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नव आचार्य श्री समय सागर जी को करें भावंजली अर्पित ×
मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज
  • ज्ञान

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    ज्ञान विषय पर संत शिरोमणि आचार्य विद्यासागर जी  के विचार

     

    1. अंधकार दो तरह का होता है एक अंधेरा बाहर और दूसरा अंधेरा आंतरिक होता है। बाहरी अंधेरा तो कृत्रिम संसाधनों से दूर हो जाता है, लेकिन आंतरिक अंधकार को दूर करने के लिए अज्ञानता को दूर करना आवश्यक है।
    2. अभिमान के वशीभूत मनुष्य अज्ञानी बना है, अभिमान पर नियंत्रण ही ज्ञान का मार्ग है।
    3. जो लोग स्वाध्याय तो करते हैं, पर उस ज्ञान का उपयोग संयम, विवेक आचरण के लिए नहीं करते तो ऐसा ज्ञान भी प्रशंसा के योग्य नहीं है।
    4. यदि जीवन में स्पर्धा भी करें तो स्पर्धा संयमित होना चाहिए। ज्ञान का यही सदुपयोग है इससे हम अकारण होने वाले विवादों से बच सकते हैं।
    5. हम शरीर को धोकर पुष्ट बनाना चाहते हैं लेकिन ज्ञान को पुष्ट नहीं बनाना चाहते जबकि ज्ञान आत्मा का गुण है।
    6. ज्ञानी का वही ज्ञान मान जाता है जो विषयों से एवं कषायों से बच जाता है। लेकिन जो विषय कषायों में लगा है वह ज्ञान किसी काम का नहीं।
    7. वह ज्ञान बेकार है जो क्रिया से रहित है।
    8. पापों से यदि मुक्ति नहीं मिलती है तो वह ज्ञान किस काम का है।
    9. आत्मज्ञान नहीं होता, जिस ज्ञान से वो ज्ञान नहीं है।
    10. यदि मन निरोध नहीं होता है तो वो तत्व ज्ञान नहीं है।
    11. अपने ज्ञान की धारा को ख्याति, पूजा, लाभ आदि की ओर मत लगाओ उसका उपयोग अपने आपके उपयोग में लगाओ यह सबसे बड़ा काम है।
    12. ज्ञान थोड़ा सा भी होता तो उसको अभिमान बहुत जल्दी होता है। जैसे कहा जाता है- अध जल गगरी झलकत जाये। भरी विचारी चुपकी जाये |
    13. जो व्यक्ति ज्ञान रखता है, प्रमाद नहीं रखता, आवश्यकों में सतर्क रहता है, अनुकंपा भाव रखता है वह मुक्ति को प्राप्त होते हैं।
    14. जिस ज्ञान के माध्यम से वैरी से वैरी भी क्यों न हो उसे भी मित्र के रूप में स्थापित कर देता है, उसका नाम सम्यक ज्ञान है और जो हमेशा-हमेशा के लिए वैरी बना दे तो उस ज्ञान को हम स्वीकार नहीं कर सकते हैं।
    15. ज्ञेय चिपके, ज्ञान चिपकाता सो, स्मृति हो आई।
    16. ज्ञान को इतना संयत बनाओ, कि उससे कुछ ज्ञेय न चिपके। विस्मृति अपने आपमें महत्वपूर्ण है। दुनिया स्मृति चाहती है, साधक को तो विस्मृति चाहिए। इसी में विश्राम है उपयोग का।
    17. किसी का ज्ञान होना अलग वस्तु है जबकि उसके प्रति सावधानी रखना अलग वस्तु है।
    18. संयत ज्ञान का नाम ही सावधानी है।
    19. ज्ञान भाषात्मक नहीं होता ज्ञान तो भावात्मक होता है। बहुभावाविद् होना सरल है लेकिन बहु भावात्मक ज्ञान होना बहुत कठिन है।
    20. एक-एक पंक्ति में थीसिस करके लिख दिया लेकिन उसका कोई महत्व नहीं। सब थीसिस भी ऐसी सी रह जायेंगी। अनुभव करो, अर्थ ज्ञान की ओर बढ़ो। द्वादशांग अपार होने के बाद भी पार तब मिलता है जब हम उसमें अंदर उतर जायें अन्यथा नहीं। पढ़-पढ़ कर पंडित भया, ज्ञान हुआ अपार। निज वस्तु की खबर नहीं, सब नकटी का श्रृंगार। आचार्य ज्ञानसागरजी महाराज को यह दोहा बहुत अच्छा लगता था। जब वे यह दोहा प्रवचन में कहते थे तो सब हँस जाते थे। मैं तो हिन्दी ज्यादा नहीं जानता था तो नहीं समझने के कारण, भावभासना नहीं होने के कारण चुपचाप रह जाता था। मतलब शब्द ज्ञान का मूल्य तब है जब अर्थ का आभास हो। बड़े-बड़े कॉलेज तैयार हो रहे हैं, सम्यक ज्ञान का किसी को अनुभव नहीं।
    21. तात्विक ज्ञान बढ़ाना चाहिए। तात्विक ज्ञान बढ़ाने से समस्या अपने आप समाधान हो जाती है। तत्वज्ञान अच्छा रखना चाहिए।
    22. ज्ञान सूखा नहीं होना चाहिए, आचरण सहित होना चाहिए।
    23. ज्ञान का फल अज्ञान की हानि व उपेक्षावृत्ति होना चाहिए। हम मात्र अज्ञान की हानि ही ज्ञान का कार्य मानते है जबकि उससे भी बढ़कर है उपेक्षावृत्ति होना, क्योंकि ज्ञान का जो फल है वहाँ तक पहुँचना चाहिए। उपेक्षा के क्षणों को बटोरने का प्रयास करो।
    24. आत्मज्ञान की प्राप्ति के लिए मन में एकाग्रता लाना चाहते हो तो इष्ट-अनिष्ट पदार्थों में रागद्वेष मत करो।
    25. ज्ञान को चारित्र मांजता है। अर्थात् चारित्र के द्वारा ज्ञान शुद्ध होता है।
    26. श्रुतज्ञान गूंगा भी है और बोलता भी है लेकिन शेष ज्ञान सभी गूंगे के समान होते हैं। स्वस्थ ज्ञान ही आत्मा का स्वरूप है।
    27. विश्वासघात पहली चरित्र हीनता है।
    28. ज्ञान जब हृदयंगम होकर चरित्र में उतरता है तभी उपयोगी होता है, अन्यथा नहीं। अध्यात्म तो है ही किन्तु हमें सुख शान्ति प्राप्ति हेतु चरणानुयोग का ज्ञान भी आवश्यक है, क्योंकि उस अध्यात्म की प्राप्ति चरित्र के बिना तीन काल में संभव नहीं।
    29. वर्तमान पर्याय में हमें उस प्रकार जीना है, ताकि भविष्य उज्ज्वल हो। वर्तमान के ज्ञान से उत्तम कार्य करना है।
    30. जिनवाणी के माध्यम से अपना व्यवसाय नहीं चलाना क्योंकि जिसके द्वारा रत्नत्रय का लाभ होता है उसको तुम क्षणिक व्यवसाय हेतु बना रहे हो, यह ठीक नहीं।
    31. चार पुरुषार्थ हैं-धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष। तो अर्थ पुरुषार्थ करो और वित्त का अर्जन करो। जिनवाणी के माध्यम से तो रत्नत्रय की सेवा करो। रत्नत्रय की प्राप्त करने का व्यवसाय करो। इसी का नाम सम्यक ज्ञान है।
    32. उस ज्ञान से क्या लाभ जिससे दूसरों के दुख को जानकर भी यदि करुणा के भाव नहीं आते।
    33. समीचीन ज्ञान वहीं है जो करुणा से सहित हो।
    34. ज्ञान दीपक के समान है जो स्वयं प्रकाशित होता है और दूसरों को प्रकाशित करता है।
    35. जैसे-जैसे ज्ञान को विषयों की ओर ले जाते हैं, वैसे-वैसे ज्ञान फकीर होता चला जाता है, ज्ञान का हास होता चला जाता है। यदि ज्ञान का हास होता है तो आत्मा का हास होने लगता है।
    36. जिसे अपने और पराये का बोध नहीं है उसका वह बोध वास्तव में बोध नहीं बोझ ही है।
    37. पहले करने योग्य कार्य क्या है, बाद का कार्य क्या है, इसका ज्ञान होना भी जरूरी है। स्टेंडर्ड पहले चाहते हैं लेकिन स्टेंडिंग तो हो पहले। खड़े होने की हिम्मत नहीं, हमें स्टेंडर्ड चाहिए। काहे का स्टेंडर्ड हुआ भैया?
    38. ज्ञान का प्रयोजन तो मान की हानि करना है, पर अब तो मान की हानि होने पर मानहानि का कोर्ट में दावा होता है।
    39. श्रुतज्ञान आत्मा का स्वभाव नहीं है किन्तु आत्म स्वभाव पाने के लिए श्रुतज्ञान है।
    40. ज्ञानी मुनि ज्ञान में रमते हैं उलझते नहीं।
    41. ज्ञानी मुनि आत्मा में रमते है परन्तु एक स्थान पर जमते नहीं।
    42. तलस्पर्शी ज्ञान किसी ग्रन्थ को एकबार पढ़ने से नहीं किन्तु अनेक बार पढ़ने से होता है।
    43. ज्ञान कल्याण के लिए तब हो सकता है जब हम उस पथ पर चलने लगते हैं।
    44. श्रुतज्ञान छने का काम करता है उससे अपने आपको छानो।
    45. दुनिया को छानते-छानते छन्ने वर्कशाप के क्लीनर के वस्त्र के समान हो गये हैं किन्तु छान नहीं पाते। छने (ज्ञान) को हमेशा साफ रखना आवश्यक है।
    46. आपा -धापी में स्व-पर का ज्ञान समाप्त हो जाता है।
    47. आज पढ़-अनपढ़ दोनों आपा-धापी में लगे हैं यदि संन्यासी भी इसी में लग जायें तो आपा (आत्मा) को भूल जायेंगे।
    48. सम्यक ज्ञान के द्वारा जो वस्तुतत्व को जान रहा है वहीं सुखी है, बाकी सब दु:खी ही दु:खी हैं।
    49. तत्वज्ञान है तो सुख है अन्यथा आपके दुख को कोई मिटाने वाला नहीं है।
    50. यदि आप सुखी होना चाहते हैं तो तत्वज्ञान को अर्जित करिए।
    51. जीवों के कष्टों को देखने के उपरांत यदि दया नहीं आती है तो उस ज्ञान का कोई उपयोग नहीं वह एक प्रकार से कोरा/थोथा ज्ञान है।
    52. वह ज्ञान नहीं माना जाता है जिसके हृदय में थोड़ी सी उदारता नहीं है, अनुकम्पा नहीं है।
    53. ज्ञान की शोभा तो संयम है। ज्ञान की शोभा तो अहिंसा है।
    54. ज्ञान की शोभा तो क्षमा है। ज्ञान की शोभा तो कषाय का अभाव है।
    55. सही ज्ञान की प्रतिष्ठा वह है जिसके माध्यम से तत्वज्ञान से हीन व्यक्ति भी तत्वज्ञान की ओर आकृष्ट हो जाये।
    56. ज्ञान के माध्यम से तो स्व-पर प्रकाशन हो जाता है लेकिन ज्ञान का मद करने से स्व का भी ज्ञान और पर का भी ज्ञान दोनों ही पतित हो जाते हैं।
    57. सम्यक ज्ञान के साथ अक्षर का ज्ञान हो ये कोई नियम नहीं है। यदि कोई निरक्षर भी हो तो भी वह उस ज्ञान को प्राप्त कर सकता है।
    58. सम्यक ज्ञान के माध्यम से जिसके दुर्वचनों को सुनने की क्षमता आ गई, वो समझ लो औरों की अपेक्षा से उसकी असंख्यात गुणी निर्जरा ज्यादा होना प्रारम्भ हो जाती है।
    59. यदि किसी ने कुछ कह दिया तो क्या बात हो गई, यह सोचना चाहिए कि उसे भी चुकाना है और इसे भी चुकाना है। निंदा में भी शब्द है और स्तुति में भी शब्द है लेकिन व्यक्ति उल्टा करता है इसको सम्यक ज्ञान नहीं कहते हैं।
    60. सम्यक ज्ञान को कभी पसीना नहीं आता है सम्यक ज्ञान का सीना कभी धुक-धुक नहीं करता है कि अब क्या होगा।
    61. सम्यक ज्ञान के साथ सब विषय सरल होते हैं और अज्ञान के साथ सारे सारे सरल विषय भी डिफीकल्ट हो जाते हैं।
    62. ज्ञान-दर्शन चलते नहीं हैं, पर आदेश दे देते हैं। हेय की ओर गति न कर उपादेय की तरफ गति देते हैं।
    63. चारित्र (पैर) नहीं जानता कि उचित स्थान कौन सा? पैर गधे के समान हैं। ज्ञान और दर्शन के हाथ में उसकी लगाम है।
    64. ज्ञान दर्शन यात्री और चारित्र रेल (घोड़ा) इत्यादि वाहन है।
    65. आत्मा के पास श्रुत ही एक ऐसा साधन है जिसके माध्यम से यह धनी कहलाता है। जब यह श्रुतरूपी धन जघन्य अवस्था को प्राप्त हो जाता है तो वह आत्मा दरिद्र हो जाता है।
    66. यदि वास्तव में ज्ञान को धन मानकर हम उसका संरक्षण और संवर्द्धन करें तो आत्मा की ख्याति बढ़ती चली जायेगी।
    67. मात्र उपदेश देने या सुनने से ज्ञान नहीं बढ़ता। ज्ञान को ऊर्ध्वगमन संयम के द्वारा मिलता है।
    68. कषाय को अपने अंडर में लेना और चारित्र के प्रति बहुमान ये तत्वज्ञान को स्पष्ट करना है।
    69. जिससे प्रयोजन सिद्ध होता है वही ज्ञान है।
    70. ज्ञान को स्वस्थ करने की प्रक्रिया विकल्प नहीं करने से होती है। ये इसका फार्मूला है।
    71. श्रुतज्ञान का यदि विकास करना है तो भाव श्रुतज्ञान का विकास करिये। भावश्रुतज्ञान अक्षर श्रुतज्ञान के ऊपर डिपेंड है ही नहीं।
    72. जिसके पास एक अक्षर का भी ज्ञान नहीं है तो भी चल जायेगा मोक्षमार्ग में.शिवभूति महाराज का क्या हुआ?
    73. ‘निर्विकल्प होने में श्रुतज्ञान का विकास नहीं हो रहा।' ये फार्मूला हमेशा याद रखो और जोजो इसमें लगे हुए हैं, उनको कृपा करके, करुणा करके, अनुकंपा करके समझा दो।
    74. चारित्र के साथ में यदि सम्यक ज्ञान होता है तो वो भवांतर में भी काम में आ जाता है।
    75. ज्ञान रखने के लिए है ही नहीं, प्रवाह हो बाँध नहीं बाँधों।
    76. भावश्रुत का आप विकास करिये, अक्षर श्रुत का क्षयोपशम है उसका आप सदुपयोग करिये।
    77. भावश्रुत के माध्यम से अपना भला करिये और द्रव्यश्रुत के माध्यम से अपना व दूसरे का भी भला करिये ।
    78. पहले कुरीतियाँ अज्ञान के कारण थीं, अब कुरीतियाँ ज्ञान के कारण चल रही हैं।
    79. कुरीतियाँ जितनी आ रही हैं, ये पढ़े-लिखे लोगों के समूह से आ रही हैं।
    80. व्यवस्थित ज्ञान का नाम विज्ञान है।
    81. ज्ञान जब संयत होता है तब ध्यान होता है।
    82. संयत ज्ञान का ही मूल्य है असंयत ज्ञान तो कहीं भी ले जा सकता है। ज्ञान के साथ संयतपना आवश्यक है।
    83. ध्यान में मन की एकाग्रता आवश्यक है ज्ञान में हम सुन तो लेते हैं लेकिन मन से नहीं सुनते हैं। यही ज्ञान और ध्यान में अंतर है।
    84.  ज्ञान हमेशा गुरुकृपा से प्राप्त होता है, पढ़ने से नहीं।
    85. अनाकुलता रूप ज्ञान ही समीचीन ज्ञान है।
    86. जिसके पास ज्ञान कम है वह अधिक ज्ञानवानों की विनय करके पूंजी कमा लेता है। ये महान् है, इसके द्वारा भी प्रभावना हो रही है। अपने पास अध्ययन नहीं है तो विनय करने से कालांतर में आ जाता है।
    87. अज्ञानियों से प्रशंसा प्राप्त करने की अपेक्षा ज्ञानी से एक थप्पड़ खाना अच्छा है कम से कम गलती तो सुधरेगी।
    88. ज्ञान को हमेशा चारित्र की उन्नति में लगाना चाहिए यही उसका सदुपयोग है। पुण्य और पाप को एक मानने वाले ज्ञान का दुरुपयोग कर रहे हैं।
    89. ज्ञान को समय पर काम लेने वाला ही विवेकशील माना जाता है।
    90. जिससे मैत्री की स्थापना हो, विषयों से विराम प्राप्त हो जावे, श्रेयमार्ग पर लगा दे, रागद्वेष की निवृत्ति हो जावे उसे जिनशासन में ज्ञान कहा है।
    91. मद पैदा करने वाला ज्ञान नहीं हो सकता। जिस ज्ञान के कारण सामने गुणी दिखे ही नहीं वह ज्ञान किस काम का?
    92. ज्ञान का सदुपयोग न करने से मद उत्पन्न हो जाता है।
    93. ज्ञान का दुरुपयोग पापवर्धक होता है।
    94. अपने ज्ञान का उपयोग अपने विषय में ही करना चाहिए। दूसरे के अहित के बारे में सोचना अनर्थ है। उपयोग अंदर लगते ही सारी प्रतिकूलताएँ समाप्त हो जाती हैं।
    95. हमारे ज्ञान का सदुपयोग यही है कि हम रागद्वेष को कम करते चले जावें।
    96. ज्ञानामृत भोजन बनाओ और दूसरों को कराओ। ज्ञानामृत जो देता है उसका कभी कम नहीं पड़ता। इससे क्षयोपशम बढ़ता है एवं प्रभावना होती है।
    97. अस्थिर ज्ञान ही हमें हानिकारक है, इसलिए ज्ञान को स्थिर बनाओ।
    98. संयमी होकर असंयमी से क्या चाहोगे? अज्ञानी की प्रशंसा चाहने से अच्छा है ज्ञानी की डॉट चाहना। ज्ञानियों से बोध मिलता है प्रेरणा मिलती है।
    99. सम्यक ज्ञान वही है जो आत्मा की ओर ले जाता है आत्म सन्तुष्टि प्राप्त हो जाती है। विषयों से प्रभावित ज्ञान ईष्या तुलना पैदा करावेगा।
    100. ज्ञान होने पर अमल में न आये तो कोई पद नहीं मिल सकता ।
    101. संवेग वैराग्य सहित ज्ञान ही आदर के योग्य होता है।
    102. उस ज्ञान को महत्व नहीं देना चाहिए जो पाप से न डरे।

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