जो कुछ भी देखा, सुना, अध्ययन किया, मनन किया, भावना की वह वस्तुत: दुनियाँ में कहीं भी चले जायें, मिलने वाली नहीं। कई दुकानें मिलेंगी, लेकिन इस प्रकार की चर्या, दृश्य कहीं भी नहीं मिलेगा। यहाँ पर कोई कडीशन (शर्त) नहीं है। विदाउट कडीशन ही आत्मा का स्वभाव है। कडीशन से ही दु:ख का अनुभव हो रहा है। उस भव्यत्व की टिकट को छोड़कर के भी उन्होंगे मार्ग को पूरा कर लिया और मंजिल पा ली। धन्य है यह मोक्षमार्ग, धन्य है यह मोक्ष और धन्य हैं वे, जिन्होंने मोक्ष और मोक्षमार्ग का कथन किया। यह स्वरूप अनन्तकाल से चला आ रहा है, आज हमें भी उसका पाठ पढ़कर के अपने जीवन में उपलब्ध करने का प्रयास करना है।


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    रतन लाल

      

    धन्य है यह मोक्षमार्ग, धन्य है यह मोक्ष और धन्य हैं वे, जिन्होंने मोक्ष और मोक्षमार्ग का कथन किया। 

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