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मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज
  • सर्वोदयसार 15 - दूध आत्मा व घी परमात्मा है

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    पाषाणेसु यथा हेम, दुग्धमध्ये यथाघृतम्।

    तिलमध्ये यथा तैल देहमध्ये तथा शिव: ||

    काष्ठमध्ये यथा वह्निशक्ति रूपेण तिष्ठति।

    अयमात्मा शरीरेषु यो जानाति स पण्डितः॥

    दूध में घृत विद्यमान है, किन्तु उसे प्राप्त करने के लिये एक निश्चित क्रिया की जाती है। घृत बनाने के लिये मथना तथा तपाना आवश्यक है। जिस प्रकार पाषाण में स्वर्ण, तिल में तेल, काष्ठ में अग्नि तथा दुग्ध में घृत स्वभाव से विद्यमान है उसी प्रकार प्रत्येक आत्मा में परमात्मा की विद्यमानता स्वभाव से ही है कहीं बाहर से नहीं आई ।


    विज्ञान के इस युग में भी सुगंधित घृत की प्राप्ति के लिये प्राचीन पद्धति ही अपनायी जाती है। निश्चित प्रक्रिया से स्वर्ण, तेल, घृत निकालने के पश्चात् शेष पदार्थ मूल्यहीन रह जाता है। तेल निकाला तिल गायब, घृत निकाला दूध गायब। अनन्त काल से प्रभु भीतर सोया है उसे साधना के बल पर एक बार जगा लें तो इस देह के बंधन से मुक्त हो सकते हैं। धर्मानुरागी बंधुओं! प्राप्त हुए इस शरीर से क्यों मोह करते हो इस काया की अमरता नहीं है। शरीर के मिलने तथा बिछुड़ने की यह क्रिया अनादि काल से जारी है तथा अनन्तकाल तक जारी रहेगी। गले का हार स्वर्ण आभूषण होता है, पाषाण नहीं। पाषाण से हम स्वर्ण को निकाल लेते हैं किन्तु कैसी विवशता है कि हम परमात्मा की प्राप्ति का यत्न नहीं करते, शरीरका मोह नहीं छूटपाता। देखिए कष्ट में अग्नि रूप शक्ति है पर वह दिखती नहीं, शक्ति का उद्धाटन होते ही लकड़ी जलकर राख हो जाती है। काष्ठ जलने के पूर्व भी अग्नि नहीं दिखती और जलने के बाद भी अग्नि नहीं दिखती इसी तरह इस देह में विद्यमान आत्मा का स्वभाव है।


    दूध में जामन डालने के साथ ही क्रिया आरम्भ हो जाती है। दूध की भारी मात्रा को जमाने के लिये चम्मच भर जामन ही पर्याप्त होता है। जामन डालते ही दूध का स्वरूप परिवर्तित होने लगता है तथा उसके कण एकत्र हो जाते हैं निश्चित अवधि के पश्चात् दूध का रूप दही में बदल जाता है। अब इसमें दूध का कोई गुण नहीं है। स्पर्श, स्वाद, गंध सब अलग। फिर क्रिया आरम्भ होती है मथने की, इस क्रिया के पश्चात् मथे पदार्थ से अलग करते हैं नवनीत, नवनीत निकल गया छौंछ रह जाता है मूल्यहीन । जैसे कि आत्मा निकलते ही शरीर व्यर्थ हो जाता है। फिर नवनीत को तपाकर घृत की प्राप्ति होती है। बस इसी तरह की पद्धति, इसी तरह का मार्ग मोक्ष का भी है। तपाने से कमियाँ (विकृति) जलकर पृथक हो जाती हैं। घृत पृथक हो जाता है, इस बचे हुए शेष पदार्थ को मरी कहते हैं। घृत निकल गया मरी नीचे रह गई, अब वह मात्र शुद्ध घृत है जो कभी अब दूध नहीं बन सकता। इसे इस तरह भी समझ सकते हैं कि अर्हत भगवान् नवनीत के समान हैं सिद्ध भगवान् घी के समान है तथा हम सभी दूध के समान हैं। इसमें धर्म संस्कारों की जामन डाल कर जमाओ और फिर वैराग्य की मथानी से स्वयं का मंथन करो। सब कुछ आपके सम्मुख है, आवश्यकता है मात्र ज्ञान के उद्धाटन की। दूध और घी में बहुत अन्तर है उसके गुण धर्म पृथक्-पृथक् है। देख लीजिये इस अंतर को आप। दूध में छवि नहीं दिखती किन्तु तपाकर प्राप्त घृत में आपकी छवि दिखती है तथा तल के दर्शन भी हो जाते हैं। घी में हम भी दिखे और नीचे क्या है यह भी दिखे क्योंकि घृत स्वपर प्रकाशक है। आरती घृत से होती है क्योंकि वह शुद्ध है, दूध से आरती सम्भव नहीं। भगवान् भी घृत की आरती से ही प्रसन्न होते हैं, दूध में घृत की बाती भी डाल दो तो कुछ क्षण पश्चात् वह भी बुझ जायेगी जबकि दूध में घृत भी विद्यमान है किन्तु गुण धर्म घी का नहीं है। वह इसलिए कि तपकर शुद्ध होकर ही घृत का रूप रंग गुण प्राप्त होता है।


    घृत के ऊपर मनों-मन टनों-टन दूध की मात्रा डालने पर भी घृत ऊपर आ जाता है। दूध के ऊपर आसन होता है। घी का। ऐसा ही आत्मा परमात्मा का संबंध होता है। दूध रूपी आत्मा से घृत परमात्मा का आसन सदैव ऊपर होता है। चाहे मात्रा में दूध कितना भी क्यों न हो। घी दूध में था, अलग हुआ, ऊपर जा बैठा उच्चासन पर, ऐसे ही ऊपर उठने के लिये परीक्षा से गुजरना होता है। घी ने भी अग्रिपरीक्षा देकर उच्चासन पाया है। मूल्य की दृष्टि से भी घृत मूल्यवान है। लेकिन भैया! यह घी सबको पचता नहीं क्योंकि हमारा लीवर कमजोर है। दूध में घृत मिलाकर भी फेंटो तब भी दूध घृत एक नहीं हो सकता। बंधुओ! सिद्ध परमेष्ठीरूपी घृत की महिमा गाते-गाते जिह्वा नहीं थकती किन्तु इस बनने की प्रक्रिया में सबसे बड़ी बाधा है मोह की। दूध का मोह नहीं छूटरहा। इस मोहभाव को छोड़कर यदि हम अभ्यास करना शुरू कर दें तो हमें उपलब्धि हो सकती है। दूध से घी की प्राप्ति में मंथन, तपन के साथ निश्चित समय की भी आवश्यकता है। इंतजार करना होता है।


    सर्वोदय क्षेत्र में आकर आप लोगों ने इन आठ दिनों में पूजन किया है। भक्ति आराधना की है। अब वापस जाने की बेला में एक-एक मथानी आपको मंथन हेतु जरूर ले जाना चाहिये यदि आप घृत रूपी मुक्ति को चाहते हो तो। आप सभी ने दान दिया है, धन का सदुपयोग किया है किन्तु यह संसारी प्राणी सब कुछ करते हुए भी हिसाब-किताब लगाता है यह इसकी कमजोरी है। मैंने इतना दान दिया, यह काम करवाया, इतना खर्च किया। मैं आप लोगों से पूछना चाहता हूँकि आपकी दुकान पर जब इनकमटेक्स अधिकारी आते हैं। तब आप सोच-विचार, हिसाब-किताब करते हैं क्या कि कितना दिया? नहीं करते क्योंकि वहाँ तो बचना है और बहुत सारा माल जो दबा रखा है उसे बचाना है। बिना किसी को बताये आप दे देते हैं। इसी तरह की उदारता यदि धर्म के क्षेत्र में भी आ जाये तो फिर कहना ही क्या।


    इस बात को आप गम्भीरता पूर्वक सोचें और जीवन में उतारने का प्रयास करें। एक बार यह आत्मा घृत के समान परमात्मा पद को प्राप्त कर ले तो फिर लौटकर इस संसार में आना ही नहीं पड़ेगा। वह परम पद, शुद्ध पद, हम सबको प्राप्त हो इसी भावना के साथ।


    'महावीर भगवान् की जय'


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    रतन लाल

      

    सोने की शुद्धता पाने के लिए उसे तपाना ही पड़ता है

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