प्रात:काल जन्मकल्याणक महोत्सव हो चुका है। उसी के विषय में कुछ कहना चाह रहा हूँ। भगवान् का जन्म नहीं हुआ करता, जन्म के ऊपर विजय प्राप्त करने से बनते हैं भगवान्, भगवान् का जन्म नहीं होता किन्तु जो भगवान् बनने वाले हैं उनका जन्म होता है, इसी अपेक्षा से यहाँ पर जन्मकल्याणक मनाया गया, यह जन्म महोत्सव हमारे लिये श्रेयस्कर भी होगा, क्या हम भी अपना जन्म महोत्सव मनायें इस पर भी कुछ कहना चाहूँगा। अन्य विषयों पर भी कुछ कहूँगा। तो सबसे पहले जन्म को समझें। आचार्य समन्तभद्रस्वामीजी ने रत्नकरण्डक श्रावकाचार में एक कारिका के द्वारा अठारह दोष गिनाये हैं -
क्षुत्पिपासाजरातंकजन्मान्तकभयस्मयाः ।
न रागद्वेषमोहाश्च यस्याप्तः स प्रकीत्र्यते॥
(एनकरण्डक श्रावकाचार-६)
इन दोषों से रहित होना ही भगवान का सही-सही स्वरूप है। जिन्हें हम पूज्य मानते हैं, चरणों में माथा झुकाते हैं, आदर्श मानते हैं, उनके सामने घुटने स्वत: ही अवनत हो जाते हैं। यहाँ अठारह दोषों में एक जन्म भी आता है और मरण भी, किन्तु वह मरण महान् पूज्य हो जाता है, जिसमें फिर जन्म नहीं मिलता।
प्रात:काल बात यह कही थी कि प्रत्येक वस्तु का परिणमन करना स्वभाव है, चाहे वह जीव हो या अजीव, कोई भी हो, इतना अवश्य है कि जीव-जीव के रूप में परिणमन करता है और अजीव-अजीव के रूप में, कभी भी अजीव, जीव के रूप में तथा जीव अजीव के रूप में परिणमन नहीं करता, तब भी हमारी दृष्टि में जीव का परिणमन, जीव के रूप में न आकर अजीव के रूप में आता है, जो हमारी ही दृष्टि का दोष है। आचार्यों ने तो आप्त, सच्चे देव की परीक्षा करके, लक्षण बता दिया, इसके माध्यम से क्या होने वाला है ? हमारे साध्य की सिद्धि होने वाली है, वे तो आदर्श रहेंगे और उनके माध्यम से हमारा भाव, हमारे भीतर उद्भूत होगा, स्वरूप की पहचान होगी। क्या कभी आपने दर्पण देखा है ? दर्पण कहो, प्रतिमा कही बात एक ही है, दर्पण देखा है ऐसा कह तो देंगे, परन्तु वस्तुत: दर्पण देखने में आता ही नहीं, ज्यों ही दर्पण हम हाथ में लेते हैं त्यों ही उसमें अपना मुख दिखाई देने लगता है, दर्पण नहीं दिखता और दर्पण के बिना अपना मुख भी नहीं दिखता।
भगवान भी दर्पण के समान हैं, क्योंकि वे अठारह दोषों से रहित हैं, स्वच्छ-निर्मल हैं। उनको देखकर ज्ञान हो जाता है कि हमारे सारे के सारे दोष अभी विद्यमान हैं, इसलिए हमारा स्वरूप यह नहीं है। स्वरूप की पहचान दो प्रकार से होती है एवं सुख की प्राप्ति भी दो प्रकार से होती है। इसी तरह ज्ञान भी दो प्रकार का होता है। एक विधि रूप और दूसरा निषेधरूप। जैसा आपने बेटे से कहा-तुम्हें यहाँ पर नहीं बैठना है तो उसे अपने आप यह ज्ञान हो जाता है कि मुझे यहाँ न बैठकर वहाँ बैठना है। यदि वहाँ के लिए भी निषेध किया जाता है तो वह अन्यत्र प्रवृत्ति करता है। इस प्रकार से निषेध से ही विधि का ज्ञान हो जाता है मात्र कहने का ढंग अलग-अलग है, बात तो एक ही है। इसी तरह मोक्षमार्ग में कहा जाता है कि पकड़िए अपने आपको, तब आप कहते हैं क्या पकड़े महाराज! कुछ भी दिखने में नहीं आता। कोई बात नहीं, यदि पकड़ में नहीं आता तो न पकड़िए, किन्तु जो पकड़ रखा है उसको छोड़िए-यह निषेध रूप कथन है, इससे निषेध करतेकरते अपने आप ज्ञात हो जाता है कि यह हमारा स्वरूप है।
आचार्य कुन्दकुन्ददेव ने एक स्थान पर लिखा है कि-आत्मा का स्वरूप क्या है? आत्मा का स्वभाव क्या है? आत्मा के लक्षण से हम स्वरूप को पहचान सकते हैं, स्वभाव को जान सकते हैं तो मतलब यह हुआ कि लक्षण अलग है और स्वरूप-स्वभाव अलग, दोनों में बहुत अन्तर होता है। वर्तमान में लक्षण का संवेदन हो सकता है, होता है किन्तु स्वरूप का संवेदन नहीं होगा, उपयोग, आत्मा का लक्षण है। इससे ही आत्मा को पकड़ सकते हैं, स्वरूप का श्रद्धान भी इस लक्षण के माध्यम से ही होगा, जिसकी प्राप्ति के लिए श्रद्धान किया जाता है तो उसकी प्राप्ति में साधना की भी आवश्यकता होती है, जैसे कि भगवान बनने के लिए प्रक्रिया कल से प्रारम्भ होने वाली है। साधना के लिए 'समयसार" में आचार्य कुन्दकुन्दस्वामीजी ने लिखा है -
जीव रूपवान नहीं है, जीव गंधवान नहीं है, जीव रसवान नहीं है, जीव स्पर्शवाद नहीं है, जीव उपयोग वाला है, अब सोचिए - यह नहीं, यह नहीं, फिर स्वभाव क्या है आत्मा का? अनिर्दिष्ट संस्थान, संस्थान आत्मा का स्वभाव नहीं है, फिर संस्थान क्यों मिला, क्या कारण है ? जब संस्थानातीत है तो संस्थान क्यों मिला, जो आकार-प्रकार से रहित है, उसमें आकार-प्रकार क्यों ? जो रूप, रस, गन्ध, वर्ण वाला नहीं है, फिर भी उसे रस, रूप, गन्ध के माध्यम से पहचान सकेंगे। जैसे पण्डितजी ने अभी कहा-क्या कहा था अपने आपको ? हुकुमचन्द ही तो कहा था। कहने में भी यही आयेगा अन्यथा अपना परिचय देना कैसे संभव है? तब मैं सोच रहा था कि पण्डितजी अपनी आत्मा के बारे में क्या परिचय देते हैं? आखिर हुकुमचन्द यही तो कहना पड़ा। शब्द के माध्यम से ही अपनी आत्मा का बोध कराया, जो कि शब्दातीत है। अर्थ यह हुआ कि पण्डितजी ने विधिपरक अर्थ कभी भी नहीं बताया, बता भी नहीं सकेंगे, क्योंकि कुन्दकुन्दस्वामी खुद कह रहे हैं 'अरस', अर्थात् रस नहीं है, तो क्या है? भगवान ही जानें! अरस, अरूप, अगन्ध, अस्पर्श, अनिर्दिष्टसंस्थान-कोई आकार-प्रकार नहीं है, अलिंगग्रहण रूप है, किसी बिम्ब के द्वारा, किसी साधन के द्वारा उसे पकड़ा नहीं जा सकता, फिर भी आँखों के द्वारा देखने में आ रहा है, छूने में आ रहा है, संवेदन भी हो रहा है, सब कुछ हो रहा है। हाँ ठीक ही तो है, संवेदन, आत्मा के साथ बना रहने वाला है, चाहे गलत हो या सही। संवेदन, आत्मा का लक्षण है, महसूस करना, अनुभव करना आत्मा का लक्षण है। केवलज्ञान आत्मा का लक्षण नहीं है, वह आत्मा का स्वभाव है, स्वभाव की प्राप्ति उपयोग के ऊपर श्रद्धान करने से ही हुआ करती है, अन्यथा तीन काल में भी कोई रास्ता नहीं है, स्वभाव का श्रद्धान करो, जब ऐसा कहते हैं तो आप कहते हैं कि कुछ दीख ही नहीं रहा है महाराज! लेकिन श्रद्धान तो उसी का किया जाता है जो दिखता नहीं है, तभी सम्यक दर्शन होता है।
लक्षण अन्यत्र नहीं मिलना चाहिए, उसका नाम विलक्षण है। विलक्षण होना चाहिए, भिन्न, पदार्थों से। घुले-मिले हुए बहुत सारे पदार्थों को पृथक् करने की विधि का नाम ही लक्षण है। लक्ष्य तक पहुँचने के लिए लक्षण ही दिखता है, लक्ष्य नहीं। यदि लक्षण भी नहीं दिखता तो हम नियम से भटक रहे हैं ऐसा समझ लीजिए। आत्मा दिखेगा नहीं, आत्मा का स्वरूप भी नहीं दिखेगा। घबराना नहीं, आचार्य कहते हैं-जो दिखेगा वह हमेशा बना रहेगा उसका लक्षण अलग है, चाहे सो रहे हों या खा रहे हों, पी रहे हों या सोच रहे हों, चाहे पागल भी क्यों न बन जायें, पागल भी अपना संवेदन करता रहता है। महाराज! पागल का कैसा संवेदन होता है? होता तो है लेकिन वह संवेदन पागल होकर के ही देखा जा सकता है, किया जा सकता है, कहा नहीं जा सकता, संवेदन कहने की वस्तु नहीं है।
इस प्रकार उपयोग रूप लक्षण को पकड़कर घने अन्धकार में भी कूद सकते हैं, इसमें घबराने की कोई आवश्यकता नहीं, लेकिन जिस समय लक्षण हाथ से छूट जाएगा, उस समय अन्धकार में नियम से भटकन है, हमें इसलिए नहीं घबराना है कि कुछ भी अनुभव नहीं हो रहा,फिर कैसे प्राप्त करें उसे ? किसके ऊपर विश्वास करें ? विश्वास उसके ऊपर करना है जो हमें प्राप्त करना है और वर्तमान में क्या करना है ? वर्तमान जो अवस्था है उसी को देखकर विश्वास को दृढ़ बनाते चले जाना है, आत्मा को वर्तमान में तो मात्र प्रत्यक्षज्ञानी ही देखते हैं और हम 'आगमप्रामाण्यात् अभ्युपगम्य-मानात्' से जानते हैं। दूसरी बात, जितनी भी अर्थपर्याय होती हैं वे सारी की सारी आगम प्रमाण के द्वारा ही जानी जाती हैं। ये स्वभावभूत पर्यायें जो हैं।
लक्षण पर विश्वास करिये, जो त्रैकालिक बना रहता है। स्वभाव त्रैकालिक नहीं होता। आप कहेंगे महाराज! आचार्यों ने तो कहीं-कहीं पर स्वभाव को भी त्रैकालिक होता है ऐसा कहा है।.........हाँ, कहा तो है लेकिन, जिस स्वभाव की बात यहाँ पर कह रहा हूँ, उस स्वभाव को त्रैकालिक नहीं कहा। उन्होंने कहा है -
‘‘ अभूदपुव्वो हवदि।''
(पञ्चास्तिकाय)
ज्ञान को, सामान्य बनाने पर, उपयोग सामान्य बनाने पर, यह स्वभाव त्रैकालिक रहेगा। चाहे निगोद अवस्था हो या सिद्धावस्था या और भी शेष अवस्थाएँ। परन्तु केवलज्ञान रूप जो स्वभाव है, वह ब्रैकालिक नहीं होता, तात्कालिक हुआ करता है। यह बात अलग है कि उत्पन्न होने के उपरान्त, वह अनन्तकाल तक अक्षय रहेगा, तब भी पर्याय की अपेक्षा तो क्षणिक रहेगा। अर्थ पर्याय तो और भी क्षणिक होती है। क्षणिक होना भी तो बता रहा है कि क्षय से उत्पन्न होता हैहो रहा है। हाँ! गुण जो हैं वे त्रैकालिक हैं। द्रव्य भी त्रैकालिक हुआ करता है। गुण की अपेक्षा से लक्षण होता है, पर्याय की अपेक्षा नहीं। केवलज्ञान को आत्मा का लक्षण माना जाए तो 'अव्याप्तिदोष' आ जाएगा। इसलिए वह लक्षण नहीं स्वभाव है। उस स्वभाव की प्राप्ति कैसे होती है ? जब साधना करेंगे तब, साधना कैसी करें महाराज! आचार्य कहते हैं-इसको (आत्मा को) अरस मान ले, अगन्ध मान ले और अरूपी मान ले। जब अगन्ध है तो सूंघने के द्वारा हमें सुख नहीं आयेगा, जब अरस है तो चखने से पकड़ में नहीं आयेगा, अत: चखना छोड़ दे, देखने में तो रूप ग्रहण होगा और आत्मा का स्वभाव अरूप है। अत: देखने का कोई मतलब नहीं, फिर उतार दीजिए चश्मा, आँख भी बंद कर लीजिए जब देखने की कोई आवश्यकता नहीं, इसलिए जो केवल भगवान बनने वाले है, वह नासादृष्टि करेंगे। क्यों करेंगे ? कल ही समझ में आयेगा कि मेरा अस्तित्व होते हुए भी, वह मुझे तब तक नहीं मिलेगा जब तक सब ओर से दृष्टि नहीं हटेगी। आँख बंद करूंगा, कान बंद करूंगा-कानों को बंद करने का अर्थ, अब रेडियो की आवश्यकता नहीं, ना सिलोन, ना विविधभारती और ना ही बी.बी.सी. लंदन। किसी से कोई मतलब नहीं। मतलब यही हुआ कि भीतर, अपने में उतारना है। भीतर की आवाज को सुनो, जो आवाज शब्द नहीं, अशब्द है। अगन्ध है, सूंघने के द्वारा पकड़ में नहीं आयेगी। किससे पकड़े ? जिन-जिन साधनों के माध्यम से यह संसारी प्राणी पकड़ने की चेष्टा कर चुका है, कर रहा है और आगे करने वाला है, उन सभी को मिटाने का प्रयास ही साधन हो सकता है। तू अरूपी है, तो छोड़ दे रूप को और उसके पकड़ने के साधनों को। करण और आलोक प्रमाण की उत्पत्ति में कारण नहीं। जैसा कि परीक्षामुख में कहा है-
'नार्थालोकी कारण'
(परीक्षामुख-१/६)
अर्थ और आलोक के द्वारा ज्ञान की उत्पति नहीं होती। इसी तरह इन्द्रियों के द्वारा भी ज्ञान की प्राप्ति नहीं होती। इनके द्वारा मात्र पुद्गल पदार्थ ही पकड़ में आते हैं और कुछ भी नहीं। मतिज्ञान के द्वारा आप क्या पकड़ेंगे? पञ्चेन्द्रियों के विषय ही तो पकड़ेंगे। इसके अलावा मतिज्ञान का क्षेत्र-विषय, और है ही नहीं। मतिज्ञान के द्वारा पञ्चेन्द्रिय के विषयों का ग्रहण होता है, पञ्चेन्द्रिय के विषय तो आत्मा नहीं, मात्र जड़। फिर अपने आपको जानने के लिए-मैं कौन हूँ, तो आचार्य कहते हैं-वह नहीं, जो आज तक तुम समझते थे। यह नहीं, नेति-नेति, एक ऐसी मान्यता, नीति है। इतना ही नहीं, 'यह नहीं,” के साथ ‘इतना भी नहीं' मानना होगा। फिर कितना ? जितना पूछोगे, उतना नहीं। क्योंकि पूछना बाहरी दृष्टिकोण से हो रहा है और बात चल रही है अन्तरंग की। इसलिए 'यह नहीं' कहते ही समझने वाला अपने आप समझ लेता है कि, यह ठीक नहीं अत: दूसरी प्रक्रिया अपनानी होगी।
आत्मा के लिए दुनिया की किसी भी वस्तु की उपमा नहीं दी जा सकती। आत्मा अनिर्दिष्टसंस्थान रूप और अलिंगग्रहण है और वस्तुएँ इससे विपरीत। ऐसे विचित्र स्वरूप वाली आत्मा को हमें प्राप्त करना है। इसमें बहुत देर तो नहीं लगेगी, मात्र पाँच इन्द्रियों के विषयों को गौण करना आवश्यक होगा। दुनिया को गौण मत करो, दुनियाँ को समाप्त करने का प्रयास मत करो। अपनी दृष्टि को, अपने भावों को, अपने दृष्टिकोण को पलटने का प्रयास करो।
राजस्थान की बात है। एक सज्जन ने कहा-महाराज! आपकी चर्या बहुत अच्छी है, बहुत प्रभावित भी हुआ हूँ आपसे। लेकिन एक बात है, यदि आप नाराज न हों तो। नाराज होने की क्या बात ? आपको जहाँ सन्देह हो, बताओ ? देखिए, बात ऐसी है नाराज नहीं होइये। हाँ-हाँ, कह रहा हूँ, नाराज होना ही क्यों ? नाराज हैं तो महाराज नहीं, महाराज हैं तो नाराज नहीं। तो महाराज ऐसा है, आप एक लंगोटी लगा लो तो अच्छा रहेगा। हमने सोचा-इन्होंने कुछ सोचा तो है। सामाजिक प्राणि हैं, संभव है। इनके लिए विकार नजर में आ रहा हो। मैंने कहा-अच्छा ठीक है। बात ऐसी है कि एक लंगोट तो आप खरीदकर ला देंगे लेकिन फिर दूसरी भी तो चाहिए। एक दिन एक पहनूँगा, एक दिन दूसरी। दूसरी भी आ जाए तो उसके धोने आदि का प्रबन्ध करना होगा तथा फटने पर सीने या नयी लाने की पुन: व्यवस्था करनी होगी। हाँ, जीवन बहुत लम्बा चौड़ा है।, इससे आप जैसे लोग भी बहुत मिलेंगे। अत: सर्वप्रथम आपसे ही मेरा सुझाव है कि आपको जब कभी भी यह रूप देखने में आ जाए तो उस समय आप अपनी ही आँखों पर एक हरी पट्टी लगा लीजिए, उसको लगाना आँखों को लाभदायक भी होगा और रोशनी से शान्ति-छुटकारा भी मिलेगा।
इतना कहते ही उनकी समझ में आ गया कि कमी कहाँ है। वस्तुत: विकार हमारी दृष्टि में है। विकार दुनिया में नहीं है, वस्तु में नहीं है, केवल दृष्टि में विकार को हटाना है, दृष्टि को मोड़ना है, दुनिया पर हर चीज थोपना नहीं चाहिए। ध्यान रखिये! सामने वाले के ऊपर जितना थोपा जाएगा, उतना ही वह अधिक विकसित-अधिक दिमाग वाला होता जाएगा, वह विचार करेगा कि यह क्यों थोपा जा रहा है ? जैसा किसी के पीछे जितनी जासूसी लगाई जाती है वह उतना ही उससे ऊपर निकलने का प्रयास करता है क्योंकि उसके पास माइन्ड है, ज्ञान है, वह काम करता रहता है। रक्षा का प्रावधान करता रहता है, इसलिए सबसे बढ़िया यही है कि बाहर की ओर न देखें।
मार्ग सरल है, स्वाश्रित है-पराश्रित नहीं है, आनन्द वाला है, कष्ट-दायक नहीं है, आँख मींच लो, १०-१५ मिनिट उपरान्त, माथा का दर्द भी ठीक हो जाएगा, क्योंकि इन्द्रियों के माध्यम से जो मिल रहा है, हम उसकी खोज में नहीं हैं, हमारी खोज उस रूप के लिए है जो सबसे अच्छा हो, उस गन्ध के लिए है जो तृप्ति दे, उस शब्द के लिए है जो बहुत ही प्रिय लगे-कर्णप्रिय हो, यह सब इन्द्रियों के माध्यम से "ण भूदो ण भविस्सदि।" पञ्चेन्द्रिय के विषय मिलते रहते हैं और उनमें इष्ट-अनिष्ट कल्पना होती है, यह कल्पना आत्मा में, उपयोग में होती है वह भी मतिज्ञान के द्वारा नहीं श्रुतज्ञान के द्वारा होती है, मतिज्ञान के द्वारा इष्ट-अनष्ट कल्पना, तीन काल में संभव नहीं है। मतिज्ञान एक प्रकार से निर्विकल्प-निराकुल होता है, उसमें वस्तुएँ दर्पणवत् झलकती हैं, झलक जाने के उपरान्त यह किसकी है ? यह विचारधारा बनना श्रुतज्ञान की देन है, मतिज्ञान की नहीं श्रुतज्ञान के माध्यम से ही उसे चाहा जाता है, इससे वस्तु पर श्रुतज्ञान का आयाम होता जाता है या यूँ कहें, यह मेरे लिए बुरा है, यह मेरे लिए अच्छा है, इस प्रकार की तरंगें उठती रहती हैं।
'' मतिज्ञानं यद्गृह्यते तदालम्ब्य वस्त्वनन्तरं ज्ञानं''
(धवला पुस्तक-१/९३)
अर्थात् मतिज्ञान के द्वारा ग्रहण की गई वस्तु का अवलम्बन करके प्रकारान्तर से वस्तु का जानना श्रुतज्ञान है, श्रुतज्ञान बहुत जल्दी काम करता है, क्योंकि वह सुख का इच्छुक है, हमें मतिज्ञान का कन्ट्रोल करके श्रुतज्ञान को कन्ट्रोल करने का प्रयास करना चाहिए, यही मोक्षमार्ग में पुरुषार्थ माना जाता है।
सुख क्या है ? दु:ख का अभाव होना ही सुख है, जिस प्रकार यह कहा गया उसी प्रकार से आत्मा के विषय में भी जानना चाहिए। कारण कि नास्ति और अस्ति दोनों कथन एक साथ संभव नहीं हैं, यह वस्तुस्थिति है। जिस समय वस्तु उल्टी होती है उस समय सुल्टी नहीं हो सकती, जिस समय सुल्टी है उस समय उल्टी नहीं, जिस समय आरोग्य रहता है उस समय रोग नहीं रहता किन्तु जिस समय रोग आ जाता है, उस समय आरोग्य का अनुभव भले ही ना हो, लेकिन आरोग्य का श्रद्धान तो रह सकता है अर्थात् रोग का अनुभव करना मेरा स्वभाव नहीं है अत: इसे मिटा देना होगा, जब तक रोग रहेगा, तब तक स्वभाव का, निरोगता का अनुभव सम्भव नहीं। महाराज! अनुभव रहित स्वभाव को कैसे मानें ? आचार्य कहते हैं-मानो ! आगम के द्वारा कहे तत्व पर श्रद्धान रखो, छद्मस्थावस्था में स्वभाव का अनुभव तीन काल में भी संभव नहीं, केवलज्ञान के द्वारा वह साक्षात् हो सकता है। आचार्य कहते है कि अर्थपर्याय विशिष्ट द्रव्य को धारणा का विषय बनाना अलग है और उसका संवेदन-साक्षात्कार करना अलग बात है, वह केवलज्ञान के द्वारा ही संभव है।
'' केवलज्ञानापेक्षया तु तत् मानसिकप्रत्यक्षं परोक्षमेव किन्तु
इन्द्रियज्ञानापेक्षया तत्कथंचित्प्रत्यक्षमपि''
(समयसार )
आचार्य कहते हैं कि-केवलज्ञान की अपेक्षा से वह मानसिक-प्रत्यक्ष या छद्मस्थज्ञान परोक्ष ही है। मानसिक प्रत्यक्ष को प्रत्यक्ष की संज्ञा इन्द्रिय ज्ञान के अभाव को लेकर दी गई है, वह भी श्रद्धान के अनुरूप चलती है अत: पराश्रित है, स्वभाव को हमें प्राप्त करना है अत: उसी का विश्वास-श्रद्धान आवश्यक है। कैसा है वह ? अभूदपुव्वो हवदि सिद्धो, ऐसा पञ्चास्तिकाय में कुन्दकुन्द स्वामी ने कहा है कि सिद्धत्वरूप जो स्वभाव है वह अभूतपूर्व है, अभूतपूर्व का मतलब क्या है ? अभूतपूर्व का अर्थ बढ़िया-अपश्चिम है, अपूर्व वस्तु है, अर्थात् ऐसी अवस्था कभी हुई नहीं थी। इसी तरह का अर्थ करणों में भी आपेक्षित होता है। जब गुणस्थान के क्रम बढ़ते जाते हैं उस समय विशुद्धि बढ़ती जाती है-भावों में वृद्धि होती है, उन करणों में एक अपूर्वकरण और एक अनिवृत्तिकरण भी है, जिनमें परिणामों की अपूर्वता होती है, तुलना नहीं होती एक दूसरे से। इस प्रकार की व्यवस्था चलती रहती है उस समय।
अर्थ यह हुआ कि स्वभावभूत वस्तुतत्व आज तक उपलब्ध नहीं हुआ हमें, उसका रूप, उसका स्वरूप प्रतिकारात्मक है, यह नहीं है, यह नहीं है-ऐसा प्रतिकार करते आइये, पलटते जाइये और बिल्कुल मौन हो जाइये, जिसको पलट दिया उसके बारे में कुछ भी नहीं सोचिये, आपके पास वस्तुओं की संख्या बहुत कम है, लेकिन दिमाग में-सोचने में, उससे कई गुनी हो सकती हैं, दिमाग की यह कसरत तब अपने आप रुक जाएगी जब यह विश्वास हो जाएगा कि इसमें मेरा 'बल' नहीं है।
कम्मे एोकम्महिी य अहमिदि अहक च कम्मणोकम्म।
जा एसा खलु बुद्धी अप्पडिबुद्धो हवदि तावा॥
(समयसार-२२)
तब तक अप्रतिबुद्ध होता है जब तक कि कर्म में, नोकर्म में, मेरा-तेरा करता रहता है तब तक वह ज्ञानी नहीं, अज्ञानी माना जाता है। यह मैं हूँ, यह मैं हूँ-ऐसा चौबीसों घण्टे इन्द्रियों के व्यापार के माध्यम से सचित-अचित-मिश्र पदार्थों से जो कि भिन्न है, सम्बन्ध जोड़कर चलना और उसके साथ जो पोषक द्रव्य है उनके संयोग से हर्ष और वियोग से विषाद का अनुभव करना, अज्ञानी का काम है। इसी के माध्यम से संसार की यात्रा बहुत लम्बी-चौड़ी होती जाती है। जैसेअमेरिका में आपकी एक शाखा चलती हो, अब यदि अमेरिका पर बंबारडिंग होने लगे तो, आपके हृदय में भी वह शुरु हो जाएगी, तत्सम्बन्धी सुख-दुख होने लगता है, आप से पूछते हैं कि भैय्या ! आपका देश तो भारत है अमेरिका नहीं, वह तो विदेश है। बात तो ठीक है, लेकिन हमारा व्यापार सम्बन्ध तो अमेरिका से भी है। इसी प्रकार हमारा व्यापार भी वहाँ चलता है जहाँ इन्द्रियाँ हैं। उन्हीं से हित-अहित, सुख-दु:ख, हर्ष-विषाद का अनुभव करते हैं।
पण्डितजी ने अभी सात प्रकार की ‘टेबलेट' के विषय में बताया, लेकिन मैं तो यह सोच रहा था कि संसार में सात प्रकार के भय होते हैं और सभी प्राणी उन भयों से घिरे हुए हैं, इसलिए उन्होंने सात प्रकार की गोलियाँ निकाली होगी, परन्तु सम्यक दृष्टि सात प्रकार के भयों से रहित होता है, इसलिए नि:शंक हुआ करता है, जैसा कि समयसार में आचार्य कुन्दकुन्ददेव ने कहा -
सम्मादिट्टि जीवाणिस्संका होंतिणिब्भया। तेण।
सत्तभयविण्पमुक्का जम्हा तम्हा दुणिस्संका॥
(समयसार-२४३)
सातों भयों से मुक्त हो गये तो फिर गोली की कोई आवश्यकता नहीं रहेगी, और न कोई शस्त्रों की, क्योंकि उसके द्वारा न आत्मा मरता है, न मरा है और न मरेगा। महाराज! फिर जन्म किसका हो रहा है आज ? इसी को तो समझना है, पाँच दिन रखे हैं, जिनमें एक दिन जन्म के लिए भी है।
बहुत दिनों की प्रतीक्षा के उपरान्त एक के घर में सन्तान की प्राप्ति हुई, जिस समय जन्म हुआ, उसी समय उधर ज्योतिर्विद् को बुलाकर कह दिया-भैय्या! इसकी कुण्डली बनाकर ले आना और इधर साज-सज्जा के लिए कहा और मिठाई भी बँटने लगी, सब कुछ हो गया। लेकिन दूसरी घड़ी में ही ज्योतिषी कुण्डली बनाकर ले आया, कहता है-संतान की प्राप्ति बहुत प्रतीक्षा के बाद हुई, लेकिन, लेकिन क्यों कह रहे हो? महान् पुण्य के उदय से हुई, फिर लेकिन क्यों ? हाँ-हाँ पुण्य के उदय से हुई थी और लम्बी प्रतीक्षा के बाद हुई, बिल्कुल ठीक है, लेकिन.। लेकिन क्यों लगा रहे हैं?........बात ऐसी है कि पाप और पुण्य दोनों का जोड़ा है, इसलिए हुई थी। भूतकाल है। अब वर्तमान में वह नहीं है, वह मर जाएगी, इतने में ही वहाँ से खबर आ गई कि मृत्यु हो गई। सुनते ही विचार में पड़ गया, बहुत दिनों के उपरान्त एक फल मिला था, वह भी किसी से नहीं देखा गया, उसके ऊपर भी पाला पड़ गया। सुना है कि एक महाराज आए हैं जो बहुत पहुँचे हुए हैं, कहाँ पहुँचे हैं ? पता नहीं, लेकिन उनकी दृष्टि में तो बहुत कुछ हैं, होंगे। वह भागता-भागता गया, उस पुत्र को लेकर कहा-जिस प्रकार इसको दिया, उसी प्रकार दीया (दीपक) के रूप में रखी तो ठीक है, नहीं तो क्या होगा? नहीं-नहीं आप ऐसा नहीं कहिए, आप करुणावान् हैं, दयावान् हैं, मेरे ऊपर कृपादृष्टि रखिये और इसे किसी भी प्रकार बचा दीजिए, क्योंकि आपके माध्यम से बच सकता है-ऐसा सुना है, महाराज बोले मेरी बात मानोगे ? हाँ-हाँ, नियम से मानूँगा, जरूर मानूँगा, उसने सोचा अपने को क्या ? यदि काम करना है तो बात माननी ही पडेगी, महाराज बोले-अच्छा! तो तू कुछ सरसों के दाने ले आ, तेरा बेटा उठ जाएगा, इतना सुनना था कि वह तत्परता से भागने लगा, तभी महाराज ने कहा-इधर आओ, इधर आओ, तुम्हें सरसों के दाने तो लाना है लेकिन साथ में यह भी पूछ लेना कि उसके घर में कभी किसी की मौत तो नहीं हुई ? जिसके यहाँ मौत हुई हो, उसके यहाँ से मत लाना, क्योंकि वह सरसों दवाई का काम नहीं करते।.ठीक है, कहकर वह चला गया, एक जगह जाकर कहता है-भैय्या! मुझे कुछ सरसों के दाने दे दो, जिससे हमारा पुत्र पुन: उठ (जी) जाये, अच्छी बात है, ले लो, ये सरसों के दाने, उसने दे दिए और देते ही वह भागने लगा कि याद आया और पूछा-अरे! यह तो बताओ आपके यहाँ कोई मरा तो नहीं, अभी तो नहीं पर एक साल पहले हमारे काकाजी मरे थे.अच्छा, तब तो ये सरसों नहीं चलेंगे, दूसरे के यहाँ गया, वहाँ पर भी सरसों मांगे और पूछा-सरसों मिल गये और उन्होंने कहा-इन दिनों तो कोई नहीं मरा पर कुछ दिनों पहले हमारे दद्दा (दादा) जी मरे थे, इस प्रकार सुनते ही उसने सरसों लौटा दी, ऐसा करते-करते वह प्रत्येक घर गया, लेकिन एक भी घर ऐसा नहीं मिला जिसमें किसी न किसी का मरण न हुआ हो, जो जन्में थे, वही तो मरे होंगे। इस प्रकार मरण की परम्परा चल रही है, एक और घर में गया और देखा किएक जवान मरा पड़ा है, अभी ही मरा होगा, क्यों उसका शव अभी तक उठाया नहीं गया। उसके घर के लोग, अभी भी हाथ-पैर पटक रहे हैं, रो रहे हैं, चिल्ला रहे हैं। दृश्य देखकर मौन हो गया, भागते-भागते थक चुका था, अत: वहीं खड़े-खड़े कुछ सोचने लगा-किसी का घर ऐसा नहीं मिला जहाँ मरण न हुआ हो, सबके यहाँ कोई न कोई मरण को प्राप्त हुआ है। अर्थात् जिसने भी जन्म लिया है वह अवश्य मरेगा, इससे बचाना किसी के वश की बात नहीं है। उसे औषध मिल गयी, मंत्र मिल गया, सोचा-महाराज वास्तव में पहुँचे हुए हैं।.भागता-भागता उनकी शरण में गया और कहने लगा-महाराज! गलती हो गई ? भैय्या! लाओ सरसों के दाने, मैं अभी उठाये देता हूँ तुम्हारे पुत्र को, .नहीं, महाराज, अब वह नहीं उठ सकता, मुझे बोध हो गया।
यह जीवन की लीला है बन्धुओं! मालूम है आपको ? व्याकरण में एक ज्या धातु आती है। उसका अर्थ वयोहानी, होता है। प्रात:काल कहा था कि मरण की क्या परिभाषा है, मरण क्या है ? आयुक्खयेण मरण और जीवन की परिभाषा क्या, जीवन क्या ? उम्र की समाप्ति होना या उम्र की हानि होती चली जाना जीवन है, मतलब यह हुआ कि मरण और जीवन में कोई अन्तर नहीं है मात्र इसके कि मरण में पूर्णत: अभाव हो जाता है और जीवन में क्रमश: प्रत्येक समय हानि होती चली जाती है, हानि किसकी और क्यों ? वय की हानि, वय का अर्थ उम्र या आयुकर्म अर्थात् आयुकर्म की हानि का नाम जीवन है और उसके पूर्णत: अभाव का-क्षय का नाम मरण।
हमारे जीवन में मृत्यु के अलावा और किसी का कुछ भी संवेदन, अभाव नहीं हो रहा है। भगवतीआराधना में एक गाथा आयी है, वह मूलाचार, समयसार आदि ग्रन्थों में भी आयी है, जिसमें आवीचिमरण का वर्णन किया है, आवीचिमरण का अर्थ यह है कि पल-पल प्रतिपल पलटन चल रहा है, कोई भी व्यक्ति ज्यों का त्यों बना नहीं रह सकता, कोई अमर नहीं। महाराज! देवों को तो अमर कहते हैं ? वहाँ अमर का मतलब है बहुत दिनों के बाद मरना, इसलिए अमर है, हम लोगों के सामने उनका मरण नहीं होता, इसलिए भी अमर है, किन्तु उन लोगों की दृष्टि में हम मरते रहते हैं अत: मत्र्य माने जाते हैं। रोज का मरना करते हैं हम लोग, रोज मर रहे हैं ? हाँ प्रतिपल मरण प्रारम्भ है, इसी का नाम आवीचिमरण है, मरण की ओर देखा तो मरण और जीवन की ओर देखा तो मरण।
अंग्रेजी में एक बहुत अच्छी बात कही जाती है, वह यह है कि-एक दिन का पुराना हो या सौ सालों का, उसे पुराना ही कहते हैं। जैसे-‘हाउ ओल्ड आर यू।” हम ओल्ड का अर्थ पुराना तो लेते हैं परन्तु बहुत साल पुराना लेते हैं, लेकिन नहीं पुरा का अर्थ मतलब एक सेकेण्ड बीतने पर भी पुरा है, अब देखिये पुरा क्या है और अपर क्या है ? एक-एक समय को लेकर चलिये, चलतेचले एक ऐसे बिन्दु पर आ करके टिक जायेंगे आप, यहाँ पर जीवन और मरण, पुरा और अपर एक समय में घटित हो रहे हैं।
मैं पूछता हूँ -सोमवार और रविवार के बीच में कितना अन्तर है, आप कहेंगे-महाराज! एक दिन का अन्तर है। लेकिन मैं कहता हूँ कि सोचकर बताइये? इसमें सोचने की क्या बात महाराज! स्पष्ट है कि एक दिन का अन्तर है, अरे! सोचिये तो सही, मैं कह रहा हूँ इसलिये सोचिये तो, फिर भी कहते हैं आप कि एक दिन का अन्तर है तो कितना अंतर है। महाराज! आप ही बताइये? लीजिये, सोमवार कब प्रारम्भ होता है और रविवार कब? रविवार कब समाप्त होता है और सोमवार कब, इस तथ्य को देखिये, तो पता चल जाएगा, आप घडी को ले करके रविवार के दिन बैठ जाइये, क्रमश: एक मिनिट-एक-एक घण्टा बीत रहा है, अब रात आ गयी, रात में भी एक-एक घण्टा बीत रहा है, घण्टों पर घण्टे निकलते चले गये तब कहीं रात्रि के ११ बजे, अब सवा ग्यारह, साढ़े ग्यारह और अभी बारह बजने को कुछ मिनट-कुछ सेकेण्ड ही शेष तब भी रविवार है। आप देख रहे हैं सुई घूम रही है, मात्र एक मिनिट रह गया फिर भी रविवार है, रविवार अभी नहीं छूट रहा है, अब सेकेण्ड के काँटों की ओर आपकी दृष्टि केन्द्रित है एक सेकेण्ड शेष है तब तक रविवार ही देखते रहे और देखते-देखते सोमवार आ गया, पता भी नहीं चला, देखा आपने कि कितने सेकेण्ड का अन्तर है, रविवार और सोमवार में ? यदि आप उस सेकेण्ड के भी आधुनिक आविष्कारों के माध्यम से १० लाख टुकड़े कर दें तो और स्पष्ट हो जाएगा, लेकिन सिद्धान्त कहता है वर्तमान सेकेण्ड में असंख्यात समय हुआ करते हैं, इन असंख्यात समयों में यदि एक समय भी बाकी रहेगा तो उस समय भी रविवार ही रहेगा, इस अन्तर को अन्दर की घड़ी से देखा जा सकता है अर्थात् एक समय ही रविवार और सोमवार को विभाजित करता है।
इसी तरह जीवन और मरण का अन्तर है, आपकी दृष्टि में थोड़ा भी अन्तर आया कि देवगुरु-शास्त्रों के बारे में भी अन्तर आ गया, सम्यक दर्शन में भी अन्तर आ गया, इसको पकड़ने के लिए हमारे पास कोई घड़ी नहीं है पर आगम ही एक मात्र प्रमाण है।
हे भगवान! मैं कैसा हूँ? मेरे गुणधर्म कैसे हैं ? भगवान् कहते हैं कि मेरे पास कोई शब्द नहीं हैं, जिनके द्वारा स्वरूप बोध करा सकूं, कुछ तो बताइये, आपके आदेश के बिना कैसे दिशा मिलेगी? तो वे कहते हैं कि -‘‘यह दशा तेरी नहीं है' इतना तो मैं कह सकता हूँ परन्तु 'तेरी दशा कैसी है", इसे ना मैं दिखा सकता हूँ और ना ही आपकी आँखों में उसे देखने की योग्यता है। नई आँखें आ नहीं सकती, सबको अपने-अपने चश्में का रंग बदलना होगा, भीतर का अभिप्राय-दृष्टिकोण बदलना होगा, इतना सूक्ष्म तत्व है कि विभाजन करना संभव नहीं, जैसे समय में भेद नहीं, रविवार और सोमवार के बीच में इतनी मेहनत के बाद भी अन्तर विभाजन करना संभव नहीं, पूरे के पूरे आविष्कार समाप्त हो गये, फिर भी कब रविवार समाप्त हुआ और कब सोमवार आ गया, यह बता नहीं सके, संभव है वह सन्धि आपकी घड़ी में स्पष्ट ना हो, लेकिन आचार्य कहते हैं कि-केवलज्ञान के द्वारा हम इसे साफ-साफ देख सकते हैं और श्रुतज्ञान के द्वारा इसे सहज ही प्रमाण मान सकते हैं।
देव-गुरु-शास्त्र के ऊपर श्रद्धान करिये, ऐसा मजबूत श्रद्धान करिये, जिसमें थोड़ी भी कमी न रहे, ऐसा श्रद्धान ही कार्यकारी होगा, सिद्धान्त के अनुरूप श्रद्धान बनाओ, तत्व को उलट-पलट कर श्रद्धान नहीं करना है, हमें अपने भावों को सिद्धान्त/तत्व के अनुसार पलटकर लाना है। जैसे रेडियो में सुई के अनुसार स्टेशन नहीं लगती बल्कि स्टेशन के नम्बर के अनुसार सुई को घुमाने पर ही विविधभारती आदि स्टेशन लगती है, एक बाल मात्र का भी अन्तर हो गया-सुई इधर की उधर हो गयी तो सीलोन लग जाएगी, अब संगीत का मजा नहीं आयेगा, यही स्थिति भीतरी ज्ञानतत्वज्ञान की भी है। कभी-कभी हवा (परिणामों के तीव्र वेग) के द्वारा यहाँ की सुई इधर से उधर की ओर खिसक जाती है तो डबल स्टेशन चालू हो जाते हैं, किसको सुनोगे, किसको कैसे समझोगे? तत्व बहुत सूक्ष्म है, वस्तु का परिणमन बहुत सूक्ष्म है, उसे पकड़ नहीं सकते।
जन्म-जरा-मृत्यु, ये सभी आत्मा की बाहरी दशायें हैं, अनन्तकाल से यह संसारी प्राणी आयुकर्म के पीछे लगा हुआ है, अन्य कर्म तो उलट-पलटकर अभाव को प्राप्त हो जाते हैं, परन्तु आयुकर्म का उदय एक सेकेण्ड के सहस्रांश के लिए भी अभाव को प्राप्त नहीं हुआ, यदि एक बार अभाव को प्राप्त हो जाए तो मुक्त हो जाये, दुबारा होने का फिर सवाल ही नहीं, आयुकर्म प्राण है, जो चौदहवें गुणस्थान तक माना जाता है, वह जब तक रहता है तब तक जीव संसारी माना जाता है, मुक्त नहीं माना जा सकता।
जन्म क्या है, मृत्यु क्या है ? इसको समझने का प्रयास करिये, ये दोनों ही ऊपरी घटनाएँ हैं, जाने-आने की बात नयी नहीं है, बहुत पुरानी है, संसार में कोई भी नया प्रकरण नहीं है, अनेकों बार उलटन-पलटन हो गया। क्षेत्र, स्पर्शन के भंग लगाने पर तीन लोक में सर्वत्र उलटन-पलटन चल रहा है। अनन्तकाल से कस्सम-कस चल रहा है, जिस प्रकार से चूने में पानी डालने से रासायनिक प्रक्रिया होती है। उसी प्रकार जीव और पुद्गल, इन दोनों का नृत्य हो रहा है, इसे आँख बन्द कर देखिए, बहुत अच्छा लगेगा, परन्तु आँख खोलकर देखने से मोह पैदा होगा, राग पैदा होगा। जो व्यक्ति इस शरीर को, पर्याय को लेकर अपनी उत्पत्ति मान लेता है तो उसे आचार्य कुन्दकुन्ददेव सम्बोधित करते हैं कि-तू पर्याय बुद्धिवाला बनता जा रहा है, परिवर्तन-परिणमन तो आत्मा में निरन्तर हो रहा है। क्षेत्र में भी हो रहा है। इस क्षेत्र में लाया गया, वहाँ अपना डेरा जमाया, नोकर्म के माध्यम से इसे जन्म मिला, इसमें मात्र पर्याय का परिवर्तन है, वह भी कर्मकृत पर्याय का परिवर्तन, उपयोग का नहीं, आत्मा का जो लक्षण पहले था अब भी है, आगे भी रहेगा।
जो व्यक्ति इस प्रकार के जन्म से, जन्म-जयन्ती से हर्ष का-उल्लास का अनुभव करता है, उसे जन्म से बहुत प्रेम है, जबकि भगवान ने कहा है कि जन्म से प्रेम नहीं करिये, यह दोष है, महादोष है, इससे मुक्त हुए बिना भगवत् पद की उपलब्धि नहीं होगी, यदि आप जन्म को अच्छा मानते हैं, चाहते हैं तो जन्म जयन्ती मनाइये। यदि ऐसा कहते हैं कि भगवान की क्यों मनाई जाती है? तो ध्यान रखिये-उनकी जन्म जयन्ती इसलिए मनाई जाती है कि वह तीर्थकर होने वाले हैं, असंख्यात जीवों के कल्याण का दायित्व इनके पास है, इसकी साक्षी के लिए - इसे स्पष्ट करने के लिए इन्द्र जो कि सम्यक दृष्टि होता है, आता है और जन्मोत्सव मनाता है। आज पंचमकाल में जो जन्म लेता है वह मिथ्यादर्शन के साथ जन्म लेता है, इससे जन्मोत्सव मनाना यानि मिथ्यादर्शन का समर्थन करना है, पर्यायबुद्धि का समर्थन है, इसलिए ऐसा न करें, सम्यक दृष्टि तो भरत और ऐरावत क्षेत्र में पंचमकाल में आते ही नहीं, वे वहाँ जाते हैं जहाँ से मोक्षमार्ग का-निर्वाण का मार्ग खुला है,पुण्यात्माओं का जन्म यहाँ नहीं होता, यहाँ जन्म लेने वाले मिथ्यादर्शन-मिथ्याज्ञान-मिथ्याचारित्र के साथ ही आते हैं और उनकी जन्म-जयन्ती मनाना मिथ्यादर्शन-मिथ्याज्ञान-मिथ्याचारित्र की ही जयन्ती है इसमें सम्यक दर्शन की कोई बात नहीं, सम्यक दर्शन के लिए कम से कम आठ वर्ष लगते हैं, इससे पूर्व सम्यक दर्शन होने की कोई गुंजाइश भी नहीं होती और उस समय मिथ्याचारित्र ही होता है, जबकि जैनागम में सम्यक्र चारित्र को ही पूज्य कहा गया है, इसके अभाव में तीन काल में भी पूज्यता नहीं आ सकती, ध्यान रखिये बन्धुओ! मिथ्यादृष्टि की जयन्ती मनाना, मिथ्यादर्शन एवं मिथ्याचारित्र का पूज्यत्व स्वीकार करना है, जो कि संसार परिभ्रमण का ही कारण है, यदि हमें संसार से मुत होना है तो कुछ प्रयास करना होगा और वह प्रयास आजकल की जन्म-जयन्तियों के मनाने में सफल नहीं होगा, बल्कि उनकी दीक्षा तिथि अथवा संयमग्रहण दिवस जैसे महान् कार्य के स्मरण से ही हमारी गति, उस ओर होगी जिस ओर हमारा लक्ष्य है।
सभी प्राणी लक्ष्य को पाना चाहते हैं, अत: उन्हें यह ध्यान रखना होगा, यह प्रयास करना होगा कि वे मिथ्यादर्शन, मिथ्याज्ञान एवं मिथ्याचारित्र का पालन एवं समर्थन न कर सम्यक दर्शन, सम्यक ज्ञान एवं सम्यक्र चारित्र की ओर बढ़ें, जो कि आत्मा का धर्म है एवं शाश्वत सुख (मोक्षसुख) को देने वाला है।