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नव आचार्य श्री समय सागर जी को करें भावंजली अर्पित ×
अंतरराष्ट्रीय मूकमाटी प्रश्न प्रतियोगिता 1 से 5 जून 2024 ×
मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज
  • प्रवचन प्रमेय 2 - गर्भकल्याणक (उतरार्द्ध)

       (1 review)

    वस्तु है और उसके ऊपर आवरण है। वस्तु और उसके ऊपर दूसरे पदार्थों का दबाव है। जब वस्तुएँ स्वतंत्र हैं, अपना-अपना परिणमन करती हैं फिर इन बाहरी वातावरणों से प्रभावित होने का बंधन, आखिर क्यों ? इस प्रकार की जिज्ञासा लेकर प्रात:काल कोई भव्य आया था, आचार्यश्री के चरणों में। वह भावुक है, साथ में विवेकवान् भी। उसका लक्षण बहुत अच्छा है कि ‘अपना हित चाहता है।” बिल्कुल ठीक, उपदेश जो होता है वह न देवों को होता है, न ही तिर्यचों को, न भोगभूमि के जीवों के लिए होता है और न नारकियों के लिए। उपदेश मात्र मनुष्यों के लिए है, वह भी जो समवसरण की शरण में गये हैं। वहाँ पर जितना क्षेत्र लांघना आवश्यक था, लाँघकर गये हैं। उन्हीं को देशना मिलती है।


    देशना देना भगवान् का लक्षण नहीं है। उनका कर्तव्य नहीं है। उनके लिए अब कोई भी कर्तव्य शेष नहीं, कोई लौकिकता भी नहीं रही। वे बाध्य हो करके भी नहीं कहते हैं। मात्र जो पुण्य ले करके गया है-सुनने का भाव ले करके गया है प्रभु के चरणों में, वह उसे पा लेता है। जहाँ तक मुझे स्मरण है श्वेताम्बर साहित्य में देशना के बारे में कहा है कि-‘प्रभु की देशना सर्वप्रथम देवों के लिए हुई" परन्तु इसमें कोई तुक-तथ्य नहीं बैठता। जो भोगी होते हैं उनके लिए योग का व्याख्यान उपदेश हो, यह संभव-सा नहीं लगता, क्योंकि रुचि के बिना- 'इन्ट्रेस्ट' के बिना Enter (प्रवेश) संभव नहीं है। उसके बिना भीतरी बात, जो यहाँ चल रही है उतरेगी नहीं। प्रभु की देशना में बाहरी बात भले ही चलती रहे लेकिन वे सभी भीतर के लिए चलती हैं और वे भीतर ही भीतर गूंजती भी रहती हैं।


    उस भव्य ने हित तो चाहा है और वह हित किसमें है ? ऐसा पूछा है। हित मोक्ष में है 'स आह मोक्ष: इति' ऐसा आचार्य परमेष्ठी ने कहा, फिर उसे प्राप्त करने के साधनों के बारे में कहा - बात ऐसी है कि साध्य के बारे में दुनियाँ में कभी विसंवाद नहीं होते, होते हैं तो मात्र साधन को लेकर और उसको लेकर हुए बिना रहते भी नहीं हैं। मंजिल में विसंवाद नहीं होता, मंजिल से पथ की ओर नहीं चलते, बल्कि मंजिल को सामने कर जब चलना चाहते हैं तो पथ का निर्माण होता है। सबसे पहले पथ-विचारों में बनते हैं और विचारों में बने पथों का निवारण कैसे हो ? बाह्य पथों में तो मंजिल की पहुँच से, आसानी से निवारण संभव है लेकिन विचारों में कैसे ? प्रभु कहते हैं कि -उस समय हमारा ज्ञान पंगु ही रहेगा। अनन्तशतियों का पिण्ड जो आत्मा है, उसमें अन्तरायकर्म के क्षय से होने वाला जो बल, वह भी घुटने टेक देगा; इसमें कोई संदेह नहीं। उसका बल इतना होकर भी, कितना होकर? तीन लोक की सर्वाधिक शक्ति होकर भी क्यों एक व्यक्ति को भी झुका नहीं सकती। विचारों की पावर (शक्ति) बहुत हुआ करती है। विचारों की शक्ति एक कील के समान है।

     

    एक भैंसा था। बहुत शक्तिशाली होता है भैंसा। एक छोटी-सी कील के सहारे उसे बाँध दिया जाता है। वह पूरी शक्ति लगाता है, फिर भी वह कील उखड़ती नहीं। क्यों नहीं उखड़ती ? ऐसी क्या बात है। बात ऐसी है, उसके निकालने के लिए पहले हिलाना आवश्यक होता है। बिना हिलाये वह पूरी शक्ति भी लगा दे, तो भी उखड़ नहीं सकती। कुछ ठीक-ठीक मेहनत करने पर उस कील को तो उखाड़ सकता है। परन्तु तीन लोक के नाथ, जो अनन्तशति से सम्पन्न हैं, वे भी एक वस्तु का दूसरी वस्तु के ऊपर पड़ते प्रभाव को, भीतरी वस्तु के परिणमन में बाल-मात्र भी अन्तर नहीं करा सकते। वे निरावरण अपने लिए हुए हैं, दूसरों (हम लोगों) के लिए नहीं। मोक्ष एक मंजिल है। वहाँ तक पहुँचने के लिए मार्ग की नितान्त आवश्यकता है। क्या है वह मार्ग। तीन बातें हैं-दर्शन, ज्ञान और चारित्र जो कि 'सम्यक्र' उपाधि से युक्त हैं।


    ‘‘सम्यकदर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्गः''।

    (तत्त्वार्थसूत्र – १/१, २) 

    सम्यकदर्शन का अर्थ क्या है ? 'तत्वार्थश्रद्धानं सम्यकदर्शन' कहा है। आप सोचते होंगे कि हम काँच ले लें, चश्मा लगा लें, उपनयन खरीद लें ताकि तत्वों को देख सकें और उनके ऊपर श्रद्धान कर सकें। लेकिन नहीं, तत्व क्या है? इसकी चर्चा तो बहुत हो सकती है परन्तु समझ में आ जाए, समझ में बैठ जाए, यह समझ से परे है। यहाँ पर तत्व और अर्थ के ऊपर श्रद्धान करने की बात कही गयी है न कि देखने की। ध्यान रखिये, तत्व कभी दिख नहीं सकता। जो दिखता है वह तत्व नहीं। जो दिखाने की कोशिश कर रहे हैं, वे भी दिखा नहीं सकते।


    कोविदिदच्छो साहू संपडिकाले भणिज्ज रूवमिण।

    पच्चक्खमेव दिटुं परोक्खणाणे पवडुंतं॥

    (समयसार-१९९)

    ऐसा कौन-सा विद्वान् है, कौन-सा साधु-सजन है, जो यह कहे कि आज भी मैं वस्तु तत्व को यूँ हाथ पर, हथेली के ऊपर रखकर देख रहा हूँ। अपनी आँखों से ? अर्थात् कोई नहीं। यदि कोई कहता भी है तो वह कहने वाला विद्वान् नहीं हो सकता। चाहे गणधरपरमेष्ठी प्रवचन दें या स्वयं वीरप्रभु। या कोई और भी क्यों न हो, उनके प्रवचन में जो तत्व आयेगा वह परोक्ष ही होगा। कोशिश करके अनन्तशक्ति लगा करके भी किसी प्रकार से, किसी की आँखों से वस्तुतत्व को दिखा दे ताकि उसका भला हो जाए-यह संभव नहीं। देखने का नाम सम्यकदर्शन कतई है ही नहीं। किसी भी अनुयोग में देख लीजिए, देखने का नाम सम्यकदर्शन नहीं। लेकिन पश्यति-जानाति, इस प्रकार कहा तो है। हाँ कहा है, टीकाकार ने इसे खोला भी है कि देखने का नाम सम्यकदर्शन न लेकर यहाँ पर देखने का अर्थ श्रद्धान लेना चाहिए। प्रात:काल एक बात चली थी कि सम्यकदर्शन का अर्थ अपनी आत्मा में लीन होना है तथा अभी कहा-तत्वों के ऊपर श्रद्धान करना सम्यकदर्शन है बात उलझन जैसी लगती है।‘समयसार" में भूतार्थ का नाम सम्यकदर्शन है और तत्वार्थसूत्र में-तत्वार्थश्रद्धान का नाम सम्यकदर्शन। जो तत्वों के ऊपर श्रद्धान करता है वह चूँकि अभूतार्थ माना जाता है। लेकिन इन दोनों में कोई विपरीतता नहीं है मात्र सोचने-समझने की बात जरूर है।


    श्रद्धान जो होता है, वह परोक्ष पदार्थ का होता है। सामने आने के उपरान्त हमें उन चीजों पर श्रद्धान करने की कोई आवश्यकता नहीं होती। उसमें लीन होने के बाद का नाम तो संवेदन है, जो कि अध्यात्म ग्रन्थों में बार-बार सम्यकदर्शन के लिए कहा जाता है। आगम ग्रन्थों में भी सम्यकदर्शन की बात कही है पर उसमें विभाजन कर दिया गया है। वह विभाजन यह है कि सम्यकदर्शन श्रद्धान का ही नाम है लेकिन केवल श्रद्धान के द्वारा तीन काल में भी मुक्ति नहीं होगी। ज्ञान का नाम सम्यग्ज्ञान है लेकिन उससे भी मुक्ति नहीं होगी। इसी प्रकार चारित्र के द्वारा भी मुक्ति नहीं होगी। फिर मुक्ति किससे होगी ? मुक्ति होगी, जब भूतार्थता का अनुभव करेंगे तब। अर्थ यह हुआ कि सम्यकदर्शन, ज्ञान और चरित्र ये तीनों एक उपयोग की धाराएँ हैं। जिस उपयोग की धारा के द्वारा तत्वों पर श्रद्धान किया जाता है, उसे सम्यकदर्शन कहते हैं। जब वही उपयोग की धारा चिन्तन में लग जाती है, तब सम्यग्ज्ञान कहलाती है। जब कषायों का विमोचन, राग-द्वेष का परिहार करने लग जाती है तो उपयोग की धारा को सम्यक्रचारित्र संज्ञा मिल जाती है।


    ‘"तत्र सम्यकदर्शन तू जीवादिश्रद्धानस्वभावेन ज्ञानस्य भवनम्। जीवादिज्ञानस्वभावेन ज्ञानस्य भवनं ज्ञानम्। रागादिपरिहरणस्वभावेन ज्ञानस्य भवनं चारित्रम्। तदेव सम्यकदर्शनज्ञानचारित्राण्येकमेव ज्ञानस्य भवनम्। ततो ज्ञानमेव परमार्थमोक्षहेतुः ।।"

    समयसार आत्मख्याति टीका-१५५

    अमृतचन्द्राचार्य की आत्मख्याति की ये पंक्तियाँ हैं। बहुत कठिन लिखते हैं वे, लेकिन भाव तो समझ में आ ही जाता है-ज्ञान का श्रद्धान के रूप में परिणत होना सम्यकदर्शन, ज्ञान का चिन्तन के रूप में परिणत होना सम्यग्ज्ञान और ज्ञान का रागद्वेष परिहार करने में उद्यत होना सम्यक्रचारित्र है। इन तीनों की एकता से ही मुक्ति संभव है, अन्यथा कभी नहीं।


    सम्यकदर्शन, ज्ञान, चरित्र-ये तीन नहीं हैं किन्तु उपयोग की धारा में जब तक भेद प्रणाली चलती है, तब तक के लिए भिन्न-भिन्न माने जाते हैं। आचार्यों ने अध्यात्म ग्रन्थों में इसे खोला है। इसी का नाम सराग सम्यकदर्शन, भेदसम्यकदर्शन, व्यवहार सम्यकदर्शन और शुभोपयोगात्मक परिणति आदि-आदि कहा है। इसी का नाम श्रद्धान भी है। जब तक आत्मा अपने गुणों को प्रत्यक्ष नहीं देख लेता, तब तक उसे समझाना पड़ता है, उपदेश दिया गया है, कि तुम सर्वप्रथम इसको समझो। समझो का अर्थ-श्रद्धान करो, उतारो। एक बार श्रद्धान मजबूत हो गया तब ही श्रद्धेय, पदार्थ की ओर यात्रा/गति होगी अन्यथा तीन काल में भी संभव नहीं? इसे आचार्यों ने वीतराग सम्यकदर्शन का साधक सम्यकदर्शन माना है। उन्होंने कहा है |


    "हेतु नियत को होई"

    जैसे प्रात:काल भी छहढाला की पंक्ति कही गयी थी कि निश्चय सम्यकदर्शन के लिए हेतुभूत यह व्यवहार सम्यकदर्शन होता है। व्यवहार सम्यकदर्शन फालतू नहीं है, किन्तु पालतू है। अभूत नहीं है, वह बाह्य भी नहीं है। अभूतार्थ की व्याख्या जयसेनाचार्यजी ने इतनी बढ़िया लिखी है, अमृतचन्द्राचार्यजी ने भी अपनी आत्मख्याति में अभूतार्थ क्या वस्तु है, इसे लिखा है। उन्होंने कहा है-भेदपरक जो कुछ भी है वह अभूतार्थ है और अभेदपरक ‘भूतार्थ'। इसको निश्चय सम्यकदर्शन भी कहते हैं। इसी के साथ रत्नत्रय की एकता मानी गई है, लीनता मानी गई है, स्थिरता मानी गई है। जिसके द्वारा हमें साक्षात् केवलज्ञान की उपलब्धि अन्तर्मुहूर्त के अन्दर हो जाती है। यह विभाजन हमें आगम अर्थात् श्री धवल, श्री जयधवल, महाबन्ध, गोम्मटसार आदि ग्रन्थों में नहीं मिल सकेगा। यह मात्र अध्यात्म ग्रन्थों में ही मिलता है। इसके द्वारा यात्रा पूर्णता को प्राप्त होती है, अन्यथा जो व्यक्ति अपनी यात्रा इस जीवन में नहीं कर पाता तो उसे मुकाम करने की आवश्यकता पड़ेगी। उसका मुकाम बीच में ही होगा, मंजिल पर नहीं। जो सीधे मंजिल जाना चाहते हैं। उनकी प्रमुखता के साथ यह बात-अभेद रत्नत्रय की कही गई है।


    सरागसम्यकदर्शन परोक्ष-पदार्थ का हुआ करता है और श्रद्धान तब तक ही होता है जब तक पदार्थ परोक्ष है। वीतराग सम्यकदर्शन का विषय आत्मतत्व, शुद्धपदार्थ, शुद्ध अस्तिकाय और शुद्ध समयसार है-ऐसा आचार्यों ने कहा है। इसको और भी बारीकी से खोलने का प्रयास किया है, उन्होंने कहा है कि-जिस प्रकार केवली भगवान अपनी दृष्टि के द्वारा शुद्ध तत्व का अवलोकन करते हैं, वैसा अवलोकन छद्मस्थावस्था में ‘न भूतो न भविष्यति', क्योंकि बात यह है कि चाहे शुद्धोपयोग हो या शुभोपयोग या अशुभोपयोग, कोई भी उपयोग हो, जब तक कर्मों के द्वारा उपयोग प्रभावित होता है तब तक उसमें वस्तुतत्व का यथार्थावलोकन नहीं हो सकता। अत: बारहवें गुणस्थान तक निश्चयसम्यकदर्शन की संज्ञा दी जाती है। इसके बाद शुद्धोपयोग की परिणति, केवलज्ञान के उपरान्त नहीं रहती। इसका मतलब यह हो गया कि-शुद्धोपयोग भी आत्मा का स्वभाव नहीं है। शुभोपयोग और अशुभोपयोग तो है ही नहीं। इसमें उन्होंने हेतु दिया, ध्यान का नाम शुद्धोपयोग है और ध्यान आत्मा का स्वभाव नहीं, अत: शुद्धोपयोग भी आत्मा का स्वभाव नहीं।


    "इन्द्रियज्ञानं यद्यपि व्यवहारेण प्रत्यक्ष भण्यते तथापि निश्चयेन केवलज्ञानापेक्षया परोक्षमेव''

    (प्रवचनसार ५५-७३)

    जब इन्द्रियज्ञान की अपेक्षा, मन की अपेक्षा, श्रुत की अपेक्षा और कोई बाहरी साधनों की अपेक्षा से तत्वों का निरीक्षण करते हैं तब शुद्धोपयोग भी प्रत्यक्ष संज्ञा को प्राप्त हो जाता है। लेकिन शुद्धोपयोग और केवलज्ञान में उतना ही अन्तर है, जितना सर्वज्ञता और छद्मस्थावस्था में। अध्यात्म ग्रन्थों में इस सबका खुलासा किया गया है। जो व्यक्ति इस परम्परा का सही ढंग से अध्ययन करता है उसके लिए कहीं पर भी विसंवाद का कोई सवाल ही नहीं।


    सर्वप्रथम हमें जो सम्यकदर्शन उत्पन्न होगा वह व्यवहार सम्यकदर्शन- सराग-सम्यकदर्शन ही होगा। इसकी उत्पत्ति में दर्शनमोहनीय का और चारित्रमोहनीय की अनन्तानुबन्धी का उपशम-क्षयक्षयोपशम होना अनिवार्य है। इसी का नाम व्यवहार सम्यकदर्शन है। इसके बल पर ही आगे कदम उटेंगे। यदि व्यवहार सम्यकदर्शन नहीं है तो मोक्षमार्ग में आगे कदम उठा सकने का कोई सवाल ही नहीं रह जाता है। महाराज! एक प्रश्न बार-बार आता है कि व्यवहार पहले होता है या निश्चय ? कैसे क्या होता है, कुछ यह भी बता दीजिए? भैय्या! निश्चय, व्यवहार के बिना नहीं होता और व्यवहार जो होता वह निश्चय के लिए होता है। अब निर्णय करना है कि कौन पहले होता है, कौन बाद में। मैं तो आपसे यही कहूँगा कि यदि आपको समझना है तो दो की जगह तीन रखिये, अब क्रम स्पष्ट हो जायेगा। लौकिक दृष्टि में निश्चय और निर्णय का भेद समाप्त कर रखा है, इसलिए यह विवाद है। लेकिन बन्धुओ! निर्णय अलग है और निश्चय अलग। सर्वप्रथम निर्णय होता है, क्योंकि निर्णय के बिना, अवाय के बिना कदम ही आगे नहीं उठा सकते और निश्चय संज्ञा जिसकी दी गई है उसका अर्थ- ‘‘पर्याप्त मात्रा में सब कुछ प्राप्त कर लेना है”। निश्चय का नाम साध्य है। व्यवहार साधन होता है। इस प्रकार जिस साध्य को सिद्ध करना-प्राप्त करना है उसका लक्ष्य बनाना निर्णय है और जिसके माध्यम से, साधन से साध्य सिद्ध होता है वह व्यवहार है तथा साध्य की उपलब्धि होना निश्चय। इस तरह पहले निर्णय होता है फिर व्यवहार और अन्त में निश्चय है। निर्णय के बिना जो मार्ग में आगे चलते हैं वह गुमराह हो जाते हैं और व्यवहार के बिना जो व्यक्ति निश्चय को हाथ लगाना चाहते हैं उनकी क्या स्थिति होती है ? तो आचार्य कहते हैं -


    ज्ञान बिना रट निश्चय-निश्चय निश्चयवादी भी डूबे | 

    क्रियाकलापी भी ये डूबे, डूबे संयम से ऊबे ||

    प्रमत्त बनकर कर्म न करते अकम्प निश्चल शैल रहे |

    आत्मध्यान में लीन किन्तु मुनि, तीन लोक पर तैर रहे ||

    समयसार कलश-१११ का पद्यानुवाद (निजामृतपान से)

    अमृतचन्द्रसूरि ने आत्मख्याति के कलश में एक कारिका लिखी, जिसका यह भावानुवाद किया गया है-निश्चय-निश्चय, कहने मात्र से निश्चय कभी हाथ नहीं लग सकता और मात्र व्यवहार करते-करते भी कभी निश्चय की प्राप्ति नहीं हो सकती। निर्णय करने से भी मतलब सिद्ध होने वाला नहीं। निर्णय भी आगमानुकूल ही होना चाहिए। व्यवहार भी ऐसा हो जो निर्णय के अनुरूप आगे पग बढ़ा रहा हो और निश्चय की भूख खोल रहा हो। अन्यथा तीनों व्यर्थ हैं। अर्थात् वह निर्णय सही नहीं है जो व्यवहार की ओर कदम नहीं बढ़ाता और वह व्यवहार भी सही नहीं माना जाता जो निश्चय तक नहीं पहुँच पाता-मात्र व्यवहाराभास है। 'हेतु नियत को होई"- व्यवहार वास्तविक वही है जो निश्चय को देकर ही रहता है। कारण वही माना जाता है जो कार्य का मुख दिखा ही देता है। ऐसा संभव नहीं कि, प्रभात के ५-६ तो बज जायें और पौ न फटे। प्रात: सूर्योदय से पूर्व ही यह श्रद्धान हो जाता है कि ललामी आ चुकी है, अब प्राची दिशा में नियम से सूर्योदय होगा। यही बात यहाँ कही गई है कि श्रद्धान रखो, किसके ऊपर श्रद्धान रखें ? तो सच्चे देव-गुरु-शास्त्र के ऊपर श्रद्धान रखो, यही व्यवहारसम्यकदर्शन है।


    श्री धवल का वाचन हो रहा था। उस समय यह बात आई थी कि दर्शनमोहनीय क्या काम करता है ? आचार्यों ने लिखा-जो सात तत्वों को विषय बनाने की क्षमता अथवा उनके ऊपर श्रद्धान करने की क्षमता को Fail विफल कर देता है वह दर्शनमोहनीय है। मतलब यह हुआ कि मात्र शुद्धात्मा की बात ही नहीं कही गई श्री धवल में। इसीलिए आचार्य कहते हैं कि-दर्शनमोहनीय की वजह से जीव की दृष्टि Wrong (गलत) हो रही है। दृष्टि अर्थात् श्रद्धान ही गलत है।


    शुद्ध आत्मतत्व विद्यमान है और उसको प्राप्त करने की क्षमता भी। लेकिन क्षमता होते हुए भी आज तक हम प्राप्त नहीं कर सके। इसमें क्या गड़बड़ी हो रही है ? आचार्य कहते हैं कि-हमारा आत्मतत्व-द्रव्य उलट गया है, पलट गया है। हमारे द्रव्य का परिणाम कैसा हो रहा है? परिणमन जो हो रहा है वह पदार्थों-गुणों और द्रव्यों का हो रहा है। पर्याय का कभी भी परिणमन नहीं हुआ करता। पर्याय अपने-आप में परिणाम ही है। उसकी कोई परिणति नहीं होती। कर्ता जो होता है वही परिणमन करता है- परिणमन शील हुआ करता है। फिर द्रव्य शुद्ध कैसे माना जा सकता है,जैसा कि कहा जाता है। जिस द्रव्य से अशुद्ध पर्यायें उत्पन्न हो रही हैं वह द्रव्य अशुद्ध ही है। ऐसा कभी नहीं हो सकता कि द्रव्य का परिणामन तो शुद्ध हो और उसके 'परिणाम'अर्थात्पर्यायें अशुद्ध निकलें।


    मैं गुण को ले करके कुछ बात और कहना चाहूँगा कि शुद्धोपयोग गुण अपने आप में शुद्ध नहीं है, किन्तु शुद्ध होने का कारण होने से शुद्धोपयोग कहा जाता है। शुद्धोपयोग आत्मा का स्वभाव तीन काल में नहीं हो सकता। इसलिए शुद्धोपयोग पैदा करने वाला जो आत्मा है वह शुद्धात्मा नहीं है। अत: स्पष्ट है कि ज्ञानगुण को शुद्ध बनाना होगा। आत्मद्रव्य को शुद्ध बनाना होगा। पर्याय को कोई कभी भी शुद्ध नहीं बना सकता। पर्याय तो पकड़ में भी नहीं आ सकती। ध्यान रखिये, हमें पर्याय को नहीं मांजना। पर्याय को मांजने में लग जायेंगे तो गड़बड़ हो जाएगा। महाराज! फिर द्रव्य को शुद्ध कैसे कहा गया है ? आचार्य कहते हैं कि द्रव्य को शुद्ध इसलिए कहा गया कि उसमें शुद्ध होने की क्षमता है। शुद्ध भी दो प्रकार से अभिव्यक्त होने योग्य है-एक तो अनन्तकाल से एक द्रव्य में कोई अन्य द्रव्य के प्रदेश आकर चिपके नहीं। मिले नहीं। इसका उसमें और उसका इसमें कुछ भी संकर नहीं हुआ, व्यतिकर नहीं हुआ। इस अपेक्षा से द्रव्य को शुद्ध कहा गया है। यह भिन्न द्रव्यों की अपेक्षा से कहा गया है। दूसरी, परिणमन की अपेक्षा से शुद्धि कही जाती है। यानि 'स्वभावात् अन्यथा भवनं विभाव:।' यह अशुद्धि है। ज्ञान गुण का स्वभाव से अतिरिक्त जो परिणमन है वह विभाव है। मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, मन:पर्ययज्ञान, शुभोपयोग, अशुभोपयोग, शुद्धोपयोग आदि जो कोई परिणमन है, केवलज्ञान के पूर्व की जितनी भी अवस्थाएँ हैं, वे सभी अशुद्ध गुण की परिणतियाँ हैं। इस प्रकार की श्रद्धा सम्यग्दृष्टि जीव गुरुदेव के मुख से सुनकर अथवा जिनवाणी माँ के इशारे से बना लेता है, भले ही वह तत्व देखने में नहीं आ रहा हो । इसलिए कहा —


    कोविदिदच्छी साहू संपडिकाले भणिज्ज रूवमिण।

    पच्चक्खमेव दिटुं परोक्खणाणे पवट्टंतं॥

    (समयसार–१९९)

    आत्मतत्व का ऐसा ही स्वरूप है। इसलिए इसके ऊपर श्रद्धान नहीं रहने के कारण संसारी प्राणी दर-दर भटकता चला जा रहा है। अपनी शक्ति को एक बार भी उघाड़ने का प्रयास नहीं किया, अनन्तकाल व्यतीत हो गया इस जीव का। अनन्तों बार माँ के उदर में जा-जाकर कम से कम भी नौ-नौ महीनों तक शीर्षासन लगाया। ध्यान रखिये, कोई भी हो, उसे नौ महीने तक माँ के उदर में शीर्षासन लगाना ही पड़ता है -


    जननी उदर वस्यो नव मास अंग सकुचते पाई त्रास |

    निकसत जे दुख पाये घोर, तिनको कहत न आवे ओर ||

    (छहढाला-१/१३)

    कहाँ तक कही जाए उस वेदना की कथा। वेदना होना वहाँ स्वाभाविक है, लेकिन इतनी वेदना-पिटाई होने के बावजूद जीव कभी मिट नहीं सका। पिटना बात अलग है और मिटना अलग। द्रव्य पिट सकता है, मिट नहीं सकता। उसके ऊपर अमिट छाप है। वस्तु, द्रव्य का यह स्वभाव है कि वह कभी मिट नहीं सकता। वह तो 'था', 'है' और 'रहेगा'। ऐसा होने मात्र से उसे सुख नहीं, सुख का अनुभव नहीं हो सका आज तक। इसे जब तक अटूट श्रद्धान नहीं होगा कि जन्म, जरा, मृत्यु जैसे महान् रोग नष्ट कर मैं भी शुद्ध बन सकता हूँ, मेरे गुण, द्रव्य और मेरी जो कुछ भी स्थितियाँ हैं, उन सबको शुद्ध बना सकता हूँ। तब तक ये राग-द्वेष नष्ट होने वाले नहीं। ऐसा श्रद्धान कौन बना सकता है? जिसका दर्शनमोहनीय कर्म का उपशम-क्षय-क्षयोपशम होगा, वही कर सकेगा। इसके बिना श्रद्धान होना तीन काल में भी संभव नहीं, भले ही वह श्रद्धान को शब्दों में कह सकता है लेकिन श्रद्धान जैसी शुभ घड़ी उसे प्राप्त नहीं है।


    धन्य हैं वे जो भगवान् बनने चले हैं। वह व्यक्ति महान् भाग्यशाली है। जिसको इसके ऊपर यथार्थ श्रद्धान हो गया कि मैं भी इसी प्रकार का तत्व हूँ, ऐसा बन सकता हूँ, जो यद्वा-तद्वा जिस किसी भी व्यक्ति की कही बातों का श्रद्धान नहीं करता, सच्चे देव-गुरु-शास्त्र पर श्रद्धान करता है, उसे ही व्यवहार सम्यग्दृष्टि कहते हैं। वह कर्म के क्षय को उद्देश्य बनाकर तत्व श्रद्धान, सम्यग्ज्ञान के साथ-साथ आगे कदम बढ़ायेगा और क्रमश: महावीर तक जाएगा।


    विषय पुन: दुहरा दूँ। वीतराग सम्यकदर्शन अभेदरत्नत्रय की प्राप्ति के साथ ही हुआ करता है। उपयोग की धारा जिस समय शुद्ध में ढल जाती है उस उपयोग को शुद्धोपयोग कहते हैं। शुद्धोपयोग वह वस्तु है, जो सम्यकदर्शन के द्वारा आगे बढ़कर, अपनी आत्मा में लीन हो जाता है। इसी को निश्चय सम्यकदर्शन भी कहते हैं। आचार्यों ने, अमृतचन्द्राचार्य ने और जयसेनाचार्य ने भी खोला है इसे। उन्होंने कहा-'अत्र तु वीतरागसम्यग्दृष्टिनां कथनम्' यहाँ पर वीतराग सम्यग्दृष्टियों का ही कथन है। नीचे वाले की विवक्षा नहीं है। फिर महाराज क्या नीचे वाला असफल माना जाएगा? नहीं, अपने आप में-अपनी कक्षा में तो सफल है, ऊपरी कक्षा में उसकी बात नहीं कही जाएगी, क्योंकि यहाँ पर अभेदरत्नत्रय की बात कही जा रही है। जबकि श्री धवल, श्री जयधवल, महाबन्ध इत्यादि में सम्यकदर्शन को चतुर्थ गुणस्थान से बारहवें गुणस्थान तक घटाते चले जाते हैं, परन्तु आचार्य कुन्दकुन्ददेव कहते हैं कि हम यहाँ पर जो बात कह रहे हैं, वह श्रद्धान वाली बात नहीं है, किन्तु ध्यान वाली बात है। ध्यान से सुनिये आप।


    ध्यान की बात करना अलग है और ध्यान से बात करना अलग। इन दोनों में बहुत अन्तर है। ध्यान के केन्द्र खोलने मात्र से कोई ध्यान में केन्द्रित नहीं होता। आज हम मात्र उपदेश देने में-ध्यान के केन्द्र खोलते जा रहे हैं, इससे अध्यात्म का प्रचार-प्रसार नहीं होगा किन्तु प्रचाल होगा। चार और चाल में क्या अन्तर है ? बहुत अन्तर है। चार का अर्थ स्वयं में चलने में आता है चरति एवं चार और प्रचार में वह बाहर की ओर भाग रहा है। इतना अन्तर है दोनों में।


    वीतराग-सम्यकदर्शन अभेदपरक होता है और सराग-सम्यकदर्शन भेदपरक। मोक्षमार्ग में दोनों आवश्यक हैं। एक उदाहरण दे देता हूँ-बहुत दिन पहले, गृहस्थावस्था की बात है। कार में बैठकर जा रहे थे। गाड़ी तेज रफ्तार से चल रही थी। उस समय ड्राइवर को सामने से एक गाड़ी आती हुई देखने में आ गई—कानों में ‘हार्न' की आवाज भी आ गई। ड्राइवर ने ऊपर वाली लाइट जला दी, जिसका प्रकाश सामने आती गाड़ी पर पड़ा, गाड़ी देख लेने पर लाइट पुन: नीची कर दी। निश्चय और व्यवहार, यहाँ दोनों घटित हो जाते हैं। निश्चय अपने लिए है और व्यवहार पर के लिए ऐसा नहीं, किन्तु व्यवहार भी पर के साथ-साथ स्व के लिए होता है। जैसे कि गाड़ी की लाइट चूँकि दूसरी गाड़ी देखने के काम आती है। इसका अर्थ-वह लाइट मात्र दूसरों के लिए ही है, ऐसा नहीं है, किन्तु हम स्वयं 'एक्सीडेन्ट' से बचें इसलिए भी उसका प्रयोग होता है। नीचे की लाइट यदि गुम कर दी जाए तो आगे चलना ही मुश्किल हो जाएगा। इसके साथ-साथ एक और स्थिति है कि बीच में एक गाड़ी जा रही थी उसने ज्यों ही अपना ब्रेक लगाया त्यों ही गाड़ी के पीछे जो 'नम्बरप्लेट" थी उस पर लगी लाइट जल गयी। वह कैसी होती है भैय्या ! लाल होती है। लाल नहीं होती। लाइट तो जैसी होती है वैसी ही है। लेकिन उसका काँच लाल होता है। वह सही-सही व्यवहार चलाने के लिए लगाया जाता है जिसके माध्यम से मार्ग बाधक-तत्वों से रहित होता है और गाड़ी की यात्रा आगे निर्बाध होती है।


    व्यवहार और निश्चय, दोनों को समझने की आवश्यकता है। व्यवहार कोई खेल नहीं है। व्यवहार, निश्चय के लिए है। जब तक निश्चय नहीं है तब तक व्यवहार का पालन-पोषण करना आवश्यक है, क्योंकि व्यवहार के द्वारा ही हम निश्चय की ओर ढलेंगे-बढ़ेंगे। निश्चय की भूमिका बहुत लम्बी-चौड़ी नहीं है, किन्तु केवलज्ञान होने के उपरान्त निश्चय की-शुद्धोपयोग की वही स्थिति होती है जो शुद्धोपयोग होने के पूर्व शुभोपयोग और अशुभोपयोग की होती है। कार्य हो जाने पर कारण की कोई कीमत नहीं रह जाती, लेकिन कार्य से पूर्व कारण की उतनी ही कीमत है जितनी कार्य की। सराग दशा में, व्यवहार दशा में हमें किस रूप में चलना है। इसको जानने की बडी आवश्यकता है। व्यवहार को व्यवहार के रूप में बनाए रखिए। व्यवहार को व्यवहाराभास मत बनाइए। व्यवहार जब व्यवहाराभास बन जाता है तो न वह निश्चय को पैदा करता है और न लौकिक व्यवहार को, उसका कोई भी फल नहीं होता। आभास मात्र रह जाता है। आभास में सुख नहीं, शान्ति नहीं मात्र वह आभास है इसीलिए-'प्रमत्त बनकर कर्म न करते अकम्प निश्चल शैल रहे' आत्मा में अकम्प रहने का मतलब है आत्मा का अप्रमत्त होना। 'प्रमत्त बनकर कर्म करते"यह अवस्था बावलेपन की अवस्था है जो भीतरी दृष्टि को Fail (असफल) कर देती है। उसके द्वारा केवलज्ञान तीनकाल में नहीं हो सकता। प्रमत्त बनने का अर्थ मिथ्यादृष्टि होना नहीं है, बल्कि सराग अवस्था में जाना। यह काम इस कक्षा का नहीं। यहाँ अप्रमत्त अवस्था का, अभेद अवस्था का प्रसंग है। अमृतचन्द्राचार्य ने प्रवचनसार की टीका में कहा है कि-मात्र सम्यकदर्शन के द्वारा मुक्ति नहीं और उसके बिना भी मुक्ति नहीं। चारित्र के द्वारा भी मुक्ति नहीं और उसके बिना भी मुक्ति नहीं। अन्त में उन्होंने कहा-रत्नत्रय के द्वारा भी मुक्ति नहीं होगी, नहीं होगी, नहीं होगी। तब आप कहेंगे-हमें रत्नत्रय का अभाव कर लेना चाहिए। आपके पास जब रत्नत्रय है ही नहीं तो अभाव क्या करेंगे ? वस्तुत: मोक्षमार्ग ध्यान के अलावा और कुछ भी नहीं है। वह भी उपयोग की एकाग्रदशा का नाम है।


    हलुआ में न हम शक्कर पाते हैं, ना घी और ना आटा, किन्तु शक्कर, घी और आटा के बिना हलुवा कुछ नहीं है। हाँ! तीनों को तीन कोनों में रख दीजिए तब हलुआ नहीं बनेगा, मिला दे तो भी नहीं बनेगा, फिर कब बनेगा? जब तक अग्नि का योग नहीं दिया जाएगा-तीनों मिलकर एकमेक नहीं होंगे तब तक हलुआ नहीं बन सकेगा। इसी प्रकार उपयोग में, जो बाहरी-वृत्ति को देखकर उथल-पुथल मच रही है, उसे भीतर कर लेने को ही अभेद कहते हैं। समयसार में एक गाथा आती है, जिसमें एक नामावली दी गई है


    बुद्धी ववसाओवि य अज्झवसाणं मदी य विणणाणं ।

    एकट्टमेव सव्वं चित्तं भावो य परिणामो॥

    (समयसार-२९०)

    विज्ञान कहो, परिणाम कहो, अध्यवसान कहो, ये नामावली एक ही बात की गठरी में बँध जाती है। मतलब इन सबसे ज्ञान का चिन्तन-उपयोग को भिन्न रखना है। सराग सम्यकदर्शन के साथ चिन्तन का जन्म होता, किन्तु वीतराग सम्यकदर्शन में चिन्तन मौन-शून्य हो जाता है। सराग सम्यकदर्शन में ज्ञान को सम्यक् माना जाता है, जबकि वीतराग सम्यकदर्शन में ज्ञान को स्थिर माना जाता है।


    ज्ञान कम्पायमान है, उसकी व्यग्रता को मिटाने के लिए ध्यान है। ध्यान ही मुक्ति है। हाँ! पहले श्रद्धान होता है, ध्यान नहीं। वह श्रद्धान भी, जब तक वस्तु परोक्षभूत है तब तक ही अनिवार्य है, बाद में श्रद्धान नहीं। वीतराग सम्यकदर्शन को श्री धवल, श्री जयधवल आदि में ग्यारहवें-बारहवें गुणस्थान में घटाते हैं, जिसको छद्मस्थ वीतराग संज्ञा देते हैं। आचार्य कुन्दकुन्ददेव भी कहते हैं कि वीतराग बनने के उपरान्त करना-धरना सब कुछ टूट जाता है। वस्तुत: यह एक सम्यक्र प्रणाली है। इसके ऊपर प्रगाढ़ श्रद्धान करना ही जिनवाणी की सेवा है। श्रद्धान करना मात्र सेवा नहीं है, किन्तु उसके अनुसार अपने जीवन में उन सिद्धान्तों को ढालते चले जाना ही सच्ची सेवा है। तब कहीं जिनवाणी का आशय-अभिप्राय क्या है ? इसे ज्ञात कर सकेंगे। लेकिन हम तो ऐसा निर्णय ले लेते हैं कि सर्वप्रथम तो सारा का सारा सुना जाए, बाद में हम करना प्रारम्भ करेंगे, जो होना असंभव है। आचार्य एक-एक कदम आगे बढ़ने पर एक-एक सूत्र देते चले जाते हैं। यदि वह कदम उठाता है तो उसे आगे का सूत्र बताया जाता है। यदि नहीं उठाता तो, ज्यों का त्यों रहने देते हैं। उसे पीछे भी नहीं भगाते। कहते हैं-‘‘यहीं पर रह जाओ, कोई बात नहीं। पीछे वाले आएँ तो उनके साथ आ जाना' ऐसा कहकर उसे छोड़ देते हैं। साथ-साथ यह भी कह देते हैं कि तुम आगे बढ़ोगे तो तुम्हें भी नियम से सूत्र मिलेंगे।


    भगवान का, आचार्यों का हमारे ऊपर बड़ा उपकार है, जिन्होंने ऐसे-ऐसे गूढ़ तत्वों की, सामान्य से सामान्य व्यक्ति समझ सकें, ऐसी प्ररूपणा की। उन्होंने इसे मुड़कर भी नहीं देखा। मुड़कर देखना उनका स्वभाव भी नहीं है। कहाँ तक मुड़कर देख सकेंगे ? अनन्तकेवली हमारे सामने-सामने से निकल गए हैं और हम इसी स्टेशन पर खड़े हैं। जैसे-गाड़ियाँ आती हैं-जाती हैं। आती हैं, चली जाती हैं। बहुत सारे लोग चले जाते हैं। जाते-जाते मुड़कर के देखते तक नहीं। हमें बुलाते नहीं। कदाचित् देख भी लें, आवाज भी दे दें, तब भी आते नहीं है। ऐसी कैसी बात है? कैसी करुणा है इनकी ? भैय्या! उनका स्वभाव ही ऐसा है। क्या करें ! कहाँ गये वे कुन्दकुन्द भगवान, उमास्वामी, समन्तभद्राचार्य, अकलंकस्वामी और सारे के सारे अनन्त तीर्थकर कहाँ गये ? वर्तमान में हम केवल उनका परोक्ष रूप में स्मरण करते हैं। ऐसा समवसरण होता है, ऐसा गर्भकल्याणक, ऐसा जन्मकल्याणक, तपकल्याणक पाँचों कल्याणक होते हैं। उनके तो कल्याणक हो गए-हो जाते हैं। यहाँ पर तो पंचों का कल्याण नहीं होता, दूसरी जनता की बात ही अलग है। क्यों नहीं होता? आचार्य कहते हैं -

    'धम्म भोगणिमित्त'

    (समयसार–२७५)

    धर्म को हम भोग-ऐशो-आराम के लिए, ख्याति-पूजा-लाभ के लिए, नाम बढ़ाई के लिए करते हैं। परन्तु ऐसा नहीं होना चाहिए। हम जो करते हैं, वह हमारे लिए ही है, हमारी उन्नति के लिए है, यह विश्वास पहले दृढ़ बनाना चाहिए, फिर भी यदि होता है तो क्या करें ? अनन्तकाल से इस प्रकार का कार्य ही नहीं किया। इसलिए जो भावुकता में आकर कर लेते हैं, उनको भी समझना, समझाना होगा कि-देखो भैय्या ! इसका परिणाम अच्छा निकलना चाहिए। यह काम तो बहुत अच्छा किया। आपने। जैसे-आप सुन रहे हैं, तब मैं यह थोड़े ही कहूँगा कि आपका सुनना ठीक नहीं। बल्कि मैं तो यहीं कहूँगा कि पंचों का कल्याण इस प्रकार से कभी नहीं हो सकता, जब तक ये शब्द नहीं कहे जायेंगे तब तक कल्याण होने वाला नहीं। आचार्य कहते हैं-ख्याति, पूजा, लाभ के लिए नहीं किन्तु कर्मक्षय के हेतु धर्म होना चाहिए।

     

    आदहिदं कादव्वं, जं सक्कइ तं परहिदं च कादव्वं |
    आदहिद-परहिदादो आदहिदं सुडु काद्व्वं ||  

    (भगवती आराधना-१५४/३६१) 

    आचार्य कुन्दकुन्ददेव की वाणी कितनी मीठी है और कितनी पहुँची हुई है तथा कितनी तीखी भी है। क्या कहती है ? आत्मा का हित पहले स्वयं करें। आप तो सोचते हैं, अपना कल देखा जाएगा, आज तो दूसरों का करा दूँ। दूसरों का तू नहीं कर सकेगा। पहले तू खुद भोजन करने बैठ जा, तुझे देखकर दूसरों को भी रुचि उत्पन्न हो सकती है। भोजन की माँग हो सकती है। लेकिन स्वयं के बिना दूसरों को समझ में नहीं आयेगा। जो कुछ करना है कर लो। उपकार भी करना है तो लोगों से कह दो-तुम भी बैठ जाओ, भाई, तुम भी बैठ जाओ। लेकिन जिस व्यक्ति को भोजन करना ही नहीं, तो उसकी ओर पीठ कर दे और एक बार जल्दी-जल्दी भोजन कर लें। संसार में कोई स्थायी रहने वाला नहीं। 'संसार' शब्द ही कह रहा है कि जल्दी-जल्दी काम कर लें, नहीं तो सूर्य अस्ताचल की ओर जा रहा है, वह कभी भी रुकने वाला नहीं। उसको मैं क्या कहूँ, स्वयं आचार्य कहते हैं कि-भगवान भी उसे रोकना चाहे तो नहीं रोक सकते और भगवान किसी को रोकना नहीं चाहते।


    काल रुकता नहीं और किसी को रोकता भी नहीं। इतना तो अवश्य है कि-चल-चल, मेरे साथ चल। तेरे भीतर ही भीतर परिवर्तन होता चला जाएगा, बस! तू अपने स्वभाव की ओर देख ले। मैंने तो अपने स्वभाव को न छोड़ा है, न कभी छोड़ेंगा। क्यों नहीं छोड़ता? आचार्य कहते हैं कि - कालद्रव्य, धर्मद्रव्य, अधर्मद्रव्य और आकाशद्रव्य, शुद्धद्रव्य-शुद्धतत्व हैं। इनके लिए शुद्धि की कोई आवश्यकता नहीं होती, किन्तु जीव और पुद्गल, ये दो तत्व ऐसे हैं, जो शुद्ध भी हो जाते हैं और अशुद्ध भी। पुद्गल द्रव्य ऐसा ही है कि वह शुद्ध होने के उपरान्त भी कालान्तर में अशुद्ध हो सकता है, परन्तु जीव तत्व ऐसा नहीं है, वह एक बार शुद्ध हुआ कि पुन: कभी भी अशुद्ध नहीं होता। उसके शुद्ध करने के लिए क्या करें, वह तो आज तक शुद्ध नहीं हो पा रहा है ? उसे शुद्ध करने के लिए सारे के सारे साबुन बेकार हैं, फिर उसके लिए कौन-सा रसायन है, जिसके द्वारा उसकी अशुद्धि मिट सकती है ? आचार्य कहते हैं कि एकमात्र ही रसायन है उसके लिए, वह भी यह -


    रतो बंधदि कम्मं मुंचदि जीवो विरागसंपणणो।

    एसो जिणोवदेसो तम्हा  कम्मेसु मा रज्ज॥

    (समयसार–१५०)

    चार-चरणों में, चार बातें कही गयी हैं-बन्ध की व्यवस्था-राग करोगे तो बन्ध होगा, मुक्ति की व्यवस्था-वीतरागता को अपनाओगे तो मुक्ति मिलेगी, उपदेश-यह जिनेन्द्र भगवान का उपदेश है। इसलिए ‘जो कुछ होना है सो होगा। ”ऐसा नहीं कह रहे कुन्दकुन्द भगवान। क्या कहते हैं-‘तम्हा कम्मेसुमा रज' यह राग की बात छोड़ दे।”


    "यह राग आग दहे सदा ताते समामृत सेईए"

    छहढाला - ६/१५

    अरे! ममता, मोह, मत्सर की इस देह को धारण करते-करते, अनन्तकाल व्यतीत हो गया। एक बार भी आँख मीचकर अपने आपको देख ले कि ‘मैं कौन हूँ', ‘यहाँ पर क्यों आया हूँ', 'कब तक चलना है”, इसके बीच में कोई रास्ता है कि नहीं ?


    आज अफसोस की बात तो यह है कि, इस संसारी प्राणी को ज्ञान मिलने के उपरान्त भी, 'धम्मं भोगणिमितं' है। सोचता है, बहुत सोचता है, 'सद्वहदि'-श्रद्धान करता है, 'पत्तेदिय' प्रतीति, ‘रोचेदि' रुचि करता है, 'फासेदि' स्पर्श भी करता है। तत्व का ऐसा स्पर्श करता है। जैसे-दो मेगनेट मिल गए हों, फिर भी भीतर का भोग परिणाम समाप्त नहीं हो पा रहा है। कल या परसों के दिन हम सब देखेंगे कि-भोगों को किस प्रकार से उड़ा देते हैं-लात मार देते हैं भगवान, इस सबकी आयोजना आप सुनेंगे, देखेंगे भी। गद्गद् हो जाएगा हृदय। आज हमारे पास एक कोड़ी बराबर भी भोग नहीं है, फिर भी उसको छोड़ने की हिम्मत नहीं होती। लेकिन तीन लोक की सम्पदा, उसको भी लात मारते हैं। यह कमाल की बात है, भीतरी बात है। भीतर से ही यह काम होता है, उसके बिना सम्भव नहीं है।


    सही दृष्टि यही है, जिसको यह श्रद्धान हो गया है-तीन लोक की सम्पदा मेरे काम आने वाली नहीं, यह सम्पदा वस्तुत: सम्पदा ही नहीं। सम्पदा किसको कहते हैं ? आचार्य समन्तभद्र स्वामी ने स्वयंभूस्तोत्र में अरनाथ भगवान की स्तुति करते हुए कहा है -


    मोहरूपो रिपुः पापः कषायभटसाधनः ।

    दृष्टिसम्पदुपेक्षास्त्रैस्त्वया धीर! पराजितः॥

    (स्वयंभू स्तोत्र-१८/५)

    हे भगवन्! सम्पदा वही होती है, जो वीतराग-विज्ञान रत्नत्रय है। इसके माध्यम से उसी को प्राप्त कर सकते हैं, जो अनन्तकाल तक अक्षय-अनन्त मानी जाती है। वही मेरे लिए प्राप्तव्य हैप्रयोजनीय है, इस प्रयोजन को बना करके जो व्यक्ति सात तत्वों के ऊपर श्रद्धान करता है, नौ पदार्थों, छह द्रव्यों के ऊपर श्रद्धान करता है, उसका श्रद्धान ही वीतराग-विज्ञान के लिए कारण बन जाएगा और अन्यथा प्रयोजन के साथ वही ख्याति-पूजा-लाभ या सांसारिक वैभव के लिए भी कारण बन जाएगा, जिनवाणी तो आपने पढ़ी, लेकिन भोगों के लिए पढ़ी तो प्रयोजन सही-सही नहीं माना जाएगा।


    वर्णीजी की 'मेरी जीवन गाथा' में एक घटना है। उसमें उन्होंने लिखा है-देखो बन्धुओ! ध्यान रखिये, 'कभी भी जिनवाणी माता के माध्यम से अपना व्यवसाय नहीं चलाना' क्योंकि, जिसके द्वारा रत्नत्रय का लाभ होता है उसको तुम क्षणिक व्यवसाय का हेतु बना रहे हो। चार पुरुषार्थ हैं- अर्थ, काम, धर्म और मोक्ष पुरुषार्थ। तो अर्थ पुरुषार्थ करो और वित्त का अर्जन करो। जिनवाणी के माध्यम से तो रत्नत्रय की सेवा करो, रत्नत्रय की प्राप्त करने का व्यवसाय करो, इसी का नाम सम्यकज्ञान है। बड़ी अच्छी बात कह दी। छोटी जैसी लगती है, लेकिन है बहुत बड़ी। ठीक है! जिनवाणी का क्या गौरव होना चाहिए? उसे कैसे रखें, कैसे उठायें ? इसका ख्याल होना चाहिए। जैसे-आप लोग जब धुले हुए-साफ सुथरे अच्छे-अच्छे कपड़े पहनकर आ जाते हैं तो कैसे बैठते हैं ? मालूम है आपको! आपके बैठने में आदाननिक्षेपण समिति आ जाती है। भीतर जेब में रखी रूमाल, एक प्रकार से पिच्छिका का काम करने लग जाती है। उस समय हम सोचते हैं कि भैय्या! यह कौन-से मुनि महाराज आ गए। कैसी आदान-निक्षेपण समिति चल रही है, यदि रूमाल नहीं है आपके पास तो फ्रैंक ही मारते हैं और ऐसे बैठ जाते हैं, जैसे बिल्कुल ठीक-ठीक आसन लगाकर प्राणायाम होने वाला है। ऐसे कैसे बैठ गये ? कौन-सा आसन है वह! आसन-वासन कुछ नहीं है वह, किन्तु वसन (वस्त्र) गन्दा न हो इसलिए ऐसा बैठते हैं आप लोग। इस प्रकार की प्रवृत्ति करते समय जरा सोचो तो बन्धुओ! इससे किसकी रक्षा हो रही है? वस्त्र की या जीवों की, जब वस्त्रों की रक्षा आप इतने अच्छे ढंग से करते हैं तब जिनवाणी की रक्षा किस प्रकार करना चाहिए। आचार्यों ने कहा है-उसको नीचे मत रखो। जहाँ कहीं उसे ऊँचे आसन पर रखो, उसके प्रति आदर से खड़े होओ।


    जब कभी मुझे समय मिलेगा, तब सम्यग्ज्ञान के बारे में कहूँगा। जिस प्रकार सम्यकदर्शन के आठ अंग हैं, उसी प्रकार से सम्यग्ज्ञान के भी आठ अंग हैं, इन आठ अंगों को देखकर ऐसा लगता है कि हमारा ज्ञान अभी बहुत कुछ संकुचित दायरे में है। हम वस्तुत: इन अंगों का पालन नहीं कर पा रहे हैं, फिर भी सम्यग्ज्ञान होने का दम्भ रखते हैं। ऐसा सम्भव नहीं है कि 'अंग के बिना अंगी की रक्षा हो जाए।' यदि सम्यग्ज्ञान की रक्षा चाहते हो तो उस जिनवाणी माँ की रक्षा करो। ध्यान रखिये-जब तक इस धरती तल पर सच्चे देव-गुरु-शास्त्र रहेंगे, तब तक ही हमारी भीतरी आँखें खुल सकेंगी। भीतरी आँख जितनी पवित्रता के साथ खुलेगी, उतना पवित्र-पथ देखने में आयेगा। ज्यों ही इसमें दूषण आने लग जाएंगे तो पथ की पवित्रता नष्ट/समाप्त हो जाएगी। दृष्टि-दूषण के कारण कौन-कौन हैं ? अज्ञान, राग, लोभ और भय, इन चारों के द्वारा दृष्टि में दूषण आता है/आ सकता है। पवित्र वस्तुओं में दूषण लगने के ये चार मार्ग हैं। यदि हमारा राग जागृत हो जाए या लोभ जागृत हो जाए तो लोभ के कारण हम तत्व को इधर-उधर करने लग जाएंगे, जो हमारे लिए अभिशाप सिद्ध होगा। वह घड़ी वरदान नहीं हो सकती, अभिशाप ही सिद्ध होगी क्योंकि जिनवाणी में परिवर्तन करना महान् दोष का काम है साथ ही महान् मिथ्यात्व का भी। दर्शनमोहनीय का जो बन्ध होता है, उसके लिए तत्वार्थसूत्र में उमास्वामी महाराज ने कहा है


    ‘‘केवलि-श्रुतसंघधर्मदेवा-वर्णवादो दर्शनमोहस्य ।।''

    तत्त्वार्थसूत्र – ६/१३

    जिनवाणी का एक अक्षर भी यहाँ का वहाँ न हो, निह्नव न हो। इस प्रसंग पर मैं पुन: कहूँगा कि सरागसम्यकदर्शन के साथ तत्व का श्रद्धान किया जाता है और वीतराग सम्यकदर्शन के साथ ध्येय वस्तु को प्राप्त करने के लिए उपयोग को एकाग्र किया जाता है। ये दोनों सम्यकदर्शन प्राप्त हो जाते हैं तो केवलज्ञान भी बहुत जल्दी प्राप्त हो जाता है। यही एक मात्र क्रम है। जिसे बृहद्द्रव्यसंग्रह की टीका में स्पष्ट किया गया है।

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    द्रव्यसंग्रह टीका गृहस्थावस्था में जो भरतादि थे उनके सम्यकदर्शन की बात है तो उन्हें क्षायिकसम्यकदर्शन था उसे भी उन्होंने ‘व्यवहार सम्यकदर्शन' यह संज्ञा दी है। वीतराग सम्यकदर्शन के लिए वे कहते हैं कि जिस समय मुनि महाराज अभेद रत्नत्रय में लीन हो जाते हैं तब ही वीतराग सम्यग्दृष्टि हैं। वे मुनि महाराज ही वीतराग ज्ञानी हैं और वे ही वीतराग चारित्री भी हैं। इसीलिए उनको आदर्श बनाकर उनके पदचिह्नों पर चलें तो नियम से एक दिन हमें भी वह घड़ी प्राप्त होगी, जिसकी प्रतीक्षा में हम अनादिकाल से हैं।


    मैं भगवान् से बार-बार प्रार्थना करता हूँ कि आप लोगों की मति भी इसी ओर हो और मेरी मति इससे आगे बढ़ती हुई हो। जल्दी-जल्दी आगे पहुँच गए हैं जो उनको आदर्श बनाकर वहाँ पर जाने के लिए याद रखें। जब तक हमारे सामने आदर्श नहीं रहेगा तब तक हमारे कदम ठीक-ठीक नहीं उठ सकेंगे। इस पंचमकाल में, वह भी हुण्डावसर्पिणीकाल में यदि कोई शरण है तो सच्चे देवगुरु-शास्त्र ही हैं। देव का तो आज अभाव है, लेकिन अभाव होते हुए भी स्थापना-निक्षेप के माध्यम से आज भी हम उन वीतराग भगवान् को सामने ला रहे हैं, जिन भगवान् के बिम्ब-दर्शन मात्र से, भीतर बैठा हुआ अनन्तकालीन मिथ्यात्व छिन्न-छिन्न हो जाता है, सारी की सारी कषाय छिन्न-भिन्न हो जाती है, ऐसी प्रतिमा की स्थापना के लिए ही आप लोगों ने पाँच-छह दिन की यह आयोजना की है, अपने वित्त का सदुपयोग और अपने समय का, जो कुछ भी था, न्यौछावर किया। आप लोग भी इस आयोजना को देखने के लिए आए।


    भावना की थी, आज यही आपके लिए धर्म-प्रभावना का कारण है और ध्यान के लिए भी, लेकिन यह ध्यान रखिये-'धम्मं भोगणिमित' रूप भावना नहीं होना चाहिए, आप लोगों ने बहुत कुछ किया जो फालतू नहीं, बहुत आवश्यक है, लेकिन इतना और कर लेना कि भीतर कभी भी भोगों की वांछा न हो, भीतर कभी भी ख्याति-पूजा-लाभ की वासना न हो, क्योंकि यह भावना जागृत हुई कि सारा का सारा काम समाप्त, अन्दर रहने वाली बारूद में एक बार भी अगर, अगरबत्ती लग गई तो विस्फोट होने से कोई नहीं बचा सकता। वह विस्फोट ऐसा भी हो सकता है, जिसका जीवन में कभी अनुमान न किया हो। इसलिए अन्दर बारूद रहते हुए भी उसे अन्दर ही सुरक्षित रखो और अगरबत्ती लगने से पहले ही उसकी बाती (बत्ती) को ऐसा तोड़ दो ताकि तीनकाल में भी विस्फोट न हो, फिर चाहे उसे जेब में भी रख लें तो कोई डर नहीं।


    अतः सच्चे देव–गुरु–शास्त्र को आदर्श बनाकर चलना चाहिए, क्योंकि कुन्दकुन्द भगवान भी जब उनको आदर्श मानकर चले हैं तो हम किस खेत की मूली हैं। क्या ज्ञान है हमारे पास ? क्या चारित्र है हमारे पास ? निश्चय से तो कुछ भी नहीं है। हम तो उनकी पग-रज होने के लिए जीवित हैं। नहीं तो इस संसार में हमारा कोई अस्तित्व नहीं। यदि वे नहीं होते तो हम अपनी आत्मा की आराधना कैसे करते ? आत्मा की बात भी स्वप्न में नहीं आ सकती थी, हमें इस जिनवाणी की, ऐसे गुरुओं की और सच्चे देव की शरण मिली हैं इसलिए हमारे जेसा बडभागी और कोण हो सकता है, किन्तु बड़भागी कहकर रुकना नहीं चाहिए। रुकना वस्तु का स्वभाव नहीं और न ही पीछे मुड़कर देखना। इसलिए इस बड़भागीपन को याद रखते हुए सच्चे देव-गुरु-शास्त्र की शरण में जाकर रत्नत्रय का लाभ प्राप्त कर भगवान कुन्दकुन्ददेव ने जिनको आदर्श बनाकर जो ज्ञान और चारित्र अंगीकार किया, वह हम कर सकें और सभी संसारी प्राणी उसे अंगीकार करने की चेष्टा करें, ऐसी भावना भाता हूँ।


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    रतन लाल

      

    सच्चे देव–गुरु–शास्त्र को आदर्श बनाकर चलना चाहिए, क्योंकि कुन्दकुन्द भगवान भी जब उनको आदर्श मानकर चले हैं तो हम किस खेत की मूली हैं। क्या ज्ञान है हमारे पास ? क्या चारित्र है हमारे पास ? निश्चय से तो कुछ भी नहीं है। हम तो उनकी पग-रज होने के लिए जीवित है।

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