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मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज
  • आदर्शों के आदर्श 13 - मर हम.... मरहम बने

       (1 review)

    .........मान का अर्थ है असावधान, लेकिन ज्ञान का अर्थ सावधान नहीं है, बल्कि ज्ञान की स्थिरता, ज्ञान की अप्रमत्त दशा का नाम सावधान है।

     

    ...........हमें अपने खोये हुए स्वभावभूत तरल अस्तित्व को प्राप्त करना है। क्योंकि उस स्वभाव का सहारा लेकर हम स्वयं पार हो सकते हैं। जो भी प्राणी स्वभाव में रमण करने वाली उन महान आत्माओं का सहारा लेंगे वह भी द्रवीभूत होकर अनंत संसार से पार हो सकते है।

     

    ...........हमारे पास क्या है? केवल छोड़ने के लिए राग-द्वेष, विषय कषायों के अलावा और कुछ भी तो नहीं है। आपको हम किन वस्तुओं को दिखा कर के खुश कर सकते है? भगवन्! आप हमारी वस्तुओं से खुश नहीं होंगे.......लेकिन उन वस्तुओं के विमोचन से अवश्य खुश होगे ।

     

    वर्षों तक धन का उपार्जन किया गया है। कीमती-कीमती वस्तुओं का संकलन किया गया है। अब संकलन के प्रति उपेक्षा का भाव उमड़ आया है। जितनी संपदा है उसकी लेकर वह अपने देश की ओर लौट रहा है। अभी तक विदेश की यात्रा की थी, अब स्वदेश की ओर जाना है, बीच में अपार जलराशि से युक्त समुद्र पड़ता है। सारी की सारी संपदा जलपोत में भर दी गई और जलपोत चल पड़ा। सभी यात्री निश्चिन्त है, कोई भी चिन्ता नहीं है, क्योंकि अब जीवन में निर्धन होने का कोई सवाल नहीं उठेगा वह आ रहा है देश की ओर। जहाज चलाने वाले जहाज चला रहे हैं और सेठ जी आनन्द के साथ बैठे हैं।

     

    तभी एक घटना घट जाती है। समुद्र में तूफान बहुत तेजी के साथ आता है। इतनी तेजी के साथ आता है कि जहाज को बीच में ही रोकने की आवश्यकता पड़ जाती है। जहाज को तुरन्त रोक दिया गया, सारी की सारी संपत्ति जहाज में भरी हुई है, जहाज का जो चालक था वह कहता है कि चिन्ता की कोई बात नहीं है। तूफान आया है चला जायेगा, और तूफान कुछ ही देर में चला गया, यात्रा पुन: चालू हो गई। कुछ ही समय बीता होगा कि एक और सूचना पुन: मिल जाती है। जहाज को जल्दी-जल्दी यहाँ से हटा लीजिए.क्या मतलब? मतलब यह है कि पाँच मिनट के उपरांत जहाज हट जाना चाहिए। मेरी समझ में नहीं आ रहा है कि आप क्या कहना चाहते है? सब कुछ अभी समझ में आ जायेगा मेरे कहने से आप जहाज को हटा लीजिए, उत्तर देने में और गड़बड़ हो जायगा। किस तरफ हटाऊँ ? तब वह कहता है कि ठहरों देखता हूँ, अभी इस ओर हटा दीजिए। पाँच मिनट के बाद इस ओर भी हटा दीजिए। हटाने के उपरान्त वह फिर कहता है कि थोड़ा और सरकाइए। इतना तो हटा दिया, हटा तो दिया लेकिन! थोड़ा सरकाना और आवश्यक है। कितना सरकाए? सिर्फ पचास कदम फिर और कहता है कि अब पच्चीस कदम और सरकाओ सरकाने के उपरान्त भी वह पहाड़ जब बिल्कुल पास आ गया तब ज्ञात हुआ। कैसा था वह पहाड़? सफेद ऐरावत हाथी के समान । इतना बड़ा पहाड़ और वह हटा क्यों नहीं? क्या कोई द्वीप है? या कोई स्थान बचा है या नीचे पाताल से कोई विद्याधर विद्या के माध्यम से ऊपर उठा रहा है या ऊपर से किसी ने कुछ फेंका है? क्या हो रहा था सब समझ में आ गया। वह यदि आकर टकरा जाता तो जहाज के कितने टुकड़े होते पता तक नहीं चलता -

     

    "तिल-तिल करें देह के खण्ड" यह तो कम से कम हो ही जाता लेकिन। जहाज के कितने टुकड़े होते, खस-खस के दाने जैसे छोटे-छोटे हो जाते, तिल के बराबर हो जाते। पता तक नहीं पड़ता क्या था, क्या नहीं था? पूछने पर ज्ञात हुआ कि यह पहाड़ है। तैरने वाले पहाड़ अलग होते है और गढ़े हुए पहाड़ अलग होते है। गढ़े हुए पहाड़ इतने खतरनाक नहीं होते जितने की तैरने वाले। और यह पहाड़ कैसे तैरते रहते है। क्या किसी ने इन्हें प्रशिक्षण दिया? जब हम तैरना सीखे थे छोटे में, तो डरते-डरते सीखे थे। २०-२५ किलो ग्राम भी वजन नहीं था शरीर का और वह कितना बड़ा जलाशय, कितना वजनदार फिर भी वह डूबता नहीं, लेकिन तैरने वालों को भी डुबोना चाहता है। यह सब किसका परिणाम है, इसमें क्या रहस्य छुपा हुआ है? तो फिर मालूम चला जो तैरने के लिए सहायता प्रदान करता है, जिसको पीकर प्राणी सुख शांति का अनुभव करता है। जो जीवन प्रदान करने में कारण है, वही जब अकड जाता है, उसे जब गुस्सा चढ जाता है,उसमे जब विकृति आ जाती है, जब ‘वह विभाव परिणमन कर जाता है, तब वही जल, जीवन प्रदान न करके मरण की ओर ले जाता है। खुद तो डूबता नहीं किन्तु दूसरों को डुबो देता है।

     

    वह क्या है? बंधुओ! तो वह जलीय तत्व की विकृति है, जो जल बहता था, बहना ही जिसका जीवन स्वभाव था और तरल होने के कारण जो भी तैरना चाहे उसमें गिर कर तैर सकता है, तैरने वाले की मदद कर सकता है, नाव की तरह

     

    भावशुभाशुभ रहित शुद्धभावनसंवरभावे।

    डॉट लगत यह नाव पड़ी मझधार पार जावे।

    (बारह भावना मंगतरायकृत)

    बारह भावना में आप लोग बोलते हैं न, यदि निर्जरा तत्व जिसके पास है और आस्त्रव तत्व नहीं है संवर तत्व आ गया है तो वह नाव अब कभी डुबेगी नहीं। नाव की शोभा पानी के अन्दर है किन्तु यदि नाव के अन्दर पानी आ जाये तो उसकी शोभा नहीं। नाव के अन्दर पानी नहीं होना चाहिए और पानी के अन्दर नाव होना ही चाहिए, तभी तो पार हो सकता है। पानी इतना खतरनाक नहीं है और जहाज में तो पानी नहीं आया था फिर इतना खतरा क्यों हुआ? नाव में पानी तो नहीं आया था यह बिल्कुल ठीक है, लेकिन पानी के परिणमन कई प्रकार के हुआ करते है और जल का ऐसा घनीभूत परिणमन हो गया कि खतरनाक साबित हो गया। बड़े-बड़े जहाजों को डुबोता ही नहीं बल्कि चूर-चूर कर देता है। रत्नाकर का माल रत्नाकर में ही जाना चाहिए, एक पाई भी किसी को नहीं मिलेगी, खाली हाथ लौटना पड़ेगा। इसको बोलते हैं बफीला पहाड़, ‘हिमखण्ड', सफेद फक्क रहता है कालेपन का एक दाग भी नहीं। आज तक हमने दागदार कई पदार्थों को देखा लेकिन बेदाग-दार यदि कोई पदार्थ है तो वह हिमखण्ड ही है। जिधर से भी आप देखिए चेहरा उभरा हुआ ही मिलेगा, देखने में बहुत सुन्दर लगता है छूने में अच्छा शीतल लगता है लेकिन यदि आकर के टकरा जाये तो फिर देखो......! जल की विकृति इस प्रकार हानिकारक हो सकती है।

     

    आत्मा का भी ऐसा ही स्वभाव है, वह जल के समान तरल मृदु और तैराक है। किन्तु जब वह राग-द्वेष के वशीभूत होकर के अपने आपके स्वभाव को भूल जाता है, तब वह ऐसा घनीभूत (कठिन) पदार्थ बन जाता है कि वह खुद भी टक्कर खा जाता हैं और दूसरों को भी टक्कर दे देता है और जब वह इस चक्कर में आ जायगा तो फिर कहना ही क्या? उसका माथा फूट जायेगा घूम जायेगा शेष कुछ भी बचने वाला नहीं है, नामोनिशान तक नहीं बचेगा। इतना खतरनाक वैभाविक परिणमन होता है जल का। संसारी प्राणी सूक्ष्मत्व गुण को खो चुका हैं और सरल स्वभाव को खो चुका है। मृदुपने को खो चुका है। ऐसी स्थिति में वह खुद भी बाधित होता है दूसरों से और दूसरों को भी बाधित करता है। यह घनापन इसके (जल के) पास क्यों आया? और पहाड़ बनकर एक स्थान पर रहता तो फिर भी ठीक था, संकेत वगैरह से कार्नर मोड़ा ले लें। लेकिन जब पहाड़ ही कार्नर लेने लग जाये तो फिर बचें कैसे हम? कब ले ले, कैसे ले ले पता तक नहीं पड़ता और दूसरी बात यह है कि वह पहाड़ कैसे आते है, पानी के अग्र-भाग पर थोड़े दिखते रहते हैं। लेकिन नीचे कहाँ तक विस्तार रहता है पता तक नहीं पड़ता।

     

    अब हमें सोचना है, कि ज्ञान जब कठोर हो जाता है तब स्वयं को और दूसरों को खतरा पैदा कर देता है, मानी प्राणी के समान किसी के समान किसी के सामने झुकता नहीं है। मान का एक अर्थ ज्ञान भी है और मान का अर्थ कषाय भी है। जिसका ज्ञान बढ़ता चला जाता है उसको बोलते है वर्धमान, लेकिन गत-मान, वो मान से रहित है और वर्धमान है। ओर हम अर्धमान भी नहीं है हमारी स्थिति बहुत गड़बड़ है। हम मान चाहते हैं, कौन-सा मान चाहते हैं। और वह भी ज्ञान वाला नहीं कषाय वाला मान चाहते हैं। यह मान ज्ञान की एक विकृति है, ज्ञान के ऊपर ही कषाय का प्रभाव पड़ता चला जा रहा है। और उसका परिणाम यह निकल रहा है कि ज्ञान अपने जानने रूप काम (स्वभाव) को छोड़कर मान/सम्मान के चक्कर में फंसता चला जा रहा है। संसार के माध्यम से उसे कभी मान मिलने वाला नहीं है, संसार के द्वारा उस मान का कभी सम्मान होने वाला नहीं है। अज्ञानी क्या जानता है मान/सम्मान करना, मान-सम्मान करना तो ज्ञानी का काम है। और अज्ञानी जो है वह अज्ञानी के द्वारा स्वागत चाहता है, ज्ञानी तो कभी भी उस अज्ञानी का स्वागत करेंगे नहीं, किंतु जो अज्ञानी होगा वह बहकाव में आ जायेगा और कर लेगा। बड़ा विचित्र है, इसकी भूख को अब कैसे मिटाए? बात मान-सम्मान करने की है, मान मिलता जाता है और अपमान हो जाता है क्योंकि जो अन्दर बैठा हुआ मान (ज्ञान) है, वह इस प्रकार का खेल-खेल जाता है। इस क्षणभंगुर मान के पीछे संसार दौड़ रहा है जिसका कोई अस्तित्व नहीं उसके पीछे दौड़ रहा है। किन्तु जहाँ पर अनंत मान (ज्ञान) स्वागत के लिए खड़ा है उसके पीछे तो वह भागता नहीं है। उसके पास तो जाता नहीं है। उसको देखने का प्रयास ही नहीं करता।

     

    यहाँ पर यदि कोई एक व्यक्ति भी निरभिमानी होकर अपने आत्म स्वरूप का चिंतन करने लग जाता है तो सिद्ध परमेष्ठियों जैसा सुख-वैभव आनंद दिखने लगता (उन जैसा संवेदन प्रारम्भ हो जाता) है। उस आत्मा के अन्दर अनंतसिद्धों जैसा झलकन प्रारम्भ हो जाता है कि मैं भी इसी रूप में जाकर के मिलूगा। उसी कम्पनी, उसी टीम (पार्टी) में जाकर के मिलूगा। जो तीन लोक में मानियों (ज्ञानियों) की सबसे बड़ी टीम है। वहाँ पर बड़े छोटे का सवाल नहीं किसी प्रकार का भेदभाव नहीं है। ऐसा अनुपम अस्तित्व इसकी (अहंकारी /मानी) दृष्टि में नहीं आता। इसी मान की वजह से ही उस हिमखण्ड का पूरा का पूरा रूप देखने में नहीं आ रहा है।

     

    संसारी प्राणी नश्वर वस्तुओं के पीछे अपने स्वभाव को भूल रहा है और यद्वा-तद्वा प्रवृत्ति कर रहा है। तब एक ने देखा इधर बैठे बैठे (क्योंकि जहाज पर बहुत सारे सदस्य रहते ही है) कहा कि यह थोड़ा भी टकरा जाता तो वर्षों की कमाई.....! और कमाई तो फिर भी ठीक है क्योंकि और कमा लेंगे लेकिन कमाने वाले का अस्तित्व भी पता नहीं पड़ेगा। ऐसा अद्भुत परिणमन ऐसी विषम स्थिति सोचकर के वह सबको कहता है -

     

    कितना! कठिन—तम पाषाण जीवन रहा हमारा

    कितने पथिक-जन ठोकर खा गए इससे

    रुक गये/ गिर गये/फिर गये कितने?

    फिर !

    कितने! पग लहु-लुहान हो गये

    कितने? गहरे-घावदार बन गये

    समुचित उपचार कहाँ हुआ उनका ?

    होता भी कैसे? पापी-पाषाण से

    उपचार का विचार-भर उभरा इसमें आज!

    यह भी सुभगता का संकेत है

    इसके आगे पग बढ़ना संभव नहीं

    हे! प्रभो! यही प्रार्थना है, पतित-पापी की

    कि

    इस जीवन में नहीं सही

    अगली पर्याय में तो ....!

    मर.....हम.....मरहम बनें....!

    हे प्रभु यह प्रार्थना स्वीकार हो, कितना कठोरतम जीवन है हमारा क्षणभंगुर मान-सम्मान के लिए हमने अपने आपके जीवन को इतना कठोर बना दिया और यह एक जीवन में नहीं......दो जीवन में नहीं.बार-बार कई जीवन में! धिक्कार है संसार के मान के लिए। आज तक एक बार भी तो मान नहीं मिला और मिला हुआ जो स्वभावभूत ज्ञान मान है वह भी चौपट होता चला गया। निगोदिया जीवों में अक्षर के अनन्तवें भाग भी उस मान की (ज्ञान की) परणति हो जाती है। लेकिन जैसे-जैसे कषाय की कमी होती है तब हल्का होकर ऊपर उठता जाता है।..तो यह संसारी जीव निगोद तल से ऊपर उठता-उठता यहाँ तक आया है जैसा कि यह बर्फ का पाषाणखण्ड समुद्र में से तैरता-तैरता उठता-उठता यहाँ तक आया है और अब उस हिमखण्ड को ऊपर उठने में सहायक जल नहीं अब आकाश मण्डल है.केवल विकास। पतन से विकास होता-होता आया है। मनुष्य जीवन में आने के उपरान्त भी वह सारी की सारी पर्याय उस हिमखण्ड की भांति नीचे-नीचे दबा रखी है। ऊपर देखता हुआ मान-सम्मान के लिए आ रहा है। मुझे वह मान-सम्मान देता है तो ठीक है, नहीं तो ऐसा टक्कर मारूंगा. ऐसा टक्कर मारूंगा कि कुछ मत पूछो। क्योंकि मुझे उस जहाज को पाताल भेजना है। और स्वयं भी इस पर्याय हिमखण्ड की पर्याय को समाप्त कर जल में घुल मिलकर एकमेक होकर रहना है, उसी में घुल मिल जाना है। और अपने खोए हुए स्वभावभूत तरल अस्तित्व को प्राप्त करना है क्योंकि उस स्वभाव का सहारा लेकर हम स्वयं पार हो सकते है और जो कोई भी सहारा लेना वह भी द्रवीभूत होकर अनंत संसार से पार हो सकते हैं। यह तो हिमखण्ड ने सोचा, लेकिन आपने क्या सोचा? कितना कठिनतम है पाषाण जीवन तुम्हारा कितने पथिक ठोकर खा गए इससे, कितने गिरे, कितने रुके, कितने फिर गए पथ से, विपरीत दिशा में, कितने पग लहुलुहान हो गए और कितने गहरे हो गए घावदार वे पग, उपचार हुआ नहीं, न स्वयं का और न दूसरों का। उपचार करने के भाव आए आज तक? अब कुछ-कुछ भाव उभर रहे हैं,मृदुतामय सहानुभूति का सूत्रपात हो रहा है। यह भी सौभाग्य की बात है। फिर भी हे! भगवन्! एक बार तो अर्जी (प्रार्थना) मंजूर करो, इस जीवन में नहीं सही अगली पर्याय में तो मर-हम, मरहम बने।

     

    (श्रोता समुदाय में शांत संवेदनामय वातावरण)

    अब कम से कम अपने को मरहम बनना है, पारस मल्हम। एक पारस मल्हम है न, पैरों में यदि कोई छाले आए, चोट लगे और कुछ भी हो तो पारस मल्हम लगाते हैं। यह मल्हम शायद नीमच से निकलता है। लाल-लाल रहती है यह मल्हम, इसकी डिबिया भी बहुत ही बढ़िया रहती है। एडवरटाइजमेन्ट (विज्ञापन) तो कहना ही क्या, उस मल्हम का उपयोग दुनिया भर की चोटों को दूर करने में किया जा रहा है। लेकिन हम कषायों के माध्यम से कितने व्यक्तियों के पैरों में, कितने व्यक्तियों के मुलायम हृदयों में चोट पहुँचा देते है। कितना कष्ट कितनी वेदना.वो दिल ही जानते होंगे। वह दिल कहते हैं कि आपकी मरहम भी नहीं चाहिए हमें, किन्तु कम से कम मेरे ऊपर लट्टमार न करे तो बहुत अच्छा होगा।

     

    कैसा जीवन बना है हमारा। इतना कठोर हिमखण्ड के समान। और यह मत समझी, जो कहने वाला है और आगे कहेगा यह खुद भी उसी ग्रुप (पार्टी) का है इस प्रकार की हमारी स्थिति को देखकर के आचार्य महाराज कहते हैं कि अरे! संसारी प्राणी तू मान के पीछे क्यों पड़ा हुआ है? क्यों इतना कठोर अहंकारी बना हुआ है, पानी के स्वभाव को तो देखो कितना तरल है मुलायम हैं एवं सभी के लिए हितकारी है और वह सेठ उस हिमखण्ड को संबोधित करते हुए कहता है

     

    हे मानी प्राणी

    जरा देख ले

    इस पानी को

    और

    हो जा पानी......पानी....[मूकमाटी से.]

    लेकिन यह सब आज तो कथन तक ही सीमित रह गया है। हम मृदुता की बात करते हैं, हम ऋजुता की बात करते हैं, हम निरभिमानिता की बात करते हैं लेकिन बीच-बीच में वह टोकता रहता है कि देखो मुझे ज्यादा नीचे पीछे हटा दिया गया तो हम हड़ताल कर देंगे और ऐसे-ऐसे वो हड़ताल कर जाते हैं कि सामने वाले व्यक्ति का जीवन बहुत ही ऊँचा उठ गया हो तो भी पुन: वह एक बार और नीचे आ जाता है। उस उत्साह की बात, कुछ विशुद्धि के साथ परिणामों में उज्ज्वला पाकर के ऊपर पहुँच भी जाते हैं। लेकिन वह ऊपर की पहुँच जो है लहरों के साथ गई है और लहरों के ऊपर जिस समय नाव पहुँचती है उस समय ऐसा लगता है नाव तैर नहीं रही नाव उठ रहीं है। लेकिन नाव में उठने की क्षमता अपने आप नहीं आई। किन्तु लहरों के माध्यम से आई है, उसी प्रकार कर्म भी कभी-कभी उपशमित जैसा मंद/क्षीण जैसा हो जाता है। मान जब कुछ दबने जैसा हो जाता है तो ऐसे लगने लगता है कि हम तो बिल्कुल निरमिभानी हो गए, वर्धमान के पास पहुँच ही रहे है। लेकिन ज्योंही वह लहर नीचे आ जाती है तो लगने लगता है हम तो जमीन पर ही खड़े हैं।

     

    वे आसमान में हैं क्योंकि वे वर्धमान हैं, नीचे रहने का उनका काम नहीं है और उनके स्वागत के लिए हमें यहीं पर खड़ा रहना होगा। कभी भी आकर हम उनका स्वागत मान/सम्मान नहीं कर सकते। पहले से प्रतीक्षा करना पड़ेगी/हमें उन्हें यूं ही (ऊपर की ओर गर्दन मोड़कर इशारा) देखना पड़ता है और गर्दन के पास इतनी क्षमता कहाँ है कि उनको यूं ही देखते रह जाए। बार-बार मन में विचार उठता रहता है कि ऐसा कौन-सा अपराध इस संसारी प्राणी ने किया है और क्षण-क्षण / पल-पल करता जा रहा है। अपने स्वभाव को भूलकर विभाव परिणमन से परिणत हो रहा है। एक बार तो.इस जीवन में नहीं सही, लेकिन. मर. हम.बस मरहम बनें........!

     

    ऐसे मुलायम बन जाये ताकि कठोरता हमारे पास आए ही नहीं। लेकिन बात ऐसी है कि जिह्वा/रसना कह रही है उसके पास न आँख है, न दाँत है, न हड़ी है और कुछ भी नहीं है, यह मुड़ती रहती है बार-बार। रसना बहुत ही मुलायम मृदु है, लेकिन शब्द ऐसे निकालती है कि अच्छे-अच्छों के दाँत टूट जाए। रसना के ऊपर वह हलुआ खिसक जाता है इतनी मुलायम होती है वह, रसना के ऊपर आज तक किसी ने ठोकर नहीं खाई किन्तु रसना के माध्यम से (वचनों के द्वारा) ऐसे-ऐसे व्यक्ति ठोकर खा जाते हैं कि फिर जीवन पर्यत उस मुंदी चोट का अनुभव करते रहते हैं। उस चोट के दर्द को सहन करते रहते हैं। ऐसी इसके पास शक्ति है यह शक्ति कहाँ से आ गई? यह सब भावों की परणति है, अन्दर बैठी हुई उस आत्मा की विकारी परणति है।

     

    मान को अपने को जीतना है। वह मान प्रतिपल बंध को प्राप्त हो रहा है और होता रहेगा नवमें गुणस्थान तक। थोड़ी-सी स्थिरता बिगड़ जायेगी तो ऐसी-ऐसी मान की कठोर चट्टानें सामने आ जायेगी कि उनसे गुजरना दूभर हो जायगा। भगवान् महावीर जिन्हें केवलज्ञान प्राप्त हो चुका है, समवसरण की रचना हो चुकी है, चारों ओर बुंदुभि बज रही हैं, पंचाश्चर्य हो रहे हैं, सब कुछ हो रहा है। असंख्यात देव तिर्यञ्च सभी आ रहे हैं समवसरण में आत्म कल्याण करने। किंतु प्रभु मौन है कोई जान नहीं पा रहा है किसकी कमी है यहाँ पर? सब चिन्ताग्रस्त थे। इन्द्र को यह बात अवधिज्ञान के माध्यम से ज्ञात हुई कि एक ऐसे शिष्य की कमी है जो कि उनकी उस दिव्य वाणी को सुन सके, समझ सके। वह कौन है शिष्य? इन्द्र समझ गया इन्द्रभूति होना चाहिए, किंतु इन्द्रभूति की गर्दन में साईटिका हो चुकी है. इसलिए वह मुड़ती ही नहीं। वह ऐसी बैल के सींग के समान जबरदस्त है कि मेरे सामने कोई है ही नहीं। नो (NO) कोई नहीं, आइ एम ओनली (I am Only) केवल मैं ही हूँ। वह भी है. ऊं हूँ, दूसरा संभव ही नहीं। हो कैसे सकता है? मेरे सामने.नहीं। पीछे संभव है, नीचे संभव है। आजू-बाजू संभव है लेकिन सामने.ऊं हूँ। अब इन दोनों का मेल कैसे हो, कौन मुड़े? वह भी (महावीर) ऊपर अड़ गए कि हम नीचे नहीं उतरेंगे और यह (इन्द्रभूति) कहते हम नहीं जायेंगे किसी के पास।

     

    वा भैय्या......वा, वो भी मान का तमाशा और यह भी मान का तमाशा । वो भी (इन्द्रभूति) मानी है, और यह भी (महावीर) मानी (ज्ञानी) है। दुनियाँ कह रहीं है कि भैय्या एक तो मानलो। इन्द्र समस्या में उलझा हुआ है कि किसके पास जाए। वर्धमान कुछ कह नहीं सकते और यह इन्द्रभूति महावीर के पास जा नहीं सकते। कुछ न कुछ तो उपाय करना ही होगा, ऐसा विचारकर इन्द्र ने माया की शरण में जाना ही उचित समझा। और इन्द्र ने अपना रूप बदलकर वृद्ध ब्राह्मण का भेष बनाकर इन्द्रभूति के सामने विनम्रता पूर्वक एक प्रश्न रख दिया। और कहा कि इसका अर्थ क्या है? समझाओ! इन्द्रभूति पूछने लगा तुम कहाँ से आए हो? यह प्रश्न किसने दिया? वह (वृद्ध ब्राह्मण) कहने लगा कि हम तो वहाँ से (महावीर के पास से) आए हैं। अर्थ हमें समझ में नहीं आया है, आपके अलावा यहाँ पर इतना ज्ञानी कौन हैं? इसलिए यह प्रश्न मैंने आपके सामने रख दिया। आपके गुरु कौन हैं? महाराज वो वहाँ पर हैं। जल्दी बताओ कहाँ पर हैं? उन्हीं को तो देखना हैं। अपने को क्या करना हैं, प्रश्न तो ऐसे यद्वा तद्वा उठते ही रहते हैं, आपको जो कठिनाई आ रही है, उसको वही पर चलकर हल करेंगे और आपके गुरु से भी वही पर मुलाकात हो जायेगी। आजकल तो बहुत सारे गुरु बन रहे हैं, ये नये नये कहाँ से आ गये गुरु.होगा कोई इन्द्रजालियाँ, ऊपर चढ़कर सिंहासन पर और तमाशा दिखा रहा है। बैठ गया भोली भाली जनता को ठगने का अच्छा तरीका अपना रक्खा है। चलो तुम मेरे साथ अभी पाँच मिनट में ठीक कर दूँगा तुम्हारे गुरु को और ज्योंहि समवसरण के पास जाकर मानस्तम्भ को देखता है त्योंहि पानी-पानी हो जाता है। भीतरी ज्ञान जो मान रूपी रथ पर आरूढ़ था वह नीचे उतर गया। ऐसा उतर गया......ऐसा उतर गया कि 'बस तर ही गया।'

     

    आप अकेला अवतरे मरे अकेला होय।

    यूँ कबहूं इस जीव को साथी सगा न कोय।

    (भूधरदासकृत बारह भावना)

    इस जीव को अकेला ही जन्म लेना पड़ता है और अकेले ही मरण करना पड़ता है। इस संसार मैं अपनी आत्मा के अलावा सगा-सच्चा साथी इस जीव का कोई नहीं है। वह इंद्रभूति भगवान् महावीर का दर्शन करता हुआ कहता है कि अभी तक कितना कठिनतम पाषाण जीवन रहा हमारा.......;किन्तु अब पाषाण खण्ड, पाषाण खण्ड ही नहीं रहा अब तो इसमे बहुत कुछ रौनक आ गई, पाषाण भी बहुत मुलायम होते हैं। अरे भैय्या पाषाण को भी यदि किसी अच्छी वस्तु का पुट मिल जाये तो उसमें भी निखार आ जाता है। एक से बढ़कर एक पहलू पाषाण में निकाले जाते हैं। मूंगा,नीलम, कोहिनूर आदिक क्या हैं? पाषाण ही तो हैं। मात्र पाषाण खण्ड के ऊपर ही नहीं कठोर से कठोरतम, मानी से मानी जीवों में भी कई पहलू (सुन्दरता का निखार) निकाले जा सकते हैं। उन पहलुओं में भी दर्पण के समान अपने मुख को देख सकते हैं। लेकिन कठोरता को हटाकर उसमें मुलायमपना, सुन्दरता लाने की विधि अलग है। बड़ा परिश्रम करना पड़ता है उसे कीमती बनाने में।

     

    मान में परिणत हुआ ज्ञान वहाँ जाकर के नतमस्तक हुआ और जो मैंने पहले कहा था कि ज्ञानावरण पाँच कर्म होते हैं, आठ नहीं होते, मिथ्यात्व के कारण ही तीनों मति, श्रुत, अवधि ज्ञानों में विपरीतता आती है, अत: ज्ञानावरण कर्म के मूल भेद पाँच ही है आठ नहीं जो ज्ञान उनका (इन्द्रभूति का) उल्टा था वह पलट गया, सही-सही समीचीन हो गया। यह दृश्य सब देखते रह गए और वह इन्द्रभूमि चन्द ही मिनटों में दीक्षित होकर भगवान् का प्रथम शिष्य बन गया। क्या महावीर ने बनाया? यदि महावीर ने बनाया होता तो ६६ दिन रुकते नहीं पहले ही बना लेते। लेकिन महावीर को बनाना नहीं था इंद्रभूति को बनना था। जब उसकी आँखें खुले तब काम बने। आप ऑख बंद करके बैठो और कहो कि सूर्य का उदय हुआ कि नहीं कुछ दिखता तो नहीं।......तो भैय्या क्या आँख के भीतर ही आ जाये सूर्य? (श्रोता समुदाय में हँसी), बन्धुओ! जरा सोचो तो वह कैसे आयेगा? आपको जागृत होकर उठना पड़ेगा, उस उपादेय तत्व की प्राप्ति हेतु पहले से प्रतीक्षा करनी पड़ेगी। वस्तु तत्व की इतनी ही मर्यादा है वह अपनी मर्यादा का उल्लंघन नहीं कर सकता-एक बार एक मुहावरा पढ़ा था, 'तिल की ओट में पहाड़' क्या मतलब हुआ। इसका? तिल तो इतना छोटा है और पहाड़ इतना बड़ा। तिल की ओट में पहाड़ यह कुछ समझ में नहीं आया।

     

    पहाड़ की ओट में तिल कहते तो फिर भी ठीक था। लेकिन यह कैसे? मुहावरा बनाते समय उसका ज्ञान विपरीत तो नहीं हो गया था। लेकिन यह बात सही है कि तिल की ओट में ही पहाड़ होता है। हम यदि आँखों के सामने जहाँ पर काली-काली गोलक बनी रहती है एक छोटा-सा तिल रख लें तो सामने वाला सारा का सारा पहाड़ समाप्त हो जाता है। मधुवन जैसा विशाल पहाड़, पाश्र्वनाथ हिल जो कि लगभग आठ हजार फीट वाला है, वह भी नहीं दिखेगा। मतलब यह हुआ कि हम आँखें खोले तो दिखे वस्तु तत्व।

     

    वस्तु तत्व बहुत बड़ा है, विशाल है लेकिन हम सब गड़बड़ कर देते हैं कषायों के वशीभूत होकर। केवलज्ञान होने में कोई देर नहीं लगती यदि कषायों से दूर हटकर हम अपने उपयोग को अपनी आत्मा में लगाए तो खटाक से केवलज्ञान हो सकता है। कषायों को तो रखें हम अपने पास और निष्कषाय की बात करें। यह बात शोभा नहीं देती। दिनों-दिन ऐसा होता जा रहा है ऐसी धारणा बनती जा रही है। अब बोलने-लिखने का कार्य बिल्कुल कम होना चाहिए। कुछ ऐसी दुकानें होती हैं जहाँ पर दुकानदार बहुत बोलते हैं कुछ दुकानें ऐसी होती हैं जहाँ बोलने के लिए कुछ होता ही नहीं।

     

    विदेशों में दुकानों में सारी की सारी वस्तुएं रखी रहती हैं उन पर मूल्य लिखा रहता है। ग्राहक दुकान पर आता है और बिना बातचीत किए पैसा रखता और वस्तु लेकर चला जाता है। यह विदेशी पद्धति है। इसी प्रकार अब हमें करना है, ज्यादा बोलने से कीमत बढ़ने वाली तो है नहीं। ज्यादा कीमत बता करके नीचे आने से वस्तु तत्व का मूल्य और कम हो जाता है किन्तु इस प्रकार की आप लोगों को आदत ही पड़ चुकी है।

     

    दुकान पर ग्राहक के आते ही दुकानदार समझ जाता है कि ग्राहक किस प्रकार का है और ग्राहक भी दुकानदार को समझता है। अब-देखिये आप-ग्राहक दुकानदार से कहता है एक धोती का जोड़ा निकाल दो इस-इस (कोई भी नाम) डिजायन की, अच्छी क्वालिटी वाली। ग्राहक पूछता है, सेठ जी इसके दाम कितने हैं? आजकल तो क्या बतायें बाजार का हाल, सबमें दसगुणा होता जा रहा है। जिस प्रकार वस्तुतत्व में दस गुणी वृद्धि और दस गुणी हानि हुआ करती है, उसी प्रकार बाजार के भाव दस-दस गुणें, सौ-सौ गुणें, हजार-हजार गुणें, बढ़ते जा रहे हैं। इसलिए भैय्या सही-सही मैं कह देता हूँकि सौ रुपए जोड़ा कीमत है। ग्राहक कहता है क्या कहा सौ रुपए जोड़ा? कहीं सोकर के तो नहीं आ रहे हो। जल्दी में सौ रुपए जोड़ा कहने लगे, जैसे घर का ही काम हो चाहे जितना मूल्य रखते जाओ। घर का ही काम समझ रक्खा है व्यापारियों ने, ऐसा झुंझलाते हुए उस ग्राहक ने कहा ।

     

    पुन: वह कहता है कि सेठ जी यदि आपके धोती के जोड़े की कीमत १०० रुपए बढ़ गयी तो हमारे दाम की भी कीमत नहीं बढ़ी होगी क्या? ध्यान रखो १०० रुपए कीमत कह रहें हो कहीं नींद तो नहीं लगी है, सपने में तो नहीं कह रहे हो? हम तो १० देते हैं, एक ही तो शून्य कम हुआ है, देना हो तो दे दो नहीं तो कोई दूसरी दुकान तलाशते हैं। दुकानदार भी ग्राहक की जेब में हरे-हरे नोटों का बंडल देखता है तो ललचा जाता है। ग्राहक जब दुकान से उठकर चलने लगता है तो फिर सेठ जी कहते है.......ये ना पचास दे दी, पचास रुपये! एकदम इतने कम, क्या भाव उतर गया बाजार का? माल तो वो ही है। अरे भैय्या आप समझते तो है नहीं......भाव नहीं उतरा। .अभी-अभी फोन आया है कि पचास रुपये में दे सकते हो किन्तु पचास से कम नहीं करना। ग्राहक कहता है......ऐसा करो मैं दस मिनट और बैठ जाता हूँ ताकि दूसरा फोन और आ जाये तो अच्छा रहेगा (श्रोता समुदाय में हँसी) ज्यादा से ज्यादा हम बारह रुपये देते हैं, कोई बात नहीं २५ कर लो, नहीं-नहीं। साढ़े बारह भी नहीं। पन्द्रह कर लो चलो कोई बात नहीं। चौदह कहने लग जाते हैं, कोई बात नहीं भैय्या १३ दे दो, लो ले जाओ, अच्छी बात है कहता हुआ ग्राहक १३ रुपये में खरीद लेता है (व्यापारियों में विशेष हँसी)। इसका मतलब क्या हुआ? तो ऐसा करने से वस्तुतत्व का मूल्य घट जाता है। १०० रुपये में कह करके १३ रुपये में बेचने की अपेक्षा, पहले ही १३ रुपये कह दो और ग्राहक को सचेत कर दो कि इसमें एक पैसे का भी फेरबदल नहीं होगा। कृपा कर आप मेरी दुकान पर पाँच मिनट से ज्यादा न बैठे, खरीदना हो तो ठीक-नहीं तो ठीक। भाव एक ही रहेगा ध्यान रखना।

     

    इस प्रकार करने से न तो नौकरों की आवश्यकता न समय व्यर्थ खर्च होगा, न ग्राहकों से विसंवाद और न ही इनकमटेक्स ऑफिसर का डर। वह इनकमटेक्स वाला ऑफिसर आयेगा कहेगा कम से कम चाय तो पिला दो, क्यों चाय पिला दो! सीधे नाक की सीध में चले जाओ वहाँ पर होटल है (श्रोता समुदाय में हँसी) लेकिन ऐसा वही व्यक्ति कह सकता है जो ईमानदारी के साथ व्यापार करता है। जो व्यक्ति सौ के दो सौ लेता है उस व्यक्ति के लिये ही चाय पिलाने की आवश्यकता पड़ेगी चाय पीने का मैं विधान नहीं कर रहा, वह तो छोड़नी ही चाहिये किन्तु आप लोगों की आदत बता रहा हूँ वही ऑफिसरों के आगे पीछे घूमा करता है। यहाँ पर तो सारा का सारा विषय कषायों का ही बाजार है।

     

    जैसे वस्तुतत्व का एक ही भाव हुआ करता है वैसे ही आप भी अपनी वस्तु का एक ही भाव रखिये। ज्ञान को आप ज्ञान के रूप में ही आँकिए। ज्ञान के द्वारा खोटा काम करना गलत है। उपयोग का उपयोग करिए आप। किन्तु आप लोगों की यह विशेषता है कि आप लोग उपयोग (ज्ञान-दर्शन) का दुरुपयोग करते हैं। इसी में सुख शांति का अनुभव करते हैं। संसारी प्राणी का यह रिकार्ड है कि आज तक यह उपयोग का दुरुपयोग ही करता आया है। किन्तु जिसने अपने अस्तित्व की सही-सही पहचान कर ली, वह फिर तीन काल में भी उपयोग का दुरुपयोग नहीं कर सकता।

     

    नित्यावस्थितान्यरूपाणि

    द्रव्य नित्य है अवस्थित है उसके गुण नित्य हैं अवस्थित हैं। जितने गुण थे, उतने ही हैं, और आगामी काल में भी रहेंगे। उनमें किसी प्रकार का घटन-बढ़न, फेरबदल सम्भव नहीं। जब यह लक्षण बाँध दिया गया तो उसका दुरुपयोग करना, वस्तुतत्त्व को मनचाहा परिणमाने का प्रयास करना अहंकार का एक रूप है और यही तो कषाय है। वस्तुतत्व की सही-सही परख और उसका सदुपयोग करने वाला ही ज्ञानी होता है। इससे हटकर पक्षपात के वशीभूत होकर विषय कषायों की पुष्टि के लिए जो वस्तुतत्व का विवेचन-व्याख्यान होता है वह समीचीन नहीं माना जाता, असमीचीन रहता है, महान अज्ञानता मानी जाती है।

     

    हमें मान करना है, लेकिन किसके ऊपर? मान करो तो ऐसा करो कि दूसरे की तरफ देखो ही नहीं.....है कोई ऐसा मान करने वाला इस सभा में? आप दूसरे के द्वारा वाह-वाह चाहते हैं लेकिन किसी दूसरे का सम्मान करना नहीं चाहते......तो अर्थ यह हुआ कि न ही इसको मान मिलेगा और न ही केवलज्ञान मिलेगा। यदि केवलज्ञान चाहते हैं तो दूसरे को भूल जाओ, दूसरे को भूलना ही तो एक प्रकार से उसको नहीं मानना है। एक का तिरस्कार करना और एक को आवश्यक नहीं समझना इसमें बहुत अन्तर है। यदि दूसरों से आदर, सत्कार, नमस्कार चाहते हो तो दूसरों का तिरस्कार मत करिए। यदि ज्ञान स्थिर हो जाये, उपयोग का परिणमन सहज स्वरूप जैसा होने लगे तो केवलज्ञान प्राप्त होने में देरी नहीं, एक सेकेंड भी नहीं लगेगा और वह अक्षय अनन्त अविनाशी केवलज्ञान खटाक से उत्पन्न हो जायगा।

     

    ज्ञान यदि पदार्थों की ओर जा रहा है, पदार्थों से प्रभावित हो रहा है तो गलत काम कर रहा है। ज्ञान जब पदार्थों की और नहीं जायेगा तो जितने पदार्थ है वे सारे के सारे ज्ञान में झलक आएंगे। इसी का नाम है केवलज्ञान। पदार्थों का ज्ञान झलक आना खतरनाक नहीं है, किन्तु सही खतरा तो उद्यमशील ज्ञान में है जो कि विश्व को जानने में लगा हुआ है। जो विश्व को जानने का प्रयास करेगा वह कभी भी सर्वज्ञ बन नहीं सकता किन्तु जो स्वयं को जानने का प्रयास करेगा वह स्वयं को तो जान ही जायेगा, साथ-साथ सर्वज्ञ (केवलज्ञानी) भी बन जायेगा। लेकिन इतना माध्यस्थ होना, इतना अपनी वस्तु को महत्व देना खेल नहीं है। बहुत बड़ा काम है, बहुत अधिक पुरुषार्थ की जरूरत है। बल्कि यह कहना चाहिए कि यही एक शेष काम बचा है करने योग्य। बाकी सब काम अनन्तों बार कर चुके, लेकिन प्रयोजनभूत तत्व की उपलब्धि आज तक नहीं हुई। अब या तो आप दुनिया को समता की दृष्टि से देखिए ही नहीं। कोई भी बड़ा छोटा नहीं है सब एक समान है यदि इस प्रकार समता आ जाती है आपके जीवन में......तो आपकी यह बलिहारी है। यदि विश्व को देखकर पर पदार्थों को देखकर समता नहीं आती है तो क्यों किसी की ओर जाते हो? अपने आप में बैठे रहिए न, क्या बात हो गई।

     

    दो व्यक्ति थे, एक सेठ साहूकार था दूसरा गरीब। अमीर ने गरीब को दबाने का प्रयास किया तो गरीब कहता है हाथ जोड़कर भैय्या! सेठ जी आप अपने घर में होंगे, हम अपनी कुटिया में सेठ। जब हम आपके घर पर कुछ माँगने आए तो अपना सेठपना दिखाना। यह तो गवर्नमेंट का रोड है ध्यान रखना। यह सब अभिमान अपने घर में करिए। मान करना सबसे ज्यादा प्रिय काम है संसारी प्राणी का। एक स्थान पर ऑग्ल कवि ने लिखा है उसका भाव में आप लोगों को बता रहा हूँ कि यह व्यक्ति अपना जन्म स्थान छोड़ सकता है, अपने परिवार को छोड़ सकता है, अपनी मित्र मंडली को छोड़ सकता है, अपनी संपत्ति आदि सब कुछ छोड़ सकता है। विषय-कषाय, ऐश-आराम सब कुछ छोड़ सकता है, शरीर के प्रति निरीह भी हो सकता है। लेकिन इसके उपरान्त एक खतरनाक घाटी और आती है उस साधक के जीवन में, उस घाटी में प्राय: करके ब्रेक डाऊन हो जाती है (ब्रेक फेल हो जाती है) वह घाटी क्या है?

     

    "Going behind reputation is the last weakness of Saint."

    ख्याति-पूजा के पीछे भागना यह साधक की अंतिम कमजोरी है। इस कमजोरी के उपरान्त शेष कोई कमजोरी है ही नहीं। साधक लोग सबसे ज्यादा इसी घाटी में फेल हो जाते हैं। सब घाटियों को पार करने के उपरान्त इस महाघाटी को भी सावधानी पूर्वक पार करना ही साधक का सच्चा पुरुषार्थ माना जाता है। एक बार यदि इस घाटी में पैर फिसल जाता है तो पुन: उठना बहुत मुश्किल है। अत: समय रहते हुए सचेत हो जाओ बन्धुओ! और इस घाटी से मुख मोड़कर अपनी ओर आ जाओ। साधक आत्माओं की साधना तो अलग ही प्रकार की रहती है। कैसी रहती है - 

     

    निंदा करें स्तुति करें तलवार मारे 

    या आरती मणिमयी सहसा उतारें।

    साधु तथापि मन में समभाव धारें,

    बैरी सहोदर जिन्हें इकसार सारे।

    निजानुभवशतक/७४

    यह साम्य पारिणाम। कोई निंदा करे, कोई स्तुति करे, कोई आरती उतारे, कोई मारे कुछ भी हो श्मशान हो, भवन हो या वन हो, कोई मतलब नहीं जिसको हमने छोड़ा है, पर जान करके, पर मान करके फिर यदि उसकी ओर हमारी दृष्टि जाती है तो उस दृष्टि में अभी वीतरागता की ओर कसर है। यदि यह कसर, यह कमी दृष्टि से नहीं निकली तो समझो कुछ निकला ही नहीं। सही तो दृष्टि में ही कचरा है। जब दृष्टि विलोम हो जाती है, तो वह वस्तुस्थिति की सही-सही पहचान न कर उसे अयथार्थ रूप से (कुछ का कुछ) ग्रहण करने लगती है। जब एक बार धारणा बन गई तो वह गुम क्यों हो गई? कमजोर धारणा हमेशा खतरनाक मानी जाती है। सही तो दूष्टि की ही दूढ़ता होती है और दृष्टि की दृढ़ता से ही आचरण में दूढ़ता आती है। यह एकांत भी नहीं है क्योंकि यदि दृष्टि में चंचलता है तो वह नियम से जल्दी-जल्दी चल नहीं सकता। उसके चलने में हमेशा अस्थिरता ही रहेगी।

     

    गाड़ी की तेजगति प्रदान करते समय दृष्टि की निस्पंदता परम अनिवार्य है। इसलिए चश्मा वगैरह (या और कोई वस्तु) लगा लेते हैं जिससे पलक वगैरह भी न झपकाना पड़े। ८० किलोमीटर की रफ्तार से गाड़ी जा रही है किन्तु असावधानी पूर्वक एक पलक भी झपक जाये तो एकाध दो फलाँग गाड़ी यूं ही चली जाती है और एक्सीडेंट हो जाता है। सावधानी पूर्वक दृढ़तापूर्वक रहकर जीवन की गति में रफ्तार देना बहुत कठिन है। जब वस्तुतत्व ही इतनी तेज रफ्तार से घूम रहा है और यदि हम पलक मारकर प्रमादी बन कर दूसरों की तरफ देखने लगें तो कितने पीछे रह जायेगें? ज्ञात भी नहीं रहेगा कि हम किस बिन्दु पर खड़े थे। आप लोग दुकान में मापतौल करते हैं तो कैसे करते हैं, एक.....एक एक दो, दो.....दो दो तीन, ऐसा क्यों करते हैं? इसलिए करते हैं कि कहीं भूल न हो जाए। लेकिन आप लोग चालाकी क्या करते हैं? यदि सामने वाला थोड़ा इधर......उधर देख रहा है तो गिनती करते हैं। एक......एक एक दो, दो......दो चार (श्रोता समुदाय में हंसी) यह भी हो सकता है आप वस्तुतत्व को देखना चाहते हों। ज्ञान कहीं अन्य लोगों (पदार्थों) की ओर चला जायेगा तो क्या होगा? बंधुओ! मुनाफा होगा......नहीं, मुनाफा नहीं होगा।

     

    इसी प्रकार ज्ञान को हम यदि क्रोध की ओर, मान की ओर, माया की ओर, लोभ की ओर ले जायेंगे तो हानि ही हानि होगी, ज्ञान को तो अपनी आत्मा में ही केन्द्रित करना चाहिए। आत्मा की ओर आते ही ज्ञान का उपयोग केवलज्ञान प्राप्त कराता है, मान से रहित अनन्त मान (ज्ञान) प्राप्त कराता है। सावधान रहने की बड़ी जरूरत है, मानी व्यक्ति कभी सावधान हो नहीं सकता, मान का अर्थ तो है असावधान, लेकिन यह नहीं समझना चाहिए कि ज्ञान का अर्थ भी सावधान नहीं है। ज्ञान की स्थिरता ज्ञान की अप्रमत्त दशा का नाम है सावधान। एक शब्द अवधान भी है, अवधान का अर्थ ज्ञान की धारणा ज्ञान की सामथ्र्य। ज्ञान की एक प्रकार से जाग्रति। मात्र ज्ञान तो सोया हुआ ही रहता है और निगोदिया जीव भी कितना सोया हुआ रहता है? बहुत सोया हुआ रहता है। बहुत सो गया (सोता तो नहीं) उसके पास अवधान शक्ति नहीं है। यदि आप ज्ञान को जागृत रखोगे तो आपके ज्ञान की मात्रा का अवधान बढ़ता चला जायेगा और जितने-जितने आपके ज्ञान के अवधान की मात्रा बढ़ती चली जायेगी, उतने-उतने आप केवलज्ञान के निकट पहुँचते जाओगे।

     

    एक बार एक लेख पढ़ा था, कोई पचास अवधानी होता है कोई शतावधानी होता है। इसका मतलब क्या? मतलब यह है कि ज्ञान की स्थिरता मालूम पड़ती है। और ज्ञान की स्थिरता यह बात कह रही है कि इसके अवधान अर्थात् धारण करने की इतनी क्षमता है। जब तेज रफ्तार से गाड़ी जाती है उस समय उस पटरी में हलचल मच जाती है। आप लोगों की भी ज्ञान की ऐसी ही पटरी है कि दो किलोमीटर गाड़ी चलती नहीं और फैल हो जाती है। आजकल तो चार सौ-चार सौ किलोमीटर की रफ्तार से गाड़ी चलती है। पटरी कितनी मजबूत होगी, आजू-बाजू के स्थान कितने मजबूत होंगे। विश्वास के साथ इतना सारा माल भरकर सेठ-साहूकार बैठ जाते हैं यात्रा करते हैं। कितना विश्वास! कितनी धारणा!! कितनी मजबूती!!! लेकिन आप लोगों के अवधान क्या बतायें हम? एक अवधान भी सही-सही नहीं और शतावधान की बात करते हैं। जरा विचार तो करो ! हमारा ज्ञान शतावधान कैसे बनेगा? इधर-उधर की चंचलता रहती है। 

     

    मान की वजह से ही ज्ञान का मूल्य कम होता जा रहा है। मान की वजह से ही हमारा ध्रुव (लक्ष्य) बिल्कुल खिसकता चला जा रहा है, मान की वजह से ही हमारा पतन हो रहा है एवं हम दूसरों की दृष्टि में कठोर बने हुए हैं। यदि आप मृदुता रूप मार्दव धर्म का आनन्द (अनुभव) चाहते हो तो मान का अवसान अनिवार्य है। इसी विषय से संबंधित एक कविता दे रहा हूँ जिसमें भाव यह है कि भगवान् के पास पहुँचने में, अपनी आत्मा के पास पहुंचने में क्या करना आवश्यक होता है तो

     

    प्रभु के

    विभु त्रिभुवन के

    निकट जाना चाहते हो तुम.....!

    उस मन्दिर में जाने

    टिकट पाना चाहते हो तुम......!

    वहाँ जाना बहुत विकट है

    मानापमान का 

    अवसान! अनिवार्य है

    सर्व प्रथम...........!

    जिस मन्दिर का

    चूल शिखर

    गगन चूम रहा है

    और प्रवेश द्वार

    धरती सूँघ रहा है 

    वहाँ जाना बहुत विकट है। (डूबो मत, लगाओ डुबकी)

    शायद समझ में नहीं आया होगा आप लोगों को इसका अर्थ। देखो कितने बड़े-बड़े मन्दिर बने हुए हैं जिनके शिखर देखने से ऐसा लगता है जैसे आकाश छूने को लालायित हो। इसी पपौरा क्षेत्र के मन्दिरों को देख लीजिए कितनी विशाल शिखरें हैं। आप कितने ही ऊँचे हो लेकिन देखते समय टोपी हो तो टोपी गिर जाये, साफा हो तो साफा गिर जाये और यदि साफा को बाँधनें का प्रयास करोगे तो आप स्वंय गिर जाओगे (श्रोता समुदाय में हँसी) इतना विशाल इतना बड़ा शिखर है मन्दिर का। 

     

    इस प्रकार का आकर्षण देखकर हर कोई व्यक्ति कहता है कि चलो भगवान् के पास जल्दी– जल्दी चलो तो वहाँ पर कहते हैं, खड़े हो जाओ और सावधान होकर सामने देख लो क्या बना हुआ है?'प्रवेश द्वार जो कि धरती सूघ रहा है। वह कहता है तुम सेठ साहूकार हो तो अपने घर के, यहाँ पर तो झुकना ही पड़ेगा। मंदिर निर्माण कराने वालों ने दरवाजे छोटे-छोटे बनाए क्योंकि उनका कहना है कि हम दरवाजा तो बड़ा बनाना चाहते थे किंतु पैसे कम पड़ गए, हमने सारा का सारा पैसा, शिखर बनाने में लगा दिया और हम बड़ा बनाना भी नहीं चाहते किंतु बड़ों को झुकाने का प्रशिक्षण अवश्य देते हैं इस प्रकार के मन्दिर और छोटे-छोटे प्रवेश-द्वार बनाकर। ताकि उनकी थोड़ी रीड़ मुड़ जाये/झुक जाए। जो काम अस्पताल में नहीं होता, वह मन्दिर में प्रवेश करते समय हो जाता है। आप झुककर के आइए, अपने अहंकार को गलाइये, भगवान् के सामने नत मस्तक हो जाइए फिर अपने आप में लीन हो जाइए। फिर वहाँ से वापस लौटने की इच्छा नहीं होगी। इस प्रकार के लक्ष्य को रखकर ही छोटे-छोटे दरवाजे बनाए जाते थे।

     

    लेकिन आज की बात क्या बतायें, जमाना इनलार्जमेंट (विस्तार) का है। लेकिन हमारा तो कहना है कि यदि और कोई सार्टहैंड हो तो उसी का प्रयोग करो ताकि ये लोग झुककर ही नहीं बैठकर के प्रवेश करें उस पवित्र मन्दिर के अन्दर जिसका शिखर गगन चूम रहा है और उन्हें प्रवेश द्वार के छोटा बनाने का रहस्य भी ज्ञात हो जाए। मान को समाप्त करने का यह बहुत आसान तरीका है। अन्यत्र स्थानों पर हमने बहुत सारे मन्दिर देखे लेकिन एक साथ सामूहिक रूप से समतल भूमि पर इतने सारे विशाल शिखरों वाले मन्दिर इस क्षेत्र की ही देन है। लेकिन इस क्षेत्र के आसपास रहने वाले व्यक्ति कहें. हमारी देन है तो नहीं, ऐसा मत कहिए, इनसे सीख लीजिए। इन मन्दिरों पर क्या किसी का नाम लिखा है कि उन्होंने (किसी व्यक्ति का नाम) बनवाया था। एक-एक शिखर के जीणोंद्धार के लिए आज हजारों रुपये भी लगा दिए जाये तो भी यह मजबूती नहीं आ सकती। अभी भी कुछ मन्दिर ऐसे हैं जिनके जीणोंद्धार की कोई आवश्यकता नहीं। इतना महान् कार्य कराने के उपरान्त, इतनी सम्पति खर्च करने के उपरान्त भी किसी के मन में नाम लिखवाने की भावना तक नहीं हुई।

     

    नाम यह मान का प्रतीक है, मान को घटाने के लिए अन्यत्र कोई स्थान नहीं था। इसलिए भगवान् के पास आकर के उनकी पूजा, स्तुति, गुणगान करके घटा रहे हैं और जहाँ तक नाम की बात है सो हमारा नाम आतमराम है। उसे लिखना है तो लिखिए, लेकिन वहाँ पर आतमराम का भी इतना महत्व नहीं है, क्योंकि परमात्मा बैठे हुए हैं। अत: बंधुओ आज तक नाम, काम, पर्यायबुद्धि के वशीभूत होकर जो बहिरात्मा बने हुए हैं उसे छोड़कर अन्तर आत्मा बनना चाहिए। दौलतराम जी अपने छहढाला में क्या कहते हैं ?-

     

    बहिरातमता हेय जानि तजि, अन्तर आतम हूजे।

    परमातम को ध्याय निरन्तर, जो नित आनंद पूजे।

    (छहढाला ३/६)

    कैसे हैं हमारे परमात्मा? अपनी आत्मा के आनन्द में लीन हो चुके हैं। अत: बंधुओं! हमेशा परमात्मा का ध्यान किया करो और अन्तरात्मा बनकर बहिरात्मा को तिलांजलि दे दी। यह नाम उस बहिरात्मा की ओर ले जाने वाला है। नाम का अवसान ही आत्मा और परमात्मा से मेल कराने में कारण है। मन्दिर में प्रवेश करते ही घर, परिवार, धन, संपत्ति सब कुछ समाप्त हो जाता है, बाहर क्या हो रहा है? पता तक नहीं पड़ता और अन्दर भगवान् और भत के अलावा कुछ रहता ही नहीं। ऐसे-ऐसे मंदिर हैं जहाँ पर बैठकर के घंटों-घंटों सामायिक की जा सकती है ध्यान लगाया जा सकता है ऐसा करने के उपरान्त भी दिल नहीं भरता। किन्तु जो व्यक्ति पेट भर खाकर के भीतर जायेगा तो वह बैठ नहीं सकता ध्यान नहीं लगा सकता, क्योंकि वहाँ पर एयरकंडीशन्ड (वातानुकूलित) व्यवस्था के मंदिर हैं। गर्मी के दिनों में लू नहीं लगती और सर्दी के दिनों में ठंडी नहीं लगती। ऐसे वातानुकूलित हैं ऐसे वातानुकूलित हैं कि बस भगवान् से ही बात होती हो। केवल इन्ट्रेस्ट (रुचि)चाहिए। भीतर जाने के उपरान्त घंटों-घंटों मान का अवसान हो सकता है। भगवान् का दर्शन मात्र होने से भक्त अपने आपको धन्य मानने लगता है। वह कहता है कि भगवन् आप तो धन्य हो ही आपका जीवन तो महान है ही किन्तु आज में भी धन्य हो गया, कृतकृत्य हो गया, यह दोनों नेत्र सफल हो गए आपके दर्शन पाकर।

     

    प्रभु का जीवन कितना मुलायम है कितना नाजुक है, बिल्कुल शुद्ध सौ टंच सोने के समान और हमारा जीवन कितना पाषाण जैसा कठोर है। भगवान् के प्रति हम क्या कर सकते हैं, हमारे पास है ही क्या? केवल छोड़ने के लिए राग-द्वेष, विषय कषायों के अलावा और कुछ भी तो नहीं है। हम किन वस्तुओं को दिखाकर के खुश कर सकते हैं? और हमारी वस्तुओं को देखकर के खुश होने वाले नहीं हैं भगवान्! लेकिन उन वस्तुओं के विमोचन से अवश्य खुश होते हैं भगवान। लेकिन हम आपके समान कषायों को छोड़ने के लिए समर्थ नहीं हैं। आप तो बहुत ही बलवान हैं! कषायों को छोड़ना ही सही मायने में छोड़ना है, त्याग है।

     

    इन्द्रभूति ने ज्योंही देख लिया, बस उपदेश की कोई आवश्यकता नहीं। पहले प्रभु का दर्शन किया मानस्तम्भ का दर्शन हुआ, इसके पहले इन्द्रभूति ने उपदेश नहीं सुना और बिना उपदेश के ही सारी की सारी बात उन्होंने सुन ली, जो भगवान् महावीर कहना चाहते थे। वह (इन्द्रभूति) बिना बोले ही समझ गए-क्योंकि उनका मान गल गया था और मार्दवता, मुलायमपना आ गई थी। जो मान था उसका प्रमान (ज्ञान) के रूप में आविर्मान होने लगा। वह तो पहले से ही सब कुछ जानते थे उन्हें अब सुनने की कोई आवश्यकता नहीं थी। जो ज्ञान उल्टा हो गया था वह सुलट गया, सम्यग्ज्ञान में परिणत हो गया ।

     

    गदगद कण्ठ से वह कह रहा था, भगवन्! अभी तक मैं अज्ञान दशा में था भारी भूल कर रहा था, आज आपको देखने से मेरी आँखें खुली हैं, आपके चरणों में मेरा निश्चत ही भला हो जायेगा, क्योंकि आत्मकल्याण का सही तो यही मार्ग है। ऐसा विचार कर अपने जीवन को समर्पित कर देता है। फिर बाद में दिव्यध्वनि खिरी है। पहले शिक्षा नहीं, पहले दीक्षा। दीक्षा का अर्थ है संकल्पित होना अर्थात् कषायों का विमोचन। इस प्रकार संयमित होने के उपरान्त केवलज्ञान प्राप्त करने में देरी नहीं लगती, मात्र एक अन्तर्मुहूर्त ही पर्याप्त है।

     

    गौतम स्वामी भगवान् महावीर के प्रथम शिष्य बन गए, गणधर की उपाधि से विभूषित हो गए और 'डायरेक्ट डिसायपल ऑफ वर्द्धमाना' और दिव्यध्वनि खिरना प्रारंभ हो गई। अन्त में एक विशेष बात और कहूँगा। वह यह है कि शिष्य और शीशी को डाँट लगाना अनिवार्य होता है। यदि शिष्य और शीशी को डॉट नहीं लगाते तो काम समाप्त हो जायेगा, अन्दर भरी हुई औषध गिर जायेगी। किन्तु यदि आप डाँट लगाते है तो जो काम आप चाहते हैं, उससे सौ गुना और हो जाता है। इसका मतलब क्या हुआ? तो मतलब यह हुआ कि रोग निवृत्ति के लिए आप वैद्यजी या डाक्टर साहब से दवाई लाए थे, ध्यान न रहने के कारण आप शीशी का ढक्कन लगाना भूल गए और किसी का हाथ लगने से वह लुढ़क गयी तो सारी की सारी दवाई मिट्टी में मिल गयी, खराब हो गई। और हमारा जो उद्देश्य था वह अधूरा रह गया। मात्र खाली शीशी हमारे पास बची रहेगी जिसकी कोई विशेष आवश्यकता नहीं थी। किन्तु.....नहीं! हम इस प्रकार सावधानी पूर्वक मजबूती के साथ डॉट लगाए कि शीशी लुढ़क भी जाये तो भी अन्दर का माल (औषधि) ज्यों की त्यों सुरक्षित बना रहे। अर्थ यह हुआ कि दवाई से भी अधिक महत्व डाँट (ढक्कन) का है।

     

    इसी प्रकार शिष्य में, गुरु महाराज, भगवान् बहुत माल भर देते हैं। लेकिन ऊपर से यदि डॉट नहीं लगाते हैं तो गड़बड़ हो जाता है। अत: डाँट लगाना आवश्यक है। लेकिन होशियारी की बात है। कहीं डाँट लगाते समय जरा भी चूक गए तो डाँट ही अन्दर चली जाती है (श्रोताओं में हँसी।) फिर निकालना बहुत मुश्किल हो जाता है। आप फिर दवाई निकालना चाहेंगे तो शीशी का कण्ठ छोटा होने के कारण बार-बार वह गले में फंस जाती है तो बाहर का बाहर और भीतर का भीतर ही रह जाता है।

     

    एक बार अपने जीवन में एक घटना घटी थी, बिल्कुल भीतर डॉट चली गई थी, मैं बारबार सुई के द्वारा थोड़ा ऊपर खिसकता था जिसके कारण उसके छिलके तो आने लगे छोटे-छोटे, लेकिन वह डॉट नहीं निकल रही थी। बहुत परिश्रम करने के उपरान्त डाँट निकाल पाए तो मैंने सोचा भैय्या! बड़ा कठिन काम है डाँट लगाने का। अब पुन: उसको कैसे लगाए? तो डॉट के ऊपर थोड़ा सा कागज चिपका दिया दो तीन राउंड फिर धीरे से दबा दिया। किन्तु ऐसा नहीं दबाते कि डॉट और अंगूठा दोनों ही अन्दर चले जाये (श्रोता समुदाय में हँसी)

     

    अतः बंधुओ समय आपका हो रहा है, मैं बस यही कहना चाहूँगा कि यदि शिष्य और शिशु या शीशी के द्वारा काम लेना चाहते हो, अनादिकाल से प्रवाह रूप से आई हुई परम्परा को चलाना चाहते हो तो ऐसे डाँट लगाओ कि वह बार-बार कहें कि और एक बार डॉट लगा दो और अपना और दूसरों का सभी का हित हो सके। हमें अपने अन्दर बैठे हुए जो क्रोध, मान, माया, लोभ रूपी शत्रु हैं उन्हें समाप्त करना है उन्हें अपनी आत्मा की सीमा से अनन्त काल के लिए बाहर भगाना है। यदि हम ऐसा करेंगे तब कहीं जाकर हमारी आत्मा सिद्धों के समान शुद्ध बन सकती है पवित्र बन सकती है और उस परम ‘मार्दव धर्म' की शरण में जाकर ही यह आत्मा अनंत सुख का भाजन बन सकती है......|


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