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नव आचार्य श्री समय सागर जी को करें भावंजली अर्पित ×
मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज
  • सर्वोदयसार 3 - लाघव बनकर ही राघव बनना संभव

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    धरती स्वर्ग से महान् है। स्वर्ग के देवगण भी माटी के इस जगत् में आने के लिये लालायित रहते हैं। माटी की महिमा महान् है तथा इसकी तुलना में स्वर्ण तुच्छ है। स्वर्ण मुकुट में माटी का तिलक लगाने से स्वर्ण की आभा में वृद्धि हो जाती है मिट्टी में एक ही बीज वपन करने से अनेक फल प्राप्त होते हैं जबकि स्वर्ण में यह गुण नहीं है। 'धरती' शब्द को विलोम करने से 'तीरध' शब्द बनता है। अर्थात् धरती ही तीर पर धरने। पहुँचाने वाली है यानी धरती में ही यह शक्ति है जो संसार के किनारे पहुँचा सकती है मोक्ष का मार्ग धरती से ही है स्वर्ग से नहीं। परीक्षार्थी मुक्ति की परीक्षा में उत्तीर्ण हो जाता है तो उसे मोक्ष मिल जाता है किन्तु पूरक आने पर स्वर्ग की प्राप्ति होती है। इस तरह यह कहा जा सकता है कि स्वर्ग की प्राप्ति अधर में लटकने के समान है।


    सन्मार्ग की राह में त्रुटिहीन यात्रा से अंतिम लक्ष्य, मोक्ष पहुँच सकते हैं, किन्तु साधन में यदि कुछ त्रुटि हो तो यात्री स्वर्ग तक ही यात्रा कर पाता है, उसे मार्ग का विराम कह सकते हैं। जो विराम करे वह मोक्ष से वंचित रह जाता है। देवराज इन्द्र भी नर-नारायण की वंदना करते हैं। मैथिलीशरण गुप्तजी ने एक जगह लिखा है -


    नारायणा-नारायणा धन्य है नर साधना ।

    इन्द्रपद ने की है जिसकी शुभ आराधना॥

    धरती पर स्वर्ग लाने की कल्पना नहीं होना चाहिए क्योंकि धरती स्वर्ग से श्रेष्ठ है। हमारे संग्रह किये गये भण्डार में स्वर्ण नहीं किन्तु सुवर्ण होना चाहिए। उत्तम वर्ण। आचरण ही प्रभु को पा सकता है। आज पश्चिमी देशों में प्रभु की अपेक्षा मशीनों का ज्यादा महत्व है तथा कहा जा सकता है कि उत्पादन बढ़ रहा है जबकि यथार्थ में उत्पादन नहीं उत्पात बढ़ रहा है/असंतोष बढ़ रहा है। सोने के संसार में रहने वाले देवताओं की प्रबल इच्छा/धरती के जग में आने की होती है क्योंकि स्वर्ग अर्थात् सोना जड़ है। जबकि धरती जीव/जागृत है। इसीलिए धरती के पूतों को चाहिए कि वे मिट्टी को माथे पर लगाये, स्वर्ण को नहीं।

     

    परमात्मा बनने की शक्ति प्रत्येक आत्मा में है जीवन-मरण की पहेली का ज्ञान होते ही प्रभु का स्मरण होता है। प्रभु का स्मरण करने वाले भक्त का जीवन धन्य हो जाता है। प्रत्येक आत्मा भगवान् आदिनाथ भगवान् महावीर या प्रभु राम बन सकती है। लघुत्व से गुरुत्व की यात्रा ही रघुपति राघव बनाती है, यह ज्ञान प्रभु भक्ति में लीन होने पर ही होता है। हमें यह भी जान लेना आवश्यक होता है कि आप जो भक्ति/उपासना कर रहे हैं, वह सही दिशा में है अथवा नहीं। यह निश्चित है कि भक्ति से मुक्ति मिलती है किन्तु उपासना सही हो तब। हमारी आकांक्षा युक्त भक्ति तथा बिना विवेक की माँग कैसे अभिशाप बन जाती है, इस बात को समझने के लिये आपके सामने एक उदाहरण रख रहा हूँ। एक गृहस्थ व्यक्ति लम्बी अवधि से भक्ति कर रहा था किन्तु उसे अपेक्षित फल नहीं मिल रहा था। वह भत भगवान् के पास पहुँचा तथा अपनी व्यथा व्यक्त की। भगवान् ने उसे एक वर माँगने की आज्ञा दी उसने वरदान माँगा कि वह जिसे स्पर्श करे वह स्वर्ण बन जाये। वरदान रूप आशीर्वाद के पश्चात् भक्त का सब कुछ स्पर्श करने से स्वर्ण बन जाता है। यहाँ तक कि घर, सामान, पत्नी आदि भी। दुख से कातर हो वह प्रभु से पुन: पूर्वस्थिति में आने की अनुनय करता है, किसी भी तरह से वह उस दुख से मुक्ति पा लेता है एवं संतोषी बन जाता है। इस प्रकार यह जानना जरूरी है कि लोभ-अविवेक और आवश्यकता से अधिक बुद्धि भी हानिकारक होती है। प्रत्येक मनुष्य को अपने विवेक के अनुसार ही राह बनाना चाहिए। भक्ति का लक्ष्य भी सही रखना चाहिए। तभी सही फल मिलता है। अन्यथा वह इसी भत की तरह पछताने पर मजबूर हो जाता है।-


    मंत्र जाप की परिगणना के लिये हमें माला की आवश्यकता होती है। जाप की परिगणना के लिये सहायक चाहिए जबकि पैसे गिनने के लिये किसी सहायक की आपको आवश्यकता नहीं होती बल्कि अंगुलियाँ त्वरित गति से नोट की परिगणना करती है। इसी प्रकार आपके पास रुपये-पैसे आते हैं तो निद्रा दूर रहती है किन्तु जैसे ही प्रभु को स्मरण करने के लिये माला हाथ में आती है निद्रा देवी आ जाती है। पर निन्दा करते समय मनुष्य बढ़ चढ़कर वार्ता करता है; किन्तु स्वयं कि आलोचना सहन नहीं कर सकता। स्पष्ट है कि आपको प्रभु की नहीं, नोटों की चाहत ज्यादा है। इसीलिए प्रभु तो मिलते नहीं तथा नोट ही अंगुलियों की कसरत कराते रहते हैं। इसी प्रकार करते-करते यह जीवन निरर्थक ही बीत जाता है। बन्धुओं, हमारी अनाकांक्ष भक्ति का ही यह परिणाम है कि युग निर्मल है तथा भगवान् और भक्त के बीच यह सम्बन्ध टिका हुआ है। हमें अपने इस जीवन में माटी के मार्ग की कीमत जानकर मोक्ष प्राप्ति का लक्ष्य बनाना चाहिए, स्वर्णमय स्वर्ग का नहीं।


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