क्षारमय होना ही प्रलय है। सागर क्षारमय है, जगत् क्षारमय हो जाये तो प्रलय है, किन्तु इसी क्षार के उचित अनुपात से मधुरता भी आती है। उचित अनुपात ही धर्म है। धर्म है, तो जीवन है, जीवन को क्षारमय नहीं अनुपातिक बनाकर आप दुनिया के किसी भी कोने में जायें धर्मात्मा कहलायेंगे। आटा में नमक उचित मात्रा में मिलाने पर ही मधुर स्वाद आता है। नमक कम रहे तो फीका लगता है, अधिक हो तो खारा हो जाये। दोनों ही दशा मधुरता की नहीं है, ऐसे ही जीवन में मधुरता लाने के लिए क्षार का उचित अनुपात रखना चाहिए'आटे में नमक के बराबर"। नमक का कोई व्यंजन नहीं बनता वरन् व्यंजन स्वादिष्ट रखने के लिए उचित मात्रा में नमक मिलाया जाता है। नमक का व्यंजन क्षारसागर होगा किन्तु क्षारसागर नहीं क्षीरसागर से जीवन सुखमय होगा। पाक शास्त्र की इस गहराई का मनुष्य जीवन से गहरा संबंध हैं। खारा जीवन खीरमय नहीं हो सकता किन्तु खारे की एक डली खीर में मधुरता घोल देती है। यही अनुपात तो धर्म है। अज्ञान, मोह, कषाय से जीवन क्षारमय हो जाता है। अपना जीवन ऐसा हो कि सबको मधुरता दे स्वयं भी मधुर रहे। स्व-पर को माधुर्यमय कर दे।
स्वादिष्ट खाना खिलाते हुए क्षार शब्द के उपयोग से खाने का स्वाद बिगड़ जाता है तथा मधुर शब्दों के उपयोग से रूखा-सूखा भोजन भी स्वादिष्ट लगता है। धर्म की बात अनेक विद्वान् करते हैं, आवश्यकता है धार्मिक वातावरण बनाने की तथा यह वातावरण तब ही संभव है जब अनुपात उचित हो। धर्म के अनेक रूप हैं कर्तव्य भी धर्म का ही एक रूप है किन्तु उचित काल पर उचित स्थान पर उचित धर्म से ही परिणाम अनुकूल मिलते हैं। जिस प्रकार घर में आये मेहमानों को सुस्वादु व्यंजन उपलब्ध करायें किन्तु समयानुकूल बात न करें तो मेहमान अपमान का अनुभव करेगा, कहेगा कि आदमी खाना तो खिला रहा है किन्तु प्रेम व्यवहार के दो शब्द भी नहीं बोलता। इसके विपरीत भूखे मेहमानों को भोजन न देकर केवल मीठी मीठी बातें करें तो भी मेहमान को क्रोध आयेगा, क्योंकि भोजन नहीं करा रहा। अकेले बातों से पेट भरने वाला नहीं, भले ही उसे मोती का हार पहना दी। भूखे को स्वागत में हार की नहीं, आहार की जरूरत होती है बंधुओं!
भूखे भजन न होय गोपाला,
ले लो अपनी कठी माला।
तात्पर्य यह है कि देश, काल के अनुरूप व्यवहार करें तथा अनुपात उचित रखें, तभी परिणाम अनुकूल निकलेगा। अन्यथा जो काल पर न आये वही अकाल है। काल पर वर्षा नहीं तो अकाल पड़ गया। फसल नहीं, अनाज नहीं, भूख नहीं मिटी, भुखमरी छा गयी। भोजन समय पर न मिलना भी अकाल है। इस परिस्थिति में भूखे के पास अनाज पहुँचाना भी धर्म है, राहत है। देश, काल, द्रव्य, भाव के अनुरूप ही चलना चाहिए। समय पर भोजन नहीं मिलने से भूख मर जाती है, मंदाग्नि हो जाती है। वैभव की आवश्यकता नहीं, भारत में संभव की आवश्यकता है। शंकर की आराधना करना है वैभव की नहीं, भव की भी नहीं। धर्म को पकड़ना आसान नहीं है, ज्ञान के साथ स्थान का भी ध्यान रखना चाहिए। नमकीन स्वादिष्ट होता है नमक नहीं। नमक को खाओ तो भी काम नहीं चलता, नमक के बिना भी कोई महत्व नहीं है। केवल अनुपात का महत्व है।
इसी प्रकार व्यवहार ऐसा करो कि दूसरे के जीवन में भी मधुरता की लहर उत्पन्न हो। रूखासूखा भोजन भी स्वादिष्ट हो सकता है, इसके लिये वैभवशाली के यहाँ जाने की आवश्यकता नहीं है। मछली जल में रहती है तथा उसके जीवन के लिये आवश्यक वायु उसे जल में ही उपलब्ध हो जाती है, उसे हवा की सुविधा के लिये हवा में लाओगे तो उसका जीवन संकटमय हो जायेगा। उसके लिये हवा वहीं उपलब्ध है। इसी प्रकार खुली हवा में रहने वाले प्राणी को जल में हवा नहीं प्राप्त हो सकती। जल में ले जाने पर हवा के प्राणी का जीवन संकटग्रस्त हो जायेगा। इसकी अज्ञानता से कल्याण का प्रयास भी अनुकूल परिणाम नहीं दे सकता। मछली का जीवन जल में ही सुरक्षित है। हवा की उपलब्धता के लिये हवा में लाने से उसके प्राण ही संकट में आ जायेंगे।
नमक का विधि अनुसार उपयोग ही मधुरता उत्पन्न करता है। यहीं मधुरता धर्म है, यही जीवन है। नमक अधिक होने से क्षारमय हो जायेगा। क्षारमय होना ही प्रलय है क्योंकि क्षारमय जगत् तभी होगा जब क्षारयुक्त सागर के जल से धरती जलमग्न हो जायेगी। सागर के गुणधर्म से उत्पन्न नमक का उचित मात्रा में, अनुपात में प्रयोग करने से स्वाद में वृद्धि होती है और यह प्रयोग की समझ ही धर्म है। क्षारयुक्त जीवन को उचित अनुपात से मधुर बना देना ही धर्म है। इसी धर्म के अपनाने से हमारा जीवन सुखमय होगा। अन्त में हमें इतना ही ख्याल रखना है कि हमारे अभाव में किसी का जीवन नीरस न बने और सद्भाव से खारापन न आये, वरन् यही प्रयास हमें धार्मिक सिद्ध करेगा। सबका जीवन उन्नत धार्मिक और सहयोगात्मक बने इसी मंगल भावना के साथ.
'अहिंसा परमो धर्म की जय !'