सरिता के गहरे स्थल पर जल ठहरा हुआ सा लगता है, किन्तु यह भ्रांति है वस्तुत: प्रवाह, ठहरा हुआ नहीं है। इसी प्रकार मानव जीवन का प्रवाह भी सदा गतिमान रहता है उसमें ठहराव का आभास भ्रांति मात्र है। नगर-नगर, डगर-डगर चलकर पवित्र पूर्वजों ने सन्मार्ग बनाया था, उनके चरण चिह्नों का अनुसरण कर यात्री को सार्थक यात्रा करना श्रेयस्कर है। वर्षों की साधना के पश्चात् अतीत में पूर्वजों ने रास्ता बनाया था। भविष्य की चिंता समाप्त करने के लिये अतीत का ज्ञान पर्याप्त है। हमें अतीत ज्ञात है किन्तु भविष्य अज्ञात है।
नदी बहती जाती है किन्तु उसके तट पर बने घाट ज्यों के त्यों रहते हैं। ये घाट सरिता के समीप होकर भी प्यासे हैं क्योंकि घाट स्थिर है, यह स्थिरता ही इसकी अतृप्तता का कारण है। इसी तरह ठहरा हुआ मनुष्य भी प्यासा रहता है, घाट पर आकर भी प्यासा। प्यास बुझाने के लिये प्राणी घट-घट की यात्रा करता है। किन्तु अन्तर्घट की बात नहीं करता।'प्राण जाय पर प्रण न जाई, रघुकुल रीति सदा चली आई'। इस तरह का प्रण अन्तर्घटना से मिलता है। जिसके घट में ऐसे घटक का निर्माण हुआ वह अमृत घट बन गया। नहीं तो घाट पर बैठा फिर भी प्यासा। नर्मदा कहे जब प्यास नहीं बुझा सकता तो घाट पर आया क्यों?
घाट नर्मदा की रक्षा के लिए नहीं बनाया गया। अरे, वह तो भूले भटके राही की प्यास बुझाने के लिये बनाया गया है।किन्तु प्यास बुझे तो कैसे? वह तो घाट पर आकर खड़ा है, घट भरने के लिये। नर्मदा भरी है, भरी रहेगी। फिर भी घाट पर जाकर घट नहीं भरे तो, नर्मदा क्या करें? एक बार झुक जा, अपना घट भर ले तो यह घट अमृत घट बन जायेगा प्यास बुझ जायेगी। अपनी यात्रा पर बडो। रुको नहीं, रुकना जीवन का उद्देश्य नहीं और आप रुक सकते भी नहीं। चलना तो है ही, संकल्प पूर्वक चलो जीवन प्रशस्त होगा। मोक्ष मिलेगा। रास्ता भी गायब हो जाता है जहाँ मंजिल आ जाती है। मोड़ पर अथवा चौराहे पर रास्ता गायब नहीं होता। जिसने मार्ग पहचान लिया वह अविरल बढ़ता ही रहता है। आवश्यकता है केवल मार्ग देखने की, और उसे देखने के लिये कोई अलग से प्रशिक्षण की आवश्यकता नहीं। आँख खुलते ही मार्ग दिखने लगता है।
बंधुओं! यहाँ पर घाट भी है और प्याऊ भी लगा है किन्तु पीने की तो सोचो। पनघट पर आकर प्यासे हो। पनघट देखकर भीतर का घट बाध्य करता है। पनघट के आसपास हरियाली रहती है तथा ज्ञात होता है कि यहाँ पानी मिलेगा। भगवान् को हम एक प्रकार से नदी का प्रवाह मान सकते हैं। पाट को शास्त्र के रूप में तथा भूले भटके यात्री के लिये गुरु प्याऊ के समान है। नदी का प्रवाह तो बोलेगा नहीं, शास्त्र रूपी घाट भी नहीं बोलता, किन्तु प्याऊ के रूप में बैठे हुये गुरु जीवंत है वह दिग्भ्रमित राही की प्यास बुझाने वाले हैं इसीलिये वे गोविंद से भी श्रेष्ठ हैं।
भारतीय संस्कृति में चरणों का महत्व है मस्तक का नहीं। यह मस्तक चरणों में झुकाने के लिये है। तथा आस्था की विद्यमानता हृदय में है। मस्तिष्क में शंकायें, आशंकायें, जिज्ञासायें रहती हैं तथा हृदय में चरण के लिये आस्था। हृदय साफ रहने पर विज्ञान की तो क्या 'केवल ज्ञान' की भी प्राप्ति हो सकती है। राग-द्वेष रहित गुरु के द्वारा ज्ञान प्राप्त कर प्यास बुझाओ। ऐसी आत्मा संसार को भी तृप्त करा सकती है। किन्तु भौतिकता से नहीं। भौतिक प्यास बुझाने से स्थायी तृप्ति नहीं मिलती है। घाट इसीलिये प्यासा है आज तक क्योंकि वह प्रवाह को अपने अन्दर नहीं आने देता, अडिग है स्थिर है झुकता नहीं। नर्मदा का प्रवाह आगे बढ़ जाता है, घाट प्यासा रह जाता है। इन सबमें महत्वपूर्ण बात तो यह है कि इस सबके पहले हमारे अन्दर प्यास बुझाने की रुचि/भावना होनी चाहिए। यदि अन्दर प्यास न हो तो वो पानी पीना उसी तरह हानिकारक हो जाता है जिस प्रकार बिना भूख के किया गया भोजन, इससे रोग की वृद्धि ही होती है। वस्तुत: हमें इन सब बातों का ज्ञान होना चाहिए। यह ज्ञान कहीं बाहर से नहीं आता, यह तो आत्मा का स्वभाव है। जिसकी पहिचान/अनुभूति इन हरे भरे जंगलों में आराधना कर रहे संतों से हो जाती है। संत के सान्निध्य में सूखे वृक्ष भी हरे भरे हो जाते हैं, ठीक वैसे ही जैसे पनघट के समीप हरियाली विद्यमान रहती है।
संकल्प और साधना का बहुत महत्व है बन्धुओं! यह बात हम सभ्यता से दूर कहे जाने वाले आदिवासियों से सीख सकते हैं। वह जंगलों में रहते हैं। जंगली जानवरों, हिंसक पशु, सिंह आदि के साथ उनका मेल-मिलाप रहता है। उनके पास तरह-तरह की साधनायें रहती हैं, मंत्र-तंत्र की शक्ति रहती है। जिनके बल पर वह उन हिंसक पशुओं को भी नियंत्रित करते हैं। साधना के बल पर उनकी मनोकामनायें पूर्ण होती हैं। और उनकी दृढ़ता तो देखिये कि वह सभ्य समाज द्वारा प्रदत प्रबंधों का भी प्रयोग नहीं करना चाहते। यह सब साधना की ओर लक्ष्य रखने से होता है।
अंत में आप सभी से यही कहना चाहूँगा कि अन्तर्घट की यात्रा पूर्ण होते ही, घट अमृत से भर जाता है। इससे अनन्तकालीन रोग भी चला जाता है तथा स्व-पर कल्याण होता है। इसी में जीवन की सार्थकता है। जिस प्रकार सरिता का अंतिम लक्ष्य सागर है उसी प्रकार जीव का अंतिम लक्ष्य मोक्ष है आवश्यकता है केवल उस ओर बढ़ने की।