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मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज
  • सर्वोदयसार 6 - मोक्षमार्ग, वायुपथ की तरेह दिखता नहीं

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    वायुयान निकलने के बाद जैसे आकाश में मार्ग का कोई चिह्न दिखायी नहीं देता, फिर भी वायु मार्ग है, वायुपथ है। इसी तरह मोक्ष का भी मार्ग है। भव्य जीवों ने इस मार्ग से यात्रा की है, किन्तु वायु मार्ग की तरह वह दिखता नहीं है। वायुयान को सही दिशा का ज्ञान दिशासूचक यंत्र से होता है क्योंकि वायुमार्ग का चिह्न तो दिखता नहीं इसी प्रकार-अदृश्य मोक्षमार्ग की दिशा का ज्ञान दिशासूचक यंत्र रूपी गुरु से होता है। दिशा सूचक यंत्र का काम है दिशा का बोध कराना। किस दिशा में जाना है यह निर्णय यात्री पर निर्भर है, गुरु द्वारा बतायी गई सही दिशा पर चलेंगे तो यात्रा सफल होगी अन्यथामोक्षमार्ग के प्रथम यात्री भगवान् ऋषभनाथ थे; जिन्होंने विश्व को न केवल राह दिखायी वरन् उस पर यात्रा भी की। यात्रा कठिन थी। राजप्रासाद को त्याग कर कंकड़, पत्थर पर नग्न पद यात्रा की। कोई यदि पूछता है कि कहाँ जा रहे हो, तो उत्तर देने का भी समय नहीं था। एकदम मौन निरन्तर यात्रा जारी रही।


    युग के आदि में रास्ता नहीं था, आस्था भी नहीं भोग विलास रूपी अंधकार व्याप्त था। आदिनाथ भगवान् ने यात्रा आरंभ की तथा बताया कि भोग से भरपूर जीवन ठीक नहीं। उन्होंने पहले उपदेश धमोंपदेश नहीं दिया पहले यात्रा की। कोई साथ चले उन्होंने इसकी भी आवश्यकता नहीं समझी। मखमल बिछे राजदरबार को त्यागकर कंकड़, कंटक के पथ पर युग के आदि में आदिनाथ के पैर पड़े। भगवान् से पहले गुरु चलते हैं। गुरु पथ पहले बनाते हैं फिर बताते हैं। गति, पश्चात् प्रगति, फिर उन्नति। उन्नति का अर्थ है ऊपर चढ़ना। ऊपर चढ़े बिना उन्नति ही नहीं। वायुमार्ग शून्य आकाश में चिह्न रहित है। मोक्षमार्ग पर चलने के लिये चिह्न नहीं देखना, चलो तो मार्ग क्या मोक्ष भी मिलेगा। मार्ग महत्वपूर्ण है मंजिल नहीं। मोक्ष मार्ग पर चलना सरल नहीं भावों का खेल है। इस युग में सर्वप्रथम मार्ग बनाया तथा बताया आदिनाथ प्रभु ने किन्तु उनसे पहले मोक्ष पाया 'अनंतवीर्य' तथा ‘बाहुबली' ने। मोक्ष प्राप्ति में भगवान् आदिनाथ पीछे हैं किन्तु मुक्ति का मार्ग खोलने वाले वह प्रथम भव्य जीव है। केवलज्ञान भी सर्वप्रथम उन्हें ही प्राप्त हुआ। भगवान् आदिनाथ आविष्कारक हैं, उनके द्वारा निशान पाकर अनंतवीर्य तथा बाहुबली ने पहले यात्रा पूरी कर ली, यह बात पृथक् है।

     

    बंधुओं! हमें साधना पथ पर बढ़ना चाहिए। यह पार्थिव जीवन भी क्या जीवन है। जीना तो जीने के समान है। जीने का तात्पर्य सीढ़ी जो चढ़ने के लिये है अन्यथा जी.ना। जीवन वही जो जीना चढ़ गये। हम भी आज के इस पवित्र प्रसंग पर अपने जीवन को समझे और प्रभु के पथ पर बढ़ने का प्रयत्न करें। हमें भी एक दिन वही पद मिलेगा, जो आदिनाथ भगवान् ने प्राप्त किया है।


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