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मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज
  • सर्वोदयसार 13 - सामान्य हो जाना ही समाजवाद है

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    मानव जाति एक है। जब तक मानव जाति में ‘विशेष' मानव का विशेषण विद्यमान है समाजवाद नहीं आ सकता। विशेष को भी सामान्य बना देना ही समाजवाद है। जब तक स्थिति 'सामान्य' नहीं हो जाती विशेष प्रयत्न करने की आवश्यकता होती है तथा जैसे ही स्थिति सामान्य होती है शांति मिल जाती है।


    कफ्यूं वहाँ लगाया जाता है जहाँ स्थिति असामान्य होती है। ऐसी असामान्य स्थिति में अनेक कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है किन्तु स्थिति के सामान्य होते ही सब कुछ ठीक हो जाता है। ऐसे ही मानव जाति में सामान्य से हटकर विशेष होते ही विभाजन हो जाता है जिससे समाज में असमानता व्याप्त हो जाती है। असमानता त्यागकर सामान्य हो जाना ही समाजवाद है। मनुष्य आँख खोलते ही माँग करने लगता है इसका आरंभ ही भूख से होता है। विशेषता की भूख लगते ही स्थिति असामान्य हो जाती है। प्रत्येक प्राणी को सत्य को अस्तित्व के रूप में स्वीकार करना चाहिए। विशेषता मान का प्रतिफल है। अगर दृष्टि में संकीर्णता हो तो मान की उत्पत्ति होती है। सामान्य वातावरण नहीं होने पर धर्म की छूट भी उल्टी के रूप में बाहर आ जायेगी। यह बात सत्य है कि हम सामान्य रूप धारण करके ही एकाकार हो सकते हैं तथा विशेषता विभाजन भेद रेखा को भी समाप्त कर सकते हैं। पंगत में खाना परोसते समय दृष्टि तथा व्यवहार समान रहता है। खाना परसने वाले की दृष्टि में पंगत में बैठे सभी मनुष्य समान रहते हैं किन्तु जब बाजार में वस्तु खरीदने जायें तो तुलना ही तुलना। तुला पर तुलना, सस्ते महंगे में तुलना। मनुष्य की दृष्टि परोसने वाले के समान समानता की होनी चाहिये न कि दुकानदार ग्राहक के समान तुलना की।


    संसार का प्रत्येक मनुष्य मूल्यवान वस्तु की इच्छा रखता है। तथा उसे पाने सदैव तत्पर रहता है। इस संबंध में प्रत्येक की अपनी दृष्टि है तथा प्रत्येक का अपना-अपना दृष्टिकोण। बहुमूल्य वस्तु की प्राप्ति की इच्छा केवल मानवों में ही नहीं, देवों में भी होती है। देव भी पंचेन्द्रिय के दास बन जाते हैं। होड़ लग जाती है प्राप्ति के लिये किन्तु यहाँ पर भोग्य नहीं भोक्ता महत्वपूर्ण है। भोक्ता चेतन है भोग्य अचेतन। देव भी जो महान् तथा विशेष माना जाता है, महादेव के सम्मुख नतमस्तक हो जाता है। देव का दास देखता है कि मेरा स्वामी भी महास्वामी का दास है। तीन लोक के नाथ वही महादेव है जिन्हें इन्द्र देव भी पूजते हैं। ‘षट्खण्डाधिपति भरत चक्रवर्ती' भी 'आदिनाथ भगवान् के चरणों में भक्ति से झुककर सामान्य हो जाता है। अरे चक्रवर्ती तो क्या इन्द्र भी सोचता है कि वह भी इंद्रियों का दास है। बंधुओं! क्षणभंगुर दूश्य है यह सब। यहाँ सब कुछ समाप्त हो जाता है। सूर्य भी बारह घंटे पश्चात् अस्त हो जाता है। राजा, महाराजा, इंद्र आदि क्षणभंगुर चमकीले पदार्थ सब शांत हो जाते हैं। कल जहाँ बहार थी, वैभव था, हरियाली छायी थी, वह सब समाप्त हो जाता है। पतझड़ आ जाते और पतझड़ की जगह पुनः बसंत बहार छा जाती है। बालक गोद में दूध पीता आया था जवान होते ही विषयों में लीन हो जाता है।


    सूरज चाँद छिपे निकले,ऋतु फिर-फिर करआये।

    प्यारी आयु ऐसी बीते, पता नहीं पाते॥

    कालचक्र घूमता ही रहता है, आया-गया, आ रहा है, जा रहा है ऐसा ही सब चलता जा रहा है। रात्रि का रूप, दिन का स्वप्न, दीर्घकालीन स्वप्न, अल्पकालीन स्वप्न । देवों की दीर्घकालीन आयु भी कब बीत जाती है पता ही नहीं चलता, किन्तु दुख की घड़ी काटे नहीं कटती। काल-महाकाल बन जाता है। यह सब मोह की परणति है, सर्वस्व त्याग कर स्वयं में खोते ही यह सब बंध टूट जाते हैं।

     

    रूप में परिवर्तन होता है किन्तु वह अरूप नहीं होता। पीला रूप देखते ही काला छोड़ देते हैं। ‘पीले स्वर्ण' की रक्षा ‘काले लोहे' के ताले से की जाती है स्वर्ण की रक्षा के लिये स्वर्ण का ताला नहीं लगाया जाता। स्वर्ण विशेष है। जिस दिन स्वर्ण की रक्षा के लिये स्वर्ण का ही ताला होगा सब समान हो जायेगा तब रक्षा की आवश्यकता ही नहीं। इन्द्रलोक में ताला नहीं लगता क्योंकि वहाँ चोरी नहीं होती। कोई किसी का स्वामी नहीं, दास नहीं, सब समान हैं। स्वामी तो आपके भीतर विद्यमान है। ऊँच-नीच में कषाय है, कषाय समाप्त होते ही दृष्टि समान हो जाती है। महादेव के सामने भक्तों की दृष्टि में समानता आ जाती है। समानता आते ही सब प्राप्त हो जाता है। भगवान् चिन्मयाकार हैं, आप अपनी दृष्टि अगल-बगल में न दौड़ायें। प्रभु से आप अपनी तुलना कर जान लो कि क्या अंतर है? अंतर अंतर्घट से ज्ञात हो जाता है। दृष्टि में समानता आ जाना ही वास्तविक ज्ञान है वही भगवान् है। भिन्न-भिन्न पदार्थों को देखकर ऊँच-नीच की जो दृष्टि बनती है उसमें भगवान् को देखते ही बदल जाती है।


    विषय, विषयातीत होने पर महत्वपूर्ण हो जाता। विषयातीत को खोजने के लिए स्मरण करते ही प्रभु दिखाई देते हैं। अभी अष्टानिका पर्व है। सौधर्म इन्द्र नंदीश्वरद्वीप जाकर सपरिवार भगवान् की पूजा-अर्चना अवश्य करता हैं, किन्तु मनुष्य देवों से भी श्रेष्ठ है क्योंकि मानव ही महात्मा तथा महामानव बनने का गुण रखता है। 'मान मिटते ही मानव महात्मा बन जाता है'। महामानव के चरणों में देव-मनुष्य सभी नमन करते हैं। सिद्धत्व की आराधना करते हुए चक्रवर्ती भी सब कुछ त्यागकर सामान्य प्राणी बनना चाहता है। प्रभु जैसा बनना चाहता है। सिद्ध परमेष्ठी के पास जाने का प्रयास करो, और यह विशेषता से नहीं एकाकार सामान्य रूप धारण करने से ही संभव है। असामान्य अशांति है, कोलाहल है। सर्वोदय में देवों का आगमन हो चुका है किन्तु आप लोग देवों से प्रभावित न होकर महादेव देवाधिदेव की आराधना करें। इसी में आपका कल्याण है।


    ‘महावीर भगवान् की जय!'


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