भावों का आदान प्रदान होता चला आया है लेकिन कभी ऐसा समय भी आता है जब भावों की पहचान समाप्त हो जाती है। हमारे संकेत कार्यकारी सिद्ध नहीं होते, शब्दों का आलम्बन अनिवार्य होता है और शब्दों के प्रभाव कम होने लग जाते हैं तो वाक्यों में रसों का प्रयोग किया जाता है, उसके बिना वह निद्रा टूटती नहीं। रणभेरी हुआ करती है तो वह रणभेरी निद्रा को तोड़ने के लिए नहीं हुआ करती किन्तु खून को दौड़ाने के लिए हुआ करती है क्योंकि उसके बिना वह व्यक्ति कार्य नहीं कर सकता है। शक्ति है, किन्तु उसको उद्धाटित करना अनिवार्य होता है। द्रव्य- क्षेत्र-काल के अनुरूप ये शक्ति काम करती है। कई लोगों की ये धारणा हो सकती है, मनुष्य हमेशा मनुष्य बना रहेगा, उसका पतन नहीं होता, तिर्यञ्च पशु पशु ही रहेंगे, देव देव ही रहेंगे और नारकी नारकी ही रहेंगे। जो जिसको प्राप्त है, उसमें उसी का गुजारा चलेगा लेकिन ऐसा नहीं है। उत्थान पतन भावों के माध्यम से हुआ करता है, बाजार ज्यों का त्यों बना रहता है। क्षेत्र की अपेक्षा बाजार यथावत् रहता है कि उसकी उम्र तक वह बना रहता है। लेकिन फिर भी आप लोगों के मुख से सुनते हैं, कभीकभी आप लोग कहते हो कि अभी तो बाजार डाउन है। मतलब बाजार बैठ गया यानि बाजार भी खड़ा होता है और कभी बैठता भी है। यह बात कुछ समझ में नहीं आती है। महाराज! भावों में तेजी मंदी हुआ करती है, उसी को ऐसा कहा जाता है कि बाजार में अप-डाउन है और वो बाजार में भी तेजी मंदी है वह भावों के कारण है तो वह भाव भी जगाया जा सकता है, हमेशा-हमेशा तेजी का भाव रह जाये, रह सकता है। तो उसी प्रकार अपने को कुछ ऐसे भाव लाना है जिससे हमारा पूरा का पूरा कार्य हो सके। क्या करना है उत्थान के लिए? जब हम अपने कदम आगे बढ़ाते हैं तो अपने बढ़ते हुए कदमों के कारण दूसरों का पतन नहीं होना चाहिए यह एक भाव हमारी दृष्टि में, हमारे हृदय में, हमारे मस्तिष्क में हमेशा बने रहना चाहिए। हमारा भाव हमारे लिए उत्थान का कारण हो और दूसरे के लिए पतन का कारण हो, यह धर्म नहीं माना जाता। हम अपनी उन्नति चाहें और दूसरे की अवनति हो यह संभव ही नहीं हो सकता। यह अनेकान्त नहीं है कि हमारे उन्नति के लिए अहिंसा और दूसरे के पतन के लिए हृदय में हिंसा के भाव जागृत हो जायें। लेकिन हो रहा है, हमारे कदमों में और हमारे में ये भाव हों, हम बहुत ही बहुत ही सुकुमारता के साथ अपने पैरों को रखते हैं, कभी कभार कोई भूल हो गाये, चूक हो जाये, असावधानी हो जाये, पश्चाताप होना चाहिए जैसी एक पैर में काँटा गढ़ जाता है। तो कम से कम साढ़े पाँच फीट अंतराल को लिए हुए आँखों में पानी आ जाता है। कौन-सा भाव है वह जो आपकी आँखों में पानी आ गया, पैर में लगे हुए काँटे का दर्द तात्कालिक ऑखों में से पानी बाहर भेज देता है ये तो समझने की बात है।
पैरों में काँटा गड़ा है और आँखों में पानी आ जाये, यह बात ठीक है लेकिन कभी ऐसा भी होता है कि अपना कोई व्यक्ति है और उस व्यक्ति को कहीं बाजार में किसी व्यक्ति ले लूट लिया या कुछ मार पीट कर दी, सुनते हैं, तब हमारी आँखों में से पानी आ जाता है ये क्यों? ये कौन-सा भाव है? अपनत्व के कारण है, उसकी आँखों में पानी आ जाता है चूंकि उस व्यक्ति के प्रति अपनत्व है। इसी प्रकार के धर्मात्मा को संसार के समस्त जीवों से अपनत्व हो जाता है तो जब भी उनको मारा जाता है तो उसकी आँखों में करुणा के आँसू आ जाते हैं। धार्मिक भावनाओं के द्वारा भी बहुत बड़ेबड़े काम किये गये हैं और कर सकते हैं। मैं यही बार-बार सोचता रहता हूँ कि अहिंसा की ओर कदम बढ़ाने वाले हिंसा कम करते चले जाते हैं। हिंसा की जाती है या होती है, अहिंसा का पालन किया जाता है। क्या अहिंसा उद्धाटित होती है? इसके बारे में अपने को कुछ अध्ययन भी करना चाहिए। आचार्यों ने ये कहा है या भगवान् ने ये कहा है कि जो हो रहा है वह क्यों हो रहा है? इसको अपने को देखना चाहिए। हमेशा-हमेशा धार्मिक संस्कृति पूर्व की ओर देखती है। पूर्व की ओर अर्थात् इतिहास की ओर देखती है और जो विज्ञान आज का विज्ञान माना जाता है, वह हमेशा-हमेशा आगे की ओर देखता है। धर्मात्मा अतीत के आदशों को ध्यान में रखकर आगे बढ़ता है और आज का वैज्ञानिक पूर्वजों के आदशों की उपेक्षा करके आगे बढ़ने की कल्पना करता है। हमारी संस्कृति या हमारे पूर्वजों की परम्परा किस पर टिकी थी, जब इसके बारे में हम अध्ययन करते हैं तो ज्ञात होता है कि आज से ५० वर्ष पूर्व में सत्य और अहिंसा के बल पर आजादी/स्वतन्त्रता मिली थी। इसमें कोई संदेह नहीं कि स्वतन्त्रता हमारा जन्म सिद्ध अधिकार है। ये कहने मात्र से कैसे प्राप्त हो? इसमें स्वाभिमान बहुत काम करता है, अभिमान नहीं। स्वाभिमान से हम इतिहास की ओर देख सकते हैं। अभिमान से हमें पीछे की ओर मुड़ने की स्थिति आती है। यदि हम थोड़ा सा नैतिकता के नाते सोचें कि हम जिन जीवों को मारकर देश का विकास करना चाह रहे तो क्या विकास हो सकता है? अतीत भवों में हमारा जीव भी उन पर्यायों में से गुजर कर आया हो और हमने उस अपनी पर्याय की रक्षा करने का प्रयास किया हो अर्थात तुम्हारी अतीत की पर्याय ही उनकी वर्तमान पर्याय है तो फिर उनका विनाश क्यों? क्योंकि प्रत्येक जीव का विकास क्रम एक निश्चत पर्यायों से गुजरता है। अनादिकाल की भूमिका में जीव निगोद में एकेन्द्रिय के रूप में रहा करता है फिर इसी एकेन्द्रिय के उपभेदों में भ्रमण करता रहता है। वनस्पति, हवा, अग्नि, जल, धरती के कण आदि इसमें आ जाते हैं। कुछ ऐसे भावों का परिवर्तन हो जाता है, तो एक इन्द्रिय से विकास को प्राप्त होता है उसको दो इन्द्रिय बोलते हैं। जो चलने- फिरने सरकने की क्षमता रखता है, इनको आगम में त्रस संज्ञा दी गई है, पहले जड़ कहा, फिर जंगम कहा। जड़ का अर्थ पुद्गल नहीं, निर्जीव नहीं, जड़ का अर्थ है, अचल और जंगम वह जो त्रस होता है। दो इन्द्रिय के विकास होने से उनको त्रस कहा है। अपनी आकुलता को प्राप्त करने के लिए उसके प्रतिकार हेतु कुछ ऐसा पुरुषार्थ करता है सरकता हुआ चला जाता है। फिर भी वह अपद माना जाता है दो इन्द्रिय की अवस्था में। जब और विकास होता है, भावों के विकास होने के कारण तीन इन्द्रिय हो जाता है, जिसके पास पैर आ जाते हैं। पैर आते हुए भी वह आप जैसे चलता नहीं। उसके पैर अवश्य आ गये। उनके लिए अंधकार कोई बाधक नहीं है और प्रकाश कोई रास्ता बताने वाला सिद्ध नहीं होता। प्रकाश के कारण रास्ता दिखता है। चतुर इन्द्रिय को जब जीव प्राप्त हो जाता है तो आँखें प्राप्त हो जाती है। यहाँ से आँखों का जगत् सामने आ जाता है। रूप सौन्दर्य का वह लाभ लेने लग जाता है, अब इसका विकास और भी होता चला जाता है, पंचेन्द्रिय हो जाता है, तब शब्द वाणी को सुनने की भी क्षमता आ जाती है।
उसके बाद मन आ जाता है तथा इसी क्रम से विकास करता हुआ मनुष्य हो जाता है। मनुष्य एक ऐसा प्राणी है जो बहुत कुछ विकास कर सकता है क्योंकि पशु के पास दो पैर नहीं चार पैर होते हैं लेकिन मनुष्य पैरों का काम ले ले तो ठीक है, यदि हाथ का काम पैरों के स्थान पर ले ले तो वह भी पशुवत् हो जाता है। यह विकास नहीं, उसके विनाश की बात है। या यूँ कह दो कि बुद्धि का प्रयोग नहीं होने के कारण वह कर लेता है। हाथ और पैर यदि दोनों टिका दें तो वह पशु की भाँति ही हो जाता है। तो वह मनुष्य कहाँ-कहाँ पर गलती करता है, अपने भावों के द्वारा इतना विकासशील और विकसित प्राणी होकर भी सबसे ज्यादा विनाशकारी कोई है तो संसार भर में मनुष्य ही है। ये बात अलग है उसकी समीक्षा कौन करता है? स्वयं कर ले तो बहुत अच्छा है।
एक व्यक्ति ने एक लड़के को देखा। वह लड़का सुन्दर होने के साथ-साथ इकलौता था और देखने के उपरान्त वह लड़का तो अपने घर चला गया और जाने के उपरान्त माँ से कुछ बात नहीं करता और थोड़ा भोजन मिल जाये ऐसा संकेत करता है। भोजन लाकर के माँ देने लग जाती है और देखती है, क्या बात है? आज लड़के की आँखें चढ़ी हुई हैं। समझ में नहीं आ रहा है। क्यों बेटा! कहाँ से आ रहा है? वहीं से आया हूँ लेकिन आवाज में जोश नहीं है। कहता है, मुझे अच्छा नहीं लग रहा है। अच्छा नहीं लग रहा। तो भोजन नहीं चाहिए? भोजन तो चाहिए लेकिन अच्छा नहीं लग रहा है। अच्छा-हाथ पकड़कर देखती है तो टेम्प्रेचर बढ़ गया। क्या हो गया इस लड़के को? समझ में नहीं आया। तो उसने दूध पानी जो कुछ देना था दे दिया और सोचती है अब क्या करे और उसे झट से याद आ गया और साबुत लाल मिर्च लाई और उसे उतार कर अग्नि में डाल दी और कहा बहुत तेज नजर लग गई बेटे को। मानव ज्वर दूर करने की योग्यता रखता है लेकिन यदि दृष्टि बिगड़ जाये तो स्वस्थ को ज्वर चढ़ा दे। एक बालक को ऐसी दृष्टि से देख लिया कि ज्वर चढ़ गया। विज्ञान इसको माने या न माने लेकिन वह माँ उसे मानती है और मिची से नजर उतारने से उसका बेटा ठीक भी हो जाता है, वह दवाई के ऊपर ज्यादा महत्व नहीं देती। इसका स्रोत क्या? इसको देखने का वह प्रयास करती है और स्त्रोत को समाप्त करने का वह प्रयास करती है।
भारत हमेशा-हमेशा यंत्र से डरता आया है और यंत्र से डराने का काम भी किया है। लेकिन मंत्र को तंत्र को कभी भी नहीं छेड़ा। आज यांत्रिक युग हो गया यंत्र के पास इतनी शक्ति नहीं है, जितनी मंत्र के पास है। इसलिए मंत्र प्रतिष्ठित हो यंत्र समाप्त हो। यंत्र बंद होना चाहिए क्योंकि कत्लखाने भी एक यंत्र में आ रहे हैं और ये सारा का सारा तूफान खड़ा हो गया। यंत्र को बंद करने के लिए शक्ति चाहिए। अब उस पुद्गल के साथ लड़ने की शक्ति किसके पास है? एक व्यक्ति एक व्यक्ति से तो लड़ सकता है लेकिन एक व्यक्ति यंत्र से कैसे लड़ सकता है? यंत्र के माध्यम से व्यक्ति को लड़ाया जा सकता है लेकिन यंत्र से कैसे लड़े? यंत्र से नहीं लड़ना है, यंत्र को खोलने वाले व्यक्तियों से लड़ना है, उनसे भी लड़ने की कोई आवश्यकता नहीं, ऐसे ही अहिंसा का मंत्र फ्रैंकने की आवश्यकता है। ऐसे अहिंसा भावों के साथ लाल मिर्च लाकर उसे विधान सभा/लोक सभा में उतारने की आवश्यकता है। जिनके भावों में ज्वर चढ़ा हुआ है वह नीचे उतर जाये। हमें किसी को कुछ भी नहीं करना है। जो भाव विकृत हुए हैं उनको मंत्रों के द्वारा और तंत्रों के द्वारा जो यंत्रों से पाप हो रहा है उस पाप को समाप्त करना है पापी को नहीं क्योंकि पापी जब पाप छोड़ देगा तो वह भगवान् बनने की क्षमता रखता है। पतित से पावन बनने का यही एक मात्र राजमार्ग है, यह पगडंडी है। कोई भी हो वह पतित से पावन इसी प्रकार हो सकता है।
दया, अनुकम्पा, शान्ति, वात्सल्य एक दूसरे के पूरक भाव को लेकर के यदि विज्ञान खड़ा हो जाता है तो वह विश्व का बहुत बड़ा हित कर सकता था/कर सकता है लेकिन विज्ञानवाद में इन चारों का अभाव है क्योंकि जड़ की क्रिया में कभी भी करुणा, अनुकम्पा, दया नहीं आ सकती। सुई के द्वारा जो काम किया जा सकता है वह तलवार के द्वारा नहीं किया जा सकता और तलवार के लिए जो खर्च किया जा रहा है वह सब व्यर्थ में किया जा रहा है। सविचारों के माध्यम से हम सुख और शान्ति के साम्राज्य की स्थापना कर सकते हैं लेकिन आज इतने विकास होने पर भी नहीं कर पा रहे हैं। दुख और अशांति का स्रोत बढ़ता ही चला जा रहा है।
थोड़ा से थोड़ा विचार करिये। एक दृष्टिपात करने से बालक नौजवान का चेहरा मुरझा गया, नजर लग गई उसकी यह दशा हो गई। हरियाली की ओर देखते हैं तो भी इस तरह क्रूर व्यक्तियों के द्वारा वह हरियाली भी सूख जाती है। ये कैसी बात है विचार करो। ऐसी ही बात है, पानी का सिंचन करते हुए भी वह धरती सूख सकती है क्योंकि मशीन से फेंका जाता है पानी जो वह जाता है। पानी पिलाया जाता है, पानी बहाया नहीं जाता। पानी बहाने की क्रिया विज्ञान की है और पानी के सिंचन करने की क्रिया भारतीय संस्कृति है। पहले मशीन नहीं होते थे किन्तु चरस चलते थे और संगीत चलता था और धरती फूल जाती थी और आज धरती की छाती के ऊपर से प्रवाह चला जा रहा है और खेत की मुलायम मिट्टी को लेकर चला जाता है। फसल तो आ जाती है लेकिन अगले साल में वह खेत फसल के योग्य नहीं रहता। उसके लिए और नये आविष्कृत रसायन डालते चले जाओ। यह विज्ञान तो आया लेकिन संस्कृति से हट करके आया।
विज्ञान सन्ध्याकालीन सनसेट है और भारतीय संस्कृति प्रातःकालीन सनराईज है। पश्चिम की ओर जब हम दृष्टिपात करते हैं और पूर्व की ओर जब हम दृष्टिपात करते हैं तो मनोरंजन को देखने की अपेक्षा से दोनों में ऐक्य नजर आता है। सनराईज सनसेट दोनों को ही देखते हैं। मनोरंजन की अपेक्षा से, दोनों में लाली है। थोड़ी सी बात मैं पूछना चाहता हूँ सनसेट होकर कभी डूबते हुए सूर्य नारायण की आरती की कभी किसी ने? नहीं, परन्तु जिस समय पर सूर्य उगता है, उस सूर्य की आरती की जाती है भारत में क्योंकि जीवन प्रदाता है उगता हुआ सूर्य। वही सूर्य पश्चिम की ओर गया तो डूबते सूर्य की कोई आरती नहीं उतारता है, उगते हुए सूर्य की आरती की जाती है। आज विज्ञान जीवन को अस्ताचल की ओर ले जा रहा है। जिस विज्ञान के माध्यम से जीवन का उत्थान होना था वो उत्थान के स्थान पर पतन होता चला जा रहा है। सूर्य दोनों स्थानों में एक है लेकिन एक वह प्रमाद को छोड़ करके उठ रहा है और एक प्रमादी बन करके नीचे की ओर जा रहा है। सूर्य को अस्ताचल में जाने के उपरान्त संसार मोह की नींद में सो जाता है। जैसे-जैसे विकास होता चला जा रहा है वैसे-वैसे प्रमाद का अभाव नहीं हो रहा है। चेतना जागृत नहीं हो रही है किन्तु वह सुप्त होती चली जा रही है। सुप्त इसलिए होती चली जा रही है कि उसकी एनर्जी, उसकी शक्ति सारी की सारी जिसके ऊपर निर्धारित है वे स्त्रोत समाप्त होते जा रहे हैं। यह समाप्त करने की प्रक्रिया हम लोगों को अभिशाप सिद्ध होती जा रही है।
एक बार दृष्टिपात किया बालक की भूख भी बंद हो गयी और ऐसी भी नजर डाली जा सकती है कि भूख और खुल जाये। जितनी भूख खुलेगी उतना वह स्वास्थ्य का प्रतीक माना जाता है लेकिन ज्यादा भूख लगना भी ठीक नहीं है। ज्यादा भूख लगने से फिर राक्षसी वृत्ति होगी, वह भी रोग के अन्तर्गत आ जाता है लेकिन आज बहुत कम व्यक्ति हैं जो ऐसे हैं जिनकी पेट की भूख राक्षसी हो लेकिन यह ध्यान रखना कि मन के माध्यम से इतनी भूख बढ़ चुकी है कि पेट में रखने की गुंजाइश नहीं है लेकिन हम कहीं न कहीं रख देते हैं। तृष्णा की भूख बढ़ रही है जो पेट की भूख से अधिक खतरनाक है। आज मानव की दृष्टि इतनी विकृत हो गई है कि एकेन्द्रिय तक सूख जाती है। मानव जीव को देखकर उससे अर्थ कमाने की सोचने लगता है। यही अर्थ भरी विकृत दृष्टि सर्व स्वाहा किये दे रही है। कोई गाय, हाथी आपको देखे और नजर लग जाये और बुखार आ जाये, आपको ऐसा कभी हुआ? नहीं, वह कहते हैं आप हमसे भयभीत मत होओ, आप अभय रहिए। अपनी दृष्टि से अर्थ निकाल दीजिये और प्यार, करुणा, दया, अहिंसा, वात्सल्य को आँखों में भर लीजिये फिर देखिये इस सृष्टि का वैभव और आपका जीवन और आपका देश का जीवन खुशहाली से भर जायेगा।